#ईश्वर संकेत देता है
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53. इंद्रिय विषयों की लालसा को छोडऩा
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले व्यक्ति से इन्द्रिय वस्तुएं दूर हो जाती हैं, लेकिन रस (लालसा) जाती नहीं और लालसा तभी समाप्त होती है जब व्यक्ति सर्वोच्च को प्राप्त करता है’’ (2.59)��� इंद्रियों के पास एक भौतिक यंत्र और एक नियंत्रक है। मन सभी इंद्रियों के नियंत्रकों का एक संयोजन है। श्रीकृष्ण हमें उस नियंत्रक पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते हैं जो लालसा को बनाए रखता है।
श्रीकृष्ण रस शब्द का प्रयोग करते हैं। पके हुए फल को काटने के बाद उसे निचोडऩे तक रस दिखाई नहीं देता। दूध में मक्खन के साथ भी ऐसा ही होता है। इंद्रियों में मौजूद आंतरिक लालसा ऐसा ही रस है।
अज्ञानता के स्तर पर, इन्द्रियाँ इन्द्रिय विषयों से जुड़ी रहती हैं और दु:ख और सुख के ध्रुवों के बीच झूलती रहती हैं। अगले चरण में, बाहरी परिस्थितियों जैसे पैसे की कमी या डॉक्टर की सलाह के कारण मिठाई जैसी इंद्रिय वस्तुएं छोड़ दी जाती हैं लेकिन मिठाई की लालसा बनी रहती है। बाहरी परिस्थितियों में नैतिकता, ईश्वर का भय या कानून का डर या प्रतिष्ठा का ख्याल, बुढ़ापा आदि शामिल हो सकते हैं। श्रीकृष्ण अंतिम चरण के बारे में संकेत दे रहे हैं जहां लालसा ही पूर्ण रूप से खत्म हो जाती है।
श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत (11:20:21) में एक व्यवहारिक परामर्श देते हैं, जहां वे इंद्रियों की तुलना जंगली घोड़ों से करते हैं। इन घोड़ों को एक प्रशिक्षक द्वारा नियंत्रित किया जाता है जो उनके साथ कुछ समय के लिए दौड़ता है। जब वह उन्हें पूरी तरह से समझ लेता है, तो वह अपनी इच्छा के अनुसार उन पर सवार होने लगता है।
यहां ध्यान देने योग्य दो मुद्दे हैं कि प्रशिक्षक एक बार में घोड़ों को नियंत्रित नहीं कर सकता क्योंकि वे उस पर हावी हो जाएंगे। इसी तरह, हम इंद्रियों को एकदम नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। हमें कुछ समय के लिए उनके व्यवहार के अनुसार चलने की आवश्यकता है। जब हम उन्हें अच्छी तरह से समझ लेते हैं तो उन्हें नियंत्रण में ला पाएंगे। दूसरे, जब हम इन्द्रियों के प्रभाव में होते हैं उस समय भी जागरूक रहना है कि हमें इन्द्रियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
जागरूकता और लालसा एक साथ मौजूद नहीं हो सकती। जागरूकता में हम लालसाओं की चपेट में नहीं आ सकते क्योंकि ऐसा अज्ञानता में ही होता है।
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Pyaar Ka Pehla Adhyaya Shivshakti 16th July 2023 Hindi Written Update Episode
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एपिसोड की शुरुआत शक्ति द्वारा मंदिरा से यह अनुरोध करने से होती है कि वह जो कुछ भी कर रही है वह उसके अनुरूप नहीं है क्योंकि मंदिरा उससे उम्र में बड़ी है और हैसियत में अधिक अमीर है।
शक्ति के मुंह से निकले शब्दों से आहत होकर, मंदिरा ने कहा कि अपने सपने को पूरा करने के लिए शक्ति एक आदमी का उसके शयनकक्ष सहित हर जगह पीछा कर रही है। यह संकेत कि शक्ति का चरित्र त्रुटिपूर्ण और दागी है, शक्ति को क्रोधित कर देता है और उसकी विनम्रता खत्म हो जाती है।
वह जवाब देती है कि मंदिरा को वास्तविकता का सामना करना पसंद नहीं है जो कि सच्चाई है, वास्तव में, वह टकराव से डरती है। जैसे ही मंदिरा भ्रमित होकर शक्ति की ओर देखती है, शक्ति उसे उन सभी क्षणों की याद दिलाती है जब उनकी बातचीत हुई थी और जब भी शक्ति ने उसके कार्यों को सुधारा तो मंदिरा ने कैसा व्यवहार किया था।
शक्ति ने कीर्तन का मजाक उड़ाते हुए कहा कि उसकी डिग्री भी मंदिरा की ओर से सिर्फ एक उपहार हो सकती है, असली नहीं। इस बीच, कीर्तन कोयल से शक्ति के प्रति अपनी पसंद के बारे में बात करता है। जब कीर्तन उसे शक्ति की तस्वीरें दिखाता है तो को���ल नापसंदगी से अपनी नाक सिकोड़ लेती है।
वह उससे शक्ति के घर का पता लगाने का अनुरोध करता है क्योंकि कोयल एक सोशल मीडिया क्वीन है। एक मिनट के अंदर कोयल कीर्तन को शक्ति के घर का पता बता देती है और दोनों शक्ति से मिलने के लिए निकल पड़ते हैं।
दूसरी ओर, शक्ति मंदिरा के अहंकार को और अधिक चोट पहुंचा रही है क्योंकि वह कीर्तन के नकली डॉक्टर होने और मंदिरा के घृणित व्यक्तित्व के बारे में उसे डांटती रहती है।
मंदिरा शक्ति को उसके गुस्से के बारे में चेतावनी देती है और उसे इंतजार करने और देखने के लिए कहती है क्योंकि मंदिरा अपने दुश्मनों को आसानी से धोखा नहीं देती है। शक्ति उस धमकी सह चेतावनी से अडिग रहती है जो मंदिरा ने यह कहते हुए दी थी कि भोलेनाथ उसे कुछ नहीं होने देंगे।
मंदिरा, शक्ति के ईश्वर में विश्वास का मज़ाक उड़ाती है और इसे एक चुनौती के रूप में लेती है जब शक्ति उसे बताती है कि भोलेनाथ की शक्ति मंदिरा को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है। इस बीच, कीर्तन कोयल के साथ शक्ति के घर के करीब पहुंचता है जबकि रिमझिम अपने सोशल मीडिया पर व्लॉगिंग कर रही है।
रिमझिम की नजर अपने घर की बालकनी से कीर्तन पर पड़ती है और वह उसे देखकर उत्साहित हो जाती है। प्रसन्न रिमझिम सोचती है कि यह उसके सभी 16 उपवासों में से पहले उपवास का परिणाम है जिसे उसने अभी तक पूरा नहीं किया है।
जबकि कीर्तन शक्ति की तलाश करता है, रिमझिम उसे नमस्कार करती है जिसे वह उसके पास लौटा देता है और धरम की नज़र उस पर पड़ जाती है। धरम को अपनी मां द्वारा कही गई ज्ञान की बातें याद आती हैं
और वह कीर्तन को पीटना शुरू कर देता है। कोयल कीर्तन के बचाव में आती है और वह धरम के चेहरे पर थप्पड़ मारती है जिससे धरम पहली नजर में उससे प्यार करने लगता है
अस्पताल में, मंदिरा शक्ति की वित्तीय स्थिति का मज़ाक उड़ाकर उसका अपमान करती है और उससे शिव से छात्रवृत्ति दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए कहती है। इस बीच, शिव वहां से रिसेप्शन पर जाता है जहां वह छात्रवृत्ति के लिए अपनी सिफारिश का नाम प्रस्तुत करता है।
वह रिसेप्शनिस्ट से कहता है कि छात्र बहुत सक्षम है और साक्षात्कार के बाद हर कोई यही कहेगा। रिसेप्शनिस्ट कागज पर लिखे नाम को देखता है जो कोई और नहीं बल्कि शक्ति है। दूसरी ओर, धरम के उस्ताद जी एक लड़की द्वारा थप्पड़ मारे जाने के बाद उसकी क्लास लेते हैं।
वह धरम से कहता है कि अगर वह आगे भी उसके अधीन अपनी ट्रेनिंग जारी रखना चाहता है तो वह लड़की से माफी मांगे। धरम अपने उस्ताद जी से सहमत है, हालाँकि, वह उलझन में है कि लड़की के बारे में विवरण कैसे प्राप्त किया जाए।
उम्मीद है आपको यह एपिसोड बहुत अच्छा लगा होगा दुसरो के साथ भी यह एपिसोड शेयर करे घन्यवाद
Source link:- https://hindistoryok.com/pyaar-ka-pehla-adhyaya-shivshakti-16th-july-2023-hindi-written-update-episode/
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पशु-पक्षी ये संकेत दें तो सावधान हो जाएं! ऐसी समझें उनके इशारे / आपको धन मिलने से लेकर मृत्यु तक का संकेत देते हैं पशु-पक्षी, ऐसी समझें
पशु-पक्षी ये संकेत दें तो सावधान हो जाएं! ऐसी समझें उनके इशारे / आपको धन मिलने से लेकर मृत्यु तक का संकेत देते हैं पशु-पक्षी, ऐसी समझें
आपके धन और मृत्यु के संकेत: जानिए कब मिल सकती है धन और कब जा सकता है जान … जीव-जंतुओं में प्राकृतिक आपदा या खोजी घटनाओं का आभास पहले ही हो जाता है, इस संबंध में जहां आपने कई बार लोगों को कहते हुए सुना होगा, तो हो सकता है कई बार इसका प्रमाण भी देखा जा सकता है। इसका प्रमाण आप भूकंप या इस तरह की घटनाओं से ठीक पहले जानवरों और पक्षियों के व्यवहार को देखकर समझ सकते हैं। माना जाता है कि हम इंसानों की…
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#12 राशियों का राशिफल पढ़ें#2021 कैलेंडर इंडिया#5 मार्च 2021: आज का राशिफल#aaj ka rashifal#Aaj Ka Rashifal In Hindi#aaj ka कुंडली हिंदी में#ak shastra#ak shastra 2020#ak ज्योतिष#ak ज्योतिष शास्त्र#hindi rashifal news#hindu Calendar 2021 हिंदी में tithi के साथ#rashifal in hindi#rashifal news#rashifal news hindi#अंक ज्योतिष और अंक ज्योतिष#अपने धन और मृत्यु का संकेत#अशुभ#आज न्यूमरोलॉजी है#ईश्वर संकेत देता है#उल्लू#कबूतर#कुंडली लेख#कुत्ता#कैलेंडर 2021 भारत#कौआ#क्या कहते हैं आपका भाग्य#चिड़िया#जानवर#जानवरों और पक्षियों के संकेत जो आपको अपने धन और मृत्यु के बारे में बताते हैं
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स्वास्तिक एक चिन्ह और काल -
कोई भी चिन्हने कुछ न कुछ प्रदर्शित ही होता है | इसलिए चिन्ह का महत्व बहुत है | इसलिए जब भी कही कोई खुदाई में चीजें मिलती है तो पुरातत्व विभाग वालों खुदाई में मिलने वाली चीजें का अवलोकन करते है और कई दफा वो चिन्ह से पता लगाते है की ये किस काल की चीजें और उस समय किसका शासन था |क्योकि पुराने दौर में भी या कहे अभी के दौर में लोगों को खुश होना या कोई नया काम प्रदर्शित करने के लिए शुभ चिन्ह प्रयोग करते रहे है |इसलिए आज हम ऐसे ही एक सुप्रसिद्ध चिन्ह के बारे में बात करने वाले है |जो आपको हर जगह दिखाई दे जाता है | उसका नाम 'स्वास्तिक' है | ये चिन्ह सिर्फ हिंदू धर्म के आलावा स्वास्तिक का उपयोग आपको बौद्ध, जैन धर्म और हड़प्पा सभ्यता तक में भी देखने को मिलेगा। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को "बेहद शुभ हो" और "अच्छे कर्म" का प्रतीक माना जाता है।
स्वास्तिक का अर्थ -
स्वास्तिक शब्द मूलभूत 'सु+अस' धातु से बना है। 'सु' का अर्थ कल्याणकारी एवं मंगलमय है,' अस 'का अर्थ है अस्तित्व एवं सत्ता। इस प्रकार स्वास्तिक का अर्थ हुआ ऐसा अस्तित्व, जो शुभ भावना से भरा और कल्याणकारी हो। जहाँ अशुभता, अमंगल एवं अनिष्ट का लेश मात्र भय न हो। साथ ही सत्ता,जहाँ केवल कल्याण एवं मंगल की भावना ही निहित हो और सभी के लिए शुभ भावना सन्निहित हो इसलिए स्वास्तिक को कल्याण की सत्ता और उसके प्रतीक के रूप में निरूपित किया जाता है।
भारतीय वेदों से स्वास्तिक का आशय -
ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है।
विभिन्न धर्म और स्वास्तिक-
ये चिन्ह हिन्दू धर्म के आलावा और भी धर्मों ने अपन���या है |जैसे स्वस्तिक का चिन्ह भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में देखने को मिल जायेगा।स्वास्तिक बौद्ध सिंबल है। स्वस्तिक मतलब अतः दिपः भवः। बुद्ध ने कहा खुद पर भरोसा करो, किसी वेदों पर या देवी देवताओं पर नहीं। स्व आस्तिक मतलब खुद पर भरोसा करना। इसके अलावा जैन धर्म की बात करें, तो जैन धर्म में यह सातवां जिन का प्रतीक है, जिसे तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं।तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है।स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।इसी प्रकार कहा जाता है कि हड़प्पा सभ्यता की खुदाई की गई तो वहां से भी स्वास्तिक का चिन्ह निकला था।
हिटलर के स्वास्तिक और हमारे स्वास्तिक में क्या है अंतर -
प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर के ध्वज में यही 'वामावर्त स्वस्तिक' अंकित था|आपको किसी मांगलिक कार्य के दौरान अगर कोई स्वास्तिक चिह्न दिखे तो जानिए कि वो दक्षिणावर्त है| नाज़ी सेना द्वारा यूज़ किया गया स्वास्��िक वामावर्त था| दक्षिणावर्त वाले चिह्न को स्वास्तिक और वामावर्त वाले को सौवास्तिक कहा जाता है| सौवास्तिक का यूज़ आपको बौद्ध धर्म में भी दिखता है|
स्वास्तिक बनाने का सही तरीका क्या है ?
