#शिव की महिमा
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Maha Mrityunjaya Mantra in Vedas : भगवान शिव का महामंत्र- महामृत्युंजय मंत्र
Maha Mrityunjaya Mantra in Vedas शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार-विहार, खानपान, नियमित दिनचर्या आदि बहुत से उपाय बतलाए गए हैं, जिनका पालन करना बहुत आवश्यक है. इस सब नियमों का पालन करने के बाद भी यदि कर्मभोग के कारण शरीर का कोई बड़ा कष्ट ऐसा है, जो बहुत खर्चों के बाद भी कोई डॉक्टर ठीक नहीं कर पा रहा है, तो शरीर के ऐसे कष्ट को दूर करने के लिए कुछ आध्यात्मिक उपाय करने होते हैं, जिनमें से एक है-…
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( #MuktiBodh_Part115 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part116
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 227-228
वाणी नं. 134.141 :-
गरीब, कर्म लगे शिब बिष्णु कै, भरमें तीनौं देव।
ब्रह्मा जुग छतीस लग, कछू न पाया भेव।।134।।
गरीब, शिब कूं ऐसा बर दिया, अपनेही परि आय।
भागि फिरे तिहूं लोक में, भस्मागिर लिये ताय।।135।।
गरीब, बिष्णु रूप धरि छल किया, मारे भसमां भूत।
रूप मोहिनी धरि लिया, बेगि सिंहारे दूत।।136।।
गरीब, शिब कूं बिंदु जराईयां, कंदर्प कीया नांस।
फेरि बौहरि प्रकाशियां, ऐसी मनकी बांस।।137।।
गरीब, लाख लाख जुग तप किया, शिब कंदर्प कै हेत।
काया माया छाडिकरि, ध्यान कंवल शिब श्वेत।।138।।
गरीब, फूक्या बिंदु बिधान सैं, बौहर न ऊगै बीज।
कला बिश्वंभर नाथ की, कहां छिपाऊं रीझ।।139।।
गरीब, पारबती पत्नी पलक परि, त्रिलोकी का रूप।
ऐसी पत्नी छाडिकरि, कहां चले शिब भूप।।140।।
गरीब, रूप मोहनी मोहिया, शिब से सुमरथ देव।
नारद मुनि से को गिनै, मरकट रूप धरेव।।141।।
◆ वाणी नं. 134-136 का सरलार्थ :- सुक्ष्म मन की मार सर्व जीवों पर गिरती है। सब एक समान सुक्ष्म मन के सामने विवश हैं। जब तक पूर्ण सतगुरू नहीं मिलता, तब तक सुक्ष्म मन के सामने विवेक कार्य नहीं करता। हिन्दु धर्म के श्रद्धालु श्री शिव जी को तो सक्षम मानते हैं। सब देवों का देव यानि महादेव कहते हैं। सुक्ष्म मन के कारण वे भी मार खा गए।
◆ प्रमाण :- जिस समय भस्मासुर ने तप करके भस्मकण्डा श्री शिव जी से वचनबद्ध करके ले लिया था। तब भस्मासुर ने शिव से कहा कि मैं तेरे को भस्म करूँगा। तेरे को मारकर तेरी पत्नी पार्वती को अपनी पत्नी बनाऊँगा। तब भय के कारण श्री शिव जी भाग लिए। भस्मासुर में भी सिद्धियां थी। वह भी साथ दौड़ा। शिवजी भय के कारण अधिक गति
से दौड़ा तथा एक मोड़ पर मुड़ गया। उसी मोड़ पर एक सुंदर स्त्री खड़ी थी। उसने भस्मासुर की ओर अश्लील दृष्टि से देखा और बोली कि शिव तो आसपास रूकेगा नहीं, जाने दे। आजा मेरे साथ मौज-मस्ती कर ले। मैं तेरा ही इंतजार कर रही हूँ। तुम पूर्ण मर्द हो, शक्तिशाली हो। भस्मासुर पर काम वासना का भूत सवार था ही, उसे और क्या चाहिए था? उसी समय रूक गया। युवती ने उसका हाथ पकड़कर नचाया। गंडहथ नृत्य करते समय हाथ सिर पर करना होता है। भस्मासुर का भस्मकण्डे वाला हाथ भस्मासुर के सिर पर करने को युवती ने कहा कि इस नृत्य में दांया हाथ सिर पर करते हैं। यह नृत्य पूरा करके मिलन करेंगे। ज्यों ही भस्मासुर ने भस्मकण्डे वाला हाथ सिर पर किया तो युवती ने बोला भस्म। उसी समय भस्मासुर जलकर नष्ट हो गया। वह युवती भगवान स्वयं ही शिव शंकर की जान की रक्षा के लिए बने थे।, परंतु महिमा विष्णु को दी। विष्णु रूप में प्रकट होकर परमात्मा उस भस्मकण्डे को लेकर श्री शिव के सामने खडे़ हो गए तथा शिव से कहा हे शिव!
