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#2019 में बनाई थी राजनीतिक पार्टी
dainiksamachar · 23 days
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महाराष्ट्र में सीएम के लिए कौन है पहली पसंद, ताजा सर्वे में चाैंकाने वाले नतीजे, जानें
मुंबई: महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए महायुति और महाविकास आघाडी (MVA) दोनों ने ही सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, लेकिन महाराष्ट्र का नया मुख्यमंत्री कौन होगा? इसको लेकर महायुति और महाविकास आघाडी दोनों के घटकों में बयानबाजी होती आई है। ऐसे में अब जब महाराष्ट्र चुनावों के ऐलान में सिर्फ एक महीना बाकी रह गया है तब महाराष्ट्र के लोग किसको अगले सीएम के तौर पर देखना चाहते है? या फिर सीएम पद के लिए सबसे आगे कौन है? इसको लेकर हाल ही में हुए एक सर्वे में दिलचस्प तस्वीर उभरकर सामने आई है। किसे मिले ज्यादा फीसदी मत? महाराष्ट्र्र के वरिष्ठ सेफोलॉजिस्ट दयानंद नेने ने 16 अगस्त से 25 अगस्त के बीच राज्य में सर्वे किया था। इसमें उन्होंने लोगों से पूछा था कि वे किसको अगले मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं तो इसमें 23 फीसदी लोगों ने देवेंद्र फडणवीस को सीएम के तौर देखने की इच्छा व्यक्त की। इसके बाद दूसरे नंबर पर उद्धव ठाकरे रहे। उन्हें इस सर्वे में 21 फीसदी वोट मिले। तीसरे नंबर पर मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे रहे। उन्हें फिर से मुख्यमंत्री के तौर पर देखने के 18 फीसदी लोगों ने अपना समर्थ ने दिया। सर्वे में अजित पवार और सुप्रिया सुले को सात-सात फीसदी वोट मिले, जब महाराष्ट्र कांग्रेस के चीफ नाना पटोले को सिर्फ 2 फीसदी लोगों ने अपनी पंसद बताया। सर्वे में 22 फीसदी लोगों ने 'डोन्ट नो (पता नही)' का विकल्प भी चुना। किसे-किस क्षेत्र से मिला समर्थन? 1.देवेंद्र फडणवीस: मुख्य रूप से नागपुर, गोंदिया भंडारा, गढ़चिरौली, मुंबई, एमएमआर, पुणे, नासिक क्षेत्रों से मिला समर्थन।2.उद्धव ठाकरे: मुख्य रूप से मुंबई, संभाजी नगर, धाराशिव और हिंगोली इलाकों से समर्थन मिला।3. एकनाथ शिंदे: ठाणे, एमएमआर, संभाजी नगर, जलगांव, कोल्हापुर क्षेत्रों से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।4. अजित पवार/सुप्रिया सुले: राष्ट्रवादी के प्रभाव वाले क्षेत्र पश्चिम महाराष्ट्र से समर्थन मिला। 5. नाना पटोले: विदर्भ के एक छोटे हिस्से भंडारा और चंद्रपुर से सर्वे में मत प्राप्त हुए। अक्टूबर में ऐलान, नवंबर में चुनावमहाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का ऐलान 9 अक्तूबर को संभव है। ऐसे में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के लिए वोटिंग 15 से 20 नवंबर के बीच हो सकी है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि चुनाव आयोग जम्मू कश्मीर और हरियाणा के चुनाव परिणाम आने के बाद महाराष्ट्र चुनावों का ऐलान कर सकता है। महाराष्ट्र में विधानसभा की कुल 288 सीटें हैं। 2019 के चुनावों में बीजेपी 105 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। तब वह शिवसेना के साथ मिल लड़ी थी। पिछले पांच सालों में राज्य की राजनीति काफी बदल चुकी है। शिवसेना दो भागों में विभाजित है। ऐसी ही स्थिति राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की है। ऐसे में 2024 विधानसभा चुनावों को बेहद निर्णायक और दिलचस्प माना जा रहा है। http://dlvr.it/TCg0mv
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jaivendra · 4 years
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Shah Faesal Image Source : FILE PHOTO
श्रीनगर: पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैसल, जो नौकरशाह से राजनेता बने, उनके प्रशासन में वापस शामिल होने की संभावना है। दरअसल अधिकारियों ने उन्हें अवगत कराया है कि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया है। यह जानकारी शीर्ष अधिकारियों ने दी। दिलचस्प बात तो यह है कि फैसल द्वारा इस्तीफा देने और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (जेकेपीएम) नामक एक राजनीतिक पार्टी बनाने के बावजूद उनका नाम सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर से जम्मू एवं कश्मीर के कैडर आईएएस की सूची से नहीं हटाया गया।
कुछ खबरों के अनुसार, फैसल के अपने ट्विटर हैंडल से राजनीतिक बायो को हटाकर वापस प्रशासन सेवा में शामिल होने की संभावना जताई है। उन्होंने अपने ट्विटर बायो पर रविवार शाम को लिखा, "एडवर्ड एस फेलो, एचकेएस हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, मेडिको। फुलब्राइट। सेंटट्रिस्ट।" इससे यह साफ नजर आता है कि उन्होंने जेकेपीएम के संस्थापक के रूप में अपने राजनीतिक बायो हटा दिया है।
गौरतलब है कि उन्होंने साल 2010 की सिविल सेवा परीक्षा में टॉप किया था और उन्हें आईएएस का होम कैडर आवंटित किया गया था। एक ईमानदार अधिकारी के रूप में लोकप्रिय फैसल के शुभचिंतकों ने उन्हें साल 2018 में राजनीति में शामिल होने के लिए इस्तीफा देने पर आगाह किया था कि हो सकता है राजनीति उन्हें रास न आए।
वहीं सूत्रों का यह भी कहना है कि सरकार ने हाल ही में उन्हें यह महसूस कराया कि उनके सिविल सेवा में वापस शामिल होने से 'उन्हें कोई ऐतराज नहीं' है। यदि वह वापस प्रशासन सेवा में शामिल होने का विकल्प चुनते हैं, तो वह जम्मू और कश्मीर में सबसे कम राजनीतिक कैरियर के लिए एक और रिकॉर्ड बनाएंगे।
उन्होंने जेकेपीएम की स्थापना 2019 की शुरुआत में काफी धूमधाम से की थी।
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abhay121996-blog · 3 years
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संसद में हंगामा... इन दो नेताओं के हाथ में है पूरी खींचतान का सलूशन Divya Sandesh
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संसद में हंगामा... इन दो नेताओं के हाथ में है पूरी खींचतान का सलूशन
संसद सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा में जो कुछ भी हुआ, उसकी तपिश सियासी गलियारों में अभी तक महसूस की जा रही है और आने वाले दिनों भी उसके बरकरार रहने की उम्मीद है। सरकार और विपक्ष के बीच इस रस्साकशी में जो चेहरे सबसे ज्यादा चर्चा में हैं, उनमे से एक हैं पीयूष गोयल जो राज्यसभा में नेता सदन हैं और दूसरे हैं मल्लिकार्जुन खड़गे जो राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष हैं। रस्साकशी खत्म होना भी इन्हीं दो नेताओं की समझदारी पर निर्भर है। दोनों के बारे में बता रहे नदीम:Pure Politics: संसद का मॉनसून सत्र बेहद हंगामेदार रहा। अंतिम दिन राज्यसभा में जो तस्वीर सामने आई, उसकी तपिश अभी भी है। हालांकि माना जा रहा है कि पीयूष गोयल और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों की समझदारी पर ही आगे की चीजें टिकी हैं।संसद सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा में जो कुछ भी हुआ, उसकी तपिश सियासी गलियारों में अभी तक महसूस की जा रही है और आने वाले दिनों भी उसके बरकरार रहने की उम्मीद है। सरकार और विपक्ष के बीच इस रस्साकशी में जो चेहरे सबसे ज्यादा चर्चा में हैं, उनमे से एक हैं पीयूष गोयल जो राज्यसभा में नेता सदन हैं और दूसरे हैं मल्लिकार्जुन खड़गे जो राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष हैं। रस्साकशी खत्म होना भी इन्हीं दो नेताओं की समझदारी पर निर्भर है। दोनों के बारे में बता रहे नदीम:पीएम मोदी भरोसा करते हैं पीयूष गोयल पर57 साल के पीयूष गोयल को प��छले महीने जब राज्यसभा के लिए नेता सदन चुना गया तो राजनीतिक गलियारों में इसे उनके उनके प्रमोशन के रूप में देखा गया और यह भी कहा गया कि यह प्रधानमंत्री के उन पर भरोसे की तस्दीक है। पीयूष गोयल के लिए ऐसा मौका पहली बार नहीं आया है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल (2014-19) के दरमियान वित्त मंत्री अरुण जेटली के अस्वस्थ होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष गोयल को ही वित्त मंत्रालय का अतिरिक्त कार्यभार सौंपने का निर्णय किया था। यह फैसला इस वजह से भी काफी महत्वपूर्ण था कि वह चुनावी वर्ष था। अर्थव्यवस्था और चुनावी मजबूरियों के बीच समन्वय बनाते हुए बजट तैयार करना था। उन्हें केंद्र में मंत्री बनने का पहला मौका भी मोदी के जरिए ही मिला था, जब 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हुआ। विरासत में मिली पीयूष को सियासतपेशे से सीए पीयूष गोयल को 2010 में राज्यसभा में जगह मिली थी लेकिन बीजेपी और सियासत उनके लिए नई नहीं थी। सियासत उन्हें विरासत में मिली हुई है और बीजेपी के साथ उनकी वफादारी वंशानुगत है। उनके पिता वेद प्रकाश गोयल जनसंघ से जुड़े रहे हैं। बीजेपी के गठन के बाद वह लंबे समय तक कोषाध्यक्ष तो रहे ही, अलग-अलग पदों पर भी जिम्मेदारी निभाई। अटल जी की सरकार में मंत्री भी रहे। पीयूष गोयल की माता भी बीजेपी से तीन टर्म विधायक रही हैं। पिता की तरह पीयूष गोयल ने भी बीजेपी के अंदर कोषाध्यक्ष का पद संभाला है। देश के कॉरपोरेट घरानों में उनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है लेकिन इन सबके साथ उन्हें बेहतर प्रशासक भी माना जाता है। नीतियों को कैसे लागू कराना है, पीयूष गोयल इसके बेहतर जानकार माने जाते हैं। सुरेश प्रभु के रेल मंत्री रहते बार-बार रेल दुर्घटनाओं की वजह से जब रेल का सफर सबसे अविश्वसनीय माने जाने लगा तो प्रधानमंत्री ने पीयूष गोयल को रेल मंत्री बनाया था और पीयूष गोयल का रेल मंत्री का कार्यकाल दुर्घटना मुक्त रहा। पिछले महीने हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में पीयूष गोयल को वाणिज्य, उद्योग, उपभोक्ता, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण और कपड़ा मंत्रालय का मंत्री बनाया गया है। साथ ही वह राज्यसभा में नेता सदन हैं।एक बार कांग्रेस के हुए तो कांग्रेस के ही होकर रह गए खड़गेराज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे अपने राजनीतिक सफर के दौरान कई अलग-अलग भूमिकाओं में देखे गए हैं। कॉलेज के दिनों में उन्होंने छात्र नेता के रूप में पहचान बनाई, पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्हें श्रमिक नेता के रूप में जाना गया। 1969 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी जॉइन की, तो फिर वह कांग्रेस के ही होकर रह गए। 30 साल की उम्र में वह पहली बार विधायक बन गए थे। उसके बाद उन्होंने जो रेकार्ड बनाया, वही उनके राजनीतिक कद की पैमाइश का पैमाना माना जाता है। उन्होंने लगातार 11 चुनाव जीते, जिनमें से नौ चुनाव विधानसभा के रहे और दो चुनाव लोकसभा के। 2009 में कांग्रेस नेतृत्व ने खड़गे को राज्य की पॉलिटिक्स से केंद्रीय राजनीति में लाने का फैसला किया। खड़गे ने अपनी जीत का सिलसिला लोकसभा चुनाव में भी जारी रखा। 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उन्हें अपने राजनीतिक सफर में पहली हार 2019 में मिली जब वह लोकसभा का चुनाव हार गए। इसके बाद कांग्रेस ने उन्हें 2020 में राज्यसभा भेजा। फरवरी 2021 में गुलाम नबी आजाद का कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष चुना गया। खड़गे की एक अधूरी ख्वाहिशराजनीतिक ग���ियारों में कहा जाता है कि खड़गे को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में स्थापित करने के लिए ही कांग्रेस नेतृत्व ने गुलाम नबी आजाद को राज्यसभा में कार्यकाल को विस्तार देना जरूरी नहीं समझा। गुलाम नबी आजाद के अंदर इसी बात का दर्द भरा हुआ है जो अक्सर शब्दों का रूप लेकर बाहर आ जाता है। 2009 के लोकसभा वाले कार्यकाल में खड़गे मनमोहन सरकार में मंत्री भी रहे। 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद वह लोकसभा में कांग्रेस के नेता मनोनीत किए गए थे। कांग्रेस के इस कद्दावर नेता की एक ऐसी ख्वाहिश भी है, जो कांग्रेस के अंदर 52 साल गुजार लेने के बाद भी पूरी नहीं हो सकी। दरअसल 80 के दशक से राज्य में जब-जब कांग्रेस की सरकार बनने को हुई, खड़गे को हर बार मुख्यमंत्री पद के लिए प्रबलतम दावेदार माना गया लेकिन अंतिम क्षणों में हर बार उनके हाथ से बाजी निकल गई। कर्नाटक की पॉलिटिक्स को नजदीक से देखने वाले मानते हैं कि इतने लंबे और कामयाब पॉलिटिकल करियर के बावजूद सीएम न बन पाने का दर्द खड़गे के भीतर बना हुआ है।
