किताब के बारे में...
यह पुस्तक प्रकृति और जीवन से सम्बन्धित कविताओं को प्रस्तुत करती है। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को और जिंदगी के अनुभवों को काव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अगर आप प्रकृति - प्रेमी हैं और जीवन के संघर्षों को काव्य के रूप में पढ़ना चाहते है, साथ - ही साथ यह पुस्तक आध्यात्म पर आधारित और मानव जीवन में रंग भरने वाले भावों - विचारों पर आधारित कविताओं का भी संकलन करती है।
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इस वीडियो में अनुराग माथुर द्वारा रचित काव्य-रचना 'जीवन के रंग' से कुछ चुनिंदा काव्यांश को अल्फा पब्लिकेशन नें प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 'जीवन के रंग' हिंदी कविताओं, प्रेरणादायी मुक्तक, प्रेम-गीतों एवं हृदय-स्पर्शी ग़ज़लों का एक अत्यंत ही रोचक संकलन है।
जब मिस्त्री ने कहा कि ईंटें कच्ची हैं वे दौड़े-दौड़े गए ईंट भट्टे वाले के पास कहा अच्छी पकी ईंटें दो ताकि मेरे बाद मेरे बच्चों के काम आये घर।
जब मिस्त्री ने कहा सीमेंट पुराना है, थोड़ा बेहतर हो वे दौड़े पसीनाए पहुँचे सीमेंट व्यापारी के पास कहा, पैसे लेते हो तो अच्छी चीज दो ताकि घर मजबूत बन सके ताकि मेरे बाद बच्चों के काम आए। धूप में पसीनाए गए वे टाल की दुकान में गोदाम में घूमते रहे अच्छी पकी लकड़ी की तलाश में उन्हें टिकाऊ चौखट-दरवाजे बनाने थे जो पीढ़ियों का साथ दें पीढ़ियों तक इस तरह बना घर। फिर एक दिन वे बड़ी-बड़ी मशीनें लेकर आए कहा, तुम्हारा घर तुम्हारा नहीं है तुम्हारी जमीन तुम्हारी नहीं तुम्हारे परदादा यहाँ के नहीं थे तुम मेरे जैसे नहीं बस्ती में तुम्हारे घर के लिए जगह नहीं और उन्होंने घर ढहा दिया। जिस घर को बनाने में रीत गई पीढ़ियाँ वह घर हमारी आँखों के सामने कराहता गिरा ऐसे जा बैठा जमीन पर जैसे उसका कोई घुटना न हो उसकी जाँघें न हों, एड़ियाँ, उँगलियाँ जैसे रेत में दबा दिए गए हजारहा शव ठीक वैसे ही दबा दिया गया घर रेत में। ... इस पुस्तक में न होते हुए भी, इसी से...
1990 के दशक की कविता की चर्चा के दौरान, उसके सामाजिक सरोकारों पर विस्तार से बात होती रही है लेकिन उस बदले हुए दौर की एक सीमा यह थी कि जो नई पीढ़ी सामने आयी, उनकी रचनाओं में प्रतिरोध का पक्ष बहुत कमज़ोर था। फिर भी, थोड़े से ऐसे कवि ज़रूर आये, जिन्होंने प्रतिरोध की परंपरा को न केवल बचाए रखा, बल्कि उसे भरसक आगे बढ़ाने का उपक्रम भी किया। उन्हीं कुछ कवियों में एक राकेशरेणु हैं। ‘नये मगध में’ उनका तीसरा कविता संग्रह है। शीर्षक से ही ज़ाहिर है, ‘मगध’ ने जो कभी सत्ता की क्रूरता, अहंकार और मतिभ्रम पर कड़े प्रहार से प्रतिरोध की एक नयी राह बनायी थी, राकेशरेणु ने उस दिशा में आगे बढ़ते हुए, कुछ और जोड़ने का प्रयास किया है। संकलन के शुरू में ही यह कविता-शृंखला ‘नये मगध में’ नाम से है, जिसमें पंद्रह कविताएँ हैं। यह पूरी शृंखला प्रतिरोध का भाष्य रचती है। पिता और प्रेम को केन्द्र में रखकर भी कुछ शृंखलाबद्ध कविताएँ इस संग्रह में शामिल हैं लेकिन प्रतिरोध इस संकलन का मुख्य स्वर है। ग़ौरतलब है कि कवि ने मगध के गुप्तवंश के एक ऐसे शासक को केन्द्र में रखा है, जिसने राज तो लम्बे समय तक किया (कोई 30 वर्ष तक) लेकिन, उसकी उपलब्धियाँ कुछ ख़ास नहीं थीं। घटोत्कच के नायकत्व को केन्द्र में रखने का भी अपना एक अर्थ है। कवि वर्तमान शासन व्यवस्था की छवि को शायद उसके माध्यम से ही सही ढंग से व्यक्त कर सकता था। इस शृंखला की अंतिम कविताओं में तो सीधे-सीधे आज का यथार्थ आ गया है, जिसका विस्तार अन्य कविताओं, ‘लौट आऊँगा’, ‘किसान’, ‘...