#शरीर रचना विज्ञान और शरीर विज्ञान
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jakhardigital · 5 months ago
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!! हे परमेश्वर!!*
कोई आवेदन नहीं किया था, किसी की सिफारिश नहीं थी, फिर भी यह स्वस्थ शरीर प्राप्त हुआ।
सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक हर क्षण रक्त प्रवाह हो रहा है…
जीभ पर नियमित लार का अभिषेक हो रहा है…
न जाने कौनसा यंत्र लगाया है कि निरंतर हृदय धड़कता है…
पूरे शरीर, हर अंग में बिना रुकावट संदेशवाहन करने वाली प्रणाली कैसे चल रही है कुछ समझ नहीं आता!
हड्डियों और मांस में बहने वाला रक्त कौन सा अद्वितीय आर्किटेक्चर है, इसका किसी को अंदाजा भी नहीं है।
हजार-हजार मेगापिक्सल वाले दो-दो कैमरे के रूप में आंखें संसार के दृश्य कैद कर रही हैं!
दस-दस हजार टेस्ट करने वाली जीभ नाम की टेस्टर कितने प्रकार के स्वाद का परीक्षण कर रही हैं!
सैकड़ों संवेदनाओं का अनुभव कराने वाली त्वचा नाम की सेंसर प्रणाली का विज्ञान जाना ही नहीं जा सकता।
अलग-अलग फ्रीक्वेंसी की आवाज पैदा करने वाली स्वर प्रणाली शरीर में कंठ के रूप में है।
उन फ्रीक्वेंसी को कोडिंग-डीकोडिंग करने वाले कान नाम का यंत्र इस शरीर की विशेषता है।
पचहत्तर प्रतिशत पानी से भरा शरीर लाखों रोमकूप होने के बावजूद कहीं भी लीक नहीं होता..
बिना किसी सहारे मैं सीधा खड़ा रह सकता हूं..
गाड़ी के टायर चलने पर घिसते हैं, पर पैर के तलवे जीवन भर चलने के बाद भी आज तक नहीं घिसे अद्भुत ऐसी रचना है!
हे भगवान तू इसका संचालक है, तू ही निर्माता।
स्मृति, शक्ति, शांति ये सब भगवान तू देता है। तू ही अंदर बैठ कर शरीर चला रहा है।
अद्भुत है यह सब, अविश्वसनीय!
ऐसी शरीर रूपी मशीन में हमेशा तू ही है.. इसका अनुभव कराने वाला आत्मा भगवान तू है।
यह तेरा खेल मात्र है। मैं तेरे खेल का निश्छल, निस्वार्थ आनंद का हिस्सा रहूं! ..ऐसी सद्बुद्धि मुझे दे!!
तू ही यह सब संभालता है इसका अनुभव मुझे हमेशा रहे!!!
रोज पल-पल कृतज्ञता से तेरा ऋणी होने का स्मरण, चिंतन हो, यही परमेश्वर के चरणों में प्रार्थना है 🙏🏻🙏🏻🌹💑🌹🙏🏻
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bamsgurushishyasystem · 5 months ago
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BAMS -Certificate of Basic Ayurvedic Medical Science.
CERTIFICATE OF BASIC AYURVEDIC MEDICAL SCIENCE.बुनियादी आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान (Basic Ayurvedic Medical Science) समकक्ष B.A.M.S.( आयुर्वेदाचार्य) कोर्स गुरु शिष्य परंपरा द्वारा ऐसे विद्यालय जहां विद्यार्थी (शिष्य) अपने परिवार से दूर होकर गुरु के आश्रम (विद्यालय )में गुरु के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है |भारत में इन गुरु आश्रम (विद्यालयों)का बहुत महत्व रहा है प्रसिद्ध आचार्य (शिक्षकों) के गुरुकुल से पढ़ रहे छात्र छात्राएं बहुत सम्मानित होते रहे हैं जिनमें राम (शिष्य विद्यार्थी) ने ऋषि वशिष्ठ गुरु (शिक्षक )व पांडवों (शिष्य विद्यार्थी)ने गुरु शिक्षक द्रोणाचार्य के गुरुकुल (विद्यालय )में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी|भारत में मूल रूप से तीन प्रकार की शिक्षा संस्था में संचालित होती आई हैं (1)गुरुकुल- गुरुकुल में शिष्य गुरु के परिवार के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे (2)परिषद -जहां विशेषज्ञ द्वारा शिक्षा दी जाती थी | (3)तपस्थली जहां बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे जिनमें प्रवचन ज्ञान दिया जाता था| किसी भी गुरुकुल के प्रधान प्रिंसिपल डायरेक्टर को कुलपति कहा जाता था |आज के समय में सभी के दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि भारत की यह प्रश्न उठता है कि भारत की प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा व्यवस्था कहां गई जब कोई वस्तु राजनीति के दायरे में आ जाती है तो उस वस्तु को धीरे-धीरे अपना अस्तित्व समाप्त होने का आभास होता है और गुरुकुल शिक्षा प्रणाली जिसे विश्व गुरु आर्यवर्त की शिक्षा पद्धति का क्योंकि किसी भी देश का विकास उन्नति तभी संभव है जब शिक्षा व्यवस्था ठीक हो भारत में प्राचीनतम समय से ही गुरुकुल शिक्षा पद्धति से शिक्षा दी जाती रही थी और यह भी सत्य है कि जब तक भारत में गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत शिक्षा प्रदान होती रहिए भारत का मान-सम्मान पूरे विश्व में बना रहा हमारा संस्थान भी भारत को पूरे विश्व में सर्वोच्च स्थान पर देखना चाहता है ,इसीलिए हमारे संस्थान ने विभिन्न शिक्षण कलाओं को प्राचीन शिक्षा पद्धति गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत शिष्य शिष्य छात्र-छात्राओं को सिखाने का संकल्प लिया है जिसके अंतर्गत हमारे गुरुकुल द्वारा अध्ययन कराया जाएगा भारतवर्ष में इस समय कुछ गुरुकुल विभिन्न शिक्षा कलाओं का गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत अध्ययन करा रहे हैं जिनमें हमारा संस्थान आयुष विकास विद्यापीठ के अंतर्गत माननीय होकर महर्षि वाल्मीकि गुरुकुल विद्यापीठ ऋषि वशिष्ठ गुरुकुल विद्यापीठ गुरु द्रोणाचार्य गुरुकुल विद्यापीठ आर्यावर्त गुरुकुल विद्यापीठ प्रमुख है हमारे गुरुकुल महर्षि वाल्मीकि गुरुकुल विद्यापीठ द्वारा पंचवर्षीय आयुर्वेद प्रमाणपत्र बुनियादी आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान समकक्ष बीएएमएस आयुर्वेदाचार्य कोर्स का संचालन हो रहा है जिसे गुरु शिष्य परंपरा द्वारा कुल प्रमुख (कुलपति) के आशीर्वाद से संचालित किया जा रहा है | कोर्स – बुनियादी आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान योग्यता -12बी अथवा समकक्ष | अवधि -5 वर्षीय | शिक्षा विधि- गुरुकुल (गुरु शिष्य परंपरा )/नियमित होगा| इस बुनियादी आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान के अंतर्गत प्रशिक्षण अवधि 5 वर्ष में व गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत निम्न विषयों में दी जाएगी | प्रथम वर्ष 1)आयुर्वेद का इतिहास 2) प्राथमिक चिकित्सा 3)पदार्थ विज्ञान 4)अष्टांग स���ग्रह एवं त्रिदोष विज्ञान 5)शरीर रचना एवं क्रिया विज्ञान द्वितीय वर्ष 1) स्वस्थवृत्त 2)रस शास्त्र एवं भृसजय कल्पना विज्ञान 3)द्रव्यगुण विज्ञान 4)रोग एवं विकृति विज्ञान 5)अगद तंत्र व्यवहार विधि तथा नीति विधि विधि तृतीय वर्ष 1)प्रसूति तंत्र एवं स्त्री रोग विज्ञान 2) बाल तंत्र कौमारभृत्य 3)काय चिकित्सा 4)शल्य सिद्धांत 5) नेत्र रोग चतुर्थ वर्ष 1)चरक संहिता सूत्र संस्थान विमान संस्थान इंद्रिय 2) रोग विज्ञान एवं चिकित्सा अध्यात्मक 3)रसायन बाजीकरण 4)यौन रोग निदान एवं उपचार 5)आधुनिक रोग निदान उपचार पंचम वर्ष 1)मानस रोग विज्ञान 2) चर्म रोग निदान 3)चरक संहिता चिकित्सा स्थान सिद्धि स्थान कल प्रस्थान 4)शल्य तंत्र 5)संतति निरोध कैंसर एक्स-रे निदान व चिकित्सा कोर्स शुल्क प्रतिमाह 1050/- रुपए ( नामांकन सहयोग राशि सदस्यता शुल्क रजिस्ट्रेशन शुल्क अतिरिक्त) Contect- [email protected]
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lok-shakti · 3 years ago
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इस प्राचीन केकड़े की असामान्य रूप से बड़ी आंखें थीं
इस प्राचीन केकड़े की असामान्य रूप से बड़ी आंखें थीं
आधुनिक, वयस्क केकड़े अपनी तैराकी क्षमता या अपनी दृष्टि के लिए प्रसिद्ध नहीं हैं। वे खामोश समुद्रों की मंजिलों को पार करते हैं, छोटी आंखों पर शायद ही भरोसा करते हैं क्योंकि वे सफाई करते हैं या चरते हैं। लेकिन 95 मिलियन वर्ष पहले, एक असामान्य केकड़ा, जो अब कोलंबिया है, के उष्णकटिबंधीय जल के चारों ओर असामान्य अनुग्रह के साथ उड़ता है। चौथाई आकार की प्रजाति, कैलिचिमाएरा पेर्प्लेक्सा, एक मकड़ी की तरह…
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vaidicphysics · 4 years ago
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वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का एकमात्र माध्यम
मैंने सभी महानुभावों से निम्न विषयों पर अपने विचार प्रकट करने हेतु कहा था -
वेद की वैज्ञानिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
वेद में ऐसा क्या विशेष है, जिससे यह सिद्ध हो सके सम्पूर्ण वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वरीकृत है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो सके।
आप सभी महानुभावों ने अपनी-अपनी योग्यतानुसार इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए, जिसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ। सभी प्रिय महानुभावों ने कुछ इस प्रकार के विचार प्रकट किए, जो मैं आगे उद्धृत कर रहा हूँ। सभी महानुभावों ने ये विचार प्रकट किए कि वेद सबसे प्राचीन पुस्तक है, वेद श्रुति रूप में थे, वेद सृष्टि के आरम्भ से ही हैं, वेद में कोई इतिहास नही हैं, वेद में विज्ञान विरुद्ध कोई बात नही हैं, वेद में विज्ञान सम्मत बातें हैं, वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद ज्ञान का भंडार है, संसार के स��ी विद्याओं का मूल वेद है, वेद में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए व लोक व्यवहार के लिए सत्य उपदेश व सत्य विद्या विद्यमान है, वेद में मानव विरुद्ध एवं सृष्टि विरुद्ध कोई भी बात नहीं लिखी हुई है, वेद में अनंत ज्ञान व विज्ञान है, कुछ वैज्ञानिक लोग वेद पर शोध कर रहे हैं, सभी ऋषियों का यह कथन है कि वेद ही ईश्वरकृत है, वेद स्वयं प्रमाण है, जहां किसी अन्य से प्रमाणित ना हो, वहां वेद से प्रमाण लिया जाता है, वेद का काल सृष्टि के आरंभ से है जिसे ईश्वर ने मनुष्य मात्र के लिए दिया है, वेद ऐसी रचना है जो मनुष्य द्वारा नहीं रचा जा सकता, ऋषियों के शब्द प्रमाण हैं कि वेद ईश्वरकृत है, इसलिए बुद्धिमान लोग यह कह सकते हैं कि वेद ईश्वरकृत रचना है, आदि। ये सभी विचार व शब्द प्रमाण मेरे सभी प्रिय महानुभावों ने रखें थे।
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अब इस पर मेरा विचार
अब तक हम सब वेद के बारे में यही जानते आये हैं और मान्यतानुसार, ऋषियों के शब्द प्रमाणों के आधार पर यही मानते आए हैं कि वेद ईश्वरकृत है। शब्द प्रमाण के अतिरिक्त हमारे पास और कुछ है भी नहीं। यद्यपि ऋषियों के शब्द प्रमाण में हम सभी वैदिक धर्मियों को कोई भी सन्देह नहीं। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमें ऋषियों के कथन पर कोई भी सन्देह नहीं, क्योंकि ऋषियों के कथन व शब्द प्रमाण पूर्णतः सत्य होते हैं। किन्तु व्यवहारिक रूप से वैज्ञानिक आधार व दृष्टिकोण से संसार के समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष यह कैसे सिद्ध होगा कि वेद ही ईश्वर कृत है? वैज्ञानिक तो वेद को ईश्वरकृत नहीं मानते। हमारे सभी ऋषियों के शब्द प्रमाण मात्र से संसार का कोई भी वैज्ञानिक यह स्वीकार कभी नहीं कर सकता कि वेद ईश्वरकृत रचना है। हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरे जितने भी प्रिय महानुभावों ने वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने के लिए अपनी योग्यतानुसार जितने भी विचार व प्रमाण रखे, जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उन सभी विचारों व प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध नहीं किया जा सकता।
वेद को वैज्ञानिक आधार, दृष्टिकोण व विज्ञान के माध्यम से वैज्ञानिकों के समक्ष ईश्वरकृत सिद्ध करने का माध्यम
वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने के लिए सर्वप्रथम तो हमें ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करना होगा, ठोस वैज्ञानिक प्रमाण के आधार पर, क्योंकि वैज्ञानिक ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते। यह भी सत्य है कि कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हुए हैं, जो ईश्वर की सत्ता को तो मानते हैं किन्तु उनके पास भी ईश्वर के अस्तित्वत को सिद्ध करने के लिए वैसा कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनमें से कुछ वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि कोई तत्व ऐसा तो है, जो ब्रह्माण्ड को संचालित कर रहा है परंतु उनके पास इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण, आधार व वैज्ञानिक व्याख्या नही। अतः ईश्वर की अस्तित्वता को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहुत ही विरोधाभास व मतभेद है। इस कारण ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की सामथ्र्य संसार के किसी भी वैज्ञानिक में नहीं, फलस्वरूप आधुनिक विज्ञान ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता। यदि ईश्वर का अस्तित्वत विज्ञान के माध्यम से सिद्ध हो जाये, तो ही हम आगे की ओर बढ़ सकते हैं वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने की दिशा में वैज्ञानिक आधार, विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम व प्रमाण से वैज्ञानिकों के समक्ष। यद्यपि यह अनुसंधान, शोध व खोज के कार्य तो विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक भौतिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता पूज्य गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के हैं। मैं केवल वह माध्यम व उनके इस महान् खोज, शोध व अनुसंधान को ही यहाँ बताऊंगा, जिससे सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से पूर्ण रूप से यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत रचना है। यह सिद्ध होने के पश्चात् संसार के सभी वैज्ञानिक व समस्त लोग यह स्वीकार करेंगे कि वेद ही ब्रह्मांडीय व ईश्वरकृत रचना है, फलस्वरूप वेद की ईश्वरीयता को संसार का कोई भी मानव नकार नहीं पायेगा तथा वेद की स्थापना भी स्वतः सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी।
ईश्वर के अस्तित्वत को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने का सामर्थ्य इस संसार में केवल एक ही महात्मा ऋषि कोटि के विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व वर्तमान काल के वेदों के सबसे महाप्रकाण्ड ज्ञाता, श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के पास ही है। श्रद्धेय आचार्य जी के अतिरिक्त संसार के किसी अन्य मानव में यह सामथ्र्य, योग्यता व क्षमता नहीं है और ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की संपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया, वैज्ञानिक व्याख्या व प्रणाली का ज्ञान केवल आचार्य जी को ही है और आचार्य जी के पास ही यह सामथ्र्य है, जो अटल सत्य है। आचार्य जी बहुत पूर्व ही ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध कर चुके हैं और विश्व के सभी बड़े वैज्ञानिकों के समक्ष उन्होंने यह सिद्ध करने हेतु भरसक प्रयास भी किये। कई बार भारत सरकार को भी लिखा और अप्रैल 2018 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के विज्ञान संस्थान में भारत सरकार ने एक अन्तर्राष्ट्रिय काॅफ्रैंस के आयोजन का आयोजन भी किया, परन्तु कुछ षड्यंत्रकारियों ने उस काॅफ्रैंस को बाधित करके विश्वस्तरीय नहीं रहने ��िया और उस काॅफ्रैंस में आचार्य जी ने अपनी वैदिक थ्योरी आॅफ यूनिवर्स को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया।
अब हम वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का वह मार्ग व माध्यम, वैज्ञानिक दृष्टिकोण व आधार के बारे में बतलाने जा रहें, जो वस्तुतः श्रद्धेय आचार्य जी की खोज, शोध व अनुसंधान है। यह अत्यंत जटिल है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते, केवल भौतिक वैज्ञानिक, ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व ब्रह्माण्ड विज्ञान पर शोध करने वाले तथा भौतिक विज्ञान का उच्चतम ज्ञान रखने वाले जन ही समझ सकते हैं। फिर भी मैं अति सरल शब्दों में अति सरल भाषा में व संक्षिप्त में ही बताने का प्रयास करूंगा, ताकि साधारण जन व विज्ञान की उच्चतम जानकारी नहीं रखने वाले लोग भी सरलता से कम शब्दों में इसे समझ सकें।
श्रद्धेय आचार्य जी के कई वर्षों के कठोर परिश्रम, पुरुषार्थ, उनके तपोबल, साधना, तप, तर्क शक्ति, ऊहा के बल पर वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसन्धान के पश्चात् आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि वेद मन्त्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। आचार्य जी ने यह जाना व खोजा कि वेद मंन्त्र वास्तव में एक ध्वनि ऊर्जा है। वेद मंत्र, छन्दों का समूह है। वेद मन्त्रों में आये शब्दों के समूहों को ही छन्द कहा जाता है, ये सभी छन्द ही वेद मंत्र कहलाते हैं। वस्तुतः यह सभी छन्द, अति सूक्ष्म पदार्थ कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदाथ का निर्माण इन्हीं वेद मंत्रों अर्थात छन्दों से होता है। ब्रह्माण्ड अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति में वेद मंन्त्रों की ही भूमिका होती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति वेद मन्त्रों से होती है। व���स्तव में जब ईश्वर ब्रह्माण्ड का निर्माण कर रहा होता है तो ईश्वर सर्वप्रथम सूक्ष्म स्पंदन उत्पन्न करता है, मनस्तत्व में। वह स्पंदन कम्पन करते हुए तरंग के रूप में फैलता है, जो रश्मि कहलाती है। इसे वैदिक विज्ञान की भाषा में रश्मि कहा जाता है। ऐसे कई प्रकार के सूक्ष्म स्पंदन ईश्वर उत्पन्न करता है। ये रश्मियां ही वैदिक ऋचाएं अर्थात् वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्रों के संघनन से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। ये रश्मियां ध्वनि ऊर्जा रूपी कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में होते हैं। यही सूक्ष्म ध्वनि ऊर्जा ही वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्र ही उपादान कारण भी हैं, ब्रह्माण्ड के निर्माण का। वेद के सभी मंत्र संसार के सभी पदार्थों के अंदर वाणी अर्थात् ध्वनि की परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र कम्पन करते हुए गूंज रहे हैं। यह ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मन्त्रों के शब्द कभी भी नष्ट नहीं होते।
श्रद्धेय आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि हमारे शरीर की एक-एक कोशिका इन्हीं वेद मंत्रों से बनी है। हमारे शरीर की सभी कोशिकाओं के अंदर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में ये वेद मंन्त्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र वेद के सभी मंत्र शब्द रूप में ध्वनि ऊर्जा के रूप में गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल व विशाल से विशाल सभी पदार्थों जैसे सभी कण, सूर्य, चन्द्र, तारे, उल्का-पिंड, धूमकेतु, ग्रह, उपग्रह, सौरमण्डल, गैलेक्सी, अंतरिक्ष, आकाश, जल, वायु, अग्नि, प्रकाश, आदि ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त पदार्थों का निर्माण इन्ही वेद मंत्रों से हुआ है। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में वेद मंन्त्र ह�� सर्वत्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों में कोई न कोई बल, ऊर्जा, गति, त्वरण आदि होते हैं, जो ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मंत्रों से ही होते हैं जो सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में रश्मियों के रूप में निरन्तर गूँज रहे हैं तथा इन्हीं वेद मन्त्रों से ही ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों की रचना होती है। सृष्टि की आदि में हुए 4 ऋषियों ने समाधि की अवस्था में अपने अन्तःकरण वा आत्मा के माध्यम से ईश्वर की प्रेरणा से उन सभी ईश्वरीकृत मन्त्रों को जाना। वे सभी मन्त्र ही वेद कहलाये।
यद्यपि ऋषियों के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य मनुष्य वेद के इस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को नहीं जानता। वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड का निर्माण व जितनी भी व्याख्या ऊपर मैंने की है, वेद व वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण की प्रक्रिया, यह ऋषियों के अतिरिक्त और कोई भी नहीं जानता। हमारे ऋषि लोग इसे भली-भाँति जान लिया करते थे व इसका सम्पूर्ण ज्ञान ऋषियों को हो जाता था। आप लोगों को यह भी बतला दूँ कि वेद में तथा ऋषिकृत ग्रँथों में अनेकत्र स्थान पर यह संकेत है कि वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, किन्तु वेद व ऋषिकृत ग्रँथों को न समझ पाने से साधारण जन व यहां तक कि सभी वैदिक विद्वान् भी यह आज तक नहीं जान व समझ पाऐ कि वेद मंत्रों से यह सृष्टि बनती है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनके पास तर्क शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि, ऊहा का अभाव है। वेद व अनेक ऋषिकृत ग्रन्थ विज्ञान के ग्रन्थ हैं। केवल संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु आदि के परम्परागत अध्ययन के बल पर वेदों व ऋषिकृत ग्रँथों को नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए वैदिक संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु, छन्द शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, वेदांग, आरण्यक, शाखाएं आदि अनेक ऋषिकृत ग्रँथों का पूर्ण ज्ञान इसके साथ ही ईश्वरीय प्रेरणा, ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा, उच्च कोटि की तर्क शक्ति, ऊहा, वैज्ञानिक बुद्धि से सम्पन्न, विज्ञान की उच्च समझ रखने वाला व पवित्र आत्मा का होना अनिवार्य है। वस्तुतः ऋषियों के पश्चात् वर्तमान में केवल श्रद्धेय आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक ही ऐसे ऋषि कोटि के महात्मा हैं, जिन्होंने अपनी कठोर साधना, परिश्रम, पुरुषार्थ, तर्क शक्ति, ऊहा से वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसंधान करके यह जाना है। अतएव यह खोज आचार्य जी की है। आचार्य जी द्वारा रचित ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ ग्रन्थ का गहन अध्ययन करेंगे, तो इसे और भी अच्छे व विस्तार से आप लोग जान पाएंगे।
इस प्रकार यदि यह सिद्ध हो जाये कि सभी वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण पदार्थों व समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, जो ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि के परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र गूंज रहें है, जब यह वैज्ञानिक आधार व प्रमाण से सिद्ध हो जाएगा, तो सभी वैज्ञानिकों व समस्त संसार के समक्ष यह पूर्ण व वैज्ञानिक रूप से, वैज्ञानिक आधार पर, वैज्ञानिक प्रमाण से यह स्वतः सिद्ध हो जाएगा कि वेद ही ईश्वरकृत रचना है, तब संसार का कोई भी मनुष्य वेद के ईश्वरकृत होने को नकार नहीं पायेगा, जिससे स्वतः ही संपूर्ण विश्व में यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत व ब्रह्मांडीय रचना है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित होगा, जो आने वाले कुछ ही वर्ष में ही संसार के वैज्ञानिकों को यह बात समझ आ जाएगी, यदि वे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो ��कें तो।