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shaileshg · 4 years
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बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद अब सियासी चर्चा का केंद्र पश्चिम बंगाल हो गया है, जहां अप्रैल-मई 2021 में विधानसभा चुनाव होना है। बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 10 साल से सत्ता में है। बंगाल की विधानसभा का कार्यकाल मई 2021 में खत्म हो रहा है। निश्चित तौर पर उससे पहले चुनाव हो जाएंगे। अगर 2016 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना करें तो यह तय है कि मुकाबला भाजपा और तृणमूल के बीच ही रहने वाला है। कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का वहां इतना प्रभाव नहीं बचा है, जो कुछ साल पहले तक वहां होता था।
2016 में भाजपा जीती थी सिर्फ 3 विधानसभा सीटें
294 सदस्यों वाली बंगाल विधानसभा में 2016 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला था। तृणमूल कांग्रेस ने 44.91% वोट के साथ 211 सीटें जीती थीं। भाजपा ने 291 सीटों पर चुनाव लड़कर सिर्फ तीन सीटें जीती थीं। उसे 10.16% वोट मिले थे। लेफ्ट और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़े थे, लेकिन उनका प्रयोग पूरी तरह फेल रहा था। यह लेफ्ट पार्टियों का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था। कांग्रेस ने 40 और लेफ्ट ने 31 सीटों पर जीत हासिल की थी।
2019 में 128 विधानसभा सीटों पर भाजपा की बढ़त थी
भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ दो सीटें हासिल की थीं। उसके मुकाबले 2019 के चुनावों में उसने 18 सीटें हासिल कीं। वहीं, तृणमूल कांग्रेस की सीटें 34 से घटकर 22 रह गईं। तृणमूल कांग्रेस ने 44.91% वोट हासिल किए, जबकि भाजपा ने 40.3% वोट। भाजपा को कुल 2.30 करोड़ वोट मिले जबकि तृणमूल को 2.47 करोड़ वोट।
खास बात यह रही कि भाजपा ने राज्य की 128 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की, जबकि तृणमूल की बढ़त घटकर सिर्फ 158 सीटों पर रह गई थी। अगर 2021 की वोटिंग भी लोकसभा चुनावों की तर्ज पर इसी तरह हुई तो तृणमूल को बहुमत से सिर्फ 10 सीटें ज्यादा मिलेंगी, लेकिन यह देखना जरूरी है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट शेयर 17% था, जो विधानसभा चुनावों में घटकर 10% रह गया था।
2019 के आंकड़ों में छिपा संदेश
2014 में भाजपा की बढ़त 28 विधानसभा क्षेत्रों में थी, जबकि 2019 में यह बढ़कर 128 सीटों पर हो गई। इससे यह भी साफ है कि भाजपा बंगाल में प्रमुख विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है। सिर्फ बंगाल ही नहीं, बल्कि भाजपा की लुक ईस्ट पॉलिसी ने पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर के राज्यों में बड़ी सफलता हासिल की है।
कई राजनीतिक पंडितों के लिए यह एक केस स्टडी भी बन चुका है कि पांच साल पहले जो पार्टी बंगाल की राजनीति में बेअसर थी, वह अब प्रमुख विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी है। भाजपा ने लोकसभा चुनावों में बंगाल के उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में अपनी पैठ बनाई है। वहीं, दक्षिण बंगाल अब भी तृणमूल का गढ़ बना हुआ है।
2019 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 40 सीटों पर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस में सीधा मुकाबला था। यानी जहां भाजपा जीती, वहां तृणमूल दूसरे नंबर पर रही और जहां तृणमूल को सीट मिली, वहां दूसरे नंबर पर भाजपा थी। 10 से ज्यादा सीटों पर जीत-हार का अंतर 5% या उससे कम रहा।
बिहार चुनावों से कैसे प्रभावित होंगे बंगाल के चुनाव?
बिहार का किशनगंज पश्चिम बंगाल की सीमा पर है। इस्लामपुर जैसे मुस्लिम बहुल इलाके किशनगंज से कुछ ही घंटों की दूरी पर हैं। किशनगंज जैसी 70% मुस्लिम आबादी वाली सीट पर भाजपा की हिंदू प्रत्याशी ने कांग्रेस की जीत मुश्किल कर दी। इस इलाके में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की इंट्री हो चुकी है।
बिहार में पहली बार ओवैसी की AIMIM ने पांच सीटों पर जीत हासिल कर यह संकेत दे दिया है कि वह बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों में वोटकटवा पार्टी बन सकती है। उसने पहले ही बंगाल चुनावों की तैयारी तेज कर दी है। इसका पूरा फायदा भाजपा को मिल सकता है। यदि हिंदू वोट कंसोलिडेट हुआ, जिसकी कोशिश भाजपा पिछले कुछ वर्षों से बंगाल में कर रही है तो तृणमूल की परेशानी बढ़ सकती है। इसी तरह AIMIM की मौजूदगी से वोटर्स का ध्रुवीकरण तय है।
मालदा में 51%, मुर्शिदाबाद में 66%, नादिया में 30%, बीरभूम में 40%, पुरुलिया में 30% और ईस्ट और वेस्ट मिदनापुर में 15% मुस्लिम आबादी है। ऐसे में भाजपा की कोशिशें सफल रहीं तो निर्णायक मुस्लिम वोटों वाली सीटों पर वोट बंटेंगे और हिंदू वोट कंसोलिडेट होंगे।
भाजपा का टारगेट 220 से ज्यादा सीटों का
भाजपा की नजर 2021 के विधानसभा चुनावों में 220 सीटों पर है। उसने यह ध्यान में रखते हुए बंगाल में दो इंटरनल सर्वे भी कराए हैं। न्यूज एजेंसी PTI की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे के नतीजे बताते हैं कि आम जनता भाजपा को तृणमूल के विकल्प के रूप में स्वीकार कर रही है।
भाजपा ने दो अलग-अलग एजेंसियों से राज्य के 78 हजार बूथों पर सर्वे कराया। इसमें उसने अपनी और अन्य पार्टियों की ताकत और कमजोरी पता करने की कोशिश की। साथ ही अपने प्रत्याशियों की जीत की क्षमता भी टटोली। भाजपा इसी तरह का एक सर्वे दिसंबर में करा रही है। इन सर्वे रिपोर्ट्स के आधार पर ही पार्टी स्ट्रैटजी बना रही है।
भाजपा नेता और गृह मंत्री अमित शाह ने भी बंगाल चुनावों को लेकर सक्रियता बढ़ा दी है। इससे साफ है कि पार्टी का पूरा ध्यान अब बंगाल पर रहने वाला है। कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों ने पिछले विधानसभा चुनावों की तरह साथ आकर चुनाव लड़ा तो ही भाजपा की दिक्कत बढ़ेगी, वरना बंगाल विधानसभा में उलटफेर से इनकार नहीं किया जा सकता।
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Bihar Election 2020 Bihar Assembly Elections 2020 Latest News Update What Next For BJP West Bengal Elections 2021 How Bihar Election Results Will Affect Bengal Elections
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kisansatta · 4 years
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भारतीय राजनीति के 'मौसम वैज्ञानिक' का हुआ अंत
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नई दिल्ली : बिहार के खगड़िया गाओं से राजनीति का सफर तय करने वाले रामविलास पासवान का कल देर रात दिल्ली के एक अस्पताल में लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया | रामविलास पासवान को जमीन से जुड़ा नेता माना गया है बल्कि सच्चाई यह है कि रामविलास पासवान जमीनी नेता के साथ साथ बिहार के दलित जाती के नेताओं में शुमार है जिन्होंने आपने जीवन के 40 साल राजनीति में गुजारे | खगड़िया के एक छोटे से इलाके शहरबन्नी से निकलकर शीर्ष सत्ता तक अपनी पहचान बनाने में उन्होंने लंबा संघर्ष किया | बिहार से लेकर राष्ट्रीय सियासत तक उन्होंने अपनी पहचान बनाई | राम विलास पासवान के नाम एक रिकॉर्ड भी है | उन्होंने दो बार लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक मतों से जीतने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है | साथ ही साथ पिछले चार दशक से पासवान केंद्र में केंद्रीय मंत्री रहे है चाहे सरकार उपा की हो या वर्तमान में NDA की |
गौरतलब यह है कि राजनीति की सियासत में उनकी पकड़ इतनी मजबूत हो गयी थी कि कई बार उनकी मौजूदगी से सरकार बनती बिगड़ती थी लेकिन सत्ता में किसी की भी सरकार हो उनका मंत्री बनना तय था जीसके कारण वो लगातार केंद्र में मंत्री बने | इतना ही नहीं रामविलास पासवान राष्ट्रीय राजनीति में एकमात्र एक ऐसा चेहरा है जिन्होंने देश के छह प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मंत्री रह कर काम किया | यही वजह रही कि वह राजनीति में हमेशा प्रभावशाली भूमिका निभाते रहे ,जिसके चलते बिहार के लालू प्रसाद ने उन्हें मौसम वैज्ञानिक का नाम दिया था | राजनीतिक कद उनका इतना बड़ा था कि यूपीए में शामिल करने के लिए खुद सोनिया गांधी उनके आवास पर मिलने गई थीं |
अगर पासवान के सम्बन्ध की बात करें तो उनके सम्बन्ध सभी दल से अच्छे थे और उनकी केमिस्ट्री का कोई तोड़ ही नहीं था | सभी दलों से उनके संबंध बेहद मधुर थे |1996 से 2015 तक केन्द्र में सरकार बनाने वाले सभी राष्ट्रीय गठबंधन चाहे यूपीए हो या एनडीए, का वह हिस्सा बने | कई सरकारों में वे अलग-अलग पदों पर रहें |
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू के द्वार पासवान को मौसम वैज्ञानिक की नाम की घोषणा के बाद रामविलास पासवान खुद भी स्वीकार कर चुके थे कि वह जहां रहते हैं सरकार उन्हीं की बनती है | उनके बारे में कहा जाता है कि राजनीतिक मौसम का पुर्वानुमान लगाने में वे माहिर थे | वे समाजवादी पृष्ठभूमि के बड़े नेताओं में से एक थे | देशभर में उनकी पहचान राष्ट्रीय नेता के रूप में रही |
बिहार की सत्ता में काबिज
बात वर्ष 2005 की है जब बिहार की सत्ता की चाबी रामविलास पासवान के हाथ में आ गई | उस समय उनकी पार्टी के 29 विधायक जीतकर आए थे | किसी दल को बहुमत नहीं होने के कारण सरकार नहीं बन रही थी | पासवान अगर उस समय नीतीश कुमार के साथ या लालू प्रसाद के साथ जाते तो प्रदेश में सरकार बन सकती थी | मगर उन्होंने शर्त रख दी कि जो पार्टी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री बनाएगी उसी का साथ वह देंगे | उनकी इस शर्त पर कोई खरा नहीं उतरा और दोबारा चुनाव में जाना पड़ा | बाद में उसी साल नवंबर में हुए चुनाव में नीतीश कुमार के अगुवाई में एनडीए को बहुमत मिला और सरकार बनाई |
राजनीति सफर में आये नीचे
देश की सत्ता में पहली बार मनमोहन सरकार के 2004 में चुनाव जीतने के बाद पहली बार सांसद चुने गए वहीँ UPA के दूसरे शासन काल में रामविलास पासवान को मुँह की कहानी पड़ी अर्थक उनके हाथ हार लगी | बात यह थी कि पला पलटने में माहिर पासवान ने एक बार फिर पाला पलटा और 2009 में पासवान ने लालू प्रसाद की पार्टी राजद के साथ गठबंधन किया और पूर्व सहयोगी पार्टी कांग्रेस का दमन छोड़ दिया | इस तरह वे 33 वर्षों में पहली बार हाजीपुर से जनता दल के रामसुंदर दास से चुनाव हार गए | सबसे अहम् बात तो यह रही कि चुनाव हारने के बाद भी वह उस समय लालू प्रसाद के सहयोग से वह राज्यसभा में पहुंच गये , बाद में हाजीपुर क्षेत्र से 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वह फिर से एनडीए में आ गए और संसद में पहुंचकर मंत्री बने |
दलित सेना का गठन किया
बात वर्ष 1975 की है जब देश में इंदिरा गाँधी की सरकार थी और देश में आपातकाल की घोषणा हो गयी थी जिसके बाद पासवान को गिरफ्तार कर लिया गया था | साल 1977 में रिहा होने के बाद वह जनता पार्टी से चुनाव लड़े और पहली बार इसके टिकट पर हाजीपुर से संसद पहुंचे और उन्होंने सबसे अधिक अंतर से चुनाव जीतने का विश्व रिकॉर्ड अपने नाम किया | वे 1980 और 1984 में हाजीपुर निर्वाचन क्षेत्र से 7वीं लोकसभा के लिए चुने गए |
बिहार में दलित के मसीहा कहे जाने वाले पासवान ने 1983 में दलित मुक्ति और कल्याण के लिए एक संगठन की स्थापना की जिसका नाम दिया – दलित सेना |
रामविलास पासवान का राजनीतिक सफर ….