चमकी बुख़ार’ आदि में हुआ है। रंगों पर लिखी उनकी कविताएँ भी विशेष ध्यान खींचती हैं। हिन्दी में रंगों को लेकर कई महत्वपूर्ण कवियों ने अलग-अलग तरह से उल्लेखनीय कविताएँ लिखी हैं लेकिन राकेशरेणु का स्वर बिलकुल अलग है। लाल, नीला, हरा और काला को वे सिर्फ रंग के रूप में नहीं देखते बल्कि प्रकृति और जीवन के किसी न किसी पक्ष से जोड़कर उसे नए आयाम के साथ नया अर्थ देते हैं। विशेष रूप से लाल रंग को लेकर लिखी गई उनकी कविता को देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने इस रंग को प्रेम से शुरू करके समताकारी भोर का बिम्ब बना दिया है। रंगों को लेकर लिखी गईं ये कविताएँ प्रतिरोध का नया रूपक रचती हैं। राकेशरेणु की कविताओं में, प्रेम का भी एक मज़बूत स्वर है। अधिकांश कविताओं में स्त्री के संघर्ष और करुणा को गहराई से उकेरा गया है। सबसे आगे बढ़कर कवि जब यह कहता है : आज़ाद होना चाहते हो तो प्रेम करो नफ़रतें मिटाने के लिए प्रेम करो . . . . हर विभाजन के ख़िलाफ़ प्रेम करो ज़ुल्मतें मिटाने के लिए प्रेम करो दु:शासन हटाने के लिए प्रेम करो तब अचानक ये पंक्तियाँ हमारे समय का नारा बन जाती हैं। – मदन कश्यप
अनुवाद- राजेश कुमार झा
पेरुनदेवी तमिल की महत्वपूर्ण कवि हैं। पिछले बीस वर्षों में उनके आठ काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। औरतों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा और सामाजिक आचरणों के बारे में भी उन्होंने कई लेख लिखे हैं। वे न्यूयॉर्क में एसोशिएट प्रोफेसर हैं और अपना समय न्यूयॉर्क और चेन्नई में बिताती हैं। उनकी इन कविताओं का मूल तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद एन कल्याण रमण ने किया जो आधुनिक तमिल…
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बाल कविता संकलन:गाती रही हवा-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
बाल कविता संकलन:गाती रही हवा-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
बाल कविता संकलन:गाती रही हवा
-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
बाल कविता संकलन:गाती रही हवा-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
इस बाल कविता संकलन में कुल 50 बाल कविता संकलित है, जिसमें बाल मनोवृत्ती और प्रकृति का अनूठा मिश्रण प्रस्तुत किया गया है । बाल पाठक इन कविताओं से आनंदित होगी ऐसी आशा है ।
1.तितली उड़ी और आ बैठी
तितली उड़ी और आ बैठीकॉपी के पन्नो परबोली मुझको भी पढ़ना हैनई नई बातें करना है ।आर्या…
जहां ईमान ही पर टिकना संदिग्ध हो वहां पॉलिटिक्स में भी क्या सदाक़त रह जाएगी: असद जैदी
जहां ईमान ही पर टिकना संदिग्ध हो वहां पॉलिटिक्स में भी क्या सदाक़त रह जाएगी: असद जैदी
