#समुद्रमंथन
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हरिद्वार कुंभ मेला 2021: 850 साल पुराना है कुंभ मेले का इतिहास, समुद्र मंथन से जुड़ी है इसके पीछे की कहानी
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चैतन्य भारत न्यूज 1 अप्रैल से हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन शुरू हो गया है। कोरोना वायरस महामारी को देखते हुए इस बार कुंभ मेले की अवधि 28 दिनों तक सीमित रखने का निर्णय लिया गया है। महाशिवरात्रि पर हरिद्वार में लग रहे कुंभ का पहला स्नान होगा। इस दिन भारी संख्या में भक्त गंगामें डुबकी लगाएंगे। हालांकि कोरोना महामारी को देखते हुए बचाव की सभी गाइडलाइंस का पालन किया जाएगा। कुंभ मेले का इतिहास करीब 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। कुंभ मेले का इतिहास कहते हैं कुंभ मेले का कहानी समुद्र मंथन से जुड़ी है। कहते हैं कि एकबार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था। सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बताई थी। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता राक्षसों के साथ संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। समुद्र मंथन से अमृत निकलते ही देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र 'जयंत' अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। राक्षसों ने अमृत लाने के लिए जयंत का पीछा किया और कठिन परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और दानव में 12 दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा। मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। यही कारण है कि कुंभ के मेले को इन्हीं चार स्थानों पर मनाया जाता है। कुंभ को 4 हिस्सों में बांटा गया है। जैसे अगर पहला कुंभ हरिद्वार में होता है तो ठीक उसके 3 साल बाद दूसरा कुंभ प्रयागराज में और फिर तीसरा कुंभ 3 साल बाद उज्जैन में, और फिर 3 साल बाद चौथा कुंभ नासिक में होता है। Read the full article
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कूर्म अवतार: समुद्रमंथन में निभाई थी अहम भूमिका
कूर्म अवतार: समुद्रमंथन में निभाई थी अहम भूमिका
पालनहार श्री हरी विष्णु ने कूर्म अवतार लेकर समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत को स्थिर करने के लिए अपनी विशाल पीठ पर रख लिया और उस पहाड़ को संतुलित किया. त्रिदेवों में भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालन और पालन का दायित्व का है, जिसके लिए वे समय – समय पर अलग – अलग रूप में अवतार लेकर अधर्म का अंत और धर्म का विस्तार करते आ रहे हैं. उनके अनेकों अवतारों में से प्रमुख दस अवतारों को दशावतार के नाम से जाना…
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चन्द्र ग्रहण (LUNAR ECLIPSE) कब होता है? चंद्र ग्रहण की पूरी जानकारी
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प्राचीन काल में जब विज्ञान का विस्तार नहीं था तब पूरी दुनिया में चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण को लेकर बहुत सी भ्रांतियां व्याप्त थी। लेकिन विज्ञान के विकसित होने के साथ मानव ने ऐसी बहुत सी भ्रांतियों की सच्चाई का पता लगा ही लिया। आज हम इस लेख में माध्यम से जानेंगे चन्द्र ग्रहण (LUNAR ECLIPSE) क्या है और चन्द्र ग्रहण कब होता है। जब पूरी दुनिया में सूर्य और LUNAR ECLIPSE को लेकर भ्रामक और मिथ्या कहानियों के माध्यम से अपनी कल्पनाओं में व्यस्त था, तब हमारे देश के खगोल शाश्त्रियों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ही सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के रहस्य को जान लिया था। जिसे आज पूरी दुनिया मानती है और विज्ञान इसे प्रमाणित भी करता है। चन्द्र ग्रहण कब होता है, कैसे होता है चित्र सहित, भारतीय खगोलशास्त्र के अनुसार चंद्र ग्रहण कैसे लगता है, पौराणिक मान्यताओं के आधार पर चंद्र ग्रहण, LUNAR ECLIPSE की पूरी जानकारी
चन्द्र ग्रहण (LUNAR ECLIPSE) कब होता है?