यद्यपि मैं पुनः यह स्पष्ट कर दूं कि वेद को किसी वैज्ञानिक से सर्टिफिकेट व प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नही कि वेद ईश्वरकृत है अथवा नहीं? क्योंकि वेद स्वतः प्रमाण है ईश्वरकृत होने का परन्तु समय की यही मांग है कि यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से वेद ईश्वरकृत सिद्ध हो जाये सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष तो वेद को सम्पूर्ण जगत् के लोग स्वीकार करेंगे। वेद व वैदिक धर्म की स्थापना विश्व में स्वतः हो जायेगी। वेद को वैज्ञानिकों के समक्ष ईश्वरकृत सिद्ध करने का केवल यही एक मार्ग है, अन्य कोई भी दूसरा मार्ग व माध्यम नही, क्योंकि केवल इसी वैज्ञानिक ठोस प्रमाण से ही यह सिद्ध किया जा सकता है, समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वर कृत रचना है, इससे वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में हो सकेगी व विश्व के सम्पूर्ण मानवों का कल्याण होगा। श्रद्धेय आचार्य जी द्वारा बहुत पूर्व ही यह सिद्ध किया जा चुका है। जैसा कि मैंने पूर्व ही बतलाया कि आगामी कुछ ही समय में विश्व के समस्त बड़े वैज्ञानिकों को कोई भी इस तथ्य का बोध हो जायेगा परन्तु बिना शासन के सहयोग वैज्ञानिकों द्वारा धार्मिकता व पूर्वाग्रहों के त्याग के बिना यह सम्भव नहीं है। आचार्य जी योगेश्वर श्री भगवान् कृष्ण जी महाराज के कथन ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को शिरोधार्य करके आगे बढ़ रहे हैं। आचार्य जी के पुरुषार्थ से वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी, ऐसा हमें आशा व विश्वास करना चाहिए।
आशा करता हूँ कि वेद के इस वास्तविक सत्य यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को जानकर आप सभी प्रियजनों को गर्व महसूस हो रहा होगा, जिस ईश्वरकृत वेद के बारे में अब तक आप सभी अनभिज्ञ थे।
- इंजीनियर संदीप आर्य
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parmatma-ke-pankh · 5 years ago
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क्यों है अवसाद से घिरी आज की युवा पीढ़ी
निराशा- आज के परिवेश में शायद ही ऐसा कोई हो जो निराशा से ना घिरा हो। आजकल की युवा पीढ़ी अवसाद से अधिक घिरी हुई है जिसके कारण अवसाद की दवाइयां लेना और उन दवाइयों से अपने शरीर को भी नुकसान पहुंचाना । कुछ युवावस्था में प्रवेश करते बच्चे आज इतने ज्यादा इस बीमारी क�� खुद को ग्रसित कर रहे हैं कि कोई कारण ही समझ नहीं पा रहा ऐसा क्यों
अंधी भागदौड़ हर किसी को आगे ही जाना है पीछे कोई रहना नहीं चाहता खुद को चारों तरफ अंधकार से ढक रखा है जो उसे पीछे देखने ही नहीं देती उजाला कहां है वह उसे देखना ही नही चाहता इसी निराशा से घिर कर जाने कितने ही अपराध जन्म ले लेते हैं जिसमें एक अपराध है जिसे महा अपराध कहते हैं आत्महत्या कर लेना अपने को खत्म कर लेना। ईश्वर के यहां इससे बड़ा अपराध नहीं जिस शरीर को हमने बनाया नहीं उसे खत्म करने का अधिकार हमें कहा वह अधिकार उस परमपिता परमात्मा का है निराशा ही अवसाद का शिकार बनाती है निराशा का जन्म क्यों होता है आशा से निराशा का जन्म हुआ आशा न होती तो निराशा का जन्म कैसे होता जो व्यक्ति खड़ा है चल रहा है डर तो उसी को है कि वह गिर सकता है ठोकर खा सकता है लेकिन जो लेटा हुआ है जमीन पर उसे कोई कैसे गिरा सकता है वह तो खुद ही गिरा हुआ है उसने खुद को पृथ्वी को सौंप दिया है
पृथ्वी जो परमात्मा है जिसने खुद को परमात्मा को सौंप दिया उसे डर कैसा लेकिन आज की युवा पीढ़ी यह मानने को तैयार कहा वह कहती है ऊर्जा है यह भी सत्य है ऊर्जा ही तो परमात्मा है मगर उसने इसे विज्ञान से जोड़ दिया और इस ऊर्जा से खुद को आजाद कर लिया आजाद करते ही मैं हूं उसके ऊपर चढ़कर बैठ गया अब जो करेगा वह मैं ही करेगा परमात्मा से तो उसने खुद को आजाद कर लिया
आजाद किया परमात्मा से खुद को और अपने ऊपर इतना भरोसा कर लिया कि मैं ही हूं इसका अहम उसे कुछ सोचने कहां दे रहा है जो वह कर रहा है वही ठीक है इसमें बहुत बड़ा दोष हमारे पूर्वजों का रहा जो अपने माता-पिता से मिला उसे ही अपने बच्चों के ऊपर थोपते चले आ रहे हैं
हमारे बच्चे को क्या पसंद है वह क्या चाहता है हमें इस से मतलब नहीं तू ये बन तू ये कर दुनिया कहां से कहां जा रही है यह देख तू वहां पहुंच जहां कोई ना पहुंचा भाग आगे निकल तुझे प्रथम आना है भाग जीना सीख आगे निकल नहीं तो तू पीछे रह जाएगा
आज का बच्चा इतना परेशान है वो क्या है वो बेचारा खुद नहीं सोच पाता एक कठपुतली बन जाता है जैसे मां-बाप नचा रहे है नाच रहा है
मां-बाप कभी संस्कारों के नाम पर कभी शिष्टाचार के नाम पर बस अपने ही शिष्टाचार का पाठ पढ़ाए जा रहे हैं वो क्या चाहता है उसका मन क्या चाहता है इतनी आजादी तो हम दे ही नहीं रहे
दे रहे है अपनी आशाएं हमने तुम्हारे लिए क्या किया क्या नहीं किया पढ़ाया लिखाया अच्छा भोजन क्या कमी कर दी अपने सारे विचार उस पर इस तरह से सौंप दिए कि उसके अपने विचारों का तो दमन ही हो गया जन्म हो ही नहीं पाया और वह जीने से पहले खिलने से पहले मुरझा गया
मेरा जन्म जब हुआ दादा बोला मेरे जैसा बनेगा थोड़े बड़े होते ही पापा बोले नहीं भागो नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी मंजिल तक कैसे पहुंचाेगे
जो सुकून घर में मां बाप के बीच मिलना चाहिए था वो बचपन दब गया
ना ही खिलखिला कर हंस पाया मै, ना ही रो पाया, जन्म मेरा क्यों हुआ इस पर ही मुझे रोना आया कोई मुझे पनहा दे दो मेरे उजले मन में कुछ खाली जगह दे दे, फूल खिलने से पहले मुझे ना तोड़ो तुम, कुछ समय तो डाल पर ही मुझे छोड़ो तुम, जी लूं थोड़ा मैं कली बनकर खिलना तो सीख लूं, अपना ही पेड़ मुझे काटे तोड़े, बताओ स्वांस कैसे मैं भरू कुछ स्वांस जी भर मैं भी ले पाऊं इतनी जगह मेरे मन में छोड़ो तुम, मैं तो पौधा था तुमने मुझे अपनी कल्पनाओं का कल्पवृक्ष बना डाला ना खिला मेरे मन का फूूल ना टहनिया ही निकली अपनी कल्पनाओं में तुमने मुझ को जला डाला जन्म मेरा जब हुआ दादा बोला मेरे जैसा बनेगा थोड़े बड़े होते ही पापा बोले नहीं भागो नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी, मंजिल तक नहीं पहुंचागे तुम, मेरी मंजिल कहां मैं उसी से अनजान भटकता जा रहा हूं तूने मुझे कहां भेज दिया भगवान,ये जो लोग तेरे खुद को मेरा मां-बाप समझते हैं खुद को मेरा ही अपना संसार समझते हैं अपने संसार को इन्होंने मेरा संसार बना डाला मेरा कोमल मन बिखर गया जैसे कि मैं कोई भूल हूं ना पूछ भगवन मेरे साथ यहां क्या हो रहा है मैं तो तेरा ही फूल हूं मुझे मजबूर कर देते हैं ये जो तेरे ही बंदे है अवसाद मेरा घर नहीं था ।
मैं तो खिलखिलाना चाहता था आशाओं को ना अपने अंदर जगाना चाहता था मुझे पता था मैं तकदीर साथ अपनी खुद लेकर आया हूं इन्हें समझा जो समझे बैठे हैं कि मैं तेरा नहीं उनका ही साया हूं ये तेरे बंदे समझ जाएं कि तू ही बाप मेरा है जो नादान समझते हैं कि तू नहीं, मां बाप ये मेरे हैं यह मुझे जन्म देते हैं अपनी खुशियों के लिए पैदा होते ही मेरा गला जो घोट देते हैं हे खुदा तू बता ये कैसे मेरे मां-बाप हो सकते हैं सांसे लेना मेरा और छोड़ना ना मुझ पर रहा किस की कैद में तूने मुझको इस धरती पर छोड़ रहा इससे तो अच्छा था कि तू मुझे पंछी बना देता चोच मारकर तेरा ही पंछी मुझको उड़ा देता स्वांस जी भर के ले लेता झूमता तेरे गगन को और अंबर को, बैठता हर उस डाल पर और मग्न में होता जब चाहता कहीं भी उड़ के चला जाता हे भगवान तू मुझे मानव नहीं बनाता तेरी सबसे प्यारी रचना जो मानव है उसी ने मानव को क्या से क्या बना डाला थोड़ा बड़ा हो गया हूं नहीं चाहिए ऐसे मां और बाप इससे तो तेरी दी हुई तनहाई ही अच्छी जहां मैं करता हूं खुद से बात
आप सभी से हाथ जोड़कर मेरा विनम्र निवेदन है अपने बच्चों को खुलकर सांस लेने दीजिए सोचो क्यों ��क गरीब मां-बाप का बच्चा ऊंचाइयों को छू पाता है वह अपनी तकदीर खुद साथ लेकर आता है ना समझो कि तुमको अपने बच्चों की तकदीर बनानी हैं थोड़ा रहम करो ये सांसे जो क्षण भर है इधर और उधर ही कहां जाना पता किसे इसकी मंजिल कहां ना डूब ऐसे कि तू सदा यहां रहने को आया है क्षणभंगुर ये जीवन है ना सदा यहां कोई रहने को आया है
परमात्मा के पंख
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bhoobhransh · 6 years ago
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विज्ञान में चेतना की व्याख्या
पता नहीं कब तक लोग चेतना और भगवान जैसी चीज़ों के पीछे दौड़ते रहेंगे. हमारी आदत रही है कि जिस सब को हम नहीं जानते हैं उसे कोई धुंधला सा लिहाफ़ पहना देते हैं ताकि हमारी "चेतना" यह मान सके कि हम बुद्धिमान हैं. उस लिहाफ़ का नाम चेतना, भगवान, आत्मा, डार्क मैटर जैसे कुछ भी हो सकता है. जब तक लोगों को समझ नहीं आया था कि डीएनए में जीवन का कोड है तब तक वैज्ञानिक भी कहते थे कि शायद कोशिका के केन्द्रक में डार्क मैटर भरा है. ये ब्रह्माण्ड की चेतना के ऐक्य का एक टुकड़ा है, जो हमें चेतन बनाता है. तो अगर आम आदमी उसमें विश्वास रखता है तो वो कोई इतनी बड़ी ग़लती नहीं है.
प्रथम तो चेतना एक शुद्ध वैज्ञानिक शब्द नहीं है. दैनिक जीवन में इसके अलग मायने हैं, मनोविज्ञान-फ़लसफ़े के अध्ययन में अलग और न्यूरोसाइंस में अलग. तिसपर जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वैसे वो इसे अपने दिमाग में फिट कर लेता है. कहीं इसको मानवों का ख़ास गुण मान लिया जाता है, कहीं इसको आत्मा से जोड़ा जाता है और कहीं प्रकृति और पुरुष के विभाजन से.
मनोविज्ञान के अनुसार अपने अस्तित्व और विचारों के बारे में ज्ञान होने को (आत्मज्ञान या सेल्फ-अवेयरनेस) चेतन होना कहते हैं. फ़लसफ़े में तो इसकी हज़ारों परिभाषाएँ हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है "अनुभव करने की, परिप्रेक्ष्य बनाने की क्षमता". मैं उन लोगों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता जो इसे एक अलौकिक गतिविधि मानते हैं. आप प्रकृति के ताने-बाने में कितना भी गहरा उतर, लौकिक कारण समझा दो, ये लोग उस वक़्त के ज्ञान की परिधि की ओर इशारा करके कहेंगे कि चेतना वहाँ मिलेगी.
न्याय दर्शन का मुख्य विचार द्वैत है. दुनिया में अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक, स्वर्ग-नरक है, वैसे ही प्रकृति और पुरुष भी है. इसी विचार को देकार्ते ने योरोप तक पहुँचाया था. ये विचार समाज में नियम-कानून लागू करने के हिसाब से आरामदायक है पर सत्य की खोज में साफ़ तौर पर भ्रामक. नीत्शे ने इसपर तफ़सील से लिखा है. योग-दर्शन का अद्वैत चेतना का विचार आमजन से थोड़ा हटकर, आध्यात्मिकता में पगे लोगों के बीच बड़ा ख्यात है.
मुझे सांख्य दर्शन और थॉमस हॉब्स के विचारों से लगाव है जिन्होंने ��स प्रकार की परिभाषा को सिरे से ग़ैर ज़रूरी करार दिया था और भौतिक पेचीदगी को हमारी समझ का कारण बताया था. आज का विज्ञान इसी आधार पर चेतना की गुत्थी सुलझा रहा है. इसके हिसाब से इन्द्रियों से आने वाले इनपुट के साथ साथ अपने यादों, आवेगों और विचारों को एक परिप्रेक्ष्य से देखना चेतन होना है और यह न्यूरोन्स के क्लिष्ट तंत्र की अभिक्रियाओं का नतीज़ा है. एफ़एमआरआई जैसे तकनीकों के विकास के साथ इस क्लिष्ट तंत्र का एक गहन नक्शा तैयार किया जा रहा है पर सेल्फ-अवेयरनेस को समझने में अभी काफी समय लगेगा. जो कुछ भौतिक लक्षण अब तक बताये गए हैं उन्हें इंसानों के अलावा कई जीवों में पाया गया है और उन्हें इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से नियंत्रित किया या बदला जा सकता है.
यदि आप जीव को मारें नहीं बस बेहोश करदें, सूचना के बहाव में रोड़ा डाल दें तो कोई "चेतना" नहीं बचेगी.
