#नियंत्रित पर्यावरण कृषि
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naturalintelligence · 19 hours ago
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ऊर्ध्वाधर कृषि: शहरी खेती के लिए एक समाधान
ऊर्ध्वाधर कृषि (Vertical Farming) एक आधुनिक और टिकाऊ कृषि तकनीक है, जो पारंपरिक खेती की तुलना में कम जगह, पानी और संसाधनों में अधिक उत्पादकता प्रदान करती है। यह तकनीक खासतौर पर शहरी क्षेत्रों में लोकप्रिय हो रही है, जहां खेती के लिए जमीन कम उपलब्ध है। इसमें फसलों को ऊर्ध्व (वर्टिकल) दिशा में, यानी भवनों, टावरों या विशेष रूप से डिजाइन किए गए ढांचे में विभिन्न स्तरों पर उगाया जाता है। मुख्य…
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merikheti · 2 years ago
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ऐसे मिले धान का ज्ञान, समझें गन्ना-बाजरा का माजरा, चखें दमदार मक्का का छक्का
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खरीफ की मुख्य फसलों की सफल खेती के लिये कृषि वैज्ञानिकों व अनुभवी किसानों के सुझाव
पैडी (Paddy) यानी धान, शुगरकैन (sugarcane) अर्धात गन्ना, बाजरा (millet) और मक्का (maize) की अच्छी पैदावार पाने के लिए, भूमि सेवक किसान यदि मात्र कुछ मूल सूत्रों को अमल में ले आएं, तो कृषक को कभी भी नुकसान नहीं रहेगा। यदि होगा भी तो बहुत आंशिक।
धान, गन्ना, जवार, बाजरा, मक्का, उरद, मुंग की अच्छी पैदावार : समझें अनुभवी किसानों से
स्यालू में धान (dhaan/Paddy)
स्यालू यानी कि खरीफ की मुख्य फसल (Major Kharif Crops) की यदि बात की जाए तो वह है धान (dhaan/Paddy/Rice)। इस मुख्य फसल की बीज या फिर रोपा (इसकी सलाह अनुभवी किसान देते हैं) आधारित रोपाई, जूलाई महीने में हर हाल में पूरा कर लेने की मुंहजुबानी सलाह किसानों से मिल जाएगी।
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अच्छी धान के लिए कृषि वैज्ञानिकों के मान से धान (dhaan) के खेत (Paddy Farm) में यूरिया (नाइट्रोजन) की पहली तिहाई मात्रा का उपयोग धान रोपण के 58 दिन बाद करना हितकारी है। क्योंकि इस समय तक पौधे जमीन में अच्छी तरह से जड़ पकड़ चुके होते हैं।
रोपण के सप्ताह उपरांत खेत में रोपण से वंचित एवं सूखकर मरने वाले पौधों वाले स्थान पर, फिर से पौधों का रोपण करने से विरलेपन के बचाव के साथ ही जमीन का पूर्ण सदुपयोग भी हो जाता है।
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धान रोपण युक्ति
तकरीबन 20 से 25 दिन में तैयार धान की रोपाई खेत में की जा सकती है। इस दौरान पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेंटीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 10 सेमी रखने की सलाह कृषि वैज्ञानिक देते हैं। उत्कृष्ट उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 100 किग्रा नाइट्रोजन (Urea), 60 किग्रा फास्फोरस, 40 किग्रा पोटाश और 25 किग्रा जिंक सल्फेट डालने की सलाह कृषि सलाहकारों की है।
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गन्ने की खेती (Sugarcane Farming)
गले की तरावट, मद्य, मीठे गुड़ में मददगार शुगरकैन फार्मिंग (Sugarcane Farming), यानी गन्ने की खेती में भी कुछ बातों का ख्याल रखने पर दमदार और रस से भरपूर वजनदार गन्नों की फसल मिल सकती है।
जैसे गन्ने की पछेती बुवाई (रबी फसल कटने के बाद) करने की दशा में, खेत में समय-समय पर सिंचाई, निराई एवं गुड़ाई अति जरूरी है। फसल कीड़���ं-मकोड़ों और बीमारियों के प्रकोप से ग्रसित होने पर रासायनिक, जैविक या अन्य विधियों से नियंत्रित किया जा सकता है।
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अत्यधिक वर्षा, तूफान या तेज हवा के दबाव में गन्ने के फसल जमीन पर बिछने/गिरने का खतरा मंडराता है। ऐसे में जुलाई-अगस्त के महीने में ही, दो कतारों मध्य कुंड बनाकर निकाली गई मिट्टी को ऊपर चढ़ाने से ऐहतियातन बचाव किया जा सकता है।
उड़द, मूंग में सावधानी
बारिश शुरू होते ही उड़द एवं मूंग की बुवाई शुरू कर देना चाहिए। अनिवार्य बारिश में देर होने की दशा में पलेवा कर इनकी बुवाई जुलाई के प्रथम पखवाड़े, यानी पहले पंद्रह दिनों में खत्म करने की सलाह दी जाती है।
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उड़द, मूंग की बुवाई सीड ड्रिल या फिर अपने पुश्तैनी देसी हल से कर सकते हैं। इस दौरान ख्याल रहे कि 30-45 सेमी दूरी पर बनी पक्तियों में बुवाई फसल के लिए कारगर होगी। इसके साथ ही निकाई से पौधे से पौधे के बीच की दूरी 7 से 10 सेमी कर लेनी चाहिए।
उड़द, मूंग की उपलब्ध किस्मों के अनुसार उपयुक्त बीज दर 15 से 20 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर मानी गई है। दोनों फसलों में प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किग्रा फास्फोरस तथा 20 किग्रा गंधक का मानक रखने की सलाह कृषि वैज्ञानिक एवं सलाहकार देते हैं।
भरपूर बाजरा (Bajra) उगाने का यह है माजरा
बाजरा के भरपूर उत्पादन के लिए कई प्लस पॉइंट हैं। अव्वल तो बाजरा (Bajra) के लिए अधिक उपजाऊ मिट्टी की जरूरी नहीं, बलुई-दोमट मिट्टी में यह पनपता है। इसकी भरपूर पैदावार के लिए सिंचित क्षेत्र के लिए नाइट्रोजन 80 किलोग्राम, फॉस्फोरस और पोटाश 40-40 किलोग्राम और बारानी क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन-60 किग्रा, फॉस्फोरस व पोटाश 30-30 किग्रा ��्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करने की सलाह ��ानकार देते हैं।
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सभी परिस्थितियों में नाइट्रोजन की मात्रा आधी तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश पूरी मात्रा में तकरीबन 3 से 4 सेंमी की गहराई में डालना चाहिए। बचे हुए नाइट्रोजन की मात्रा अंकुरण से 4 से 5 हफ्ते बाद मिट्टी में अच्छी तरह मिलाने से फसल को सहायता मिलती है।
ज्वार का ज्वार, मक्का (Maize) का पंच
देशी अंदाज में भुंजा भुट्टा, तो फूटकर पॉपकॉर्न तक कई रोचक सफर से गुजरने वाले मक्के की दमदार पैदावार का पंच यह है, कि मक्का (Maize) व बेबी कॉर्न की बुवाई के लिए मानसून उपयुक्त माना गया है।
उत्तर भारत में इसकी बुवाई की सलाह मध्य जुलाई तक खत्म कर लेने की दी जाती है। मक्के की ताकत की यही बात है कि इसे सभी प्रकार की मिट्टी में लगाया जा सकता है। हालांकि बलुई-दोमट और दोमट मिट्टी अच्छी बढ़त एवं उत्पादकता में सहायक हैं।
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जोरदार, धुआंधार ज्वार की पैदावार का ज्वार लाने के लिए बारानी क्षेत्रों में मॉनसून की पहली बारिश के हफ्ते भर भीतर ज्वार की बुवाई करना फलदायी है। ज्वार के मामले में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम ज्वार के बीज की जरूरत होगी।
source ऐसे मिले धान का ज्ञान, समझें गन्ना-बाजरा का माजरा, चखें दमदार मक्का का छक्का
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merikhetisblog · 3 years ago
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प्रदूषण नियंत्रण में बेलर की उपयोगिता
फसल अवशेष जलाना एक गंभीर मुद्दा रहा है जो लगभग 149.24 मिलियन टन CO2, 9 मिलियन टन से अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), 0.25 मिलियन टन सल्फर ऑक्साइड (SOX), 1.28 मिलियन टन पार्टिकुलेट मैटर, और 0.07 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है। काला कोयला। यह पर्यावरण में प्रदूषण के साथ-साथ अक्टूबर-नवंबर की अवधि के दौरान दिल्ली में वार्षिक धुंध के लिए सीधे जिम्मेदार है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) और भारत के सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में पिछले चार वर्षों में कृषि अवशेष प्रबंधन उपकरण और किसान सब्सिडी में पर्याप्त निवेश ने सरकार को इस मुद्दे को नियंत्रित करने में काफी मदद की है।
हाल के वर्षों में हैप्पी सीडर, सुपर सीडर, मल्च�� और हल सभी सीधे रोपण और मिट्टी में फसल अवशेषों को एकीकृत करने के लिए लोकप्रिय हो गए हैं। हालाँकि, ट्रैक्टर से चलने वाले रेक और बेलर का उपयोग करके आयताकार या गोल बेलों के आकार में कृषि पराली को इकट्ठा करने की विधि कई अतिरिक्त उपयोगों के कारण सबसे अधिक प्रचलित है, विशेष रूप से बिजली बनाने के लिए बॉयलर ईंधन के रूप में।
अब पिछले दो महीनों से बेलर मालिक बायोमास सुविधाओं से गठरी आपूर्ति कीमतों में वृद्धि का अनुरोध कर रहे हैं क्योंकि ईंधन की कीमतों में तेजी से वृद्धि के कारण उनकी उत्पादन लागत में काफी वृद्धि हुई है। कई दौर की बातचीत के बावजूद बेलर ओनर एसोसिएशन और बायोमास प्लांट ओनर्स के बीच गतिरोध बना हुआ है। लंबे समय से चल रहे गतिरोध के परिणामस्वरूप, कई किसान जो सरकार के सब्सिडी कार्यक्रम के तहत इन बेलरों का अधिग्रहण करना चाहते हैं, उनके पास फसल अवशेष को जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा, क्योंकि दोनों फसलों के समय में अंतर की कमी है। इस साल बेलिंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है जब तक कि हरियाणा और पंजाब की सरकार और कृषि मंत्रालय इस मुद्दे को सुलझाने के लिए तुरंत हस्तक्षेप नहीं करते। ऐसा करने में विफलता न केवल इस वर्ष के संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव डालेगी, बल्कि पिछले सभी सरकारी उपायों और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किए गए निवेशों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगी।
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lokawaazhindi · 4 years ago
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मिली-जुली प्रतिक्रिया में कहा- सरकार के रुख ने बाजार को निराश किया, उद्योगों को राहत दी
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प्रमुख संगठनों के अधिकारियों ने केंद्रीय बजट पर अपने विचार व्यक्त किए।
जयपुर। राजस्थान के प्रमुख व्यापारिक संगठनों और उद्योगपतियों ने केंद्रीय बजट पर अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कुछ व्यापारिक संगठनों ने इसे बाजार के लिए निराशाजनक और कुछ सकारात्मक बताया है। बजट में उद्योगों को राहत देने की बात भी कही गई है।
फोर्टी के अध्यक्ष सुरेश अग्रवाल का कहना है कि गोविद को प्रभावित करने वाले व्यवसाय को राहत देने के लिए सरकार से बहुत उम्मीद थी। इस���े रहा नहीं गया। यह बजट केवल स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे और कृषि के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसे एमएसएमई और मनोरंजन, वास्तविक स्थिति और पर्यटन पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता थी, लेकिन इस पर क��ई ध्यान नहीं दिया। इससे व्यापारियों को भी निराशा हुई है।
फेडरेशन ऑफ राजस्थान एक्सपोर्टर्स के अध्यक्ष राजीव अरोड़ा ने बजट को पहाड़ी पहाड़ बताया है। उन्होंने कहा कि न तो आयकर में राहत दी है और न ही रोजगार के अवसर पैदा करने की बात की है, लेकिन यह आम आदमी के बजाय पूंजीपतियों का बजट है।
एआरजी ग्रुप के अध्यक्ष आत्माराम गुप्ता ने कहा कि किफायती आवास के लिए बजट का बेहतर वर्णन किया जा सकता है। हालांकि, बजट में निर्माण सामग्री को राहत देने के अच्छे संकेत नहीं दिखे। फिर भी बुनियादी सुविधाओं के लिए अच्छा कहा जा सकता है। फोर्टी के मुख्य संरक्षक सुरजाराम मील ने कहा कि केंद्र सरकार आम आदमी और प्रत्येक राज्य को ध्यान में रखते हुए जो भी बजट पेश करती है, लेकिन जो बजट सरकार द्वारा लगातार पेश किया जा रहा है, अब यह हो गया है कि केंद्र केवल चुनावी राज्यों के लिए ही प्रस्ताव देता है।
चालीस कार्यकारी अध्यक्ष अरुण अग्रवाल ने कहा कि व्यवसायी सरकार से आयकर में बहुत राहत की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन इसके स्लैब में कोई बदलाव नहीं हुआ है, जिससे व्यापारियों को निराशा हुई है।
फोर्ट के मुख्य सचिव गिरधारी लाल खंडेलवाल ने कहा कि सरकार द्वारा कुछ चीजों में रियायत दी गई है, जिसमें ग्रामीण उद्योग के लिए किए गए बदलाव बहुत सराहनीय हैं। स्टार्टअप्स के लिए टैक्स में छूट एक अतिरिक्त वर्ष से बढ़ी। स्टार्टअप्स के लिए कर अवकाश का दावा करने के लिए 31 मार्च 2022 तक का समय देना। कस्टम ड्यूटी के मामले में 400 पुरानी छूटों की समीक्षा की जाएगी।
जन समासम निवारन मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष सोहराज सोनी ने बजट में पर्यावरण और प्रदूषण नियंत्रण को लेकर की गई घोषणाओं का स्वागत किया है। बजट में अगले पांच वर्षों में स्वच्छ हवा पर दो हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च करना महत्वपूर्ण है। इससे प्रदूषण नियंत्रित होगा। जो मील का पत्थर साबित होगा।
फोर्टी के उपाध्यक्ष जगदीश सोमानी ने कहा कि वर्तमान में मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है, लेकिन सरकार ने लोहे और इस्पात तांबे पर शुल्क कम कर दिया, जो निश्चित रूप से उद्योगों को राहत देगा। साथ ही, 2 भागों में आर्थिक गलियारा क्षेत्र और वाहन स्क्रैप नीति बनाने की घोषणा भी सरकार का स्वागत ��ोग्य कदम है। इससे ऑटोमोबाइल सेक्टर को भी बढ़ावा मिलेगा। Read more...
