#पार्थ के समान
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#गुरू_के_लिये_ही_दंडवत_प्रणाम का विंधान क्यों हैं, परमेश्वर के संविधान में...
सवाल :- लोग यह सवाल करते हैं कि आप अपने गुरू को प्रणाम करते हो इस पर हमें कोई आपत्ती नही हैं लेकिन आप अपने जन्म दाता माता पिता को प्रणाम नहीं करते, उनके चरण नहीं छुते,इस पर हमें घोर आपत्ति हैं ? यह बात हमारे समझ से बाहर हैं ।
कहने का तात्पर्य यह हैं कि...
गुरू को ही हम दंडवत प्रणाम क्यों करें ? क्या हम अपने माता पिता को दंडवत प्रणाम नहीं कर सकते हैं ? जबकि माता पिता हमारा प्रथम गुरू हैं।
जवाब :-- इसमें कोई संशय नहीं हैं कि माता पिता हमारा प्रथम गुरू हैं लेकिन वो केवल #प्रथम_गुरू हैं, अंतिम गुरू अथवा सर्व श्रेष्ठ अथवा सतगुरू नहीं हैं,माता पिता हमें काल जाल से मुक्त नहीं करा सकते हैं, भवसागर से पार कराने में वह समरथ नहीं हैं, केवल सच्चा सतगुरू ही भवसागर से हमें पार लगा सकता हैं। अब रही बात हमारे माता पिता की तो पुत्र होने के नाते
माता पिता की आजीवन हमें सेवा करनी हैं और दरअसल यह सेवा ही उनकी पूजा हैं ।
आइये जानते हैं कि प्रमाण के तौर पर हमारे सतग्रंथों में क्या बताया गया हैं ?
गीता ज्ञान दाता प्रभू (21 ब्रम्हांड के स्वामी) #ब्रम्ह अर्थात् काल निरंजन पवित्र गीता जी के ज्ञान देते हुए अर्जुन को कहता हैं कि हें पार्थ ! यदि तुम्हें मेरी शरण में रहना हैं तो मुझे सिर्फ नमस्कार करो (मेरे चरण छुने की आवश्यकता नहीं हैं) लेकिन तुम्हें #पारब्रम्ह_परमेश्वर जो कि मेरा भी ईष्टदेव हैं, उनकी भक्ति करनी हैं और पुर्ण मोक्ष को प्राप्त करना हैं तो ��सकी अध्यात्मिक नॉलेज मेरे पास नहीं हैं,उस यथार्थ अध्यात्मिक नॉलेज अर्थात् #तत्वज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिसे जानने के बाद मनुष्य के लिए और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता हैं,उस तत्वज्ञान को प्राप्त करने के लिए #तत्वदर्शी_सन्त अर्थात् सच्चे सद्गुरू की तलाश करो और मिल जाए तो उन्हें गुरू धारण करो और #उसे_दण्डवत_प्रणाम_करो, फिर वह तत्वदर्शी सन्त तुम्हें परम् पुरूष #रियल_गौड को प्राप्त कराने वाले तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
#सुक्ष्मवेद में बताया हैं कि...
गुरू को कीजे #दंडवत, कोटि कोटि प्रणाम *
कीट ना जाने भृंग ज्यों,यों गुरू करले आप समान **
गुरू को गोविंद कर जानिये,रहिये शब्द समाय *
मिले तो #दंडवत बंदगी,नहीं तो पल पल ध्यान लगाय **
#दंडवतम् गोविंद गुरू,बंदौ अविजन सोय *
पहले भये प्रणाम तिन्ह,नमो जो आगे होय **
(गोविंद गुरू = भगवान तुल्य गुरू को मैं सबसे पहले प्रणाम करता हूं)
कबीर,गुरू बिन माला फेरते,गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुराण।।
अर्थात् बिना सतगुरू धारण किये किये जाने वाले भक्ति और दान दोनों ब्यर्थ हैं
राम कृष्ण से कौन बड़ा,उन्हुं तो गुरू कीन्ह *
तीन लोक के वै धनी, गुरू आगे आधीन्ह **
राम कृष्ण से कौन बड़ा हैं ?
अर्थात् राम कृष्ण से इन तीनों लोकों में कोई भी बड़ा नहीं हैं ।
#निवेदन :- अपने देव दूर्लभ अनमोल मानव जीवन (सुकृत देह) को सफल करने के लिए विजिट करें
"Sant Rampal Ji Maharaj"
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क्या है भक्ति, कैसे करें सुफल भक्ति:
कैसा हो भक्ति का स्वरुप:
भक्ति का आशय भक्त अपने इष्टदेव अथवा देवी, ईश्वर (भगवत व भगवती) के प्रति संपूर्ण समर्पण होता है। अर्थात् सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि भक्त की आत्मा का परमात्मन् की डोर से बंध जाना।
महंत श्री पारस भाई जी की नजरों में भक्ति का तात्पर्य है " स्नेह, लगाव, श्रद्धांजलि, विश्वास, प्रेम, पूजा, पवित्रता, समर्पण "। इसका उपयोग मूल रूप से हिंदू धर्म में एक भक्त द्वारा व्यक्तिगत भगवान या प्रतिनिधि भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम का उल्लेख करते हुए किया गया था।
भक्ति का स्वरुप कैसा होना चाहिए:
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्वार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
संध्यावन्दन, योग, ध्यान, तंत्र, ज्ञान, कर्म के अतिरिक्त भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है। भक्ति भी कई प्रकार ही होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग आदि शामिल हैं। इसे नवधा भक्ति कहते हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्वार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
ध्यान उपासना करने हेतु दिशा:
ध्यान आराधना करते समय भक्त का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। वास्तु शास्त्र के अनुसार उत्तर-पूर्व को उत्तमोत्तम दिशा माना गया है क्योंकि उत्तर-पूर्व को ईशान कोण कहा जाता है ।
वास्तु शास्त्र के अनुसार पूजा गृह में कभी भी पूर्वजों की तस्वीर न तो लगानी चाहिए व ना हीं रखनी चाहिए। भगवान् की किसी प्रतिमा या ��ूर्ति की पूजा करते समय भक्त उपासक का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। यदि पूर्व दिशा में मुंह नहीं कर सकते तो पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पूजा करना भी उचित है।
वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खाना खाने से सभी तरह के रोग मिटते हैं पूर्व दिशा को देवताओं की दिशा माना जाता है तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने से देवताओं की कृपा और आरोग्य की प्राप्ति होती है एवं आयु में वृद्धि होती है।
दक्षिण-पूर्व दिशा में भगवान् के विराट स्वरूप की चित्र लगाएं। यह ऊर्जा का सूचक है। समस्त ब्रह्माण्ड को स्वयं में समाए असीम ऊर्जा के प्रतीक भगवान् श्रीकृष्ण समस्त संसार के भोक्ता हैं.।
भागवत भक्ति क्यों की जाती है:
संक्षेप में हम यह मानते व जानते एवं जानते हैं कि आराधक निज मनोरथ-पूर्ति हेतु ईश्वर (भगवत व भगवती) की भक्ति करते हैं। मनुष्य इसलिए ईश्वर के समीप जाता है कि वह ईश्वर-भक्ति करके अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके। परमेश्वर एक है। गुरु एवं गोविन्द भी एक है।
क्या है भगवान् की भक्ति:
जब भक्त सेवा अथवा आराधना के माध्यम से परमात्मन् से साक्षात संबंध स्थापित कर लेता है तो इसे ही गीता में भक्तियोग कहा गया है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति मर्मवेधी (उत्कट) प्रेम ही भक्ति है। ऋषि शांडिल्य के अनुसार परमात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा ही भक्ति है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति परितस अथवा उत्कट प्रेम होने पर भक्त भगवान् के रङ्ग में ही रंग जाते हैं।
महंत श्री पारस भाई जी के कहा कि जिसके विचारों में पवित्रता हो, साथ ही जो अहंकार से दूर हो और जो सबके प्रति समान भाव रखता हो, ऐसे व्यक्ति की भक्ति सच्ची है और वही सच्चा भक्त है।
भक्त कितने प्रकार के होते हैं:
भक्ति विविध प्रकार की होती है। भक्ति में श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद-सेवन, पूजन-अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग इत्यादि शामिल हैं।
चार तरह के भक्त:
श्रीमद भगवद् गीता के सप्तम अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण पार्थ (अर्जुन) विभिन्न प्रकार के भक्तों के विषय में वर्णन करते हुए कहते हैं कि
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥०७-१६॥
सार: हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इन चारों भक्तों में से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, तथा जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज���ञानी है।
अर्थार्थी: अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य तथा सुख प्राप्त करने के लिए भगवान् का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है एवं ईश्वर का भजन गौण।
आर्त: आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान् को पुकारता है।
जिज्ञासु: जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान् का तत्व जानने एवं उन्हें प्राप्त करने के लिए भजन करता है।
ज्ञानी: आर्त, अर्थार्थी एवं जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं किंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त परमात्मन् के अतिरिक्त कोई अभिलाषा नहीं रखता है। इसलिए परमात्मन् ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवन् स्वयं करते हैं।
चारों भक्तों में से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ:
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥१७॥
अर्थात् परमात्मन् श्रीकृष्णः श्रीमद भगवद् गीता में कुंतीपुत्र अर्जुन (कौन्तेय) से कहते हैं कि