रामविलास पासवान का राजनीतिक सफर 1969 में हुआ था वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर बिहार विधानसभा के सदस्य बने थे | इमरजेंसी के दौरान वह जेल में रहे और आपतकाल खत्म होने के बाद उन्होंने जनता दल ज्वाइन कर लिया |
जनता दल के ही टिकट पर उन्होंने हाजीपुर संसदीय सीट से 1977 का आम चुनाव लड़ा और एतिहासिक अंतर से जीत दर्ज की | पासवान ने 1980 और 1989 के लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की | विश्वनाथ प्रताप सिंह की कैबिनेट में वह पहली बार केंद्र में मंत्री बनें |
इसके ब��द वह केंद्र की राजनीति में हमेशा सक्रिय रहे | वह कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस, कभी आरजेडी तो कभी जेडीयू के साथ कई गठबंधनों में रहे और केंद्र सरकार में मंत्री बने रहे | उन्होंने विभिन्न सरकारों में रेल से लेकर दूरसंचार और कोयला मंत्रालय तक की जिम्मेदारी संभाली | शायद यही वजह थी कि उन्हें भारतीय राजनीति का ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहा जाने लगा क्योंकि केंद्र में किसी की भी सरकार बने वह मंत्री जरूर बन जाते थे |
2002 में गुजरात दंगों की वजह से उन्हें वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दिया और एनडीए भी छोड़ दिया | इसके बाद वह यूपीए से जुड़े और मनमोहन सिंह के दोनों कार्यकाल में उन्हें केंद्रीय कैबिनेट में जगह मिली | 2014 में वह राजनीतिक हवा भांप गए और यूपीए छोड़ कर फिर से एनडीए का दामन थाम लिया | 2014 और फिर 2019 में बनी नरेंद्र मोदी की दोनों सरकारों में वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल रहे |
लेखक : अनुराग सचान
Disclaimer : यह लेखक के अपने विचार है किसान सत्ता इसकी पुष्टि नहीं करता है |
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chaitanyabharatnews · 4 years
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अयोध्या में 5 सदी बाद बनेगा भव्य राम मंदिर, जानिए शुरू से लेकर अब तक की कहानी
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चैतन्य भारत न्यूज अयोध्या. 05 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन होगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें शामिल होंगे। 5 अगस्त सुबह 8 बजे से अंतिम अनुष्ठान होगा। अयोध्या में पांच सदी के बाद अब राम मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन करेंगे। पिछले सप्ताह ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी अयोध्या जाकर तैयारियों का जायजा लिया था। माना जाता है कि बाबर के दौर में अयोध्या में राम मंदिर को तुड़वाकर मस्जिद का निर्माण कराया गया था। पिछले पांच सदी से यह विवाद था, जिसने देश की राजनीतिक दशा और दिशा को बदल दिया है। आजादी के बाद से अबतक इस विवाद ने देश की राजनीति को प्रभावित किया है। अयोध्या को लेकर देश भर में आंदोलन किए गए, कानूनी लड़ाई भी लड़ी गई और सुप्रीम कोर्ट के जरिए राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। माना जाता है कि मुगल राजा बाबर 1526 में भारत आया था और उसके सेनापति मीर बाकी ने करीब 500 साल पहले 1528 में राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाई थी, जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था। साल 1528 तक उसका साम्राज्य अवध (वर्तमान अयोध्या) तक पहुंच गया। दिसंबर 1949 में इस 'जन्मस्थान' पर भगवान राम और सीता माता की मूर्ति पाई गई। कहा जाता है कि मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति हिंदुओं ने रखवाई। वहीं हिंदुओं का दावा है कि यह एक चमत्कार था और इसे सबूत के तौर पर पेश करते हैं कि यह सचमुच श्री राम का जन्मस्थान था। मुस्लिमों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और मस्जिद में नमाज पढ़ना बंद कर दिया। इसके बाद दोनों पक्षों ने कोर्ट में मुकदमा दर्ज कराया। फिर सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित कर यहां ताला लगवा दिया। जनवरी 1950 में हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद कोर्ट में अपील दायर कर भगवान राम की पूजा की इजाजत मांगी। महंत रामचंद्र दास ने मस्जिद में हिंदुओं द्वारा पूजा जारी रखने के लिए याचिका लगाई। इसी दौरान मस्जिद को 'ढांचा' के रूप में संबोधित किया गया। फिर 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल के हस्तांतरण के लिए केस दर्ज किया। वहीं, मुस्लिमों की तरफ से साल 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने केस दर्ज कर मस्जिद पर अपने मालिकाना हक का दावा किया। यह केस 50 साल से अदालतों में चक्कर लगाता रहा। फरवरी 1984 में विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में हिंदुओं ने भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त करने और वहां राम मंदिर बनाने के लिए एक समिति का गठन किया। जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित स्थल के दरवाजे से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति/बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाई। साल 1989 जून में बीजेपी ने इस मामले में विश्व हिंदू परिषद को औपचारिक समर्थन दिया। रामलला की तरफ से वीएचपी नेता देवकीनंदन अग्रवाल ने मंदिर के दावे का मुकदमा किया। नवंबर में मस्जिद से थोड़ी दूर पर राम मंदिर का शिलान्यास किया गया। 25 सितंबर 1990 में बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली, जिससे क�� हिंदुओं को इस महत्वपूर्ण मु���द्दे से अवगत कराया जा सके। इसके नतीजे में गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में दंगे भड़क गए और ढेरों इलाके कर्फ्यू की चपेट में आ गए। फिर 23 अक्टूबर को बिहार में लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी की रथ यात्रा को रुकवा कर उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। लेकिन मंदिर निर्माण के लिए देशभर से लाखों ईंटे अयोध्या भेजी गईं। इसके बाद भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के लिए पहली बार कारसेवा हुई थी। उन्होंने मस्जिद पर चढ़कर झंडा फहराया, जिसके बाद पुलिस की गोलीबारी में पांच कारसेवकों की मौत हो गई थी। मुलायम सिंह यादव की सरकार ने पुलिस को गोली चलाने का आदेश दिया था। साल 1991 जून में उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए जिसमें मुलायम सिंह यादव की सरकार हार गई। फिर उत्तरप्रदेश में बीजेपी की सरकार बन गई। 6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दिया गया और इसी के साथ देश में दंगे शुरू हो गए। 30-31 अक्टूबर 1992 को धर्मसंसद में कारसेवा की घोषणा की गई। नवंबर में यूपी के सीएम कल्याण सिंह ने अदालत में मस्जिद की हिफाजत करने का हलफनामा दिया। ये विवाद में ऐतिहासिक दिन के तौर पर याद रखा जाता है, इस रोज हजारों की संख्या में कारसेवकों ने अयोध्या पहुंचकर बाबरी मस्जिद ढहा दिया। अस्थाई राम मंदिर बना दिया गया। इसके बाद ही पूरे देश में चारों ओर सांप्रदायिक दंगे होने लगे। इसमें करीब 2000 लोगों के मारे गए। 16 दिसंबर 1992: मस्जिद ढहाने की जांच के लिए लिब्रहान आयोग बना जिसके जज एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में जांच शुरू की गई। 1994: इलाहाबाद हाईकोर्ट में केस शुरू हुआ। सितंबर 1997: मस्जिद ढहाने को लेकर 49 लोग दोषी करार दिए गए। इसमें भारतीय जनता पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं के नाम भी थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर तनाव बढ़ गया। विश्व हिंदू परिषद ने कहा कि मार्च 2002 को अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कराया जाएगा। जनवरी-फरवरी 2002: प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने मामला सुलझाने के लिए अयोध्या समिति का गठन किया। भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया। फिर विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा कर दी। सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए। फरवरी अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे उस पर गोधरा में हुए हमले में 58 कार्यकर्ता मारे गए। 13 मार्च 2002: सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि, अयोध्या में यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी। किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं होगी। अप्रैल 2002 में हाईकोर्ट के तीन जजों की पीठ ने विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर सुनवाई शुरू की। मार्च-अगस्त 2003: हाई कोर्ट के निर्देश पर भारतीय पुरातत्व विभाग ने विवादित स्थल के नीचे खुदाई की। इसके बाद पुरातत्वविदों ने कहा कि, मस्जिद के नीचे मंदिर से मिलते-जुलते अवशेष के प्रमाण मिले हैं। मई 2003: सीबीआई ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में लाल कृष्णा आडवाणी समेत 8 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। अगस्त 2003: लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए विशेष विधेयक लाने का प्रस्ताव को ठुकराया। अप्रैल-जुलाई 2004: लालकृष्ण आडवाणी ने अस्थाई मंदिर में पूजा की और कहा, मंदिर का निर्माण तो जरूर होगा। 4 अगस्त 2005: फैजाबाद की कोर्ट ने विवादित स्थल के पास हुए हमले के आरोप में चार लोगों को न्यायिक हिरासत में भेजा। जुलाई 2006: सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ कांच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव किया। लेकिन मुस्लिम समुदाय ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। 19 मार्च 2007: राहुल गांधी ने कहा था कि, अगर नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद न गिरी होती। 30 जून-नवंबर 2009: बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में जांच के लिए गठित गठित लिब्रहान आयोग ने 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। 26 जुलाई 2010: अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट में सुनवाई पूरी हुई। सितंबर 2010: हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद पर 24 सितंबर को फैसला सुनाने की घोषणा की। लेकिन 28 सितंबर को हाईकोर्ट ने फैसला टालने की अर्जी खारिज की। 30 सितंबर 2010: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांट दिया। इसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े को मिला। 9 मई 2011: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाई। इसके खिलाफ 14 अपील दाखिल हुई। मार्च-अप्रैल 2017: 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने आपसी सहमति से इस विवाद को सुलझाने की बात कही। साथ ही कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती सहित बीजेपी और आरएसएस के और कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने का आदेश दिया। नवंबर-दिसंबर 2017: 8 नवंबर को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने कहा था कि, अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर ही बनना चाहिए और वहां से थोड़ा दूर हटके मस्जिद बनना चाहिए। 16 नवंबर को आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने भी इस मामले को सुलझाने के लिए कोशिश की। इस मामले में उन्होंने कई पक्षों से मुलाकात की। 8 फरवरी 2018 को सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट से मामले पर नियमित सुनवाई करने की अपील की। लेकिन उनकी यह अपील खारिज हो गई। 27 सितंबर 2018: कोर्ट ने 1994 के फैसले जिसमें यह कहा गया था कि 'मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं' को बड़ी बेंच को भेजने से इंकार कर दिया और कहा कि, अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दीवानी वाद का निर्णय साक्ष्यों के आधार पर होगा और पूर्व का फैसला सिर्फ भूमि आधिग्रहण के केस में ही लागू होगा। 29 अक्टूबर 2018: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई जनवरी 2019 तक के लिए टाल दी। 1 जनवरी 2019: पीएम मोदी ने कहा था कि, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए अध्यादेश पर फैसला कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही लिया जा सकता है। 8 मार्च 2019: सुप्रीम कोर्ट ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा। साथ ही पैनल को 8 हफ्ते के अंदर इस मामले की कार्यवाही खत्म करने का आदेश दिया। अगस्त 2019: 1 अगस्त को मध्यस्थता पैनल ने रिपोर्ट पेश की। फिर सुप्रीम कोर्ट ने 2 अगस्त को कहा कि, मध्यस्थता पैनल मामले का समाधान निकालने में विफल रहा। 