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hindistoryblogsfan · 4 years ago
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कर्नाटक में वन विभाग अपनी 90 नर्सरियों में अधिकांश पौधे उगा रहा है। करोड़ों पौधे तैयार किए जा रहे है। ऐसे ही तमिलनाडु में भी करीब 36 नर्सरियों में पौधे तैयार किए जा रहे हैं। कारण है, एक नदी के आसपास के बदलते और बिगड़ते वातावरण को फिर से पुराना रंग देना। तमिलनाडु और कर्नाटक में पौराणिक महत्व की कावेरी नदी को बचाने के लिए चल रही मुहिम का ये दूसरा साल है। पिछले मानसून में इस नदी के किनारों और इसके कैचमेंट एरिया में करीब 1.1 करोड़ पौधे लगाए गए थे। इन एक करोड़ पौधों के लिए ये पहला मानसून था।
इस पूरे प्रोजेक्ट को कावेरी कॉलिंग का नाम दिया गया है। ये एक लंबी अवधी तक चलने वाला आंदोलन है, जिसमें करीब 242 करोड़ पौधे 12 साल के भीतर लगाए जाएंगे। आध्यात्मिक और योगगुरु सदुगुरु जग्गी वासुदेव के ईशा फाउंडेशन ने इस मुहिम को शुरू किया है। हाल ही में सदगुरु ने केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के साथ एक मीटिंग में इस मुहिम से आने वाले बदलावों पर चर्चा की। इस अभियान में कर्नाटक और तमिलनाडु में फैली कावेरी नदी घाटी का भौतिक क्षेत्र 83,000 वर्ग किलोमीटर के इलाके की हरियाली को 33 प्रतिशत तक बढ़ाना है। इसमें ईशा फाउंडेशन के साथ सरकारी महकमे और कई हजार किसान जुड़े हुए हैं।
पौधारोपण कब से शुरू हुआ
पिछले सितंबर कावेरी कॉलिंग ��ुरू होने के बाद से 2020 का प्री-मानसून मौसम, पौधारोपण का पहला सीज़न है। दोनों राज्यों में किसानों को नवंबर तक अपनी जमीन पर 1.1 करोड़ पौधे रोपने में सक्षम बनाने के लिए काम कर रहे हैं।
ये आंदोलन क्यों?
पेड़ आधारित कृषि के मॉडल के जरिए किसानों के जीवन, इकोसिस्टम और कावेरी नदी को, जो पहले एक विशाल बारहमासी नदी थी, उसको समृद्ध बनाने के लिए किया जा रहा है। ईशा फाउंडेशन के मुताबिक कावेरी नदी घाटी के जिलों में किसानों द्वारा निजी कृषि भूमि पर 242 करोड़ पेड़ों को लगाना एक व्यापक लक्ष्य है, जिसे अलग-अलग साझेदारों (स्टेकहोल्डरों) की सहायता से पूरा किया जाएगा, ये साझेदार हैं। यह सहायक इकोसिस्टम किसान को खेती के रूपांतरकारी मॉडल को अपनाने में सक्षम बनाएगा जो पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और समुदाय के स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डालेगा। यह एक वाकई जमीनी आंदोलन है जिसका लक्ष्य समुदाय के सभी वर्गों को यथासंभव क्षमता में भागीदारी और योगदान करने के लिए साथ लाना है। वैसे यह ऐसा ध्येय है जो एक पूर्व निर्धारित बजट तक सीमित या उस पर पूरा निर्भर नहीं है। इसका लक्ष्य कावेरी नदी को उसका पुराना गौरव वापस दिलाने की जिम्मेदारी को उठाने के लिए लोगों की इस पीढ़ी को आगे लाना करना है।
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कर्नाटक और तमिलनाडु का वो क्षेत्र जहां पौधा रोपण किया जा रहा है।
इतने पौधों की देखरेख कैसे होगी
पौधों को किसानों द्वारा उनके अपने खेतों में लगाया जाएगा और वे इन पौधों की देखभाल करेंगे जो कटाई के समय उन्हें काफी बेहतर लाभ देंगे। इसके अलावा, कर्नाटक में किसान अपनी जमीन पर पेड़ लगाने के लिए अच्छी राशि अर्जित करते हैं। राज्य कृषि विभाग की कृषि अरण्य प्रोत्साहन योजना (केएपीवाई) किसानों को तीन साल की अवधि में हर बचने वाले पौधे के लिए 125 रुपये देती है। इसके बाद वे पेड़ पूरे विकसित होने के बाद कीमती ल��ड़ी के रूप में लाभदायक होंगे। यह किसान के लिए अपनी जमीन पर उच्च मूल्य वाली संपत्ति बनाने और विकसित करने का एक सबसे अच्छा तरीका है। ये सभी चीज़ें किसानों को आर्थिक लाभ के लिए पौधों को बचाकर रखने के लिए प्रोत्साहित करेंगी जो बदले में महत्वपूर्ण इकोलॉजिकल फायदे देगी।
पर्यावरण को क्या लाभ मिलेगा
1. ये उच्च मूल्य पेड़ हैं, जिन्हें किसान काट सकते हैं इसलिए उनकी संपत्ति में अच्छी वृद्धि होगी। 2. एक बार आर्थिक लाभ दिखने के बाद, यह एक आत्मनिर्भर मॉडल बन जाएगा जो अपने आप आगे बढ़ेगा। 3. 242 करोड़ पेड़ों से इस इलाके में 9 से 12 ट्रिलियन लीटर पानी जमा किए जाने की उम्मीद है – यह कावेरी नदी के मौजूद वार्षिक प्रवाह का लगभग 40 प्रतिशत है – इसका अर्थ है कि भूमिगत जल का स्तर काफी बढ़ जाएगा, इससे इलाके के सभी जल स्रोतों जैसे झीलों, धाराओं, तालाबों, कुओं और कावेरी नदी तथा उसकी सहायक नदियों में पानी का स्तर बढेगा। 4. 20 से 30 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड के सोखे जाने जाने की उम्मीद है जिससे जलवायु परिवर्तन का असर कम होगा, यह संयुक्त राष्ट्र 2016 पेरिस समझौते के, जिस पर 195 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं, भाग के रूप में वर्ष 2030 के लिए भारत के राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) का 8-12 प्रतिशत है। 5. यह बड़े पैमाने पर मिट्टी की माइक्रोबियल जैव विविधता सहित पुष्प और पशु जैव विविधता को पुनर्जीवित करेगा। 6. यह पानी की कमी की समस्याओं को हल करेगा, पानी को जमा करने के अलावा, पेड़ लंबे समय में सिंचाई जल की जरूरत को भी घटाते हैं जो जल उपलब्धता को और बेहतर करेंगे। 7. यह किसानों द्वारा रासायनिक खादों के इस्तेमाल को कम करते हुए समुदायों को अधिक स्वास्थ्यवर्धक आहार विकल्प देगा, जब खेतों पर पेड़ होंगे तो पेड़ों के सूखे पत्ते और डालियां प्राकृतिक खाद का बढ़िया स्रोत हैं, इसलिए किसानों को खरीदना नहीं पड़ेगा। यह किसानों को अधिक पशु पालने के लिए भी प्रोत्साहित करेगा, जिससे मिट्टी का उपजाऊपन और बढ़ेगा और डेयरी फार्मिंग से उन्हें आय का एक वैकल्पिक स्रोत भी मिल सकता है। 8. यह मिट्टी को उपजाऊ बनाएगा और पानी को सोखने की उसकी क्षमता को मजबूत बनाएगा और इलाके में बाढ़ तथा सूखे को रोकेगा। 9. यह 840 लाख लोगों की भोजन तथा पानी की जरूरतों को सुरक्षित करेगा। 10. यह पक्का करेगा कि खेती एक आर्थिक रूप से आकर्षक अवसर बन जाए जिसे अगली पीढी अपनाना चाहेगी। 11. पहले प्वाइंट के संबंध में – यह कृषि भूमि पर स्थायी स��पत्ति बनाते हुए ऋणों के औपचारिक और अनौपचारिक स्रोतों पर किसान की निर्भरता को घटाएगा। 12. यह ग्रामीण-शहरी प्रवासन को नियंत्रित करेगा और गांवों तथा शहरों में जीवन शैली को सुधारेगा। 13. यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप में बढ़ावा देगा। 14. यह करीब 65,000 करोड़ रुपये सालाना विदेशी मुद्रा की बचत करेगा जो लकड़ी के आयात से सरकारी खजाने की मौजूदा लागत है। 15. कई कारक असर डालने में योगदान करते हैं, इनमें खुद भूगोल, क्षेत्र का सूक्ष्म-जलवायु, मिट्टी और जल की अवस्था और पौधों के बचने की दर शामिल हैं।
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कर्नाटक और तमिलनाडु की नर्सरियों में बड़े पैमाने पर पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
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kisansatta · 4 years ago
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क��सान कैसे करे मृदा जलमग्नता की समस्या का समाधान
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अवश्य ही मृदा जल स्तर की पौध वृद्धि एवं मृदा गुणों को संतुलित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है किन्तु यई मृदा जल यदि आवश्यकता से अधिक या कम हो जाए तो मृदा गुणों के साथ-साथ- पौध वृद्धि को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। ऐसी मृदा जिसमें वर्ष में लंबे समयावधि तक जलक्रांत की दशा हो और उसमें लगातार वायु संचार में कमी बनी रहे तो उसे मृदा जल मग्नता कहते हैं। मृदा की इस दशा के कारण भौतिक रासायनिक एवं जैव गुणों में अभूतपूर्व परिवर्तन हो जाता है। फलस्वरूप ऐसी मृदा में फसलोत्पादन लगभग असंभव हो जाता है।
इस परिस्थिति में जल निकास की उचित व्यवस्था द्वारा मृदा गुणों को पौध की आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके फसल उत्पादन संभव किया जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों में हानि के अलावा लगभग सभी प्रकार के पौधों की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार के लिए अधिकतम 75 फीसदी तक ही मृदा रन्ध पानी से तृप्त होते हैं और 25फीसदी रंध्र हवा के आदान-प्रदान के लिए आवश्यक होते हैं।
जिसके कारण जड़ श्वसन क्रिया से कार्बनऑक्साइड का निष्कासन और वायुमंडल से ऑक्सीजन का प्रवेश संभव हो पाटा है जो पौधों की जड़ों को घुटन से बचाता है। मृदा सतह का तालनुमा होना, भूमिगत जल स्टार के ऊपर होना, वर्षा जल का अंत स्वयंदन कम होना, चिकनी मिट्टी के साथ-साथ मृदा तह में चट्टान या चिकनी मिट्टी की परत का होना एवं मृदा क्षारीयता इत्यादि परिस्थितियां जल मग्नता को प्रोत्साहित करती है।
मृदा जल मग्नता के प्रकार
नदियों में बाढ़ द्वारा जल मग्नता वर्षा ऋतु में अधिक बरसात के कारण नदी के आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति बनने के कारण मृदा जल मग्नता हो जाती है।
समुद्री बाढ़ द्वारा जलमग्नता: समुद्र्र का पानी आसपास के क्षेत्रों में फैल जाता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बना रहता है।
सामयिक जल मग्नता: बरसात के दिनों में प्रवाहित वर्षा जल गड्ढा या तालनुमा सतह पर एकत्रित होकर मृदा जल मग्नता को प्रोत्साहित करता है।
शाश्वत जल मग्नता: अगाध जल, दलहन तथा नहर के पास की जमीन यहां लगातार जल प्रभावित होती रहती है शाश्वत जल मग्नता का कारण बनती है।
भूमिगत जल मग्नता: बरसार के समय में उत्पन्न भूमिगत जल मग्नता इस प्रकार के जलमग्नता का कारण बनता है।
मृदा जलमग्नता को प्रोत्साहित करने वाले कारक
जलवायु: अधिक वर्षा के कारण पानी का उचित निकास नहीं होने से सतह पर वर्षा जल एकत्रित हो जाता है।
बाढ़: सामान्य रूप में बाढ़ का पानी खेतों में जमा होकर जल मग्नता की स्थिति पैदा कर देता है।
नहरों से जल रिसाव: नहर के आसपास के क्षेत्र लगातार जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति में सदैव बने रहते हैं।
भूमि आकार: तश्तरी या तालनुमा भूमि आकार होने के कारण अन्यंत्र उच्च क्षेत्रों से ��्रवाहित जल इकट्ठा होता रहता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बनता है।
अनियंत्रित एवं अनावश्यक सिंचाई: आवश्कता से अधिक सिंचाई मृदा सतह पर जल जमाव को प्रोत्साहित करता है जो जल मग्नता का कारण बनता है।
जल निकास: उचित निकास की कमी या व्यवस्था न होने से क्षेत्र विशेष में जल मग्नता हो जाती है।
मृदा जल मग्नता का प्रभाव
जल की गहराई: निचले क्षेत्र जहां सामान्यत: बाढ़ की स्थिति बन जाने के कारण लगभग 50 सेंटीमीटर तक पानी खड़ा हो जाता है जो पौधों की वृद्धि एवं पैदावार पर हासित क्षमता में कमी के कारण प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस स्थिति में पोषक तत्वों की भी कमी हो जाती है।
वायु संचार में कमी: मृदा जल मग्नता के कारण मिट्टी के रंध्रों में उपस्थित हवा बाहर निकल जाती है और संपूर्ण रन्ध्र जल तृप्त हो जाते हैं और साथ ही वायुमंडल से हवा का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है। इस परिस्थति में मृदा के अंदर वायु संचार में भारी कमी आ जाती है।
मृदा गठन: पानी के लगातार गतिहीन दशा में रहने के कारण मृदा गठन पूर्णतया नष्ट हो जाता है और फलस्वरूप मिट्टी का घनत्व बढ़ जाता है जिससे मिट्टी सख्त/ ठोस हो जाती है।
मृदा तापमान: मृदा जल मग्नता मृदा ताप को कम करने में सहायक होती है। नम मिट्टी की गुप्त ऊष्मा शुष्क मिट्टी की तुलना में ज्यादा होती है जो जीवाणुओं की क्रियाशीलता और पोषक तत्वों की उपलब्धता को प्रभावित करती है।
मृदा पी.एच. मान: जल मग्नता की दशा में अम्लीय मिट्टी का पी.एच. मान बढ़ जाता है और क्षारीय मिट्टी पी.एच. मान घट कर सामान्य स्तर पर आ जाता है।
पोषक तत्वों की उपलब्धता: सामान्यत: जल मग्नता की दशा में उपलब्ध पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, गंधक तथा जिंक इत्यादि की कमी हो जाती है। इसके विपरीत लोहा एवं मैगनीज की अधिकता के कारण इनकी विषाक्ता के लक्षण दिखाई पडऩे लगते हैं।
