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ईश्वर पाईड पाइपर है
ईश्वर पाईड पाइपर है
मेरा एक घर है मगर मैं लौट नहीं पाया किसी भी तीज- त्यौहार पर मैंने घर कब छोड़ा था मुझे याद नहीं है मगर ये याद है किसी ने बुलाया था मुझे किसने, याद नहीं पर अब भी लगता रहता है कोई बुला रहा है हां! कोई बुला रहा है
अखबार में पढ़ा है दूर एक देश में लोग लड़ रहे हैं एक तानाशाह के खिलाफ क्या वहां से कोई बुला रहा है
बन रही है दवा एक बीमारी के इलाज़ की प्रयोग के लिए चाहिए एक आदमी ��्या वहां से कोई बुला रहा है
एक ऐसी भाषा जिस…
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तथाकथित प्रेम
अलाप्पुझा रेलवे स्टेशन पर,
ईएसआई अस्पताल के पीछे जो मंदिर हैं
वहाँ मिलते हैं,
फिर रेल पर चढ़कर दरवाजे पर खड़े होकर,
हाथों में हाथ डालकर बस एक बार जोर से हँसेंगे,
बस इतने से ही बहती हरियाली में बने ईंट और फूस के घरों से झाँकती हर पत्थर आँखों में एक संशय दरक उठेगा,
डिब्बे में बैठे हर सीट पर लिपटी फटी आँखों में
मेरा सूना गला और तुम्हारी उम्र चोट करेगी,
मेरा यौवन मेरे साधारण चेहरे पर भारी,
तेरी उम्र…
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लड़कियां
लड़कियां होती है लकड़ी की तरह एक सिरे से दूसरे सिरे तक जलती रहती है ताउम्र कभी अंदर से तो कभी बाहर से कभी अपने घर से तो कभी ससुराल से कभी पुरुषों से तो अभी अपने ही कुनबे से लड़कियां बढ़ती है लकड़ी की तरह
वह होती है अंदर से मजबूत पुरुषों की तुलना में लेकिन उन्हें सहने पड़ते है सैकड़ो कारतूस दागी जाती है सीने पर गोलियां जख्मी कर दिया जाता है फिर भी वह हर रोज नए की उम्मीद में डूब जाती है फिर से गढ़ती है सपने ब��नती है…
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जब रंगों की बात चलती है
जब रंगों की बात चलती है
जब रंगों की बात चलती है
बहुत बुरे रंग में भी तुम ख़ास कुछ
ढूंढ़ लेती हो
तुमने बतलाया कि ऎसा हमारे
प्रेम की वज़ह से होता है
मैं तुम्हारी पसन्द के रंगों वाले
कपड़े और जूते पहन कर
कुमार गंधर्व के आडियो कैसेट खरीदने
रविवार की शाम को निकलता हूँ घर से
मैं जहाँ पर काम करता हूँ
वहाँ ऎसे रास्ते होकर पहुँचता हूँ
जिस रास्ते में
तुम्हारी पसन्द के रंग दिखते हैं
और जिस रास्ते के लोग
अच्छे रंगों के मुंतज़िर…
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वो मुस्कुरा देती है
वो मुस्कुरा देती है
हर बात पर मुस्कुरा देती है औरत अपने गम को कुछ युं छुपा लेती है बच्चों के बिगड़ने का घर के उजड़ने का विधवा है तो पति को खा जाने का पति प्यार करता है तो उसे गुलाम बनाने का इल्जामों का बोझ उठा लेती है शब्दों के तीर से जीवन भर भेदा जाता है उसका अस्तित्व सिर्फ घर की शांति के लिए खुन का घूंट पीकर बेकसूर होते हुए भी वो गालियां खा लेती है तन मन न्योछावर कर देती है घर को मकान बनाने में फिर भी पाई पाई के लिए है तरसती सब…
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#Hindagi#hindi#Hindi Kavita#रूबी प्रसाद#रूबी प्रसाद की कविता#वो मुस्कुरा देती है#स्त्री विमर्श की कविता
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आओ फिर से दिया जलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाईं से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
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प्रेम
लड़कियां डरती है प्रेम से प्रेम के इकरार से क्योंकि उन्हें डर प्रेम से नहीं लगता वो डरती है प्रेम के अंजाम से
लड़के डरते है प्रेम से प्रेम के इजहार से क्योंकि उन्हें डर प्रेम से नहीं लगता वो डरते है प्रेम में इनकार से
पर कितना भी रोके हम प्रेम में पड़ने से खुद को हम भाग नहीं सकते प्रेम से क्योंकि हम प्रेम को नहीं चुनते प्रेम हमें चुनता है
रूबी प्रसाद की अन्य रचनाएँ।
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हमसफ़र
यूँ ही अचानक साल भर बाद मेरे पते पर तुम्हारा खत पहुँचना जैसे सोती रात में नीरव खड़े तालाब में हवा को चीरता गिर आया हो कोई उल्का पिंड।
वो पता जो कभी सही था जो जानता था तुम्हारी आहटों को पहचानता था तुम्हारी पाज़ेब को जिसने जिया है तुम्हारी खामोशी को जो अब चश्मा ढूँढता है तुम्हारी लिखावट पहचानने को।
मेरे लिए आसान कभी नहीं रहा पढ़ना! तुम्हारा लिखा हुआ।
तुम नहीं जानती कितनी ऊर्जा भरनी होती है फेंफड़ों में ताकि साँसे चलती रह���
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तू....