तो असल जीवन का प्रश्न यह नहीं है कि चेतना क्या है और विज्ञान उसकी व्याख्या कैसे करेगा. असल प्रश्न यह है कि हमारा आत्मज्ञान मोड्यूल कैसे काम करता है और क्रमिक विकास के दौरान ये किस तरह बना? क्या नेचुरल सिलेक्शन में आत्मज्ञान का कोई महत्त्व था, या फिर यह हमारे क्लिष्ट तंत्रिका तंत्र का बाई-प्रोडक्ट है?
यदि आत्मज्ञान के आधार पर चेतना को परिभाषित किया जा सकता है तो इंसानों के अज्ञान (जिसे दूर करने की पुरज़ोर कोशिश वो कर रहे हैं) के बावज़ूद एक मोटा-मोटी समझाइश की बात की जा सकती है: चेतना/आत्मज्ञान का क्रमिक विकास समाज के विकास के साथ हुआ. भाषा का इसमें महत्वपूर्ण योगदान था. पर इसका प्राथमिक रूप काम्प्लेक्स शरीर के साथ बना होगा. क्योंकि हमारा शरीर इतने काम्प्लेक्स सिस्टम को सिर्फ़ हॉर्मोन से नियंत्रित नहीं कर सकता, शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों का खाका हमारे परिप्रेक्ष्य की मोनिटरिंग का हिस्सा बन गया और अंगों का न्यूरल माध्यम से नियंत्रण होने लगा. समाज और भाषा के विकास के साथ इस मोनिटरिंग को व्यक्त करना महत्वपूर्ण हो गया और एफ़िशिएन्ट नियंत्रण का बाई-प्रोडक्ट जीव के अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया. कालांतर में, आत्मज्ञान की वजह से जीवों के झुण्ड काम्प्लेक्स काम करने लगे और हमारे समाज एक और बड़े स्तर पर संगठित होकर काम करने लगे.
एक कैची फॉर्मेट में रखूँ तो
आत्मज्ञान/चेतना को एक व्यक्तिवादी रचना माना जाता है जबकि इसका अविर्भाव समूहों के बनने से हुआ. इंसान आज इतना सफल मुख्य तौर पर बुद्धिमत्ता के साथ साथ बड़ी संख्या में जुटकर काम करने की वजह से है.
बुद्धिमत्ता तो कम ��ोगों के पास भी हो तो चलेगा.
विज्ञान प्रयोगों के आधार पर अलौकिक अनुभूतियों को ख़ारिज करता आया है और चेतना के सारे अलौकिक हिस्सों को सच नहीं पाया गया है. हमारा दिमाग़ इन्द्रियों के अतिरिक्त किसी और स्रोत से सूचना ग्रहण नहीं करता है. लौकिक हिस्सों को विज्ञान धीरे-धीरे समझ रहा है और उनको कृत्रिम रूप से नियंत्रित और निर्मित करने के क़गार पर है.
अनिल चतुर्वेदी की टिप्पणी:
मान्यवर पहली बात तो ये है कि मनुष्य सदियों से परम सत्य को जानने की कोशिश मे लगा हुआ है और यह काम मनुष्य नही करेगा तो क्या कुत्ते बिल्ली या घोड़े गधे नही करेंगे । जिसका उत्तर आसानी से उपलब्ध हो वह चुनौती नही देता लेकिन कुछ चीजें है जिन पर सदियों से मनुष्य लगा हुआ है उनके जवाब भी दिये गये लेकिन वे अंतिम नही थे लिहाजा अब भी जद्दोजहद जारी है। ज्यादा नही मुश्किल से 20 से 30 साल से विज्ञान चेतना को लेकर गंभीर हुआ है आज दुनिया के तमाम महान वैज्ञानिक इसपर काम कर रहे। भारतीय षड दर्शन हो या पाश्चात्य दर्शन चेतना की कोई व्याख्या की ही नही गई। बुद्ध ने चेतना को समझा लेकिन अलग से कोई व्याख्या नही प्रस्तुत की। मुझे लगता है परम सत्य की राह मे चेतना एक महत्त्वपूर्ण कारक है। और अगर इस दिशा में कोई प्रयास कर रहा तो वह उचित ही है। कोई भी दर्शन सिर्फ एक विचारधारा है वह सार्वजनीन सत्य नही हो सकता । फिलहाल उत्तर के लिए धन्यवाद । 
मेरा उत्तर:
व्यंग्य से पगी टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद.
कोई उत्तर अंतिम नहीं होता सो सत्य है. विज्ञान भी कभी ऐसा नहीं मानेगा कि कोई निष्कर्ष अंतिम सत्य हो सकता है. पर दर्शन प्रयोगवादी नहीं होता और उनके विचारों को विज्ञान द्वारा समझने की ज़रूरत है.
विज्ञान के निष्कर्षों को सार्वजनीन सत्य माना जा सकता है अन्यथा वैक्सीन और दवाइयों की कोई उपादेयता नहीं रह जाती. विज्ञान कोई दर्शन नहीं है. विज्ञान जीनोम एडिटिंग को अभी दवाई नहीं बना रहा क्योंकि उसका सार्वजनीन उपयोग अभी संभव नहीं है. विज्ञान की चेतना को लेकर गंभीरता के बारे में आप ग़लत है क्योंकि एलन ट्यूरिंग ने १९६० में एक गंभीर गणितीय परिभाषा चेतना से जोड़ी थी और उससे भी पहले उसपर काम चल रहा था. यह कहा जा सकता है कि पिछले २०-३० सालों में ही वैज्ञानिकों ने वाकई में "आत्मा" जैसे अंधविश्वासों को नकारा है.
दर्शन में चेतना की व्याख्या की गयी है बस वो प्रायोगिक नहीं है. आपको शायद और पढने की ज़रूरत है. हो सकता है उनकी परिभाषाएँ आपके सुपरफिशिअल बिन्दुओं पर खरी नहीं उतरती पर उनसे उनकी टेस्टेबिलिटी बदल नहीं जाती.
बाक़ी, परम सत्य जैसी अध्यात्मिक चीज़ों के बारे में एक कांफर्मेशनल बायस से जुडी कहावत है, "ढूँढने निकलोगे तो मिल ही जायेगा". एक परम सत्य है, यह एक विचार है जिसका कोई प्रायोगिक आधार नहीं है और जान बूझ कर उसे इन्द्रियातीत कहा जाता है ताकि धर्म या कोई अन्य राजनैतिक शक्ति उसको काम ले सके.
घोड़े गधे नहीं करेंगे ये अच्छा जुमला है क्योंकि इसको अगर दर्शन और परम सत्य के खोजी याद रखेंगे तो ९०% दर्शन इतना मानव-केन्द्रित नहीं होता. प्रकृति-पुरुष जैसी चेतना की अवधारणाएं वहीँ से आतीं हैं.
(इसपर अनिल प्रश्न करते हैं कि भारतीय मनीषा में चेतना कि व्याख्या कभी की ही नहीं गयी है जोकि ग़लत है और इससे आगे ये थ्रेड ख़त्म हो जाता है)
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gadgetsforusesblog · 2 years ago
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Financetime.in हरियाणा में चिकित्सा शिक्षा के पाठ्यक्रम को बदलने के लिए एमबीबीएस में आयुर्वेद को शामिल करना, स्वास्थ्य समाचार, ईटी हेल्थवर्ल्ड
नई दिल्ली: हरियाणा सरकार एमबीबीएस छात्रों के लिए पांचवें वर्ष में आयुर्वेद की पढ़ाई अनिवार्य करने की दिशा में काम कर रही है। इस दिशा में हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने मेडिकल छात्रों को आयुर्वेद पढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम कार्यक्रम तैयार करने और तैयार करने के लिए टीमों का गठन किया है। शरीर रचना विज्ञान और शरीर विज्ञान जैसे विषय, जो एलोपैथी और आयुर्वेद दोनों में पाए जाते हैं, दोनों शाखाओं के…
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lokkesari · 2 years ago
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बसंत पंचमी ,नया कामकाज शुरू करने के लिए साथ ही अनसूझा विवाह के लिए है बहुत शुभ, बन रहे हैं चार शुभ योग
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बसंत पंचमी ,नया कामकाज शुरू करने के लिए साथ ही अनसूझा विवाह के लिए है बहुत शुभ, बन रहे हैं चार शुभ योग
बसंत पंचमी का महत्व ज्ञान और शिक्षा से जोड़कर माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन विद्या, कला, विज्ञान, ज्ञान और संगीत की देवी, माता सरस्वती का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है।
परमपरा अनुसार हिंदू धर्म में बसंत पंचमी का विशेष महत्व है। बसंत पंचमी का पर्व हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन माता सरस्वती का जन्म हुआ वहीं इस दिन से वसंत ��े मौसम की शुरुआत भी माना जाता है। इस दिन ज्ञान की देवी माता सरस्वती की पूजा करने की परंपरा है।
मां शारदे की पूजा के साथ-साथ इस दिन को नया कामकाज शुरू करने के लिए साथ ही अनसूझा विवाह के लिए बहुत शुभ माना गया है।
26 जनवरी गणतंत्र दिवस भी है।पंचांग के मुताबिक माघ शुक्ल पंचमी तिथि 25 जनवरी को दोपहर 12 बजकर 33 मिनट से आरंभ हो रही है, जो अगले दिन 26 जनवरी को सुबह 10 बजकर 37 मिनट तक रहेगी। इसलिए उदयातिथि को आधार मानते हुए बसंत पंचमी का त्योहार 26 जनवरी को मनाया जाएगा।
वैदिक पंचांग के अनुसार सरस्वती पूजा के दिन चार शुभ योग- शिव योग, सिद्ध योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और रवि योग बने रहे हैं। आपको बता दें कि रवि योग 26 जनवरी की शाम 06 बजकर 56 मिनट से आरंभ हो रहा है और यह अगले दिन 27 जनवरी को सुबह 07 बजकर 11 मिनट तक रहेगा। रवि योग को ज्योतिष में बेहद शुभ योग माना गया है। वहीं सर्वार्थ सिद्धि योग 26 जनवरी की शाम 06:58 बजे से आरंभ हो रहा है, जो 27 जनवरी को सुबह 07:11 बजे तक रहेगा। ज्योतिष के अनुसार इस योग में जो भी काम किया जाता है। वह सिद्ध हो जाता है।
हिन्दू धर्म में मां सरस्वती विद्या, संगीत और बुद्धि की देवी मानी गई हैं। देवीपुराण में सरस्वती को सावित्री, गावत्री, सती, लक्ष्मी और अंबिका नाम से संबोधित किया गया है। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें वाग्देवी, वाणी, शारदा, भारती, वीणापाणि, विद्याधरी, सर्वमंगला आदि नामों से अलंकृत किया गया है। यह संपूर्ण संशयों का उच्छेद करने वाली तथा बोधस्वरूपिणी हैं। ये संगीतशास्त्र की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। ताल, स्वर, लय, राग-रागिनी आदि का प्रादुर्भाव भी इन्हीं से हुआ है सात प्रकार के स्वरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है, इसलिए ये स्वरात्मिका कहलाती हैं। सप्तविध स्वरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती है। वीणावादिनी सरस्वती संगीतमय आह्लादित जीवन जीने की प्रेरणावस्था है। वीणावादन शरीर यंत्र को एकदम स्थैर्य प्रदान करता है। इसमें शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है । साम-संगीत के सारे विधि-विधान एकमात्र वीणा में सन्निहित हैं।
वाक् (वाणी) सत्त्वगुणी सरस्वती के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सरस्वती के सभी अंग श्वेताभ हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि सरस्वती सत्त्वगुणी प्रतिभा स्वरूपा हैं। इसी गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट है। कमल गतिशीलता का प्रतीक है। यह निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है। हाथ में पुस्तक सभी कुछ जान लेने, सभी कुछ समझ लेने की सीख देती है।
देवी भागव�� के अनुसार, सरस्वती को ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा पूजा जाता है । जो सरस्वती की आराधना करता है, उसमें उनके वाहन हंस के नीर-क्षीर-विवेक गुण अपने आप ही आ जाते हैं। माघ माह में शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है, तब संपूर्ण विधि-विधान से मां सरस्वती का पूजन करने का विधान है। लेखक, कवि, संगीतकार सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते हैं। उनका विश्वास है कि इससे उनके भीतर रचना की ऊर्जा शक्ति उत्पन्न होती है। इसके अलावा मां सरस्वती देवी की पूजा से रोग, शोक, चिंताएं और मन का संचित विकार भी दूर होता है। इस प्रकार वीणाधारिणी, वीणावादिनी मां सरस्वती की पूजा-आराधना में मानव कल्याण का समग्र जीवनदर्शन निहित है।
http://www.lokkesari.com/?p=17889
Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है।लोक केसरी किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.