6 अगस्त : सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले की रोजाना सुनवाई होना शुरू हो गई। 16 अक्टूबर : अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर अपना फैसला सुरक्षित रखा। 09 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर अपना फैसला सुनाया। इसके तहत कोर्ट ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन को राम लला विराजमान को देने का आदेश दिया। साथ ही मस्जिद के लिए अलग से पांच एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया। कोर्ट ने सरकार को मंदिर निर्माण के लिए तीन माह के भीतर एक ट्रस्ट बनाने का आदेश भी दिया था।  05 फरवरी 2020 को राम मंदिर निर्माण के लिए पीएम मोदी ने संसद में 15 सदस्यीय श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का ऐलान किया। सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला दिया था और तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाने की मियाद तय की थी। मोदी सरकार ने ट्रस्ट को कैबिनेट की मंजूरी दिलाने के बाद बिल संसद में पेश किया। 19 फरवरी 2020 को राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की पहली बैठक हुई। महंत नृत्यगोपाल दास को ट्रस्ट का अध्यक्ष चुना गया, जबकि VHP नेता चंपत राय को महामंत्री बनाया गया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूर्व प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा भवन निर्माण समिति के चेयरमैन नियुक्त किए गए। ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष गोविंद गिरी बने। 19 जुलाई 2020 को राम मंदिर ट्रस्ट की बैठक हुई, जिसमें पीएमओ को मंदिर के भूमि पूजन के लिए दो तारीखें भेजी गईं। पीएमओ के भेजे प्रस्ताव में 3 और 5 अगस्त में से किसी एक दिन पीएम मोदी को अयोध्या में भूमि पूजन के लिए आने का न्योता दिया गया। साथ ही मंदिर के डिजाइन को लेकर भी इस बैठक में अहम फैसले लिए गए। 25 जुलाई 2020 को यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या का दौरा कर भूमि पूजन की तैयारियों का जायजा लिया। साथ ही उन्होंने पुष्टि करते हुए कहा कि 5 अगस्त को भूमि पूजन कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या आ रहे हैं। कोरोना संक्रमण को देखते हुए सीमित संख्या में ही लोग इस भव्य आयोजन में शामिल हो सकेंगे।   Read the full article
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vsplusonline · 5 years
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पालमः बीजेपी के गढ़ में AAP की दस्तक, कांग्रेस को मिली थी एक बार जीत
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पालमः बीजेपी के गढ़ में AAP की दस्तक, कांग्रेस को मिली थी एक बार जीत
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पालम सीट पर बीजेपी-कांग्रेस के बीच रही है टक्कर
ज्यादातर बार जीत हासिल में बीजेपी ने बाजी मारी बारी
दिल्ली की पालम विधानसभा सीट की गिनती 2015 से पहले उन सीटों में होती रही है, जहां मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच होता था. हालांकि ये बात भी है कि मुकाबला भले ही इन दो दलों के बीच रहा हो, लेकिन ज्यादातर बार जीत हासिल करने के मामले में बीजेपी ने बाजी मारी.
असल में, 1991 में संविधान संशोधन करके दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया गया. नए परिसीमन के बाद विधानसभा का 1993 में गठन हुआ.1991 में 69वें संविधान संशोधन के अनुसार दिल्ली को 70 सदस्यों की एक विधानसभा दी गई. इनमें एक विधानसभा क्षेत्र पालम भी है.
यदि 1993 से चुनावी इतिहास देखें तो पालम विधानसभा सीट पर कांग्रेस को सिर्फ एक बार सफलता मिली है. 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के धरम देव सोलंकी जीते. 1998 का ही एक मात्र चुनाव है जिसमें यहां से कांग्रेस को जीत मिली और महेंद्र यादव विधानसभा के लिए चुने गए. इसके बाद 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के टिकट पर धरम देव सोलंकी लगातार जीत हासिल करते रहे.
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इस सीट पर सियासी तस्वीर 2015 में बदली, जब आम आदमी पार्टी की भावना गौड़ विधायक चुनी गईं. दिल्ली विधानसभा की सभी सीटों की तरह पालम में भी मुकालबा कांग्रेस और बीजेपी के बीच हुआ करता था, लेकिन 2013 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मैदान में आने के बाद मुकाबले में एक तीसरे दल ने दस्तक दी.
पालम विधानसभा सीट की तस्वीर
पालम विधानसभा सीट के तहत आने वाली कुल आबादी में अनुसूचित जाति का अनुपात 10.85 फीसदी है. मतदाता सूची 2019 के मुताबिक यहां 2,39,360 मतदाता 232 पोलिंग केंद्रों पर मतदान करेंगे. 2015 के विधानसभा चुनावों में यहां 65.01% वोटिंग हुई. इसमें बीजेपी, कांग्रेस, और आम आदमी पार्टी को क्रमशः 35.07%, 7.13% और 55.96% वोट मिले.
विधानसभा चुनाव 2015
भावना गौड़ (आम आदमी पार्टी)- 82,637(55.96%)
धरम देव सोलंकी (बीजेपी)- 51,788(35.06%)
मदन मोहन (कांग्रेस)- 10,529(7.13%)
विधानसभा चुनाव 2013
धरम देव सोलंकी (बीजेपी)- 42,833(33.30%)
भावना गौड़ (आम आदमी पार्टी)- 34,661(26.79%)
मदन मोहन (बसपा)- 24,862(19.33%)
2013-2015 में क्या थी चुनावी स्थिति
बहरहाल, दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) के राष्ट्रीय संयोजक एवं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के समक्ष अपना सबसे मजबूत किला बचाने की प्रबल चुनौती है.
पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतने वाले केजरीवाल का जादू इस बार चलेगा या नहीं इस पर पूरे देश की निगाहें हैं. केजरीवाल अपने पांच वर्ष के कार्यकाल के दौरान विशेषकर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्यों को गिनाते हुए इस बार भी पूरे आत्मविश्वास में हैं जबकि राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पिछला करिश्मा दोहराना मुश्किल नजर आ रहा है.
वर्ष 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही ‘AAP’ का गठन हुआ था और उस चुनाव में दिल्ली में पहली बार त्रिकोणीय संघर्ष हुआ जिसमें 15 वर्ष से सत्ता पर काबिज कांग्रेस 70 में से केवल आठ सीटें जीत पाई जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार बनाने से केवल चार कदम दूर अर्थात 32 सीटों पर अटक गई. ‘आप’ को 28 सीटें मिली और शेष दो अन्य के खाते में रहीं.
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बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के प्रयास में कांग्रेस ने ‘AAP’ को समर्थन दिया और केजरीवाल ने सरकार बनाई. लोकपाल को लेकर दोनों पार्टियों के बीच ठन गई और केजरीवाल ने 49 दिन पुरानी सरकार से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा और फरवरी 2015 में ‘AAP’ने सभी राजनीतिक पंडितों के अनुमानों को झुठलाते हुए 70 में से 67 सीटें जीतीं. बीजेपी तीन पर सिमट गई जबकि कांग्रेस की झोली पूरी तरह खाली रह गई.    
वोटिंग और मतगणना कब?
दिल्ली की पहली विधानसभा का गठन 1993 में हुआ था और इस बार यहां पर सातवां विधानसभा चुनाव कराया जा रहा है. इससे पहले राजधानी दिल्ली में मंत्रीपरिषद हुआ करती थी. दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा में इस बार महज एक चरण में मतदान हो रहा है. 8 फरवरी को वोट डाले जाएंगे जबकि 11 फरवरी को मतगणना होगी. छठी दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल 22 फरवरी 2020 को समाप्त हो जाएगा.
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dainiksamachar · 3 months
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विधानसभा-लोकसभा जाने का इंतजार कर रहीं पंकजा मुंडे को बीजेपी ने दिया तीसरा मौका, अब लड़ेंगी ये चुनाव
मुंबई: भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने विधान परिषद की 11 सीटों पर होने वाले चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। बीजेपी ने पांच लोगों को टिकट देने का ऐलान किया है। पांच साल से विधानसभा-लोकसभा जाने का इंतजार कर रहीं को बीजेपी ने तीसरा मौका दिया है। इसलिए पंकजा मुंडे पांच साल बाद विधानसभा में दिखेंगी। विधान परिषद के लिए बीजेपी ने पंकजा मुंडे, पूर्व विधायक योगेश तिलेकर, परिणय फुके, अमित गोरखे और सदाभाऊ खोत को अपना उम्मीदवार बनाया है।एक कठिन राजनीतिक यात्रासंसदीय राजनीति में पंकजा मुंडे का सफर थोड़ा उतार-चढ़ाव वाला रहा है। वह हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में बीड निर्वाचन क्षेत्र से बीजेपी की उम्मीदवार थीं। लेकिन महाविकास अघाड़ी की ओर से राष्ट्रवादी कांग्रेस:शरद चंद्र पवार की पार्टी के उम्मीदवार बजरंग सोनवणे ने पंकजा मुंडे को हरा दिया।दो बार करारी हारइससे पहले 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्हें परली विधानसभा क्षेत्र से भाई धनंजय मुंडे से हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद पंकजा को जनता का प्रतिनिधित्व करने का मौका नहीं मिला। बीजेपी ने दो बार सांसद रहीं बहन प्रीतम मुंडे का पत्ता काटकर पंकजा मुंडे को टिकट दिया था, लेकिन वह इसे बरकरार रखने में कामयाब नहीं हो पाईं।पंकजा के नाम पर सिर्फ बातइस बीच विधान परिषद हो या राज्यसभा हर चुनाव में पंकजा मुंडे के नाम की ही चर्चा होती रही, लेकिन उन्हें कभी नामांकन नहीं मिला। 2019 विधानसभा से शुरू हुआ उनका राजनीतिक संन्यास जारी रहा। इससे पहले पंकजा मुंडे देवेंद्र फडणवीस की कैबिनेट में महिला और बाल कल्याण मंत्री का पद संभाल चुकी हैं।कल नामांकन का अंतिम दिनविधान परिषद की 11 सीटों के चुनाव के लिए आवेदन दाखिल करने की अंतिम तिथि कल यानी 2 जुलाई है। 12 जुलाई को मतदान होगा और उसी दिन वोटों की गिनती के बाद नतीजे घोषित कर दिए जाएंगे।हारे हुए बड़े नेताओं में सिर्फ पंकजा को मौकालोकसभा चुनाव में हारे रावसाहेब दानवे, डॉ भारती पवार और महादेव जानकर को भी विधान परिषद में मौका मिलने की उम्मीद थी। इसके अलावा हर्ष वर्धन पाटिल, निलय नाइक, चित्रा वाघ और माधवी नाइक के नाम पर भी चर्चा हुई। एमवीए दिखाएगी ताकतइस बीच यह भी संभावना जताई जा रही है कि विधान परिषद चुनाव के लिए महाविकास अघाड़ी की ओर से तीसरा उम्मीदवार उतारा जाएगा। एमवीए नेताओं ने सत्ताधारी पार्टी को झटका देने की रणनीति बनाई है और इस वजह से चुनाव कड़ा होने की संभावना है। खाली सीटों में से महायुति के पास नौ सीटों पर चुनाव करने की ताकत है, जबकि महाविकास अघाड़ी के पास दो सीटों पर चुनाव करने की ताकत है। लेकिन ऐसे संकेत हैं कि महाविकास अघाड़ी तीसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारकर गुप्त मतदान का फायदा उठाएगी। http://dlvr.it/T91PmH
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toldnews-blog · 6 years
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पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के ऐतिहासिक ब्रिगेड परेड ग्राउंड में विपक्ष के शक्ति प्रदर्शन के बाद अब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के गढ़ में दस्तक देने जा रहे हैं. वहीं, अमेरिका में रहने वाले एक साइबर एक्सपर्ट सैयद शुजा ने दावा किया है कि भारत में 2014 के आम चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) हैक की गई थी. शुजा उस टीम के सदस्य रहे हैं जिन्होंने भारत की ईवीएम को डिजाइन किया था. इसके अलावा पंजाब, हरियाणा और दिल्ली एनसीआर सहित अन्य मैदानी इलाकों में बारिश ने मौसम को सर्द बना दिया है. मौसम विभाग के अनुसार 25 जनवरी की शाम से और बारिश हो सकती है. पढ़िए मंगलवार सुबह की 5 बड़ी खबरें…
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कोलकाता के ऐतिहासिक ब्रिगेड परेड ग्राउंड में विपक्ष के शक्ति प्रदर्शन के बाद, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के गढ़ में दस्तक देने जा रहे हैं. पिछले कुछ समय से बीजेपी पश्चिम बंगाल में बेहद आक्रामक रही है और खुद को मुख्य विपक्षी दल के तौर पर राज्य में स्थापित भी किया है. दरअसल आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए जो योजना बनाई है उसमें देश के पूर्वी हिस्से के राज्यों की अहम भूमिका है. राजनीतिक विमर्शों में बीजेपी के इस अभियान को लुक-ईस्ट रणनीति कहा जा रहा है.
