Manikarnika Ghat Ke Rahasya (Mystery of Manikarnika Ghat)
Manikarnika Ghat : काशी को वाराणसी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है। यहां के घाट बहुत पुराने और प्रसिद्ध हैं। यहां आप गंगा घाट, दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट सहित कई ऐतिहासिक घाट देख सकते हैं। अस्सी घाट पर गंगा आरती देखने के लिए दुनिया भर से लोग आते हैं। यहां का मणिकर्णिका घाट विशेष रूप से पवित्र और महत्वपूर्ण है।
इस घाट के बारे में दो कहानियां प्रचलित हैं। पहली कहानी कहती है कि भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक तालाब खोदा था। उनकी प्रार्थना से आया पसीना तालाब के पानी में मिल गया और जब शिव उसे देखने आए तो वे प्रसन्न हुए। विष्णु के कान से कुंड में गिरी मणिकर्णिका (कान की बाली) उस घटना की याद दिलाती है।
दूसरी कथा के अनुसार भगवान शिव अपने भक्तों के बीच इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें उनसे फुर्सत ही नहीं मिलती। इस बात से देवी पार्वती नाराज हो जाती हैं, । इसलिए वह शिवजी को रोके रखने के लिए अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी को उसे ढूंढने के लिए बोलती है । जो शिवजी नहीं कर पाए। तब से, मणिकर्णिका घाट पर जिस किसी का भी अंतिम संस्कार किया जाता है, वह उस व्यक्ति से पूछता है कि क्या उसने इसे देखा है। मणिकर्णिका घाट विशेष रूप से उस स्थान के लिए प्रसिद्ध है जहां हिंदू अंत्येष्टि लगातार आयोजित की जाती है और चिता हमेशा जलती रहती है। यहां जानिए इससे जुड़े 10 राज।
मणिकर्णिका घाट के रहस्य (Mystery of Manikarnika Ghat)
1. स्नान करने से पापों से मिलती है मुक्ति
2. श्मशानभूमि है यह घाट
3. जलती चिताओं के बीच नगरवधुएं करती है नृत्य
4. चिता भस्म की होली
5. देवी का शक्तिपीठ है यहां पर
6. मणिकर्णिका कुंड
7. भगवान विष्णु ने किया था पहला स्नान
8. कुंड से निकली मूर्ति
9. माता सती का अंतिम संस्कार
10. मृत शरीर से पूछते हैं कि कहां है कुंडल
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12 ज्योतिर्लिंगों में से सातवां ज्योतिर्लिंग काशी विश्वनाथ है। इसके दर्शन मात्र से ही लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
🍁 काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग 🍁
वाराणसी एक ऐसा पावन स्थान है जहाँ काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग विराजमान है। यह शिवलिंग काले चिकने पत्थर का है।
काशी, यानि कि वाराणसी सबसे प्राचीन नगरी है। 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ मणिकर्णिका भी यहीं स्थित है। इस मंदिर का कई बार जीर्णोंद्धार हुआ। इस मंदिर के बगल में ज्ञानवापी है।
12 ज्योतिर्लिंगों में से इस ज्योतिर्लिंग का बहुत महत्त्व है। इस ज्योतिर्लिंग पर पंचामृत से अभिषेक होता रहता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान मरते हुए प्राणियों के कानों में तारक मंत्र बोलते हैं। जिससे पापी लोग भी भव सागर की बाधाओं से मुक्त हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि काशी नगरी का प्रलय काल में अंत नहीं होगा।
शिवपुराण के अनुसार काशी में देवाधिदेव विश्वनाथजी का पूजन-अर्चन सर्व पापनाशक, अनंत अभ्युदयकारक, संसाररूपी दावाग्नि से दग्ध जीवरूपी वृक्ष के लिए अमृत तथा भवसागर में पड़े प्राणियों के लिए मोक्षदायक माना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि वाराणसी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं।
पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग 511 शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से 12 स्वयंभू शिवलिंग, 46 देवताओं द्वारा, 47 ऋषियों द्वारा, 7 ग्रहों द्वारा, 40 गणों द्वारा तथा 294 अन्य श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।
काशी या वाराणसी भगवान शिव की राजधानी मानी जाती है इसलिए अत्यंत महिमामयी भी है।
अविमुक्त क्षेत्र, गौरीमुख, त्रिकंटक विराजित, महाश्मशान तथा आनंद वन प्रभृति नामों से मंडित होकर गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों वाली है काशी।
प्रलय काल के समय भगवान शिव जी काशी नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे। भगवान शिव जी को विश्वेश्वर और विश्वनाथ नाम से भी पुकारा जाता है। पुराणों के अनुसार इस नगरी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है।