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drsunildubeyclinic · 3 months ago
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Best Sexologist Patna Bihar Pitta Dosha Sexual Problems Treatment
क्या आप पित्त दोष के असंतुलन या इसकी अधिकता होने के कारण अपनी यौन समस्याओं से जूझ रहे हैं? वास्तव में, पित्त हमारे शरीर में गर्मी, परिवर्तन और चयापचय से जुड़ा हुआ तत्व है। यह हमारे शरीर में सभी यौन हार्मोन (टेस्टोस्टेरोन व एंड्रोजन) को भी नियंत्रित करता है। जब व्यक्ति के शरीर में पित्त असंतुलित या अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है, तो यह शरीर में सूजन, जलन और संवेदनशीलता के उच्च स्तर को जन्म दे सकता है।
पित्त दोष के असंतुलन के बारे में, बहुत सारे लोगो का अपनी-अपनी राय है। हमारे विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य डॉ. सुनील दुबे, जो पटना में सर्वश्रेष्ठ सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर हैं, का कहना हैं कि पित्त दोष का उच्च स्तर किसी व्यक्ति के उसके यौन स्वास्थ्य को पूरी तरह से प्रभावित करता है, जिससे वह अपने जीवन गर्मी और चुभन का अनुभव कर सकता है। पित्त की अधिकता व्यक्ति के प्रजनन ऊतकों के नाजुक संतुलन को बाधित कर सकता है। यह शरीर में व्यक्ति के हार्मोनल फ़ंक्शन और भावनात्मक भलाई को भी प्रभावित कर सकता है। जैसा कि हम जा���ते हैं कि एक संरचनात्मक व सफल यौन गतिविधि में हार्मोनल संतुलन और भावनात्मक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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भारत का यह सीनियर सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर कामुकता, गुप्त व यौन रोग, शरीर रचना विज्ञान, यौन व्यवहार, यौन इच्छा और लिंग-पहचान के अध्ययन में विशेषज्ञ हैं। वे सेक्सोलॉजी मेडिसिन और सेक्सोलॉजिस्ट पेशे में विशेषज्ञता रखने वाले एक उच्च व योग्य आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं। वह दुबे क्लिनिक में आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के समग्र दृष्टिकोण के तहत सभी तरह के गुप्त व यौन रोग का पूर्णकालिक उपचार प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि कुछ सामान्य यौन रोग हैं जो शरीर में असंतुलित पित्त से जुड़े हैं, वे निम्नलिखित है:
शरीर में असंतुलित पित्त होने के कारण सामान्य यौन समस्याएँ:
शीघ्रपतन का होना।
यौन हार्मोन का असंतुलन।
बांझपन की समस्याएँ।
यौन प्रदर्शन की चिंता।
जननांगों में सूजन।
यौन इच्छा में निराशा या असंतोष।
यौन क्रिया में जलन व चुभन।
शरीर में पित्त दोष को संतुलित करने के लिए आयुर्वेदिक उपचार:
बिहार के सर्वश्रेष्ठ सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर में से एक, आयुर्वेदाचार्य डॉ सुनील दुबे, कहते हैं कि आयुर्वेद व इसकी प्राकृतिक श्रोत संभवतः गुप्त व यौन समस्याओं की एक पूरी श्रृंखला से निपटने के लिए सबसे सुरक्षित और पूर्णकालिक प्रभावी चिकित्सा व उपचार की प्रणाली है। यह यौन समस्याओं को सुधारने और समग्र स्वास्थ्य चिंताओं का ख्याल रखने के लिए प्राकृतिक स्रोत प्रदान करता है। वे दुबे क्लिनिक में नित्य-दिन अभ्यास करते हैं और वात, पित्त या कफ दोष से प्रभावित हर तरह के गुप्त व यौन रोगी को अपना व्यापक चिकित्सकीय रूप से सिद्ध आयुर्वेदिक उपचार प्रदान करते हैं।
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अपने उपचार, शोध, व अनुभव के आधार पर; उनका मानना है कि आयुर्वेदिक उपचार का उद्देश्य शरीर के सभी दोषों को शांत कर सम्पूर्ण शरीर में सामंजस्य स्थापित करना होता है। यहाँ, असंतुलित पित्त दोष के मामले में, वे व्यक्ति के संपूर्ण यौन समस्याओं से निपटने के लिए चिकित्सकीय रूप से सिद्ध आयुर्वेदिक दवा, आहार परिवर्तन सलाह, जीवनशैली मार्गदर्शन और महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। चूंकि वे 35 वर्षों से इस आयुर्वेदिक सेक्सोलॉजिस्ट पेशे से जुड़े हुए हैं, इसलिए उनका अनुभव और उपचार की सटीकता लगभग हर प्रकार के गुप्त व यौन रोगी को एक सुरक्षित और पूर्णकालिक विश्वसनीय उपचार प्रदान करती है। निश्चित रूप से, उनकी आयुर्वेदिक चिकित्सा व उपचार रामबाण का काम करती है।
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दुबे क्लिनिक
भारत का प्रमाणित आयुर्वेद और सेक्सोलॉजी क्लिनिक
डॉ. सुनील दुबे, विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य व सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर
बी.ए.एम.एस. (रांची), एम.आर.एस.एच. (लंदन), आयुर्वेद में पी.एच.डी. (यू.एस.ए.)
भारत गौरव और अंतर्राष्ट्रीय आयुर्वेद रत्न अवार्ड से सम्मानित
सेक्सोलॉजिस्ट पेशे में 35 वर्षों का अनुभव
दुबे क्लिनिक में पूर्णकालिक कार्य (08:00 पूर्वाह्न से 08:00 अपराह्न तक)
!!!हेल्पलाइन: +91-98350-92586!!!
वेन्यू: दुबे मार्केट, लंगर टोली, चौराहा, पटना-04
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fastnews123 · 3 years ago
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Johann Wolfgang von Goethe Biography in Hindi जोहान वुल्फगैंग वॉन गोएथे जर्मन लेखक और राजनेता थे। उनके कार्यों में चार उपन्यास शामिल हैं; महाकाव्य और गीत कविता; गद्य और कविता नाटक; संस्मरण; एक आत्मकथा; साहित्यिक और सौंदर्य आलोचना; और वनस्पति विज्ञान, शरीर रचना, और रंग पर ग्रंथ। इसके अलावा, कई साहित्यिक और वैज्ञानिक टुकड़े हैं, 10,000 से अधिक पत्र हैं, और उनके द्वारा लगभग 3,000 चित्र मौजूद हैं। 25 वर्ष की आयु तक एक साहित्यिक सेलिब्रिटी, गोएथे को 1782 में अपने पहले उ��न्यास द सॉरोज़ ऑफ़ यंग वेरथर (1774) की सफलता के बाद नवंबर 1775 में निवास करने के बाद 1782 में सक्स-वेमर, कार्ल अगस्त के ड्यूक द्वारा डूब गया था। वह स्टर्म अंड ड्रैंग साहित्यिक आंदोलन में शुरुआती प्रतिभागी थे।  वीमर में अपने पहले दस वर्षों के दौरान, गोएथे ड्यूक की निजी परिषद के सदस्य थे, युद्ध और राजमार्ग आयोगों पर बैठे थे, पास के इल्मेनौ में रजत खानों को फिर से खोलने पर नजर रखे और जेना विश्वविद्यालय में प्रशासनिक सुधारों की एक श्रृंखला लागू की। उन्होंने वीमर के वनस्पति उद्यान की योजना और इसके ड्यूकल पैलेस के पुनर्निर्माण में भी योगदान दिया, जिसे 1998 में क्लासिकल वीमर नाम के तहत यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल को एक साथ नामित किया गया था।(Johann Wolfgang von Goethe Biography in Hindi)                 उनके पिता, जोहान कैस्पर गोएथे (1710-82), एक अमीर दर्जी से बने इंटर्नकीपर के बेटे, अवकाश का एक आदमी थे जो अपने विरासत में रहते थे और लीपजिग और स्ट्रैसबर्ग में कानून का अध्ययन करने और इटली, फ्रांस दौरे के बाद खुद को समर्पित थे , और कम देश, किताबें और चित्रों को इकट्ठा करने और अपने बच्चों की शिक्षा के लिए। गोएथे की मां, कैथरीना एलिज़ाबेथ टेक्स्टर (1731-1808), फ्रैंकफर्ट के सबसे वरिष्ठ अधिकारी की बेटियों में से एक थीं और अपने पति की तुलना में एक जीवंत महिला अपने बेटे की उम्र में करीब थीं। गोएथे सात बच्चों में से सबसे बड़े थे, हालांकि केवल एक अन्य वयस्कता में बचे थे, उनकी बहन कॉर्नेलिया (1750-77), जिनके लिए उन्हें एक संभावित स्नेह महसूस हुआ, जिनकी संभावित संवेदना प्रकृति को वह अवगत मानते थे। कवि के बचपन में एक और भावनात्मक कारक जो उसके बाद के विकास को प्रभावित कर सकता था, एक छोटे भाई के साथ प्यार-नफरत संबंध था, जिसकी मृत्यु 1759 में छह वर्ष की आयु में हुई थी: गोएथे के साहित्यिक समकालीनों के साथ बाद के संबंध संदिग्ध थे, हालांकि उन्होंने उन्हें "भाइयों" के रूप में वर्णित किया , "और वह मृत्यु के साहित्यिक और कलात्मक प्रतिनिधित्व द्वारा हटाना था।           गोएथे ने 1794 में कवि और नाटककार फ्रेडरिक शिलर से मुलाकात की, एक सहयोगी संबंध शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप दोनों कलाकारों के लिए रचनात्मक सफलता होगी। दोनों ने वीमर थियेटर को ��ाष्ट्रीय खजाने में बदल दिया और उनके संचयी लेखन जर्मन साहित्य का दिल बनाते हैं, जिन्हें मोजार्ट और बीथोवेन जैसे कई संगीतकारों द्वारा भी अनुकूलित किया गया है। गोएथे ने इस अवधि के दौरान बड़े पैमाने पर लिखा, जिसमें रोमन एलेजीज, इटली की यात्रा के बारे में एक मोहक 24-कविता चक्र भी शामिल था, लेकिन 1805 में शिलर की मृत्यु के बाद तक वह अपने सबसे प्रसिद्ध काम, फास्ट, शैतान के साथ एक द्वंद्वयुद्ध के बारे में नहीं था उत्कृष्ट ज्ञान की तलाश में। महाकाव्य कविता-के-नाटक को ओपेरा में अनुकूलित किया गया है और अभी भी पूरी दुनिया में प्रदर्शन किया जाता है। यद्यपि गोएथे अपने साहित्यिक काम के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं, फिर भी उन्होंने विज्ञान में गहरी रूचि रखी और रंग सिद्धांत और पौधे के रूप में काफी कुछ लिखा। उन्होंने यूरोप में खनिजों का सबसे बड़ा संग्रह स्वामित्व किया और उनके कामों ने 1 9वीं शताब्दी के प्रकृतिवादियों को बहुत प्रभावित किया। उनके काम, प्लांट्स के मेटामोर्फोसिस (17 9 0) और थ्योरी ऑफ़ कलर्स (1810) उनके कुछ महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयास हैं।       Johann Wolfgang von Goethe hindi Johann Wolfgang von Goethe book Johann Wolfgang von Goethe movie Johann Wolfgang von Goethe Johann Wolfgang von Goethe history about Johann Wolfgang von Goethe Johann Wolfgang von Goethe Johann Wolfgang von Goethe Biography
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prakhar-pravakta · 3 years ago
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बायोकेमेस्ट्री और फिजियोलाजी की हिंदी में दो-दो किताबें होंगी
बायोकेमेस्ट्री और फिजियोलाजी की हिंदी में दो-दो किताबें होंगी
भोपाल। चिकित्सा की किताबों का हिंदी में अनुवाद करने के बाद पृष्ठ संख्या बढ़ गई है। एमबीबीएस प्रथम वर्ष में अभी तक बायोकेमेस्ट्री और फिजियोलाजी की एक-एक किताबें लगती थीं, लेकिन अब दो किताबें (वाल्यूम) कर दिए गए हैं। एनाटमी (शरीर रचना विज्ञान) की पुस्तक के पहले भी तीन खंड (वाल्यूम) थे। हिंदी में भी तीन खंड ही होंगे। हालांकि, खंड बढ़ने के बाद भी किताबों की कीमत लगभग पहले के बराबर ही है। चिकित्सा…
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gloriousbanditcashpurse · 3 years ago