ज्योतिषी और वास्तु विद बताते हैं कि स्वास्तिक बनाने के लिए हमेशा लाल रंग के कुमकुम, हल्दी अथवा अष्टगंध, सिंदूर का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले धन (प्लस) का चिन्ह बनाना चाहिए और ऊपर की दिशा ऊपर के कोने से स्वास्तिक की भुजाओं को बनाने की शुरुआत करनी चाहिए।आप अक्सर लाल या पीले रंग के स्वास्तिक को बना हुआ ही देखते होंगे, लेकिन कई जगह आपको काले रंग से बना हुआ स्वास्तिक भी दिखाई देता है। इसमें घबराने की बात नहीं है, बल्कि काले रंग के कोयले से बने स्वास्तिक को बुरी नजर से बचाने का उपाय माना जाता है।
स्वास्तिक से मिलते -जुलते चिन्ह कई देशों में क्या है अर्थ -से
फ़्रांस में घुड़सवारी का यह भावचित्र एक सड़क-चिह्न है जापान में यह भावचित्र 'पानी' का अर्थ देता है भारत का स्वस्तिक भावचित्र 'शुभ' का अर्थ देता है चित्रलिपि ऐसी ��िपि को कहा जाता है जिसमें ध्वनि प्रकट करने वाली अक्षरमाला की बजाए अर्थ प्रकट करने वाले भावचित्र (इडियोग्रैम) होते हैं। यह भावचित्र ऐसे चित्रालेख चिह्न होते हैं जो कोई विचार या अवधारणा (कॉन्सॅप्ट) व्यक्त करें। कुछ भावचित्र ऐसे होते हैं कि वह किसी चीज़ को ऐसे दर्शाते हैं कि उस भावचित्र से अपरिचित व्यक्ति भी उसका अर्थ पहचान सकता है, मसलन 'छाते' के लिए छाते का चिह्न जिसे ऐसा कोई भी व्यक्ति पहचान सकता है जिसने छाता देखा हो। इसके विपरीत कुछ भावचित्रों का अर्थ केवल उनसे परिचित व्यक्ति ही पहचान पाते हैं, मसलन 'ॐ' का चिह्न 'ईश्वर' या 'धर्म' की अवधारणा व्यक्त करता है और '६' का चिह्न छह की संख्या की अवधारणा व्यक्त करता है। हमारा उद्देश्य रहता है की आपको हमेशा कोई नया नजरिया प्रस्तुत कर सके | आपको अच्छा लगे तो हमे जरूर अवगत कराया |
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यदि किसी व्यक्ति को सपने में कई बार मंदिर या उसके आस-पास का परिसर दिखाई देता है तो शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति को भाग्यशाली माना गया है। जिन व्यक्तियों को अपने सपने में ईश्वर का बार-बार साक्षात्कार होता है। उन्ही व्यक्तियों के साथ ईश्वरीय शक्तियाँ जुड़ी होती है। भगवान ऐसे व्यक्तियों को कुछ विशिष्ट संकेत भी दे सकते है जिनसे वह व्यक्ति समझ सकता है की अलौकिक शक्तियाँ हर कदम पर उसके साथ हैं। #1 India's Best Astrologer. Get 100% Love Problem Solution By The Help Of Best Vashikaran Expert Astrologer Ramesh Josh Ji. 1. Love Problem Solution 2. Love Vashikaran Expert 3. Black Magic Expert 4. Love Marriage Problem Solution Contact Us. +91 8437059110 [email protected]
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सीताराम
जय वीर हनुमान
ईश्वर उपासना में सर्वप्रथम गुरू पूजन किया जाता है। परमात्मा का साक्षात्कार तो इतना सरल नही है लेकिन वही परमात्मा इस संसार में साकार रूप में आपकी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में सहायता करता है। गुरूदेव के मार्गदर्शन से ही साधक ईश्वर को प्राप्त करता है। बिना गुरू के ईश्वर को पाना इतना सरल नही है। यदि ईश्वर को पाना इतना सरल हो जाये तो ईश्वर का महत्व ही इस संसार से समाप्त हो जायेगा। यदि ईश्वर की अनुभूति शीघ्र हो जाये तो साधक को इस बात का अंहकार हो जाता है एवं उसकी आध्यात्मिक प्रगति रूक जाती है, इसीलिए ईश्वर ही स्वप्न व ध्यान में संकेत द्वारा गुरू रूप में दर्शन देकर मार्ग प्रदर्शन करता है। इष्ट ही गुुरू रूप में दर्शन देता है। गुरू ईश्वर की महिमा का वर्णन करता है एवं इष्ट ही गुरू रूप में दर्शन देकर गुरू की महिमा बढ़ाता है।
पंडित आशु बहुगुणा
शुभप्रभात:---------
🌺🌺🌸🌸🌹🌹🌸🌺
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काव्यस्यात्मा 843
" बोध रुपी त्रिदृष्टि चेतना की समानता"
-© कामिनी मोहन।
दृष्टि तीन प्रकार की होती है। पहला तत्व दृष्टि, दूसरा तर्क दृष्टि और तीसरा अदृष्ट दृष्टि। तत्व बोध सत्य ज्ञान है। तर्क दृष्टि, तर्क-वितर्क और कुतर्क का जन्म है। चेतन तत्व अदृष्ट है, उसे समझने के लिए अदृष्ट दृष्टि की आवश्यकता है। हमारी यह त्रिदृष्टि बताती है कि क्या शाश्वत है और क्या अशाश्वत है? क्या वास्तविक है? और क्या अवास्तविक है? क्या जरुरी है? और क्या निरर्थक है? क्योंकि नित्य व अनित्य को पहचानने की दृष्टि विवेक ही दे सकता है।
● इच्छाओं के प्रकार :
नाम व प्रसिद्धि तथा धन में शाश्वतता खोजने वाले वैराग्य के बजाय विराग को प्राप्त करते हैं। यह अनन्त इच्छाओं को जन्म देती है। जीवन जीने के लिए जरुरी क्या है और हमें कौन सी इच्छाएं प्रसन्नता प्रदान कर सकती है। यह समझना कठिन नहीं है। इच्छाएं दो प्रकार की होती है। पहला है एक स्थिति को प्राप्त करने की और दूसरा एक स्थिति को प्राप्त करने के लिए, करने की। पहली स्थिति बताती है कि हम तभी प्रसन्न होंगे जब हमें हमारी इच्छाओं के मुताबिक स्थिति प्राप्त हो जाएगी। यह वर्तमान स्थिति में हमें जो भी मिला हैं उसमें कमियों की ओर संकेत करता है। हम प्रसन्न तभी होंगे जब हमारी वर्तमान की कमियां दूर हो जाएगी।
पृथ्वी के सभी मनुष्यों को उसके हिस्से की वस्तु स्थिति परमात्मा द्वारा दी गई है। जो मिला है उसमें प्रसन्नता न पाकर मनुष्य इच्छाओं को जन्म देता है। भविष्य में पूरी होने वाली इच्छाएं वर्तमान के लिए संकट है यह वर्तमान की खुशी में कमियां है इसका संकेत देती है। भविष्य बीते कल पर निर्भर व आने वाला वर्तमान ही है। उस भविष्य में पहुंचा वर्तमान इच्छा की पूर्ति न होने पर प्रसन्नता ��े बजाय दुख का वरण करता है।
इन सबके बीच जो साथ है वह ब्रह्म् सर्वम् अनित्यम् है। इस ब्रह्म के साथ होने की अनुभूति और जीवन का तत्व यानी सत्य बोध होने पर प्रसन्नता की इच्छा सदैव साथ चलती है। जब ऐसा होता है तो सबमें वही एक परमतत्व परमसत्य दिखाई देता है। ऐसा होने पर जीवन सार्थक और प्रसन्नता की प्राप्ति सदैव के लिए हो जाती है। हमारी सत्ता समाप्त नहीं होती। क्योंकि नाम व रुप भले ही अलग है सत्ता एक ही है।
● नमस्कार और नमस्ते:
नमस्कार का अर्थ है सामने वाले के हृदय में उपस्थित परम प्रकाश को नमन करना। जिसका अर्थ होता है एक आत्मा का दूसरी आत्मा के समक्ष कृतज्ञ भाव प्रकट करना।नमस्कार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के (नम:, ओउम और कार) इन तीन शब्दों से हुई है। नम: का अर्थ है- मैं नहीं, अर्थात मैं कुछ नहीं हूँ। ॐ ओउम जीवन की ध्वनि अक्षर ब्रह्म है। यह सृष्टि की सबसे पहली ध्वनि है। यह आत्मा का द्योतक है, भगवान का अंश है। और 'कार' का अर्थ काया है। इस प्रकार, नमस्कार जिसे भी किया जाता है उस व्यक्ति विशेष में स्वयं की उपस्थिति को देखने का भाव उत्पन्न होता है। नमस्कार व्यक्ति और व्यक्ति के बीच अभेद उत्पन्न करता है। नमस्ते में "विसर्ग संधि" है। नमस्ते का संधि विच्छेद "नम: + ते" है। नम: का अर्थ यहाँ 'मैं नहीं' और ते का अर्थ 'वे' है। इस प्रकार पूरा शाब्दिक अर्थ हुआ मैं नहीं, वे। यहाँ "वे" परमात्मा, भगवान, ईश्वर, है। इसी "वे" के लिए राम-राम, जय श्रीकृष्ण, राधे-राधे, महादेव, सत श्री अकाल या जैसी धारणा हो वैसा लोग बोलते हैं।
● चेतना की समानता :
नमस्कार शब्द ही बतलाता है कि चेतना के स्तर पर हम सब एक है। हम और आप बराबर है। दोनों की चेतना में कोई भेद नहीं है। सभी में समाई हुई एक सत्य सत्ता रुपी चेतना को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता। हम गुण व कोई गुण न होने की बात करे तो चेतना की सत्ता एक होने के बावजूद गुण में भेद के चलते सब एक दूसरे से अलग नज़र आते है। लेकिन दोनों हाथों को जोड़ने के बाद एक हथेली अपने लिए और दूसरी दूसरे के हाथ की हथेल�� मानने पर चेतना में समानता दिखने लगती है।
नमस्कार की यह क्रिया चेतना की समानता के लिए है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल गुणों के कारण एक दूसरे में अंतर कर सकते है लेकिन यदि गुण न हो तो हम एक दूसरे को अलग नहीं कर सकते। चेतना के स्तर पर जहां गुण एक समान है वहाँ कोई भेद नहीं है।
इस तत्व बोध से खुशी जीवन भर साथ चलती है। चेतना का बोध हो जाए तो जीवन सफल हो जाता है। इसके लिए सदियों से लोग प्रयास करते रहे हैं। साधना, अराधना, ध्यान, तप, मानवता, करुणा ये सभी चेतना तक पहुंचने के साधन है। जीवन जीने के कर्म में नैतिकता व कर्तव्यनिष्ठ धर्म का ईमानदारी पूर्वक पालन हो तो तनाव नहीं रहता। तनाव न रहने पर भौतिक संतुष्टि, आत्मिक संतुष्टि का मार्ग प्रशस्त करती है। जीवन का उद्देश्य भी यही है कि हम अध्यात्मिकता के उच्च स्थिति को प्राप्त कर सके। उस निराकार को पहचान कर उसमें सदैव विलीन रहकर नित्य प्रसन्न रह सके।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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"वैदिक वाङमय में उपनिषद् साहित्य"तथा पाश्चात्य विद्वानों पर इसका प्रभाव
DKLIF/2021/EM23
अमूल्य निधि-परिपूरित संस्कृत-साहित्य के वैदिक मन्त्र अनादिकाल से मानव मात्र के लिये मार्गदर्शक रहे हैं। भारतीय संस्कृति के आधार भूत वेदों की अंतिम शब्दराशि ही "उपनिषद्' की संज्ञा से अभिहित है। भारतीय विचारधारा के विकास पथ में उपनिषदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहाँ तक कि भारतीय साहित्य, शिल्प, विज्ञान, दर्शन, कुल धर्म, जातिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रनीति, अर्थनीति, स्वास्थ्यनीति और व्यवहार नीति इस सभी का निर्माण और प्रसार उपनिषद् ज्ञान को मानव जीवन के परम आदर्श के रूप में मान करके ही हुआ है। उपनिषद् ही भारतीय संस्कृति के प्राण स्वरूप है।
उपनिषदों के परिशीलन से परिलक्षित होता है कि “उपनिषद्-साहित्य व उ��्ज्वल रत्न है, जिसके आलोक में विज्ञजनों की अंतरात्मा आलोकित हो उठती है। फलतः एक नवीन आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि तथा दार्शनिक तर्क प्रणाली प्राप्त होती है। आत्मा और परमात्मा की एकता सर्वशक्तिमत्ता विलक्षणता तथा महत्ता ही उपनिषदों का वर्ण्य विषय है।
वस्तुतः उपनिषद् साहित्य वह आध्यात्मिक मानस सरोवर है जिससे अनेकानेक सरिताएं निकलकर इस पावन दर्शन भूमि को अवगाहित करती हैं तथा मानव मात्र के ऐहिक कल्याण और आयुष्मिक मंगल का निष्पादन करती हैं। मानव जाति के आध्यात्मिक इतिहास में उपनिषद् साहित्य उस विस्तृत अध्याय की भांति है जो युग-युगान्तर से भारतीय धर्म, दर्शन और जीवन को निरन्तर अनुशासित करता आ रहा है।
भारतीय तथ्य ज्ञान का जितना उत्कृष्ट विवेचन उपनिषदों में मिलता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। उपनिषदों का गर्भ अनेकानेक रहस्यों से परिपूरित है इसीलिए “इन्हें रहस्यों की उद्भाविका कहा गया है।“1
पवित्र पुस्तकों में उपनिषद् ही वे पवित्र पुस्तकें है जो सर्वाधिक पवित्र तथा उन्नत विचारों को धारण करती हैं।2
अनादि सनातन तथा कालातीत् उपनिषद् यद्यपि वेदशीर्ष या वेदसार है, तथापि वेद से पृथक नहीं है। अतः उपनिषद् वाङमय भी परमेश्वर का निःश्वासभूत है। जीव को कौन कहें परमेश्वर के भी प्रयत्न और बुद्धि का उपयोग उपनिषदों के निर्माण में नहीं हुआ है, अपितु अकृत्रिम, अपौरुषेय, निःश्वासवत्, सहजरूप में उपनिषदें प्रादुर्भूत हुयी हैं। जिनका साक्षात्कार वैदिक ऋषियों द्वारा मंत्र के रूप में किया गया है। इन उपनिषदों का विषय वेदान्त विज्ञान अथवा ज्ञानकाण्ड है।
उपनिषदों के सर्वाध���क अमूल्य विचार वे हैं, जिनकी आधारशिला पर समस्त दार्शनिक परम्परा खड़ी है। औपनिशदिक दर्शन शास्त्रियों की सम्पूर्ण विचारधारा ब्रह्मः आत्मा और मायाका ज्ञान होना परमावश्यक हो जाता है। "पाश्चात्य विद्वान पालऽयूशन ने उपनिषदों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि भारतीय बौद्धिकता रूपी वृक्ष पर उपनिषदों से अधिक सुन्दर कोई अन्य पुष्पवृत्त नहीं है।"3 उपनिषदें विभिन्न परिस्थितियों से ऊपर उठकर मानव को अन्तः प्रेरित करती है। यद्यपि उपनिषदों में विभिन्न विचारधारा में प्राप्त होती है। फिर भी अन्तोगत्वा सबका उद्देश्य मूलतः एक ही तत्त्व का प्रतिपादन है। जिसे कहीं सर्वोच्च सत्ता तथा कहीं आत्मा या ब्रह्मा की संज्ञा प्रदान की गयी है।
इस प्रकार सुस्पष्ट है कि उपनिषद् "वेद" का ज्ञान काण्ड है। यह वह चिर प्रदीप्त ज्ञान दीपक है जो स���ष्टि के आदिकाल से प्रकाश देता चला आ रहा है, और लयपर्यन्त पूर्ववत प्रकाशित रहेगा इसके प्रकाश में अमरत्त्व है, जिसने सनातन धर्म के मूल का सिंचन किया है। वह जगतकल्याणकारी भारत की अपनी निधि है। जिसके सम्मुख विश्व का प्रत्येक स्वाभिमानी राष्ट्र श्रद्धा से नतमस्तक रहा है और सदैव रहेगा। अपौरुषेय वेद का अन्तिम अध्याय रूप यह उपनिषद ज्ञान का आदिस्रोत और विद्या का अक्षय भण्डार है। वेद विद्या के चरम सिद्धान्त "नेह नानास्तिं किञ्चन..........................।।" कठोपनिषद् 2/1/11/
इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए यह उपनिषद् जीव को अल्पज्ञता से सर्वज्ञता की ओर जगत के त्रिविध दुःखों के एकान्तिक आत्यान्तिकानन्द की ओर तथा जन्म मृत्यु बन्धन से अनवतर स्वातन्त्र्यमय शाश्वत शांति की ओर ले जाती है।
'वेद' भारतीय ज्ञान विज्ञान के उद्गम केन्द्र हैं। इनके महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक शब्दों का विस्तार उपनिषदों में हुआ है। अर्थात् वैदिक संहिताओं में यत्र-तत्र जो बिखरे हुये महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक तत्त्व दिखलाई देते हैं उन्हीं उपलब्ध तत्त्वों के आधार पर बाद में औपनिषद् को "श्रुति" भी कहा जाता है।
संहिता ब्राह्मण, आख्यक तथा उपनिषद् के भेद से वेद के चार विभाग माने गये हैं। इनमें अन्तिम विभाग उपनिषद् साहित्य ही "वेदान्त" के नाम से जाना जाता है। वैदिक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य इन्हीं उपनिषद् ग्रन्थों में ही समुपलब्ध होता है तथा विभिन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान भी प्राप्त होता है। अतः इनका कथन अन्त में ही अपेक्षित था । श्वेताश्वतरोपनिषद्के अनुसार "वेदान्त शब्द रहस्यात्मक ज्ञान का बोधक है।4
ज्ञातव्य है कि उपनिषदों के पूर्व वैदिक दार्शनिक-चिन्तन पद्धति उपनिषदों जैसी नहीं थी। यही कारण है कि संहिताओं में यत्र तत्र संक्षिप्त रूप में ही इन विचारों का प्रस्फुटन दृष्टिगोचर होता है। वैसे कहीं-कहीं दार्शनिक तथ्यों का विकसित स्वरूप भी देखने को मिलता है। जैसे नासकीय सूक्त5, पुरुष सूक्त6, हिरण्यगर्म सूक्त7, वाकसूक्त8 तथा शिव संकल्प सूक्त9 इत्यादि।
ऋग्वैदिक मंत्र “एक सद्धिप्रा वहुधावदन्ति । अग्निं यम मातरिष्वान माहः, के माध्यम से ऋषि उस परमसत्ता की ओर संकेत करता है जिसका उपनिषदों में भिन्न-भिन्न रूपों में उद्घोष किया गया है, जैसे – “ईशावास्यामिदं सर्वम् यात्विञ्च जगत्यां जगत"11 "आत्मैवेदं सर्वम"12 तथा "सर्व रवात्विदं ब्रह्मा"13 इत्यादि।
ऋग्वेदस्य नासकीय सूक्त में ब्रह्म के उस स्वरूप का वर्णन किया गया है जो सभी वस्तुओं का अन्तस्तत्व है। किन्तु स्वतः अवर्णनीय है।
"नासदासीन्नो सदासीत् तदान्तिं । नासीद्रजोतो चोयापरोयत्।। 14
अर्थात् जो कुछ था वह पहले नहीं था। न पृथ्वी थी न आकाश था और न उसके परे स्वर्ग लोक ही था। कहने का तात्पर्य यह है कि उस परम् ब्रह्म के परे भी नहीं था। इसी सूक्त के एक मंत्र में सृष्टि के उद्भव एवं ज्ञान के प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हुए ऋषि कहता है कि- इयं विसृष्टिर्यत् आवभूव यदिवादधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमेत्योग्न्त्सो अड्ग वेद यदि वानवेद।।15
अर्थात् - यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई है, उसने इसे बनाया या नहीं बनाया। तबसे उच्च लोक में, जो इसका अध्यक्ष है, वह इसे जानता है, वह भी नहीं जानता।
सृष्टि के आदि में मौलिक तत्व के संदर्भ में इस सूक्त में उल्लिखित है कि-
"अनादिवातं स्वध्या तदेकं । तस्माद्वन्यन्न परः किंचनास।।16
अर्थात् – उस समय एक ही तत्व था, जो हवा के बिना भी श्वास लेता था तथा
अपनी स्वाभाविक शक्ति से जीवित था।
दार्शनिक महत्व की दृष्टि से ऋग्वेद संहित का "पुरुषसूक्त" भी अत्यंत प्रसिद्ध हैं इस सूक्त में प्रस्फुटित विचार उपनिषद् चिन्तन की आधार शिला है। इसमें आध्यात्मिक कल्पना का जो भव्य निदर्शन होता है। वह अन्यंत्र सर्वत्र दुर्लभ है, परम्पुरुष की सर्वव्यापक्ता और महत्ता का एक ज्वलन्त ‘रूप अन्यंत्र देखने को नहीं मिलता। यहाँ पर परम्पुरुष को असंख्य शिरों, असंख्य पादों तथा असंख्य नेत्रों वाला बताया गया है। इसी परम्पुरुष को ही अमरतत्व का स्वामी तथा कार्य-कारण दोनों का नित्य है। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है। होगा, वह सब परम्पुरुष ही है। जितने भी जीव हैं, सबमें वहीं है। इस पुरुष की महिमा अनन्त और असीम है यह सम्पूर्ण विश्व उसी से व्याप्त है।17
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद संहिता का हिरण्यगर्भ गर्भसूक्त तथा वाकसूक्त भी अपनी दार्शनिक गम्भीरता के कारण नितान्त प्रसिद्ध हैं। दृिख्यगर्भ के सन्दर्भ में अपनी विचिकित्सा प्रकट करते हुए ऋषि कहता है- “हिरण्यगर्भ (प्रजापति) सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होते ही सम्पूर्ण प्राणियों का अद्वितीय स्वामी हो गया तथा उसने इस पृथ्वी और धुलोक को धारण किया। (उसे छोड़कर) हम किस देवता के लिये छवि का विधान करें।"18
इस प्रकार यजुर्वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता में भी औपनिषद् चिन्तन के मूलतत्व दृष्टिगोचर होते हैं। यजुर्वेद संहिता का चालीसवें अध्याय ही ईशावास्योपनिषद के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर आत्मा की व्यापकता को दर्शाते हुये कहा गया है कि वह आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। दीप्तिमान है: शरीर से असम्पृक्त तथा प्राणों ��े रहित है। वह नाडियों से रहित, शुद्ध और पापों से वर्जित है। वह सर्वदृष्टा मनीषी, सर्वोत्कृष्ट तथा स्वयम्भू है। उसके द्वारा सृष्ट पदार्थों में सदा से ही औचित्य का आधार बना हुआ है।19
अथर्ववेद संहिता में दार्शनिक सूक्तों का बाहुल्य है। उपनिषदों में प्रयुक्त सर्वाधिक महत्व का शब्द "ब्रह्मन" परमपुरुष के रूप में अनेकशः वर्णित है। जिसका उपनिषदे बार-बार वर्णन करती है अन्य वैदिक संहिताओं में "ब्रह्मन" शब्द का प्रयोग मंत्र या प्राथना के अर्थ में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का स्पष्ट कथन है- "ब्रहन वै मन्त्रे:20
ब्रह्म के स्वरूप तथा उसकी महत्ता को व्यक्त करते हुये अथर्वसंहिता में कहा गया है कि "ज्ञानियों द्वारा ज्ञेय और उपासनीय तथा पृथ्वी से अन्तरिक्ष पर्यन्त व्याप्त उस परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए।
"डॉ० एस० राधाकृष्णन् के अनुसार" वैदिक सूक्तों में सन्निहित दार्शनिक प्रवृत्तियों का विकास उपनिषदों में ही हुआ। इन्हीं विचारों के पोषक महर्षि अरविन्द जी लिखते हैं" उपनिषदें वैदिक मंत्र और उनके स्वभाव तथा मूलभूत विचारों से क्रांतिकारी रूप में पृथक नहीं है, अपितु ये उनके विस्तार तथा विकास की ही साक्षात् प्रतिमूर्ति है।
पाश्चात्य विद्वानों पर उपनिषदों का प्रभाव:- उपनिषदों के गूढ़तम तथा सार्वभौमिक सिद्धान्तों से प्रत्येक विद्वान प्रभावित हुआ है। चाहे वह किसी भी देश का अथवा किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। यही कारण है कि मानव मात्र से जो सम्मान उपनिषदों को प्राप्त हुआः वह किसी अन्य धर्मग्रन्थ को प्राप्त न हो सका।
विदेशी विद्वान उपनिषदों में बहुत से ऐसे प्रश्नों का समाधान पाकर आश्चर्य चकित हो गये, जिनका उत्तर अन्य धर्मों तथा दर्शनों में उन्हें या तो मिला ही नहीं था, या तो सन्तोष जनक नहीं था, उदाहरणार्थ- ब्रह्म अथवा ईश्वर का स्वरूप क्या है। जीवात्मा किस तत्व से बना है ? संसार की रचना किस तत्व से हुयी है जीव की स्वर्ग या नर्क में स्थिति कितने काल तक रहती है, मरने के बाद क्या होता है ? देह की रचना के पूर्व देही का अस्तित्व था या नहीं? कुछ लोग जन्म से ही सुखी या दुःखी क्यों होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर उपनिषद् ग्रन्थों में इतना वैज्ञानिक तथा सन्तोषप्रद है कि प्रत्येक जिज्ञासु के मन पर अपनी अमिट छाप छोड़े बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि केवल भारतीय मनीषियों ने ही मुक्तकण्ठ से प्रशंसा नही की है :-अपितु विधर्मी और विदेशी विद्वानों ने भी इसकी महत्ता तथा सर्वोपदेयता को निःसंकोचभाव से स्वीकार किया है। इन विद्वानों में शापेनहावर, मैक्समूलर, पाल डयूसन, मैक्डानल ह्यूम, आ��्क, काजिन्स, लेगल, हक्सले, ब्लूमफील्ड, श्रीमती एनी बेसेन्ट, ए० बी० कीथ, ओल्टायेयर, ओल्डेन वर्ग, ए० डी० गफ, जी० एच० लोगले, मैकेन्जी, स्टेटर इत्यादि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। कुछ प्रमुख पाश्चात्य विचारकों के उपनिषद सम्बन्धी विचार निम्नलिखित है-
जर्मन विद्वान शापेनहावर उपनिषदों की प्रशंसा करते हुये लिखते हैं कि “सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को ऊँचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उनसे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, इन्हीं से मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।" 22 शापेनहावर के इन शब्दों को उदधृत करते हुये प्रो० मैक्समूलर ने लिखा है कि - शापेनहावर के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं इनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा।23 शापेनहावर महोदय की स्पष्ट घोषण है कि ये सिद्धान्त ऐसे हैं जो एक प्रकार से अपौरुषेय ही हैं। ये जिनके मस्तिष्क की उपज है उन्हें मनुष्य मात्र कहना कठिन है।
जर्मन विद्वान पाल डयूशन से उपनिषदों का मूलतः संस्कृत अध्ययन करने के पश्चात लिखा है कि उपनिषदों के भीतर जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत में तो अद्वितीय है ही, सम्यवतः सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है।24 डयूशन महोदय की स्पष्ट घोषणा है कि-
काण्ट और शापेनहावर के विचारों की उपनिषदों ने बहुत कल्पना कर ली थी तथा सनातन दार्शनिक सत्य की अभिव्यंजना, मुक्तिदायनी आत्मविद्या के सिद्धान्तों से बढ़कर निश्चयात्मक प्रभावपूर्ण रूप से कदाचित ही कही हुयी हो।25
मैक्डॉनल का कथन है कि:- मानवीय चिन्तन के इतिहास में सबसे वृहदाख्यकोपनिषद् में ही ब्रह्म अथवा पूर्णतत्व को ग्रहण करके इसकी यथार्थव्यंजना हुयी है।200 डयूशन महोदय ने तो यहाँ तक लिखा है कि मैं भारत की यात्रा पर गया था, वहाँ मैने बहुत कुछ पाया, परन्तु मैने वहाँ जो सबसे बहुमूल्य विभूति प्राप्त की है वह है - पवित्र संस्कृत भाषा में ऋषियों के दिव्य ज्ञान से ओत-प्रोत "उपनिषेद" 26
ह्यूम महोदय के अनुसार सुकरात अरस्तु अफलातून आदि कितने ही दार्शनिकों के ग्रन्थ मैने ध्यानपूर्वक पढ़े: परन्तु जैसे शक्तिमयी आत्मविद्या उपनिषदों में पाया वैसी कही अन्यत्र देखने को नहीं मिली।27
डी० जी० आर्क ने उपनिषदों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि मनुष्य की आत्मिक मानसिक और सामाजिक गुत्थियों किस प्रकार सुलझ सकती हैं। इसका ज्ञान उपनिषदों में ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य शिव और सुन्दर है कि आत्मा की गहराई तक उसका प्रयोग प्रवेश होता है। जब मनुष्य सांसारिक दुःखों से और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमो��्य साधन के रूप में उपनिषदें सहायक हो सकती हैं।28
सन् 1944 बर्लिन में थ्री शेलिंग महोदय के उपनिषद सम्बन्धी व्याख्यान को सुनकर प्रसिद्ध प्रो० मैक्समूलर अत्यन्त प्रभावित हुये तथा अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुये अपनी पुस्तक (द उपनिषद्) में लिखें-उपनिषद् प्रतिपादित वेदान्त धर्म ही सम्पूर्ण पृथ्वी का धर्म होगा, यही मनीषियों की भविष्यवाणी है।29
इस प्रकार सुस्पष्ट है कि न केवल भारतीय मनीषियों ने ही नहीं, अपितु पाश्चात्य मनीषियों ने भी औपनिदिक तथ्यों को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है अपवाद रूप में कुछ पाश्चात्य विद्वानों को रखा जा सकता है जिन्होंने न केवल उपनिषदों की अपितु सम्पूर्ण वैदिक वाङमय की निन्दा की है इसका प्रमुख कारण उन महामहिम विद्वानों को ओछी (निम्न) बुद्धि जो उस तत्व तक न पहुँच सकी जहाँ तक पहुँचने में न केवल एक जन्म का अपितु अनेक जन्मों का समय तथा श्रम लगता है।
सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची
1- The upnishads contain a secret which is not easy to explore or
unrevealed. The ten upnishads essentally means the secret or
"Rahasya" Studies in the upnishads P.10
2- Alone amont the large number of sacred texts of Hindu religion, the
upnishads have been held a 10p+as specimens of Indian thoughts at
it's highest. The upnishads alone are entitled to respect the true Indian
spirit in the sphere of religion and philosopy (The upnishads Costwoys
of Knowledge P.5)
3- The tree of the Indian wisdom there is no fairer flower than the upnishads.
