#Teen Phere Baad
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मुंशी प्रेमचंद की सारी की सारी रचनाएं गांव से निकलती है। उनके ज्यादातर पात्रों के नाम में भी गांव के ही समावेशी होते हैं। हिन्दू संस्कृति में शादी में वर-वधु को सात फेरेे लेने पड़ते हैं। इन सात फेरांें में सात वचनों का पालन और उसके कर्तव्य का पाठ नव दम्पती को पढ़ाया जाता है। प्रस्तुत उपन्यास में संयोगवश दो बार ऐसा प्रसंग आता है कि शादी की रस्में तीन फेरे होकर रुक जाती हैं। आमतौर पर ऐसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। और सच भी यह है कि तीन फेरों से शादी की सम्पूर्ण रस्म पूरी नहीं मानी जाती। अलग-अलग विद्वानों ने सात फेरों के महत्व को अपने - अपने तरीके से वर्णित किया है। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि शादी बिना फेरों के भी सम्भव है। आजकल कोर्ट और मंदिरों में वर-वधु माला पहना कर शादी कर लेते हैं। फिल्म क्रान्ति में मैंने प्यार की परिभाषा इस प्रकार दी थी कि ’लाख गहरा हो सागर तो क्या प्यार से कुछ भी गहरा नहीं’ जिसे भारत के जन जन ने सराहा। इससे स्पष्ट है कि प्यार की गहराई आकाश पाताल की लम्बाई में या गज या मीटरों में नहीं मापी जा सकती। दो प्रेमियों के मन का सच्चा मिलन भी पारम्परिक शादी से ज्यादा अटूट बंधन हो सकता है। प्रस्तुत उपन्यास ’तीन फेरे बाद’ में पहली घटना उस समय घटती है जब जमींदार का प्रमुख नौकर बहा��ुर बेमेल शादी कराने पर तुला होता हैं। अचानक जमींदार ठाकुर श्यामदेव का उस शादी में आगमन होता है, और शादी तीन फेरे हो जाने के बाद रुक जाती है। ग्रामीण पृष्ठभूमि की यह कहानी एक बार फिर -तब विचित्र मोड़ लेती है, जब जमींदार ठाकुर श्यामदेव के बेटे के जीवन में भी उसी तरह की घटना घटती है। उसके पिता द्वारा बचपन में तय की गई लड़की की शादी किसी और के साथ जबरदस्ती करवायी जा रही होती है। इसे देवता का वरदान कहें या कुदरत का करिश्मा, वहां भी शादी तीन फेरे बाद हो कर रुक जाती है। संभवतः इसी घटना से प्रेरित होकर लेखक ने इस उपन्यास का नाम तीन फेरे बाद रखा है। प्रेम प्यार की कहानियों में प्रायः दो तरह के पात्र होते हैं, एक बहुत ही सुलझा हुआ उदार हृदय वाला इंसान और दूसरा बद् और बदनाम। पुराने समय में अगर जमींदार भला इंसान होता था तो उसकी जनता का जीवन बेहद खुशहाल होता था और रियाया भी अपने जमींदार में भगवान की छवि देखती थी। जमींदार श्यामदेव अनेक अवसरांे पर लगान की माफी के साथ-साथ गरीब जनों के शादी विवाह जैसे मामलों में कई आवश्यक चीजें अपनी ओर से प्रदान करते थे। लेकिन सुख के दिन ज्यादा नहीं होते। ठाकुर श्यामदेव की अचानक मृत्यु के बाद, उसका भाई बलदेव के जमींदार बन जाने से रियाया को दमन के चक्रव्युह में पीसना पड़ता है। बलदेव को अपनी कोई संतान नहीं होती है।
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आज दुनिया में मुसलमानों के नाम पर जो लोग जिहाद और आतंक कीजिस कार्रवाई को खुदा का हुक्म बता रहे हैं और मरने के बाद हूरों के साथ जन्नत मेंअन्तहीन जीवन की कामनाओं को हवा दे रहे हैं, दरअसल यह पूरी कौम को गुमराह कर रहे हैं। इन हालात से मैं खुद को शर्मिन्दाअनुभव करता हूं। खुुदा पर ईमान का मतलब रब की तलाश है न कि उसके नाम पर कत्लेआम।जिसके दिल में रब का डर नहीं। वह इंसान नहीं।
ऐसे तमाम लोगों से मिलते जुलते और उनकी सोच के दायरे मेंकदम रखते हुए मेरी निगाहों ने जो कुछ देखा और कानों ने सुना और उसके जो नतीजेदेखने को मिले। मैंने हमेशा पूरी ईमानदारी से अपनी कलम का विषय बनाने औेर जमाने कोउसके गढ़े हुए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक,धार्मिक तथा पारंपरिक संरचना के दुष्परिणामों कोनतीजे के साथ पाठकों को अवगत कराने का प्रयास किया है।
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