इतने तेज क्यों दौड़ रहे हो? शिव ने सब बात बताई कि आप भी दौड़ जाओ। भस्मासुर मुझे मारने को मेरे पीछे लगा है। तब विष्णु रूपधारी परमात्मा ने कहा कि देख! आपका
भस्मकण्डा मेरे पास है। शिव ने तुरंत पहचान लिया और रूककर पूछा कि यह आपको कैसे मिला? विश्वास नहीं हो रहा है। भगवान ने कहा यह न पूछ। अपना कण्डा लो और घर को जाओ। परंतु शिव को विश्वास नहीं हो रहा था कि उग्र रूप धारण किए भस्मासुर से कैसे ये भस्मकण्डा लिया। जिद कर ली। तब परमात्मा ने कहा कि फिर बताऊँगा। इतना कहकर अंतर्ध्यान (अदृश्य) हो गए। शिव कुछ आगे गया तो देखा कि एक अति सुंदर युवती
अर्धनग्न शरीर में मस्ती से एक बाग में टहल रही थी। दूर तक कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। शिवजी ने इधर-उधर देखा और लड़की की ओर मिलन के उद्देश्य से चले। लड़की शिव को देखकर मुस्कुराकर आगे को कुछ तेज चाल से चटक-मटककर चल पड़ी।
शिव ने मुस्कट के बाद लड़की का हाथ पकड़ा। तब तक शिव का वीर्यप��न हो चुका था। उसी समय विष्णु रूप में परमात्मा खड़े थे और कहा कि मैंने भस्मासुर को इस प्रकार वश में करके गंडहथ नाच नचाकर भस्म किया है।
संत गरीबदास जी ने सुक्ष्म मन की शक्ति बताई है कि शिवजी की पत्नी पार्वती तीन लोक में अति सुंदर स्त्रियों में से एक थी। अपनी पत्नी को छोड़कर शिवजी ने चंचल माया
यानि बद नारी से मिलन (sex) करने के लिए उसे पकड़ लिया। यह सुक्ष्म मन की उत्पत्ति का उत्पात है।
◆ वाणी नं. 137-141 का सरलार्थ :-
◆ इन्हीं काल प्रेरित आत्माओं (देवियों) ने ब्रह्मादिक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी मोहित कर लिया यानि अपने जाल में फँसा रखा है। शेष यानि अन्य बचे हुए गणेश जी भी स्त्री से संग में रहे। गणेश जी के दो पुत्र थे। एक का नाम शुभम्=शुभ, दूसरे लाभम्=लाभ था। शंकर (शिव जी) की अडिग
(विचलित न होने वाली) समाधि
(आंतरिक ध्यान) लगी थी जो हमेशा (सदा) ध्यान में रहते हैं। उनको भी मोहिनी अप्सरा (स्वर्ग की देवी) ने मोहित करके डगमग कर दिया था।
क्रमशः_________
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#सत_भक्ति_संदेश
काल ने मानव को जाल में फंसाए रखने के लिए अनेकों प्रचारक लगा रखे हैं
काल ने मानव को जो केवल राम-कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी तथा इनके अंतर्गत अन्य देवी-देव���ाओं-भैरो, ��ूत-पित्तरों, माई-मसानी, सेढ-शीतला आदि-आदि की महिमा का ज्ञान बताते रहते हैं।
कबीर परमेश्वर जी का नामो-निशान मिटा रखा है। अपने पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) तथा अपनी महिमा का ज्ञान सब स्थानों पर फैला रखा है। - संत रामपाल जी महाराज।
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Bhaktamar Stotra Hindi
श्री प. हेमराज जी
आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार। धरम-धुर���धर परमगुरु, नमों आदि अवतार॥
सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करैं, अंतर पाप-तिमिर सब हरैं। जिनपद बंदों मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय॥1॥
श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव। शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल॥2॥
विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति-मनसा कीन। जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहै, शशि-मंडल बालक ही चहै॥3॥
गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावै पार। प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु, जलधि तिरै को भुज बलवन्तु॥4॥
सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ। ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेतु, मृगपति सन्मुख जाय अचेत॥5॥
मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम। ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करै आराव॥6॥
तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत नील निशा-तम-जाल॥7॥
तव प्रभावतैं कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार। ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै॥8॥
तुम गुन-महिमा हत-दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष। पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकाशी ज्यों रवि-धाम॥9॥
नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत, तुमसे तुम गुण वरणत संत। जो अधीन को आप समान, करै न सो निंदित धनवान॥10॥
इकटक जन तुमको अविलोय, अवर-विषैं रति करै न सोय। को करि क्षीर-जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान॥11॥
प्रभु तुम वीतराग गुण-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन। हैं तितने ही ते परमाणु, यातैं तुम सम रूप न आनु॥12॥
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चंद्र-मंडल-सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक॥13॥
पूरन चंद्र-ज्योति छबिवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत। एक नाथ त्रिभुवन ��धार, तिन विचरत को करै निवार॥14॥
जो सुर-तिय विभ्रम आरंभ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ। अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर॥15॥
धूमरहित बाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन-घर एह। बात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखंड॥16॥
छिपहु न लुपहु राहु की छांहि, जग परकाशक हो छिनमांहि। घन अनवर्त दाह विनिवार, रवितैं अधिक धरो गुणसार॥17॥
सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघ राहु अविरोह। तुम मुख-कमल अपूरव चंद, जगत-विकाशी जोति अमंद॥18॥
निश-दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुख-चंद हरै तम-धाम। जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तैं कौनहु काज॥19॥
जो सुबोध सोहै तुम माहिं, हरि हर आदिक में सो नाहिं। जो द्युति महा-रतन में होय, काच-खंड पावै नहिं सोय॥20॥
(हिन्दी में) नाराच छन्द : सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया। स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया॥ कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया। मनोग चित-चोर और भूल हू न पेखिया॥21॥
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं॥ दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै। दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै॥22॥
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो। कहें मुनीश अंधकार-नाश को सुभान हो॥ महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके। न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके॥23॥
अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो। असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो॥ महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो। अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥24॥
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं। तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतैं॥ तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं॥25॥
नमो करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमो करूँ सुभूरि-भूमि लोकके सिंगार हो॥ नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो। नमो करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो॥26॥
चौपाई तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे। और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय॥27॥
तरु अशोक-तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार। मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत॥28॥
सिंहासन मणि-किरण-विचित्र, तापर कंचन-वरन पवित्र। तुम तन शोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार॥29॥