लंदन में अमेरिकी हैकर ने किया दावा, EVM हैक कर 2014 में जीती थी BJP
अमेरिका में रहने वाले एक साइबर एक्सपर्ट सैयद शुजा ने दावा किया है कि भारत में 2014 के आम चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) हैक की गई थी. शुजा उस टीम के सदस्य रहे हैं जिन्होंने भारत की ईवीएम को डिजाइन किया था. शुजा ने इस बाबत सोमवार को लंदन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और ईवीएम हैकिंग से जुड़ी कई बातें रखीं. सैयद शुजा ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये अपनी बात रखी. लंदन में आयोजित इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल भी मौजूद रहे. साइबर एक्सपर्ट शुजा ने दावा किया है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की गई. शुजा ने एक चौंकाने वाला दावा यह किया कि पूर्व केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की हत्या हुई थी न कि दुर्घटना क्योंकि उन्हें ईवीएम हैकिंग की जानकारी थी.
नॉर्थ इंडिया में बारिश-बर्फबारी का डबल अटैक, 26 जनवरी तक ठिठुरने को रहिए तैयार
पंजाब, हरियाणा और दिल्ली एनसीआर सहित अन्य मैदानी इलाकों में बारिश ने मौसम को सर्द बना दिया है. मौसम विभाग के अनुसार 25 जनवरी की शाम से और बारिश हो सकती है. बारिश के मद्देनजर गणतंत्र दिवस समारोह को लेकर चिंता बढ़ गई है. मौसम विभाग के पूर्वानुमान के अनुसार उत्तरी क्षेत्र के मैदानी इलाकों, दिल्ली पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठंड बढ़ेगी. 23 और 24 जनवरी को दिल्ली-एनसीआर में कोहरा बढ़ सकता है. वहीं 25 जनवरी को देर शाम दिल्ली-एनसीआर में हल्की बारिश और 26 जनवरी को सुबह बादलों के साथ हल्की बारिश की संभावना जाहिर की गई है. सोमवार को कश्मीर में ऊंचे स्थानों पर फिर से बर्फबारी हुई और मैदानी इलाकों में बारिश देखने को मिली.
PM रेस में कूदे यशवंत सिन्हा, कहा- मैं दे सकता हूं हर साल 2-3 करोड़ रोजगार
लोकसभा चुनाव के मुद्देनजर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के खिलाफ एकजुट हो रहे विपक्षी नेताओं में कौन सरकार बनने की स्थिति में देश को नेतृत्व देगा, यह सवाल पिछले कुछ वक्त से चर्चा का विषय है. 19 जनवरी को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की महारैली के बाद यह सवाल फिर से तेजी पकड़ रहा है और बीजेपी इस बहाने विपक्षी लामबंदी को अलग अलग उपमाओं से संबोधित कर रहे हैं. महागठबंधन के मंच का हिस्सा बन रहे नेताओं में ममता बनर्जी और मायावती के नाम पर भी चर्चा है. इस बीच कोलकाता में 22 दलों के 44 नेताओं के बीच ममता के मंच पर मौजूद रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने देश का रोजगार संकट दूर करने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर खुद को सबसे प्रबल दावेदार बताया है.
कश्मीर के शोपियां में एनकाउंटर, जवानों ने 4 आतंकियों को घेरा
बडगाम के बाद मंगलवार को जम्मू कश्मीर के शोपियां में सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ हो रही है. बताया जा रहा है कि यहां एक बगीचे में 4-6 आतंकियों को सुरक्षाबलों ने घेर लिया है, जिनके बीच मठभेड़ जारी है. हालांकि, अभी तक किसी आतंकी के ढेर होने की खबर नहीं है. जिन आतंकियों को अभी घेरा गया है, उनमें सज्जाद मागरे भी शामिल है. सज्जाद रियाज नायकू का करीबी है. सुरक्षाबलों के सूत्रों का कहना है कि बहुत ही जल्द यह ऑपरेशन पूरा कर लिया जाएगा. दरअसल, सुरक्षाबलों को शोपियां के सिरमाल गांव में आतंकियों के छुपे होने की खबर मिली थी. जिसके बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) और एसओजी (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) की टीम ने मौके पर पहुंचकर आतंकियों की घेराबंदी की.
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devendrasinghworld · 4 years
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Shah Faesal Image Source : FILE PHOTO
श्रीनगर: पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैसल, जो नौकरशाह से राजनेता बने, उनके प्रशासन में वापस शामिल होने की संभावना है। दरअसल अधिकारियों ने उन्हें अवगत कराया है कि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया है। यह जानकारी शीर्ष अधिकारियों ने दी। दिलचस्प बात तो यह है कि फैसल द्वारा इस्तीफा देने और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (जेकेपीएम) नामक एक राजनीतिक पार्टी बनाने के बावजूद उनका नाम सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर से जम्मू एवं कश्मीर के कैडर आईएएस की सूची से नहीं हटाया गया।
कुछ खबरों के अनुसार, फैसल के अपने ट्विटर हैंडल से राजनीतिक बायो को हटाकर वापस प्रशासन सेवा में शामिल होने की संभावना जताई है। उन्होंने अपने ट्विटर बायो पर रविवार शाम को लिखा, "एडवर्ड एस फेलो, एचकेएस हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, मेडिको। फुलब्राइट। सेंटट्रिस्ट।" इससे यह साफ नजर आता है कि उन्होंने जेकेपीएम के संस्थापक के रूप में अपने राजनीतिक बायो हटा दिया है।
गौरतलब है कि उन्होंने साल 2010 की सिविल सेवा परीक्षा में टॉप किया था और उन्हें आईएएस का होम कैडर आवंटित किया गया था। एक ईमानदार अधिकारी के रूप में लोकप्रिय फैसल के शुभचिंतकों ने उन्हें साल 2018 में राजनीति में शामिल होने के लिए इस्तीफा देने पर आगाह किया था कि हो सकता है राजनीति उन्हें रास न आए।
वहीं सूत्रों का यह भी कहना है कि सरकार ने हाल ही में उन्हें यह महसूस कराया कि उनके सिविल सेवा में वापस शामिल होने से 'उन्हें कोई ऐतराज नहीं' है। यदि वह वापस प्रशासन सेवा में शामिल होने का विकल्प चुनते हैं, तो वह जम्मू और कश्मीर में सबसे कम राजनीतिक कैरियर के लिए एक और रिकॉर्ड बनाएंगे।
उन्होंने जेकेपीएम की स्थापना 2019 की शुरुआत में काफी धूमधाम से की थी।
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abhay121996-blog · 3 years
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राजभर ने दिखाए तेवर- 'योगी की लीडरशिप में अगर BJP विधानसभा चुनाव लड़ेगी तो हम कतई नहीं करेंगे गठबंधन' Divya Sandesh
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राजभर ने दिखाए तेवर- 'योगी की लीडरशिप में अगर BJP विधानसभा चुनाव लड़ेगी तो हम कतई नहीं करेंगे गठबंधन'
लखनऊ अगले साल 2002 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सभी दल दावे और वादे करने की कवायद में जुट गए हैं। इस बीच अटकलें लग रही हैं कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर एक बार फिर बीजेपी संग गठबंधन कर सकते हैं। इन अटकलों के बीच यूपी के पूर्व मंत्री राजभर ने दावा किया कि बीजेपी भले ही उनकी सभी शर्त मान ले, लेकिन यदि पार्टी ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चुनाव लड़ा तो वह उससे गठबंधन नहीं करेंगे।
राजभर ने कहा, ’27 अक्टूबर को हम अपनी पार्टी का स्थापना दिवस मनाएंगे और उसी दिन 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए अपने फैसले की घोषणा करेंगे। उन्‍होंने दावा किया कि इसी दिन (27 अक्टूबर को) बीजेपी की विदाई की तारीख भी तय हो जाएगी। योगी सरकार में 2017 से 2019 तक पिछड़ा वर्ग व दिव्यांग जन कल्‍याण मंत्री रहे ओमप्रकाश राजभर ने कहा कि अव्‍वल तो बीजेपी से उनका (सुभासपा) गठबंधन नहीं होने वाला है, लेकिन अगर कहीं कोई संभावना बनी तो बीजेपी को हमारी शर्तें माननी पड़ेगी। इन शर्तों में देश में जातिवार गणना, सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करना, पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री घोषित करना, एक समान और अनिवार्य निशुल्क शिक्षा आदि शामिल है।
’72 घंटे में गरीब सवर्णों के लिए लागू करें आरक्षण तो…’ पूर्व मंत्री राजभर ने कहा, ‘इनकी डबल इंजन की सरकार है और अगर 72 घंटे में गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण लागू कर सकते हैं तो हमारी मांगों को भी अभी पूरा किया जा सकता है। सभी मांगे पूरी होने के बाद ही किसी तरह की बातचीत होगी।’ राजभर ने कहा, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह सभाओं में मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ की झूठी तारीफ कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि अगला विधानसभा चुनाव योगी के ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा और ऐसी स्थिति में हम बीजेपी से कतई गठबंधन नहीं करेंगे।’
2019 में योगी सरकार से बर्खास्‍त किए गए राजभर वर्ष 2002 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की स्थापना करने वाले राजभर ने 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से गठबंधन किया था। समझौते में मिली आठ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जिसमें उनके समेत पार्टी के कुल चार उम्मीदवार विजयी हुए। इस चुनाव में राजभर की पार्टी को कुल मतदान का 0.70 प्रतिशत और लड़ी सीटों का 34.14 प्रतिशत वोट मिला। राजभर को योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया, लेकिन उनके विद्रोही तेवर को देखते हुए मई 2019 में योगी मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया। तब से वह बीजेपी के खिलाफ लगातार आग उगल रहे हैं।
राजभर-स्‍वतंत्र देव की मुलाकात से लग रही अटकलें राजभर ने बीजेपी को हराने का मंसूबा लेकर छोटे-छोटे दलों को लेकर ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ का गठन किया जिसमें असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी शामिल हुई। लेकिन पिछले मंगलवार को ओमप्रकाश राजभर और बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह की मुलाकात से राजनीतिक हलकों में गठबंधन की नई अटकलों को बल मिला।