सार: इनमें से जो परमज्ञानी है तथा परमात्मन् की शुद्ध भक्ति में लीन रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं एवं वह मुझे अतिसय प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है वह साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।
कलयुग में भगवान् को कैसे प्राप्त करें:
श्रीमद्भागवत के अनुसार कलयुग दोषों का भंडार है। किन्तु इसमें एक महान सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान् के ध्यान, तप एवं त्रेता युग में यज्ञ-अनुष्ठान, द्वापर युग में आराधक को भक्त तप व पूजा-अर्चन से जो फल प्राप्त होता था, कलयुग में वह पुण्य परमात्मन् श्रीहरिः के नाम-सङ्कीर्तन मात्र से ही सुलभ हो जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी कहते हैं इस कलयुग में शुद्ध भक्ति, प्रेम का वह उच्चतम रूप है जिसका जवाब भगवान बिना शर्त, प्रेम और ध्यान के साथ देते हैं।
कलयुग में चिरजीविन् देव:
वैसे तो महर्षि मार्कण्डेय, दैत्यराज बलि, परशुराम, आञ्जनेय (महावीर्य हनुमन्त् अवा हनुमत्), लङ्केश विभीषण, महर्षि वेदव्यास, कृप व अश्वत्थामन् किन्तु महाबली हनुमन् को समस्त युगों में जगदीश्वर सदाशिवः, चिरजीविन् नारायणः, पितामह ब्रह्मदेव व धर्मराज यमदेव एवं अन्य समग्र देवगणों के आशीर्वचन के अनुसार अतुलित बलधामन् ��नुमन्त् अथवा हनुमत् को चिरजीविन् ��ने रहने का वरदान प्राप्त है। पुरुषोत्तम श्रीरामः ने भी निज साकेत लोक में जाने के पूर्व आञ्जनेय को चिरजीविन् रहने का वरदान दिया था।
गोसाईं तुलसीदास जी रामायण में लिखते हैं कलियुग में भी हनुमान् जी न केवल जीवंत रहेंगे अपितु चिरजीविन् बने रहेंगे एवं उनकी कृपा से ही उन्हें (महात्मा तुलसीदास) पुरुषोत्तम श्रीराम व लक्ष्मण जी के साक्षात दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्हें सीताराम जी से आशीर्वाद स्वरूप अजर अमर होने का वर प्राप्त है।
हनुमान् जी का वास स्थान:
कहते हैं कि कलियुग में आञ्जनेय (हनुमन्त्) गन्धमादन (गंधमादन) गिरि पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है। उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पाण्डव (महाराज पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव व द्रौपदी सहित गंधमादन पर्वत के निकट पहुंचे थे।
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🚩 श्रीमद्भगवद्गीता जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं......3 December 2022
🚩दुनियाभर में श्रीमद्भगवद्गीता को ही सर्वश्रेष्ठ क्यों माना जाता है ? जानिए:-
🚩श्रीमद्भगवद्गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि जिसकी रचना हुए हजारों साल हो गए हैं, पर उसके बाद भी उसके समान किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं हुई है। 18 अध्याय एवं 700 श्लोकों में रचित तथा भक्ति, ज्ञान, योग एवं निष्कामता आदि से भरपूर यह गीता ग्रन्थ विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयंती मनायी जाती है।
🚩श्रीमद्भगवद्गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की, अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही है। गीता जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है और युद्ध जैसे घोर कर्मों में भी निर्लेप रहने की कला सिखाती है। मरने के बाद नहीं, जीते-जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता!
🚩‘गीता’ में 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं, 94569 शब्द हैं। विश्व की 578 से भी अधिक भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है।
🚩’यह मेरा हृदय है’- ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा है तो वह गीताजी हैं। ‘गीता मे हृदयं पार्थ।- गीता मेरा हृदय है।’
🚩गीता ने गजब कर दिया- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे… युद्ध के मैदान को भी धर्मक्षेत्र बना दिया। युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया। हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ता से उदास बैठे हुए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं।
🚩आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जब फाँसी की सजा दी जाती थी, तब ‘गीता’ के ही श्लोक बोलते हुए वे हँसते-हँसते फाँसी पर लटक जाते थे।
🚩श्री वेदव्यास ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरान्त कहा हैः
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।
🚩‘गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्री गीता को भली प्रकार पढ़��र अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ विष्णु भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई है, फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है?’
🚩गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है। इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। गीता का भलीभाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने आप हो सकता है। उसके लिए अलग से परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती।
🚩वराहपुराण में गीता की महिमा का बयान करते-करते भगवान ने स्वयं कहा हैः
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्यत्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्।।
🚩‘मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ। गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।’
🚩श्रीमद्भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है। चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करे तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं।
🚩श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, सरलता, स्नेह, शांति और धर्म आदि दैवी गुण सहज में ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता ग्रन्थ पूरे विश्व में अद्वितीय है।
🚩सशरीर स्वर्ग में जाकर शस्त्र ले आने की क्षमता वाले अर्जुन को भी गीता के अमृत के बिना किंकर्त्तव्यविमूढ़ता ने घेर रखा था। गीता माता ने अर्जुन को सशक्त बना दिया। गीता माता अहिंसक पर वार नहीं कराती और हिंसक व्यक्तियों के आगे हमें डरपोक नहीं होने देती।
देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।
न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।
हस्तात्त्यक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।
🚩भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता है तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान कर��े मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।
🚩विदेशों में श्री गीता��ी का महत्व समझकर स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने लगे हैं, भारत सरकार भी अगर बच्चों एवं देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है तो सभी स्कूलों, कॉलेजों में गीता अनिवार्य कर देना चाहिए।
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‘कसौटी जिंदगी के 2’ पार्थ समथान ने पहली बारिश के कुछ ऐसे लिए मजे टीवी सीरियल & # 039; कसौटी जिंदगी के 2 & # 039; (कसौटी ज़िन्दगी के 2) में अनुराग बासु का किरदार अदा करने वाले एक्टर पार्थ समपान अक्सर किसी न किसी कारण से खबरों में बने रहते हैं। हाल ही में कोरोनाईरस की ...। Image Source link
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 4.11 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ४.११ ॥ TRANSLATION जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ । हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है । PURPORT प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण को उनके विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है । भगवान् श्रीकृष्ण को अंशतः उनके निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण-कण में रहने वाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है, लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं । फलतः कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं । दिव्य जगत् में भी कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों के साथ दिव्य भाव से विनिमय करते हैं जिस तरह कि भक्त उन्हें चाहता है । कोई एक भक्त कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है, दूसरा अपने सखा के रूप में, तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में । कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं । भौतिक जगत् में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियाँ होती हैं और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं । शुद्ध भक्त यहाँ पर और दिव्यधाम में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा कर सकते हैं । इस तरह वे उनकी प्रेमाभक्ति का दिव्य आनन्द प्राप्त कर सकते हैं । किन्तु जो निर्विशेषवादी सच्चिदानन्द भगवान् को स्वीकार नहीं करते, फलतः वे अपने व्यक्तित्व को मिटाकर भगवान् की दिव्य सगुन भक्ति के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते । उनमें से कुछ जो निर्विशेष सत्ता में दृढ़तापूर्वक स्थित नहीं हो पाते, वे अपनी कार्य करने की सुप्त इच्छाओं को प्रदर्शित करने के लिए इस भौतिक क्षेत्र में वापस आते हैं । उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने नहीं दिया जाता, किन्तु उन्हें भौतिक लोक के कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाता है । जो सकामकर्मी हैं, भगवान् उन्हें यज्ञेश्र्वर के रूप में उनके कर्मों का वांछित फल देते हैं । जो योगी हैं और योगशक्ति की खोज में रहते हैं, उन्हें योगशक्ति प्रदान करते हैं । दुसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति की विधियाँ एक ही पथ में सफलता की विभिन्न कोटियाँ हैं । अतः जब तक कोई कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि तक नहीं पहुँच जाता तब तक सारे प्रयास अपूर्ण रहते हैं, जैसा कि श्रीमद्भागवत में (२.३.१०) कहा गया है – अकामः सर्वकामो व मोक्षकाम उदारधीः । तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ “मनुष्य चाहे निष्काम हो या फल का इच्छुक या मुक्ति का इच्छुक ही क्यों न हो, उसे पूरे सामर्थ्य से भगवान् की सेवा करनी चाहिए जिससे उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके, जिसका पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है ।” ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 4.11 ye yathā māṁ prapadyante tāṁs tathaiva bhajāmy aham mama vartmānuvartante manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ TRANSLATION As all surrender unto Me, I reward them accordingly. Everyone follows My path in all respects, O son of Pṛthā. PURPORT Everyone is searching for Kṛṣṇa in the different aspects of His manifestations. Kṛṣṇa, the Supreme Personality of Godhead, is partially realized in His impersonal brahma-jyotir effulgence and as the all-pervading Supersoul dwelling within everything, including the particles of atoms. But Kṛṣṇa is fully realized only by His pure devotees. Consequently, Kṛṣṇa is the object of everyone’s realization, and thus anyone and everyone is satisfied according to one’s desire to have Him. In the transcendental world also, Kṛṣṇa reciprocates with His pure devotees in the transcendental attitude, just as the devotee wants Him. One devotee may want Kṛṣṇa as supreme master, another as his personal friend, another as his son and still another as his lover. Kṛṣṇa rewards all the devotees equally, according to their different intensities of love for Him. In the material world, the same reciprocations of feelings are there, and they are equally exchanged by the Lord with the different types of worshipers. The pure devotees both here and in the transcendental abode associate with Him in person and are able to render personal service to the Lord and thus derive transcendental bliss in His loving service. As for those who are impersonalists and who want to commit spiritual suicide by annihilating the individual existence of the living entity, Kṛṣṇa helps also by absorbing them into His effulgence. Such impersonalists do not agree to accept the eternal, blissful Personality of Godhead; consequently they cannot relish the bliss of transcendental personal service to the Lord, having extinguished their individuality. Some of them, who are not firmly situated even in the impersonal existence, return to this material field to exhibit their dormant desires for activities. They are not admitted into the spiritual planets, but they are again given a chance to act on the material planets. For those who are fruitive workers, the Lord awards the desired results of their prescribed duties, as the yajñeśvara; and those who are yogīs seeking mystic powers are awarded such powers. In other words, everyone is dependent for success upon His mercy alone, and all kinds of spiritual processes are but different degrees of success on the same path. Unless, therefore, one comes to the highest perfection of Kṛṣṇa consciousness, all attempts remain imperfect, as is stated in the Śrīmad-Bhāgavatam (2.3.10): akāmaḥ sarva-kāmo vā mokṣa-kāma udāra-dhīḥ tīvreṇa bhakti-yogena yajeta puruṣaṁ param “Whether one is without desire [the condition of the devotees], or is desirous of all fruitive results or is after liberation, one should with all efforts try to worship the Supreme Personality of Godhead for complete perfection, culminating in Kṛṣṇa consciousness.” -----
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मरहठा छंद "कृष्ण लीलामृत"
धरती जब व्याकुल, हरि भी आकुल, हो कर लें अवतार। कर कृपा भक्त पर, दुख जग के हर, दूर करें भू भार।। द्वापर युग में जब, घोर असुर सब, देन लगे संताप। हरि भक्त सेवकी, मात देवकी, सुत बन प्रगटे आप।।
यमुना जल तारन, कालिय कारन, जो विष से भरपूर। कालिय शत फन पर, नाचे जम कर, किया नाग-मद चूर।। दावानल भारी, गौ मझधारी, फँस कर व्याकुल घोर। कर पान हुताशन, विपदा नाशन, कीन्हा माखनचोर।।
विधि माया कीन्हे, सब हर लीन्हे, गौ अरु ग्वालन-बाल। बन गौ अरु बालक, खुद जग-पालक, मेटा ब्रज-जंजाल।। ब्रह्मा इत देखे, उत भी पेखे, दोनों एक समान। तुम प्रभु अवतारी, भव भय हारी, ब्रह्म गये सब जान।।
ब्रज विपदा हारण, सुरपति कारण, आये जब यदुराज। गोवर्धन धारा, सुरपति हारा, ब्रज का साधा काज। मथुरा जब आये, कुब्जा भाये, मुष्टिक चाणुर मार। नृप कंस दुष्ट अति, मामा दुर्मति, वध कर दी भू तार।।
शिशुपाल हने जब, अग्र-पूज्य तब, राजसूय था यज्ञ। भक्तन के तारक, दुष्ट विदारक, राजनीति मर्मज्ञ।। पाण्डव के रक्षक, कौरव भक्षक, छिड़ा युद्ध जब घोर। बन पार्थ शोक हर, गीता दे कर, लाये तुम नव भोर।।
ब्रज के तुम नायक, अति सुख दायक, सबका देकर साथ। जब भीड़ पड़ी है, विपद हरी है, आगे आ तुम नाथ।। हे कृष्ण मुरारी! जनता सारी, विपदा में है आज। कर जोड़ सुमरते, विनती करते, रखियो हमरी लाज।
मरहठा छंद विधान -
मरहठा छंद प्रति पद कुल 29 मात्रा का सम-पद मात्रिक छंद है। इसमें यति विभाजन 10, 8,11 मात्रा का है। मात्रा बाँट:- प्रथम यति 2+8 =10 मात्रा द्वितीय यति 8, तृतीय यति 8+3 (ताल यानि 21) = 11 मात्रा अठकल में दो चौकल या 3+3+2 लिये जा ��कते हैं। अठकल चौकल के सब न��यम लगेंगे।
मरहठा छंद "कृष्ण लीलामृत"
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एकलव्य :महाभारत का महाउपेक्षित महायोद्धा
महाभारत में अर्जुन , भीम , भीष्म पितामह , गुरु द्रोणाचार्य , कर्ण , जरासंध , शिशुपाल अश्वत्थामा आदि पराक्रमी योद्धाओं के पराक्रम के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। किसी भी साधारण पुरुष के बारे में पूछें तो इनके बारे में ठीक ठाक जानकारी मिल हीं जाती है।
एक कर्ण को छोड़कर बाकि जितने भी उक्त महारथी थे उनको अपने समय उचित सम्मान भी मिला था । यद्यपि कर्ण को समाज में उचित सम्मान नहीं मिला था तथापि उसे अपने अपमान के प्रतिशोध लेने का भरपूर मौका भी मिला था ।
भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण को कौरव सेना का सेनापति भी नियुक्त किया था। महार्षि वेदव्यास ने भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह हीं महाभारत के एक अध्याय को कर्ण में नाम पर समर्पित किया था और इसे कर्ण पर्व के नाम से भी जाना जाता है।
इन सबकी मृत्यु कब और कैसे हुई , इसकी जानकारी हर जगह मिल हीं जाएगी , परन्तु महाभारत का एक और महान योद्धा जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण , जरासंध , शिशुपाल आदि जैसे महारथियों के समकक्ष माना , उसे महाभारत ग्रन्थ के महज कुछ पन्नों में समेट दिया गया । आइये देखते हैं कि महाभारत का वो महावीर और महा उपेक्षित योद्धा कौन था ?