पौधों पर प्रभाव: मृदा जल मग्नता में वायुसंचार की कमी के कर्ण धान के अलावा कोई भी फसल जीवित नहीं रह पाती है। ज्ञात है कि धान जैसी फसलें अपने ऑक्सीजन की पूर्ति हवा से तनों के माध्यम से करते हैं। कुछ पौधे तने के ऊपर गुब्बारानुमा संरचना का निर्माण करते हैं और आवश्यकता पडऩे पर इसमें उपलब्ध वायु का प्रयोग करते हैं।
ऐसी परिस्थिति में कुछ जहरीले पदार्थों जैसे हाड्रोजन सल्फाइड, ब्युटारिक एसिड तथा कार्बोहाइड्रेट के अपघटन या सडऩ के कारण उत्पन्न शीघ्रवाष्पशील वसा अम्ल इत्यादि का निर्माण होता जो पौधों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। जल मग्नता का पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव होने के कारण प्रमुख लक्षण तुरंत परिलक्षित होते हैं जो निम्नलिखित हैं:- पत्तों का कुम्हलाना, किनारे से पत्तों का नीचे की ओर मुडऩा तथा झड़ जाना, तनों के वृद्धि दर में कमी, पत्तों के झडऩे की तैयारी, पत्तों का पीला होना, द्वितीयक जड़ों का निर्माण, जड़ों की वृद्धि में कमी, मुलरोम तथा छोटी जड़ों की मृत्यु तथा पैदावार में ��ारी कमी इत्यादि।
जल मग्न मृदा का प्रबंध
भूमि का समतलीकरण: भूमि की सतह के समतल होने से अतिरिक्त पानी का जमाव नहीं होता और प्राकृतिक जल निकास शीघ्र हो जाता है।
नियंत्रित सिंचाई: अनियंत्रित सिंचाई के कारण जल मग्नता की स्थिति पैदा हो जाती है। अत: ऐसी परिस्थिति में नियंत्रित सिंचाई प्रदान करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
नहरों के जल रिसाव को रोकना: नहर द्वारा सिंचित क्षेत्रों में जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति बनी रहती है अत: नहरों तथा नालियों द्वारा होने वाले जल रिसाव को रोक कर से इस समस्या को कम किया जा सकता है।
बाढ़ की रोकथाम: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांशतया खेती योग्य भूमि जल मग्न हो जाती है और फसल का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है अत: इन क्षेत्रों में नदी के किनारों पर बांध बनाकर जल प्रवाह को नियंत्रित किया जा सकता है।
अधिक जल मांग वाले वृक्षों का रोपण: वृक्षों की बहुत सी प्रजातियां अपनी उचित वृद्धि को लगातार बनाए रखने के लिए अधिक जलापूर्ति की मांग करते हैं। इन पौधों में विशेष रूप से सैलिक्स, मूंज घास, सदाबहार (आक), पॉपलर, शीशम, सफेदा तथा बबूल इत्यादि प्रजातियां ऐसी हैं जो अधिक वर्षोत्सर्जन क्रिया के कारण अत्यधिक जल का प्रयोग करके भूमिगत जल स्तर को घटाने में सहायक होते हैं।अत: इस प्रकार के पौधों का भू-जल मग्नता की दशा में रोपण करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
उपयुक्त फसल तथा प्रजातियों का चुनाव: बहुत सी ऐसी फसलें जैसे धान, जुट, बरसीम, सिंघाड़ा, कमल, ढैंचा एवं काष्ठ फल इत्यादि मृदा जल मग्नता की दशा को कुछ सीमा तक सहन कर सकते हैं। अत: इन फसलों की सहनशक्ति के अनुसार चयन करके इन्हें सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है।
जल निकास: भू-क्षेत्र में अतिरिक्त सतही या भूमिगत जल जमाव को प्राकृतिक या कृत्रिम विधियों द्वारा बाहर निकालने की प्रक्रिया को जल निकास कहते हैं। जल निकास का मुख्य उद्देश्य मिट्टी में उचित वायु संचार के लिए ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना है जिससे पौधों की जड़ों को ऑक्सीजन की उचित मात्रा प्राप्त होती रहे। उचित जल निकास के लाभ उल्लेखनीय हैं:
सामान्यतया नम मिट्टी में क्ले (चिकनी मिट्टी) तथा जैव पदार्थों की मात्रा अधिक होने के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी अधिक होती है। जल निकास के फलस्वरूप इस प्रकार के भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।
जल निकास द्वारा मृदा ताप में जल्दी परिवर्तन हो जाने से पोषक तत्वों की उपलब्धता, जीवाणुओं की क्रियाशीलता एवं पौधों की वृद्धि अधिक हो जाती है।
जल निकास के कारण संपूर्ण क्षेत्र विशेष का एक जैसा हो जाने के कारण जुताई, गुड़ाई, पौध रोपण, बुआई अन्य कृषि क्रियाएं, कटाई एवं सिंचाई स्तर में सुविधापूर्ण समानता आ जाती है। यांत्रिक कृषि कार्य में ट्रैक्टर इत्यादि का इस्तेमाल भी सुविधाजनक हो जाता है। वायु संचार में वृद्धि होने से जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और जैव पदार्थों का विघटन आसान हो जाने के कारण उपलब्ध पोषक तत्वों की उपयोग क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है।
उचित जल निकास द्वारा नाइट्रोजन ह्रास को कम करने में आशातीत स��लता मिलती है। ज्ञात है कि मृदा में वायु अवरुद्धता के कारण नाइट्रोजन का जीवाणुओं द्वारा विघटन होकर नाइट्रोजन गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो अन्तोतगत्वा हवा में समाहित हो जाता है।
जल मग्नता के कारण कुछ विषाक्त पदार्थों जैसे घुलनशीलता लवण, इथाइलीन गैस, मीथेन गैस, ब्यूटाइरिक अम्ल, सल्फाइडस, फेरस आउन तथा मैंग्नस आयन इत्यादि का निर्माण होता है जो मिट्टी में इकट्ठा होकर पौधों के लिए विषाक्तता पैदा करता है। अत: उचित जल निकास से वायु संचार बढ़ जाता है और फलस्वरूप इस तरह की विषाक्तता में कमी आ जाती है।
उचित जल निकास वाली भूमि प्रत्येक प्रकार की फसलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है जबकि गीली या नम मिट्टी में सीमित फसलें जो नम जड़ों को सहन कर सकती हैं, की ही खेती की जा सकती है। ज्ञात है कि मात्र थोड़े समय की घुटन से ही बहुत सी फसलों की पौध मर जाती है।
उचित जल निकास पौध जड़ों को अधिक गहराई तल प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा होने से पौधों का पोषण क्षेत्र बढ़ जाने के कारण फसल की वृद्धि पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है।
जल निकास होने से मृदा में अन्त:स्वयंदन बढ़ जाने के कारण जल प्रवाह में कमी आ जाती है फलस्वरूप मृदा कटाव कम हो जाता है। अतिरिक्त जल रहित भूमि मकान तथा सड़क को स्थिरता प्रदान करती है।
अतिरिक्त जल रहित भूमि में घरों से मल निष्कासन तथा स्वच्छता प्रदान इत्यादि की समस्या कम हो जाती है।
उचित जल निकास से मच्छरों तथा बिमारी फैलाने वाले कीड़ों-मकोड़ों इत्यादि की समस्या कम जो जाती है।
अतिरिक्त जल रहित भूमि का व्यवसायिक मूल्य अधिक होता है।
क्षारीय मृदा सुधार के लिए उचित जल निकास आवश्यक होता है।
जल निकास के हानिकारक परिणाम
उचित जल निकास का प्रावधान बनाने से पूर्व भूमि सतह पर वर्तमान विभिन्न प्रकार की जल मग्नता का वर्गीकरण आवश्यक होता है और उसमें आर्द्र भूमि तथा नम मिट्टी के मध्य एक स्पष्ट भेद रेखा का होना और भी अधिक आवश्यक होता है। आर्द्र भूमि का जल निकास करके उसमें उच्चतर भूमि वाली आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण फसलों की ही खेती की जा सकती है अन्यथा इसका प्रयोग पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों पशु-पक्षी के प्राकृतिक निवास के लिए करना चाहिए।
जब नम मिट्टी की जल निकास करके उसमें लगभग सभी प्रकार की फसलों को उगाकर पैदावार में वृद्धि की जा सकती है। बहुत सी नम मिट्टी ऐसी है जिनका जल निकास नहीं करना चाहिये जैसे: पर्यावरण की दृष्टि से उपलब्ध जलीय जीव, इनके द्वारा आय तथा उगाये जाने वाली फसल की आय में अंतर, उपलब्ध सामाजिक अधिकार एवं पर्यावरण में इनका योगदान इत्यादि जो फसल उगाने की अनुमति नहीं देते हैं।
आसपास के क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर जिसके कारण नाला, कुआं, तालाब, झरना एवं बावड़ी इत्यादि में लगातार जल प्रवाह होता रहता है।
रेतीली मिट्टी का जल निकास कनरे से भूमिगत जल स्तर में कमी आ जाती है औरफसल उगाना नामुमकिन हो जाता है। नम मिट्टी जिसमें लोहा तथा गंधक युक्त खनिज की मात्रा ज्यादा होती है, उसका जल निकास करने से पी.एच, मान बहुत कम हो जाता है जो फसल उगाने के अलिए उपयुक्त नहीं होता है।
जल निकास करने से मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों का ह्रास हो जाता है जिससे मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है। अत: निम्न उर्वरता स्तर पर फसल की पैदावार, उस��ें प्रयोग किये गए उर्वरकों की मात्र एवं उपलब्धता, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण इत्यादि का आंकलन आवश्यक हो जाता है।
जल निकास प्रणाली सतही जल निकास: सतही जल निकास तकनीक के अंतर्गत खुली नालियों का निर्माण किया जाता है जिसमें अतिरिक्त जल इक_ा होकर क्षेत्र विशेष से बाहर निकल जाता है और साथ ही भूमि सतह को समतल करते हुए पर्याप्त ढलान दिया जाता है जिससे जल प्रवाह आसानी से हो सके। इस तकनीक का प्रयोग सभी प्रकार की मिट्टी में किया जा सकता है।
सामान्य रूप से लगभग समतल, धीमी जल प्रवेश, उथली जमीन या चिकनी मिट्टी थाल के आकार वाली सतह जो ऊंचाई वाले क्षेत्र का जल प्रवाह इकट्ठा करता है और अतिरिक्त जल निकास की आवश्कता वाली भूमि में इस तकनीक का प्रयोग सफलता पूर्वक किया जा सकता है। इस विधि में मुख्यतया खुली नाली/खाई, छोटी-छोटी क्यारी द्वारा जल निकास तथा समतलीकरण इत्यादि विधियों के इस्तेमाल किया जाता है।
अवमृदा/भूमिगत जल निकास: अवमृदा जल निकास के लिए भूमि के अंदर छिद्रयुक्त प्लास्टिक या टाइल द्वारा निर्मित पाईप/ नाली को निश्चित ढलान पर दफना दिया जाता है जिसके द्वारा अतिरिक्त जल का रिसाव होकर नाली के माध्यम से निकास होता रहता है। इस जल निकास तकनीक में आधारभूत निवेश की अत्यधिक मात्रा होने के कारण निवेशक के पूर्व आर्थिक या अर्थव्यवस्था का आंकलन आवश्यक होता है।
मृदा संरचना एंव गठन के आधार पर ही जल निकास तकनीक का चयन करना चाहिए। इस विधि में मुख्यतया टाइल निकास, टियूब निकास, सुरंग निकास, गड्ढा एवं पम्प निकास तथा विशेष प्रकार से निर्मित सीधा-खड़ा आधारभूत ढांचा जैसे राहत कुआं, पम्प कुआं और उल्टा कुआं इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है
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khabaruttarakhandki · 5 years ago
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विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेषः तीन से पांच डिग्री तक बढ़ सकता है धरती का तापमान
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पंतनगर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आर के श्रीवास्तव ने बताया कि कार्बन एवं अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कर इंसान पृथ्वी के मौसम का मिजाज बिगाड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चल��े हर आने वाला वर्ष पिछले वर्ष से अधिक गर्म होता जा रहा है।
2013 के आकलन में आइपीसीसी ने बताया था कि 21वीं सदी के अंत तक धरती का तापमान 1850 के सापेक्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार यदि वार्मिंग की दर ऐसी रही तो सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन से पांच डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि धरती के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के अ���दर सीमित रखना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है।
डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि इस वर्ष पृथ्वी दिवस का थीम क्लाइमेट एक्शन रखा गया है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का मनुष्य अंधाधुंध उपयोग कर पारिस्थितिक तंत्र से छेड़छाड़़ कर रहा है, जो पर्यावरण के विनाश का संकेत है।
सदियों से किए जा रहे अत्याचार का बदला पृथ्वी अब ग्लोबल वार्मिंग के जरिये ले रही है।  इससे निश्चित ही आने वाली पीढ़ी जहरीले वातावरण एवं नई-नई बीमारियों के साथ जीवन जीने को बाध्य होगी। यदि पृथ्वी के तापमान बढ़ने का यही हाल रहा तो आने वाले समय में धरती पर रहना भी दूभर हो जाएगा। इस बदलाव से धरती का प्राकृतिक क्रियाकलाप तेजी से प्रभावित होगा।
दुनिया के विकसित देशों में जब तक औद्योगिक विकास प्रक्रिया चरम पर थी, तब तक उन्होंने धरती के वातावरण और लगातार बढ़ रही गर्माहट पर चुप्पी साधे रखी। लेकिन जैसे ही विकास की बयार बहने लगी, उन्होंने पर्यावरण की खराब होती हालत पर शोर मचाना शुरू कर दिया। हानिकारक गैसों को नियंत्रित करने की ठोस कवायद विकसित देशों को ही करनी चाहिए।
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bollywoodpapa · 5 years ago
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कमजोर इम्युनिटी के ये 6 लक्षण, इस तरह कर सकते है अपने इम्युनिटी सिस्टम को मजबूत!