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🙏🙏🔔🔔🪔🪔🛕🛕🌎🌍📡📡🎙️🎙️🇮🇳🇮🇳🕓🌹🌹भक्ति सत्संगमयी शुभ सुंदर मंगलमय सोमवार ❣️आज देवी माँ चंद्रघंटा का तीसरे पावन नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं : जय माता दी : हरिबोल ❣️प्रेम से बोलो सच्चिदानंद भक्त वत्सल भगवान की जय ❣️जय जय श्री राधे ❣️श्रीमद् भागवत महापुराण अमृत कथा (गंतव्य से आगे) : - - श्रीशुकदेवजी ने कहा - परीक्षित! जब भगवान के अंश ने उस तेईस तत्वों के शरीर में प्रवेश किया तब विश्व की संरचना करने वाले महत्तत्व आदि का समुदाय एक-दूसरे से मिलकर जाग्रत हो उठा और परिणाम को प्राप्त हुआ। तत्वों का वह परिणाम ही विराट पुरुष है जिसमें यह सारा चराचर जगत् विद्यमान है। जैंसे जल के अंदर अण्डरूप आश्रय स्थान में वह हिरण्यमय विराट पुरुष संपूर्ण जीवो को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षौ तक वहीं रहा। उस समय विश्व रचना करने वाले तत्वों का वह गर्भकाल था और ज्ञान क्रिया तथा आत्म शक्ति से संपन्न था। यह विराट पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा जीव रूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम जीव इसी अंश से प्रकाशित हुआ। उस विराट पुरुष को जाग्रत करते हुए उसमें सबसे पहले मुख प्रकट हुआ फिर वाणी तालु जिह्वा नथुनें आंखे त्वचा वायु कान लिंग हाथ पैर पेट ह्रदय मन बुद्धि अंहकार महत्तत्व (ब्रह्मा) चेतना सिर केश नाभि आदि प्रकट हुए जिससे क्रमशः वह बोलता है स्वरों का उतार-चढ़ाव पैदा करता है स्वाद लेता है सूंघता है देखता है स्पर्श का अनुभव करता है सुनता है नए जीव की उत्पत्ति करता है मल त्यागता है कर्म करता है विचार करता है चलता है भोजन ग्रहण करता है रक्त संचार करता है अच्छा - बुरा ��िर्णय करता है गर्व प्रदर्शित करता है सृष्टि का निर्माण और संतुलन करता है सुरक्षा करता है अंतरिक्ष का अनुभव करता है स्वर्ग - नरक का मार्ग प्रशस्त करता है। इन सभी में तीन गुण - सत रज और तम अपना-अपना कार्य करते हैं। संत से देवताओं का वास शरीर में होता है। रज से मनुष्य का बोध होता है और तम से पाप तथा प्रेत योनि का अह्सास होता है..... To be continued... आरती श्रीमद् भागवत अमृत महापुराण की ।आरती अति पावन पुराण की ।धर्म भक्ति विज्ञान खान की ।कलि मल मथनि त्रिताप निवारिनि ।जन्म मृत्यु मय भव भय हारिनि ।सेवत सतत सकल सुखकारिनि ।समहौषधि हरि चरित्र ज्ञान की ।आरती..... प्रणाम : जय श्री राधे 🛕🛕🪔🪔🔔🔔🌎🌍📡📡🎙️🎙️🇮🇳🇮🇳🙏🙏🕓🌹🌹 https://www.instagram.com/p/Cb58Qlahk0z/?utm_medium=tumblr
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lok-shakti · 3 years ago
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आपके चेहरे का हर रोमछिद्र दीवारों वाला बगीचा है
आपके चेहरे का हर रोमछिद्र दीवारों वाला बगीचा है
आपकी त्वचा हजारों प्रकार के जीवाणुओं का घर है, और जिस तरह से वे स्वस्थ त्वचा में योगदान करते हैं वह अभी भी काफी हद तक रहस्यमय है। यह रहस्य और भी जटिल हो सकता है: सेल होस्ट एंड माइक्रोब जर्नल में गुरुवार को प्रकाशित एक पेपर में, शोधकर्ताओं ने 16 मानव स्वयंसेवकों पर क्यूटीबैक्टीरियम एक्ने बैक्टीरिया की कई किस्मों का अध्ययन करते हुए पाया कि प्रत्येक छिद्र अपने आप में एक दुनिया थी। प्रत्येक छिद्र में…
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gadgetsforusesblog · 2 years ago
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Financetime.in हरियाणा में चिकित्सा शिक्षा के पाठ्यक्रम को बदलने के लिए एमबीबीएस में आयुर्वेद को शामिल करना, स्वास्थ्य समाचार, ईटी हेल्थवर्ल्ड
नई दिल्ली: हरियाणा सरकार एमबीबीएस छात्रों के लिए पांचवें वर्ष में आयुर्वेद की पढ़ाई अनिवार्य करने की दिशा में काम कर रही है। इस दिशा में हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने मेडिकल छात्रों को आयुर्वेद पढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम कार्यक्रम तैयार करने और तैयार करने के लिए टीमों का गठन किया है। शरीर रचना विज्ञान और शरीर विज्ञान जैसे विषय, जो एलोपैथी और आयुर्वेद दोनों में पाए जाते हैं, दोनों शाखाओं के…
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eliteeduversity · 4 years ago
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"वैदिक वाङमय में उपनिषद् साहित्य"तथा पाश्चात्य विद्वानों पर इसका प्रभाव
DKLIF/2021/EM23
 अमूल्य निधि-परिपूरित संस्कृत-साहित्य के वैदिक मन्त्र अनादिकाल से मानव मात्र के लिये मार्गदर्शक रहे हैं। भारतीय संस्कृति के आधार भूत वेदों की अंतिम शब्दराशि ही "उपनिषद्' की संज्ञा से अभिहित है। भारतीय विचारधारा के विकास पथ में उपनिषदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहाँ तक कि भारतीय साहित्य, शिल्प, विज्ञान, दर्शन, कुल धर्म, जातिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रनीति, अर्थनीति, स्वास्थ्यनीति और व्यवहार नीति इस सभी का निर्माण और प्रसार उपनिषद् ज्ञान को मानव जीवन के परम आदर्श के रूप में मान करके ही हुआ है। उपनिषद् ही भारतीय संस्कृति के प्राण स्वरूप है।
    उपनिषदों के परिशीलन से परिलक्षित होता है कि “उपनिषद्-साहित्य व उज्ज्वल रत्�� है, जिसके आलोक में विज्ञजनों की अंतरात्मा आलोकित हो उठती है। फलतः एक नवीन आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि तथा दार्शनिक तर्क प्रणाली प्राप्त होती है। आत्मा और परमात्मा की एकता सर्वशक्तिमत्ता विलक्षणता तथा महत्ता ही उपनिषदों का वर्ण्य विषय है।
    वस्तुतः उपनिषद् साहित्य वह आध्यात्मिक मानस सरोवर है जिससे अनेकानेक सरिताएं निकलकर इस पावन दर्शन भूमि को अवगाहित करती हैं तथा मानव मात्र के ऐहिक कल्याण और आयुष्मिक मंगल का निष्पादन करती हैं। मानव जाति के आध्यात्मिक इतिहास में उपनिषद् साहित्य उस विस्तृत अध्याय की भांति है जो युग-युगान्तर से भारतीय धर्म, दर्शन और जीवन को निरन्तर अनुशासित करता आ रहा है।
    भारतीय तथ्य ज्ञान का जितना उत्कृष्ट विवेचन उपनिषदों में मिलता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। उपनिषदों का गर्भ अनेकानेक रहस्यों से परिपूरित है इसीलिए “इन्हें रहस्यों की उद्भाविका कहा गया है।“1
पवित्र पुस्तकों में उपनिषद् ही वे पवित्र पुस्तकें है जो सर्वाधिक पवित्र तथा उन्नत विचारों को धारण करती हैं।2
    अनादि सनातन तथा कालातीत् उपनिषद् यद्यपि वेदशीर्ष या वेदसार है, तथापि वेद से पृथक नहीं है। अतः उपनिषद् वाङमय भी परमेश्वर का निःश्वासभूत है। जीव को कौन कहें परमेश्वर के भी प्रयत्न और बुद्धि का उपयोग उपनिषदों के निर्माण में नहीं हुआ है, अपितु अकृत्रिम, अपौरुषेय, निःश्वासवत्, सहजरूप में उपनिषदें प्रादुर्भूत हुयी हैं। जिनका साक्षात्कार वैदिक ऋषियों द्वारा मंत्र के रूप में किया गया है। इन उपनिषदों का विषय वेदान्त विज्ञान अथवा ज्ञानकाण्ड है।
    उपनिषदों के सर्वाधिक अमूल्य विचार वे हैं, जिनकी आधारशिला पर समस्त दार्शनिक परम्परा खड़ी है। औपनिशदिक दर्शन शास्त्रियों की सम्पूर्ण विचारधारा ब्रह्मः आत्मा और मायाका ज्ञान होना परमावश्यक हो जाता है। "पाश्चात्य विद्वान पालऽयूशन ने उपनिषदों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि भारतीय बौद्धिकता रूपी वृक्ष पर उपनिषदों से अधिक सुन्दर कोई अन्य पुष्पवृत्त नहीं है।"3  उपनिषदें विभिन्न परिस्थितियों से ऊपर उठकर मानव को अन्तः प्रेरित करती है। यद्यपि उपनिषदों में विभिन्न विचारधारा में प्राप्त होती है। फिर भी अन्तोगत्वा सबका उद्देश्य मूलतः एक ही तत्त्व का प्रतिपादन है। जिसे कहीं सर्वोच्च सत्ता तथा कहीं आत्मा या ब्रह्मा की संज्ञा प्रदान की गयी है।
    इस प्रकार सुस्पष्ट है कि उपनिषद् "वेद" का ज्ञान काण्ड है। यह वह चिर प्रदीप्त ज्ञान दीपक है जो सृष्टि के आदिकाल से ��्रकाश देता चला आ रहा है, और लयपर्यन्त पूर्ववत प्रकाशित रहेगा इसके प्रकाश में अमरत्त्व है, जिसने सनातन धर्म के मूल का सिंचन किया है। वह जगतकल्याणकारी भारत की अपनी निधि है। जिसके सम्मुख विश्व का प्रत्येक स्वाभिमानी राष्ट्र श्रद्धा से नतमस्तक रहा है और सदैव रहेगा। अपौरुषेय वेद का अन्तिम अध्याय रूप यह उपनिषद ज्ञान का आदिस्रोत और विद्या का अक्षय भण्डार है। वेद विद्या के चरम सिद्धान्त                  "नेह नानास्तिं किञ्चन..........................।।" कठोपनिषद् 2/1/11/
    इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए यह उपनिषद् जीव को अल्पज्ञता से सर्वज्ञता की ओर जगत के त्रिविध दुःखों के एकान्तिक आत्यान्तिकानन्द की ओर तथा जन्म मृत्यु बन्धन से अनवतर स्वातन्त्र्यमय शाश्वत शांति की ओर ले जाती है।
    'वेद' भारतीय ज्ञान विज्ञान के उद्गम केन्द्र हैं। इनके महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक शब्दों का विस्तार उपनिषदों में हुआ है। अर्थात् वैदिक संहिताओं में यत्र-तत्र जो बिखरे हुये महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक तत्त्व दिखलाई देते हैं उन्हीं उपलब्ध तत्त्वों के आधार पर बाद में औपनिषद् को "श्रुति" भी कहा जाता है।
    संहिता ब्राह्मण, आख्यक तथा उपनिषद् के भेद से वेद के चार विभाग माने गये हैं। इनमें अन्तिम विभाग उपनिषद् साहित्य ही "वेदान्त" के नाम से जाना जाता है। वैदिक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य इन्हीं उपनिषद् ग्रन्थों में ही समुपलब्ध होता है तथा विभिन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान भी प्राप्त होता है। अतः इनका कथन अन्त में ही अपेक्षित था । श्वेताश्वतरोपनिषद्के  अनुसार "वेदान्त शब्द रहस्यात्मक ज्ञान का बोधक है।4
    ज्ञातव्य है कि उपनिषदों के पूर्व वैदिक दार्शनिक-चिन्तन पद्धति उपनिषदों जैसी नहीं थी। यही कारण है कि संहिताओं में यत्र तत्र संक्षिप्त रूप में ही इन विचारों का प्रस्फुटन दृष्टिगोचर होता है। वैसे कहीं-कहीं दार्शनिक तथ्यों का विकसित स्वरूप भी देखने को मिलता है। जैसे नासकीय सूक्त5, पुरुष सूक्त6, हिरण्यगर्म सूक्त7, वाकसूक्त8 तथा शिव संकल्प सूक्त9 इत्यादि।
    ऋग्वैदिक मंत्र “एक सद्धिप्रा वहुधावदन्ति । अग्निं यम मातरिष्वान माहः, के माध्यम से ऋषि उस परमसत्ता की ओर संकेत करता है जिसका उपनिषदों में भिन्न-भिन्न रूपों में उद्घोष किया गया है, जैसे – “ईशावास्यामिदं सर्वम् यात्विञ्च जगत्यां जगत"11 "आत्मैवेदं सर्वम"12 तथा "सर्व रवात्विदं ब्रह्मा"13 इत्यादि।
    ऋग्वेदस्य नासकीय सूक्त में ब्रह्म के उस स्वरूप का वर्णन किया गया है जो सभी वस्तुओं का अन्तस्तत्व है। किन्तु स्वतः अवर्णनीय है।
           "नासदासीन्नो सदासीत् तदान्तिं । नासीद्रजोतो चोयापरोयत्।। 14
अर्थात् जो कुछ था वह पहले नहीं था। न पृथ्वी थी न आकाश था और न उसके परे स्वर्ग लोक ही था। कहने का तात्पर्य यह है कि उस परम् ब्रह्म के परे भी नहीं था। इसी सूक्त के एक मंत्र में सृष्टि के उद्भव एवं ज्ञान के प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हुए ऋषि कहता है कि-          इयं विसृष्टिर्यत् आवभूव यदिवादधे यदि वा न ।
                                                                         यो अस्याध्यक्षः परमेत्योग्न्त्सो अड्ग वेद यदि वानवेद।।15
                   अर्थात् - यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई है, उसने इसे बनाया या नहीं बनाया। तबसे उच्च लोक में, जो इसका अध्यक्ष है, वह इसे जानता है, वह भी नहीं जानता।
       सृष्टि के आदि में मौलिक तत्व के संदर्भ में इस सूक्त में उल्लिखित है कि-
                                                                           "अनादिवातं स्वध्या तदेकं । तस्माद्वन्यन्न परः किंचनास।।16
                   अर्थात् – उस समय एक ही तत्व था, जो हवा के बिना भी श्वास लेता था तथा
अपनी स्वाभाविक शक्ति से जीवित था।