महाभारत ग्रन्थ के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में इस महायोद्धा का वर्णन जरासंध आदि महारथियों के साथ आता है । जब अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से ये पूछते हैं कि उन्होंने पांडवों की सुरक्षा के लिए कौन कौन से उपाय किये , तब अध्याय एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ,अर्थात अध्याय संख्या 181 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जरासंध आदि योद्धाओं के वध के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 1 की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती हैं ।
अर्जुन उवाच कथमस्मद्धितार्थ ते कैश्च योगैर्जनार्दन।
जरासंधप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः ॥1॥
अर्जुन ने पूछा जनार्दन, आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन किन उपायों से जरासंध आदि राजाओं का वध कराया है ? ॥1॥
श्रीवासुदेव उवाच जरासंधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानी स्युर्भयंकराः ॥2॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन , अगर जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य आदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते ॥2॥
दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने क�� कारण निश्चय ही वो कौरवों का पक्ष लेते ॥3॥
ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः।
धार्तराष्ट्रां चमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव ॥4॥
वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़ता पूर्वक युद्ध करनेवाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे ॥4॥
सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः।
सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमिमाम् ॥5॥
सूतपुत्र कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते ॥5॥
योगैरपि हता यैस्ते तन्मे शृणु धनंजय ।
अजय्या हि विना योगैमधे ते दैवतैरपि ॥6॥
धनंजय , वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें मैं बतलाता हूँ, मुझसे सुनो। बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे ॥6॥
एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम् ।
योधयेत् समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम् ॥7॥
कुन्तीनन्दन , उनमें से अलग अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समराङ्गण में अकेला ही युद्ध कर सकता था॥7॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि अध्याय 181 के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 7 तक भगवान श्रीकृष्ण पांडव के 4 महारथी शत्रुओ के नाम लेते हैं जिनके नाम कुछ इस प्रकार है कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य।
यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने निषादनन्दन एकलव्य का नाम कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल जैसे महावीरों के साथ लिया है और आगे ये भी कहा है कि ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते।
फिर एक एक करके इन सब शत्रुओ के वध के उपाय के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 8 से श्लोक संख्या 16 तक भीम द्वारा महाबली जरासंध के साथ मल्लयुद्ध तथा फिर भीम द्वारा जरासंध के वध के में बताते हैं ।
जरासंध के वध के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह निकलकर आती है कि भीम के साथ उसके युद्ध होने के कछ दिनों पहले उसका श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के साथ भी युद्ध हुआ था जिसमे कि जरासंध का गदा टूट गया था। जरासंध अपने उस गदा के साथ लगभग अपराजेय हीं था।
अगर भीम को जरासंध के साथ उस गदा के साथ युद्ध करना पड़ता तो वो उसे कभी जीत नहीं सकते थे। जरासंध के गदा विहीन होने के कारण हीं श्रीकृष्ण द्वारा सुझाए गए तरीके का अनुसरण करने पर भीम जरासंध का वध कर पाते हैं । आगे के श्लोक संख्या 17 से श्लोक 21 तक निषादनन्दन एकलव्य के पराक्रम और फिर आगे शिशुपाल के बारे में भगवान श्रीकृष्ण चर्चा करते हैं।
त्वद्धितार्थ च नैषादिरअष्ठेन वियोजितः।
द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः ॥ 17॥
तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्य पराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छल पूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था ॥17॥
स तु बद्धा१लित्राणो नेषादिदृढविक्रमः।
अतिमानी वनचरो बभौ राम इवापरः ॥18॥
सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था॥18॥
एकलव्यं हि साङ्गुष्ठमशका देवदानवाः ।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित् ॥19॥
भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बचपन में घटी उस घटना का जिक्र करते हैं जब छल द्वारा गुरु द्रोणाचार्य ने उससे उसका अंगूठा मांग लिया था। शायद यही कारण है कि कृष्ण एकलव्य के बारे में बताते हैं कि वो हाथ में दस्ताने पहनकर वन में विचरता था। अंगूठा कट जाने के कारण एकलव्य शायद अपने हाथों को बचाने के लिए ऐसा करता होगा।
एकलव्य के बचपन की कहानी कुछ इस प्रकार है। निषाद पुत्र एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण करना चाहता था , परन्तु जाति व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़े हुए सामाजिक व्यवस्था के आरोपित किए गए बंधन के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अस्त्र और शस्त्रों का ज्ञान देने से मना कर दिया था।
एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों कौरवों और पांडवों के साथ वन में भ्रमण करने को निकले तो उनके साथ साथ पांडवों का पालतू कुत्ता भी चल रहा था। वो कुत्ता इधर उधर घूमते हुए वन में उस जगह जा पहुंचा जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। एकलव्य को धनुर्विद्या का अभ्यास करते देख वो जोर जोर से भौंकने लगा।
घटना यूं घटी थी कि गुरु द्रोणाचार्य के मना करने पर एकलव्य ने हार नहीं मानी और गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर , उन्हीं को अपना गुरु बना लिया और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। उस समय जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था तो पांडवों का वो ही पालतू कुत्ता बार बार भौंक कर उसके अभ्यास में विघ्न पैदा करने लगा।
मजबूर होकर एकलव्य ने उस कुत्ते की मुख में वाणों की ऐसी वर्षा कर दी कि कुत्ते का मुख भी बंद हो गया और कुत्ते को कोई चोट भी नहीं पहुंची । उसकी ऐसी प्रतिभा देखकर सारे पांडव जन , विशेषकर अर्जुन बहुत चिंतित हुए क्योकि उस तरह वाणों के चलाने की निपुणता तो अर्जुन में भी नहीं थी ।
जब ये बात गुरु द्रोणाचार्य को पता चली तो उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लिया क्योंकि एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा स्थापित कर उन्हीं को अपना गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । एकलव्य की भी महानता इस बात से भी झलकती है कि गुरु के कहने पर उसने अपना अंगूठा हँसते हँसते गुरु द्रोणाचार्य को दान में दे दिया ।
एक तरफ तो वो गुरु थे जो सामाजिक व्यवस्था की जकड़न के कारण एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर देते हैं तो दूसरी तरफ वो ही शिष्य एकलव्य है जो उसी गुरु के मांगने पर हंसते हंसते अपना अंगूठा दान कर देता है। शायद यही कारण था कि श्रीकृष्ण निषाद नन्दन को सत्यनिष्ठ योद्धा की संज्ञा से पुकारते हैं।
एकलव्य का ये अंगूठा दान ��हाभारत में कर्ण द्वारा किए गए कवच कुंडल दान की याद दिलाता है। जिस प्रकार कर्ण के अंगूठा मांगने पर भगवान इंद्र का नाम कलंकित हुआ तो ठीक इसी प्रकार एकलव्य द्वारा किए गए अंगूठा दान ने गुरु द्रोणाचार्य के जीवन पर एक ऐसा दाग लगा दिया जिसे वो आजीवन धो नहीं पाए।
ये वो ही निषादराज एकलव्य था जिसके पराक्रम के बारे में श्रीकृष्ण जी आगे कहते हैं कि सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा जिस योद्धा की तुलना परशुराम जी से की जा रही हो , उसके परक्राम के बारे में अनुमान लगाना कोई मुश्किल कार्य नहीं । श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे भी एकलव्य के पराक्रम के बारे में कुछ इस प्रकार बताते है ।
कुन्तीकुमार, यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे ॥19॥
किमुमानुषमात्रेण शक्यःस्यात् प्रतिवीक्षितुम्।
दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम् ॥20॥
फिर कोई मनुष्य मात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था ? उसकी मुट्ठी मजबूत थी, वह अस्त्र-विद्या का विद्वान था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था ॥20॥
त्वद्धितार्थ तु स मया हतः संग्राममूर्धनि ।
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ॥21॥
तुम्हारे हित के लिये मैंने ही युद्ध के मुहाने पर उसे मार डाला था । पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखों के सामने ही मारा गया था ॥21॥
इसी एकलव्य के बारे में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। एक अंगूठा कट जाने के बाद भी एकलव्य की तुलना भगवान श्रीकृष्ण परशुराम जी से करते हैं। ये सोचने वाली बात है अगर उसका अंगूठा सुरक्षित होता तो किस तरह की प्रतिभा का प्रदर्शन करता।
उसकी योग्यता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है उस महायोद्धा एकलव्य का वध भगवान श्रीकृष्ण को करना पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे बताते हैं कि महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पहले उन्होंने स्वयं निषाद पुत्र एकलव्य का वध कर दिया थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इतने बड़े विशाल ग्रन्थ में महज 4 श्लोकों में हीं निषाद नन्दन एकलव्य के पराक्रम और उसके वध के बारे में जानकारी दी गई है। कर्ण के लिए तो एक अध्याय कर्ण पर्व के रूप में समर्पित है तो वहीं पर महाभारत के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में मात्र चार श्लोकों में हीं इस महान धनुर्धारी महापराक्रमी योद्धा को निपटा दिया गया है ।
अगर आप किसी से भी जरासंध , शिशुपाल या कर्ण के पराक्रम और उनकी मृत्यु के बारे में पूछे तो उनके बारे में सारी जानकारी बड़ी आसानी से मिल जाती है परन्तु अंगूठा दान के बाद एकलव्य का क्या हुआ , उसका वध भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों , कैसे और कहाँ किया , कोई जानकारी नहीं मिलती।
हालांकि कुछ किदवंतियों के अनुसार एकलव्य को भगवान श्रीकृष्ण का मौसेरा भाई बताया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अंगूठा दान के बाद एकलव्य अर्जुन और अन्य पांडवों से ईर्ष्या रखने लगा था।
महाभारत युद्ध होने से पहले जब जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया तब एकलव्य जरासंध का साथ दे रहा था। इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण ने एकलव्य का वध किया था। परंतु ये किदवंती हीं है। महाभारत के अध्याय संख्या 181 में इन बातों का कोई जिक्र नहीं आता हैं।
अगर इन बातों में कुछ सच्चाई होती तो जब भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बारे में चर्चा करते हैं तो इन घटनाओं का जिक्र जरूर करते। कारण जो भी रहा हो , ये बात तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है निषादराज पांडवों से ईर्ष्या करता था तथा भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हीं उसका वध हुआ था।
देखने वाली बात ये है कि कर्ण और अर्जुन दोनों ने महान गुरुओ से शिक्षा ली थी। एक तरफ अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था जो उनकी छत्र छाया में आगे बढ़ा था।
तो दूसरी तरफ कर्ण ने भगवान परशुराम से अस्त्र और शस्त्रों की शिक्षा ली थी। एकलव्य की महानता इस बात से साबित होती है कि उसको किसी भी गुरु का दिशा निर्देश नहीं मिला था।
निषाद राज एकलव्य स्वयं के अभ्यास द्वारा हीं कुशल योद्धा बना था। स्वयं के अभ्यास द्वारा एकलव्य ने ऐसी महानता और निपुणता हासिल कर ली थी जिसकी कल्पना ना तो अर्जुन कर सकता था और ना हीं कर्ण।
एकलव्य वो महान योद्धा था जिसकी तुलना खुद भगवान श्रीकृष्ण कर्ण , जरासंध , शिशुपाल , परशुराम इत्यादि के साथ करते हैं और एकलव्य को इनके समकक्ष मानते है , उसकी वीरता और पराक्रम के बारे में मात्र 4 श्लोक? इससे बड़ी उपेक्षा और हो हीं क्या सकती है ?