‘योगी सरकार में नहीं सुनी जा रही सांसदों-विधायकों की बात’ राजभर ने मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ पर निशाना साधते हुए कहा, ‘राज्य में योगी सरकार पूर्ण रूप से फेल है। जब मैं मंत्री था तो सोनभद्र गया था, दौरे के बाद आया तो वहां की व्यथा मुख्यमंत्री को बताई तो कहने लगे कि आप केवल सरकार की आलोचना करते हैं। हमने उन्हें थाने में गरीबों की सुनवाई नहीं होने की बात कही, तो वह भी नहीं मानी। आज भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्‍वतंत्र देव की समीक्षा बैठकों में विधायक और सांसद सार्वजनिक तौर पर कह रहे हैं कि पुलिस हमारी नहीं सुन रही है। प्रदेश में बीजेपी के दर्जनों विधायक और सांसद पुलिस के खिलाफ धरना दे रहे हैं।’
‘सबसे ज्‍यादा भ्रष्‍टाचार पंचम तल पर’ राजभर ने योगी सरकार में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए कहा, ‘भ्रष्टाचार तो ऊपर से है। सबसे बड़ा भ्रष्‍टाचार तो पंचम तल (मुख्यमंत्री कार्यालय) पर है। योगी की सरकार में 100 प्रतिशत पैसे लेकर पोस्टिंग (तैनाती) हो रही है।’ उन्होंने कहा ‘योगी न अपने किसी मंत्री, न किसी विधायक की बात सुनते हैं, वे सिर्फ अपने अधिकारियों की बात मानते हैं।’ राजभर ने कोरोना प्रबंधन को लेकर बीजेपी सरकार पर 100 प्रतिशत झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रदेश है जहां की जनता कोरोना काल में ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, दवा और बिस्तर के लिए तरस रही थी और मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल में वोट मांग रहे थे। उन्होंने दावा किया कि इसका असर विधानसभा चुनाव में पड़ेगा और बीजेपी सौ सीटों से नीचे आ जाएगी।
‘स्‍वतंत्र देव से होती रहती है मेरी मुलाकात’ स्‍वतंत्र देव से मुलाकात के बारे में पूछे जाने पर राजभर ने कहा, ‘वो अनौपचारिक मुलाकात थी। हमारी उनकी मुलाकात अक्सर होती रहती है। जब हम सरकार में मंत्री बने तो वह भी परिवहन मंत्री थे। तभी से संबंध बना और आना जाना रहा। जब से वह बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बने तब से हमारी यह चौथी मुलाकात है। चूंकि वह संगठन के जिम्मेदार व्यक्ति हैं, इसलिए मेरी मुलाकात जगजाहिर होने पर तर्क वितर्क होने लगा।’
‘सपा-बसपा जब मिल गए तो हम क्‍यों नहीं’ राजभर से जब यह पूछा गया कि अगर स्थित बन जाती है तो वह उस बीजेपी के साथ गठबंधन कैसे करेंगे जिसके खिलाफ अभी तक वह बयान देते रहे हैं तो उन्होंने कहा, ‘आपने देखा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में धुर विरोधी बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी मिल गए। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और बीजेपी एक मंच पर हो गए। क्या कभी सोचा था।’
‘ओवैसी ने मोर्चा से अलग होने की नहीं की बात’ असदुद्दीन ओवैसी के सैयद सालार गाजी की मजार पर जाने के बाद समुदाय के लोगों की ओर से दवाब बनाने के बारे में पूछे जाने पर राजभर ने कहा, ‘राजभर समाज को ओवैसी से कोई परेशानी नहीं है और न ही ओवैसी ने अभी तक भागीदारी संकल्प मोर्चा से अलग होने की कोई बात की है। असली दिक्‍कत बीजेपी को है और बीजेपी ने भागीदारी संकल्प मोर्चा को विभाजित करने के प्रयास किए हैं।’
ओवैसी ने गाजी की मजार पर चढ़ाया था फूल एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी पिछले माह बहराइच में जब अपनी पार्टी की बैठक करने गये तो उन्होंने सैयद सालार गाजी की मजार पर फूल चढ़ाए। राजभर ने जिन महाराजा सुहेलदेव के नाम पर अपनी पार्टी बनाई है, उनके बारे में इतिहासकारों का मत है कि उन्होंने आक्रमणकारी सालार गाजी का वध किया था। ओवैसी के वहां जाने के बाद प्रदेश के म��त्री अनिल राजभर ने ओमप्रकाश राजभर पर निशाना साधते हुए कहा था कि राजभर के राजनीतिक गठबंधन से महाराजा सुहेलदेव और राजभर समाज का अपमान हुआ है।
ओवैसी की पार्टी ने राजभर से संबंध तोड़ने के दिए संकेत मंगलवार को स्‍वतंत्र देव के घर ओमप्रकाश राजभर के जाने से जहां एक तरफ सुभासपा और बीजेपी के फ‍िर से गठबंधन की चर्चाओं को बल मिला, वहीं ओवैसी की पार्टी ने राजभर से संबंध तोड़ने का संकेत दे दिया। ओवैसी की पार्टी के प्रवक्ता आसिम वकार ने राजभर-स्‍वतंत्रदेव की मुलाकात के बाद कहा कि ‘हम अपनी कौम के साथ धोखा नहीं होने देंगे।’
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jmyusuf · 5 years
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बात उस गाय की करेंगे जिसे हमारे देश के प्रधानमंत्री देश की संस्कृति और परंपरा का अहम हिस्सा मानते हैं...
ये मोदी खाता सीरीज़ की दूसरी कड़ी है. बात उस गाय की करेंगे जिसे हमारे देश के प्रधानमंत्री देश की संस्कृति और परंपरा का अहम हिस्सा मानते हैं. वो गाय को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा भी कहते हैं.
वनलाइनर पोस्ट के शौकीन दोस्त आगे बढ़ सकते हैं, ठहरकर समझने का हौसला रखनेवाले दो-तीन मिनट ध्यान दें. मेरा श्रम आपके काम आए तो इसे और लोगों तक भी पहुंचाएं.
स्पष्ट कर दूं कि मेरी खोजबीन का आधार RTI पर आधारित आंकड़ों की किताब 'वादाफरामोशी', सरकारी और प्रतिष्ठित एजेंसियों के आंकड़े और मीडिया में प्रकाशित मंत्रियों के बयान हैं. ---- गंगा और गौ को मां कहकर हिंदू भावनाओं का राजनीतिक दोहन आम बात है लेकिन जब एक ऐसी पार्टी सत्ता में आए जिसका अभ्युदय ही इन मुद्दों को उठाने के साथ हुआ हो तो उससे अपेक्षा बढ़ जाती है. मोदी सरकार ने साल 2014 में देसी नस्ल की गायों की बेहतरी के लिए एक योजना बनाई. नाम था- राष्ट्रीय गोकुल मिशन. इस योजना का प्रचार सरकार की दूसरी योजनाओं की तरह नहीं किया गया जबकि गाय को लेकर हमेशा सजग रहनेवाली सरकार और गौमांस को लेकर अचानक सक्रिय हुए एक तबके की 'फिक्र' से हम सब वाकिफ हैं.
ये योजना राष्ट्रीय पशु प्रजनन एवं डेयरी विकास कार्यक्रम की देखरेख में चलती है. तय हुआ कि इसके तहत गोकुल ग्राम बनाए जाएं. हर ग्राम में हजार गाय रखी जाएं जिनमें 60 फीसदी दुधारू और 40 फीसदी बिना दूध देनेवाली बूढ़ी और बीमार हों. इसके लिए पीपीपी मॉडल लागू करने का फैसला हुआ जो सरकार को खास प्रिय है.  ये भी तय हुआ कि देश की 83% गाय देसी नस्ल की हैं तो अगर इन पर ध्यान दिया तो दूध की नदियां ही बहने लगेंगी.  दूध के अलावा गोमूत्र और गोबर से भी प्रोडक्ट्स बनाने के सपने देखे गए.  
इस योजना के सरकारी प्रदर्शन का हिसाब 26 नवंबर 2018 को एक आरटीआई से मिला. कृषि मंत्रालय के अधीन पशुपालन विभाग ने उसका जवाब दिया था. बताया गया कि इस मिशन के लिए मोदी सरकार ने पांच सालों में 835 करोड़ रुपए जारी किए. कार्यकाल के अंतिम वर्ष में तो 301.5 करोड़ की रकम दी गई. अब असल सवाल है कि इन 835 करोड़ रुपयों की भारी भरकम राशि का खर्च गौ माता पर कैसे हुआ. ----
एक आंकड़ा न्यूज़क्लिक वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ कि यूपी में साल 2018 में अनुमानित गोवंश की संख्या 238 लाख थी, जिसमें अनुपयोगी गोवंश की संख्या करीब 43 लाख है.ये आकलन पिछली पशु गणना के दौरान रही वृद्धि दर के आधार पर है, इसमें यह वृद्धि दर तब रही जब बूचड़खानों और गौ हत्या पर प्रतिबंध नहीं था. अब हिसाब लगाइए कि देश को छोड़ भी दें तो अकेले यूपी में सरकार को कितनी गौशालाएं खोलनी चाहिए? कम से कम पचास, सौ या दो सौ?? लेकिन खुली कितनी हैं इसका जवाब खुद सरकार बताती है. जवाब है- महज़ 4. ये खुले वाराणसी, मथुरा, पटियाला और पुणे के थतवाडे में.
इस मिशन को जब लॉन्च किया गया तब खुद मोदी सरकार ने तय किया था कि 13 राज्यों में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के तहत 20 गोकुल ग्राम बनाएंगे. इसके लिए 197.67 करोड़ का बजट रखा गया जिसमें 68 करोड़ रुपए जारी भी हुए लेकिन पूरा कार्यकाल निकल गया और सिर्फ 4 गौशाला खुलीं. ----
वैसे राष्ट्रीय गोकुल मिशन के दस्तावेज़ बताते हैं कि 2012-13 में देशभर में साढ़े 4 करोड़ दुधारू पशु हैं. जुलाई 2018 तक ये आंकड़ा 9 करोड़ तक पहुंच गया. इसमें गाय-भैंस दोनों शामिल हैं. अब आप खुद सोचिए कि सरकार को कितने गोकुल ग्राम  खोलने चाहिए थे और कितने खोले गए. इसी आरटीआई में ये भी पूछा गया कि अब तक देश में कितने कामधेनु ब्रीडिंग सेंटर स्थापित किए गए हैं? इसका जवाब मिला कि राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत बस एक ब्रीडिंग सेंटर खोला गया.
ये भी तय हुआ था कि साल 2020-21 तक सारे 9 करोड़ पशुओं के हेल्थ कार्ड जारी कर दिए जाएंगे लेकिन 31 जुलाई 2018 तक राष्ट्रीय गोकुल मिशन की प्रगति रिपोर्ट ही बताती है कि चार साल में सिर्फ 1.31 करोड़ को ही हेल्थ कार्ड दिए गए.
इसके अलावा सारे पशुओं का रजिस्ट्रेशन करके एक नेशनल डेटाबेस बनाने का भी लक्ष्य रखा गया. यहां भी सरकार खुद बताती है कि वो 9 करोड़ में से बस 1.26 करोड़ (जुलाई 2018 तक) पशुओं का रजिस्ट्रेशन ही कर सकी. अनुमान आप लगा लीजिए कि इस रफ्तार से ये काम 2021 तक पूरा हो सकता है? ---- इस सबके इतर अंत में केवल इतना लिखना चाहता हूं कि निजी गौशालाओं और सरकारी गौशालाओँ में गायों का जो हाल रहता है वो किसी से छिपा नहीं है. 2018 में जयपुर की श्रीगौशाला में फूड पॉयजनिंग से 28 गायों की मौत हो गई थी. साल 2017 में कुरूक्षेत्र के मथना गांव की एक सरकारी गोशाला में भारी बारिश और चारा न होने की वजह से कम के कम 25 गायों की मौत हो गई थी. उसी साल राजस्थान के उदयपुर में सरकारी गोशाला में छह महीने के भीतर ही डेढ़ सौ गाय मर गईं.  साल 2019 के फरवरी में जयपुर के हिंगोनिया गौ पुनर्वास केंद्र में भूख से तड़पकर दस दिनों में ही करीब साढ़े 800 गायें मर गईं. इसे अक्षयपात्र नाम की संस्था चलाती है. अक्षयपात्र को हिंगोनिया का ज़िम्मा तब मिला था जब वसुंधरा सरकार की इस बात के लिए थू-थू हुई कि उसके राज में हिंगोनिया धर्मशाला की हजारों गायों ने दुखद परिस्थितियों में प्राण त्याग दिए. राजस्थान में हिंगोनिया के  मसले पर मेयर का तख्तापलट तक हो गया लेकिन गायों की मौत कहां रुक सकी. सितंबर 2016 से अक्षयपात्र ने ज़िम्मा संभाला लेकिन अब तक 31 हजार से भी ज़्यादा गाय बदहाली में तड़प-तड़प कर मारी गईं. सच तो ये है कि जब आप ये सब पढ़ रहे होंगे तब भी किसी गौशाला में गायों का हुजूम कहीं चारे की कमी, कहींं बीमारी तो कहीं शासन-प्रशासन की लापरवाही से शरीर त्याग रही होंगी.