(कल कवि और पत्रकार अजय सिंह की कविताओं के नये संकलन ‘यह स्मृति को बचाने का वक्त है’ का विमोचन था। इस मौके पर कवि और साहित्यकार असद जैदी नहीं पहुंच पाए थे। लेकिन उन्होंने इस मौके पर अपना लिखित वक्तव्य भेज दिया था जिसको यहां प्रकाशित किया जा रहा है-संपादक)
“हमें अपने देश को नये सिरे से ढूँढ़ना चाहिए” हमारे महबूब साथी और प्रिय कवि अजय सिंह की एक कविता का यह मूल वाक्य है। यह एक वैकल्पिक विचारशीलता…
सूक्ष्म समीक्षा: अश्विनी रथ द्वारा 'राइजिंग पेटल्स' - टाइम्स ऑफ इंडिया
सूक्ष्म समीक्षा: अश्विनी रथ द्वारा ‘राइजिंग पेटल्स’ – टाइम्स ऑफ इंडिया
अश्विनी रथ की पहली पुस्तक ‘राइजिंग पेटल्स’ 26 कविताओं का संग्रह है जो मूड, स्थानों, घटनाओं और वस्तुओं के माध्यम से आधुनिक लोगों की चिंता की पड़ताल करती है। कविता संग्रह का प्रकाशन नोटियन प्रेस ने किया था।
रथ कवि के नोट में लिखते हैं, “‘राइजिंग पेटल्स’ कविताओं का एक संकलन है जो एक व्यक्ति और एक समाज के रूप में बिना किसी व्यवधान या रक्तपात के विकास के अगले चरण के लिए उत्सुक किसी की चिंता को दर्शाता…
किताब के बारे में...
प्रेम के रंग - संगीता द्वारा लिखी गई रोमांस कविताओं का एक संकलन है जो प्रेम की विभिन्न भावनाओं और रंगों को बड़े ही खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत करता है। इस संग्रह में कविताएं जीवन के अलग-अलग पहलुओं से प्रेरित हैं, जैसे पहली मुलाकात का जादू, वियोग की कसक, प्रेम की मासूमियत और उसके उत्कर्ष के पल।
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सांख्यिकी अधिकारी ने जीवन दर्शन पर लिखी ‘काव्यांजलि‘
सांख्यिकी अधिकारी ने जीवन दर्शन पर लिखी ‘काव्यांजलि‘
उदयपुर 10 दिसंबर/उदयपुर जिले के प्रतिभावान मुख्य आयोजना अधिकारी एवं सांख्यिकी उपनिदेशक पुनीत शर्मा ने जीवन दर्शन पर एक पुस्तक काव्यांजलि की रचना की है।
लेखक के अनुसार ‘काव्यांजलि जीवन एक मौन अ��िव्यक्ति’ द्वारा समय-समय पर जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ाव पर लिखी गई 51 श्रेष्ठ कविताओं का संकलन है। जिसमें प्रकृति के विभिन्न पहलुओं और जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है। लेखक द्वारा बहुत ही…
मानवता के जाज्वल्यमान नक्षत्र: गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर
निर्विवाद रूप से यह यह स्वीकार्य है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक ही साथ साहित्यकार, संगीतज्ञ, समाज सुधारक, अध्यापक, कलाकार एवं संस्थाओं के निर्माता थे। वे एक स्वप्नदृष्टा थे, जिन्होंने अपने सपनों को साकार करने के लिए अनवरत् कर्मयोगी की तरह काम किया। उनका जन्म कोलकाता के जोड़ासाँको, ठाकुरबाड़ी में 7 मई 1861 को एक साहित्यिक माहौल वाले कुलीन समृद्ध परिवार में हुआ था।
बचपन से ही रवीन्द्रनाथ की रुचि गायन, कविता और चित्रकारी में देखी जा सकती थी। महज 8 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी और 16 साल की उम्र से कहानियां और नाटक लिखना प्रारम्भ कर दिया था। समृद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण रवीन्द्रनाथ का बचपन बड़े आराम से बीता। कुछ माह तक वे कलकत्ता में ओरिएण्टल सेमेनरी में पढ़े पर उन्हें यहाँ का वातावरण बिल्कुल पसंद नहीं आया। इसके उपरांत उनका प्रवेश नार्मन स्कूल में कराया गया। यहाँ का उनका अनुभव और कटु रहा।