- (The Philosophy of upnishads. P.18)
4- वेदान्ते परम गुहनां पुराकल्पे प्रचोदितयं (श्वेताश्वर उपनिषद्) 6122
5-'ऋग्वेद : 10/1291
6- ऋग्वेद : 10/90
7-ऋग्वेद : 10/121
8-ऋग्वेद :10/125
9- शुक्लयजुर्वेद : माध्यन्दिन वाजसनेय संहित 34/1-611
10- ऋग्वेद : 10/168/46
11- ईशा वास्योपनिषद् : 1
12- छान्दोग्योपनिषद् : 17/25/2
13- छान्दोग्योपनिषद :13/14/1
14- ऋग्वेद : 10/129/1
15- ऋग्वेद : 10/129/7
16- ऋग्वेद : 10/129/2
17- सहसृर्शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात
स चूमि विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशागुलम्पु
रुष एवेदं सर्व-यद्धतं यच्च मध्यम्
उतामृतत्व स्येशानो यदन्नोति र��हति
18- हिरण्यगर्भः सयवर्तताग्ते भूतस्य जातः
पतिरेक आसीत् स दाधार पाथिवी
द्यायुतेयां देवाय हविषा विधेय (ऋग्वेद) : 10/121/1
19- शुक्लयर्जुवेद संहिताः : 140/8
अथवा ईश्वास्योपनिषद् :8
20- शतपथ ब्राह्मण : 7/1/1/1/5/
21- यस्यभूमिः प्रभान्तरिक्षमुतोदरम्
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाम ब्राह्मणेनमः
22- "In the whole world there is no study so elovating as that of the upnishads.
It has be neto solace of my life ut will be the solace of my death."
- Sacred book of East P.44
23-"It these word of schopen hour required any confirmation I would willingly
give it as a result of my life long study." The upanishads P.64
24-"Almost superhuman conception whose originato rs can hardly be said
to be mere men."
25-"Philosophical conception unequalled in indai, or perhaps any where
clse in the world." - The philosophy of the upanishads P.14
26-"Iternal philosophical truth has scldom found more decisive and suriking
expression then in the doctrine of the emanupating knowledge the Atma:"
27-Bramha or Abslute is grasped and definitely enpressed for the first time
in the history of human thought in the Brihedaranyako-panishad"
A History of Sanskrit literature P.36
28-The Philosophy of upanishads. P.26
29-Dogmas of Buddhism P.25
डॉ० सुधा शुक्ला
-सहायक आचार्य (संस्कृत)
कर्मयोगी कालेज आफ एजूकेशन मुलिहामऊ, रायबरेली
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आत्महत्या रोकथाम दिवस : हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति करता है आत्महत्या, मौत नहीं, जिंदगी को इस तरह लगाएं गले
चैतन्य भारत न्यूज आत्महत्या की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। जहां विज्ञान की प्रगति से बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी हुई है तो ��हीं आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह समाज के हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है। इसलिए 10 सितंबर 'विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस' (International Suicide Prevention Day) के रूप में मनाया जाता है। क्यों मनाया जाता है यह दिवस यह दिन आत्महत्या से बचाव जैसे ज्वलंत विषय उठाता है और सरकारी तथा निजी संस्थाओं को देश के युवाओं में इस बात की समझ और जागरूकता पैदा करने का अवसर देता है कि जीवन बहुत महत्वपूर्ण है और किसी असफलता के पीछे इसे गंवाना नहीं चाहिए। जीवन में अच्छे-बुरे मोड़ और सफलताएं -असफलताएं आती रहती हैं, लेकिन इन सबसे आगे यह एक अनमोल निधि है और ईश्वर के दिए इस जीवन का हर हाल में सम्मान करना चाहिए। हर साल 8 लाख से ज्यादा लोग करते हैं आत्महत्या 2014 में पेश डब्ल्यूएचओ की पहली ग्लोबल रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल 8 लाख से अधिक लोग आत्महत्या करके मरते हैं। इनमें 75% आत्महत्याएं निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं।आत्महत्या दुनिया भर में होती है और लगभग किसी भी उम्र में हो सकती है। वैश्विक स्तर पर, 70 वर्ष या उससे अधिक आयु के लोगों में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। हालांकि, कुछ देशों में सबसे अधिक आत्महत्या की दर युवा के बीच पाए जाते हैं। विशेष रूप से, आत्महत्या विश्व स्तर पर 15-29 वर्षीय बच्चों में मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है। आमतौर पर महिलाओं की तुलना में पुरुषों में आत्महत्या की दर ज्यादा है। अमीर देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुष तीन गुना अधिक आत्महत्या से मरते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आत्महत्या एक गंभीर समस्या है, जिसका समाधान होना जरूरी है। आत्महत्या क्या है ? आत्महत्या (Suicide) अपने आप में एक मानसिक बीमारी नहीं है, लेकिन उपचार योग्य मानसिक विकारों का एक गंभीर संभावित परिणाम है जिसमें प्रमुख रूप से अवसाद, बाइपोलर डिसऑर्डर, पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, बॉर्डरलाइन पर्सनैलिटी डिसऑर्डर, सिज़ोफ्रेनिया, सब्सटैंस यूज डिऑर्डर और चिंता जैसे बुलीमिया और एनोरेक्सिया नर्वोसा शामिल हैं। डॉ. आनंद के मुताबिक, जब कोई व्यक्ति अवसाद और निराशावाद के घेरे में आ जाए और समस्या का समाधान दिखाई देना बंद हो जाए और किसी तरह का भावनात्मक सपोर्ट भी न मिले तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या करने के संकेत जब किसी व्यक्ति के अंदर अचानक, अकारण रोने की भावना उत्पन्न होने लगे। जब कोई व्यक्ति सुसाइड के ��रीकों और कैसे किया जाता है, इसे डिसाइड करने लगे। आपर���धिक व्यवहार का बढ़ना। सामान्य सी बात पर भी क्रोधित हो जाना। सामाजिक रिश्ते और जिम्मेदारियों से दूर भागने लगना। आत्महत्या से जुड़े तथ्य आज भी हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है। भारत में हर साल एक लाख से ज्यादा लोग करते हैं आत्महत्या । एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक हर एक घंटे में भारत में एक छात्र आत्महत्या करता है। ऐसे रहे टेंशन फ्री सही लाइफस्टाइल का चुनाव करें। हेल्दी खाएं, शारीरिक व्यायाम को रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनाएं। जिंदगी के प्रति संतुलित नजरिया रखें। अच्छा और बुरा दोनों ही जिंदगी के पहलू हैं। अपनी गलतियों से सीखें। नकारात्मक सोच का जरिया न बनाएं। अपने शौक को जिंदगी का हिस्सा बनाएं। अपने भीतर के बच्चे को जिंदा रखें। खुलकर हंसे, खुलकर मुस्कुराएं और अपनी बातों को शेयर करें। अपनी क्षमता के हिसाब से करियर और रिश्तों का चुनाव करें। Read the full article
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. श्रीमद्भगवद्गीता गीता मानव मात्र के कल्याण के लिए श्रेष्ठ ग्रंथ है। मानव जीवन की कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समुचित समाधान गीता में न सुझाया गया हो। संसार के घोर अंधकार, विपत्ति, संकट, द्रोह, भय और निराशा के मध्य में यह एक ऐसा प्रकाश-पुंज है, जो समस्याओं का साहस पूर्वक डटकर उत्तर देने के लिए, अपने पैरों पर खड़ा होकर जीने के लिए, विषाद की काली चादर उतारकर फेंकने और यथार्थ स्थिति का सामना करने के लिए प्रेरित करता है। जब भ्रांति और भटकन घेर रहे हों और मन को जकड़कर दुर्बल और असहाय बना रहे हों, जब मन घबड़ा उठा हो और कोई मार्ग न दिखता हो, तब अधीर और संत्रस्त मन के व्योमोह दूर करने के लिए गीता का प्रकाश मित्र और गुरु की भाँति परम सहायक सिद्ध होता है। यदि गीता के कुछ स्थल समझ में न आएं अथवा विवादास्पद प्रतीत होते हों, तो केवल तिरस्कृत करके उसे फेंक देना अविवेक ही कहलायेगा। संसार में नितांत निर्दोष और पूर्ण तो केवल परमात्मा ही है, अतएव जो कुछ भी सीखा जा सके, ग्रहण किया जा सके और पुर्णत्व प्राप्ति की दशा में जो भी प्रयत्न किया जा सके वही उत्तम है। यदि उद्यान में कुछ कंटीली झाड़ी भी हो, तो उद्यान सर्वथा त्याज्य नहीं होता। काँटों और कीड़ों से बचकर उद्यान के सुगंधमय वातावरण में खिलकर, हँसते-मुस्कुरा��े हुए पुष्पों के सौरभ, पक्षियों के मधुर कलरव और पर्यावरण की शोभा का रसास्वादन करना विवेक का परिचायक है। सत्य का खोजी विनम्र तथा ग्रहणशील होता है। जो रुचिकर एवं उपयोगी प्रतीत हो, उसे अंगीकार कर लेना मानवोचित विवेक है। गीतामृत पान अमृत प्रदान कर देता है। श्रद्धा और विनम्रता सहित नमन करके गीता माता की शरण में जाने पर वह हाथ पसारकर हमें गोद में बैठा लेंगी, कर्तव्य पथ का बोध करा देंगी, विवेक देकर मन के जंजाल दूर कर देंगी, सात्विक साहस भर देंगी, जीवन के प्रति उत्तम आस्था जगा देंगी तथा सुख और शांति से भर देंगी। हमें अपने मन में गीता के सार तत्वों द्वारा सुरक्षा और सुस्थिरता तथा सुख और शांति प्राप्त करने के लिए उत्कंठा, लालसा और श्रद्धा जगानी चाहिए। दुर्गम एवं कठिन तत्व भी श्रध्दा होने पर सरल एवं मधुर बन जाता है। गीता विश्व कल्याण का उद्घोष करते हुए व्यक्ति के आत्मोत्थान को उसका मूलाधार मानकर उस पर विशेष बल देती है। गीता मानव मात्र को एकता के सूत्र में बांधने, ज्ञान-विज्ञान को सत्य की ओर उन्मुख करने, जीव में नैतिकता तथा आध्यात्मिकता जगाने, ध्वस्त मूलों की पुनर्स्थापना तथा खंडित आदर्शों का पुननिर्माण करने, जीवन में नवचेतना और ओज भरकर जीवन को उद्दात्त बनाने तथा धराधाम पर स्वर्ग लाने के लिए सर्वांग सुन्दर एवं सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। परिवर्तन और प्रगति के नाम पर मानव ने अपनी स्वर्णिम शक्ति खो दी है। पुराने ढ़ांचे ढह रहे हैं और मानव जाति एक अनजाने अंधेरे में खो रही है। यद्यपि वाणिज्य और विज्ञान ने पृथ्वी को एक छोटा सा स्थल बना दिया है। व्यक्ति विश्व के विशाल एवं विस्तृत संदर्भ में तथा उत्तम आदर्शों की परिपूर्ति की दिशा में भटक गया है तथा वह समाज का और अपना विध्वसंक शत्रु बन रहा है। अंहकार, स्वार्थ, घृणा, विक्षेप तथा विषाद से अभिभूत होकर मानव और मानव जाति आत्मघाती हो गए हैं। बुद्धिवाद के नाम पर तर्क-कुतर्क बन गया है तथा मानव अपने चारों ओर सारे ढाँचे ध्वस्त करने में सुख मान रहा है। मशीन ने मानव को प्रकृति से दूर हटाकर मशीनी, विलासप्रिय, आलसी और दुर्बल बना दिया है। उसके शरीर और मन की प्रतिरोधात्मक शक्ति विलुप्त हो गई है और वह छोटे से झंझावात में घिरकर दयनीय हो गया है। विज्ञान के आधार पर सभ्यता में परिवर्तन एवं प्रगति होने पर भी मानव के भय, क्रोध, प्रतिशोध इत्यादि उद्वे�� ज्यों के त्यों ही हैं, यद्यपि उन्हें प्रकट करने के तरीके बदल गए हैं तथा कुटिल हो गए हैं। आज मन��ष्य न्याय और सिध्दांत की रक्षा के लिए नहीं बल्कि अंहकार और ईर्ष्या-द्वेष के कारण लड़ रहा है। मनुष्य अपने पड़ोसी के मकान, दुकान, स्त्री और बच्चों को सहयोगी के बदले शत्रु बना रह��� है। विश्व के स्तर पर राष्ट्र भी यही कर रहे हैं। ऐसी विस्फोटक दशा में परमाणु युग किस ओर संकेत कर रहा है ? व्यक्ति के जीवन में स्वभाव की शक्तियों के अतिरिक्त कुछ अन्य विवशता भी कभी-कभी उसे घेरकर असहाय और दीन बना देती है। जब वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर यह नहीं समझ पाता कि राह पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए, तब मात्र भय, चिंता और विषाद उसके मन को अँधकार से भर देते हैं और उसे कहीं भागने का अवसर भी नहीं मिलता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ईश्वर को जैसे मानता है, ईश्वर भी उसे वैसे ही स्वीकार कर लेता है। एक ही ईश्वर अनेक देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है। विविध पात्रों में रखा हुआ जल वास्तव में एक ही होता है। अपने स्वभाव एवं रुचि के अनुरूप किसी देवी-देवता को इष्ट मानकर पूजा करना उसी एक परमात्मा की पूजा है। पूजा रूपी सब नदियाँ एक ही परमात्मा को पहुँच जाती हैं। अपने इष्ट देव में परमात्मा का ही भाव होना चाहिए। परमात्मा तो मनुष्य के भाव को देखता है और स्वीकार करता है। किसी भी मार्ग की साधना करते-करते मनुष्य ऐसी उच्चावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसके पूर्णतः ईश्वरीय हो जाने पर सामान्य अर्थ में उसके कर्म छूटने लगते हैं। ' तस्य कार्य न विद्यते ' उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह जीवित रहते हुए भी मुक्त हो जाता है। उसके संकल्प में ऐसी शक्ति होती है कि उसके सोचते मात्र से अन्य जन में प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है तथा वे उसके सहायक सकल्प को पूरा करने के लिए कर्म करने लगते हैं। परिपक्व सिद्धावस्था में वह सामान्य कर्मशीलता से छूटकर पूर्ण सन्यासी के रूप में शुकदेव, सनकादिक, दत्तात्रेय, शंकराचार्य की भाँति नितान्त निवृत्त होकर केवल ईश्वरीय चेतना में लीन रह सकता है अथवा यदि वह चाहे तो देह यात्रा के पूर्ण होने तक लोक संग्रह अथवा लोक के उपकार के लिए जनक आदि के भाँति स्वयं भी सहज भाव से कर्म करते हुए प्रवृत्ति में भी निवृत्ति अपनाकर अन्य जन के लिए आदर्श प्रेरक बन सकता है। मुक्त आत्मा कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता, किन्तु वह दैवी विधान की पूर्ति में एक उत्तम उपकरण(निमित्त मात्र) बन जाता है तथा वह दिव्यता का विकरण करता रहता है। गीता का उपदेश हमारे दैनिक जीवन में पग-पग पर विशेषतः संकटमय परिस्थिति तथा निराशा और भ्रांति की मानसिक अवस्था में संमित्र की भाँति सच्चा सहारा देता है। गीता का एक-एक वाक्य हमें आत्मसजग बनाकर जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। गीता व्यक्तित्व को सर्वांग सुंदर बनाकर जीवन में सत्यम-शिवम-सुंदरम का बोध एवं समावेश करा देती है। जीवन का सारथी ऐसा होना चाहिए जो अपनी लगाम और घोड़ों को काबू में रखकर उन्हें ठीक दिशा में ले चले, स्वयं बाण सहकर भी रथ के स्वामी को क्षति न होने दे। यदि चालक विश्वासपात्र और कृपापात्र होता है, तो मोटरकार का स्वामी चालक के स्थान पर बैठकर चालक को पीछे अपने स्थान पर बैठा लेता है और भले-बुरे का उत्तरदायी स्वयं ही हो जाता है। अर्जुन सीधा-सच्चा और कृष्ण का मित्र है, जिसके कारण श्रीकृष्ण स्वयं उसके रथ के सारथी बने। धन्य है अर्जुन जिस पर प्रहार करनेवाले बाणों को श्रीकृष्ण सह लेते थे और अर्जुन को सुरक्षित रख लेते थे।
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स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X
मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ
1. स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत
हम "परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है" और साथ ही "परमेश्वर स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है" विषय के अंत में आ गए हैं। ऐसा करने के बाद, हमें एक सारांश बनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार का सारांश? एक स्वयं परमेश्वर के बारे में। चूँकि यह स्वयं परमेश्वर के बारे में है, तो इस परमेश्वर के हर पहलू से, और साथ ही परमेश्वर में लोगों के विश्वास के स्वरूप से सम्बंधित अवश्य होना चाहिए। और इसलिए, पहले मुझे तुम लोगों से पूछना है: उपदेश को सुनने के बाद, तुम लोगों के मन की आँखों में परमेश्वर कौन है? (सृष्टिकर्ता।) तुम लोगों की मन की आँखों में परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। क्या कुछ और है? परमेश्वर सभी चीज़ों का प्रभु है। क्या ये शब्द उचित हैं? (उचित हैं।) परमेश्वर ही एकमात्र है जो सभी चीज़ों पर शासन करता है, और सभी चीज़ों को चलाता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है वही उसे चलाता है और जो कुछ है उस सब पर वही शासन करता है और जो कुछ है उस सब का वही भरण-पोषण करता है। यह परमेश्वर की हैसियत और परमेश्वर की पहचान है। सभी चीजों के लिए और जो कुछ भी है उस सब के लिए, परमेश्वर की असली पहचान, सृजनकर्ता, और सभी चीज़ों के शासक की है। परमेश्वर उसी प्रकार की पहचान धारण करता है और वह सभी चीज़ों में अद्वितीय है। परमेश्वर की कोई भी रचना—चाहे वह मनुष्य के बीच हो या आध्यात्मिक दुनिया में हो—परमेश्वर की पहचान और हैसियत का वेष धारण करने या उसका स्थान लेने के लिए किसी भी साधन या बहाने का उपयोग नहीं कर सकती है, क्योंकि सभी चीज़ों में एकमात्र वही है जो इस पहचान, सामर्थ्य, अधिकार, और सभी बातों पर शासन करने की क्षमता से सम्पन्न है: हमारा अद्वितीय परमेश्वर स्वयं। वह सभी चीज़ों के बीच रहता और चलता है; वह सभी चीज़ों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है; वह मनुष्य बनकर, जो मांस और लहू के हैं उनमें से एक बन कर, लोगों के साथ आमने-सामने होकर और उनके सुख—दुःख बाँट कर, अपने आप को विनम्र बना सकता है; साथ ही, जो कुछ भी है वह सब को नियंत्रित करता है, और जो कुछ भी है उस का भाग्य और किस दिशा में इसे जाना है यह तय करता है, इसके अलावा, वह संपूर्ण मनुष्यजाति के भाग्य, और मनुष्यजाति की दिशा का पथप्रदर्शन करता है। इस तरह के परमेश्वर की सभी जीवित प्राणियों के द्वारा आराधना की जानी चाहिए, उसका आज्ञापालन किया जाना चाहिए और उसे जानना चाहिए। और इसलिए, इस बात की परवाह किए बिना कि तुम मनुष्यजाति में से किस समूह और किस प्रकार सम्बन्धित हो, परमेश्वर में विश्वास कर��ा, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, परमेश्वर के शासन को स्वीकार करना, और अपने भाग्य के लिए परमेश्वर की व्यवस्थाओं को स्वीकार करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए, किसी जीवित प्राणी के लिए एकमात���र विकल्प और आवश्यक विकल्प है। परमेश्वर की अद्वितीयता में, लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धार्मिक स्वभाव, उसका सार, और वे साधन जिनके द्वारा वह सभी चीज़ों का भरण-पोषण करता है, सभी अद्वितीय हैं; उसकी अद्वितीयता, स्वयं परमेश्वर की असली पहचान को निर्धारित करती है, और यह उसकी हैसियत को निर्धारित करती है। और इसलिए, सभी प्राणियों के बीच, यदि आध्यात्मिक दुनिया में या मनुष्यों के बीच कोई जीवित प्राणी परमेश्वर की जगह खड़ा होने की इच्छा करता है, तो यह असंभव होगा, जैसे कि परमेश्वर का रूप धरने का प्रयास कर रहा हो। यह तथ्य है। इस तरह के सृजनकर्ता और शासक की, जो स्वयं परमेश्वर की पहचान, सामर्थ्य और हैसियत को धारण करता है, मनुष्यजाति के बारे में क्या अपेक्षाएँ हैं? यह हर एक को स्पष्ट हो जाना चाहिए, और उनके द्वारा याद रखा जाना चाहिए, और यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!
2. परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ
लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बर्ताव करते हैं यह उनका भविष्य निर्धारित करता है, और यह निर्धारित करता है कि कैसे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करता है और उनसे निपटता है। यहाँ पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि कैसे लोग परमेश्वर के प्रति बर्ताव करते हैं। आइए, इस बारे में कुछ सुनते हैं कि उनका ढंग और रवैया जिससे वे परमेश्वर के प्रति बर्ताव करते हैं सही है या नहीं। आइए, हम निम्नलिखित सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें:
1) एक प्रकार के ऐसे लोग होते हैं जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से बेतुका होता है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर एक बोधिसत्व या मानव बुद्धि वाला पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब लोग मिलें तो वे तीन बार उसके सामने झुकें और खाने के बाद उसके सामने धूप जलाएँ। और इस तरह जब, उनके हृदयों में, वे परमेश्वर के प्रति उसके अनुग्रह के लिए कृतज्ञ होते हैं, और परमेश्वर के प्रति आभारी होते हैं, तो अक्सर उनके अंदर इस तरह का संवेग आता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं वह, उस पवित्र प्राणी की तरह जिसकी वे अपने मन में लालसा रखते हैं, अपने प्रति उनके उस व्यवहार को स्वीकार कर सकता है जिसमें वे तीन बार उसके सामने झुकते हैं जब वे मिलते हैं, और खाने के बाद धूप जलाते हैं।
2) कुछ लोग परमेश्वर को जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं जो सभी जीवितों के कष्टों को हटाने और उन्हें बचाने में सक्षम है; वे परमेश्वर को जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं जो उन्हें दुःख के सागर से दूर ले जाने में सक्षम है। परमेश्वर में इन लोगों का विश्वास बुद्ध के रूप में परमेश्वर की आराधना करना है। यद्यपि वे धूप नहीं जलाते हैं, दण्डवत् नहीं करते हैं, या अर्पण ��हीं करते हैं, लेकिन उनके हृदय में उनका परमेश्वर केवल इस तरह का एक बुद्ध है, और वह केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और धर्मार्थ हों, कि वे किसी जीवित चीज़ को नहीं मारें, दूसरों को गाली नहीं दें, ऐसा जीवन जीएँ जो ईमानदार दिखायी दे, और कुछ बुरा नहीं करें—केवल यही बातें। उनके हृदय में यही परमेश्वर है।
3) कुछ लोग परमेश्वर की आराधना किसी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में करते हैं। उदाहरण के लिए, यह महान व्यक्ति चाहे किसी भी साधन से बोलना पसंद करता हो, वह किसी भी स्वर-शैली में बोलता हो, वह किसी भी शब्द और शब्दावली का उपयोग करता हो, उसका लहजा, उसके हाथ का संकेत, उसके विचार और कार्यकलाप, उसका आचरण—वे उस सब की नकल करते हैं, और ये सब ऐसी चीज़ें हैं जो परमेश्वर में अपने विश्वास को पैदा करने के लिए उन्हें पूरी तरह से उत्पन्न करना ज़रूरी है।
4) कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, वे महसूस हैं कि वह सबसे ऊपर है, और कोई भी उसका अपमान करने का साहस नहीं करता है—और यदि वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें दण्डित किया जाएगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना इसलिए करते हैं क्योंकि उनके हृदय में सम्राट के लिए एक निश्चित जगह है। सम्राटों के विचार, तौर तरीके, अधिकार और स्वभाव—यहाँ तक कि उनकी रूचियाँ और व्यक्तिगत जीवन—यह सब कुछ ऐसा बन जाता है जिसे इन लोगों को अवश्य समझना चाहिए, ऐसे मुद्दे और मामले हैं जिसके बारे में वे चिंतित होते हैं, और इसलिए वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास बेहूदा है।
5) कुछ लोगों की परमेश्वर के अस्तित्व में एक विशेष आस्था होती है, एक ऐसी आस्था जो गहन और होती है। क्योंकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान बहुत उथला होता है और उन्हें परमेश्वर के वचन का ज्यादा अनुभव नहीं होता है, इसलिए वे उसकी आराधना एक प्रतिमा के रूप में करते हैं। यह प्रतिमा उनके हृदय में एक परमेश्वर है, यह कुछ ऐसा है जिससे उन्हें अवश्य डरना चाहिए और उसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण अवश्य करना चाहिए। वे परमेश्वर को एक ऐसी प्रतिमा के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें अपने जीवनभर अनुसरण अवश्य करना चाहिए। वे उस लहजे की नक़ल करते हैं जिसमें ईश्वर बोलता है, और बाहरी रूप में वे उनकी नक़ल करते हैं जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अक्सर ऐसे काम करते हैं जो भोले-भाले, शुद्ध, और ईमानदार प्रतीत होते हैं, और यहाँ तक कि वे इस प्रतिमा का एक ऐसे सहभागी या साथी के रूप में अनुसरण करते हैं जिससे वे कभी अलग नहीं हो सकते हैं। यह उनके विश्वास का ऐसा ही रूप है।
6) कुछ ऐसे लोग हैं जो, परमेश्वर के बहुत से वचनों को पढ़ने और बहुत से उपदेशों को सुनने के बावजूद, अपने हृदयों में महसूस करते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनका एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामदी होना चाहिए, अन्यथा उस तरह से परमेश्वर की स्तुति और सराहना करनी चाहिए जो वास्तविक न हो। वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ही ऐसा परमेश्वर है जो उनसे ��स तरह से व्यवहार करवाना चाहता है, और मानते हैं कि यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे किसी भी समय वे उसके क्रोध को भड़का सकते हैं, या उसके विरुद्ध पाप कर सकते हैं, और पाप करने के परिणामस्वरुप परमेश्वर उन्हें दण्डित करेगा। उनके हृदय में इसी तरह का परमेश्वर है।
7) और फिर ऐसे लोगों की बहुतायत है जो परमेश्वर में आध्यात्मिक सहारा ढूँढते हैं। क्योंकि वे इस जगत में रहते हैं, इसलिए वे शांति या आनंद से रहित हैं, और उन्हें कहीं शांति प्राप्त नहीं होती है। परमेश्वर को प्राप्त करने के बाद, जब वे उसके वचनों को देख और सुन लेते हैं, तो अपने हृदयों में वे गुप-चुप रूप से आनंदित और प्रफुल्लित होते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि उनका मानना है कि उन्होंने आख़िरकार कोई जगह प्राप्त कर ली है जो उनके लिए आनंद लाएगी, कि उन्होंने आख़िरकार ऐसा परमेश्वर प्राप्त कर लिया है जो उन्हें आध्यात्मिक सहारा देगा। उनके परमेश्वर को स्वीकार कर लेने और अनुकरण करना शुरू करने के बाद, वे खुश हो गए हैं, उनके जीवन संतुष्ट हैं, वे अविश्वासियों के समान अब और नहीं हैं, जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन में आगे देखने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर उनकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है और मन और आत्मा दोनों मे�� एक बड़ा आनंद ला सकता है। इसका अहसास किए बिना, वे इस परमेश्वर को छोड़ने में असमर्थ हो जाते हैं जो उन्हें आध्यात्मिक सहारा देता है, जो उनकी आत्मा और पूरे परिवार के लिए आनंद लाता है। वे मानते हैं कि ईश्वर में विश्वास को उनके जीवन में आध्यात्मिक सहारा लाने से ज्यादा कुछ और करने की जरुरत नहीं है।
क्या परमेश्वर के प्रति ऊपर उल्लिखित इन विभिन्न प्रकार के लोगों के रवैये तुम लोगों में विद्यमान है? (हाँ, हैं।) यदि, परमेश्वर में अपने विश्वास में, किसी के हृदय में इस प्रकार का कोई भी रवैया हो, तो क्या वह सच में परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ है? यदि किसी के हृदय में इसमें से कोई भी रवैया हो, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या वे स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास करते हैं? (नहीं।) चूँकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हो, तो तुम किसमें विश्वास करते हो? यदि तुम जिसमें विश्वास करते हो वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी प्रतिमा में, या किसी महान आदमी में, या किसी बोधिसत्व में विश्वास करते हो, कि तुम अपने हृदय में बुद्ध की आराधना करते हो। और इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न प्रकारों के विश्वास और प्रवृत्तियों की वजह से, लोग अपनी अनुभूति के परमेश्वर को अपने हृदयों में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे परमेश्वर के बारे में अपने रवैयों और कल्पनाओं को स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ-साथ रखते हैं, और उनका उत्सव मनाने के लिए उन्हें पकडे रहते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार के अनुचित दृष्टिकोण रखते हैं तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को अस्वीकार कर दिया है और ��ूठे ईश्वर की आराधना करते हैं, इसका अर्थ है कि परमेश्वर में विश्वास करने के साथ-साथ, वे परमेश्वर को अस्वीकार करते हैं, और उसका विरोध करते हैं, और यह कि वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं। यदि लोग इस प्रकार का विश्वास ��खते रहेंगे, उनके लिए क्या परिणाम होंगे? इस प्रकार के विश्वास के साथ, क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के निकट आ पाएँगे? (नहीं, वे नहीं आ पाते हैं।) इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण, ये लोग परमेश्वर के पथ से और दूर हो जाएँगे, क्योंकि वे जिस दिशा की खोज करते हैं वह उससे ठीक विपरीत है जिस की परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है। क्या कभी तुम लोगों ने वह कहानी सुनी है कि "रथ को उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाना?" यह ठीक उत्तर की ओर रथ चला कर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। यदि लोग परमेश्वर में इस बेढंगे तरीके से विश्वास करेंगे, तो तुम जितनी अधिक कोशिश करोगे, उतना ही परमेश्वर से दूर हो जाओगे। और इसलिए मैं तुम लोगों को यह चेतावनी देता हूँ: इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, तुम्हें पहले यह जरुर देखना चाहिएँ कि तुम सही दिशा में जा रहे हो या नहीं? अपने प्रयासों को लक्षित करो, और स्वयं से यह पूछना निश्चित करो, "क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ वह सभी चीज़ों का शासक है? क्या यह परमेश्वर जिस पर मैं विश्वास करता हूँ मात्र कोई ऐसा है जो मुझे आध्यात्मिक सहारा देता है? क्या वह मेरा आदर्श है? जिस परमेश्वर में मैं विश्वास करता हूँ वह मुझसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर उस सब को अनुमोदित करता है जो मैं करता हूँ? क्या जो कुछ भी मैं करता और खोजता हूँ, वह परमेश्वर को जानने की कोशिश में है? क्या यह मुझसे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुकूल है? क्या जिस पथ पर मैं चलता हूँ वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और अनुमोदित है? क्या परमेश्वर मेरी आस्था से संतुष्ट है?" तुम्हें अक्सर और बार-बार अपने आप से ये प्रश्न पूछने चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के ज्ञान की खोज करते हो, तो, इससे पहले कि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर सको, तुम्हारे पास एक स्पष्ट चेतना और स्पष्ट उद्देश्य अवश्य होना चाहिए।