सावन के महीने में भगवान शिव जी के ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का विशेष महत्त्व है।
काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रसिद्धि का कारण--
जो यहां है वो कहीं और नहीं विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी में गंगा नदी के तट पर विद्यमान हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग में प्रमुख काशी विश्वनाथ जहां वाम रूप ���ें स्थापित बाबा विश्वनाथ शक्ति की देवी मां भगवती के साथ विराजे हैं। मान्यता है कि पवित्र गंगा में स्नान और काशी विश्वनाथ के दर्शन मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्रृंगार के समय सारी मूर्तियां पश्चिम मुखी होती हैं। इस ज्योतिर्लिंग में शिव और शक्ति दोनों साथ ही विराजते हैं, जो अद्भुत है। ऐसा दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता है।
विश्वनाथ दरबार में गर्भगृह का शिखर है। इसमें ऊपर की ओर गुंबद श्री यंत्र से मंडित है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग दो भागों में है। दाहिने भाग में शक्ति के रूप में मां भगवती विराजमान हैं। दूसरी ओर भगवान शिव वाम रूप (सुंदर) रूप में विराजमान हैं। इसीलिए काशी को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है।
बाबा विश्वनाथ के दरबार में तंत्र की दृष्टि से चार प्रमुख द्वार इस प्रकार हैं। शांति द्वार, कला द्वार, प्रतिष्ठा द्वार, निवृत्ति द्वार। इन चारों द्वारों का तंत्र की दुनिया में में अलग ही स्थान है। पूरी दुनिया में ऐसा कोई जगह नहीं है जहां शिवशक्ति एक साथ विराजमान हों और साथ में तंत्र द्वार भी हो।बाबा का ज्योतिर्लिंग गर्भगृह में ईशान कोण में मौजूद है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग कथा
कथा (1)--
इस ज्योतिर्लिंग के विषय में एक कथा है। जो इस प्रकार है –
भगवान शिव जी अपनी पत्नी पार्वती जी के साथ हिमालय पर्वत पर रहते थे। भगवान शिव जी की प्रतिष्ठा में कोई बाधा ना आये इसलिए पार्वती जी ने कहा कि कोई और स्थान चुनिए।
शिव जी को राजा दिवोदास की वाराणसी नगरी बहुत पसंद आयी। भगवान शिव जी के लिए शांत जगह के लिए निकुम्भ नामक शिवगण ने वाराणसी नगरी को निर्मनुष्य कर दिया। लेकिन राजा को दुःख हुआ। राजा ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अपना दुःख दूर करने की प्रार्थना की।
दिवोदास ने बोला कि देवता देवलोक में रहे, पृथ्वी तो मनुष्यों के लिए है। ब्रह्मा जी के कहने पर शिव जी मंदराचल पर्वत पर चले गए। वे चले तो गए लेकिन काशी नगरी के लिए अपना मोह नहीं त्याग सके। तब भगवान विष्णु जी ने राजा को तपोवन में जाने का आदेश दिया। उसके बाद वाराणसी महादेव जी का स्थायी निवास हो गया और शिव जी ने अपने त्रिशूल पर वाराणसी नगरी की स्थापना की।
कथा (2)--
एक और कथा प्रचलित है। एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु भगवान में बहस हो गयी थी कि कौन बडा है। तब ब्रह्मा जी अपने वाहन हंस के ऊपर बैठकर स्तम्भ का ऊपरी छोर ढूंढ़ने निकले और विष्णु जी निचला छोर ढूंढने निकले। तब स्तम्भ में से प्रकाश निकला।
उसी प्रकाश में भगवान शिव जी प्रकट हुए। विष्णु जी ने स्वीकार किया कि मैं अंतिम छोर नहीं ढूंढ सका। लेकिन ब्रह्मा जी ने झूठ कहा कि मैंने खोज लिया। तब शिव जी ने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि उनकी पूजा कभी नहीं होगी क्योंकि खुद की पूजा कराने के लिए उन्होंने झूठ बोला था। तब उसी स्थान पर शिव जी ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हो गए।
कथा (3)--
एक ये भी मान्यता है कि भगवान शिव जी अपने भक्त के सपने में आये और कहा कि तुम गंगा में स्नान करोगे उसके बाद तुम्हे दो शिवलिंगों के दर्शन होंगे। उन दोनों शिवलिंगों को तुम्हे जोड़कर स्थापित करना होगा। तब दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी। तब से ही भगवान शिव माँ पार्वती जी के साथ यहाँ विराजमान हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरिश्चन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसी का सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी।
सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है।
औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई।