विद्यालयीन जीवन के इन कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा जब मैं स्कूल भेजा गया तो, मैने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गयी है। उसकी जगह लकड़ी की बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आखों से घूर रही हैं इसीलिए जीवन पर्यन्त गुरुदेव विद्यालय को बच्चों की प्रकृति, रूचि एवं आवश्यकता के अनुरूप बनाने के प्रयास में लगे रहे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में हुई थी जिसके बाद 1878 में उन्हें बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन विश्वविद्यालय में दाखिला दिलाया गया लेकिन वहाँ के शिक्षा के तौर तरीके रविन्द्रनाथ को पसंद न आए और 1880 में बिना डिग्री लिए ही वे भारत लौट आए।
गुरुदेव 1901 में सियालदह छोड़कर शांतिनिकेतन आ गये। प्रकृति की गोद में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। शांतिनिकेतन में एक खुले वातावरण प्राकृतिक जगह में एक लाइब्रेरी के साथ 5 विद्यार्थियों को लेकर शांतिनिकेतन स्कूल की स्थापना की थी, जो आगे चलकर 1921 में विश्वभारती नाम से एक समृद्ध विश्वविद्यालय बना। शांतिनिकेतन में टैगोर ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखीं थीं और यहाँ मौजूद उनका घर ऐतिहासिक महत्व का है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी ज़्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गयी थी।
रवींदनाथ टैगोर का अधिकतर साहित्य काव्यमय रहा, उनकी बहुत सी रचनाएं उनके गीतों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने तकरीबन ढाई हजार गीतों की रचना की। रविन्द्रनाथ की रचनाएं यह अहसास कराने वाली होती थीं जैसे उन्हें रागों के आधार पर रचा गया हो।
टैगोर की महान रचना ‘गीतांजली’ 1910 में प्रकाशित हुई जो उनकी कुल 157 कविताओं का संग्रह है। मूल गीतांजलि वस्तुतः बाङ्ला भाषा में पद्यात्मक कृति थी। इसमें कोई गद्यात्मक रचना नहीं थी, बल्कि सभी गीत अथवा गान थे। इसमें 125 अप्रकाशित तथा 32 पूर्व के संकलनों में प्रकाशित गीत संकलित थे। पूर्व प्रकाशित गीतों में नैवेद्य से 15, खेया से 11, शिशु से 3 तथा चैताली, कल्पना और स्मरण से एक-एक गीत लिये गये थे। इस प्रकार कुल 157 गीतों का यह संकलन गीतांजलि के नाम से सितम्बर 1910 ई॰ (1317 बंगाब्द) में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा प्रकाशित हुआ था। इसके प्राक्कथन में इसमें संकलित गीतों के संबंध में स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था - "इस ग्रंथ में संकलित आरंभिक कुछेक गीत (गान) दो-एक अन्य कृतियों में प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन थोड़े समय के अंतराल के बाद जो गान रचित हुए, उनमें परस्पर भाव-ऐक्य को ध्यान में रखकर, उन सब���ो इस पुस्तक में एक साथ प्रकाशित किया जा रहा है।"