क्या यह संभव है कि, अपनी सहिष्णुता के परिणामस्वरूप, परमेश्वर अनिच्छा से इन अनुचित प्रवृत्तियों को स्वीकार करेगा जिनके बारे में मैंने अभी-अभी बात की है? क्या परमेश्वर इन लोगों के रवैयों की सराहना कर सकेगा? (नहीं।) परमेश्वर की मनुष्यजाति से और जो उसका अनुकरण करते हैं उनसे, क्या अपेक्षाएँ है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट है कि वह लोगों से किस प्रकार की प्रवृत्ति की अपेक्षा करता है? आज मैं बहुत कह चुका हूँ, मैं स्वयं परमेश्वर के विषय के बारे में, और साथ ही परमेश्वर के कर्मों और उसके स्वरूप के बारे में, बहुत बोल चुका हूँ। क्या अब तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या प्राप्त करना चाहता है? क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है? बोलो। यदि अनुभवों और अभ्यास से तुम्हारे ज्ञान में अभी भी कमी है या यह बहुत सतही है, तो तुम लोग इन वचनों के अपने ज्ञान के बारे में कुछ कह सकते हो। क्या तुम्हारे पास ज्ञान का सार है? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? (इन कुछ संगतियों के दौरान, परमेश्वर ने इस बात की आवश्यकता को महत्व दिया है कि, हम परमेश्वर को जानें उसके कर्मों को जानें, यह जानें कि वही सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है, और उसकी हैसियत और पहचान को जानें।) और जब परमेश्वर कहता है कि लोग उसे जानें, तो ��सका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे जानते हैं कि परमेश्वर सृजनकर्ता है, और यह कि लोग सृजित प्राणी हैं।) जब वे इस प्रकार का ज्ञान पा लेते हैं, तो परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैयों में, उनके व्यवहार में, कार्यान्वयन के तरीके में, या उनके जीवन स्वभाव में क्या बदलाव आते हैं? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? कहीं ऐसा तो नहीं, कि परमेश्वर को जानने, और उसे समझने के बाद, वे भले व्यक्ति बन जाते हैं? (परमेश्वर पर विश्वास करना एक भला आदमी बनने की खोज करना नहीं है। बल्कि यह परमेश्वर का प्राणी बनने के लिए अनुसरण करना है, जो कि मानकों पर खरा उतरता है और ईमानदार व्यक्ति है।) क्या कुछ और भी है? (परमेश्वर को सच में और सही ढंग से जानने के बाद, हम परमेश्वर के प्रति परमेश्वर के रूप में व्यवहार कर पाते हैं, हम जानते हैं कि परमेश्वर सदैव ही परमेश्वर है, कि हम सृजित किए गए प्राणी हैं, हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, और अपनी स्थिति पर टिके रहना चाहिए।) बहुत अच्छा! आइए, कुछ अन्य लोगों से भी सुनें। (हम परमेश्वर को जानते हैं, अंततः ऐसे व्यक्ति बन पाते हैं जो सच में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं, परमेश्वर का आदर करते हैं और बुराई से दूर रहते हैं।) यह सही है।
3. वह दृष्टिकोण जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि उसके प्रति मनुष्यजाति का होना चाहिए
वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता है—या कम से कम, वह उतनी अपेक्षा नहीं करता है जितनी लोग कल्पना करते हैं। अगर परमेश्वर ने वचनों को नहीं कहा होता, या अपने स्वभाव या किन्हीं कर्मों को व्यक्त नहीं किया होता तो परमेश्वर को जानना तुम लोगों के लिए बहुत कठिन होता, क्योंकि लोगों को परमेश्वर के इरादों और उसकी इच्छा का अनुमान लगाना पड़ता, जो उनके लिए बहुत कठिन है। किन्तु उसके कार्य के अंतिम चरण में, परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं, बहुत सा कार्य किया है, और मनुष्य से बहुत सी अपेक्षाएँ की हैं। उसने अपने वचनों में, और अपने कार्य की विशाल मात्रा में लोगों को बता दिया है कि उसे क्या पसंद है, उसे किससे घृणा है, और उन्हें किस प्रकार मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, लोगों के अपने हृदयों में परमेश्वर की अपेक्षाओं की सही परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे अस्पष्टता और अमूर्तता के बीच परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, और अस्पष्ट परमेश्वर में अब और विश्वास नहीं करते हैं, या अस्पष्टता और अमूर्तता, और शून्यता के बीच परमेश्वर का अनुसरण अब और नहीं करते हैं; इसके बजाय, लोग परमेश्वर के कथनों को सुनने में समर्थ हैं, वे उसकी अपेक्षाओं के मानकों को समझने में, और उन्हें प्राप्त करने में समर्थ हैं, और परमेश्वर लोगों को वह सब बताने में मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज, यदि लोग अभी भी इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर की उनसे क्या अपेक्षाएँ हैं, परमेश्वर क्या है, क्यों वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और कैसे उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए और उससे व्यवहार करना चाहिए, तो इसमें फिर एक समस्या है। अभी-अभी तुम में से प्रत्येक ने एक क्षेत्र के बारे में बोला; तुम लोग कुछ बातों से परिचित हो, चाहे वे बातें विशिष्ट हों या सामान्य—लेकिन मैं तुम लोगों को परमेश्वर की मनुष्य से सही, पूर्ण और विशिष्ट अपेक्षाएँ बताना चाह��ा हूँ। वे केवल कुछ वचन हैं, और बहुत साधारण हैं। हो सकता है कि तुम लोग पहले से ही इन वचनों को जानते हों। परमेश्वर की मनुष्य से और जो उसका अनुसरण करते हैं उनसे सही अपेक्षाएँ निम्नानुसार हैं। परमेश्वर की उनसे पाँच अपेक्षाएँ हैं जो उसका अनुसरण करते हैं: सच्चा विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुकरण, पूर्ण आज्ञापालन, सच्चा ज्ञान और हार्दिक आदर।
इन पाँच बातों में, परमेश्वर चाहता है कि लोग उससे अब और प्रश्न करें, और न ही अपनी कल्पना या अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोण का उपयोग करके उसका अनुसरण करें; उन्हें किन्हीं भी कल्पनाओं या धारणाओं के साथ उसका अनुसरण अवश्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर चाहता है कि जो उसका अनुसरण करते हैं, वे सभी ऐसा पूरी वफादारी से करें, आधे-अधूरे मन से या बिना किसी प्रतिबद्धता के नहीं करें। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, या तुम्हारा परीक्षण करता है, तुमसे निपटता या तुम्हारी काट-छाँट करता है, या तुम्हें अनुशासित करता और दंड देता है, तो तुम्हें पूर्ण रूप से उसका आज्ञाकारी होना चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, या शर्तें नहीं रखनी चाहिए, और तुम्हें तर्क तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता चरम होनी चाहिए। परमेश्वर को जानना एक ऐसा क्षेत्र है जिसका लोगों में बहुत अभाव हैं। वे अक्सर परमेश्वर पर ऐसी कहावतों, कथनों, और वचनों को थोपते हैं जो उससे असंबंधित होते हैं, ऐसा विश्वास करते हैं कि ये वचन परमेश्वर के ज्ञान की सबसे सही परिभाषा हैं। उन्हें बहुत थोड़ा सा पता है कि ये कहावतें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क, और अपनी अक़्ल से आती हैं, उनका परमेश्वर के सार से ज़रा सा भी सम्बन्ध नहीं है। और इसलिए, मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर द्वारा इच्छित लोगों के ज्ञान में, परमेश्वर मात्र यह नहीं कहता कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को पहचानो, बल्कि यह कि परमेश्वर का तुम्हारा ज्ञान सही हो। भले ही तुम केवल एक वाक्य बोल सको, या केवल थोड़ा सा ही जानते हो, तो यह थोड़ा सा जानना सही और सच्चा हो, और स्वयं परमेश्वर के सार के अनुकूल हो। क्योंकि परमेश्वर लोगों की अवास्तविक और अविवेकी स्तुति और सराहना से घृणा करता है। उससे भी अधिक, जब लोग उससे हवा की तरह बर्ताव करते हैं तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर के बारे में विषयों की चर्चा के दौरान, लोग छिछोरेपन से बात करते हैं, जैसा चाहे वैसा और बेझिझक बोलते हैं, जैसा उन्हें ठीक लगे वैसा बोलते हैं, तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे नफ़रत करता है जो यह मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, और परमेश्वर के ज्ञान के बारे में डींगे मारते हैं, परमेश्वर के बारे में विषयों पर बिना किसी रुकावट या विचार किए चर्चा करते हैं। उन पाँच अपेक्षाओं में अंतिम अपेक्षा हार्दिक आदर करना थी। यह परमेश्वर की उनसे परम अपेक्षा है जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी को परमेश्वर का सही और सच्चा ज्ञान होता है, तो वह परमेश्वर का सच में आदर करने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है। यह आदर उसके हृदय की गहराई से आता है, यह स्वैच्छिक है, और इस कारण नहीं है कि परमेश्वर ने उन पर दबाव डाला है। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम उसे किसी अच्छी प्रवृत्ति, या आचरण, या बाहरी व्यवहार का कोई उपहार दो; उसके बजाय, वह कहता है कि तुम अपने हृदय की गहराई से उसक�� आदर करो और उससे डरो। यह आदर तुम्हारे जीवन स्वभाव में बदलाव के परिणामस्वरूप प्राप्त किया जाता है, क्योंकि तुम्हें परमेश्वर का ज्ञान है, क्योंकि तुम्हें परमेश्वर के कर्मों की समझ है, परमेश्वर के सार की तुम्हारी समझ के कारण है और क्योंकि तुमने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि तुम परमेश्वर के प्राणियों में से एक हो। और इसलिए, आदर को समझाने के लिए "हार्दिक" शब्द का उपयोग करने का मेरा लक्ष्य यह है ताकि मनुष्यजाति समझे कि परमेश्वर के लिए लोगों का आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।
अब उन पाँच अपेक्षाओं पर विचार करें: क्या तुम लोगों के बीच कोई हैं जो प्रथम तीन को प्राप्त करने में सक्षम हैं? जिससे मेरा तात्पर्य सच्चा विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण, और पूर्ण आज्ञापालन है। क्या तुम लोगों में से कोई ऐसे हैं जो इन चीजों में सक्षम हैं? मैं जानता हूँ कि यदि मैंने सभी पाँच कहे होते, तो निश्चित रूप से तुम लोगों में से कोई नहीं होता जो सक्षम हो—किन्तु मैंने इसे तीन तक कम कर दिया है। इस बारे में सोचो कि तुम लोग इन्हें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या "सच्चा विश्वास" प्राप्त करना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) यह आसान नहीं है, क्यों कि लोग प्रायः परमेश्वर पर प्रश्न करते हैं। "निष्ठापूर्ण अनुसरण" के बारे में कैसा है? यह "निष्ठापूर्ण" किसका उल्लेख करता है? (आधे-अधूरे मन से नहीं बल्कि पूरे मन से।) आधे-अधूरे मन से नहीं पूरे मन से। एकदम सटीक बात कही! तो क्या तुम लोग इस अपेक्षा को पूरा करने में सक्षम हो? तुम्हें अधिक कड़ी मेहनत करनी होगी, है न? अभी तुम्हें इस अपेक्षा को पूरा करना बाकी है! "पूर्ण आज्ञापालन" के बारे में क्या कहेंगे—क्या तुमने इसे पूरा करलिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी पूरा नहीं किया है। तुम प्रायः अवज्ञाकारी, विद्रोहशील हो जाते हो, तुम प्रायः नहीं सुनते हो, या आज्ञापान करना नहीं चाहते हो, या सुनना नहीं चाहते हो। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएँ हैं जिन्हें जीवन में प्रवेश करने के बाद लोगों द्वारा पूरा किया जाता है और तुममें अभी ये पूरी होना बाकी हैं। तो, इस वक्त, क्या तुममें बहुत अधिक क्षमता है? आज, मुझे इन वचनों को कहते हुए सुन कर, क्या तुम चिंतित महसूस करते हो? (हाँ!) यह सही है कि तुम चिंतित महसूस करते हो। चिंतित मत हो। तुम लोगों की ओर से मैं चिंतित महसूस करता हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं पर नहीं जाऊँगा; बिना संदेह के, इन्हें कोई भी पूरा करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुम लोगों ने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? कौन से लक्ष्यों की, किस दिशा की ओर तुम्हें खोज करनी चाहिए, और अपने प्रयासों को समर्पित करना चाहिए? मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ: जब तुम इन पाँच अपेक्षाओं को प्राप्त कर लोगे, तो तुमने परमेश्वर को संतुष्ट कर लिया होगा। उनमें से प्रत्येक एक संकेतक है, परिपक्वता में पहुँचने के बाद लोगों का जीवन में प्रवेश का और इसके अंतिम लक्ष्य का संकेतक। भले ही मैं इन अपेक्षाओं में से एक के बारे में ही विस्तार से बोलना चुनूँ और जो तुम लोगों से अपे���्षित हैं, तब भी इसे प्राप्त करना आसान नहीं होगा; लोगों को कुछ हद तक कठिनाई झेलने और विशेष प्रयास करने की आवश्यकता होगी। और तुम लोगों की मानसिकता किस प्रकार की होनी चाहिए? यह वैसी ह�� होनी चाहिए जैसी एक कैंसर के मरीज़ की होती है जो ऑपरेशन की टेबल पर जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हो, परमेश्वर को प्राप्त करना और उसकी संतुष्टि को प्राप्त करना चाहते हो, तब यदि तुम कुछ हद तक कष्ट सहन नहीं करते हो या विशेष प्रयास नहीं करते हो, तो तुम इन चीज़ों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे। तुम लोगों ने बहुत उपदेश सुन लिया है, किन्तु इसे सुनने का यह मतलब नहीं कि उपदेश तुम्हारा हो गया है; तुम्हें इसे अवश्य आत्मसात करना चाहिए और इसे किसी ऐसी वस्तु में रूपांतरित करना चाहिए जो तुमसे सम्बंधित हो, तुम्हें इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए, और इसे अपने अस्तित्व में ले आना चाहिए, इन वचनों और उपदेश को तुम्हारे जीने के तरीके की अगुवाई करने देना चाहिए, और तुम्हारे जीवन में अस्तित्व संबंधी मूल्य और अर्थ लाने देना चाहिए—और तब तुम्हारे लिए इन वचनों को सुनने का महत्व होगा। यदि ये वचन जो मैंने कहे हैं, तुम्हारे जीवन में कोई सुधार, या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं लाते हैं, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता है। तुम लोग इसे समझते हो, है न? इसे समझने के बाद, जो कुछ शेष रहता है वह तुम लोगों पर है। तुम लोगों को काम पर अवश्य लग जाना चाहिए! तुम्हें इन सभी बातों में ईमानदार अवश्य होना चाहिए! भ्रम में मत रहो—समय तेज़ी से गुज़र रहा है! तुम लोगों में से अधिकांश पहले से ही दस साल से ज्यादा परमेश्वर में विश्वास कर चुके हैं। इन दस सालों के विश्वास पर नज़र डालो: तुम लोगों ने कितना पाया है? इस जीवन के कितने दशक तुम्हारे पास शेष हैं? अधिक समय नहीं बचा है। इस बारे में भूल जाओ कि परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा करता है या नहीं, कि क्या उसने तुम्हारे लिए कोई अवसर छोड़ा है या नहीं, कि क्या वह उसी कार्य को पुनः करेगा या नहीं; उस बारे में बात मत करो। क्या तुम अपने पिछले दस वर्षों को वापिस ला सकते हो? हर गुज़रते हुए दिन और हर उठते हुए कदम के साथ जो तुम लेते हो, जो दिन तुम्हारे पास हैं उनमें से एक दिन कम हो जाता है। समय किसी व्यक्ति की प्रतीक्षा नहीं करता है! तुम परमेश्वर में विश्वास से केवल तभी प्राप्त करोगे, यदि तुम इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज़, भोजन, कपडे, या किसी भी अन्य चीज की तुलना में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण के रूप में देखोगे! यदि तुम केवल तभी विश्वास करते हो जब तुम्हारे पास समय होता है, और अपने विश्वास के प्रति अपना पूरा ध्यान समर्पित करने में असमर्थ हो, यदि तुम हमेशा भ्रम में फँसे रहते हो, तो तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे। तुम लोग इसे समझे, है न? आज के लिए हम यहीं समाप्त करेंगे। अगली बार मिलेंगे! (परमेश्वर का धन्यवाद!)