2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था।
सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।
1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।
इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था।
लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
काशी विश्वेश्वर लिंग ज्योतिर्लिंग है जिसके दर्शन से मनुष्य परम ज्योति को पा लेता है। सभी लिंगों के पूजन से सारे जन्म में जितना पुण्य मिलता है, उतना केवल एक ही बार श्रद्धापूर्वक किए गए 'विश्वनाथ' के दर्शन-पूजन से मिल जाता है। माना जाता है कि सैकड़ों जन्मों के पुण्य के ही फल से विश्वनाथजी के दर्शन का अवसर मिलता है।
गंगा नदी के तट पर विद्यमान श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में वैसे तो सालभर यहां श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना के लिए आने का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन सावन आते ही इस मोक्षदायिनी मंदिर में देशी-विदेशी श्रद्धालुओं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ता है।विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक यह सिलसिला प्राचीनकाल से चला आ रहा है।
इस मंदिर में दर्शन-पूजन के लिए आने वालों में आदिशंकराचार्य, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास जैसे सैकड़ों महापुरुष शामिल हैं।
काशी विश्वनाथ की महत्ता---
भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल उत्तरप्रदेश की प्राचीन धार्मिक नगरी काशी या वाराणसी
तीनों लोकों में न्यारी इस धार्मिक नगरी में हजारों साल पूर्व स्थापित श्री काशी विश्वनाथ मंदिर विश्वप्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म में सर्वाधिक महत्व के इस मंदिर के बारे में कई मान्यताएं हैं।
माना जाता है कि भगवान शिव ने इस 'ज्योतिर्लिंग' को स्वयं के निवास से प्रकाशपूर्ण किया है। पृथ्वी पर जितने भी भगवान शिव के स्थान हैं, वे सभी वाराणसी में भी उन्हीं के सान्निध्य में मौजूद हैं। भगवान शिव मंदर पर्वत से काशी आए तभी से उत्तम देवस्थान नदियों, वनों, पर्वतों, तीर्थों तथा द्वीपों आदि सहित काशी पहुंच गए।
विभिन्न ग्रंथों में मनुष्य के सर्वविध अभ्युदय के लिए काशी विश्वनाथजी के दर्शन आदि का महत्व विस्तारपूर्वक बताया गया है। इनके दर्शन मात्र से ही सांसारिक भयों का नाश हो जाता है और अनेक जन्मों के पाप आदि दूर हो जाते हैं.
काशी विश्वेश्वर लिंग ज्योतिर्लिंग है जिसके दर्शन से मनुष्य परम ज्योति को पा लेता है। सभी लिंगों के पूजन से सारे जन्म में जितना पुण्य मिलता है, उतना केवल एक ही बार श्रद्धापूर्वक किए गए 'विश्वनाथ' के दर्शन-पूजन से मिल जाता है। माना जाता है कि सैकड़ों जन्मों के पुण्य के ही फल से विश्वनाथजी के दर्शन का अवसर मिलता है।
गंगा नदी के तट पर विद्यमान श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में वैसे तो सालभर यहां श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना के लिए आने का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन सावन आते ही इस मोक्षदायिनी मंदिर में देशी-विदेशी श्रद्धालुओं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ता है।
प्रलय काल के समय भगवान शिव जी काशी नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे। भगवान शिव जी को विश्वेश्वर और विश्वनाथ नाम से भी पुकारा जाता है। पुराणों के अनुसार इस नगरी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रांगण में भी एक विश्वनाथ का मंदिर बनाया गया है। कहा जाता है कि इस मंदिर का भी उतना ही महत्त्व है जितना पुराने विश्वनाथ मंदिर का है। इस नए मंदिर के विषय में एक कहानी है जो मदन मोहन मालवीय से जुडी हुई है। मालवीय जी शिव जी के उपासक थे। एक दिन उन्होंने शिव भगवान की उपासना की तब उन्हें एक भव्य मूर्ति के दर्शन हुए।
जिससे उन्हें आदेश मिला कि बाबा विश्वनाथ की स्थापना की जाये। तब उन्होंने वहां मंदिर बनवाना शुरू करवाया लेकिन वे बीमार हो गए तब यह जानकार उद्योगपति युगल किशोर विरला ने इस मंदिर की स्थापना का कार्य पूरा करवाया। यहाँ भी हजारों की संख्या में भक्तगण दर्शन करने के लिए आते हैं। विद्यालय प्रांगण में स्थापित होने के कारण यह विद्यार्थियों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
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