क्या आप जान��े है कि चंद्रमा की अपनी खुद की कोई रौशनी नहीं होती है। हम जो चंद्रमा को चमकते हुए देखते है दरअसल वह सूर्य का प्रकाश होता है जो चंद्रमा पर पड़ता है। और यही प्रकाश जब पृथ्वी द्वारा चंद्रमा पर पड़ने से रोक लिया जाता है तब चंद्रमा पूरी तरह से अँधेरे में डूब जाता है जिसे हम चन्द्र ग्रहण कहते है। दुसरे शब्दों में चन्द्र ग्रहण कैसे होता है यह भी जान लेते है। हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है और चन्द्रमा पृथ्वी के चारो परिक्रमा करता है। इसी परिक्रमा के दौरान एक ऐसा समय आता है जब पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा के बीच में आ जाती है और चंद्रमा पर पड़ने वाला सूर्य का प्रकाश पृथ्वी द्वारा रोक लिया जाता है। इसे ही चन्द्र ग्रहण कहते है। इस स्थिति में सूर्य प्रति और चन्द्रमा एक ही सीध में आ जाते है।
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चन्द्र ग्रहण कैसे पड़ता है? चित्र सहित चंद्र ग्रहण कैसे लगता है भारतीय खगोलशास्त्र के अनुसार: आज विज्ञान ने बहुत ज्यादा विकास कर लिया है। जिसकी वजह से ब्रम्हाण्ड के ऐसे बहुत रहस्य से पर्दा उठ चूका है, जो प्राचीन मानव के लिए एक अबूझ पहेली जैसा था। लेकिन ऐसा भी नहीं है विज्ञान के विकास से पहले सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को लेकर सिर्फ और सिर्फ कपोल कल्पनाएँ ही व्याप्त थी। भारत के खगोलविदों से इस रहस्य से पर्दा उठा बहुत पहले ही उठा दिया था। भारतीय खगोलशास्त्र ने हमारे इस सौर मंडल को बहुत ही अच्छे से जान लिया था। भारतीय खगोलशास्त्र के अनुसार चंद्र ग्रहण कैसे लगता है लिखकर बताया गया है। जहाँ पूरा विश्व सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को लेकर अपनी अपनी कल्पनाओं और कथा कहानियों में ही विश्वास करता था वही भारत में सिद्धान्तशिरोमणि, सूर्यसिद्धान्तादि और ग्रहलाधव जैसे भारतीय खगोलशास्त्र के प्रसिद्द ग्रंथों में इसका वैज्ञानिक वर्णन किया जा चूका था। ग्रहलाधव के चौथे अध्याय के चौथे श्लोक में एक मंत्र है "छादयत्यर्कमिन्दुर्विधं भूमिभाः" जिसमे चन्द्र ग्रहण का वर्णन है जिसके अनुसार जब सूर्य भूमि के मध्य में चद्रमा आता है तब सूर्य ग्रहण और जब सूर्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तय चन्द्र ग्रहण होता है. अर्थात् चन्द्रमा की छाया भूमि पर (सूर्य ग्रहण) और भूमि की छाया चन्द्रमा (चन्द्र ग्रहण) पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से उसके सन्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य व दीप से देहादि की छाया उल्टी जाती है वैसे ही ग्रहण में समझो। पौराणिक मान्यताओं के आधार पर चन्द्र ग्रहण कैसे होता है? पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चन्द्र ग्रहण कैसे होता है इसका विवरण विष्णु पुराण की एक कथा में है। आदिकाल में देव और असुरों मे बहुत लंबे समय तक युद्ध चला। तब भगवान् विष्णु ने इस युद्ध को रोकने के लिए समुद्रमंथन का विचार प्रस्तुत किया और यह समझौता करा��ा कि समुद्र मंथन से जो भी निकलेगा उसे देवता और असुर आधा आधा बाट लेंगे। ��मुद्र मंथन के दौरान समुद्र से 14 रत्न उत्पन्न हुवे और इन में से ही एक रत्न अमृत निकला। अमृत के लिए असुरों और देवताओं में एक बार फिर से लड़ाई हुई जिसके बाद देवता भगवान् विष्णु के पास इस समस्या का समाधान के लिए गए। कहानी के अनुसार भगवान् विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों को मोहित कर लिया और चतुराई के साथ देवताओं को अमृत और असुरों को साधारण जल पिलाने लगे। लेकिन एक असुर जिसका नाम राहू था उसे इस बात का पता चल गया और उसने देवताओं का रूप धारण कर अमृत को पी गया। रहू की इस चतुराई को सूर्य देव और चन्द्र देव ने पहचान लिया और उन्होंने विष्णु भगवान को यह बात बताई जिस पर उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से राहु के सिर को धड़ से अलग कर दिया। तब तक राहु के गले तक अमृत की कुछ बूंदें जा चुकी थीं इसलिये सिर धड़ से अलग होने के बाद भी वह जीवित रहा, उसके सिर को राहु और धड़ को केतु कहा जाता है, इसी कारण राहु सूर्य-चंद्र को ग्रहण लगाता है।
चंद्र ग्रहण कब लगेगा?
आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि हम बड़े ही आसानी से चंद्र ग्रहण कब लगेगा इसकी जानकारी कर सकते है। लेकिन यदि आपको नहीं पता है तो आपको बता देना चाहूँगा भारतीय ज्योतिष की गणना के अनुसार हम आज से हजारों वर्षों बाद होने वाले चन्द्र ग्रहण को बिना किसी आधुनिक तकनीक या टेलिस्कोप के ही पता कर सकते है। भारतीय पंचांग में हर वर्ष पड़ने वाले ग्रहण का विवरण होता है जो बिलकुल सटीक बैठता है। यह भारतीय पंचांग सौर कैलेंडर पर आधारित होते है जो सूर्य के विभिन्न राशियों में प्रवेश के समय पर ही आधारित हैं। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चंद्र ग्रहण कब लगेगा इसकी सटीक जानकारी ग्रहों की चाल पर आधारित है। तंत्र साधना में चन्द्र ग्रहण का महत्त्व: तंत्र साधना में चन्द्र ग्रहण का महत्व उतना ही जय है जितना कि सूर्य ग्रहण का। साधकों के बीच मान्यता है कि ग्रहण के दौरान मन्त्र सिद्धि बहुत ही सरलता से हो जाती है और सिद्ध किये हुए मंत्र का प्रभाव भी बढ़ जाता है। ऐसे में यदि अप कोई मन्त्र सिद्ध करना चाहते है तो यह चन्द्र ग्रहण आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। चंद्र ग्रहण में ज्योतिषीय उपाय : ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, यदि किसी की कुंडली में ग्रहण दोष है ��ो चन्द्र ग्रहण के दौरान सफ़ेद वस्तुओं का दान करने चन्द्र दोष कम हो जाता है। इस दिन आप दूध, घी, मक्खन, दही, सफ़ेद वस्त्र मिठाई इत्यादि का दान कर सकते है। हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार जिन व्यक्तियों के हाथ में चन्द्र पर्वत दबा हुआ होता है वैसे व्यक्ति मानसिक रूप से थोड़े कमजोर होते है। इस तरह के व्याक्ति नकारात्मक विचारों से घिरे रहते है। ऐसे में चन्द्र ग्रहण के दौरान ऐसे व्यक्तियों को मानसिक शांति के उपाय करने चाहिए। राशियों पर चन्द्र ग्रहण का प्रभाव: कर्क राशि का स्वामी चंद्रमा होता है, ऐसे नाम की राशि वाले व्यक्तियों को शिवलिंग पर दूध या जल का अर्पण करना चाहिए और और ग्रहण के दौरान सफ़ेद वस्तु इत्यादि का दान करना चाहिए जिससे उनका स्वामी बलवती हो सके। ग्रहण के दौरान क्या नहीं करना चाहिए? - ज्योतिष के अनुसार किसी भी ग्रहण के दौरान भोजन बनाना और खाना दोनों ही वर्जित होता है। - ग्रहण के समय किसी भी प्रकार की पूजा अर्चना नहीं करनी चाहिए। - ग्रहण के दौरान सोना नहीं चाहिए और घर से बाहर ना निकले। - गर्भवती महिलाओं को ग्रहण के समय घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। चंद्र ग्रहण के दौरान करें ये काम - ज्योतिष शास्त्र के आनुसार सूतक लगते ने से पहले खाने-पीने की सभी चीजों में तुलसी के पत्ते डाल दें। - ग्रहण पूर्ण हो जाने के पश्चात स्नान जरुर करे। - जब ग्रहण समाप्त हो जाए तो जरूरतमंदों को खाने पीने की वस्तुएं दान करें। - ग्रहण के दौरान आप किसी भी सात्विक मन्त्र की सिद्धि कर सकते है। - Surya Namaskar कैसे करें और सूर्य नमस्कार के फ़ायदे - सौरमंडल किसे कहते है? सौर मंडल के ग्रहों के नाम हिंदी और English में। - Pranayama क्या है – प्राणायाम कैसे करे
विशेष:
यहाँ चन्द्र ग्रहण के सम्बन्ध में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के साथ भारतीय खगोल शाश्त्र के अनुसार चन्द्र ग्रहण कब होता है और चन्द्र ग्रहण कैसे होता है चित्र सहित समझाया गया है। इसके अलावा पौराणिक मान्यता के अनुसार चन्द्र ग्रहण की जानकारी भी दी गयी है। आपको चंद्र ग्रहण के सम्बन्ध में दी गयी जानकारी कैसी लगी हमें कमेंट में जरुर बताये। Read the full article
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ऋषिकेश में घूमने की 10 बेहतरीन जगहें