कुंद-पुहुप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत। ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ॥30॥
ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप। तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसों छवि लहैं॥31॥
दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर। त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानूँ जय जय रव उच्चरै॥32॥
मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप-सुवृष्ट। देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विज-पंकति अवतार॥33॥
तुम तन-भामंडल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द। कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करे अछाय॥34॥
स्वर्ग-मोख-मारग-संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत। दिव्य वचन तुम खिरें अगाध, सब भाषा-गर्भित हित साध॥35॥
दोहा : विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं। तुम पद पदवी जहं धरो, तहं सुर कमल रचाहिं॥36॥
ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय॥37॥
(हिन्दी में) षट्पद : मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झंकारें। तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं॥ काल-वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै। ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै॥ देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन। विपति-रहित संपति-सहित वरतैं भक्त अदीन॥38॥
अति मद-मत्त-गयंद कुंभ-थल नखन विदारै। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै॥ बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै। भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै॥ ऐसे मृग-पति पग-तलैं जो नर आयो होय। शरण गये ���ुम चरण की बाधा करै न सोय॥39॥
प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर। बमैं फुलिंग शिखा उतंग परजलैं निरंतर॥ जगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी म��नों। तडतडाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानों॥ सो इक छिन में उपशमैं नाम-नीर तुम लेत। होय सरोवर परिन मैं विकसित कमल समेत॥40॥
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलन्ता। रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता॥ फण को ऊँचा करे वेग ही सन्मुख धाया। तब जन होय निशंक देख फणपतिको आया॥ जो चांपै निज पगतलैं व्यापै विष न लगार। नाग-दमनि तुम नामकी है जिनके आधार॥41॥
जिस रन-माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम। घन से गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम॥ अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै। राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै॥ नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमांहि पलाय। ज्यों दिनकर परकाशतैं अन्धकार विनशाय॥42॥
मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै। उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै॥ होयतिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे। तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे॥ दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावैं निकलंक। तुम पद पंकज मन बसैं ते नर सदा निशंक॥43॥
नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै। जामैं बड़वा अग्नि दाहतैं नीर जलावै॥ पार न पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहर की गिनति न ताकी॥ सुखसों तिरैं समुद्र को, जे तुम गुन सुमराहिं। लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं॥44॥
महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं। वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं॥ सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा। अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गंध निवासा॥ तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग। ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग॥45॥
पांव कंठतें जकर बांध, सांकल अति भारी। गाढी बेडी पैर मांहि, जिन जांघ बिदारी॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने। सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं। छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं॥46॥
महामत गजराज और मृगराज दवानल। फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥ बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै। तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥ इस अपार संसार में शर�� नाहिं प्रभु कोय। यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥47॥
यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी। विविधवर्णमय पुहुपगूंथ मैं भक्ति विथारी॥ जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावैं। मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥ भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत। जे नर पढ़ैं, सुभावसों, ते पावैं शिवखेत॥48॥
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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराणबदरिकाश्रम-महात्म्गरुड़शिला, वाराहीशिला और नारसिंहीशिला की उत्पत्ति और महिमा…(भाग 3)
संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराणबदरिकाश्रम-महात्म्गरुड़शिला, वाराहीशिला और नारसिंहीशिला की उत्पत्ति और महिमा…(भाग 3)स्कन्द ने कहा- भगवन् ! अब वाराहीशिला का माहात्म्य बतलाइये। भगवान् शिव बोले- रसातल से पृथ्वी का उद्धार करके और युद्ध में हिरण्याक्ष नामक दैत्य को मारकर भगवान् वाराह बदरीक्षेत्र में आये तथा प्रलयकाल की समाप्ति तक वहीं बने रहे। वाराहजी ने शिला के रूप में ही वहाँ निवास किया। स्कन्द ने…
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संगीतमय श्री शिव महापुराण कथा 22 से
नर्मदापुरम। बंजारी माई रविशंकर नगर आदमगढ़ में 22 दिसंबर से संगीतमय श्री शिव महापुराण कथा का आयोजन किया जा रहा है। इस कथा में वृंदावन धाम से पधार रहे पं. राजेश शास्री द्वारा अपने मुखारबिंद से भगवान भोलेनाथ की महिमा बखान करेंगे। आयोजकों के अनुसार कथा 22 दिसंबर से शुरू होगी। कथा के साथ ही प्रतिदिन रूद्राभिषेक भी किया जाएगा। रविवार 29 दिसंबर को पूर्णाहूति के साथ कथा समापन होगा।
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लेजर लाइट शो से दिखा प्राचीन मेढक मंदिर की महिमा का अद्भुत नजारा
लखीमपुर खीरी, 29 नवंबर (हि.स.)। जिले में पहली बार आयोजित लखीमपुर महोत्सव में इस बार लेजर शो में मेंढक मंदिर के महत्व के साथ शिव के बारे में उपस्थित जनसमूह को जानकारी दी गई। यह मेढक हजारों साल पुराना है। इस प्राचीन मंदिर के बारे में लोगों को जानकारी देने के साथ ही इस महोत्सव के माध्यम से यहां पर पर्यटन को बढ़ावा देने की कोशिश भी की गई है। लाइट एंड लेजर शो के शुरू होने के बाद रंग बिरंगी रोशनी की…
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255 राम जी की विनय
255 राम जी की विनयराम जी विनय करते हैं। पूछते हैं कि आप चाहते क्या हैं? केवट चरण धूलि धोना चाहता है, कहता है, यह वही चरणामृत है, जिसे ब्रह्मा जी ने कमण्डल में रखा, शिव जी ने जटाओं में रख लिया, बलि ने घर में छिड़का, जनक जी ने भी रखा पर पीया नहीं, पर मैं पीऊँगा। क्यों?अमृत रखने की वस्तु है, या पीने की? मैं तो चखकर देखूँगा, कि जिसकी इतनी महिमा है, उसका स्वाद कैसा है?राम जी ने कहा, अच्छा वही करो जो…
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क्या है महामृत्युञ्जय मंत्र की महिमा और इसके जप का महत्व ?