स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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इन 5 वास्तुदोष के कारण नहीं होती धन की बरकत, आदमी हो जाता है कंगाल-नौकरी और व्यवसाय आदि करने के बाद हम पैसे-रुपए तो खूब जुटा लेते हैं लेकिन उस पैसे को बनाए रखने या फिर बढ़ाने को लेकर हमारी जद्दोजहद हमेशा जारी रहती है। कमाया या इकट्ठा किया गया धन घर में बना रहे, इसके लिए आपको अपने घर के वास्तु का विशेष ध्यान रखना चाहिए। आइए जानते हैं उन 10 वास्तुदोषों के बारे में जिनके कारण अक्सर अमीर से अमीर आदमी भी जल्द ही कंगाल हो जाता है — 1-यदि आपके घर में तमाम कोशिशों के बावजूद पैसा नहीं बच रहा है तो आपको सबसे पहले घर के ईशान कोण पर नजर डालनी चाहिए। ईश्वर के इस स्थान पर गंदगी या डस्टबिन होने पर धन का नाश होता रहेगा। ऐसे में उत्तर-पूर्व में कभी भी भूलकर गंदगी न फैलाएं और इस स्थान पर भारी चीज न रखें। 2-हमारे यहां जल को लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। यदि आपके घरों में नलों से पानी टपकता है और पाईप लाइन से लीकेज है तो यह आर्थिक नुकसान का संकेत देता है। 3-वास्तु के अनुसार घर का मुख्य द्वार का धन से गहरा संबंध होता है। इससे जुड़े वास्तुदोष धन हानि के कारक होते हैं। यदि किसी घर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में हो तो हमेशा आर्थिक परेशानियां घेरे रहती हैं। इसी तरह यदि घर का मुख्य द्वार टूटा हुआ हो या फिर पूरी तरह से ना खुलता हो, तो इस वास्तुदोष से भी धनहानि होती है। 4-वास्तु के अनुसार घर बनवाते समय हमें हमेशा घर की ढलान का विशेष ख्याल रखना चाहिए। यदि आपके घर की ढलान उत्तरपूर्व में ऊंची है तो धन के आगमन में रुकावटें आती रहेंगे और आय के अपेक्षा व्यय ज्यादा होगा। कहने का तात्पर्य उत्तर-पूर्व दिशा में न सिर्फ ढलान होना चाहिए बल्कि पानी का निकास भी इसी दिशा में होना चाहिए। 5-घर बनवाते समय ईशान कोण के साथ उत्तर-पश्चिम दिशा में भी ढलान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि आपके मकान का ढाल उत्तर-पश्चिम दिशा में नीचा है, तो निश्चित रूप से आपको आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। इस वास्तुदोष के कारण घर में बरकत नहीं होती है। कहने का तात्पर्य उत्तर-पश्चिम दिशा का भाग ऊंचा होना चाहिए।Call +91-8872889000 for Astro & Vastu Solutions
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स्वास्तिक एक चिन्ह और काल -
कोई भी चिन्ह ने कुछ न कुछ प्रदर्शित ही होता है | इसलिए चिन्ह का महत्व बहुत है | इसलिए जब भी कही कोई खुदाई में चीजें मिलती है तो पुरातत्व विभाग वालों खुदाई में मिलने वाली चीजें का अवलोकन करते है और कई दफा वो चिन्ह से पता लगाते है की ये किस काल की चीजें और उस समय किसका शासन था |क्योकि पुराने दौर में भी या कहे अभी के दौर में लोगों को खुश होना या कोई नया काम प्रदर्शित करने के लिए शुभ चिन्ह प्रयोग करते रहे है |इसलिए आज हम ऐसे ही एक सुप्रसिद्ध चिन्ह के बारे में बात करने वाले है |जो आपको हर जगह दिखाई दे जाता है | उसका नाम 'स्वास्तिक' है | ये चिन्ह सिर्फ हिंदू धर्म के आलावा स्वास्तिक का उपयोग आपको बौद्ध, जैन धर्म और हड़प्पा सभ्यता तक में भी देखने को मिलेगा। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को "बेहद शुभ हो" और "अच्छे कर्म" का प्रतीक माना जाता है।
स्वास्तिक का अर्थ -
स्वास्तिक शब्द मूलभूत 'सु+अस' धातु से बना है। 'सु' का अर्थ कल्याणकारी एवं मंगलमय है,' अस 'का अर्थ है अस्तित्व एवं सत्ता। इस प्रकार स्वास्तिक का अर्थ हुआ ऐसा अस्तित्व, जो शुभ भावना से भरा और कल्याणकारी हो। जहाँ अशुभता, अमंगल एवं अनिष्ट का लेश मात्र भय न हो। साथ ही सत्ता,जहाँ केवल कल्याण एवं मंगल की भावना ही निहित हो और सभी के लिए शुभ भावना सन्निहित हो इसलिए स्वास्तिक को कल्याण की सत्ता और उसके प्रतीक के रूप में निरूपित किया जाता है।
भारतीय वेदों से स्वास्तिक का आशय -
ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है।
विभिन्न धर्म और स्वास्तिक-
ये चिन्ह हिन्दू धर्म के आलावा और भी धर्मों ने अपनाया है |जैसे स्वस्तिक का चिन्ह भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में देखने को मिल जायेगा।स्वास्तिक बौद्ध सिंबल है। स्वस्तिक मतलब अतः दिपः भवः। बुद्ध ने कहा खुद पर भरोसा करो, किसी वेदों पर या देवी देवताओं पर नहीं। स्व आस्तिक मतलब खुद पर भरोसा करना। इसके अलावा जैन धर्म की बात करें, तो जैन धर्म में यह सातवां जिन का प्रतीक है, जिसे तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं।तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है।स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।इसी प्रकार कहा जाता है कि हड़प्पा सभ्यता की खुदाई की गई तो वहां से भी स्वास्तिक का चिन्ह निकला था।
हिटलर के स्वास्तिक और हमारे स्वास्तिक में क्या है अंतर -
प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ��र संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। जर्मनी के तानाशाह हिटलर के ध्वज में यही 'वामावर्त स्वस्तिक' अंकित था|आपको किसी मांगलिक कार्य के दौरान अगर कोई स्वास्तिक चिह्न दिखे तो जानिए कि वो दक्षिणावर्त है| नाज़ी सेना द्वारा यूज़ किया गया स्वास्तिक वामावर्त था| दक्षिणावर्त वाले चिह्न को स्वास्तिक और वामावर्त वाले को सौवास्तिक कहा जाता है| सौवास्तिक का यूज़ आपको बौद्ध धर्म में भी दिखता है|
स्वास्तिक बनाने का सही तरीका क्या है ?
ज्योतिषी और वास्तु विद बताते हैं कि स्वास्तिक बनाने के लिए हमेशा लाल रंग के कुमकुम, हल्दी अथवा अष्टगंध, सिंदूर का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले धन (प्लस) का चिन्ह बनाना चाहिए और ऊपर की दिशा ऊपर के कोने से स्वास्तिक की भुजाओं को बनाने की शुरुआत करनी चाहिए।आप अक्सर लाल या पीले रंग के स्वास्तिक को बना हुआ ही देखते होंगे, लेकिन कई जगह आपको काले रंग से बना हुआ स्वास्तिक भी दिखाई देता है। इसमें घबराने की बात नहीं है, बल्कि काले रंग के कोयले से बने स्वास्तिक को बुरी नजर से बचाने का उपाय माना जाता है।
स्वास्तिक से मिलते -जुलते चिन्ह कई देशों में क्या है अर्थ -से
फ़्रांस में घुड़सवारी का यह भावचित्र एक सड़क-चिह्न है जापान में यह भावचित्र 'पानी' का अर्थ देता है भारत का स्वस्तिक भावचित्र 'शुभ' का अर्थ देता है चित्रलिपि ऐसी लिपि को कहा जाता है जिसमें ध्वनि प्रकट करने वाली अक्षरमाला की बजाए अर्थ प्रकट करने वाले भावचित्र (इडियोग्रैम) होते हैं। यह भावचित्र ऐसे चित्रालेख चिह्न होते हैं जो कोई विचार या अवधारणा (कॉन्सॅप्ट) व्यक्त करें। कुछ भावचित्र ऐसे होते हैं कि वह किसी चीज़ को ऐसे दर्शाते हैं कि उस भावचित्र से अपरिचित व्यक्ति भी उसका अर्थ पहचान सकता है, मसलन 'छाते' के लिए छाते का चिह्न जिसे ऐसा कोई भी व्यक्ति पहचान सकता है जिसने छाता देखा हो। इसके विपरीत कुछ भावचित्रों का अर्थ केवल उनसे परिचित व्यक्ति ही पहचान पाते हैं, मसलन 'ॐ' का चिह्न 'ईश्वर' या 'धर्म' की अवधारणा व्यक्त करता है और '६' का चिह्न छह की संख्या की अवधारणा व्यक्त करता है। हमारा उद्देश्य रहता है की आपको हमेशा कोई नया नजरिया प्रस्तुत कर सके | आपको अच्छा लगे तो हमे जरूर अवगत कराया |
#हिटलर के स्वास्तिक और हमारे स्वास्तिक में क्या है अंतर#हड़प्पासभ्यताकीखुदाई#हड़प्पासभ्यता#स्वास्तिकसेमिलतेजुलतेचिन्हकईदेशोंमेंक्याहैअर्थ#स्वास्तिकशब्दमूलभूत#स्वास्तिक बनानेकासहीतरीकाक्याहै#स्वास्तिककोकल्याणकीसत्ता#स्वास्तिककोअष्टमंगलका मुख्यप्रतीक#स्वास्तिककाचिन्हनिकला#स्वास्तिककाअर्थहुआऐसाअस्तित्व#स्वास्तिककाअर्थ#स्वास्तिकएकचिन्हऔरकाल#स्वास्तिक एकचिन्ह#स्वस्तिकमतलबअतःदिपःभवः#स्वस्तिकफोटो#स्वस्तिकचिन्हकैसेबनाये#स्वस्तिकचिन्हकामहत्व#स्वस्तिककोसूर्य काप्रतीकमानागया#स्वस्तिककीउत्पत्ति#सौवास्तिक#प्रयोगसु'काअर्थकल्याणकारी#शुभचिन्ह#विभिन्नधर्मऔरस्वास्तिक#वामावर्तस्वस्तिक#येचिन्हहिन्दूधर्म#भारतीयसंस्कृति मेंस्वस्तिककोमंगलप्रतीक#भारतीयवेदोंसेस्वास्तिककाआशय#बौद्धधर्ममेंस्वास्तिक#बेहदशुभहो#पुरातत्वविभाग
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प्रसिद्ध गायक और कंपोजर कैलाश खेर आज (मंगलवार, 7 जुलाई) को 47 साल के हो गए। इस मौके पर उन्होंने दैनिक भास्कर के साथ खास बातचीत करते हुए अपने जीवन संघर्ष से जुड़ीकई खास बातें शेयर कीं। इस दौरान उन्होंने म्यूजिक माफिया का मुद्दा उठाते हुए, उन पर एग्रीमेंट के जरिएनए कलाकारों के कई साल बर्बाद करने का आरोप भी लगाया। कैलाश ने बताया कि मैं तो अपना एल्बम बनाने के लिए मुंबई आया था।
उन्होंने कहा, 'मैं गाने लिखता हूं, बनाता हूं और धुन भी खुद बनाता हूं। लेकिन इन सभी चीजों को एक साथ किस तरह से लाया जाए वो मुझे नहीं आता था और इसी कारण मैं मुंबई आया था। मेरे पास सारी चीजें थीं, लेकिन इन सभी को एक साथ लाकर किस तरह से एक बेहतरीन गाना बनाया जाए उसकी खोज में मैं मुंबई आया था।'
मैं अलग तरह का म्यूजिक बनाने आया था
कैलाश ने कहा, 'लोगों को लगता है कि अगर कोई किसी दूसरे शहर या गांव से आया है तो वह फिल्मों में गाना गाने के लिए आया होगा या उसके लिए म्यूजिक बनाने के लिए आया होगा लेकिन मैं यहां पर एक अलग तरह का गाना और एक अलग तरह का म्यूजिक बनाने आया था, जो फिल्मों का संगीत नहीं होता।'
'अगर हम भारतीय संगीत की बात करें तो वह काफी तरह का है। उसमें एक फिल्मी संगीत भी है लेकिन फिल्मी संगीत ही केवल सारा भारतीय संगीत नहीं होता, यही बताना मेरा मिशन था। जो मेरे गाने 'तेरी दीवानी' से शुरू हुआ। अगर 'अल्लाह के बंदे' की बात करें तो वह गाना ईश्वर को इतना पसंद आया कि हर किसी ने उसे बहुत प्यार दिया और मेरा नाम हो गया।'
4 साल बाद पूरा हुआ कैलाश का सपना
उन्होंने कहा, 'मैं जिस एल्बम को बनाने के लिए मुंबई आया था, मेरे फेमस होने पर मेरी वह एल्बम भी बनी। लेकिन उसके लिए 4 साल लग गए। मेरे 15 साल के करियर में मैंने पंद्रह सौ गाने गाए हैं जिनमें तकरीबन ढाई सौ के करीब नॉन फिल्मी गाने हैं जिन्हें लोगों ने बहुत प्यार दिया है।
'जब मैं प्रसिद्ध हो गया, तब मुझे एक म्यूजिक कंपनी से कॉल आया कि हम आपका एल्बम बनाने के लिए तैयार हैं। अगर किसी शख्स को यह समझना हो कि वह कामयाब हो रहा है तो इसका संकेत तब मिलता है जब बिजनेस करने वाले लोग खुद आपके साथ काम करना चाहें और आपको कॉल कर बुलाने लगें।'