एकलव्य जैसे असाधारण योद्धा की मृत्यु के बारे में केवल एक श्लोक में वर्णन , क्या इससे भी ज्यादा कोई किसी योद्धा की उपेक्षा कर सकता है? कर्ण को महाभारत का भले हीं उपेक्षित पात्र माना जाता रहा हो परन्तु मेरे देखे एकलव्य , जिसने बचपन में अर्जुन और कर्ण से बेहतर प्रतिभा का प्रदर्शन किया और वो भी बिना किसी गुरु के , उससे ज्यादा उपेक्षित पात्र और कोई नहीं।
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
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🔸️संत रामपाल जी महाराज ने समाज में व्याप्त गलत धारणाओं एवं गलत ज्ञान का खंडन करके समाज को तत्वज्ञान से परिचित कराया है।🔸️
#SantRampalJiMaharaj
#Godstory
अज्ञानी धर्मगुरुओं एवं अज्ञानी संतों –महंतों का अत्यधिक बोलबाला होने के कारण समाज में गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान व्यापक रूप से अपना स्थान बनाए हुए है वहीं दूसरी तरफ संत रामपाल जी महाराज तत्वज्ञान के आधार पर समाज को एक नई दिशा एवं नई राह देने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने समाज में फैली अनेक बुराइयां, कुरीतियां, गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान का विरोध किया है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मान���ा है "परमात्मा निराकार है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– परमात्मा निराकार नहीं बल्कि नर आकार है जो सूर्य के समान स्वप्रकाशित है तथा सत्यलोक में रहता है जिसका वास्तविक नाम कविर्देव है। जिसका वर्णन हमारे वेद शास्त्रों में भी है। यजुर्वेद अध्याय 5 के मंत्र 1 में प्रमाण है कि अग्नेः तनुः असि। अर्थात् परमात्मा सशरीर है।
अन्य प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 82, मंत्र 1 और ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 95, मंत्र 1-5 में भी वर्णन है परमात्मा साकार है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "परमात्मा साधक के पाप को नष्ट नहीं कर सकते।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– पुण्यकर्मों से सुख आते हैं तथा पापकर्मों से रोग व दुःख आते हैं। जिस प्रकार कांटे लगे पैर में जूता पहना नहीं जा सकता उसी प्रकार से साधक परमात्मा की भक्ति दुःख में कैसे कर सकता है जब तक उसके पाप नष्ट नहीं होंगे तब तक वह भक्ति नहीं कर सकता। परमात्मा साधक के पाप को नष्ट कर देते हैं इसका प्रमाण भी हमारे वेदों में है। यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 तथा यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्र 13 में प्रमाण है पूर्ण परमात्मा पापकर्म को भी काट देता है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "श्री कृष्ण ही वासुदेव है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन–श्री कृष्ण जी वासुदेव नहीं है श्री कृष्ण के तो पिता का नाम वासुदेव था जिस कारण से लोग श्री कृष्ण को वासुदेव कहने लगे बल्कि वासुदेव का अर्थ है सर्व स्थानों पर वास अर्थात् अधिकार रखने वाला देव (परमेश्वर) वासुदेव कहा जाता है अर्थात् जो सर्व का मालिक है वह वासुदेव है। चूंकि श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ब्रह्मांड में केवल सतगुण विभाग के स्वामी हैं। कुल का स्वामी अर्थात् वासुदेव नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी तथा शिव जी एक–एक विभाग के मालिक हैं तथा ब्रह्म 21 ब्रह्मांड का मालिक है परब्रह्म 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक है। जबकि पूर्णब्रह्म सर्व ब्रह्मांडों का मालिक है। गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व भूत हैं और जिस सच्चिदानन्द परमेश्वर से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अर्थात् परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। उपरोक्त परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष ही वासुदेव है वह सर्वशक्तिमान है उसी की पूजा करनी चाहिए वह पूर्ण मोक्ष दायक है यह बताने वाला महात्मा बहुत ही दुर्लभ है।
संत रामपाल जी महाराज जी का ज्ञान शास्त्र प्रमाणित है जिसका कोई भी खंडन नहीं किया जा सकता। संत रामपाल जी महाराज जी ने कहा है हम शास्त्रों के विरुद्ध साधना कर रहे हैं जिस कारण से हमें लाभ प्राप्त नहीं हो रहे हैं अज्ञानी धर्मगुरुओं ने गलत ज्ञान एवं गलत धारणाओं से समाज को गलत दिशा दी है जिस कारण से समाज भक्ति करते हुए भी दुखी हो रहा है ।
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संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– पुण्यकर्मों से सुख आते हैं तथा पापकर्मों से रोग व दुःख आते हैं। जिस प्रकार कांटे लगे पैर में जूता पहना नहीं जा सकता उसी प्रकार से साधक परमात्मा की भक्ति दुःख में कैसे कर सकता है जब तक उसके पाप नष्ट नहीं होंगे तब तक वह भक्ति नहीं कर सकता। परमात्मा साधक के पाप को नष्ट कर देते हैं इसका प्रमाण भी हमारे वेदों में है। यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 तथा यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्र 13 में प्रमाण है पूर्ण परमात्मा पापकर्म को भी काट देता है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "श्री कृष्ण ही वासुदेव है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन–श्री कृष्ण जी वासुदेव नहीं है श्री कृष्ण के तो पिता का नाम वासुदेव था जिस कारण से लोग श्री कृष्ण को वासुदेव कहने लगे बल्कि वासुदेव का अर्थ है सर्व स्थानों पर वास अर्थात् अधिकार रखने वाला देव (परमेश्वर) वासुदेव कहा जाता है अर्थात् जो सर्व का मालिक है वह वासुदेव है। चूंकि श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ब्रह्मांड में केवल सतगुण विभाग के स्वामी हैं। कुल का स्वामी अर्थात् वासुदेव नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी तथा शिव जी एक–एक विभाग के मालिक हैं तथा ब्रह्म 21 ब्रह्मांड का मालिक है परब्रह्म 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक है। जबकि पूर्णब्रह्म सर्व ब्रह्मांडों का मालिक है। गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व भूत हैं और जिस सच्चिदानन्द परमेश्वर से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अर्थात् परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। उपरोक्त परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष ही वासुदेव है वह सर्वशक्तिमान है उसी की पूजा करनी चाहिए वह पूर्ण मोक्ष दायक है यह बताने वाला महात्मा बहुत ही दुर्लभ है।
संत रामपाल जी महाराज जी का ज्ञान शास्त्र प्रमाणित है जिसका कोई भी खंडन नहीं किया जा सकता। संत रामपाल जी महाराज जी ने कहा है हम शास्त्रों के विरुद्ध साधना कर रहे हैं जिस कारण से हमें लाभ प्राप्त नहीं हो रहे हैं अज्ञानी धर्मगुरुओं ने गलत ज्ञान एवं गलत धारणाओं से समाज को गलत दिशा दी है जिस कारण से समाज भक्ति करते हुए भी दुखी हो रहा है ।
अतः आप सब से करबद्ध प्रार्थना है संत रामपाल जी महाराज जी का अनमोल वचन पवित्र साधना टीवी एवं पॉपकॉर्न टीवी पर शाम 7:30 से अवश्य देखें।
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🔸️संत रामपाल जी महाराज ने समाज में व्याप्त गलत धारणाओं एवं गलत ज्ञान का खंडन करके समाज को तत्वज्ञान से परिचित कराया है।🔸️
अज्ञानी धर्मगुरुओं एवं अज्ञानी संतों –महंतों का अत्यधिक बोलबाला होने के कारण समाज में गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान व्यापक रूप से अपना स्थान बनाए हुए है वहीं दूसरी तरफ संत रामपाल जी महाराज तत्वज्ञान के आधार पर समाज को एक नई दिशा एवं नई राह देने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने समाज में फैली अनेक बुराइयां, कुरीतियां, गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान का विरोध किया है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "परमात्मा निराकार है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– परमात्मा निराकार नहीं बल्कि नर आकार है जो सूर्य के समान स्वप्रकाशित है तथा सत्यलोक में रहता है जिसका वास्तविक नाम कविर्देव है। जिसका वर्णन हमारे वेद शास्त्रों में भी है। यजुर्वेद अध्याय 5 के मंत्र 1 में प्रमाण है कि अग्नेः तनुः असि। अर्थात् परमात्मा सशरीर है।