    दार्शनिक महत्व की दृष्टि से ऋग्वेद संहित का "पुरुषसूक्त" भी अत्यंत प्रसिद्ध हैं इस सूक्त में प्रस्फुटित विचार उपनिषद् चिन्तन की आधार शिला है। इसमें आध्यात्मिक कल्पना का जो भव्य निदर्शन होता है। वह अन्यंत्र सर्वत्र दुर्लभ है, परम्पुरुष की सर्वव्यापक्ता और महत्ता का एक ज्वलन्त ‘रूप अन्यंत्र देखने को नहीं मिलता। यहाँ पर परम्पुरुष को असंख्य शिरों, असंख्य पादों तथा असंख्य नेत्रों वाला बताया गया है। इसी परम्पुरुष को ही अमरतत्व का स्वामी तथा कार्य-कारण दोनों का नित्य है। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है। होगा, वह सब परम्पुरुष ही है। जितने भी जीव हैं, सबमें वहीं है। इस पुरुष की महिमा अनन्त और असीम है यह सम्पूर्ण विश्व उसी से व्याप्त है।17
    इसके अतिरिक्त ऋग्वेद संहिता का हिरण्यगर्भ गर्भसूक्त तथा वाकसूक्त भी अपनी दार्शनिक गम्भीरता के कारण नितान्त प्रसिद्ध हैं। दृिख्यगर्भ के सन्दर्भ में अपनी विचिकित्सा प्रकट करते हुए ऋषि कहता है- “हिरण्यगर्भ (प्रजापति) सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होते ही सम्पूर्ण प्राणियों का अद्वितीय स्वामी हो गया तथा उसने इस पृथ्वी और धुलोक को धारण किया। (उसे छोड़कर) हम किस देवता के लिये छवि का विधान करें।"18
   इस प्रकार यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता में भी औपनिषद् चिन्तन के मूलतत्व दृष्टिगोचर होते हैं। यजुर्वेद संहिता का चालीसवें अध्याय ही ईशावास्योपनिषद के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर आत्मा की व्यापकता क��� दर्शाते हुये कहा गया है कि वह आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। दीप्तिमान है: शरीर से असम्पृक्त तथा प्राणों से रहित है। वह नाडियों से रहित, शुद्ध और पापों से वर्जित है। वह सर्वदृष्टा मनीषी, सर्वोत्कृष्ट तथा स्वयम्भू है। उसके द्वारा सृष्ट पदार्थों में सदा से ही औचित्य का आधार बना हुआ है।19
    अथर्ववेद संहिता में दार्शनिक सूक्तों का बाहुल्य है। उपनिषदों में प्रयुक्त सर्वाधिक महत्व का शब्द "ब्रह्मन" परमपुरुष के रूप में अनेकशः वर्णित है। जिसका उपनिषदे बार-बार वर्णन करती है अन्य वैदिक संहिताओं में "ब्रह्मन" शब्द का प्रयोग मंत्र या प्राथना के अर्थ में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का स्पष्ट कथन है- "ब्रहन वै मन्त्रे:20
    ब्रह्म के स्वरूप तथा उसकी महत्ता को व्यक्त करते हुये अथर्वसंहिता में कहा गया है कि "ज्ञानियों द्वारा ज्ञेय और उपासनीय तथा पृथ्वी से अन्तरिक्ष पर्यन्त व्याप्त उस परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए।
    "डॉ० एस० राधाकृष्णन् के अनुसार" वैदिक सूक्तों में सन्निहित दार्शनिक प्रवृत्तियों का विकास उपनिषदों में ही हुआ। इन्हीं विचारों के पोषक महर्षि अरविन्द जी लिखते हैं" उपनिषदें वैदिक मंत्र और उनके स्वभाव तथा मूलभूत विचारों से क्रांतिकारी रूप में पृथक नहीं है, अपितु ये उनके विस्तार तथा विकास की ही साक्षात् प्रतिमूर्ति है।
पाश्चात्य विद्वानों पर उपनिषदों का प्रभाव:- उपनिषदों के गूढ़तम तथा सार्वभौमिक सिद्धान्तों से प्रत्येक विद्वान प्रभावित हुआ है। चाहे वह किसी भी देश का अथवा किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। यही कारण है कि मानव मात्र से जो सम्मान उपनिषदों को प्राप्त हुआः वह किसी अन्य धर्मग्रन्थ को प्राप्त न हो सका।
    विदेशी विद्वान उपनिषदों में बहुत से ऐसे प्रश्नों का समाधान पाकर आश्चर्य चकित हो गये, जिनका उत्तर अन्य धर्मों तथा दर्शनों में उन्हें या तो मिला ही नहीं था, या तो सन्तोष जनक नहीं था, उदाहरणार्थ- ब्रह्म अथवा ईश्वर का स्वरूप क्या है। जीवात्मा किस तत्व से बना है ? संसार की रचना किस तत्व से हुयी है जीव की स्वर्ग या नर्क में स्थिति कितने काल तक रहती है, मरने के बाद क्या होता है ? देह की रचना के पूर्व देही का अस्तित्व था या नहीं? कुछ लोग जन्म से ही सुखी या दुःखी क्यों होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर उपनिषद् ग्रन्थों में इतना वैज्ञानिक तथा सन्तोषप्रद है कि प्रत्येक जिज्ञासु के मन पर अपनी अमिट छाप छोड़े बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि केवल भारतीय मनीषियों ने ही मुक्तकण्ठ से प्रशंसा नही की है :-अपितु विधर्मी और विदेशी विद्वानों ने भी इसकी महत्ता तथा सर्वोपदेयता को निःसंकोचभाव से स्वीकार किया है। इन विद्वानों में शापेनहावर, मैक्समूलर, पाल डयूसन, मैक्डानल ह्यूम, आर्क, काजिन्स, लेगल, हक्सले, ब्लूमफील्ड, श्रीमती एनी बेसेन्ट, ए० बी० कीथ, ओल्टायेयर, ओल्डेन वर्ग, ए० डी० गफ, जी० एच० लोगले, मैकेन्जी, स्टेटर इत्यादि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। कुछ प्रमुख पाश्चात्य विचारकों के उपनिषद सम्बन्धी विचार निम्नलिखित है-
    जर्मन विद्वान शापेनहावर उपनिषदों की प्रशंसा करते हुये लिखते हैं कि “सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को ऊँचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उनसे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, इन्हीं से मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।" 22 शापेनहावर के इन शब्दों को उदधृत करते हुये प्रो० मैक्समूलर ने लिखा है कि - शापेनहावर के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं इनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा।23 शापेनहावर महोदय की स्पष्ट घोषण है कि ये सिद्धान्त ऐसे हैं जो एक प्रकार से अपौरुषेय ही हैं। ये जिनके मस्तिष्क की उपज है उन्हें मनुष्य मात्र कहना कठिन है।
    जर्मन विद्वान पाल डयूशन से उपनिषदों का मूलतः संस्कृत अध्ययन करने के पश्चात लिखा है कि उपनिषदों के भीतर जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत में तो अद्वितीय है ही, सम्यवतः सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है।24 डयूशन महोदय की स्पष्ट घोषणा है कि-  
    काण्ट और शापेनहावर के विचारों की उपनिषदों ने बहुत कल्पना कर ली थी तथा सनातन दार्शनिक सत्य की अभिव्यंजना, मुक्तिदायनी आत्मविद्या के सिद्धान्तों से बढ़कर निश्चयात्मक प्रभावपूर्ण रूप से कदाचित ही कही हुयी हो।25
    मैक्डॉनल का कथन है कि:- मानवीय चिन्तन के इतिहास में सबसे वृहदाख्यकोपनिषद् में ही ब्रह्म अथवा पूर्णतत्व को ग्रहण करके इसकी यथार्थव्यंजना हुयी है।200 डयूशन महोदय ने तो यहाँ तक लिखा है कि मैं भारत की यात्रा पर गया था, वहाँ मैने बहुत कुछ पाया, परन्तु मैने वहाँ जो सबसे बहुमूल्य विभूति प्राप्त की है वह है - पवित्र संस्कृत भाषा में ऋषियों के दिव्य ज्ञान से ओत-प्रोत "उपनिषेद" 26
    ह्यूम महोदय के अनुसार सुकरात अरस्तु अफलातून आदि कितने ही दार्शनिकों के ग्रन्थ मैने ध्यानपूर्वक पढ़े: परन्तु जैसे शक्तिमयी आत्मविद्या उपनिषदों में पाया वैसी कही अन्यत्र देखने को नहीं मिली।27
    डी० जी० आर्क ने उपनिषदों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि मनुष्य की आत्मिक मानसिक और सामाजिक गुत्थियों किस प्रकार सुलझ सकती हैं। इसका ज्ञान उपनिषदों में ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य शिव और सुन्दर है कि आत्मा की गहराई तक उसका प्रयोग प्रवेश होता है। जब मनुष्य सांसारिक दुःखों से और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोद्य साधन के रूप में उपनिषदें सहायक हो सकती हैं।28
    सन् 1944 बर्लिन में थ्री शेलिंग महोदय के उपनिषद सम्बन्धी व्याख्यान को सुनकर प्रसिद्ध प्रो० मैक्समूलर अत्यन्त प्रभावित हुये तथा अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुये अपनी पुस्तक (द उपनिषद्) में लिखें-उपनिषद् प्रतिपादित वेदान्त धर्म ही सम्पूर्ण पृथ्वी का धर्म होगा, यही मनीषियों की भविष्यवाणी है।29
    इस प्रकार सुस्पष्ट है कि न केवल भारतीय मनीषियों ने ही नहीं, अपितु पाश्चात्य मनीषियों ने भी औपनिदिक तथ्यों को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है अपवाद रूप में कुछ पाश्चात्य विद्वानों को रखा जा सकता है जिन्होंने न केवल उपनिषदों की अपितु सम्पूर्ण वैदिक वाङमय की निन्दा की है इसका प्रमुख कारण उन महामहिम विद्वानों को ओछी (निम्न) बुद्धि जो उस तत्व तक न पहुँच सकी जहाँ तक पहुँचने में न केवल एक जन्म का अपितु अनेक जन्मों का समय तथा श्रम लगता है।
सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची
1- The upnishads contain a secret which is not easy to explore or
unrevealed. The ten upnishads essentally means the secret or
"Rahasya" Studies in the upnishads P.10
2- Alone amont the large number of sacred texts of Hindu religion, the
upnishads have been held a 10p+as specimens of Indian thoughts at
it's highest. The upnishads alone are entitled to respect the true Indian
spirit in the sphere of religion and philosopy (The upnishads Costwoys
of Knowledge P.5)
3- The tree of the Indian wisdom there is no fairer flower than the upnishads.
- (The Philosophy of upnishads. P.18)
4- वेदान्ते परम गुहनां पुराकल्पे प्रचोदितयं (श्वेताश्वर उपनिषद्) 6122
5-'ऋग्वेद                                                                       : 10/1291
6- ऋग्वेद                                                                       : 10/90
7-ऋग्वेद                                                                        : 10/121
8-ऋग्वेद                                                                        :10/125
9- शुक्लयजुर्वेद                                                              : माध्यन्दिन वाजसनेय संहित 34/1-611
10- ऋग्वेद                                                                     : 10/168/46
11- ईशा वास्योपनिषद्                                                    : 1
12- छान्दोग्योपनिषद्                                                      : 17/25/2
13- छान्दोग्योपनिषद                                                      :13/14/1
14- ऋग्वेद                                                                     : 10/129/1
15- ऋग्वेद                                                                     : 10/129/7
16- ऋग्वेद                                                                     : 10/129/2
17- सहसृर्शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात
     स चूमि विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशागुलम्पु
     रुष एवेदं सर्व-यद्धतं यच्च मध्यम्
     उतामृतत्व स्येशानो यदन्नोति रोहति
18-  हिरण्यगर्भः सयवर्तताग्ते भूतस्य जातः
     पतिरेक आसीत् स दाधार पाथिवी
     द्यायुतेयां देवाय हविषा विधेय (ऋग्वेद)                            : 10/121/1
19- शुक्लयर्जुवेद संहिताः                                                    : 140/8
     अथवा ईश्व��स्योपनिषद्                                                   :8
20- शतपथ ब्राह्मण                                                             : 7/1/1/1/5/
21- यस्यभूमिः प्रभान्तरिक्षमुतोदरम्
     दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाम ब्राह्मणेनमः
22- "In the whole world there is no study so elovating as that of the upnishads.