महामृत्युञ्जय मंत्रजप की महिमा अत्यंत दिव्य और शक्तिशाली है। इसे "मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाला" माना जाता है और यह भगवान शिव को समर्पित है। इस मंत्र का जप करने से शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्ति मिलती है, साथ ही दीर्घायु, आरोग्य और शांति का आशीर्वाद प्राप्त होता है। वैकुण्ठ के अनुभवी पंडितों द्वारा सही विधि ��े इस मंत्र का जप कराकर भगवान शिव की कृपा और जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
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Shiva Tandava Stotram With Hindi and English Meanings
This hymn celebrates Shiva’s fierce yet benevolent nature, highlighting his supreme power, beauty, and role as the destroyer and creator. Reciting or meditating upon the Tandava Stotram invokes Lord Shiva’s blessings and fills the devotee with energy, devotion, and peace. Om Namah Shivaya! शिव तांडव स्तोत्र भगवान शिव की महिमा, उनके स्वरूप, शक्ति, और सौंदर्य का वर्णन करता है। यह स्तोत्र भक्ति,…
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http://www.jagatgururampalji.org
. 📖 *ज्ञान गंगा* 📖
.
*आदरणीय गरीबदास*
*साहेबजींच्या अमृतवाणीमध्ये*
*सृष्टि रचनेचे प्रमाणा*
वरिल अमृतवाणीचा भावार्थ आहे कि आदरणीय गरीब दास साहेब जी म्हणत आहेत की सर्व प्रथम येथे केवळ अंधकार होता तसेच पूर्ण परमात्मा कबीर साहेबजी सत्यलोकामध्ये तख्तावर (सिंहासन) विराजमान होते. आम्ही तेथिल सेवक होतो. परमात्म्याने ज्योति निरंजनास उत्पन्न केले. नंतर त्याच्या तपाचे प्रतिफळ म्हणून 21 ब्रह्मांडे त्याला प्रदान केली. त्यानंतर मायेची (प्रकृति) उत्पत्ती केली. तरुण दुर्गाच्या रूपावर मोहित होऊन ज्योति निरंजनने (ब्रह्म) दुर्गाशी (प्रकृति) बलात्कार करण्याची चेष्ठा केली. ब्रह्माला त्याची शिक्षा मिळाली. त्यास सत्यलोकातून काढुन टाकले तसेच शाप लागला कि एक लाख मानव शरीरधारी प्राण्यांचा प्रतिदिन आहार करेल, सव्वा लाख उत्पन्न करेल. येथील सर्व प्राणी जन्म-मृत्यूचे कष्ट सहन करत आहेत. जर कोणी पूर्ण परमात्म्याचे वास्तविक शब्द (खरा नाम जाप मंत्र) आमच्याकडून प्राप्त करेल, त्यास काल च्या बंधनातून सोडवले जाईल. आमचे बंदी छोड नाव आहे. आदरणीय गरीब दास साहेब जी आपले गुरू व प्रभु कबीर परमात्मा यांच्या आधारावर म्हणत आहेत की खरा मंत्र म्हणजेच सत्यनाम आणि सारशब्दाची प्राप्ती करा, पूर्ण मोक्ष मिळेल. नाही तर खोटा नामोपदेश देणार्या संत आणि महंतांच्या मधाळ बोलण्याला (वक्तव्याला) फसून शास्त्रविधिरहित साधना करून काल च्या जाळ्यामध्येच अडकून पडाल आणि कष्टावर कष्ट सहन करत बसाल.