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कमजोर इम्युनिटी के ये 6 लक्षण, इस तरह कर सकते है अपने इम्युनिटी सिस्टम को मजबूत!
दोस्तों कोरोना वायरस के प्रकोप से पूरी दुनिया झेल रही है, इस महामारी की वैक्सीन या दवा की खोज अब तक नहीं हो पायी है। यह बीमारी कमजोर इम्यून सिस्टम वालो को अपना शिकार ज्यादा बना रही है, ऐसे में हमारा  इम्यून सिस्टम इस लड़ाई में सबसे अहम भूमिका निभाता है। डॉक्टर्स का कहना है कि कोरोना वायरस की चपेट में वो लोग आसानी से आ जाते हैं जिनकी इम्युनिटी कमजोर होती है।
इम्यून सिस्टम कमजोर होने के कई कारण हो सकते हैं। जैसे कि पहले से कोई बीमारी या फिर जरूरत से ज्यादा सिगरेट या शराब पीने की आदत. इसके अलावा पूरी नींद ना लेने और खराब खान-पान से भी इम्यून सिस्टम कमजोर होता है। इम्यून सिस्टम कमजोर होने से आप बार-बार बीमार पड़ सकते हैं और आपको ठीक होने में काफी वक्त लग सकता है।अगर आपमें ये 6 लक्षण दिखते हैं तो आपका इम्यून सिस्टम भी कमजोर है।
बार-बार बीमार पड़ना
मौसम बदलने पर बीमार पड़ना आम बात है, खासकर सर्दियों के महीनों में. लेकिन अगर आप हर मौसम में बार-बार बीमार पड़ते हैं, तो ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि आपका इम्यून सिस्टम कमजोर है। इम्यून सिस्टम  बैक्टी��िया, वायरस और बीमारी से लड़ता है। अगर आप को अक्सर यूरिन इन्फेक्शन, मुंह के छाले, जुकाम या फ्लू की शिकायत रहती है तो अपने डॉक्टर से संपर्क करें।
पाचन की समस्या
आंतों में मौजूद बैक्टीरिया इम्यून सिस्टम पर सीधा प्रभाव डालते हैं। अगर आपको बार-बार दस्त, अल्सर, गैस, सूजन, ऐंठन, या कब्ज की शिकायत रहती है तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि आपका इम्यून सिस्टम सही से काम नहीं कर रहा है। प्रोबायोटिक्स, लैक्टोबैसिली और  बिफीडो अच्छे बैक्टीरिया होते हैं और ये संक्रमण से आंत की रक्षा करते हैं। इन बैक्टीरिया की कम मात्रा भी इम्यून सिस्टम को कमजोर बनाती है।
एलर्जी की शिकायत
बहुत से लोगों को एलर्जी की शिकायत होती है जिसकी वजह से उन्हें मौसमी बुखार होता रहता है। लेकिन अगर आपकी आंखों में हमेशा पानी रहता है, खाने की किसी चीज से आपको रिएक्शन हो जाता है, स्किन रैशेज, जोड़ों में दर्द और पेट में हमेशा दिक्कत रहती है तो ये भी आपके इम्यून सिस्टम के कमजोर होने का एक संकेत हो सकता है।
घाव भरने में समय लगना
घाव भरने के दौरान स्किन पर सूखी पपड़ी बनती है जो खून को शरीर से बाहर निकलने से रोकती है। अगर आपका घाव जल्दी नहीं भरता है तो हो सकता है कि आपका इम्यून सिस्टम कमजोर हो गया हो। यही समस्या सर्दी और फ्लू के साथ भी है। ज्यादातर लोग एक सप्ताह के बाद ठीक हो जाते हैं, लेकिन अगर आपको अधिक समय फ्लू रहता है, तो हो सकता है कि आपका शरीर संक्रमण से नहीं लड़ पा रहा है।
हर समय थकान महसूस होना
हमेशा थकान और सुस्ती महसूस होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे की नींद पूरी ना होना, तनाव, एनीमिया या क्रोनिक फेटीग सिंड्रोम। अगर आपको इसकी वजह पता नहीं चल रही है और पूरी नींद लेने के बाद भी आप थकान महसूस करते हैं तो आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम कमजोर है।
बता दे की इन चीज़ो के सेवन से आप अपना इम्युनिटी सिस्टम मजबूत कर सकते है!
कमजोर इम्यून सिस्टम सेहत पर सीधा प्रभाव डालता है जिसकी वजह से आपको थकावट से लेकर बाल झड़ने तक की शिकायत हो सकती है। अपनी इम्युनिटी मजबूत करने के लिए आपको हेल्दी डाइट के साथ एक्सरसाइज करना चाहिए और भरपूर नींद लेनी चाहिए। कुछ स्टडीज में यह पाया गया है कि कुछ खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य में सुधार करते हैं और शरीर में अन्य आक्रामक वायरस से लड़ने की क्षमता को मजबूत करते हैं। आइए जानते हैं कि इम्युनिटी बढ़ाने के लिए आप डाइट में किन चीजों को शामिल कर सकते हैं।
लहसुन
डॉक्टर सीमा सरीन का कहना है, ‘लहसुन खाने में स्वाद तो बढ़ाता ही है, यह सेहत के लिए भी कई तरीके से फायदेमंद है, जैसे ब्लड प्रेशर और दिल से जुड़े खतरों को कम करना। लहसुन में पाये जाने वाले सल्फर यौगिक की वजह से यह संक्रमणों से लड़ने में ��दद करता है। इसके अलावा ये इम्यूनिटी भी बढ़ाता है। लहसुन शरीर को सर्दी-खांसी से भी बचाता है।
मशरूम
एमिली वंडर का कहना का कहना है कि विटामिन डी का सबसे अच्छा स्रोत सूरज की किरणें ही हैं लेकिन यह मशरूम सहित कुछ खास खाद्य पदार्थों के जरिए भी पाया जा सकता है। 2018 में विटामिन डी स्रोत के रूप में मशरूम के उपयोग पर एक समीक्षा की गई थी। इसमें पाया गया कि मशरूम कैल्शियम के अवशोषण को बढ़ाता है, जो हड्डियों के लिए अच्छा है। इसके अलावा यह कुछ प्रकार के कैंसर और श्वसन रोगों से भी रक्षा करता है।
लाल शिमला मिर्च
बता दे की फल और सब्जियों में लाल शिमला मिर्च में सबसे ज्यादा विटामिन सी पाया जाता है। अमेरिकी कृषि विभाग के अनुसार, एक कप कटी हुई लाल शिमला मिर्च में लगभग 211 फीसदी विटामिन C होता है, जो कि संतरे में पाए जाने वाले विटामिन C का दोगुना होता है। 2017 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार विटामिन सी शरीर में उन कोशिकाओं को मजबूत करता है जो इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं। साथ ही यह श्वसन संक्रमण के खतरे को भी कम करता है। विटामिन सी शरीर के ऊतकों को भी मजबूत बनाता है।
ब्रोकली
ब्रोकली भी विटामिन सी से भरपूर होती है। आधे कप ब्रोकली में 43 फीसदी  विटामिन सी होता है। National Institutes of Health के अनुसार आपके शरीर को रोजाना इतने ही विटामिन C की जरूरत होती है। अमेरिका के EHE Health में फिजिशियन डॉक्टर सीमा सरीन का कहना है, ‘ब्रोकोली फाइटोकेमिकल्स और एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर होती है जो हमारे इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। इसमें विटामिन E भी होता है, जो एक एंटीऑक्सीडेंट है और ये बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने में मदद करता है।
चने
चने में बहुत सारा प्रोटीन होता है। इसमें अमीनो एसिड से बना आवश्यक पोषक तत्व पाया जाता है जो शरीर के ऊतकों को बढ़ने और मजबूत करने में मदद करता है। Academy of Nutrition and Dietetics के अनुसार, यह एंजाइमों को सही ढंग से बनाए रखता है ताकि हमारे शरीर का सिस्टम ठीक से काम कर सके। डाइटिशियन एमिली वंडर का कहना है कि चने में प्रचुर मात्रा में जिंक पाया जाता है जो इम्यून सिस्टम और इम्यून रिस्पॉन्स को नियंत्रित करता है।
स्ट्रॉबेरी
डाइटिशियन एमिली वंडर का कहना है कि एक दिन के विटामिन C की जरूरत को पूरा करने के लिए आधा कप स्ट्रॉबेरी काफी है क्योंकि आधे कप स्ट्रॉबेरी में 50 फीसदी विटामिन C पाया जाता है। एमिली कहती हैं, ‘पर्यावरण की वजह से हमारे कोशिकाओं को कई तरीके से नुकसान पहुंचता है और विटामिन C इन्हें क्षतिग्रस्त होने से बचाता है।’
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blogsbkr · 5 years ago
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तालाबो में मछली पालन का उपयोग कैसे करें
(How to use Fish farming in Talabo)
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हमारे देश की ��ढ़ती विशाल जनसंख्या को सस्ते दाम में पौषिटक खाद उपलब्ध करना वर्तमान की एक महत्वपूर्ण चुनौती है। कृषि, बागवानी, पशुपालन के साथ मत्स्य पालन भी इससे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मछली पालन की दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता, बढ़ता उत्पादन, नई नई मत्स्य प्रजातियों की बाजार में उपलब्ध्ता, सकल उत्पादन क्षेत्र में तीव्र वृद्धि, जलकृषि का विविधकरण एवं व्यवसायिकरण आदि इस ओर इंगित करते है कि आने वाले वर्षो में यह कृषि का और आधिक सशक्त व्यवसाय के रूप में स्थापित होगा और गावो में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ गांवो की आर्थिक उनत्ति का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। इसी तरह विश्व खाद संस्था 'फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन' ने भी अपने अनुमानों में दर्शाया है कि आने वाले दशक में भारतीय मीठे पानी का मत्स्य पालन पूरे विश्व मे सबसे तीब्र बृद्धि प्राप्त करेगा। सम्पूर्ण भारतीय मत्स्य पालन का आधार कार्प प्रजाति की मछलियों है। जो वर्तमान में समस्त मिठाजल स्त्रोतों से उत्पादित मछलियों में लगभग 80 प्रतिशत तक कि भागेदारी करते हैं। विविध तरह के उपलब्ध अन्तरस्थलीय जल संसाधनो के विवेकपूर्ण दोहन की अपार संम्भावनाये है। 24.1 लाख हे. जलक्षेत्र तालाब एवं पोखरों के रूप में, 10.7 लाख हे दलदली एवं विल्स, 20.9 लाख हे झील और जलाशय तथा 1.2 लाख किमी नहरो के रूप में भारत मे विद्वमान है। वर्तमान में इससे केवल 50-60 प्रतिशत तालाब एवं पोखर ही मतस्य पालन के उपयोग में आ रहे है। अन्य आवश्यकताओ की पूर्ति के साथ साथ इन जलीय स्त्रोतों का उपयोग मत्स्य पालन के लिये करने से प्रोटीन युक्त आहार सुगमता से गांवो कसवो, शहरों सभी जगह सुलभ हो सकता है। देश के अनेक जगहों पर विशेषकर गर्मी के मौसम में भू-जल का स्तर नीचे चला जाता है जिससे पानी की समस्या पैदा हो जाती है। ऐसे क्षेत्रो में इस संकट को कम करने के लिये बरसात के मौसम में पुराने जलाशयों पोखरों आदि के बन्धे व मेड ऊँचा कर अधिक से अधिक पानी संचय कर इनमे वर्ष भर पानी रह सकता है। इसे भूजल का स्तर भी ठीक रहता है और इनका उपयोग आवश्यकतानुसार पर्यावरण अनुकूल मत्स्य पालन के लिये भी किया जा सकता है। गाँवो के तालाबो के पानी मे मछली पालन कर इसको खराब होने से भी बचा सकते है।
कार्प प्रजातियों तेज बढ़ते वाली, शाकाहारी एवं तालाबो में सुगमता से पाली जाती है। अनेक शोध कार्यो के परिणाम स्वरूप जलीय स्त्रोतों की स्थिति, मत्स्य पालक की आर्थिक परिस्थिति, जगह विशेष में आवश्यक उपलब्ध संसाधन जैसे उर्वरक, खादे, मत्स्य आहार, मत्स्य बीज, बाजार में मांग आदि के आधार ��र लाभकारी सरल मत्स्य पालन तकनीकियां विकासित की गयी है। इनका उपयोग कर मत्स्य पालक/ उद्दमी अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते है।
·        तालाब की तैयारी (Pond preparation)
ग्रामीण अंचलों में भित्र भित्र आकार एवं गहराई वाले तालाब प्रायः उपलब्ध रहते है। लेकिन लाभ की दृष्टी से 0.1-1.0 हेक्टेयर तक के लगभग 2.0-2.5 मी. गहरे तालाब कार्प मछलियों के पालन के लिये ज्यादा उपयोगी होते है। इनमे अपनाये जाने वाले प्रवन्धन कार्यो का अनुपालन आसानी से किया जा सकता है। तालाब तैयारी में पहला कार्य पानी के आगमन एवं निकास द्वार पर महीन जाली लगाना है। जिससे बाहरी अवांछित मछलियां, परजीवी, जलीय खरपतवार आदि तालाब में प्रवेश न कर सके। इसमे बाद यदि जलक्षेत्र जलीय घांसो से आच्छादित है तो उन्हें बाहर निकालना आवश्यक है।
·        जलीय घासो का उन्मूलन (Eradication of aquatic weeds)
जलीय खरपतवार की मत्स्य तालाबो में उपस्थिति के कारण मछलियों के लिये उपयोगी पोषक तत्वो में कमी आ जाती है। इससे सकल उत्पादन प्रभावित होता है। हमारे देश की गर्म जलवायु एवं पोषक तत्वो से भरे गाँवो कसवो के जलीय क्षेत्र इनके अत्यधिक बृद्धि में सहायक होते है। अतः इनका नियंत्रण आवश्यक हो जाता है इनकी तालाबो में उपस्थिति से रात्री के समय घुलित आक्सीजन की कमी हो जाती है। इसमें अतिरिक्त अनेक रोग फैलाने वाले परजीवियों का आश्रय बनने के साथ जाल आदि चलाने में भी असुविधा होती है। मछलियों के पोखरी में घूमने फिरने में भी ये बाधा उत्पन्न करते है। इनके सड़ने से कीचड़ (कावर्बिक पदार्थों) आदि की अधिकता हो जाती है। इनकी तालाब में अधिकता उत्पादन की दृष्टि से नुकसानदायक होती है। तालाबो में पायी जाने वाली वनस्पतिया प्रमुख रूप से चार तरह की होती हैं।