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ऋषिकेश में घूमने की 10 बेहतरीन जगहेंऋषिकेश में घूमने की 10 बेहतरीन जगहेंलक्ष्मण झूला पौराणिक मान्यता है कि लक्ष्मण जी ने यहाँ पर रस्सी से एक पुल बनाया था | इसी कारण इसका नाम लक्ष्मण झूला पुल पड़ा | त्रिवेणी घाट यह गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है | इस घाट पर शाम की आरती के दौरान अद्भुत नजारा देखने को मिलता है | वशिष्ठ गुफा वशिष्ठ गुफा ऋषिकेश से 16 किमी की दूरी पर स्थित है | इस गुफा में महर्षि वशिष्ठ ने ध्यान किया था | आज भी यह ध्यान के लिए प्रमुख स्थान है | बीटल्स आश्रम1968 में प्रतिष्ठित अंग्रेजी रॉक बैंड ऋषिकेश के महर्षि महेश योगी आश्रम आए थे, उन्ही के नाम से यह अब बीटल्स आश्रम के नाम से जाना जाता है | राम झूला 1983 में बना यह पुल लक्ष्मण झूला से भी बड़ा है जो स्वर्गाश्रम और विश्व आनंद आश्रम को जोड़ता है | नीर गढ़ झरना ऋषिकेश में हरे भरे जंगलों और पहाड़ियों के बीच यह ठंडे पानी का झरना है जिसके नीचे बैठकर नहाने से आप तरोताजा हो सकते हैं |तेरह मंजिला मंदिर यह लक्ष्मण झूला के पास है। यह तेरह मंजिला है जिसके हर मंजिल में अनेक हिन्दू देवी देवता स्थापित हैं | परमार्थ निकेतन यह आश्रम धर्म और अध्यात्म को समर्पित है | यहां पर आप योगा, सत्संग व कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यक्रम में हिस्सा ले सकते हैं |गीता भवनगीता भवन गंगा के तट पर स्थित है। यहाँ आप रामायण और महाभारत से जुड़े सुन्दर भित्तचित्र देख सकते हैं | नीलकंठ महादेव मंदिरयह भगवान शिव को समर्पित मंदिर है | मान्यता है कि भगवान शिव ने इसी स्थान पर समुद्रमंथन से निकला विष अपने कंठ में धारण किया था और नीलकंठ कहलाए | Read the full article
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भगवान श्रीगणेश के 8 अवतार :-
8 Incarnation (Avtar) of Lord Ganesha :- आज हम आपको भगवान गणेश के प्रमुख 8 अवतारों के बारे में बताएंगे। अन्य सभी देवताओं के समान भगवान गणेश ने भी आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए विभिन्न अवतार लिए। श्रीगणेश के इन अवतारों का वर्णन गणेश पुराण, मुद्गल पुराण, गणेश अंक आदि ग्रंथो में मिलता है।जानिए श्रीगणेश के अवतारों के बारे में-
1. वक्रतुंड (Vakratunda)-
वक्रतुंड का अवतार राक्षस मत्सरासुर के दमन के लिए हुआ था। मत्सरासुर शिव भक्त था और उसने शिव की उपासना करके वरदान पा लिया था कि उसे किसी से भय नहीं रहेगा। मत्सरासुर ने देवगुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र भी थे सुंदरप्रिय और विषयप्रिय, ये दोनों भी बहुत अत्याचारी थे। सारे देवता शिव की शरण में पहुंच गए। शिव ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे गणेश का आह्वान करें, गणपति वक्रतुंड अवतार लेकर आएंगे। देवताओं ने आराधना की और गणपति ने वक्रतुंड अवतार लिया। वक्रतुंड भगवान ने मत्सरासुर के दोनों पुत्रों का संहार किया और मत्सरासुर को भी पराजित कर दिया। वही मत्सरासुर कालांतर में गणपति का भक्त हो गया।
2. एकदंत (Ekadanta)-
महर्षि च्य���न ने अपने तपोबल से मद की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से दीक्षा ली। शुक्राचार्य ने उसे हर तरह की विद्या में निपुण बनाया। शिक्षा होने पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया। सारे देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। मद इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसने भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। सारे देवताओं ने मिलकर गणपति की आराधना की। तब भगवान गणेश एकदंत रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं थीं, एक दांत था, पेट बड़ा था और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु और एक खिला हुआ कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।
3. महोदर (Mahodar)-
जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को संस्कार देकर देवताओं के खिलाफ खड़ा कर दिया। मोहासुर से मुक्ति के लिए देवताओं ने गणेश की उपासना की। तब गणेश ने महोदर अवतार लिया। महोदर का उदर यानी पेट बहुत बड़ा था। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया।
4. गजानन (Gajanan)-
एक बार धनराज कुबेर भगवान शिव-पार्वती के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचा। वहां पार्वती को देख कुबेर के मन में काम प्रधान लोभ जागा। उसी लोभ से लोभासुर का जन्म हुआ। वह शुक्राचार्य की शरण में गया और उसने शुक्राचार्य के आदेश पर शिव की उपासना शुरू की। शिव लोभासुर से प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे सबसे निर्भय होने का वरदान दिया। इसके बाद लोभासुर ने सारे लोकों पर कब्जा कर लिया और खुद शिव को भी उसके लिए कैलाश को त्यागना पड़ा। तब देवगुरु ने सारे देवताओं को गणेश की उपासना करने की सलाह दी। गणेश ने गजानन रूप में दर्शन दिए और देवताओं को वरदान दिया कि मैं लोभासुर को पराजित करूंगा। गणेश ने लोभासुर को युद्ध के लिए संदेश भेजा। शुक्राचार्य की सलाह पर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
