संदूक पुरानी यादों का!
नयी यादों का पिटारा तो लिए घूमता हूँ
उन्हें मैं अक्सर उलटता पलटता रहता हूँ
पिटारे को मैं झाड़ता पोंछता भी रहता हूँ
उन यादों को धूप हवा लगवाता रहता हूँ!
मगर मेरी पुरानी यादों की भी कमी नहीं
बड़ा सा संदूक है मेरे पास उन यादों का
दिल के किसी अंधेरे कोने में रखा है मैंने
ख़ासा भारी है अक्सर बन्द पड़ा रहता है!
हर जगह उठाए घूमना मुमकिन भी नहीं
वो संदूक रोज़ रोज़ खुलता भी कहाँ है
गर्द की परतें जमी नज़र आती हैं उसपर
अक्सर वक़्त का दीमक दिखाई देता है!
दिल की कोई टीस संदूक खोल देती है
जब पुराने ज़ख़्म कोई कुरेद देता है मेरे
या फिर कुछ मीठी यादों के झोंके कभी
लाएँ उमड़ते जज़्बात संदूक की जेर मुझे!
अक्सर सोचा अब संदूक खोलता ही रहूँ
झाड़ू पोंछूँ यादों को हवा मैं लगवाता रहूँ
देखूँ उमड़ते सवालों के कोई जबाब मिलें
शायद भटकते जज़्बात का ये तूफ़ान टले!
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#काव्य_कृति @KavyaKriti_ और #काव्य @kavyaoftheday पर दिनांक 29 मई 2021 के कार्यक्रम👇
#शेरजंग_गर्ग
#जन्मजयंती💐
#काव्य_कृति ✍️ #काव्य✍🏻
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#हुल्लड़_मुरादाबादी
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कार्यक्रम, सौजन्य :
आरती सिंह @AarTee33,
नरपति चंद्र पारीक @pareeknc7
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Hindi kavya kosh ki nayi pahal Kavya pratiyogita
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kids poem
चित्रकार सुनसान जगह में, बना रहा था चित्र,
इतने ही में वहाँ आ गया, यम राजा का मित्र।
उसे देखकर चित्रकार के तुरत उड़ गए होश,
नदी, पहाड़, पेड़, पत्तों का, रह न गया कुछ जोश।
फिर उसको कुछ हिम्मत आई, देख उसे चुपचाप,
बोला-सुंदर चित्र बना दूँ, बैठ जाइए आप।
डकरू-मुकरू बैठ गया वह, सारे अंग बटोर,
बड़े ध्यान से लगा देखने, चित्रकार की ओर।
चित्रकार ने कहा-हो गया, आगे का तैयार,
अब मुँह आप उधर तो करिए, जंगल के सरदार।
बैठ गया पीठ फिराकर, चित्रकार की ओर,
चित्रकार चुपके से खिसका, जैसे कोई चोर।
बहुुत देर तक आँख मूँदकर, पीठ घुमाकर शेर,
बैठे-बैठे लगा सोचने, इधर हुई क्यों देर।
झील किनारे नाव थी, एक रखा था बाँस,
चित्रकार ने नाव पकड़कर, ली जी भर के साँस।
जल्दी-जल्दी नाव चला कर, निकल गया वह दूर,
इधर शेर था धोखा खाकर, झुँझलाहट में चूर।
शेर बहुत खिसियाकर बोला, नाव ज़रा ले रोक,
कलम और कागज़ तो ले जा, रे कायर डरपोक।
चित्रकार ने कहा तुरत ही, रखिए अपने पास,
चित्रकला का आप कीजिए, जंगल में अभ्यास।
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वो शख़्स!
दिलों में हर वक्त चलती सुगबुगाहट जाने क्यों बेचैनी सी भरती है
ख़ुशियाँ जो बयाँ कर सके उस मुस्कराहट पर दुनियाँ ही मरती है
ला-फ़ानी होने की फ़िराक़ में जीना ही भूल गया है हर शख़्स यहाँ
आब-ए-हयात पाने की चाहत में वो मारा फिरता है बस यहाँ वहाँ!