1.      जल-प्लावित जलीय खरपतवार: ये जल की सतह पर तैयार है। इनमे जलकुंभी, सालवैनिया, स्पाइरोडिला, पिस्टिया, लेमना, एजोला आदि आते है।
2.      जलोनमग्न खरपतवार : इनकी जड़े तालाब, के निचले सतह पर रहते है। इनमे कमल, निम्फिया मरवाना (यूरीयिले) सिघाड़ा (ट्रापा) आदि।
3.      पानी के अन्दर उगने वाली वनस्पतिया: इस तरह की घासें पानी की सतह से नीचे रहती है। इनमे हाइड्रॉला,  नाजा, वैलिसिनेरिया, पोटामोजिटान, सिरटोफाइलम, यूट्रीकुलेरिया आदि आते है।
4.      शैवाल या काई : ये पानी के सतह अथवा नीचे सूत्रवत चिपाचिपाहट लिये होते है और अधिकता की अवस्था मे एक चद्दर सी बन जाती है। कुछ छोटे-छोटे गहरे हरे रंग के होते है। इनमे स्पाईरोगाइरा, पिथोफेरा, ओइडोगोनियम, माइक्रोसिस्टिस, एनाबिना, यूग्लीना, परीडिनियम, आदि प्रमुख ��ै।
·        जलीय खरपतवार की रोकथान के उपाय (Aquatic weed prevention measures)
तालाबो की घासे श्रम द्वारा यन्त्रों अथवा जैविक उपायो द्वारा नियंत्रित की जा सकती है। मानव श्रम या मशीनों द्वारा घासो का उन्मूलन कुछ परिस्थितियों में उपयोगी होता है। विशेषकर सतह पर पायी जलीय खरपतवार के लिये यह विधि उत्तम है। पानी के अंदर वाली घासो के लिये पानी के निचे घास काटने वाला यंत्र भी उपयोग किया जा सकता है। कंटीले तार को दो तरफ से खीचने से भी कुछ तरफ की जलीय वनस्पति का उन्मूलन किया जाता है। छोटे-छोटे सतह पर तैरने वाली काई जैसे लेमना, स्पारोडिला, वुल्फिया एवं एजोला को महीना जाल द्वारा बाहर किया जा सकता है। यधपि रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से भी जलीय घासो पर नियंत्रण पाया जा सकता है लेकिन विषाक्तता एवं गांवो के तालाबो को ध्यान में रखते हुए इनके उपयोग से वचना अच्छा है। कुछ जलीय वनस्पति के नियंत्रण में घास खाने वाली मछलियों बहुत प्रभावी होती है। इनमे ग्रास कार्प एवं सिल्वर बार्ब या जावा पुण्टी मत्स्य प्रजातियो हाइड्रिला, सिरैटोफाइलम, पोटामोजिटौन, लेमना, वुल्फिया एवं नाजा नामक घासो का भोजन कर इनकी रोकथान में सहायक होती है। ग्रास कार्प मछली अपने वजन के बराबर प्रतिदिन घास खा लेती है। एक हेक्टेयर के 300 ग्राम की 300-400 ग्रास कार्प मछलिया तालाब की हाइड्रिला दल को एक महीने में साफ कर देती है।
·         हिंसक एवं तृणक अवांछनीय मच्छलीयो एवं जीवों का तालाबो से उन्मूलन
अनेक तरह की दूसरी मछलीयो का भक्षण करने वाली हिंसक एवं छोटो बड़ी तृणक मछलियां जो तालाबो के बार-बार प्रजनन कर अत्यधिक संख्या में प्रवेश कर जाती है। ये पालन की गयी मछलियों को खाने के साथ साथ, जरूरी प्राकृतिक एवं सम्पूरक आहार को चर कर खा लेती है। फलस्वरूप कार्प प्रजातियों को बढ़ने के लिये आवश्यक आहार नही मिल पाता है। सांस लेने के घुलित आक्सीजन एवं स्वतंत्र विचरण के लिये ये अवांछनिय मछलिया प्रतिस्पर्धा करती है। संचय की गयी मच्छलीया की संख्या भी घटने लगती है। और कमजोर होकर रोगग्रस्त होने की संभावना भी अधिक बढ़ जाती है। इनके अतिरिक्त मेढ़क, कछुआ, सांप, उदबिलाब एवं मछलियों खाने वाली चिड़िया आदि भी कभी-कभी बहुत अधिक नुकसान पंहुचाते है। अतः इनका नियंत्रण भी आवश्यक है।
जिन तालबो को सुखाना सम्भव हो उन्हें सुखाकर उसमे ब्लीचिंग पाउडर जिसमे 20 प्रतिशत क्लोरिन होता है कि 500 किग्रा/हे./मीटर के हिसाब से छोड़काव कर देना चाहिए। लेकिन जहा यह सम्भव नही है वहा तालाब का कुछ पानी कम कर महुआ की खली 2500 किग्रा/हे/मी. का प्रयोग किया जा सकता है। यह मत्स्य विष के साथ साथ ��ालाब में सड़ने के बाद जैविक खाद का कार्य कर उत्पादकता को बढ़ाता है। लेकिन यह ध्यान देना आवश्यक है कि प्रयोग किया जाने वाला ब्लीचिंग पाउडर खुला एवं पुराना न हो। एक अन्य विधि में 100 किग्रा/हे यूरिया 18 घण्टे पूर्व तालाब में छिड़क दिया जाता है। फिर 250 किग्रा ब्लीचिंग पाउडर छिड़क दिया जाता है।
इससे तालाब में उपस्थित सभी मछलियों मर जाती है जिन्हें जाल चालकर बाहर कर दिया जाता है। यह विधि आंवछनिय मीनो के उन्मूलन में काफी प्रभावी होती है।
·        तालाब का खादिकरण (Pond fertilization)
तालाब में संचित मछलियों के लिये प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक खाद (प्लवकों) उपलब्ध करने तथा जलीय परिवेश को उत्तम रखने के लिये विभिन्न प्रकार के कार्बनिक एवं अकार्बनिक खादों का उपयोग किया जाता है। इससे वर्ष भर मछलियों को प्राकृतिक आहार मिलता रहता है साथ मे तालाब का पारिस्थितिकी तंत्र भी संतुलित रहता है। इनमे मुख्य रूप से चुना, गोबर, यूरिया, सुपर फास्फेट आदि शामिल है। तालाब में यदि ब्लीचिंग पाउडर पहले उपयोग किया हो तो चुने का प्रथम बार मे प्रयोग नही करते हैं, अन्यथा सामान्य मिट्टी का पी. एच. 6.5 - 7.5 तक हो, 200 किग्रा. चुना हे/मी. के हिसाब से देते है। गोबर का उपयोग हमेसा घोल बनाकर समान तरीके से चारो तरफ उपयोग करें।
गांवो के तालाबो में गोबर 5 क्विंटल /हे./महीने मिलाये, इस मात्रा को पूरे साल हर महीने में एक बार दे यदि महुआ की खली से तालाब साफ किया हो तो गोबर की खाद की आवश्यकता कम हो जाती है क्योंकि खली तालाब में खाद का कार्य भी करती है अतः ग्रामीण तालाबो के परिवेश के मद्देनजर गोबर की दी जाने वाली मात्रा आधी की जा सकती है। यानि 5 क्विंटल प्रति महीने यह मात्रा दो तीन महीने के बाद दी जा सकती है। गोबर की खाद चुना डालने के करीब एक सप्ताह बाद देना उचित है।
एक सामान्य तालाब को उत्पादन बनाने के लिये गोबर की खाद के अलावा 10 किग्रा. यूरिया एवं 15 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट की मात्रा की जरूरत प्रति हे. प्रति महीने पड़ती है। यह मात्रा तालाब के पानी की गुणवत्ता के अनुसार कुछ घटाई या बढ़ाई जा सकती है। रासायनिक एवं कार्बनिक खादों (गोबर इत्यादि) को एक-डेढ सप्ताह के अंतराल में देना ज्यादा उपयोगी है।
जिन मत्स्य कृषको के पास गोबर गैस संयंत्र है, वे गोबर की खाद के बदले संयन्त्र से निकलने वाली स्लैरी को 30-40 टन/हे./मी. के हिसाब से दे सकते है। इस कुल मात्रा को एक दो सप्ताह के अंतराल में वर्ष भर तालाब में देना चाहिए। कृषक जिनके पास 5-7 जानवर है एक 6 घन मी. का गोबर गैस संयन्त्र निर्मित कर सकते है जिससे 40-50 टन स्लैरी एक वर्ष में प्राप्त की जा सकती है इसके द्वारा 1.5 हे. जल क्षेत्र का खादिकरण आसानी से किया जा सकता है। ये संयन्त्र ब्लाक आफिस द्वारा भी निर्मित करवाये जाते है।
रासायनिक उर्वरकों की कमी जितनी नुकसान दायक है, उतनी ही इनकी अधिकता। क्योकि बहुत अधिक खादों के प्रयोग से तालाब के पानी का रंग गहरा हरा हो जाता है। कभी कभी पानी के ऊपर एक हरी परत सी पैदा हो जाती है जो सुबह के समय आसानी से देखी जा सकती है। इनकी अधिकता से रात्री के समय तालाब के पानी मे आक्सीजन की कमी भी हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती है। अन्य तरह की बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। अतः उवर्रकों का सही प्रयोग आवश्यक है।
रासायनिक खादों की बढ़ती कीमतों को दृष्टिगत रखते हुए केन्द्रीय मीठाजल  जीवपालन अनुसंधान संस्थान ने एक नई विधि विकसित की है। जिससे गांवो के कम गहरे जल वाली जगहो पर पाया जाने वाला एजोला नामक पादप जो पानी की सतह पर तैरता है। तालाब में जैव उर्वरक का काम करता है। यह एजोला 40 टन/हे/वर्ष के हिसाब से प्रयोग करने से रासायनिक खाद देने की जरूरत नही पड़ती है। केवल 24 किग्रा. फास्फेट का प्रयोग आवश्यक होता है, इसके प्रयोग से 100 किग्रा नाइट्रोजन (250 किग्रा. यूरिया के बराबर), 25 किग्रा. फास्फोरस (120 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट के बराबर), 50 किग्रा. पोटाश एवं 1500 कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाते है। यह खाद के साथ आहार का भी कार्य करता है। इस तरह के पर्यवरण अनुकूल खादिकरण द्वारा तालाब का पानी भी ठीक रहता है।
एक सरलतम विधि में मोटा अनुमान करने के लिये एक पटरी के एक सिरे पर एक पिन या अन्य कोई चीज लगा दे फिर पानी मे डुबाये जब लगाई गई पिन या अन्य चीज अदृश्य हो जाय तो उस लम्बाई को नोट कर ले, यदि 25-35 से.मी. के बीच यह लम्बाई आती है तो सामान्यतः पानी ठीक है। अधिक लम्बाई में उत्पादकता कम एवं 20 सेमी. से कम लम्बाई नुकसान दायक हो सकती है।
·        तालाब के पानी को गुणवत्ता का प्रबंधन (Quality management of pond water)
पानी की जांच कम से कम दो महीने में एक बार अवश्य करवा लेनी चाहिए। यदि कभी कोई समस्या उत्पन्न होने की सम्भावना दिखे तो सर्ब प्रथम तुरंत पानी की जांच करवाना अत्यंत आवश्यक है। इससे तालाब में पोषक तत्वों एवं रासायनिक गुणों के बारे में जानकारी मिल जायेगी, गोबर चुना, खली या कना, एवं खादे सभी मूल्यवान है, इनका जरूरत से अधिक उपयोग लागत को अधिक करने के साथ साथ नुकसान दायक भी हो सकते है।
जितनी जरूरत हो उतनी ही मात्रा का प्रयोग करना ही बस्तुतः उपयोगी होता है।
·        तालाब का संचय (Pool storage)
जब तालाब पूरी तरह तैयार हो जाय तो इनमे मत्स्य बीज का संचय किया  जाता है। बीज का आकार जितना बड़ा हो उतना ही अच्छा है। इनमे कुछ चीजें महत्वपूर्ण है।
·         तालाब के पानी की गुणवत्ता एवं पानी की गहराई के अनुसार विभिन्न कार्प प्रजातियों की संख्या एवं अनुपात का  निर्धारण करे।
·         बड़े जलाशयों/पोखरों में जहाँ समस्त अवांछनीय मीनो एवं कीड़ो का उन्मूलन किन्ही कारणों से सम्भव न हो तो उनमें बड़ी अंगुलिकाये ही संचय करे। जिन तालाबो में बतख घूमते रहते वहां भी 100 मि.मी. आकार की अंगुलिकाये ही संचय करनी चाहिए।
·         एक हेक्टेयर तालाब में 8000-10000 तक अंगुलिकाए संचय की मछलियों (कतला और सिल्वर कार्प), 30 प्रतिशत मध्यस्तर की मछलियों (रोहू), 30 प्रतिशत नितल की मछलियां (नैन), 10 प्रतिशत ग्रास कार्प एवं कोमन कार्प। ध्यान रहे कौमन कार्प ज्यादा तालाब में संचय न करें अन्यथा तालाब में खाद की कमी के अवसर पर ये बन्धो को मुंह से कुरेदना शरू कर देते है, और धीरे धीरे बन्ध टूटने लगते है। मछलियों का अनुपात क्षेत्रीय तालाबो की गुणवत्ता एवं मछली की वृद्धि के अनुसार लिखा गया है। यह संख्या एवं अनुपात जगह विशेष के उपलब्ध संसाधनों,
·         मछली की वृद्धि, बाजार में कीमत एवं संचय की जाने वाली मछलियों की उपलब्धता के अनुसार निर्धारित की जा सकती है।
·         नदिया एवं हैचरी से प्राप्त जीरा यदि बहुत छोटा है तो उसे एक छोटे से तालाब में दो महीने तक संवर्धन नर्सरी प्रबंधन के अनुसार करे। इससे से आवश्यक मात्रा का बीज निकाल कर बड़े तालाब में संचय कर ले।
·         गांवो के तालाबो में पादप प्लवकों की प्रचुरता होती है। इसके लिये संचय की जाने वाली सिल्वर कार्प की संख्या बढ़ाई जा सकती है। लेकिन यह भी  ध्यान रहे कि इनकी बाजार में कीमत भी अच्छी मिले, कुछ तालाबो में नितल पर घेघा इत्यादि प्रचार मात्रा में पाये जाते है, इसके लिये यदि 1-2 प्रतिशत तक लेबियो कालवासु संचय कर दी जाय तो इनकी वृद्धि अच्छी होती है।
·         ऐसे क्षेत्र जहां जलीय एवं स्थानीय घासो की प्रचुरता हो विशेषकर हाइड्रिल, नाजाज, सिरटोफाइल्म, बरसीम आदि वहाँ पर ग्रास कार्प की संख्या 5-10% तक कि जा सकती है। ये एक वर्ष में 1.5 -2.0 किग्रा. तक हो जाती है। इनके द्वारा निष्कासित अपवर्ज पदार्थ में खादिकरण के साथ-साथ अन्य मछलियों के लिये खाद का भी काम करता है।
·        पूरक आहार का प्रयोग (Use Supplements)