तू….
फलक दूर था पर सितारे दस्तरस थे, एक दौर था जब तू और मैं हम थे। मुझे अच्छे से याद है साख पर सोयी थी , मेरे हाथो में तेरा हाथ था। तुम गुनगुना रहे थे मैं मुस्कुरा रही थी। लड़ कर जब हार गए थे दोनों, तो बस ऐसे ही एक दूजे को मना रहे थे दोनों। वो बारिश का दिन था कुछ बुँदे , तेरे हाथो पर टपक पड़ी थी खिड़की के कोने से सरक कर, आदतन उंगलिया फेर दी थी तुमने मेरे हाथो पर अपना नाम लिख कर। और हर बार की तरह चाशनी में डुबोये लफ़्ज़ गूंज…
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सहिष्णुता
मेरे गले में हज़ारों शीशें क़ैद हो गए हैं अब मैं चीख़ नहीं सकती मेरी आँखों में इतनी रोशनियाँ छन कर आयी कि मुझे अँधेरा दिखना बन्द हो गया है मेरे कानों को आदत पड़ चुकी है अँधेरी गुफाओं के भीतर के शोर की मेरे हाथ सुन्न हो गए हैं मैं नहीं खुरच सकती मेरे शरीर से लिपटे पागलपन को मेरी नसों में संस्कारों ने ऐसी पैठ जमायी हैं कि मुझे गला घोंटना न आया संसार में लिप्त फ़सादों का
परन्तु मैंने लिखे उपाय पाताल में गिरते…
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क़िस्सों की ज़रूरत और उनके पीछे झाँकती खिलंदड़ मुस्कान: जूलिया रॉबर्ट्स
क़िस्सों की ज़रूरत और उनके पीछे झाँकती खिलंदड़ मुस्कान: जूलिया रॉबर्ट्स
कहानी में नाटकीयता की अवधारणा को लेकर हॉलीवुड ने अपने सिनेमा को शिखर तक पहुंचाया है। ‘ड्रामा’ शब्द में जो मंतव्य छुपा हुआ है वही कहानी और अभिनय को लेकर प्रयुक्त हुआ। माने सबकुछ ‘नकली’ कुछ भी असली नहीं या दूसरे अर्थों में ‘सच के जैसा आभास कराता हुआ’। महान फ्रांसीसी निर्देशक ज्यां लुक गोदार ने कहा था कि सिनेमा दुनिया का सबसे खूबसूरत धोखा है। सिनेमा भ्रम रचता है और यही भ्रम उसकी असली ताक़त है। जहां…
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नग्नता
कभी पेड़ों को नग्न होते देखा है? यदि मान ले कि हमारे कृत्य पेड़ हैं तब हमारी अंतरात्मा पतझड़ में पेड़ों की नग्नता देख शर्मसार हो जाएगी
हम प्रेम करते है हमें प्रेम है मूसलाधार बारिश के बाद सोंधी महक से हमें प्रिय है जनवरी के महीने में नीले निरभ्र से गिरते रुई के फ़ाहें
हमें प्रेम हैं अपने करीबियों से, वस्तुओं से, स्थानों से और धर्म से हम प्रेम में इस प्रकार अंधे हैं कि हमनें प्रेम के रंग बाँट लिए हैं हमें प्रेम का…
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बंदिशों का एहसास
आज चल रहे हालात देख कर छिपाकर रखने लगा हूँ अपनी मासूम कविता, ग़ज़ल कहानियों को अपने ही आलेख, व्यंग्य की बुरी नज़रों से
दोनों जाये हैं, एक ही कलम से, फिर भी मन नहीं मानता उन्हें एक साथ अकेले छोड़ने को, जाने कब कौनसा आलेख हवस की स्याही में डूब जाए, और किसी कहानी के सतित्व पर लांछन लगाए;
क्या पता कोई व्यंग्य कहीं अपराधी तृष्णा बनकर उग आए, और किसी कविता कि मासूमियत निगल खाए!