कोई समन्दर में ढूँढता है इसे तो कोई सोचता है सुकून में मिलेगा
लगता तो नहीं कोई आब-ए-हयात उसका दिल ख़ुशियों से भरेगा!
दर्द-ओ-ग़म की मारी दुनियाँ में हर तरफ़ बस ख़ौफ़ का साया है
हर शब फ़िक्र में सोती है दुनियाँ हर दिल ज़ख़्मों से भर आया है!
जाने क्यों नाउम्मीदी का आलम हर तरफ ही फैला हुआ है यहाँ
चाहे टूटने पे रोती हो मगर दुनियाँ ख़्बाव बुनने से थकती है कहाँ!
ज़ुबान भी जाने क्यों ज़हर उगलने को हर दम ही आमादा रहती है
ना-अहल रुकती नहीं नफ़रतों नालों की मानिंद दिलों में बहती है!
मुस्कान भरे चेहरों के पीछे छुपी बेताबी कौन जाने क्या कहती है
हँसी में छुपी आँसुओं की लड़ी बारिश के इंतज़ार में क्यों रहती है!
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फूल!
दिल के फ़र्श पे बिखरे फूलों का हश्र क्या है
ग़र मसले जाने से कभी कहीं वो बच भी गये
मुरझाना ही बस उनकी क़िस्मत में लिखा है!
ये दिल के फ़र्श पर जो तुमने फूल बिछाए हैं
सारी की सारी ही जगह घेर रक्खी है उन्होंने
अब तुम ही बताओ तुम कैसे बचाओगी उन्हें!
जब कोई तुम्हारे दिल में कभी चला आयेगा
किसी फूल पर तो उसका पैर पड़ ही जाएगा
जाने अंजाने में ही कोई फूल मसला जाएगा!
बेहतर होता ग़र तरतीब से तुमने बिछाए होते
काश कोई पगडंडियाँ बनाती चलने के लिए
ताकि कभी तुम्हारे दिल में कोई आता जाता
फूल न मसले जाते उस शख़्स के पाँवों तले!
यह किसी के भी तो इख़्तियार की बात नहीं
दर्द तो होगा ही तुम उससे कैसे बच पाओगी
किसी से भी तुम्हारे दिल को देखा न जाएगा
जो ग़म में डूबा हो मसले फूलों का दर्द लिए
ग़र तुम अपना दर्द किसी से कह न पाओगी!
कितनी भी कोशिश क्यों न अब कर ले कोई
इन बिखरे फूलों पे पाँव उसके पड़ ही जाएँगे
ग़र इन फूलों के साथ डंडियों पे काँटे भी होंगे
आने वाले के पाँव भी तो लहूलुहान हो जाएँगे!
तुम आने जाने वालों की सहूलियत भी सोचो
क्यों न तुम इन फूलों को तरतीब से लगा लो
ग़र मुमकिन हो काँटे हटा पगडंडियाँ बना लो!
न आने जाने वाला कोई शख़्स ज़ख़्मी होगा
न कोई फूल किसी शख़्स से मसला जाएगा
न उसका दर्द-ओ-ग़म तुम्हारा दिल रुलाएगा!
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मुग़ालते!
बैठ जा ज़रा साँस तो ले ले तू कब से खड़ा है
दम तो लेने दे मुझे साँस मेरा भी फूला पड़ा है!
न पढ़ पाता हूँ न ठीक से देख ही पाता हूँ अब
नज़र कमजोर हो गयी चश्मे का नम्बर बढ़ा है!
अब कुछ भी ठीक से सुनाई ही नहीं देता मुझे
ये लगता है मेरे कानों को यहाँ सन्नाटा पड़ा है!
रात भर नींद का इंतज़ार रहता है इन आँखों में
मेरे लिए बिना सहारे चलना भी दुशवार बड़ा है!
खुश-पाश हँसी ने छिपाई आँसुओं की झड़ी है
रुक अभी बारिश आने दे दिल ज़िद पे अड़ा है!
सदा-ए-बे-सदा भी कुछ तो मायने रखती होगी
मुझे बेज़ुबान समझने की क्यों ज़िद पे अड़ा है!