5. लंबोदर (Lambodar)-
समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर काम मोहित हो गए। उनका शुक्र स्खलित हुआ, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए। वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़��र पाताल लोक में चला गया।
6. विकट (Vikata)-
भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।
7. विघ्नराज (Vighnaraj)-
एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी मुलाकात शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया।
शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए और सारे देवताओं के बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं ने गणेश की उपासना की। गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।
8. धूम्रवर्ण (Dhoomvarna)-
एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। उन्हें एक बार छींक आ गई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। वो शुक्राचार्य के समीप गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिए।
उसने भी बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर का पराभाव किया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की।
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महाशिवरात्रि’ के विषय में भिन्न - भिन्न मत
महाशिवरात्रि’ के विषय में भिन्न – भिन्न मत
‘महाशिवरात्रि’ के विषय में भिन्न – भिन्न मत हैं, कुछ विद्वानों का मत है कि आज के ही दिन शिवजी और माता पार्वती विवाह-सूत्र में बंधे थे जबकि अन्य कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि आज के ही दिन शिवजी ने ‘कालकूट’ नाम का विष पिया था जो सागरमंथन के समय समुद्र से निकला था | ज्ञात है कि यह समुद्रमंथन देवताओं और असुरों ने अमृत-प्राप्ति के लिए किया था |एक शिकारी की कथा भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी हुई है कि कैसे…
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दिल, निमोनिया के मरीजों के लिए रामबाण है ये वृक्ष, धरती पर इच्छाओं की करता है पूर्ति
दिल, निमोनिया के मरीजों के लिए रामबाण है ये वृक्ष, धरती पर इच्छाओं की करता है पूर्ति #Healthcare #Lifestyle
कल्पवृक्ष का नाम आपने कहीं न कहीं जरूर सुना होगा लेकिन मुमकिन है कि कभी देखा न हो इसे देवलोक का वृक्ष माना जाता है। इसे कल्पद्रुप कल्पतर सुरतरु देवतरु तथा ��ल्पलता जैसे नामों से भी जाना जाता है पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन से प्राप्त 14 रत्नों में कल्पवृक्ष भी एक था बाद में यह इंद्रदेव को दे दिया गया था और इंद्र ने इसकी स्थापना सुरकानन में कर दी थी। हिंदुओं का विश्वास है कि कल्पवृक्ष से जिस वस्तु…
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हरिद्वार कुंभ मेला 2021: 850 साल पुराना है कुंभ मेले का इतिहास, समुद्र मंथन से जुड़ी है इसके पीछे की कहानी
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चैतन्य भारत न्यूज 1 अप्रैल से हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन शुरू हो गया है। कोरोना वायरस महामारी को देखते हुए इस बार कुंभ मेले की अवधि 28 दिनों तक सीमित रखने का निर्णय लिया गया है। महाशिवरात्रि पर हरिद्वार में लग रहे कुंभ का पहला स्नान होगा। इस दिन भारी संख्या में भक्त गंगामें डुबकी लगाएंगे। हालांकि कोरोना महामारी को देखते हुए बचाव की सभी गाइडलाइंस का पालन किया जाएगा। कुंभ मेले का इतिहास करीब 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। कुंभ मेले का इतिहास कहते हैं कुंभ मेले का कहानी समुद्र मंथन से जुड़ी है। कहते हैं कि एकबार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था। सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बताई थी। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता राक्षसों के साथ संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। समुद्र मंथन से अमृत निकलते ही देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र 'जयंत' अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। राक्षसों ने अमृत लाने के लिए जयंत का पीछा किया और कठिन परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और दानव में 12 दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा। मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। यही कारण है कि कुंभ के मेले को इन्हीं चार स्थानों पर मनाया जाता है। कुंभ को 4 हिस्सों में बांटा गया है। जैसे अगर पहला कुंभ हरिद्वार में होता है तो ठीक उसके 3 साल बाद दूसरा कुंभ प्रयागराज में और फिर तीसरा कुंभ 3 साल बाद उज्जैन में, और फिर 3 साल बाद चौथा कुंभ नासिक में होता है। Read the full article
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प्याज लहसुन खाना शास्त्रों मेँ क्योँ मना किया गया है. ???? प्याज और लहसुन ना खाए जाने के पीछे सबसे प्रसिद्ध पौराणिक कथा यह है कि समुद्रमंथन से निकले अमृत को, मोहिनी रूप धरे विष्णु भगवान जब देवताओं में बांट रहे थे, तभी एक राक्षस भी वहीं आकर ब��ठ गया । भगवान ने उसे भी देवता समझकर अमृत दे दिया। लेकिन तभी उन्हेँ सूर्य व चंद्रमा ने बताया कि ये राक्षस है। भगवान विष्णु ने तुरंत उसके सिर धड़ से अलग कर दिए। लेकिन राहू के मुख में अमृत पहुंच चुका था इसलिए उसका मुख अमर हो गया। पर भगवान विष्णु द्वारा राहू के सिर काटे जाने पर उनके कटे सिर से अमृत की कुछ बूंदे ज़मीन पर गिर गईं जिनसे प्याज और लहसुन उपजे। चूंकि यह दोनों सब्ज़िया अमृत की बूंदों से उपजी हैं, इसलिए यह रोगों और रोगाणुओं को नष्ट करने में अमृत समान होती हैं पर क्योंकि यह राक्षसों के मुख से होकर गिरी हैं इसलिए इनमें तेज़ गंध है और ये अपवित्र हैं। जिन्हें कभी भी भगवान के भोग में इस्तेमाल नहीं किया जाता। कहा जाता है कि जो भी प्याज और लहसुन खाता है उनका शरीर राक्षसों के शरीर की भांति मज़बूत हो जाता है, लेकिन साथ ही उनकी बुद्धि और सोच-विचार राक्षसों की तरह दूषित भी हो जाते हैं। इन दोनों सब्जियों को मांस के समान माना जाता है। जो लहुन और प्याज खाता है उसका मन के साथ-साथ पूरा शरीर तामसिक स्वभाव का हो जाता है। ध्यान भजन मेँ मन नहीँ लगता। कुल मिला कर पतन हो जाता है, इसलिए प्याज लहसुन खाना शास्त्रोँ मेँ मना किया गया है। https://www.instagram.com/p/B6Ewb8wAGXH/?igshid=1fqyptaqwao9e
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RT @DrKumarVishwas: कहते हैं कि समुद्रमंथन से निकले अमृत को दानव जब लेकर भाग रहे थे तो देवताओं द्वारा उसे वापस लेने की छीनझपट में अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी पर गिर गईं !संजीवनी से लेकर अमृता(गिलोय) तक सभी अत्यंत प्रभावी औषधियाँ उसी स्वर्गिक छलकन का पुण्यफल हैं🙏लॉन में खडे इस धातु-सारस तक को पता है😍 https://t.co/6VE8de4iG2
कहते हैं कि समुद्रमंथन से निकले अमृत को दानव जब लेकर भाग रहे थे तो देवताओं द्वारा उसे वापस लेने की छीनझपट में अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी पर गिर गईं !संजीवनी से लेकर अमृता(गिलोय) तक सभी अत्यंत प्रभावी औषधियाँ उसी स्वर्गिक छलकन का पुण्यफल हैं🙏लॉन में खडे इस धातु-सारस तक को पता है😍 pic.twitter.com/6VE8de4iG2
— Dr Kumar Vishvas (@DrKumarVishwas) July 11, 2020
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धनतेरस पर झाड़ू खरीदना शुभ
जितनी मान्यता सनातन धर्म में दीपावली की है, उतनी ही धनतेरस की है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान धन्वंतरि का जन्म हुआ था। समुद्रमंथन के दौरान पैदा हुए भगवान धन्वंतरि के हाथ में अमृत कलश था। धनतेरस पर बर्तन की खरीदारी करने की परंपरा है और ऐसा कहा जाता है इस जो भी व्यक्ति इस दिन घर पर नई चीजें लाता है उसमें 13 गुना की वृद्धि होती है। धनतेरस के दिन शुभ मुहूर्त में नई वस्तुएं खरीदनी चाहिए। इस दिन…
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धन-वैभव दिलाएगा मां #लक्ष्मी का ये महामंत्र
धन-वैभव दिलाएगा मां #लक्ष्मी का ये महामंत्र
धन-वैभव दिलाएगा मां #लक्ष्मी का ये महामंत्र