॥ गरीबदासजी महाराजांची वाणी ॥
( *सत्ग्रंथ साहिब पान नं.690 वरून साभार)*
माया आदि निरंजन भाई, अपने जाऐ आपै खाई।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर चेला, ऊँ सोहं का है खेला॥
सिखर सुन्न में धर्म अन्यायी, जिन शक्ति डायन महल पठाई।
लाख ग्रास नित उठ दूती,माया आदि तख्त की कुती॥
सवा लाख घड़िये नित भांडे, हंसा उतपति परलय डांडे।
ये तीनों चेला बटपारी, सिरजे पुरुषा सिरजी नारी॥
खोखापुर में जीव भुलाये, स्वपना बहिस्त वैकुंठ बनाये।
यो हरहट का कुआ लोई, या गल बंध्या है सब कोई ॥
कीड़ी कुजंर और अवतारा, हरहट डोरी बंधे कई बारा॥
अरब अलील इन्द्र हैं भाई, हरहट डोरी बंधे सब आई ॥
शेष महेश गणेश्वर ताहिं, हरहट डोरी बंधे सब आहिं ।
शुक्रादिक ब्रह्मादिक देवा, हरहट डोरी बंधे सब खेवा॥
कोटिक कर्ता फिरता देख्या, हरहट डोरी कहूँ सुन लेखा।
*चतुर्भुजी भगवान कहावैं, हरहट डोरी बंधे सब आवैं॥*
*यो हैं खोखापुर का कुआ, या में पड़ा सो निश्चय मुवा।*
जशी नागीण आपली कुंडली बनविते आणि त्या कुंडलीमध्ये अंडी घालते (प्रसव करते). त्यानंतर ती त्या अंड्यांवर आपला फणा मारते. त्यामुळे अंडी फुटतात आणि त्यातून पिल्ली बाहेर पडतात. त्यांना नागीण भक्षण करते. अंडी भरपूर असल्यामुळे फणा मारताना कित्येक अंडी फुटतात. जी अंडी फुटतात, त्यातून नागिणीची पिल्ली बाहेर निघतात. जे पिल्लू कुंडलीच्या (नागिणीच्या शेपटीचा घेरा) बाहेर पडते ते वाचते, अन्यथा कुंडलीमधील पिलांना नागीण सोडत नाही. जेवढी पिल्ली कुंडलीत असतील, त्या सर्वांना ती खाते. अगदी असेच ज्योति निरंजनाला (काल) वश होऊन हे तीन देवता (रजोगुण-ब्रह्मा, सत्गुण-विष्णू, तमोगुण-शिव) आपली महिमा दाखवून जीवांना स्वर्ग-नरक म्हणजेच भवसागरामध्ये (84 लक्ष योनींमध्ये) भटकवत ठेवतात. ज्योति निरंजन आपल्या मायेद्वारे (प्रकृति) नागिणीसारखी जीवांची उत्पत्ती करतो आणि नंतर मारून टाकतो.
*माया काली नागिनी, आपने जाये खात।*
*कुण्डली में छोड़ै नहीं, सौ बातों की बात॥*
अशाप्रकारे हे काल बळीचे (ब्रह्म) महाभयंकर जाळे आहे. ज्योति निरंजन पर्यंतची भक्ती पूर्ण संतांकडून नामोपदेश घेऊन केली, तरीही ज्योति निरंजनाच्या कुंडलीतून (21 ब्रह्मांडे) बाहेर जाता येत नाही. स्वतः ब्रह्मा, विष्णू, महेश, आदिमाया शेरावाली (दुर्गा) हेसुद्धा निरंजनाच्या कुंडलीतच आहेत. ते बिचारे अवतार धारण करून येतात आणि जन्म-मृत्यूचे फेरे घेत राहतात. म्हणूनच धु्रव, प्रल्हाद व शुकदेव ऋषींनी *‘सोहं’* मंत्राचा जप करूनही ते मुक्त होऊ शकले नाहीत. ते काल लोकीच राहिले. ‘ *ॐ नम: भगवते* *वासुदेवाय’* या मंत्राचा जप करणारे भक्तसुद्धा कृष्णापर्यंत पोहोचण्याची भक्ती करत आहेत. तेसुद्धा 84 लक्ष योनींच्या फेर्यामधून सुटू शकणार नाहीत, याचा विचार करा. हे सर्व परमपूज्य कबीर साहेब जी व आदरणीय गरीब दास साहेब जी महाराज यांच्या वाणीमध्ये प्रत्यक्ष प्रमाणित आहे.
*अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविन्द।*
*कर्ता हो हो अवतरे, बहुर पड़ेे जग फंध॥*
सत्पुरुष कबीर साहेबजींच्या भक्तिनेच जीव मुक्त होऊ शकतो. जोपर्यंत जीव सत्लोकी परत जाणार नाही, तोपर्यंत काल लोकी असेच कर्म करत राहील आणि नामस्मरण व दानधर्माच्या पूण्याची कमाई स्वर्गरूपी हॉटेलमध्ये उधळून पुन्हा कर्माधारावर 84 लक्ष प्राण्यांच्या शरीरामध्ये जन्म-मृत्यू रूपी कष्ट सहन कराव्या लागणार्या काल लोकी फेर्या मारत बसेल. भगवान विष्णूजींना देवर्षी नारदांनी शाप दिला होता. त्यामुळे भगवान विष्णूंना श्री रामचंद्र रूपामध्ये अयोध्येत अवतार घ्यावा लागला. या अवतारात त्यांनी वालीचा वध केला. या कर्माचा दंड भोगण्यासाठी त्यांचा परत श्री कृष्णजींच्या रूपात जन्म झाला. या अवतारावेळी वालीचा आत्मा शिकारी बनला आणि आपला पूर्वजन्मीचा प्रतिशोध त्याने श्री कृष्णजींच्या पायामध्ये विषयुक्त बाण मारून वध करून घेतला, त्याप्रमाणे मायेपासून (दुर्गा) उत्पत्ती होऊन करोडो गोविंदांना (ब्रह्मा, विष्णू, शिव) मृत्यूला सामोरे जावे लागले आहे. भगवानांच्या अवतार रूपात त्यांनी ��ेथे जन्म घेतला. नंतर ते कर्म बंधनामध्ये अडकले आणि 84 लक्ष योनींमध्ये कर्माचे भोग भोगू लागले. महाराज गरीब दासजी आपल्या वाणीमध्ये म्हणत आहेत, की
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बेलपत्र शुभ क्यूँ माना जाता है ?