चूंकि मच्छलीयो को अधिक संख्या में संचय किया जाता है और खादिकरण द्वारा उत्पत्र प्राकृतिक आहार इनकी आवश्यकता को पूरा नही कर पाता है अतः कूछ मात्रा में पूरक आहार देना अत्यंत आवश्यक है।
ग्रामीण तालाबो में खादिकरण ज्यादा होता है अतः पूरक आहार की मात्रा कम प्रयोग की जा  सकती है। शोध कार्यो के अनुसार 1.5 -2.0 प्रतिशत खाद देना उचित है, लेकिन ग्रामीण परिवेश को ध्यान में रखते हुए यह मात्रा कम से की जा सकती है। यदि मछलियों का कुल वजन 100 किग्रा. है तो 1.5 किग्रा से 2.0 किग्रा. तक खाना प्रतिदिन दिया जा सकता है।
बर्षात के मौसम में जब गोबर का पानी रिस कर तालाबो में पहुंच जाता है, या बहुत अधिक ठण्डे के दिनों में, या बहुत अधिक तालाब के हरापन होने के समय अथवा सतहिकरन की स्थिति में पूरक खाद देना कुछ दिन के लिये स्थगित करना उपयोगी है।
तालाब की मछलियों का कुल वजन ज्ञान करने के लिये महाजाल द्वारा मछली एक जगह में एकत्रित कर ले, हर प्रजाति की 15-20 मछलियों का वजन कर ले और उन्हें तालाब में छोड़ दे। फिर कुल संचित मच्छलीयो को संख्या से गुणाकर कुल वजन का आकलन कर ले। अनुभबो से ऐसा ज्ञान हुआ है कि यदि अच्छी तरह जाल चलाया जाय तो प्रथम बार 60-70 प्रतिशत तक मछली जाल में आ जाता है, जिनमे भाकुर, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प, रोहू क्रमशः कुछ अधिक संख्या में तथा नैन एवं कौमन कार्प कम संख्या में आते है।
मत्स्य कृषक ग्रामीण तालाबो में चोरी के भय से दिन में जाल चलाने में संकोच करते है, अतः उपय��क्त समय निर्धारित कर जाल महीने के अंतराल में वजन एवं स्वास्थ्य की देखभाल के लिये अवश्य चलाये, इससे दोहरा लाभ होता है।
किसी भी परिस्थिति में यह अवश्य सुनिश्चित के ले कि आपके द्वारा दिया जाने वाला खाद पूर्ण रूप से मछली द्वारा उपयोग किया जाय इसकी बर्बादी द्वारा आर्थिक नुकसान होता है।
·        मत्स्य उत्पादन (Fishery production)
इस तरह से 6-7 तरह की देशी एवं विदेशी प्रधान कार्प को संचय करने से तालाबो में उपस्थित समस्त स्तरों पर उपलब्ध प्राकृतिक आहार ���ा उपयोग हो जाता है। तालाबो में पर्यावरण अनुकूल मत्स्य पालन अपना कर कृषक लाभ अर्जित कर सकते है। एक हेक्टेयर के तालाब में लगभग कुल खर्च 1,47,075 रुपये आता है, इसमे से कम से कम 4000 किग्रा मछली पैदा हो जाती है, जिसकी बिक्री से (120रु./किग्रा.) लगभग 4,80,000 रुपये प्राप्त किये जा सकते है। कुल शुद्ध आय लगभग 3,32,925 रुपये प्रतिवर्ष प्राप्त हो जाता है।
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Download 150 Biology Single Liner Questions HSSC-HTET-CTET-REET-UPTET PDF. मानव में गुर्दे का रोग किसके प्रदूषण से होता है? - कैडमियम बी.सी.जी. का टीका निम्न में से किस बीमारी से बचाव के लिए लगाया जाता है? - क्षय रोग प्रकाश संश्लेषण के दौरान पैदा होने वाली ऑक्सीजन का स्रोत क्या है? - जल पौधे का कौन-सा भाग श्वसन क्रिया करता है? - पत्ती कच्चे फलों को कृत्रिम रूप से पकाने के लिए किस गैस का प्रयोग किया जाता है? - एसिटिलीन नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में निम्न में से कौन-सी फ़सल सहायक है? - फली   निम्नलिखित में से कौन-सी बीमारी जीवाणुओं के द्वारा होती है? - कुष्ठ   सूक्ष्म जीवाणुओं युक्त पदार्थ का शीतिकरण एक प्रक्रिया है, जिसका कार्य है -जीवाणुओं को निष्क्रिय करना   दूध के दही के रूप में जमने का कारण है - लैक्टोबैसिलस   वृक्षों की छालों पर उगने वाले कवकों को क्या कहते हैं? - कार्टीकोल्स मानव शरीर में सबसे अधिक मात्रा में कौन-सा तत्व पाया जाता है? - ऑक्सीजन किस प्रकार के ऊतक शरीर के सुरक्षा कवच का कार्य करते हैं? - एपिथीलियम ऊतक   हल्दी के पौधे का खाने योग्य हिस्सा कौन-सा है? - प्रकन्द   निम्नलिखित में से कौन-सा रूपांतरिक तना है? 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supremenewstv-blog · 6 years ago
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2050 में दुनिया को भुखमरी से बचाना है, तो करना होगा यह काम ग्लोबल वार्मिंग के कई खतरे बताये जा रहे हैं. इसमें एक सबसे बड़ा संकट है, खाद्य संकट. इस मामले में एक अच्छी खबर है. इस संकट से निबटा जा सकता है. इसके लिए थोड़ी-सी एहतियात बरतनी होगी. कुछ कदम उठाने होंगे. इस विषय पर हुए पहले अध्ययन की रिपोर्ट ‘नेचर’ पत्रिका में छपी है. रिपोर्ट के मुताबिक, व��ज्ञानिकों का मानना है कि फूड सिस्टम क्लाइमेट चेंज या जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारक है. लैंड यूज में बदलाव, खत्म होते शुद्ध जलस्रोत, नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस के अत्यधिक इस्तेमाल से जलीय एवं स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र को काफी नुकसान होता है.वैज्ञानिकों ने कहा है कि तकनीक के अभाव में वर्ष 2010 और 2050 के बीच आबादी और लोगों की आय में संभावित परिवर्तन फूड सिस्टम पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव को 50 से 90 फीसदी तक बढ़ा देगा. इसका प्रभाव इतना अधिक होगा कि इसे नियंत्रित कर पाना मानव के वश में नहीं रह जायेगा.हालांकि, वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने कुछ उपाय पर विचार किये हैं, जो पर्यावरण पर खाद्य प्रणाली या फूड सिस्टम के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को कम किया जा सकता है. वैज्ञानिकों का रिसर्च कहता है कि यदि खानपान में तब्दीली करके लोग शाकाहार की ओर बढ़ें, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन में सुधार करें, खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोकें, तो इस समस्या से पार पाया जा सकता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने ग्रह को बचाने के लिए इनमें से कोई एक उपाय ऐसा नहीं है, जो अपने आप में पर्याप्त हो. यदि सभी उपायों पर एक साथ अमल किया जाये, तभी पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सकता है. अध्ययन कहता है कि वर्ष 2050 में 10 अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए ये उपाय करने ही होंगे. नेचर जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि योग्य भूमि के इस्तेमाल, ताजा पानी का दोहन और खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषित होने से बचाकर वैश्विक जलवायु परिवर्तन के असर को बहुत हद तक कम किया जा सकता है. यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जिसमें खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर पड़ने वाले असर के बारे में विस्तार से बताया गया है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ऑक्सफोर्ड मार्टिन प्रोग्राम ऑन द फ्यूचर ऑफ फूड और द नुफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ पॉपुलेशन हेल्थ के डॉ मार्को स्प्रिंगमैन कहते हैं कि जब तक समग्र उपाय नहीं किये जायेंगे, जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया जा सकता है. डॉ स्प्रिंगमैन का कहना है कि वर्ष 2050 में बढ़ती आबादी का नतीजा यह होगा कि फैट, शुगर और मीट की मांग बढ़ेगी. इस मांग को पूरा करने के लिए अपने ग्रह पर उपलब्ध संसाधन कम पड़ जायेंगे. कुछ चीजों की मांग तो आज की तुलना में दो गुणा से अधिक बढ़ जायेगी. कई संस्थाओं ने अध्ययन के लिए पैसे दिये इस महत्वपूर्ण ��ध्ययन के लिए EAT ने EAT-लांसेट कमीशन फॉर फूड, प्लानेट एंड हेल्थ और वेलकम के ‘आवर प्लानेट, आवर हेल्थ’ ने फंडिंग की. अध्ययन का उद्देश्य दुनिया भर में खाद्य पदार्थों के उत्पादन और सेवन के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र करना था. इस मॉडल के जरिये शोधकर्ताओं ने उन विकल्पों का विश्लेषण किया, जो खाद्य प्रणाली को पर्यावरण सीमाओं में रख सकते हैं. अध्ययन का निष्कर्ष वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन के बाद पाया कि जब तक खानपान में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, शाकाहार की ओर लोग नहीं बढ़ेंगे, इस समस्या से निबटना मुश्किल होगा. यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटकर आधा रह जायेगा. पर्यावरण पर पड़ने वाले कुछ अन्य असर भी कम होंगे. मसलन कृषि योग्य भूमि के इस्तेमाल, शुद्ध पेयजल और खाद के इस्तेमाल भी कम हो जायेंगे. यदि मौजूदा कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता बढ़ायी जाये, खाद के इस्तेमाल को सीमित किया जाये, जल प्रबंधन में सुधार किया जाय के अलावा कुछ और उपाय कर लिये जायें, तो संकट के असर को आधा किया जा सकता है. 16 फीसदी तक कम हो सकता है ग्लोबल वार्मिंग का असर खाद्य प्रणाली को पर्यावरण की सीमा के दायरे में रखा जाये और खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोक दी जाये, तो पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को 16 फीसदी तक कम किया जा सकता है. स्प्रिंगमैन कहते हैं कि दुनिया के कुछ हिस्सों में समाधान के इन उपायों पर अमल होने लगा है. लेकिन, यह पर्याप्त नहीं है. यदि अपने ग्रह को बचाना है, तो वैश्विक स्तर पर सहयोग और इस पर तेजी से अमल करने की जरूरत महसूस की जा रही है. जागरूकता लाने के रास्ते भी बताये डॉ स्प्रिंगमैन कहते हैं कि यदि हमें बेहतर दुनिया चाहिए तो इस पर सख्ती से अमल करना ही होगा. स्कूलों और कार्यस्थलों पर इस संबंध में कार्यक्रम के जरिये लोगों को जागरूक करना होगा. आर्थिक प्रोत्साहन देना होगा. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर खानपान से जुड़ी एक गाइडलाइन बनानी होगी. इसमें लोगों को बताना होगा कि किस तरह ये सारी चीजें हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों को प्रभावित कर रही है. उन्हें नुकसान पहुंचा रही है. Research desk Report
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bjpsanjayvinayakjoshi · 6 years ago
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भारत का भविष्य | Future of Bharat
कुछ दशक पहले, जब प्रगतिशील देशों की बात होती थी तो भारत का ज़िक्र तक नहीं होता था। भारत को एक पिछड़ा हुआ देश समझा जाता था। विकसित देशों में लंबे समय तक यही धारणा थी।
आज स्थिति काफी बदल चुकी है।आईएमएफ के मुताबिक, भारत का जीडीपी 2017 में 2.6 ट्रिलियन डॉलर था। तत्पश्चात भारत, फ्रांस को पीछे छोड़ दुनिया को 6वीं सबसे बड़ी इकोनॉमी बन गया है। भारत से पहले पांच सबसे बड़ी इकोनॉमी में अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और ब्रिटेन हैं।
ऐसे मौके पे भारत के भविष्य पे विचार करना होगा. समझना होगा कि क्या यह प्रगति लम्बे समय तक चलेगी? क्या इस से होने वाले फायदे देश के हर नागरिक तक पहुचेंगे? भारत की आर्थिक और सामाजिक स्तिथि का विश्लेषण करें तो जानेंगे की भारत का भविष्य कई हद तक निम्न ३ चीज़ों पे निर्भर करेगा: कृषि, शिक्षा और पर्यावरण। आइये देखते हैं कैसे।