मन करता है खींच दूँ एक दीवार आलेख के आर-पार, ताकि…
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प्रतीक्षा
दूरियां विभाजन का प्रतीक नहीं होती हम भी अलग नहीं है बस हमारे मध्य केवल दूरियां आ गयी है हमारे हाथ की रेखाएँ बस पथ की बाधाएं मात्र है दो देशों की सीमाएँ नहीं
हम विभाजित नहीं है मुझे आज भी प्रतीक्षा है तुम्हारे लौटने की
जैसे किसी ठूँढ को होती किसी कौंपल के फूटने की रेगिस्तान के टीलों को मीठे पानी की पसीने से लथपथ किसान को खिलती गेंहू की बालियों की
माँ बताती है चाँद में कोई दाग नहीं है वहाँ सदियों से एक बूढ़ी…
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वो जी रही है
वो जी रही है
वो जी रही है उसके स्तनों में जन्म ले रहा था एक गहरा गड्ढा जिसने ममत्व को निचोड़ फेंका और भर दिया था उसमें विष और मवाद लेकिन वो जी रही है
उसके स्तन करते थे तुम्हें आकर्षित जब तुम देखते थे उसे ललचायी नज़रों से जब भीड़ में तुम अचानक छू जाते थे उसके उभारों को वो समेट लेती थी खुद को वो रहती थी बेचैन और आँखों में आँसू भर कोसती थी खुद के गलत शरीर, गलत उम्र, गलत त्वचा और गलत लिंग को
आज तुम्हारी आत्मा भयभीत हो जाती है उसे…
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इतना होना बचा रहा
इतना होना बचा रहा
जो तुम्हारा नहीं तुम्हें मिल गया भी तो क्या ढोते हुए कहाँ से कहाँ जाओगे चिड़िया चली जाती है पेड़ पंख नहीं उगाता जड़त्व बाँधकर वहीं खड़ा रहता है फ़सलें चली जाती हैं किसान वहीं रहता है पेट पर कपड़ा बाँधे तना रहता है पथिक चले जाते हैं पत्थर वहीं रहता है दीर्घवृत्तीय परिसीमाओं से मिट्टी पकड़े धँसा रहता है लोग चले ज���ते हैं मकान वहीं रहता है नींवों की क़ब्ज़ में अपना खंडहरपन बुनता रहता है तुम जो सोचते हो
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उधार
एक पहाड़, जिसके अंतिम छोर तक गूंज सकती हो मेरी आवाज़ जिसके काँधें पर सर रखता हो बादलों का गुच्छा और रोता हो ज़ार ज़ार
एक नदी, जिसके किनारे घण्टों बैठकर पानी में करूँ पैर तर जिसके दोनों ही किनारे हों सात समंदर पार
एक पेड़, जिसकी शाखाएं चाहती हैं मुझसे गले लगना जिसकी छांव तले बसा सकता हूँ, पूरा संसार
एक फूल, जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर फिर उसी पौधे में लगा सकूँ जिस पर एक तितली का करता होगा वह इतंज़ार !
यही सब मुझे…
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#बोलताकाग़ज़ boltakaagaz#उधार#चकमक#बादलों का गुच्छा#बोलता काग़ज़#भोपाल#मुझे जीने के लिए चाहिए#मुदित श्रीवास्तव#हिन्दी#हिन्दी कविता
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