गवान शिव को बिल्वपत्र चढ़ान��� का जितना महत्व है, उतना ही महत्व बिल्वपत्र के वृक्ष का भी माना ��या है.! बिल्वपत्र के वृक्ष की महिमा के बारे में अगर आप नहीं जानते, तो जरूर पढ़िए बिल्वपत्र के वृक्ष की यह महत्वपूर्ण बातें
बेलपत्र शुभ क्यूँ माना जाता है ?एक बार माता पार्वती के पसीने की बूंद मंदराचल पर्वत पर गिर गई और उससे बेल का पेड़ निकल आया, माता पार्वती के पसीने से बेल के पेड़ का उद्भव हुआ। इसमें माता पार्वती के सभी रूप बसते हैं। वे पेड़ की जड़ में गिरिजा के स्वरूप में, इसके तनों में माहेश्वरी के स्वरूप में और शाखाओं में दक्षिणायनी व पत्तियों में पार्वती के रूप में रहती हैं। फलों में कात्यायनी स्वरूप व फूलों…
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जलमयी ज्ञानवापी शिवलिंग की महिमा - Gyanvapi Shivling
स्कन्द जी कहते हैं – मुने! कलावती ने पुनः उस चित्रपट में स्वर्गद्वार के आगे श्रीमणिकर्णिका तीर्थ को देखा जहाँ संसार रूपी सर्प से डसे हुए जीवों के दाहिने कान में भगवान् शिव अपने दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुए तारक ब्रह्म का उपदेश देते हैं। बार-बार चित्रपट को निहारती हुई उसने भगवान् विश्वनाथ के दक्षिण भाग में ज्ञानवापी को देखा। पुराण में महादेब जी को जिन आठ मूर्तियों से युक्त बताया जाता है, उनमें…
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#GodNightSaturday
काल ने मानव को जाल में फंसाए रखने के लिए अनेकों प्रचारक लगा रखे हैं
काल ने मानव को जो केवल राम-कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी तथा इनके अंतर्गत अन्य देवी-देवताओं-भैरो, भूत-पित्तरों, माई-मसानी, सेढ-शीतला आदि-आदि की महिमा का ज्ञान बताते रहते हैं।
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart111 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart112
विष्णु का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान व माता का आशीर्वाद पाना
इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले।
तब विष्णु अपने पिता जी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए, जहाँ शेषनाग था। उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख कर क्रोधित हो कर जहर भरा फुंकारा मारा। उसके विष के प्रभाव से विष्णु जी का रंग सांवला हो गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए। तब ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए। तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य-सत्य सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध द्वा��र युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और कालीदह में कालिन्द्री नामक नाग, शेष नाग का अवतार होगा।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी काँहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए तथा सत्य-सत्य कह दिया कि मुझे पिता के दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू सत्यवादी है। अब मैं अपनी शक्ति से आपको तेरे पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन का संशय खत्म करती हूँ।
कबीर देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो।
स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै अनेरा।
निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए।
देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।।
इस प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि मन ही जग का कर्ता है, यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं वही उसका रूप है। जो शंख, घण्टा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है। तब माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने कहा कि हे पुत्र तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी। तेरी पूजा सर्व जग में होगी। आपने मुझे सच-सच बताया है। काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है। जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा जग में होगी। मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए। दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयों को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है। परमात्मा निराकार है। इसके बाद आदि भवानी रूद्र(महेश जी) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है अब आप माँगो जो माँगना है। तब महेश ने कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है। कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युंजय) हो जाऊँ। तब माता ने कहा कि यह मैं नहीं कर सकती। हाँ युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे
लम्बी बनी रहेगी। विधि योग समाधि है (इसलिए महादेव जी ज्यादातर समाधि में ही रहते हैं)। ��स प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने तीनों पुत्रों को विभाग बांट दिए: --
भगवान ब्रह्मा जी को काल लोक में लख चैरासी के चोले (शरीर) रचने (बनाने) का अर्थात् रजोगुण प्रभावित करके संतान उत्पत्ति के लिए विवश करके जीव उत्पत्ति कराने का विभाग प्रदान किया।
भगवान विष्णु जी को इन जीवों के पालन पोषण (कर्मानुसार) करने, तथा मोह-ममता उत्पन्न करके स्थिति बनाए रखने का विभाग दिया।