यह बात अनिवार्य रूप से ध्यान रखने योग्य है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मूल बाङ्ला गीतों के संकलन इस 'गीतांजलि' के लिए नहीं दिया गया था बल्कि इस गीतांजलि के साथ अन्य संग्रहों से भी चयनित गानों के एक अन्य संग्रह के अंग्रेजी गद्यानुवाद के लिए दिया गया था। यह गद्यानुवाद स्वयं कवि ने किया था और इस संग्रह का नाम 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स ' रखा था। 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' नाम में 'सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' का अर्थ भी वही है जो मूलतः 'गीतांजलि' का है अर्थात् 'गीतों के उपहार'। वस्तुतः किसी शब्द के साथ जब 'अंजलि' शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वहाँ 'अंजलि' का अर्थ केवल दोनों हथेली जोड़कर बनाया गया गड्ढा नहीं होता, बल्कि उसमें अभिवादन के संकेतपूर्वक किसी को उपहार देने का भाव सन्निहित होता है। पाश्चात्य पाठकों के लिए यही भाव स्पष्ट रखने हेतु कवि ने अलग से पुस्तक के नाम में 'सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' शब्द जोड़ दिया।
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'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' में मूल बाङ्ला गीतांजलि से 53 गीत लिये गये थे तथा 50 गीत/गान कवि ने अपने अन्य काव्य-संकलनों से चुनकर इसमें संकलित किये थे, जिनके भाव-बोध गीतांजलि के गीतों से मिलते-जुलते थे। अंग्रेजी अनुवाद में बाङ्ला गीतांजलि के बाद सन् 1912 में रचित 'गीतिमाल्य' (1914 में प्रकाशित) से सर्वाधिक 16 गीत लिए गये थे तथा 15 गीत नैवेद्य से संकलित थे। इसके अतिरिक्त चैताली, कल्पना, खेया, शिशु, स्मरण, उत्सर्ग, गीत-वितान तथा चयनिका से भी कुछ कविताओं को चुनकर अनूदित रूप में इसमें स्थान दिया गया था। अंग्रेजी गद्यानुवाद वाला यह संस्करण 1 नवम्बर 1912 को इंडियन सोसायटी ऑफ़ लंदन द्वारा प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण कवि रवीन्द्रनाथ के पूर्वपरिचित मित्र और सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्रों से सुसज्जित था तथा अंग्रेजी कवि वाई॰वी॰ येट्स ने इसकी भूमिका लिखी थी। मार्च 1913 में मैकमिलन पब्लिकेशन ने इसका नया संस्करण प्रकाशित किया।
कविताओं और गीतों के अतिरिक्त उन्होंने अनगितन निबंध लिखे, जिनकी मदद से आधुनिक बंगाली भाषा अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरी। टैगोर की विलक्षण प्रतिभा से नाटक और नृत्य नाटिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। वह बंगला में वास्तविक लघुकथाएं लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। अपनी इन लघुकथाओं में उन्होंने पहली बार रोजमर्रा की भाषा का इस्तेमाल किया और इस तरह साहित्य की इस विधा में औपचारिक साधु भाषा का प्रभाव कम हुआ।
अपने जीवन में रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित कई देशों की यात्राएं कीं। 51 वर्ष की उम्र में जब वे अपने बेटे के साथ समुद्री मार्ग से भारत से इंग्लैंड जा रहे तब उन्होंने अपने कविता संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया।