अन्य प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 82, मंत्र 1 और ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 95, मंत्र 1-5 में भी वर्णन है परमात्मा साकार है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "परमात्मा साधक के पाप को नष्ट नहीं कर सकते।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– पुण्यकर्मों से सुख आते हैं तथा पापकर्मों से रोग व दुःख आते हैं। जिस प्रकार कांटे लगे पैर में जूता पहना नहीं जा सकता उसी प्रकार से साधक परमात्मा की भक्ति दुःख में कैसे कर सकता है जब तक उसके पाप नष्ट नहीं होंगे तब तक वह भक्ति नहीं कर सकता। परमात्मा साधक के पाप को नष्ट कर देते हैं इसका प्रमाण भी हमारे वेदों में है। यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 तथा यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्र 13 में प्रमाण है पूर्ण परमात्मा पापकर्म को भी काट देता है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "श्री कृष्ण ही वासुदेव है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन–श्री कृष्ण जी वासुदेव नहीं है श्री कृष्ण के तो पिता का नाम वासुदेव था जिस कारण से लोग श्री कृष्ण को वासुदेव कहने लगे बल्कि वासुदेव का अर्थ है सर्व स्थानों पर वास अर्थात् अधिकार रखने वाला देव (परमेश्वर) वासुदेव कहा जाता है अर्थात् जो सर्व का मालिक है वह वासुदेव है। चूंकि श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ब्रह्मांड में केवल सतगुण विभाग के स्वामी हैं। कुल का स्वामी अर्थात् वासुदेव नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी तथा शिव जी एक–एक विभाग के मालिक हैं तथा ब्रह्म 21 ब्रह्मांड का मालिक है परब्रह्म 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक है। जबकि पूर्णब्रह्म सर्व ब्रह्मांडों का मालिक है। गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व भूत हैं और जिस सच्चिदानन्द परमेश्वर से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अर्थात् परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। उपरोक्त परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष ही वासुदेव है वह सर्वशक्तिमान है उसी की पूजा करनी चाहिए वह पूर्ण मोक्ष दायक है यह बताने वाला महात्मा बहुत ही दुर्लभ है।
संत रामपाल जी महाराज जी का ज्ञान शास्त्र प्रमाणित है जिसका कोई भी खंडन नहीं किया जा सकता। संत रामपाल जी महाराज जी ने कहा है हम शास्त्रों के विरुद्ध साधना कर रहे हैं जिस कारण से हमें लाभ प्राप्त नहीं हो रहे हैं अज्ञानी धर्मगुरुओं ने गलत ज्ञान एवं गलत धारणाओं से समाज को गलत दिशा दी है जिस कारण से समाज भक्ति करते हुए भी दुखी हो रहा है ।
अतः आप सब से करबद्ध प्रार्थना है संत रामपाल जी महाराज जी का अनमोल वचन पवित्र साधना टीवी एवं पॉपकॉर्न टीवी पर शाम 7:30 से अवश्य देखें।
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Vedon se pramanit Gyan
🔸️संत रामपाल जी महाराज ने समाज में व्याप्त गलत धारणाओं एवं गलत ज्ञान का खंडन करके समाज को तत्वज्ञान से परिचित कराया है।🔸️
अज्ञानी धर्मगुरुओं एवं अज्ञानी संतों –महंतों का अत्यधिक बोलबाला होने के कारण समाज में गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान व्यापक रूप से अपना स्थान बनाए हुए है वहीं दूसरी तरफ संत रामपाल जी महाराज तत्वज्ञान के आधार पर समाज को एक नई दिशा एवं नई राह देने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने समाज में फैली अनेक बुराइयां, कुरीतियां, गलत धारणाएं एवं गलत ज्ञान का विरोध किया है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "परमात्मा निराकार है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– परमात्मा निराकार नहीं बल्कि नर आकार है जो सूर्य के समान स्वप्रकाशित है तथा सत्यलोक में रहता है जिसका वास्तविक नाम कविर्देव है। जिसका वर्णन हमारे वेद शास्त्रों में भी है। यजुर्वेद अध्याय 5 के मंत्र 1 में प्रमाण है कि अग्नेः तनुः असि। अर्थात् परमात्मा सशरीर है।
अन्य प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 82, मंत्र 1 और ऋग्वेद मण्डल 9, सूक्त 95, मंत्र 1-5 में भी वर्णन है परमात्मा साकार है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "परमात्मा साधक के पाप को नष्ट नहीं कर सकते।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन– पुण्यकर्मों से सुख आते हैं तथा पापकर्मों से रोग व दुःख आते हैं। जिस प्रकार कांटे लगे पैर में जूता पहना नहीं जा सकता उसी प्रकार से साधक परमात्मा की भक्ति दुःख में कैसे कर सकता है जब तक उसके पाप नष्ट नहीं होंगे तब तक वह भक्ति नहीं कर सकता। परमात्मा साधक के पाप को नष्ट कर देते हैं इसका प्रमाण भी हमारे वेदों में है। यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 तथा यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्र 13 में प्रमाण है पूर्ण परमात्मा पापकर्म को भी काट देता है।
अज्ञानी धर्मगुरुओं का मानना है "श्री कृष्ण ही वासुदेव है।"
संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा खंडन–श्री कृष्ण जी वासुदेव नहीं है श्री कृष्ण के तो पिता का नाम वासुदेव था जिस कारण से लोग श्री कृष्ण को वासुदेव कहने लगे बल्कि वासुदेव का अर्थ है सर्व स्थानों पर वास अर्थात् अधिकार रखने वाला देव (परमेश्वर) वासुदेव कहा जाता है अर्थात् जो सर्व का मालिक है वह वासुदेव है। चूंकि श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ब्रह्मांड में केवल सतगुण विभाग के स्वामी हैं। कुल का स्वामी अर्थात् वासुदेव नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी तथा शिव जी एक–एक विभाग के मालिक हैं तथा ब्रह्म 21 ब्रह्मांड का मालिक है परब्रह्म 7 शंख ब्रह्मांड का मालिक है। जबकि पूर्णब्रह्म सर्व ब्रह्मांडों का मालिक है। गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व भूत हैं और जिस सच्चिदानन्द परमेश्वर से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अर्थात् परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। उपरोक्त परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सत्यपुरूष ही वासुदेव है वह सर्वशक्तिमान है उसी की पूजा करनी चाहिए वह पूर्ण मोक्ष दायक है यह बताने वाला महात्मा बहुत ही दुर्लभ है।
संत रामपाल जी महाराज जी का ज्ञान शास्त्र प्रमाणित है जिसका कोई भी खंडन नहीं किया जा सकता। संत रामपाल जी महाराज जी ने कहा है हम शास्त्रों के विरुद्ध साधना कर रहे हैं जिस कारण से हमें लाभ प्राप्त नहीं हो रहे हैं अज्ञानी धर्मगुरुओं ने गलत ज्ञान एवं गलत धारणाओं से समाज को गलत दिशा दी है जिस कारण से समाज भक्ति करते हुए भी दुखी हो रहा है ।
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जंबूद्वीप याने अखंड भारत
एक समय पर जंबूद्वीप याने अखंड भारत था. इसे आर्यावृत भी कहते हैं.
जंबूद्वीप में 9 प्रदेश है:- उत्तर कुरु, हिरण्यमय, रम्यक, इलावृत, भद्राश्व, केतुमाल, हरि, किंपुरुष और, भारत.
उत्तर कुरु वर्ष
वाल्मीकि रामायण में इस प्रदेश का सुन्दर वर्णन है। कुछ विद्वानों के मत में उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश को ही प्राचीन साहित्य में विशेषत: रामायण और महाभारत में उत्तर कुरु कहा गया है. यह मत लोकमान्य तिलक ने अपने ओरियन नामक अंग्रेज़ी ग्रन्थ में प्रतिपादित किया था. वाल्मीकि ने जो वर्णन रामायण में उत्तर कुरु प्रदेश का किया है उसके अनुसार उत्तर कुरु में शैलोदा नदी बहती थी और वहाँ मूल्यवान् रत्न और मणि उत्पन्न होते थे.