1. कृषिः- भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। हमारे देश की लगभग 70 प्रतिशत जनता आज भी कृषि पर ही निर्भर है। भारत की जलवायु प्रत्येक तरह की कृषि के लिये उपयुक्त है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का अहम योगदान है, परन्तु आज कृषि क्षेत्र की इस कदर बदहाली हो चुकी है कि कृषि पर आत्म निर्भर रहने वाले लोग खेती किसानी छोड़ के अन्य कोई भी कार्य करने के लिये भटक रहे है या आत्म हत्या करने के लिये विवश हो रहे है। यूपीए सरकार के दौरान किसान और कृषि की बहुत ही दयनीय स्थिति होती चली गई थी। एनसीआरबी के मुताबिक देशभर में 2010 में 15,933 किसानों ने आत्महत्या की और 2011 में 14,004 किसानों ने आत्महत्या की। क्या और किसी भी देश में ये मुमकिन है? कृषि विकास दर प्रतिवर्ष घटती जा रही है। फलस्वरूप जहां एक ओर देश में बेरोजगारी बढ़ रही वहीं दूसरी ओर कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। कृषि नीति में परिवर्तन कर, कृषि को आकर्षक व्यवसाय के रूप में बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके लिये कृषि तकनीकों का विकास करना, बदलते मौसमी चक्र के अनुसार कृषि कार्य करना तथा कृषि कार्य में लगे लोगों को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। साथ ही साथ हमें अपनी सोच भी बदलनी होगी। सही मायने में गांव के लोग ही देश के वह नागरिक हैं जो बुरे वक्त में भी अपना देश नही छोडते । सरकार को इन्हें प्राथमिकता देनी होगी। केवल किसान किसान चिल्लाने से कुछ नही होगा। किसान का विकास तब होगा जब उसका परिवार विकसित होगा और परिवार के विकसित होने साथ ही साथ हमें अपनी सोच भी बदलनी होगी | ध्यान देने वाली बात है की एनडीए सरकार ने कुछ ठोस उपायों के जरिए देश के इस आधार को मजबूत बनाने की कोशिश की है.  कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से सिंचाई की सुविधाएं सुनिश्चितकर उपज बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है घरेलू उत्पादन और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए नई यूरिया नीति की घोषणा की गई है| और आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए गोरखपुर, बरौनी तथा तलचर में खादफैक्टरी का पुनरोद्धार किया गया है। यही नहीं, 500 करोड़ रुपये के कॉर्पस वाले मूल्य स्थिरीकरण कोष की स्थापना की गई है। ये कोष जल्द खराब होने वाली कृषि और बागवानी फसलों की कीमतों को नियंत्रित करने में मददगार होगा। फसल बीमा योजना की शुरुआत की गयी है जिसके द्वारा किसान अपनी फसल का बीमा करवाकर एक सुनिश्चित आय का लाभ उठा सकते हैं। कृषि उपज मंडियों को सरकार ने एकीकृत किया है |
2. शिक्षाः- भारत देश, जिसने विश्व को महान गणितज्ञ, खगोलविद, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वेद और उपनिषद दिये, उस देश की शिक्षा प्रणाली आज इतने निचले स्तर पर पहुंच चुकी है कि भारत का कोई भीशिक्षण संस्थान विश्व के 200 शीर्ष शिक्षण संस्थानों में अपनी जगह नही बना पाया है। जिस प्रकार आज हम उच्च शिक्षा के लिये विदेशों का रूख कर रहे है, इसी प्रकार विदेशी छात्र उच्च अध्ययन हेतुपूर्व में प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों को रूख करते थे। यह एक विडम्वना है कि हमारे प्राचीन विश्वविद्यालय, जिन्हे बदलते समय के साथ शिखर पर होना चाहिए था, उनका अस्तित्व आज समाप्त हो चुका है।
शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट संस्थानों ने सरकार के साथ मिलकर देश की आवाम को इस कदर लूटा कि लाखों रूपये फीस देने के बाद भी गांरटी नही कि नौकरी मिल जाये। इसका एक ही कारण है कि शिक्षा अब दी नही जा रही बल्कि बिक रही है। कई यूनिवर्सिटियों ने तो दूरस्थ शिक्षा के नाम पर डिग्री बांटने का धंधा खोल रखा है।लाखों लोग, जिन्हें ठीक से नाम भी लिखना नही आता, ऐसी डिग्रीलेकर इंजीनियर बन गये है ।
देश में आज अशिक्षित से कई गुना अधिक शिक्षित बेरोजगार है। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली इसके लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार है। परिणाम ये है की कोई भी व्यक्ति सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में अपनेबच्चे को नहीं भेजना चाहता। स्थिति को ध्यान में रखते हुए हमें शिक्षा के क्षेत्र में जल्द ही कुछ ठोस कदम उठाने होंगे
सरकार के पास शिक्षा के लिये कोई साकार नीति नहीं है। केन्द्र सरकार को इस मामले पर एक नीति बनाने की कोशिश करनी चाहिये। शिक्षक भर्ती के केन्द्रीय करण की ओर बढ़ना चाहीये। प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के स्तर में समय के अनुसार बदलाव लाना होगा। अच्छी शिक्षा आत्म निर्भरता देती है न की बेरोजगारी। अतः शिक्षा के क्षेत्र में भारत को अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करना होगा।
3. पर्यावरणः- प्राचीन भारत में नदियों व पेड़-पौधों को देवी देवताओं का रूप में माना जाता था। पेड़ पौधों को जल देना, नदियों को प्रदूषित न करना हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। प्राचीन भारत के लोगपर्यावरण के प्रति इतने संवेदनशील थे कि वह नदियों, तथा जल स्रोतों का संरक्षण करते थे। जिस कारण पर्यावरण में संतुलन बना रहता था और प्राकृतिक आपदायें ना के बराबर थी। परन्तु आज स्थिति विपरित हो चुकी है। जिस कारण जहां देश की अधिकांश नदियां या तो सूख चुकी है या सूखने के कगार पर है।
आज जिस तरह से मौसम चक्र में बदलाव हो रहा है उससे देश में जान-माल की भारी क्षति हो रही है। अचानक आये तूफान एंव भारी बारिश से जहां देश के कई हिस्सों में भू-स्खलन व बाढ़ के हालात पैदा हो रहे है, वहीं दूसरी ओर भीषण गर्मी और सूखे से भी देश को भारी क्षति हो रही है। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण देश का विकास प्रभावित हो रहा है। जिस अनुपात में औद्योगीकरण बढ़ रहा है, उससे कहीं अधिक अनुपात में पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं और हिमालय का क्षेत्र घटता जा रहा है।
हमें अपने पर्यावरण को बचाने के लिये तत्काल प्रभाव से शुरूवात करनी होगी और यह कार्य हमें अपने घरों से ही शुरू करना होगा। प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर को सजोने का कार्य प्रत्येक नागरिक का मुख्य दायित्यव होना चाहिए अन्यथा हम ही अपने विनाश का कारण होगें।
अन्त में यही कहना चाहूंगा कि भारत वर्ष को एक समृद्ध एंव आत्म निर्भर राष्ट्र बनाने के लिये हमें अपनी नीतियों में बदलाव कर कृषि एंव शिक्षा को विशेष महत्व देते हुये पर्यावरण संरक्षण के प���रति और अधिक जागरूकता लानी होगी ताकि हम अपनी खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर सके।
For more information please visit: http://www.sanjayvinayakjoshi.com/
जय हिन्द जय भारत
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kisansatta · 5 years ago
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पर्यावरण दिवस विशेष,दुनिया ग्लोबल वार्मिंग जैसी चिंताओं से रू-ब-रू
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आज पर्यावरण दिवस है पर्यावरण के साथ प्रकृति का सीधा सम्बन्ध है प्राणी मातृ के लिए यह जीवन प्रदान करने के साथ समस्त प्राणियो में सभी प्रकार के प्रादुर्भाव पैदा करता प्रति वर्ष 5 जून पर्यावरण के दिवस में मनाया जाता है। दुनियाभर में पर्यावरण को समर्पित यह खास दिन इंसानों को प्राकृतिक वातावरण के प्रति सचेत करने के लिए मनाया जाता है, जब उन्हें इनके संरक्षण की याद दिलाई जाती है।
इंसानों व प्रकृति के बीच के गहरे संबंध को देखते हुए यह खास तौर पर अहम हो जाता है। इस बार पर्यावरण दिवस ऐसे समय में आया है, जबकि पूरी मानवजाति एक बड़ी कोरोना वायरस महामारी के कहर से जूझ रही है और दुनिया ग्लोबल वार्मिंग जैसी चिंताओं से रू-ब-रू है। पर्यावरण को समर्पित यह खास दिन हमें प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने के लिए प्रेरित कर��ा है। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘जैव विवधिता’ रखा गया है।
विश्व पर्यावरण दिवस 1974 से ही मनाया जाता है, जब संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार इसकी घोषणा की थी। इस दौरान लोगों को पर्यावरण की अहमियत, इंसानों व पर्यावरण के बीच के गहरे ताल्लुकात को समझाते हुए प्रकृति, पृथ्वी एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाता है।
समग्र्र मनुष्य जाति पर्यावरण के बढ़ते असंतुलन एवं उससे उपजी कोरोना महाव्याधि से संत्रस्त है। इधर तेज रफ्तार से बढ़ती दुनिया की आबादी, तो दूसरी तरफ तीव्र गति से घट रहे प्राकृतिक ऊर्जा स्रोत। समूचे प्राणि जगत के सामने अस्तित्व की सुरक्षा का महान संकट है। पिछले लम्बे समय से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से जुडी हुई है। इसके संतुलन एवं संरक्षण के सन्दर्भ में पूरा विश्व चिन्तित है। आज पृथ्वी विनाशकारी हासिए पर खड़ी है। सचमुच आदमी को जागना होगा। जागकर फिर एक बार अपने भीतर उस खोए हुए आदमी को ढूंढना है जो सच में खोया नहीं है, अपने लक्ष्य से सिर्फ भटक गया है। यह भटकाव पर्यावरण के लिये गंभीर खतरे का कारण बना है। पानी के परंपरागत स्रोत सूख रहे हैं।
वायुमण्डल दूषित, विषाक्त हो रहा है। माटी की उर्वरता घट रही है। इससे उत्पादन में कमी आ रही है। भू-क्षरण, भूमि का कटाव, नदियों द्वारा धारा परिवर्तन-ये घटनाएं आये दिन घटित हो रही हैं। बाढ़, भूस्खलन और भूकंप प्रतिवर्ष तबाही मचा रहे हैं। इससे मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समृद्धि के भविष्य पर अनेक प्रश्नचिह्न उभर रहे हैं। पर्यावरण चिन्ता की घनघोर निराशाओं के बीच एक बड़ा प्रश्न है कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को काटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था।
जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक���षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियां बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अपने प्रति आदमी की असावधानी, उपेक्षा, संवेदनहीनता और स्वार्थी चेतना को देखकर प्रकृति ने उसके द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया है, तभी बार-बार भूकम्प, चक्रावत, बाढ़, सुखा, अकाल और अब कोरोना महाबीमारी जैसे हालात देखने को मिल रहे हैं।
इस संकट का मूल कारण है प्रकृति का असंतुलन। औद्योगिक क्रांति एवं वैज्ञानिक प्रगति से उत्पन्न उपभोक्ता संस्कृति ने इसे भरपूर बढ़ावा दिया है। स्वार्थी और सुविधा भोगी मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है। उसकी लोभ की वृत्ति ने प्रकृति एवं पृथ्वी को बेरहमी से लूटा है। इसीलिए पर्यावरण की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही है। न हवा स्वच्छ है, न पानी। तेज शोर आदमी को मानसिक दृष्टि से विकलांग बना रहा है। ओजोन परत का छेद दिनोंदिन बढ़ रहा है। सूरज की पराबैंगनी किरणें, मनुष्य शरीर में अनेक घातक व्याधियाँ उत्पन्न कर रही हैं। समूची पृथ्वी पर उनका विपरीत असर पड़ रहा है। जंगलों-पेड़ों की कटाई एवं परमाणु ऊर्जा के प्रयोग ने स्थिति को अधिक गंभीर बना दिया है।
कोरोना की विकरालता हो या पर्यावरण संकट-जहाँ समस्या है, वहाँ समाधान भी हैै। अपेक्षा है, प्रत्येक व्यक्ति अपना दायित्व समझे और इस समस्या का सही समाधान ढूँढे। महात्मा गांधी ने कहा-सच्ची सभ्यता वही है, जो मनुष्य को कम से कम वस्तुओं के सहारे जीना सिखाए। अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य तुलसी ने कहा-सबसे संपन्न व्यक्ति वह है जो आवश्यकताओं को कम करता है, बाहरी वस्तुओं पर कम निर्भर रहता है।’’ महापुरुषों के ये शिक्षा सूत्र समस्याओं के सागर को पार करने के लिए दीप-स्तंभ का कार्य कर सकते हैं।
हम जानते हैं-कम्प्यूटर और इंटरनेट के युग में जीने वाला आज का युवा बैलगाड़ी, चरखा या दीये की रोशनी के युग में नहीं लौट सकता फिर भी अनावश्यक यातायात को नियंत्रित करना, यान-वाहनों का यथासंभव कम उपयोग करना, विशालकाय कल-कारखानों और बड़े उद्योगों की जगह, लघु उद्योगों के विकास में शांति/संतोष का अनुभव करना, बिजली, पानी, पंखे, फ्रिज, ए.सी. आदि का अनावश्यक उपयोग नहीं करना या बिजली-पानी का अपव्यय नहीं करना, अपने आवास, पास-पड़ोस, गाँव, नगर आदि की स्वच्छता हेतु लोकचेतना को जगाना-ये ऐसे उपक्रम हैं, जिनसे आत्मसंयम पुष्ट होता है, प्राकृतिक साधन-स्रोतों का अपव्यय रुकता है। प्रकृति के साथ सहयोग स्थापित होता है और पर्यावरण की सुरक्षा में भागीदारी हो सकती है और इसी से कोरोना महासंकट से मुक्ति का भी रास्ता निकल सकता है।