गुरुदेव के सामाजिक जीवन की बात करें तो उनका जीवन मानवता से प्रेरित था, मानवता को वे देश और राष्ट्रवाद से ऊपर देखते थे। रवीन्द्रनाथ गांधीजी का बहुत सम्मान करते थे। महात्मा की उपाधि गांधीजी को रवीन्द्रनाथ ने ही दी थी, वहीं रवीन्द्रनाथ को ‘गुरूदेव’ की उपाधि महात्मा गांधी ने दी। 12 अप्रैल 1919 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने गांधी जी को ‘महात्मा’ का संबोधन किया था, जिसके बाद से ही गांधी जी को महात्मा कहा जाने लगा। बेमिसाल बहुमुखी व्यक्तित्व वाले टैगोर ने दुनिया को शांति का संदेश दिया, लेकिन दुर्भाग्य से 1920 के बाद विश्व युद्ध से प्रभावित यूरोप में शांति और रोमांटिक आदर्शवाद के उनके संदेश एक प्रकार से अपनी आभा खो बैठे।
एशिया में परिदृश्य एकदम अलग था. 1913 में जब वह नोबेल पुरस्कार (प्रसिद्ध रचना गीतांजलि के लिए) जीतने वाले पहले एशियाई बने तो यह एशियाई संस्कृति के लिए गौरव का न भुलाया जा सकने वाला क्षण था। वह पहले गैर यूरोपीय थे जिनको साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार गुरुदेव ने सीधे स्वीकार नहीं किया। उनकी ओर से ब्रिटेन के एक राजदूत ने पुरस्कार लिया था और फिर उनको दिया था। उनको ब्रिटिश सरकार ने 'सर' की उपाधि से भी नवाजा था जिसे उन्होंने 1919 में हुए जलियांवाला बाग कांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने उनको 'सर' की उपाधि वापस लेने के लिए मनाया था, मगर वह राजी नहीं हुए।
वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बाँग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। स्वामी विवेकानंद के बाद वह दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने विश्व धर्म संसद को दो बार संबोधित किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी भूमिका स्वतंत्रता पूर्व आन्दोलनों में भी रही है। 16 अक्टूबर 1905 को बंग-भंग आन्दोलन का आरम्भ टैगोर के नेतृत्व में ही हुआ था। इस आन्दोलन के चलते देश में स्वदेशी आन्दोलन को बल मिला। जलियांवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष लोगों के नरसंहार की घटना से रविन्द्रनाथ को गहरा आघात पहुंचा था, जिससे क्षुब्ध होकर उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी गयी ‘नाईट हुड’ की उपाधि को वापस लौटा दिया था।
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। जीवन के अन्तिम समय से कुछ पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा और नये का आगमन होगा। प्रोस्टेट कैंसर के कारण 07अगस्त 1941 को गुरुदेव इस दुनिया से सदैव के लिए प्रयाण कर गये। लोगों के बीच उनका इतना ज्यादा सम्मान था कि उनकी मृत्यु के बारे में कोई भी व्यक्ति यकीन नहीं करना चाहता था।
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Author: Vibhor Mathur
Genre: Poetry
Publisher: Notion Press; 1st edition (4 January 2021)
Language: Hindi
Paperback: 142 pages
मन के बोल विभोर माथुर द्वारा रचित ३३ कविताओं का संकलन है. इस काव्य संकलन की विशेषता इस तथ्य में निहित है की सभी कवितायेँ एक दूसरे से भिन्न होकर भी एक सी हैं. क्यूंकि उनका मूल एक है – कवि की उनके विचारों को स्वतंत्रता से प्रस्तुत न कर पाने की झुंझलाहट. ठीक शुरुआत में कवि…