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shaileshg · 4 years
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बात 2015 के विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले की है। पटना में अपने घर श्रीकृष्ण पुरी में बैठे रामविलास पासवान लोगों से मिल रहे थे। उसी घर के दूसरे कमरे में बेटे चिराग लोजपा के कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग कर रहे थे। तब वहां मौजूद लोगों से रामविलास ने बड़े गर्व से कहा- ‘चिराग ने सब संभाल लिया है।’ जब लोगों ने रामविलास से कहा कि आपका बेटा बहुत ज्यादा शहरी दिखता है, जबकि आप जमीनी नेता दिखते हैं। तब मुस्कुराते हुए रामविलास ने कहा- ‘वो दिल्ली में पढ़ा है न।’
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खून में राजनीति, सपनों में बॉलीवुड 31 अक्टूबर 1982 को जब चिराग का जन्म हुआ, तब पिता रामविलास लोकसभा के सदस्य थे। बचपन से ही घर पर राजनीतिक माहौल था। उनकी स्कूली पढ़ाई दिल्ली में हुई और झांसी की बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी से कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में बीटेक किया।
पढ़ाई के बाद न तो राजनीति में आए और न ही किसी टेक कंपनी में नौकरी करने गए। उन्होंने बॉलीवुड का रुख किया। साल 2011 में कंगना रनोट के साथ उनकी फिल्म आई थी, ‘मिले न मिले हम’। 13 करोड़ में बनी ये फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन सिर्फ 97 लाख रुपए था।
फिल्म के प्रमोशन के दौरान जब उनसे पूछा गया कि राजनीति की बजाय उन्होंने बॉलीवुड को क्यों चुना? तो इस पर चिराग ने जवाब दिया, ‘राजनीति एक ऐसी चीज है, जो मेरी रगों में बहती है। राजनीति से न मैं कभी दूर था, न हूं और न कभी रह सकता हूं। लेकिन, फिलहाल मैंने फिल्मों को अपना पेशा चुना है, क्योंकि मेरा बचपन से सपना था कि मैं अपने आप को बड़े पर्दे पर देखूं।’ हालांकि, चिराग की ये पहली और आखिरी फिल्म थी। इसके बाद उन्हें कोई फिल्म नहीं मिली।
फिर राजनीति में आए, 12 साल बाद लोजपा को एनडीए में लेकर आए 28 अक्टूबर 2000 को रामविलास पासवान ने अपनी लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा बनाई। लोजपा पहले एनडीए का ही हिस्सा बनी। रामविलास पासवान अटल सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन बाद में एनडीए से अलग हो गए। कहा जाता है कि 2002 में गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी का नाम आने के बाद पासवान ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया था।
बाद में जब चिराग बॉलीवुड में कामयाब नहीं हो सके, तो उन्होंने अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभालने का फैसला लिया। 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त चिराग राजनीति में एक्टिव हुए। लोग बताते हैं, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए थे, तो चिराग के कहने पर ही लोजपा एनडीए का हिस्सा बनी। उस चुनाव में चिराग जमुई से खड़े हुए और जीते। 2014 में लोजपा 7 सीटों पर लड़ी और 6 जीती।
नीतीश के आने पर सीटों का मसला उलझा, तो भाजपा को डेडलाइन दे दी जुलाई 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में आ गए। 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त एनडीए में सीट शेयरिंग का मसला उलझ गया। उस समय लोजपा के अध्यक्ष रामविलास पासवान जरूर थे, लेकिन एक तरह से सारा काम चिराग ही संभाल रहे थे।
जब कई दिनों की बातचीत के बाद भी एनडीए में सीट शेयरिंग का मसला नहीं सुलझा, तो चिराग ने ट्वीट कर भाजपा को सख्त चेतावनी दे दी। उन्होंने 18 दिसंबर 2018 को ट्वीट किया कि अगर 31 दिसंबर तक सीट शेयरिंग का मसला नहीं सुलझता है, तो नुकसान हो सकता है। नतीजा ये हुआ कि चिराग के ट्वीट के 5 दिन के भीतर ही एनडीए में सीटों का बंटवारा भी हो गया। लोजपा के हिस्से में 6 सीटें आईं और इन सभी सीटों पर जीत भी गई।
6 कंपनियों में शेयर, 90 लाख का बंगला 2014 के बाद 2019 ��ें भी चिराग जमुई से ही लड़े और जीते। इस चुनाव के वक्त उन्होंने जो एफिडेविट दाखिल किया था, उसमें उन्होंने अपने पास 1.84 करोड़ रुपए की संपत्ति बताई थी। इसमें 90 लाख रुपए तो सिर्फ एक बंगले की कीमत ही है, जो पटना में है।
चिराग के पास दो गाड़ियां हैं। पहली है जिप्सी, जिसकी कीमत 5 लाख रुपए है। और दूसरी है 30 लाख रुपए की फॉर्च्युनर। इनके अलावा चिराग पासवान 6 कंपनियों में डायरेक्टर भी हैं। इन सभी कंपनियों में उनके शेयर हैं, जिनकी कीमत 2019 के मुताबिक, 35.91 लाख रुपए है।
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Bihar Election 2020; Chirag Paswan Political Career Update | Lok Janshakti Party (LJP) leader Ram Vilas Paswan Son Chirag Paswan Property Details
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kisansatta · 4 years
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यूपी : सपा-बसपा को नामंजूर, प्रदेश में न बढ़े कांग्रेस का कद
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लखनऊ : कांग्रेस के द्वारा बुलाई गयी विपक्षी बैठक में न शामिल होने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टी मायावती और अखिलेश यादव नहीं चाहते हैं कि उनके सहारे कांग्रेस यहां अपनी ‘सियासी पिच’ मजबूत कर सके। इसी लिए सपा-बसपा नेता कांग्रेस को पटकनी देने का कोई भी मौका छोड़ते नहीं हैं। कौन नहीं जानता है कि 2019 के लोकसभा सभा चुनाव के समय किस तरह से अखिलेश-मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति से कांग्रेस को ‘दूध की मक्खी’ की तरह निकाल कर फेंक दिया था। इस पर कांग्रेस के ‘अहम’ को चोट भी लगी थी,लेकिन वह कर कुछ नहीं पाई। सपा-बसपा से ठुकराई कांग्रेस के रणनीतिकारों ने तब यूपी फतह के लिए अपना ‘ट्रम्प कार्ड’ समझी प्रियंका वाड्रा को आगे कर के चुनावी बाजी जीतने की जो रणनीति बनाई थी, वह औंधे मुंह गिर पड़ी थी। कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाता यदि सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव जीत नहीं जाती।
बहरहाल,कांग्रेस लगातार सपा-बसपा पर डोरे डालती रहती है,लेकिन दोनों ही दलों के नेता कांग्रेस को हाथ ही नहीं रखने देते हैं। इसी लिए तो आज अखिलेश और मायावती ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की उस वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए होने वाली बैठक से भी दूरी बना ली जिसके सहारे सोनिया गांधी, मोदी सरकार को घेरने का सपना पाले हुए थीं। सोनिया की बैठक में भाग लेने के लिए सपा-बसपा को निमंत्रण देने से पहले अगर कांग्रेसी नेता जरा भी दिमाग लगा लेते तो उन्हें माया-अखिलेश के सामने बौना साबित नहीं होना पड़ता।
राजनीतिक जानकारों के अनुसार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में कोई विशेष रूचि नहीं रहती है। उत्तर प्रदेश मे दोनों ही पार्टियां अपनी खोई ताकत को हासिल करने में जुटी हैं। ऐसे में अगर वे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के नेतृत्व में कोई फैसला लेती हुई दिखाई देती हैं तो इससे उन्हें सूबे में नुकसान हो सकता है। बात सपा की कि जाए तो पिछले विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके काफी नुकसान झेला है। इसके अलावा प्रियंका भी अब प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हैं, ऐसे में अगर SP कांग्रेस के साथ दिखाई देगी तो उससे प्रिंयका को यूपी में मजबूती मिलेगी। जबकि अखिलेश चाहते थे कि यूपी में बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस-सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़े, लेकिन तब बुआ जी के मोहपाश में फंसे अखिलेश ने भी चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस से दूरी बनाए रखना ही बेहतर समझा था।बसपा सुप्रीमों मायावती कांग्रेस और खासकर प्रियंका से इस लिए भी नाराज रहती हैं क्योंकि प्रियंका अक्सर भीम आर्मी के चीफ चन्द्रशेखर आजाद के सहारे मायावती की दुखती रग पर हाथ रखती रहती हैं,जबकि प्रियंका को पता है कि भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर के राजनीति में आ जाने से बीएसपी की मुश्किलें और बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में अगर एक बार फिर बीएसपी अन्य दलों के साथ खड़ी हो जाती है तो उसके दलित कार्ड पर सवाल उठने लगेंगे। बीएसपी चाहती है कि वह अपनी पुरानी दलित विचारधारा के साथ ही लड़ाई लड़े। और यूपी के दलित समाज को मैसेज दे कि बस वही है जो बिना किसी का साथ लिए दलितों के साथ खड़ी है। मायावती कई मौकों पर विपक्ष की ऐसी बैठकों में अपनी प्रतिनिधि भेजती रही हैं लेकिन इसबार उन्होंने बैठक में भाग लेने से ही इनकार कर दिया।
बात यह है कि सपा-बसपा नेता कतई यह नहीं चाहते हैं कि कांग्रेस उनके सहारे उत्तर प्रदेश में कदम बढ़ा सके, क्योंकि दोनों ही दलों का जो वोट बैंक है वह उन्होंने कभी न कभी कांग्रेस से ही झटका था। इसी वोट बैंक को हासिल करने के लिए कांग्रेस और राहुल-प्रियंका झटपटा रहीं हैं।
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chaitanyabharatnews · 5 years
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सुप्रीम कोर्ट ने फिर 24 घंटे के लिए टाला महाराष्ट्र पर फैसला, फडणवीस-अजित को मिली मोहलत
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चैतन्य भारत न्यूज नई दिल्ली. महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह 'सियासी संग्राम' अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने दावा किया है कि उनके पास वो आंकड़ा मौजूद है जो महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए जरूरी है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में तीनों पार्टियों की याचिका पर सुनवाई हुई। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के संकट पर मंगलवार सुबह 10:30 बजे फैसला देने को कहा। A Singhvi for NCP-Congress: I'm happy to lose floor test today, but they (BJP alliance) don’t want floor test. He placed on record, affidavits signed by 154 MLAs showing their support, SC refused to accept it saying it can't now expand scope of petition.He withdrew the affidavits https://t.co/jY2W2nInKa — ANI (@ANI) November 25, 2019 बता दें सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में करीब 2 घंटे तक इस मामले में तीखी बहस हुई। कांग्रेस-एनसीप��-शिवसेना ने 24 घंटे के अंदर फ्लोर टेस्ट की मांग की, जबकि देवेंद्र फडणवीस-अजित पवार की ओर से इसके लिए कुछ समय मांगा गया। महाराष्ट्र भाजपा की तरफ से कोर्ट में पेश हुए मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि, 'राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट के लिए 14 दिन का वक्त दिया है। प्रोटेम स्पीकर के बाद स्पीकर का चुनाव जरूरी है, लेकिन विपक्ष प्रोटेम स्पीकर से ही काम कराना चाहता है।' NCP-Congress-Shiv Sena petition: Supreme Court reserves order for tomorrow 10.30 am. https://t.co/PyKO0WzEJ4 — ANI (@ANI) November 25, 2019 महाराष्ट्र में BJP-NCP ने मिलकर बनाई सरकार, फडणवीस फिर बने मुख्यमंत्री, अजित पवार उप मुख्‍यमंत्री वहीं एनसीपी-कांग्रेस का पक्ष रख रहे अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, 'बीजेपी गठबंधन फ्लोर टेस्ट अभी नहीं चाहती। फ्लोर टेस्ट आज या कल में करा देना चाहिए। साथ ही फ्लोर टेस्ट सिक्रेट बैलट से नहीं कराया जाना चाहिए।' सिंघवी ने कहा, 'महाराष्ट्र में लोकतंत्र की हत्या हुई है। हमारी मांग है कि 24 घंटे के अंदर फ्लोर टेस्ट कराया जाए। हमारे पास 7 निर्दलीय विधायकों का भी हलफनामा है।' उन्होंने यह भी दावा किया कि, 'बीजेपी फ्लोर टेस्ट हारेगी ही।' एक रात में महाराष्ट्र में ऐसे बनी फडणवीस सरकार, पर्दे के पीछे यूं तैयार किया सरकार बनाने का प्लान शिवसेना का पक्ष रखते हुए वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि, 'देश मे ऐसी क्या राष्ट्रीय विपदा आ गयी थी कि सुबह 5 बजे राष्ट्रपति शासन हटा और 8 बजे मुख्यमंत्री की शपथ भी दिलवा दी गई।' उन्होंने यह भी कहा कि, 'महाराष्ट्र में अवैध तरीके से सरकार बनाई गई है।' ये भी पढ़े... महाराष्ट्र : शिवसेना नेता संजय राउत बोले- भतीजे ने चाचा को धोखा दिया, अजित पवार ने अंधेरे में डाका डाला महाराष्ट्र सरकार : अजित पवार ने पार्टी को तोड़ने का काम किया, यह NCP का फैसला नहीं : शरद पवार महाराष्ट्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट का केंद्र, मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को नोटिस Read the full article
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vsplusonline · 5 years
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DNA ANALYSIS: क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है?