सुग्रीव अपनी सेना को उत्तरदिशा में भेजते हुए कहता है कि 'वहाँ से आगे जाने पर उत्तम समुद्र मिलेगा जिसके बीच में सुवर्णमय सोमगिरि नामक पर्वत है. वह देश सूर्यहीन है किंतु सूर्य के न रहने पर भी उस पर्वत के प्रकाश से सूर्य के ��्रकाश के समान ही वहाँ उजाला रहता है.' सोमगिरि की प्रभा से प्रकाशित इस सूर्यहीन उत्तरदिशा में ��्थित प्रदेश के वर्णन में उत्तरी नार्वे तथा अन्य उत्तरध्रुवीय देशों में दृश्यमान मेरुप्रभा या अरोरा बोरियालिस नामक अद्भुत दृश्य का काव्यमय उल्लेख हो सकता है जो वर्ष में छ: मास के लगभग सूर्य के क्षितिज के नीचे रहने के समय दिखाई देता है. इसी सर्ग के 56वें श्लोक में सुग्रीव ने यह भी कहा कि उत्तर कुरु के आगे तुम लोग किसी प्रकार नहीं जा सकते और न अन्य प्राणियों की ही वहाँ गति है.'
महाभारत सभा पर्व में भी उत्तर कुरु को अगम्य देश माना है. अर्जुन उत्तर दिशा की विजय-यात्रा में उत्तर कुरु पहुँच कर उसे भी जीतने का प्रयास करने लगे. इस पर अर्जुन के पास आकर बहुत से विशालकाय द्वारपालों ने कहा कि 'पार्थ; तुम इस स्थान को नहीं जीत सकते. यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु दिखाई नहीं पड़ती. यह उत्तर कुरु देश है. यहाँ युद्ध नहीं होता, कुंतीकुमार, इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ नहीं देख सकते क्योंकि मानव शरीर से यहाँ की कोई वस्तु नहीं देखी जा सकती'
इलावृत वर्ष
पुराणों के अनुसार इलावृत चतुरस्र है. वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश का मान 150X150 मील है अतः चतुरस्र होने के कारण यह 'पामीर' ही इलावृत है. इलावृत से ही ऐरल सागर, ईरान आदि क्षेत्र प्रभावित हैं.
आज के किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, मंगोलिया, तिब्बत, रशिया और चीन के कुछ हिस्से को मिलाकर इलावृत बनता है. मूलत: यह प्राचीन मंगोलिया और तिब्बत का क्षेत्र है. एक समय किर्गिस्तान और तजाकिस्तान रशिया के ही क्षेत्र हुआ करते थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद ये क्षेत्र स्वतंत्र देश बन गए.
आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है. 'अतलाई' शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है. सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में बस गया था. उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे.
इस देश का नाम महाभारतकाल में ‘इलावृत’ ही था. जैसा कि महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्णजी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय प्राप्त करके ‘इलावृत’ देश में पहुंचे. इस स्थान को देवताओं का निवास-स्थान माना जाता है. भगवान श्रीकृष्ण ने देवताओं से ‘इलावृत’ को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की.
हिरन्यमय वर्ष
इस वर्ष की स्थिति श्वेत पर्वत के उत्तर में तथा श्रुंगवान पर्वत के दक्षिण में है. यहीं पर हिरण्यवति नदी प्रवाहित होती है. यहां के लोग भगवान कच्छ की उपासना करते थे
.
रम्यक वर्ष
वायुपुराण नीलपर्वत के बाद रम्यकवर्ष का होना बतलाता है. यह प्रदेश यूर���ल पर्वत की तराई होने के कारण सुन्दर है तथा पहाड़ी प्रदेश यहाँ बहुत कम है. बहुत सम्भव है, इस रम्यक-भूमि के उत्तर यूराल की पर्वतश्रेणी में कोई श्वेतपर्वत भी रहा हो.
इस प्रदेश में मनु को भगवान के मत्स्यावतार के दर्शन हुए थे.
भद्राश्व वर्ष
यह प्रदेश इलावृत के पूर्व में है । बीचमें माल्यवान पर्वत है. यहां के निवासी हयग्रीव की उपासना करते थे.
केतुमाल वर्ष
इलावृत के पश्चिम में केतुमल वर्ष है. दोनो के बीच गन्धमादन पर्वत ( हिन्दुकुश की ख्वाजा महम्मद श्रेणी) है. उत्तर में नील पर्वत ( जरफ्शान-ट्रान्स- अलाई-तियानशान ) है तथा पश्चिम में पश्चिम सागर ( केस्पियन सी ) है.
हरि वर्ष
इस की स्थिति इलावृत के दक्षिण में है, यहां के निवासी भगवान नरसिंह की उपासना करते थे.
किंपुरुष वर्ष
इस प्रदेश की स्थिति उत्तर में हेमकुट (लड्डाख-कैलाश श्रेणी) तथा दक्षिण में हिमालय तक है. यहां के निवासी राम की उपासना करते थे.
भारत वर्ष
इसका वर्णन करने की जरूरत नही है, हम सब इस में तो रहते हैं.
*************
३६ लाख साल के मानवजात के इतिहास में ६० हजार साल पहले भारत वर्ष में सभ्यता का उदय होना और पूरे एसिया खंड में फैल कर में जंबूद्वीप का अस्तित्व में आना कल की ही बात हो जाती है. लेकिन वो मानव सभ्यता का आरंभ था.
ऐसे ही ६० हजार साल के मानव सभ्यता के इतिहास में १३००० साल पहले राम और कृष्ण का आना भी कल की ही बात हो जाती है.
लेकिन सुनहरे कल को भुलाने के लिए आज की औलाद "कल की न करो बात, बात करो आज की" के सुत्र से आज की सुबह को केवल ६ हजार साल तक ही पिछे ले जाते हैं. इस से पहले की कोइ बात सामने आती है तो वो मिथ हो जाता है.
इन ६ हजार साल के अंदर ही हवा में बातें करता उनका एकमेव इश्वर पैदा हो जाता है, हवा में से ही आदम और हौवा पैदा होते है और ६ हजार साल में ही धरती को आबादी से भर देते है. बीच में तो पूरी धरती पर प्रलय की भी योजना बनाई थी और एक नाव भर के आदम के वारिस नूहने नाव भर के मानव सहित कुछ जीव बचा लिए थे. उन के मतानुसार आज की आबादी का इतिहास ४-५ हजार साल से ज्यादा नही है, सब नाव में बैठे मानवों की संतान हैं.
कहने का मतलब यह है कि भारत के शत्रुपक्ष के इतिहासकारों ने मानव सभ्यता के इतिहास को बहुत छोटा कर दिया है, वैदिक काल को महज इसा के पहले १५०० बर्ष बताकर आज के नजदिक लाकर खडा कर दिया है. उनका इरादा शुध्ध काजल की तरह काला था. भारत के लोगों को उनके पुरखों का इतिहास भुलाना था और अपने खूद देशों के लोगों को पता नही लगने देना था कि उनके पूरखें कौन थे कैसे थे.
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जंबूद्वीप का बनाना आसान नही था. धर्म और अधर्म के युध्ध सतत च��ते रहे हैं; - देवासुर संग्राम, भगवान शिवजी का त्रिशुल, भगवान विष्णु के विविध अवतार के संघर्ष, भगवान परशुराम के अनेक बार किए संघर्ष, राजाओं के छोडे अश्वमेघ के धोडे. भगवान कृष्ण का समय आते आते तो दक्षिण एसियाई देश, अरब, उत्तर आफ्रीका और युरोप भी जंबूद्वीप में शामिल हो गये थे.