आज पंजाबी भाषा के मशहूर कवि अवतार सिंह संधू उर्फ ‘पाश’ की पुण्य तिथि है। 23 मार्च 1988 को “पाश” भी अपने जीवन के प्रिय आदर्श, शहीद-ए-आजम के रास्ते पर चले गए। इसी दिन भगत सिंह भी अपने साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ देश के स्वतंत्रता-आंदोलन की बलिवेदी पर चढ़े थे। यह अदभुत संगम इस अमर तारीख की चमक को और बढ़ा देता है। आज ही के दिन 23 मार्च 1988 में इस क्रांतिकारी जनप्रिय कवि की, आतंकवादियों ने उनके अपने ही गांव में गोली मारकर हत्या कर दी थी। सन 1950 में पंजाब के जालंधर जिले के तलवंडी सलेम में जन्में ‘पाश’ की कविताएं हमेशा से क्रांतिकारी रहीं। दिग्गज कवि अवतार सिंह संधू उर्फ “पाश” की तुलना भगत सिंह और चंद्रशेखर से भी की जाती रही है।
*“पाश” समूची भारतीय कविता के लिए एक ज़रूरी नाम है। उन्हें ‘क्रांति का कवि’ के नाम से भी जाना जाता है। महज़ 15 साल की किशोर आयु में ही उनकी क़लम से परिपक्व कविताएँ निकलनी शुरू हो गयी थी। “पाश” की काव्य-यात्रा 15 वर्ष की उम्र से ही आरम्भ हो गयी थी। और 20 वर्ष के होते-होते जब उनका पहला काव्य संकलन ‘लौह कथा’ छपा था, तब तक वे पंजाबी के एक प्रतिष्ठित कवि के रूप में स्थापित हो चले थे। “पाश” के कुल चार कविता संग्रह “लौह कथा”(1970) , “उडडदे बाँजा मगर”(1974), “साडे समियाँ विच”(1978) और “लड़ान्गे साथी”(1988) मूल पंजाबी में प्रकाशित हैं।* और हिंदी में अनूदित दो संग्रह “बीच का रास्ता नहीं होता” और “समय ओ भाई समय” भी प्रकाशित हुए हैं।
*मूलतः पंजाबी भाषा के कवि “पाश” की कविताओं का हिंदी अनुवाद उनके पाठकों में अत्यंत लोकप्रिय है।* पाश की कविताओं के हिंदी अनुवाद को लोग किसी हिंदी कवि की तरह ही पढ़ते हैं। और ना केवल हिंदी बल्कि तमाम भाषाओं में उन्हें खूब पढ़ा जाता है। *उनकी कविता काव्य परंपरा की अत्यंत प्रभावी और सार्थक अभिव्यक्ति है। *
*पाश की कविताओं को पढ़ना उनसे से गुजरना एक अनौखे अनुभव से गुजरना है।वह अपने समाज व अपनी ज़मीन से सीधे-सीधे जुड़े हुए कवि ��े।*
उनके लिए कविता के क्या मायने थे यह उनकी इस कविता के शब्दों से गुजरकर बहुत अच्छी तरह से समझा जा सकता है:
शब्द जो *राजाओं की घाटी* में नाचते हैं
जो *माशूक की नाभी का क्षेत्रफल* नापते हैं
जो *मेजों पर टेनिस बॉल* की तरह लुढ़कते हैं
जो *मंचों की खारी धरती* पर उगते हैं... कविता नहीं होते।
23 मार्च का दिन शहीद भगत सिंह के लिए भी जाना जाता है और पाश के लिए भी...!💫
Kashturi ki Talash ( कस्तूरी की तलाश ) कस्तूरी की तलाश नये रास्तों की तलाश करने वाले प्रदीप कुमार दाश "दीपक" जी इण्डिया बुक आॅफ रिकार्ड -2017 से सम्मानित "कस्तूरी की तलाश" विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह कृति के रूप में हिन्दी काव्य को एक अनुपम उपहार प्रदान किए हैं । "कस्तूरी की तलाश" रेंगा कविताओं का हिन्दी में पहला संकलन है । प्रदीप जी ने इसे बड़े परिश्रम और सूझ-बूझ से संपादित किया है । इस संग्रह के रचनात्मक कार्य में 65 कवि जुड़े हुए हैं । कृति का महत्व इससे प्रतिपादित होता है कि संग्रह के संदर्भ में हिन्दी के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ हाइकुकार डाॅ सुरेन्द्र वर्मा जी कृति की समीक्षा में कहते हैं - "मुझे पूरा विश्वास है कि हिन्दी काव्य जगत दीपक जी के इस प्रयत्न की भूरि-भूरि प्रशंसा करेगा और उसे रेंगा पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा ।"