करियर की शुरुआत में आई बहुत दिक्कतें
आगे कैलाश ने करियर के दौरान आने वाली दिक्कतों के बारे में बताते हुए कहा, 'करियर की शुरुआत में आप सबसे पहले एग्रीमेंट में फंसते हैं। म्यूजिक इंडस्ट्री के एजेंट जिन्हें सेलिब्रिटी मैनेजर के नाम से भी जाना जाता है, वे हर आर्टिस्ट से यह वादा करते हैं कि वे उन्हें ब्रेक दिलाएंगे, उन्हें गाने का मौका दिलाएंगे। और जब आप किसी नए शहर में आते हैं, तो आपके पास उन लोगों पर भरोसा करने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं बचता, और आपके 4-5 साल इसी तरह बर्बाद हो जाते हैं।
कैलाश ने बताया 'जब मैं 22-23 साल का था, तब दिल्ली में अपना बिजनेस करता था। उस उम्र में आपकी इच्छाएं ज्यादा होती हैं और आप लोगों से भी ज्यादा उम्मीद रखते हैं। लेकिन उसी दौरान इमोशनल लेवल पर मैं काफी डिस्टर्ब हो गया जिसके बाद मैं अपनी एल्बम बनाने के लिए मुंबई आ गया। हालांकि यहां का स्ट्रगल मुझे कम लगा, क्योंकि उससे ज्यादा तो मैं अपने निजी जीवन में ��ेल चुका था।'
जीवन में आई नकारात्मकता के बारे में बताते हुए कैलाश ने कहा, 'उस वक्त मेरे मन में एक ख्याल रहता था कि अगर मैं यहां पर भी कामयाब नहीं हुआ तो समंदर में कूद कर अपनी जान दे दूंगा। इससे पहले भी एक बार मैंने गंगा नदी में कूद कर जान देने की योजना बनाई थी, लेकिन जब वहां पहुंचा, तो पता नहीं मुझे क्या ख्याल आया और मैं लौट आया था।'
'मेरे मन में ये ख्याल भी आता था कि अगर मैंने अपनी जान दे दी तो मैं अपने माता-पिता, अपने परिवार को कैसे साबित कर पाऊंगा कि आप अपनी विफलता के बाद भी अपनी मेहनत से सफलता हासिल कर सकते हैं। शायद यही कारण है कि आज मैं यहां तक पहुंच पाया हूं। इस बार मैं 5 नये सिंगरों को मौका दे रहा हूं। और इस बार ये शो वूट पर आने वाला है और इसे राजू श्रीवास्तव होस्ट करने वाले हैं।'
इस तरह हुई 'नई उड़ान' की शुरुआत
आगे उन्होंने कहा, 'जब मैं कुछ संभला तो मैंने एक प्रतिज्ञा ली कि अब से मैं अपने जन्मदिन पर कुछ नए कलाकारों को मौका दूंगा ताकि उन्हें मेरी तरह या मेरे जैसे अनेकोंकलाकारों की तरह ज्यादा स्ट्रगल नहीं करना पड़े। जिसके बादमैंने 'नई उड़ान' शुरू किया, जिसमें मैं अपने हर जन्मदिन पर कुछ नए कलाकारों को अवसर देता हूं, उन्हें मौका देता हूं लोगों के सामने अपने गाने प्रस्तुत करने का और पिछले 4 सालों से यही चलता आ रहा है।'
'मुंबई आने से पहले तक मैंने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया था। यहां आने के बाद शुरुआत में कुछ दोस्तों ने जन्मदिन मनाना शुरू किया, जो कि मुझे पसंद नहीं आया, क्योंकि मुझे लगता था कोई मुझे गाइड कर रहा है और मैं एक बेवकूफ की तरह किए जा रहा हूं।'
'कुछ समय बाद मैंने प्रण ले लिया कि अब मैं अपना जन्मदिन केक काटकर नहीं बनाऊंगा बल्कि नए कलाकारों को मौका देकर उनकी कामयाबी का रास्ता आसान बनाने में उनकी सहायता करते हुए उन्हें आगे बढ़ने का मौका दूंगा ताकि उन्हें ज्यादा स्ट्रगल और कॉन्टेक्ट बाजी में फंसना ना पड़े।' म्यूजिक कंपनियां बहुत परेशान करती हैं
स्ट्रगल के बारे में बताते हुए कैलाश ने कहा, 'कई बार ऐसा हुआ है कि हम कई म्यूजिक कंपनियों के पास गए और रिजेक्शन झेलना पड़ा। मैं एक कंपनी का नाम तो नहीं लूंगा लेकिन बताना चाहूंगा कि जब हम अपने गानों के साथ उस कंपनी में गए तो साफ-साफ कोई भी चीज नहीं बताई जाती थी। काफी देर इंतजार कराया जाता था, लेकिन हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर रिजेक्ट कर दिया जाता था।'
एग्रीमेंट करके कई साल बर्बाद कर देती हैं
'म्यूजिक कंपनियां आपके कई साल एग्रीमेंट में बांधकर बर्बाद कर देती हैं और आपको काम ही नहीं देतीं। यदि आप खुद से कहीं परफॉर्म करने जाते हैं या काम करते हैं, तो वही कंपनियां उन्हें नोटिस भेजती हैं कि जिस सिंगर से आप गवाना चाहते हैं, वह हमारे कंपनी के सिंगर हैं आप हमारी इजाजत के बिना उनसे काम नहीं करवा सकते और ना ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर सकते हैं और यही कारण है कि मैंने 'नई उड़ान' की शुरुआत की। ताकि नए सिंगर्स को मौका मिले और वो आर्टिस्ट मैनेजर और एग्रीमेंट में ना फंसे।'
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Kailash Kher also raised the issue of music mafia, said - Music companies waste many years by signing an agreement.
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सावधान आपकी जीभ भी देती है रोगों की चेतावनी
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सावधान आपकी जीभ भी देती है रोगों की चेतावनी
ईश्वर का नाम जपने से वाणी को पवित्र होना बताया गया है । जीभ मुंह के भीतर स्थित है l यह पीछे की ओर चौड़ी और आगे की ओर पतली होती है। यह मांसपेशियों की बनी होती है l इसका रंग लाल होता है l इसकी ऊपरी सतह को देखने पर हमें कुछ दानेदार उभार दिखाई देते हैं, जिन्हें स्वाद कलिकाएं कहते है l जीभ पर मैल जैम जाने के कारण खाध पदार्थों के अणु स्वाद कलिकाओं तक आसानी से पहुंच नहीं पाते इसलिए हमें खाध पदार्थों का स्वाद बदला-बदला लगता हैं l ये स्वाद कलिकाएं कोशिकाओं से बनी हैं
जीभ शरीर का वह अंग है जिसे वैद्य डॉक्टर जांच कर बता देते हैं कि सामने वाले को क्या रोग है या होने वाला है। क्योंकि जीभ पर जमी मैल की परत कई रोगों की सूचक होती है ।
1) जीभ में सूजन – यह किसी गंभीर स्वास्थ्य परेशानी की सूचना देता है। यह जीभ के कैंसर होने का भी पूर्व संकेतक हो सकता है। इसके अलावा यह थाइरॉयड, ग्लूकोमिया, एनीमिया आदि का लक्षण भी हो सकता है।
2) ज्वर के तेज होने पर जीभ सुखी और पतली हो जाती है। अगर आपकी जीभ का रंग गहरा यानि लालपन लिए हुए है, तो यह आपके खून में गर्मी की ओर इशारा करता है। किसी तरह का इंफेक्शन, चोट या फिर बुखार होने पर भी जीभ का रंग गहरा हो जाता है।
3) जीभ पर सफेद मोती जूही उदर रोगों का परिचायक होती है। अगर आपकी जीभ पर सफेद या पीले रंग की मोटी परत जमी हो, तो यह सर्दी, वायरल इंफेक्शन या शारीरिक गर्मी का संकेत हो सकता है।
4) जीभ के मोटे भाग पर दांत के निशान का बनना आमाशय की खराबी को जताता है। टाइफाइड ज्वर में जीभ के किनारे और जीभ के बीचो बीच लाल सुखी लकीर सी होती है । जीभ में सूजन – यह किसी गंभीर स्वास्थ्य परेशानी की सूचना देता है। यह जीभ के कैंसर होने का भी पूर्व संकेतक हो सकता है।
5) जीभ जब हिलती डुलती ना हो और कापती हो तो यह मस्तिष्क रोग को दर्शाती है। यदि जीप सुखी सुखी सी हो तो वह वायु विकार की सूचक होती है।
6) जीभ पर मोटी और पीली परत का जमुना पित्त विकार को दर्शाता है । जीभ के आखिरी भाग पर सफेद तरह का जमना सख्त कब्ज की निशानी को बताता है।
7) जीभ खाली एक ही तरफ घूमे और दूसरी तरफ ना घूमें तो यह जीभ/ जिव्या का पक्षाघात माना जाता है।
इस प्रकार आप अपनी जीभ/ जिव्या के लक्षणों से वर्तमान एवम भविष्य में होने वाली आध���/व्याधि, आका���/विकार का पूर्वानुमान लगा सकते हैं ।
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काव्यस्यात्मा 824
कवि, कविता सुनाने को परेशान क्यूँ है?
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
कविता का अर्थ होता है विचार। विचारों से होता है सृजन। पूरी सृष्टि विचारों की उत्पत्ति का परिणाम है। विचारों की उत्पत्ति से बनता मन और मन की उत्पत्ति से बनता मनुष्य। इस सृष्टि में हर कारण का कारण यदि ईश्वर है तो उस कारण का सृजनात्मक शक्ति लेकर जन्मा मनुष्य है। इस प्रकार कविता मनुष्य को बनाती है। मनुष्य का मनुष्य होना तय करती है। ऐसा होना जिसमें इस ब्रह्माण्ड का हर कण एक दूसरे को स्पर्श करता है। सितारे, सितारों को स्पर्श करते हैं रेत का एक कण दूसरे कण को स्पर्श करता है। एक-आत्मा का शरीर में जन्म लेना और फिर मृत्यु जैसे अपरिमेय की अनंत चुप्पी को स्पर्श करते हुए लौट जाना है।
इस जीवन और मृत्यु के बीच जो भी हमारा क्षण है, उस क्षण की सूक्ष्म से सूक्ष्म गति को कविता स्पर्श कर चलती है। आंतरिक शाश्वत क्षणभंगुरता के बोध के बीच जीवन की बुनियाद, उसकी धुन के हर छंद को स्पर्श कर बोलना सिखाती है। बोलने की इस साकार रहस्यमयी दुनिया को आवाज़ कविता देती है। वह हमारे भीतर एक अंतर्संवाद पैदा करती है।
ध्यातव्य रहे कि यह सत्य के प्रति स्वयं की यात्रा का दिगंत से प्रस्थान है। कविता तब सार्थक होती है जब हम पूरी दुनिया से कविता की आवाज़ को एक साथ सबके हृदय की धड़कन तक पहुंचा दे। हृदयाकाश में खींच कर रेखाएं कविता के स्वरुप को उतार दे। ऐसा इसलिए क्योंकि कविता आत्मा की धारा की अविरल नदी है, यह मनुष्यता के भीतर-भीतर बहती है। कवि सिर्फ बादल के संघनित जल को धरा को तृप्त करने का अर्थ देते हुए धरातल पर ले आता है। जीवन रूपी झरने से बह चुके जल का प्रबंधन कर उपयोगी बनाता है।
कविता का कारण स्पष्ट है। इस स्पष्टता को केवल कवि ही समझता है। कविता ही सृष्टि की उत्पत्ति की वजह है। यह वेद की तरह अपौरुषेय है। कविता हमारे अंतस् का संकेत है। यह हमें अस्तित्व के उच्चतम शिखर का अहसास कराती रहती है।
अंतस्थ की सुन रहा कवि किसी से कुछ नहीं मांगता वह केवल देना जानता है। वह भी किसी के देह को नहीं बल्कि जिसे देता है उसके आत्म को कविता की ध्वनि से झंकृत कर देता है। कवि व्यापार नहीं करता। वह किसी को अपना उपभोक्ता नहीं बनाता। वह किसी से अपनी कविता के लिए क़ीमत नहीं मांगता। फिर भी एक बड़ा प्रश्न हमेशा से सबके समक्ष उपस्थित रहा है कि कवि कविता सुनाने को परेशान क्यूँ है?
तो हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उसकी परेशानी का कारण यह सृष्टि है। पूरी दुनिया में दुख, बीमारी, घृणा, अवसाद, युद्ध, बम, गोला-बारूद आतंक का व्यापार है। प्रकृति और मनुष्यता को कलंकित करने और रचयिता की रचना की गति के विपरीत एक गति चल रही है। इस गति को रोकना, पूरी मनुष्यता में स्वार्थ की राजनीति और कट्टरता को दूर कर सत्य-सृष्टि की परम सत्ता की आवाज को लोगों को सुनाना और मनुष्य से मनुष्य और सृष्टि के प्राणियों के बीच व्याप्त डर को खत्म करना कविता है।
इस सृष्टि में रहकर उसके साथ मनुष्य ने मनुष्य होने की जो शपथ ली थी, उस शपथ को वह न भूले। उसके साथ किए गए करार को वह पूरा करें। निरंतर जो कविता सृष्टि रच रही है उस कविता में मनुष्य सहभागी बने। जब तक संघर्ष है तब तक रहती है कला। कविता उसी संघर्ष की कलात्मक उपज है। कवि उसी फसल को उगाता रहता है।
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