जान ले तुझे भी मेरी तरह ही जीना मरना होगा
अभी वक्त है संभल जा क्यों मुग़ालते में पड़ा है।
न एतबार कर मेरी इस बे-रियाई पर मर्ज़ी ��ेरी
मानेगा कभी तू भी हर सिकंदर से वक्त बड़ा है!
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एक दुआ!
शख़्सियत कितनी बुलंद है
तस्दीक़ सफ़र ने करवाई है!
कई मक़ाम हासिल हुए हैं
कितनी ज़हमतें उठायी हैं!
कई मक़ाम अभी बाक़ी हैं
हौसलों ने बुलंदी पायी है!
ये तो महज़ एक मरहला है
परवाज़ दस्तक दे आयी है!
वो सहीह लफ़्ज़ बचे कहाँ
जो लिखे नहीं मैं कह सकूँ!
हर लफ़्ज़ है छोटा पड़ रहा
तारीफ़ें बौनी बन आयीं हैं!
क्या लिखूँ असमंजस में हूँ
मैं तारीफ़ में क्या और कहूँ!
परवरदिगार से है दुआ मेरी
रक्खे रहमतों में हरदम तुम्हें!
हासिल करो नई बुलंदियाँ
जोकि बाईस-ए-शोहरत बनें!
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सुर्ख़ - स्याह!
यक़ीन नहीं हुआ स्याह रौशनाई
यूँ कैसे सुर्ख़ लहू में जाके मिली
अंगारे बनके आँख से बरसता है
जो सिर्फ़ रगों में बहता था कभी!
ज़माने से लड़ गयी थी हैरत हुई
जाने कहाँ से उसे ताक़त मिली
हौसला स्याह रौशनाई ने दिया
या उसकी कारसाज़ कलम थी!
राज़दार सुखनवर का काग़ज़ था
कोई पन्ना था किताब का किसी
जहां कलम ने थे सब राज़ उगले
गवाह थी स्याह रौशनाई उसकी!
बस चंद अल्फ़ाज़ थे काग़ज़ पर
वो कलम जज़्बात झिंझोड़ गयी
सुर्ख़ कर गयी तमतमाता चेहरा
रंग से रौशनाई खुद स्याह ही थी!
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हे राम!
नफ़रतों का बोझा ढोते फिरता आज यहाँ हर इंसान
शांति बनी चुनौती हर पल फैले चारों ओर हाहाकार!
अहंकार के अंधकूप में डूबकर रावण बन रहा इंसान
सहनशीलता त्यागकर करता जाए विवेक का ह्रास!
धर्मों के नाम पर लड़ मरे कर रहा मानवता पर प्रहार
मानव को क्या हो रहा क्यों करे मानवता का त्याग!
हे राम हो करुणा के सागर तुम हो स्नेहिल आकाश
त्याग की प्रतिमा तुम्हारा सकल जगत में ऊँचा नाम!
इंसानों में उत्तम पुरुषोत्तम प्रार्थना करता हूँ मैं आज
न कोई छल हो न ही बल हो न नफ़रतों का अम्बार!
आडम्बरों से मुक्त हों सब करें मुखौटों का प्रतिकार
सभी पुरुषार्थ संपन्न हों करें सभ्य मर्यादित व्यवहार!
सबका प्रेम मुदित मन हो सौम्य कर्म आचार विचार
हर असत्य का संहार करें सब जगत हो एक समान!
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इल्ज़ाम!
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सूरज और सूरजमुखी!
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भूत भविष्य!
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#काव्य_कृति @KavyaKriti_ और #काव्य @kavyaoftheday पर दिनांक 28 मई 2021 के कार्यक्रम👇
#प्रयाग_शुक्ल
#जन्मदिन🎂💐
#काव्य_कृति ✍️ #काव्य✍🏻
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#जयप्रकाश_त्रिपाठी
#जन्मदिन🎂💐
#काव्य_कृति ✍️ #काव्य✍🏻
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कार्यक्रम, सौजन्य :
आरती सिंह @AarTee33,
नरपति चंद्र पारीक @pareeknc7
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