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DNA ANALYSIS: क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है?
आज ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में शामिल होने के बाद लोग ये पूछ रहे हैं कि क्या सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजया राजे ने भी अपने करियर की शुरुआत कांग्रेस के साथ की थी लेकिन 1967 में वो भी जन संघ में शामिल हो गईं. 1967 में उनके बेटे माधव राव सिंधिया भी जन संघ में शामिल हो गए और मां बेटे की ये जोड़ी 1971 में इंदिरा गांधी की लहर को रोकने में जुट गई थी. लेकिन आपातकाल के बाद माधव राव सिंधिया जनसंघ से अलग हो गए और उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. लेकिन विजया राजे की बेटी, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत बीजेपी के साथ की और दोनों आज भी बीजेपी में ही हैं.
2018 में कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सीएम नहीं बनने दिया और 1993 में उनके पिता को भी सीएम बनने से रोका गया था. मध्य प्रदेश की राजनीति में कैसे अलग-अलग गुट एक दूसरे का रास्ता रोकते रहे हैं. ये हम आपको आगे बताएंगे लेकिन पहले आप ये सुनिए कि ज्योतिरादित्य की बुआ और बीजेपी नेता यशोधरा राजे ने इस घटना क्रम पर क्या कहा? लेकिन पहले ये जान लीजिए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के इतने बड़े फैसले की वजह क्या रही. 
असल में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस आने वाले संकट की तरफ आंखें मूंदकर बैठा था और अपने ही नाराज़ नेताओं को लेकर गंभीर नहीं था. ज्योतिरादित्य सिंधिया लगातार पिछले कुछ समय से अपनी नाराज़गी का इजहार कर रहे थे लेकिन पार्टी में उनकी सुनी नहीं गई. इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से ही हो गई थी. चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया से वादा किया था कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा. लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया. सूत्रों के मुताबिक, सिंधिया के नाम पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को आपत्ति थी क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा युवा नेता बड़े पद पर आए जिसके आगे उनके बेटे राहुल गांधी का कद छोटा लगने लगे.
राहुल गांधी ने चुनाव जीतने के बाद सिंधिया को उप मुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया था लेकिन सिंधिया ने इससे इनकार कर दिया. इसकी जगह सिंधिया चाहते थे कि वो अपने किसी करीबी को उप मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर दें लेकिन तब राहुल गांधी ने शर्त रख दी कि फिर कमलनाथ की तरफ से भी एक उप मुख्यमंत्री होगा. पार्टी के कुछ नेताओं का ये भी कहना है इसी वजह से सोनिया गांधी ने 2017 के बाद लोकसभा में उप नेता का पद खाली रखा. जिसमें सिंधिया की दिलचस्पी थी. सिंधिया को नज़र अंदाज करने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी को चुनाव जिताने की जिम्मेदारी दे दी गई. जबकि पार्टी जानती थी कि वहां कांग्रेस का कोई चांस नहीं है और हार का सारा ठीकरा सिंधिया पर ही फूटेगा. यानी कांग्रेस ने जान बूझकर सिंधिया को ऐसी जिम्मेदारी दी थी, जिससे उनके राजनीतिक कद में गिरावट आ जाए.
पिछले कुछ दिनों से ज्योतिरादित्य सिंधिया ��ांग्रेस के सामने ये मांग रख रहे थे कि उन्हें मध्य प्रदेश में पार्टी का प्रमुख बना दिया जाए और राज्यसभा की टिकट दी जाए. कांग्रेस उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए तो तैयार थी लेकिन राज्यसभा भेजने के लिए तैयार नहीं थी. माना जा रहा है कि बीजेपी उन्हें राज्यसभा में भेजेगी और केंद्र में मंत्री भी बनाएगी और इन्हीं शर्तों के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का साथ छोड़ा है. बीजेपी इसे सिंधिया की घर वापसी बता रही है क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधव राव सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत जनसंघ से की थी. जनसंघ की आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी बन गई. दूसरी तरफ कांग्रेस-बीजेपी पर तोड़फोड़ का आरोप लगाकर सिंधिया को गद्दार बता रही. यहां आपके लिए मध्य प्रदेश की राजनीति में फैली गुटबंदी को समझना भी जरूरी है. संक्षेप और आसान शब्दों में आप इसे ऐसे समझिए कि राज्य में बड़े नेताओं के अपने-अपने गुट रहे हैं. किसी ज़माने में अर्जुन सिंह का गुट हावी रहता था. अब दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अपने-अपने गुट हैं. लेकिन खास बात ये है कि सिंधिया परिवार के खिलाफ बाकी सारे गुट हमेशा एकजुट हो जाते हैं.
1993 में मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी. मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे माधवराव सिंधिया थे. लेकिन तब अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह का गुट एकजुट हो गया था. दिग्विजय सिंह उस समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष थे. अर्जुन सिंह केंद्र सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री थे. दोनों ने मिलकर कांग्रेस के विधायक दल की बैठक में किसी नेता का नाम फाइनल नहीं होने दिया. मामला दिल्ली तक पहुंचा. वहां माधवराव सिंधिया की जगह दिग्विजय सिंह का नाम फाइनल हो गया. कहा जाता है कि दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में अर्जुन सिंह की बड़ी भूमिका रही. यहीं से माधव राव सिंधिया का असंतोष शुरू हुआ और 1996 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ भी दी थी.
इतिहास ने पच्चीस साल बाद खुद को करीब-करीब ऐसे ही दुहराया. वर्ष 2018 में चुनाव नतीजों के बाद मध्य प्रदेश में फिर एक बार सिंधिया गुट के खिलाफ बागी खेमे एकजुट हो गए. इस बार माधव राव सिंधिया की जगह उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया को रोकना था. दृश्य में दिग्विजय सिंह फिर एक बार थे. लेकिन उनके साथ इस बार अर्जुन सिंह की जगह कमलनाथ थे. कमलनाथ 2018 के चुनाव से पहले तक कांग्रेस के अला-कमान से नाराज़ चल रहे थे. क्योंकि कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ सदस्य होने के बावजूद दलित वोट बैंक को साधने के लिए पार्टी ने लोकसभा में कमलनाथ की जगह मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना नेता बना दिया था.  कमलनाथ को ये भी लगता था कि मनमोहन सिंह की सरकार में उन्हें कोई अहम मंत्रालय नहीं मिला. कहते हैं कि दिग्विजय सिंह ने एक तीर से दो राजनीतिक चाल चल दी. एक तरफ तो उन्होंने नाराज कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने का भरोसा दिला दिया. दूसरी तरफ कांग्रेस आलाकमान की इस इच्छा को भी हवा दे दी कि किसी युवा को मुख्यमंत्री बनाना, राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए ठीक नहीं है. और इस तरह से मध्य प्रदेश का चुनाव जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन सके. ठीक उसी तरह जैसे 1993 में माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे.
मध्य प्रदेश की राजनीति ने एक और इतिहास दुहराया है. 53 वर्ष पहले भी कांग्रेस की सरकार सत्ता से बाहर हुई थी. उस समय इसकी वजह थीं- विजया राजे सिंधिया. यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी. तब मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे द्वारका प्रसाद मिश्र. जिनके पुत्र बृजेश मिश्र बाद में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान सचिव बने. संक्षेप में ये किस्सा कुछ ऐसा है कि 1967 में जब मध्य प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने वाले थे, तब राजमाता विजया राजे सिंधिया और मुख्यमंत्री डीपी मिश्र के बीच टिकट बंटवारे को लेकर अनबन हो गई. इसके बाद विजया राजे सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर गुना संसदीय सीट से चुनाव जीत गईं. जैसे आज कांग्रेस के 22 विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ हैं, तब विजया राजे सिंधिया के साथ कांग्रेस के 36 विधायक थे. इन बागी विधायकों ने जन क्रांति दल के नाम से पार्टी बनाई, और गोविंद नारायण सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. यानी विजया राजे सिंधिया की वजह से डीपी मिश्र को इस्तीफा देना पड़ा और मध्य प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. यानी बिल्कुल दादी की तरह पोते ने भी कांग्रेस का बंटवारा कर दिया. 
ज्योतिरादित्य सिंधिया एक राज परिवार से हैं. लेकिन, ये हमारे लोकतंत्र की ताकत है कि राजघरानों ने भी जनता की शक्ति को स्वीकार कर लिया. लोकसभा की गुना सीट को सिंधिया राजघराने का किला कहते हैं. 2019 के चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया इसी सीट से हार गए. उन्हें बीजेपी के उम्मीदवार केपी यादव ने हराया. केपी यादव कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया के सांसद प्रतिनिधि हुआ करते थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया के चुनाव प्रचार के दौरान उनकी पत्नी प्रियदर्शिनी राजे सिंधिया ने अपने फेसबुक वॉल पर एक तस्वीर शेयर की थी. इस तस्वीर में ज्योतिरादित्य सिंधिया गाड़ी के अंदर बैठे हुए हैं. जबकि बाहर केपी यादव खड़े हैं और सेल्फी ले रहे हैं. सिंधिया परिवार शायद ये दिखाना चाहता था कि कभी उनके साथ सेल्फी लेने वाले को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बना दिया. ये फेसबुक पोस्ट आत्म-मुग्ध राजनीति का उदाहरण था. लेकिन, चुनाव में हार के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया को जनता की ताकत का अहसास हो गया होगा. यहीं से उन्हें समझ में आ गया होगा कि जनता की नब्ज को पकड़ना ज़रूरी है.
शायद यही वजह है कि अनुच्छेद 370 पर उन्होंने अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर केंद्र सरकार के फैसले की सराहना की थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा कांग्रेस के युवा नेता दीपेंदर हुड्डा ने भी जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया था. हो सकता है कांग्रेस के पुराने और बुज़ुर्ग नेता इतनी हिम्मत ना दिखा पाएं. लेकिन, युवा नेताओं ने एक शुरुआत कर दी है.
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