श्रीह���ी विष्णु की पत्नी देवी महालक्ष्मी धन, संपत्ति, वैभव तथा सुख की अधिष्ठात्री देवी हैं. पौराणिक मतानुसार, देवी लक्ष्मी का जन्म समुद्रमंथन से हुआ था. समुद्र से उत्त्पन्न समस्त अमूल्य रत्न, जैसे शंख, मोती व कौड़ी की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी ही हैं. कौड़ी एक रत्न है जो की धन के समान ही मूल्यवान हैं. प्राचीन काल में कौड़ी रत्न से ही व्यापार, क्रय-विकार…
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#This mantra of mother Lakshmi will give wealth#HINDI NEWS IN JAIHINDTIMES#JAIHIND TIMES IN HINDINEWS#JAIHINDTIMES JAIHINDTIMES#JAIHINDTIMES NEWS IN HINDI#Lakshmi
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Sanjay gupta
भगवान शिव का लोकमंगल-रूप
कालकूट सबसे विध्वंसकारी विष है। ऐसा विष जिसके तनिक से स्पर्शमात्र से प्राण नष्ट हो जाते हैं। संसार के समस्त जीव, पशु-पक्षी, कीट- पतंगतक क्षणभर में मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं।
देवों और दानवों ने जब अमृत पाने की इच्छा से समुद्रमंथन किया था तो मंथन में सर्वप्रथम सर्वाधिक विषैला कालकूट विष निकला। कालकूट की भयंकरता से प्राणिमात्र जीवन धारण करने के लिए चिंतित हो…
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समुद्र मंथन के दौरान निकले थे 14 रत्न, देव और दानवों में ऐसे हुआ था बंटवारा
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देवराज इंद्र को दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण कष्ट भोगने पड़ रहे थे, और उधर दैत्यराज बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। दैत्यराज के अधिकार और उसकी दुष्टता के बाद सभी देवता परेशान हुए और उस स्थिति से निवारण के लिए वे सभी देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के कल्याण का उपाय समुद्रमंथन बताया और कहा कि क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। भगवान विष्णु के सुझाव के अनुसार इन्द्र सहित सभी देवता दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार किया। समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। यह लीला आदि शक्ति ने भगवान विष्णु के कच्छप अवतार और सृष्टि के संचालन के लिए रची थी। देव और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से 14 रत्न निकले, जिनका बंटवारा देव और दैत्यों के बीच ऐसे हुआ
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1. हलाहल (विष)
समुद्र मंथन के दौरान सबसे पहले जल का हलाहल यानी विष निकला। इस हलाहल की ज्वाला बहुत ही तीव्र थी। इस जहर की ज्वाला की तीव्रता के प्रभाव से सभी देव और देत्य जलने लगे। तभी सभी ने मिलकर भगवान शिव से जहर को झेलने की प्रार्थना की इसलिए भगवान शिव ने उस विष को इसे मुंह में भर लिया। शिवजी ने इस विष को गले में ही रखा, इस कारण उनका गला नीला हो गया और शिवजी का नाम नीलकंठ पड़ा।
2. घोड़ा(उच्चैश्रवा)
समुद्र मंथन के दौरान दूसरा रत्न सफेद रंग का घोड़ा निकला। श्वेत रंग का उच्चैः श्रवा घोड़ा सबसे तेज और उड़ने वाला घोड़ा माना जाता था। यह अश्वों का राजा है। सात मुख वाले इस अश्व को असुरों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया। बाद में यह इन्द्र के पास आ गया जिसे तारकासुर ने इन्द्र से छीन लिया। इसके बाद तारकासुर के पराजित होने पर यह वापस इंद्र के पास आ गया।
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4. ऐरावत
ऐरावत सफेद रंग हाथी को कहते हैं। मंथन से प्राप्त रत्नों के बंटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था। चार दांतों वाला सफेद हाथी मिलना अब मुश्किल हैं। हाथी तो सभी अच्छे और सुंदर नजर आते हैं लेकिन सफेद हाथी को देखना अद्भुत है। ऐरावत सफेद हाथियों का राजा था। समुद्र से उत्पन्न हाथी को ऐरावत नाम दिया गया है।
5. कौस्तुभ मणि
भगवान विष्णु ने इस मणि को धारण किया। माना जाता है कि अब ऐसी मणि केवल इच्छाधारी नागों के पास ही बची है। कहते हैं भगवान कृष्ण ने गरूड़ के त्रास से कालिया नाग को मुक्त कराया था, तब कालिया नाग ने अपने शीश से उतारकर कान्हा को यह मणि दी थी। इस लिहाज से यह मणि धरती के किसी गुफा या समुद्र में समा गए द्वारका के हिस्से में होनी चाहिए।