भगवान शिव शंकर (महादेव) को संहार करने का विभाग प्रदान किया।
क्योंकि इनके पिता निरंजन को एक लाख मानव शरीर धारी जीव प्रतिदिन खाने पड़ते हैं।
यहां पर मन में एक प्रश्न उत्पन्न होगा कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर जी से उत्पत्ति, स्थिति और संहार कैसे होता है। ये तोनों अपने-2 लोक में रहते हैं। जैसे आजकल संचार प्रणाली को चलाने के लिए उपग्रहों को ऊपर आसमान में छोड़ा जाता है और वे नीचे पृथ्वी पर संचार प्रणाली को चलाते हैं। ठीक इसी प्रकार ये तीनों देव जहां भी रहते हैं इनके शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म गुण की तरंगें तीनों लोकों में अपने आप हर प्राणी पर प्रभाव बनाए रहती है।
उपरोक्त विवरण एक ब्रह्मण्ड में ब्रह्म (काल) की रचना का है। ऐसे-ऐसे क्षर पुरुष (काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड हैं।
परन्तु क्षर पुरूष (काल) स्वयं व्यक्त अर्थात् वास्तविक शरीर रूप में सबके सामने नहीं आता। उसी को प्राप्त करने के लिए तीनों देवों (ब्रह्मा जी, विष्णु जी,शिव जी) को वेदों में वर्णित विधि अनुसार भरसक साधना करने पर भी ब्रह्म (काल) के दर्शन नहीं हुए। बाद में ऋषियों ने वेदों को पढ़ा। उसमें लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि‘ (पवित्र यजुर्वेद अ. 1 मंत्र 15) परमेश्वर सशरीर है तथा पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 1 में लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूर् असि‘। इस मंत्र में दो बार वेद गवाही दे रहा है कि सर्वव्यापक, सर्वपालन कर्ता सतपुरुष सशरीर है। पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कहा है कि (कविर् मनिषी) जिस परमेश्वर की सर्व प्राणियों को चाह है, वह कविर् अर्थात् कबीर है। उसका शरीर बिना नाड़ी (अस्नाविरम्) का है, (शुक्रम्) वीर्य से बनी पाँच तत्व से बनी भौतिक (अकायम्) काया रहित है। वह सर्व का मालिक सर्वोपरि सत्यलोक में विराजमान है, उस परमेश्वर का तेजपुंज का (स्वज्र्योति) स्वयं प्रकाशित शरीर है जो शब्द रूप अर्थात् अविनाशी है। वही कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है जो सर्व ब्रह्मण्डों की रचना करने वाला (व्यदधाता) सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार (स्वयम्भूः) स्वयं प्रकट होने वाला (यथा तथ्य अर्थान्) वास्तव में (शाश्वत्) अविनाशी है (गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी प्रमाण है।) भावार्थ है कि पूर्ण ब्रह्म का शरीर का नाम कबीर (कविर देव) है��� उस परमेश्वर का शरीर नूर तत्व से बना है। परमात्मा का शरीर अति सूक्ष्म है जो उस साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। इस प्रकार जीव का भी सुक्ष्म शरीर है जिसके ऊपर पाँच तत्व का खोल (कवर) अर्थात् पाँच तत्व की काया चढ़ी होती है जो माता-पिता के संयोग से (शुक्रम) वीर्य से बनी है। शरीर त्यागने के पश्चात् भी जीव का सुक्ष्म शरीर साथ रहता है। वह शरीर उसी साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। इस प्रकार परमात्मा व जीव की स्थिति को समझें। वेदों में ओ3म् नाम के स्मरण का प्रमाण है जो केवल ब्रह्म साधना है। इस उद्देश्य से ओ3म् नाम के जाप को पूर्ण ब्रह्म का मान कर ऋषियों ने भी हजारों वर्ष हठयोग (समाधि लगा कर) करके प्रभु प्राप्ति की चेष्टा की, परन्तु प्रभु दर्शन नहीं हुए, सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। उन्हीं सिद्धी रूपी खिलौनों से खेल कर ऋषि भी जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रह गए तथा अपने अनुभव के शास्त्रों में परमात्मा को निराकार लिख दिया। ब्रह्म (काल) ने कसम खाई है कि मैं अपने वास्तविक रूप में किसी को दर्शन नहीं दूँगा। मुझे अव्यक्त जाना करेंगे (अव्यक्त का भावार्थ है कि कोई आकार में है परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्थूल रूप में दर्शन नहीं देता। जैसे आकाश में बादल छा जाने पर दिन के समय सूर्य अदृश हो जाता है। वह दृश्यमान नहीं है, परन्तु वास्तव में बादलों के पार ज्यों का त्यों है, इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं।)। (प्रमाण के लिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25, अध्याय 11 श्लोक 48 तथा 32)
पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कह रहा है कि अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सर्व को खाने के लिए आया हूँ। (गीता अध्याय 11 का श्लोक नं. 32) यह मेरा वास्तविक रूप है, इसको तेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका तथा न कोई आगे देख सकता है अर्थात् वेदों में वर्णित यज्ञ-जप-तप तथा ओ3म् नाम आदि की विधि से मेरे इस वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते। (गीता अध्याय 11 श्लोक नं 48) मैं कृष्ण नहीं हूँ, ये मूर्ख लोग कृष्ण रूप में मुझ अव्यक्त को व्यक्त (मनुष्य रूप) मान रहे हैं। क्योंकि ये मेरे घटिया नियम से अपरिचित हैं कि मैं कभी वास्तविक इस काल रूप में सबके सामने नहीं आता। अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ (गीता अध्याय 7 श्लोक नं. 24.25) विचार करें:- अपने छुपे रहने वाले विधान को स्वयं अश्रेष्ठ (अनुत्तम) क्यों कह रहे हैं?