डॉ जयशंकर शुक्ल
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🙏🙏🛕🛕🪔🪔🔔🔔🌎🌍📡📡🎙️🎙️🇮🇳🇮🇳🕓भक्ति सत्संगमयी शुभ सुंदर मंगलमय मंगलवार ❣️❣️हरिबोल 🌹प्रेम से बोलो सच्चिदानंद भक्त वत्सल भगवान की जय 🌹जय जय श्री राधे 🌹श्रीमद् भागवत महापुराण अमृत कथा (गंतव्य से आगे) :- श्री सूतजी से बोले - शौनकादि ऋषियों! द्रोपदी की बात धर्मानुकूल थी। क्षमा स्त्री का सबसे बड़ा धर्म है। परंतु भीम बौखला उठे और चिल्लाए - इस दुष्ट ने सोते हुए बच्चों की हत्या की है। इसका वध करना ही उचित है। भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे पार्थ! शास्त्रों में कहा गया है कि पतित ब्राह्मण का वध नहीं करना चाहिए और उसे जीवित भी नहीं छोड़ना चाहिए। तुमने जो द्रोपदी को सांत्वना देते हुए प्रतिज्ञा की थी उसे अब पूरा करो। अर्जुन तत्काल श्रीकृष्ण के मन की बात को समझ गए। उसने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके केसों सहित उतार लीऔर कहा - हे माधव! केशों से रहित होने पर अश्वत्थामा श्रीहीन हो गया है और इसके मस्तक की मणि उतर जाने से इसका ब्रह्मतेज भी समाप्त हो गया है। ( महाभारत खत्म हो गया. कौरव खेमे के सभी वीर मारे गए. पांडव ने विजय हासिल कर ली. लेकिन गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा (Ashwatthama) जीवित रह गए. क्योंकि उनके पास अमृत की मणि थी. वे आज भी जिंदा हैं. लेकिन सवाल है कि कहां? दरअसल, मान्यता है कि कलियुग में अश्वस्थामा कानपुर (Kanpur) में गंगा किनारे रहते हैं. ��ास बात है कि रोज सुबह वे खेरेश्वर मंदिर (Khereshwar Temple) पर जाकर भगवान शिव की पूजा भी करते हैं.) अर्जुन ने कहा - हे माधव! किसी ब्राह्मण का सिर मूंड देना उसका ज्ञान छीन लेना उसे सभ्य समाज से निकाल देना ब्राह्मण की हत्या के समान ही है। इन शब्दों के साथ ही अर्जुन ने वहां उपस्थित सभी से मानो स्वीकृति देने का आग्रह किया हो। भगवान श्रीकृष्ण और वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने अर्जुन के कथन का मौन समर्थन किया और अश्वत्थामा के बंधन खोलकर उसे अपमानित करते हुए शिविर से निकाल दिया। श्रीकृष्ण ने कहा....... To be continued... आरती श्रीमद् भागवत अमृत महापुराण की ।आरती अति पावन पुराण की ।धर्म भक्ति विज्ञान खान की ।विषय विलास विमोह विनाशिनि ।विमल विराग विवेक विकाशिनि ।भगवत् तत्व् रहस्य प्रकाशिनि ।परम ज्योति परमात्म ज्ञान ।आरती..... प्रणाम : जय श्री राधे 🔔🔔🪔🪔🛕🛕🌎🌍📡📡🎙️🎙️🇮🇳🇮🇳🙏🙏🕓🌹🌹 https://www.instagram.com/p/CXcI1-qhR-q/?utm_medium=tumblr
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🚩विश्व में सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता को क्यों माना जाता है? 11 दिसंबर 2021
🚩गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि उसकी रचना हुए हजारों वर्ष बीत गए हैं किन्तु उसके बाद उसके समान किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं हुई है। 18 अध्याय एवं 700 श्लोकों में रचित तथा भक्ति, ज्ञान, योग एवं निष्कामता आदि से भरपूर यह गीता ग्रन्थ विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयंती मनायी जाती है।
इस साल श्रीमद्भगवद्गीता जयंती 14 दिसंबर को है।
🚩श्रीमद्भगवद्गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की, अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही है। गीता जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है और युद्ध जैसे घोर कर्मों में भी निर्लेप रहने की कला सिखाती है। मरने के बाद नहीं, जीते-जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता!
🚩‘गीता’ में 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं, 94569 शब्द हैं। विश्व की 578 से भी अधिक भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है।
🚩'यह मेरा हृदय है’- ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा है तो वह गीताजी हैं। 'गीता मे हृदयं पार्थ।- गीता मेरा हृदय है।’
🚩गीता ने गजब कर दिया- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे... युद्ध के मैदान को भी धर्मक्षेत्र बना दिया। युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया। हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ता से उदास बैठे हुए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं।
🚩आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जब फाँसी की सजा दी जाती थी, तब ‘गीता’ के ही श्लोक बोलते हुए वे हँसते-हँसते फाँसी पर लटक जाते थे।
🚩श्री वेदव्यास ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरान्त कहा हैः
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।
'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्री गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ विष्णु भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई है, फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है?'
🚩गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है। इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। गीता का भलीभाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने आप हो सकता है। उसके लिए अलग से परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती।
🚩वराहपुराण में गीता की महिमा का बयान करते-करते भगवान ने स्वयं कहा हैः
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्यत्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्।।
'मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ। गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।'
🚩श्रीमद्भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है। चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करे तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं।
🚩श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, सरलता, स्नेह, शांति और धर्म आदि दैवी गुण सहज में ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता ग्रन्थ पूरे विश्व में अद्वितीय है।
🚩सशरीर स्वर्ग में जाकर शस्त्र ले आने की क्षमता वाले अर्जुन को भी गीता के अमृत के बिना किंकर्त्तव्यविमूढ़ता ने घेर रखा था। गीता माता ने अर्जुन को सशक्त बना दिया। गीता माता अहिंसक पर वार नहीं कराती और हिंसक व्यक्तियों के आगे हमें डरपोक नहीं होने देती।
देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।
न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।
हस्तात्त्यक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।
🚩भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता है तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।
🚩विदेशों में श्री गीताजी का महत्व समझकर स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने लगे हैं, भारत सरकार भी अगर बच्चों एवं देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है तो सभी स्कूलों, कॉलेजों में गीता अनिवार्य कर देना चाहिए।
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पश्चिम बंगाल: कॉलेज और विश्वविद्यालय की परीक्षाओं का निर्णय पश्चिम बंगाल: कॉलेज और विश्वविद्यालय की परीक्षाओं का निर्णय.पश्चिम बंगाल के शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने अगले सप्ताह निर्धारित 12 वीं कक्षा के छात्रों के लिए लंबित उच्च माध्यमिक परीक्षाओं को रद्द करने की घोषणा की। राज्य शिक्षा विभाग ने COVID-19 महामारी के मद्देनजर 2020 के लिए अंडर-ग्रेजुएट (UG) और स्नातकोत्तर (PG) परीक्षाओं के बारे में राज्य-वित्त पोषित विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को लिखा है। दो-पेज की सलाह में, यह बताया गया है कि अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए सामान्य डिग्री पाठ्यक्रम, यूजी और पीजी स्तर में 80% वेटेज को किसी भी पिछले सेमेस्टर में उम्मीदवार द्वारा प्राप्त सर्वश्रेष्ठ कुल प्रतिशत के आधार पर माना जाना चाहिए। या विश्वविद्यालय द्वारा अपनाया गया वर्तमान सेमेस्टर या वर्ष के दौरान आंतरिक मूल्यांकन पर वर्षों का परिणाम और 20%। अपने अंतिम सेमेस्टर में कानून, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, फार्मेसी और अन्य जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में छात्रों के लिए, विश्वविद्यालय आंतरिक मूल्यांकन या मध्य-सेमेस्टर परीक्षाओं पर 80% वेटेज प्रदान करेंगे, जो पिछले सेमेस्टर के परिणामों के औसत और आधार पर 20% के सर्वश्रेष्ठ होंगे। असाइनमेंट आधारित मूल्यांकन। अंतिम वर्ष के परिणाम 31 जुलाई के भीतर घोषित किए जा सकते हैं। वर्तमान में मध्यवर्ती सेमेस्टर और वर्षों में छात्रों के लिए सीधे अगले वर्ष या सेमेस्टर में पदोन्नत किया जाएगा। हालांकि, अगले शैक्षणिक सत्र में राज्य सरकार द्वारा निर्णय लिया जाएगा जब COVID-19 महामारी की स्थिति अनुमति देती है कि यह भविष्य में घोषित होने पर सभी राज्य विश्वविद्यालयों के लिए एक समान प्रतिबंध लगाएगा शैक्षणिक सत्र के हिस्से के रूप में, लॉकडाउन के कारण प्रभावित 2019-2020 को सभी छात्रों द्वारा "उपस्थित कक्षाओं" के रूप में माना जाएगा। सलाहकार ने यह भी उल्लेख किया है कि कोई शुल्क वृद्धि नहीं होगी और ऑनलाइन मोड के माध्यम से छात्रों को घर से असाइनमेंट के नाम पर अतिरिक्त शुल्क लिया जाएगा। महत्वपूर्ण रूप से, यदि कोई छात्र वैकल्पिक मूल्यांकन पद्धति के बजाय एक औपचारिक परीक्षा में उपस्थित होना चाहता है, तो उसे संबंधित विश्वविद्यालयों द्वारा अधिसूचित प्रक्रिया के माध्यम से आवेदन करने का अवसर दिया जाएगा। विशाल श्रीवास्तव की रिपोर्ट.
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