शाकाहार, खान-पान की शुद्धि और व्यसन मुक्ति भी पर्यावरण- सुरक्षा के सशक्त उपाय हैं। खान-पान की विकृति ने मानवीय सोच को प्रदूषित किया है। संपूर्ण जीव जगत के साथ मनुष्य के जो भावनात्मक रिश्ते थे, उन्हें चीर-चीर कर दिया है। इससे पारिस्थितिकी और वानिकी दोनों के अस्तित्व को खुली चुनौती मिल रही है।
नशे की संस्कृति ने मानवीय मूल्यों के विनाश को खुला निमंत्रण दे रखा है। पान मसाला तथा पान के साथ खाया जाने वाला तम्बाकू बहुत ही हानिकारक होता है, विश्व में प्रतिवर्ष तीन करोड़ लोग कैंसर तथा तम्बाकू जनित अन्य रोगों के शिकार हो रहे हैं। यदि तम्बाकू का सेवन छोड़ दिया जाए तो कैंसर की 65 प्रतिशत संभावना कम हो सकती है। वाहनों का प्रदूषण, फैक्ट्रियों का धुँआ, परमाणु परीक्षण-इनको रोक पाना किसी एक व्यक्ति या वर्ग के वश की बात नहीं है। पर कुछ छोटे-छोटे कदम उठाने की तैयारी भी महान क्रांति को जन्म दे सकती है।
जो आधुनिक स्वरूप विकसित करने की वकालत की जा रही है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं।
नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे ��वं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द-गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये-नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है। महानगरों का हश्र आप देख चुके हैं। अगर अनियोजित विकास ऐसे ही होता रहा तो दिल्ली, मुम्बई, कोलकता में सांस लेना जटिल हो जायेगा।
इस देश में विकास के नाम पर वनवासियों, आदिवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। खनन के नाम पर जगह-जगह आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन को छीना गया। कौन नहीं जानता कि ओडिशा का नियमागिरी पर्वत उजाड़ने का प्रयास किया गया। आदिवासियों के प्रति सरकार तथा मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया कभी संतोषजनक नहीं रहा।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते रहे हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश, पर्यावरण व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए। आज कोरोना एवं पर्यावरण की घोर उपेक्षा के कारण जीवन का अस्तित्व ही संकट में है। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।
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bollywoodpapa · 5 years ago
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टिड्डी दलों के हमले को लेकर विशेषज्ञों का अनुमान, जल्द खत्म नहीं होगा प्रकोप, ये है बड़ी वजह!
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टिड्डी दलों के हमले को लेकर विशेष���्ञों का अनुमान, जल्द खत्म नहीं होगा प्रकोप, ये है बड़ी वजह!
दोस्तों पाकिस्तान होते हुए भारत में प्रवेश करने वाले प्रवासी कीट यानी टिड्डी दल का खतरा  राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में आतंक का पर्याय बने टिड्डी दल जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न स्थितियों का नतीजा हैं।साथ ही उन्होंने इन कीटों का प्रकोप जुलाई की शुरुआत तक बरकरार रहने की आशंका जाहिर की है। वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन के बीच देश के पश्चिमी राज्यों पर टिड्डी दलों ने धावा बोल दिया है। पिछले ढाई दशक में पहली बार महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी इनका जबरदस्त प्रकोप दिखाई दे रहा है।
जलवायु परिवर्तन विषय पर काम करने वाले प्रमुख संगठन ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ की मुख्य अधिशासी अधिकारी आरती खोसला के मुताबिक टिड्डियों के झुंड पैदा होने का जलवायु परिवर्तन से सीधा संबंध है। उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से करीब 5 महीने पहले पूर्वी अफ्रीका में अत्यधिक बारिश हुई थी। इसके कारण उपयुक्त माहौल मिलने से बहुत भारी मात्रा में टिड्डियों का विकास हुआ। उसके बाद वे झुंड वहां से 150 से 200 किलोमीटर रोजाना का सफर तय करते हुए दक्षिणी ईरान और फिर दक्षिण पश्चिमी पाकिस्तान पहुंचे। वहां भी उन्हें अनियमित मौसमी परिस्थितियों के कारण प्रजनन के लिए उपयुक्त माहौल मिला जिससे उनकी तादाद और बढ़ गई। वे अब भारत की तरफ रुख कर चुकी हैं। कम से कम जुलाई की शुरुआत तक टिड्डियों का प्रकोप जारी रहने की प्रबल आशंका है।
आरती ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य संगठन एफएओ का मानना है कि देश में जून से बारिश का मौसम शुरू होने के बाद टिड्डियों के हमले और तेज होंगे। संयुक्त राष्ट्र ने भी चेतावनी दी है कि इस वर्ष भारत के किसानों को टिड्डियों के झुंड रूपी मुसीबत का सामना करना पड़ेगा। यह भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा है। उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन ने मौसम के हालात को मौजूदा प्रकोप के अनुकूल बना दिया है। चरम और असामान्य मौसम के साथ पिछले साल एक शक्तिशाली चक्रवात के कारण दुनिया के अनेक स्थानों पर नमी पैदा हुई है जो टिड्डियों के विकास के लिए अनुकूल माहौल बनाती हैं। पर्यावरण वैज्ञानिक डॉक्टर सीमा जावेद ने बताया कि टिड्डे गीली स्थितियों में पनपते हैं और इनका प्रकोप अक्सर बाढ़ और चक्रवात के बाद आता है।
उन्होंने कहा कि टिड्डियां एक ही वंश का हिस्सा होती हैं लेकिन अत्यधिक मात्रा में पैदा होने पर उनका व्यवहार और रूप बदलता है। इसे फेज़ चेंज कहा जाता है. ऐसा होने पर टिड्डे अकेले नहीं बल्कि झुंड बनाकर काम करते हैं, जिससे वे बहुत बड़े क्षेत्र पर हावी हो जाते हैं। यही स्थिति चिंता का कारण बनती है। इस बीच, भारत कृषक समाज के अध्यक्ष अजयवीर जाखड़ ने कहा कि केंद्र सरकार को टिड्डी दल के प्रकोप के प्रबंधन के बारे में महज अलर्ट जारी करने और सलाह देने से ज्यादा कुछ करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि तेजी से बढ़ते प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों के हवाई छिड़काव की व्यवस्था करनी होगी लेकिन राज्यों में इसके लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है।
कृषि एवं व्यापार नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने कहा कि टिड्डी दलों का हमला बेहद गंभीर है और भविष्य में हालात और भी मुश्किल हो जाएंगे। टिड्डी दल पांच राज्यों राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक पहुंच गए हैं। टिड्डियों के कारण सूखे से भी बदतर हालात पैदा हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि इस साल बेमौसम बारिश और बढ़ी हुई चक्रवातीय गतिविधियों की वजह से अनुकूल जलवायु परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं और टिड्डे सामान्य से 400 गुना ज्यादा प्रजनन कर रहे हैं। शर्मा ने कहा कि यह आपातकालीन स्थिति है लिहाजा इसमें वैसे ही उपायों की भी जरूरत है। यह रेगिस्तानी टिड्डे न सिर्फ भारत के खाद्य उत्पादन पर गंभीर असर डालेंगे बल्कि कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन की पहले से ही मार सहन कर रहे किसानों पर ��ोहरी मुसीबत आन पड़ेगी।
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khabaruttarakhandki · 5 years ago
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पंतनगर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आर के श्रीवास्तव ने बताया कि कार्बन एवं अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कर इंसान पृथ्वी के मौसम का मिजाज बिगाड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हर आने वाला वर्ष पिछले वर्ष से अधिक गर्म होता जा रहा है। 2013 के आकलन में आइपीसीसी ने बताया था कि 21वीं सदी के अंत तक धरती का तापमान 1850 के सापेक्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार यदि वार्मिंग की दर ऐसी रही तो सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन से पांच डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि धरती के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि इस वर्ष पृथ्वी दिवस का थीम क्लाइमेट एक्शन रखा गया है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का मनुष्य अंधाधुंध उपयोग कर पारिस्थितिक तंत्र से छेड़छाड़़ कर रहा है, जो पर्यावरण के विनाश का संकेत है। सदियों से किए जा रहे अत्याचार का बदला पृथ्वी अब ग्लोबल वार्मिंग के जरिये ले रही है।  इससे निश्चित ही आने वाली पीढ़ी जहरीले वातावरण एवं नई-नई बीमारियों के साथ जीवन जीने को बाध्य होगी। यदि पृथ्वी के तापमान बढ़ने का यही हाल रहा तो आने वाले समय में धरती पर रहना भी दूभर हो जाएगा। इस बदलाव से धरती का प्राकृतिक क्रियाकलाप तेजी से प्रभावित होगा। दुनिया के विकसित देशों में जब तक औद्योगिक विकास प्रक्रिया चरम पर थी, तब तक उन्होंने धरती के वातावरण और लगातार बढ़ रही गर्माहट पर चुप्पी साधे रखी। लेकिन जैसे ही विकास की बयार बहने लगी, उन्होंने पर्यावरण की खराब होती हालत पर शोर मचाना शुरू कर दिया। हानिकारक गैसों को नियंत्रित करने की ठोस कवायद विकसित देशों को ही करनी चाहिए।      
http://khabaruttarakhandki.blogspot.com/2020/04/blog-post_49.html
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khabaruttarakhandki · 5 years ago
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विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेषः तीन से पांच डिग्री तक बढ़ सकता है धरती का तापमान
पंतनगर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आर के श्रीवास्तव ने बताया कि कार्बन एवं अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कर इंसान पृथ्वी के मौसम का मिजाज बिगाड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हर आने वाला वर्ष पिछले वर्ष से अधिक गर्म होता जा रहा है।
2013 के आकलन में आइपीसीसी ने बताया था कि 21वीं सदी के अंत तक धरती का तापमान 1850 के सापेक्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार यदि वार्मिंग की दर ऐसी रही तो सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन से पांच डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि धरती के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है।
डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि इस वर्ष पृथ्वी दिवस का थीम क्लाइमेट एक्शन रखा गया है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का मनुष्य अंधाधुंध उपयोग कर पारिस्थितिक तंत्र से छेड़छाड़़ कर रहा है, जो पर्यावरण के विनाश का संकेत है।
सदियों से किए जा रहे अत्याचार का बदला पृथ्वी अब ग्लोबल वार्मिंग के जरिये ले रही है।  इससे निश्चित ही आने वाली पीढ़ी जहरीले वातावरण एवं नई-नई बीमारियों के साथ जीवन जीने को बाध्य होगी। यदि पृथ्वी के तापमान बढ़ने का यही हाल रहा तो आने वाले समय में धरती पर रहना भी दूभर हो जाएगा। इस बदलाव से धरती का प्राकृतिक क्रियाकलाप तेजी से प्रभावित होगा।
दुनिया के विकसित देशों में जब तक औद्योगिक विकास प्रक्रिया चरम पर थी, तब तक उन्होंने धरती के वातावरण और लगातार बढ़ रही गर्माहट पर चुप्पी साधे रखी। लेकिन जैसे ही विकास की बयार बहने लगी, उन्होंने पर्यावरण की खराब होती हालत पर शोर मचाना शुरू कर दिया। हानिकारक गैसों को नियंत्रित करने की ठोस कवायद विकसित देशों को ही करनी चाहिए।
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