यदि पिता अपनी सन्तान को भी दर्शन नहीं देता तो उसमें कोई त्रुटि है जिस कारण से छुपा है तथा सुविधाएं भी प्रदान कर रहा है। काल (ब्रह्म) को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करना पड़ता है तथा 25 प्रतिशत प्रतिदिन जो ज्यादा उत्पन्न होते हैं उन्हें ठिकाने लगाने के लिए तथा कर्म भोग क��� दण्ड देने के लिए चैरासी लाख योनियों की रचना की हुई है। यदि सबके सामने बैठ कर किसी की पुत्री, किसी की पत्नी, किसी के पुत्र, माता-पिता को खाए तो सर्व को ब्रह्म से घृणा हो जाए तथा जब भी कभी पूर्ण परमात्मा कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) स्वयं आए या अपना कोई संदेशवाहक (दूत) भेंजे तो सर्व प्राणी सत्यभक्ति करके काल के जाल से निकल जाएं। इसलिए धोखा देकर रखता है तथा पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18,24,25 में अपनी साधना से होने वाली मुक्ति (गति) को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है तथा अपने विधान (नियम)को भी (अनुत्तम) अश्रेष्ठ कहा है।
प्रत्येक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बनाया है। महास्वर्ग में एक स्थान पर नकली सतलोक - नकली अलख लोक - नकली अगम लोक तथा नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखा देने के लिए प्रकृति (दुर्गा/आदि माया) द्वारा करवा रखी है। कबीर साहेब का एक शब्द है ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘ में वाणी है कि ‘काया भेद किया निरवारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा है। माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है। आदि माया किन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिण्ड दिखाई, अविगत रचना रचि अण्ड माहि वाका प्रतिबिम्ब डारा है।‘
एक ब्रह्मण्ड में अन्य लोकों की भी रचना है, जैसे श्री ब्रह्मा जी का लोक, श्री विष्णु जी का लोक, श्री शिव जी का लोक। जहाँ पर बैठकर तीनों प्रभु नीचे के तीन लोकों (स्वर्गलोक अर्थात् इन्द्र का लोक - पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) पर एक – एक विभाग के मालिक बन कर प्रभुता करते हैं तथा अपने पिता काल के खाने के लिए प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्यभार संभालते हैं। तीनों प्रभुओं की भी जन्म व मृत्यु होती है। तब काल इन्हें भी खाता है। इसी ब्रह्मण्ड {इसे अण्ड भी कहते हैं क्योंकि ब्रह्मण्ड की बनावट अण्डाकार है, इसे पिण्ड भी कहते हैं क्योंकि शरीर (पिण्ड) में एक ब्रह्मण्ड की रचना कमलों में टी.वी. की तरह देखी जाती है} में एक मानसरोवर तथा धर्मराय (न्यायधीश) का भी लोक है तथा एक गुप्त स्थान पर पूर्ण परमात्मा अन्य रूप धारण करके रहता है जैसे प्रत्येक देश का राजदूत भवन होता है। वहाँ पर कोई नहीं जा सकता। वहाँ पर वे आत्माऐं रहती हैं जिनकी सत्यलोक की भक्ति अधूरी रहती है। जब भक्ति युग आता है तो उस समय परमेश्वर कबीर जी अपना प्रतिनिधी पूर्ण संत सतगुरु भेजते हैं। इन पुण्यात्माओं को पृथ्वी पर उस समय मानव शरीर प्राप्त होता है तथा ये शीघ्र ही सत भक्ति पर लग जाते हैं तथा सतगुरु से दीक्षा प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं। उस स्थान पर रहने वाले हंस आत्माओं की निजी भक्ति कमाई खर्च नहीं होती। परमात्मा के भण्डार से सर्व सुविधा��ं उपलब्ध होती हैं। ब्रह्म (काल) के उपासकों की भक्ति कमाई स्वर्ग-महा स्वर्ग में समाप्त हो जाती है क्योंकि इस काल लोक (ब्रह्म लोक) तथा परब्रह्म लोक में प्राणियों को अपना किया कर्मफल ही मिलता है।
क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने अपने 20 ब्रह्मण्डों को चार महाब्रह्मण्डों में विभाजित किया है। एक महाब्रह्मण्ड में पाँच ब्रह्मण्डों का समूह बनाया है तथा चारों ओर से अण्डाकार गोलाई (परिधि) में रोका है तथा चारों महा ब्रह्मण्डों को भी फिर अण्डाकार गोलाई (परिधि) में रोका है। इक्कीसवें ब्रह्मण्ड की रचना एक महाब्रह्मण्ड जितना स्थान लेकर की है। इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में प्रवेश होते ही तीन रास्ते बनाए हैं। इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में भी बांई तरफ नकली सतलोक, नकली अलख लोक, नकली अगम लोक, नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखे में रखने के लिए आदि माया (दुर्गा) से करवाई है तथा दांई तरफ बारह सर्व श्रेष्ठ ब्रह्म साधकों
(भक्तों) को रखता है। फिर प्रत्येक युग में उन्हें अपने संदेश वाहक (सन्त सतगुरू) बनाकर पृथ्वी पर भेजता है, जो शास्त्र विधि रहित साधना व ज्ञान बताते हैं तथा स्वयं भी भक्तिहीन हो जाते हैं तथा अनुयाइयों को भी काल जाल में फंसा जाते हैं। फिर वे गुरु जी तथा अनुयाई दोनों ही नरक में जाते हैं। फिर सामने एक ताला (कुलुफ) लगा रखा है। वह रास्ता काल (ब्रह्म) के निज लोक में जाता है। जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) अपने वास्तविक मानव सदृश काल रूप में रहता है। इसी स्थान पर एक पत्थर की टुकड़ी तवे के आकार की (चपाती पकाने की लोहे की गोल प्लेट सी होती है) स्वतः गर्म रहती है। जिस पर एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को भूनकर उनमें से गंदगी निकाल कर खाता है। उस समय सर्व प्राणी बहुत पीड़ा अनुभव करते हैं तथा हाहाकार मच जाती है। फिर कुछ समय उपरान्त वे बेहोश हो जाते हैं। जीव मरता नहीं। फिर धर्मराय के लोक में जाकर कर्माधार से अन्य जन्म प्राप्त करते हैं तथा जन्म-मृत्यु का चक्कर बना रहता है। उपरोक्त सामने ���गा ताला ब्रह्म (काल) केवल अपने आहार वाले प्राणियों के लिए कुछ क्षण के लिए खोलता है। पूर्ण परमात्मा के सत्यनाम व सारनाम से यह ताला स्वयं खुल जाता है। ऐसे काल का जाल पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर साहेब) ने स्वयं ही अपने निजी भक्त धर्मदास जी को समझाया।
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