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6. कामधेनु
समुद्र मंथन के दौरान कामधेनु गाय निकली। यह गाय दिव्य शक्तियों से युक्त थी। इसलिए लोककल्याण को ध्यान में रखते हुए यह गाय ऋषियों को दे दी गई। गाय को हिन्दू धर्म में पवित्र पशु माना जाता है। गाय मनुष्य जाति के जीवन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण पशु है। गाय को कामधेनु कहा गया है। कामधेनु सबका पालन करने वाली है। उस काल में गाय को धेनु कहा जाता था।
7. कल्पवृक्ष
इस वृक्ष को कल्पद्रुम या कल्पतरु भी कहते हैं। इसे प्राप्त करने के बाद देवराज इंद्र ने इसे सुरकानन में स्थापित कर दिया था। स्कंदपुराण और विष्णु पुराण में पारिजात को ही कल्पवक्ष कहा गया है।
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8. देवी लक्ष्मी
समुद्र मंथन के दौरान रत्न के रूप में देवी लक्ष्मी की भी उत्पत्ति हुई थी। लक्ष्मी अर्थात श्री और समृद्धि की उत्पत्ति। माना जाता है कि जिस भी घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां समृद्धि कायम रहती है। इनके अवतरण के बाद देव और दानव सभी चाहते थे कि लक्ष्मी उन्हें मिल जाएं। लेकिन लक्ष्मी ने भगावन विष्णु से विवाह कर लिया।
9. अप्सरा रंभा
समुद्र मंथन के दौरान इन्द्र ने देवताओं से रंभा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त किया था। विश्वामित्र की घोर तपस्या से विचलित होकर इंद्र ने रंभा को बुलाकर विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा था। अप्सरा को गंधर्वलोक का वासी माना जाता है। कुछ लोग इन्हें परी कहते हैं।
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10. पारिजात
समुद्र मंथन के दौरान कल्पवृक्ष के अलावा पारिजात वृक्ष की उत्पत्ति भी हुई थी। पारिजात के फूल बहुत ही खूबसूरत होते हैं। हिंदू देवी-देवताओं की पूजा में इस पेड़ के फूलों का विशेष महत्व होता है। कई रोगों में भी इसके पत्तो और तनों का प्रयोग किया जाता है। पारिजात या हरसिंगार उन प्रमुख वृक्षों में से एक है जिसके फूल ईश्वर की आराधना में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। धन की देवी लक्ष्मी को पारिजात के पुष्प प्रिय हैं।
11. वारुणी देवी
समुद्र मंथन के दौरान जिस मदिरा की उत्पत्ति हुई उसका नाम वारुणी रखा गया। वरुण का अर्थ जल। जल से उत्पन्न होने के कारण उसे वारुणी कहा गया। वरुण नाम के एक देवता हैं, जो असुरों की तरफ थे। असुरों ने वारुणी को लिया। कदंब के फलों से बनाई जाने वाली मदिरा को भी वारुणी कहते हैं।
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12. शंख
समुद्र मंथन के दौरान रत्न के रूप में शंख की उत्पत्ति हुई। 14 रत्नों में से एक शंख को माना गया है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। यह शंख भगवान विष्णु को समर्पित कर दिया गया। इसीलिए लक्ष्मी-विष्णु पूजा में शंख को अनिवार्य रूप से बजाया जाता है।
13. चंद्रमा
चंद्रमा को जल का कारक ग्रह इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनकी उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान जल से ही हुई थी। इनकी प्रार्थना पर भगवान शिव ने इन्हें अपने सिर पर स्थान दिया। ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं, जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है।
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14. धन्वंतरि देव
भगवान धन्वंतरी विष्णु के अंश माने जाते हैं और आर्युवेद के जनक। अपने अवतरण के बाद इन्होंने ही लोक कल्याण के लिए आर्युवेद बनाया और ऋषि-मुनियों और वैद्यों को इसका ज्ञान दिया।
15. अमृत
समुद्र मंथन के अंत में अमृत का कलश निकला था। धन्वंतरि देव के हाथ में ही अमृत कलश था। देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत बंटवारे को लेकर जब झगड़ा हो रहा था बाद में भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धरणकर अमृत को देवताओं में बांटा। राहु ने छल से अमृत का पान कर लिया, क्रोधित होकर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका सिर काट दिया। इसी राक्षस के शरीर के दो हिस्से राहु और केतु कहलाते हैं।
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