       It has be neto solace of my life ut will be the solace of my death."
      - Sacred book of East P.44
23-"It these word of schopen hour required any confirmation I would willingly
give it as a result of my life long study."                                                                     The upanishads P.64
24-"Almost superhuman conception whose originato rs can hardly be said
to be mere men."
25-"Philosophical conception unequalled in indai, or perhaps any where
clse in the world."                                                                         - The philosophy of the upanishads P.14
26-"Iternal philosophical truth has scldom found more decisive and suriking
expression then in the doctrine of the emanupating knowledge the Atma:"
27-Bramha or Abslute is grasped and definitely enpressed for the first time
in the history of human thought in the Brihedaranyako-panishad"
A History of Sanskrit literature P.36
28-The Philosophy of upanishads. P.26
29-Dogmas of Buddhism P.25
डॉ० सुधा शुक्ला
-सहायक आचार्य (संस्कृत)
कर्मयोगी कालेज आफ एजूकेशन मुलिहामऊ, रायबरेली
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drsunildubeyclinic · 7 months ago
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Ayurveda Specialist Sexologist in Patna, Bihar India | Dr. Sunil Dubey
आयुर्वेद और हमारा जीवन:
भारत की एक पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली जिसे आयुर्वेदिक उपचार कहा जाता है। प्राचीन समय के अध्ययन से पता चलता है कि आयुर्वेद की उत्पत्ति अथर्ववेद से मानी जाती है, जिसमे कई बीमारियों का उल्लेख उनके उपचारों के साथ किया गया है। आयुर्वेद का मानना ​​है कि पूरा ब्रह्मांड पाँच तत्वों के संयोजन जैसे कि वायु, जल, अंतरिक्ष, पृथ्वी और अग्नि से बना है। ये पाँच तत्व हमेशा पंचमहाभूत को भी संदर्भित करते हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा भारत का मूल व पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली है जो पंचकर्म (5 क्रियाएँ) सहित कई तरह के उपचारों का संदर्भित करती है।
पंचकर्म के नाम निम्नलिखित हैं:-
योग
मालिश
एक्यूपंक्चर
हर्बल दवा
स्वास्थ्य संवर्धन
आयुर्वेद का हमारे जीवन में उद्देश्य:
आयुर्वेद एक प्राकृतिक चिकित्सा व उपचार की पद्धति है, जिसकी उत्पत्ति 3000 वर्ष पूर्व भारत में हुई थी। आयुर्वेद शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है- आयुर् का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ है विज्ञान। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि (आयुर् + वेद) आयुर्वेद हमें प्रकृति के माध्यम से जीवन ���ीने का संपूर्ण ज्ञान प्रदान करता है। प्रकृति के साधनो व संसाधनों का सदुपयोग करना ही जीवन का मूल उद्देश्य है।
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आयुर्वेद के सात चरण होते है:
वास्तव में, आयुर्वेद के सात चरणों को सप्त धातुएँ भी कहा जाता है। प्रत्येक अवस्था का हमारे जीवन में अपना ही महत्व है। ये चरण निम्नलिखित हैं: -
रस: रस स्वाद से कहीं अधिक एक बड़ी अवधारणा है, जहाँ स्वाद किसी बड़ी अवधारणा में प्रवेश करने वाला पहला उपकरण होता है।
रक्त: "रक्त" शब्द देवनागरी शब्द "राज रंजने" से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है - लाल रंग।
मांस: यह शब्द संस्कृत भाषा "मनसा" से लिया गया है, जिसका आयुर्वेद में अर्थ  होता है - तीसरा ऊतक, मांसपेशी ऊतक है।
मेद: आयुर्वेद चिकित्सा में, यह शब्द धातु ऊतक का प्रतिनिधित्व करता है जो वसा से संबंधित है।
अस्थि: आयुर्वेद में, अस्थि शब्द शरीर रचना के संदर्भ में मानव शरीर के बारे में सीखना को संदर्भित करता है।
मज्जा: यह शब्द तंत्रिका तंत्र से संबंधित है और इसे मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी में चयापचय प्रक्रियाओं को विनियमित करने वाला माना जाता है।
शुक्र: इसे शरीर में सातवीं धातु माना जाता है। यह शरीर का अंतिम ऊतक तत्व है।
आयुर्वेद के चार स्तंभ:
हमारे विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य डॉ. सुनील दुबे जो कि पटना के बेस्ट सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर भी है, वे कहते हैं कि जैसे कि हम सभी जानते है कि आयुर्वेद के चार स्तंभ होते हैं जो व्यक्ति को उसके अच्छे स्वास्थ्य को प्रबंधन करना व उसे तंदरुस्त बनाए रखने की कला सिखाते हैं। ये चार स्तंभ निम्नलिखित हैं-
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दिनचर्या: व्यक्ति अपनी दिनचर्या के साथ इस प्रकृति में कैसे रहता हैं, यह हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हमेशा मायने रखता है।
शरीर के लिए पोषण: व्यक्ति क्या खाता हैं और उसकी इंद्रियाँ क्या और कैसे अनुभव करती हैं, यह हमारे स्वस्थ शरीर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्तंभ है।
शरीर का पाचन: व्यक्ति जो कुछ भी अपने शरीर में ग्रहण करते हैं, उसे उसका शरीर कैसे पाचन करता है और वे कैसे उसका उत्सर्जन होता हैं, यह हमारे शारीरिक और मानसिक दोनों स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण स्तंभ है।
ऊर्जा प्रबंधन: मनोवैज्ञानिक, तनाव और कई अन्य घटनाएँ व्यक्ति के दिमाग में चलती रहती हैं। उसका ऊर्जा का स्तर इसे कैसे प्रबंधित करता है, जो व्यक्ति की सोच का संदर्भित करता है।
दरअसल, आज की यह चर्चा आयुर्वेदिक चिकित्सा-उपचार और हमारे यौन स्वास्थ्य देखभाल चिकित्सक (सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर) पर आधारित है। कई लोगों ने दुबे क्लिनिक से आयुर्वेद और व्यक्ति के दैनिक जीवन में इसके महत्व के बारे में कुछ जानकारी साझा करने का अनुरोध किया। यहाँ दुबे क्लिनिक ने व्यक्ति के स्वस्थ जीवन के लिए प्राकृतिक चिकित्सा व उपचार के बारे में कुछ जानकारी साझा करने का प्रयास किया है। हमें उम्मीद है कि इस लेख को पढ़ने के बाद वे लोग अपने यौन स्वास्थ्य के बेहतरी के लिए इस प्राकृतिक चिकित्सा से संतुष्ट होंगे जो हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
गुप्त व यौन विकारों के इलाज में आयुर्वेदिक चिकित्सा सबसे सफल क्यों है?
वास्तव में, आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली जड़ी-बूटियों, रसायनों, भस्म आदि प्राकृतिक तत्वों  पर आधारित है। एक अनुभवी आयुर्वेदिक सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर या आयुर्वेदाचार्य इस चिकित्सा प्रणाली में विशेषज्ञ होते हैं। डॉ. सुनील दुबे भारत के एक विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य और बिहार के सर्वश्रेष्ठ आयुर्वेदिक सेक्सोलॉजिस्ट हैं, जिन्हें आयुर्वेद और सेक्सोलॉजी चिकित्सा विज्ञान में साढ़े तीन दशकों से अधिक का अनुभव है। उनका कहना है कि आयुर्वेद में समस्त गुप्त व यौन बीमारी के लिए 100% सटीक इलाज और दवा उपलब्ध है। वे भारत के सबसे सीनियर सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर में से एक है और वे पुरुषों, महिलाओं, युवा और मध्यम आयु वर्ग के सभी गुप्त व यौन रोगियों को अपना व्यापक आयुर्वेदिक चिकित्सा व उपचार प्रदान करते हैं।
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उनका कहना है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा व उपचार एक सुरक्षित इलाज की प्रक्रिया हैं क्योंकि उन्हें प्राकृतिक अवयवों को शुद्ध करने से लेकर निर्माण तक की कई प्रक्रियाओं से गुज़ारने के बाद बनाया जाता है। इन सभी प्रक्रियाओं में मैन्युअल रूप से और गर्मी या अन्य रूपों में बहुत अधिक ऊर्जा लगती है। इसलिए, यह महंगा हो सकता है लेकिन इसे सभी उद्देश्यों के लिए गुणवत्ता-सिद्ध और सत्यापित होना चाहिए। आयुर्वेदिक दवाएं सभी गुप्त व यौन रोगियों (पुरुष और महिला) के लिए सबसे सफल प्राकृतिक उपचार प्रक्रिया है जो विभिन्न यौन रोगों से पीड़ित हैं।
पुरुष गुप्त रोगियों के लिए: - जो व्यक्ति स्तंभन दोष की समस्याओं, स्खलन विकार, शीघ्रपतन की समस्या, यौन संचारित रोगों, धातु रोग, कामेच्छा की कमी, बांझपन की समस्याओं व अन्य गुप्त रोग से पीड़ित हैं।
महिला यौन रोगियों के लिए:- जो मासिक धर्म संबंधी समस्याओं, यौन विकारों, योनि संबंधी समस्याओं, यौन संचारित संक्रमणों, दर्द विकारों, योनिजन्य दर्द आदि से पीड़ित हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा व उपचार की विशेषता:
हमारे आयुर्वेदाचार्य आयुर्वेद एवं सेक्सोलॉजी के चिकित्सा संकाय में आयुर्वेदिक सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर के रूप में एक लम्बे समय से कार्यरत हैं। बिहार के सभी जिलों व भारत के विभिन्न शहरों से गुप्त व यौन रोगी हमेशा दुबे क्लिनिक में परामर्श लेने के लिए जुड़ते हैं, इसलिए वे भारत के सर्वश्रेष्ठ सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर भी हैं। उनका कहना है कि चिकित्सा की यह प्राकृतिक प्रणाली गुप्त व यौन रोगियों को हमेशा सुरक्षित, शुद्ध, प्रभावी और विश्वसनीय उपचार प्रदान करती है।
आयुर्वेद उपचार की विशेषताएं निम्नलिखित हैं: -
समग्र गुप्त व यौन समस्याओं का रामबाण इलाज।
स्वाभाविक रूप से एंटीऑक्सीडेंट गुणों में सुधार करता है।
प्रतिरक्षा और रोगाणुरोधी क्षमता का निर्माण करता है।
मनोवैज्ञानिक रूप से तनाव प्रबंधन में मदद करता है।
हृदय, त्वचा, जोड़ों, यकृत और शरीर के लिए अच्छा है।
पाचन स्वास्थ्य के लिए हमेशा अच्छा है।
श्वसन स्वास्थ्य में भी सुधार करता है।
कोई भी रोगी इस आयुर्वेदिक दवा का उपयोग कर सकता है।
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दुबे क्लिनिक के बारे में:
दुबे क्लिनिक भारत का विश्वसनीय व  बिहार का पहला आयुर्वेदा व सेक्सोलॉजी चिकित्सा विज्ञान क्लिनिक है। वर्तमान समय में भारत के अधिकांश गुप्त व यौन रोगियों के लिए सबसे विश्वसनीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। यह एक प्रमाणित क्लिनिक है और पिछले 60 वर्षों से सभी प्रकार के गुप्त व यौन रोगियों को अपनी चिकित्सा व उपचार प्रदान करते आ रही है। यह आयुर्वेदिक क्लिनिक 6 दशकों की विरासत के साथ लाखों लोगों के विश्वास के पर खड़ी है।
डॉ. सुनील दुबे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के सीनियर सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर हैं, जो विश्व के शीर्ष 10 सीनियर सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर की सूची में स्थान में सम्मिलित हैं। वे पहले भारतीय सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर भी हैं, जिन्हें भारत गौरव अवार्ड, गोल्ड मैडल, अंतर्राष्ट्रीय आयुर्वेद रत्न अवार्ड और एशिया फेम आयुर्वेदिक सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। वे दुबे क्लिनिक में प्रतिदिन प्रैक्टिस करते हैं, जहाँ पूरे भारत से सौ के करीबन में प्रतिदिन गुप्त व यौन रोगी हमेशा इस क्लिनिक से फ़ोन पर संपर्क करते हैं। एक तिहाई गुप्त व यौन रोगी पटना के दुबे क्लिनिक में अपना इलाज करवाने प्रतिदिन आते हैं। वे उन सभी रोगियों को उनके समस्याओं के अनुसार चिकित्सा व उपचार प्रदान करते है।
शुभकामनाओं के साथ:
दुबे क्लिनिक
भारत में एक प्रमाणित क्लिनिक
डॉ. सुनील दुबे, गोल्ड मेडलिस्ट सेक्सोलॉजिस्ट
बी.ए.एम.एस. (रांची) | एम.आर.एस.एच. (लंदन) | पीएच.डी. आयुर्वेद में (यूएसए)
हेल्पलाइन नंबर: +91 98350 92586
स्थान: दुबे मार्केट, लंगर टोली, चौराहा, पटना – 04
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