#भगवद्गीता श्लोक
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यह श्लोक भगवद् गीता से लिया गया है, और यह छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणादायक संदेश है। यह कहता है कि हमें अपने कर्तव्यों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि परिणामों की इच्छा करना चाहिए।
जब हम अपने कर्तव्यों को निभाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम अधिक उत्पादक और संतुष्ट होते हैं। हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की अधिक संभावना रखते हैं, और हम अपने जीवन में अधिक अर्थ और उद्देश्य पाते हैं।
फल की इच्छा करना, दूसरी ओर, हमें निराश और असंतुष्ट बना सकता है। जब हम केवल परिणामों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम आसानी से विचलित हो जाते हैं और हार मान लेते हैं।
इसलिए, छात्रों, अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करें और फल की इच्छा न करें। आप सफल होंगे!
#भगवद्गीता #श्लोक #कर्त्तव्य #फल #छात्र #प्रेरणा
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#sant rampal ji maharaj#भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तीनों देवों रजगुण श्री ब्रह्मा जी#सतगुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शिव जी की साधना ��्यर्थ कही गई है।
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 2.1 https://srimadbhagavadgita.in/2/1 संजय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ २.१ ॥ TRANSLATION संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे । PURPORT भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा, शोक तथा अश्रु - ये सब असली आत्मा को न जानने का लक्षण हैं । शाश्र्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म-साक्षात्कार है । इस श्लोक में मधुसूदन शब्द महत्त्वपूर्ण है । कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण अज्ञान रूपी असुर का वध करें जिसने उसे कर्तव्य से विमुख कर रखा है । यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए । डूबते हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मुर्खता होगी । अज्ञान-सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात् स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता । जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है, वह शुद्र कहलाता है अर्थात् वह वृथा ही शोक करता है । अर्जुन तो क्षत्रिय था, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी । किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरु�� के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपदेश दिया । यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म-साक्षात्कार का उपदेश देता है, जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा की गई है । यह साक्षात्कार तभी सम्भव है जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म-बोध को प्राप्त हो । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.1 sañjaya uvāca taṁ tathā kṛpayāviṣṭam aśru-pūrṇākulekṣaṇam viṣīdantam idaṁ vākyam uvāca madhusūdanaḥ TRANSLATION Sañjaya said: Seeing Arjuna full of compassion, his mind depressed, his eyes full of tears, Madhusūdana, Kṛṣṇa, spoke the following words. PURPORT Material compassion, lamentation and tears are all signs of ignorance of the real self. Compassion for the eternal soul is self-realization. The word “Madhusūdana” is significant in this verse. Lord Kṛṣṇa killed the demon Madhu, and now Arjuna wanted Kṛṣṇa to kill the demon of misunderstanding that had overtaken him in the discharge of his duty. No one knows where compassion should be applied. Compassion for the dress of a drowning man is senseless. A man fallen in the ocean of nescience cannot be saved simply by rescuing his outward dress – the gross material body. One who does not know this and laments for the outward dress is called a śūdra, or one who laments unnecessarily. Arjuna was a kṣatriya, and this conduct was not expected from him. Lord Kṛṣṇa, however, can dissipate the lamentation of the ignorant man, and for this purpose the Bhagavad-gītā was sung by Him. This chapter instructs us in self-realization by an analytical study of the material body and the spirit soul, as explained by the supreme authority, Lord Śrī Kṛṣṇa. This realization is possible when one works without attachment to fruitive results and is situated in the fixed conception of the real self. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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गीता का ज्ञान किसने कहा?
भगवद्गीता अध्याय 11 श्लोक 46 में अर्जुन कह रहा है कि मैं आपको पहले की तरह मुकुट पहने, हाथ में गदा और चक्र लिए देखना चाहता हूँ। हे विश्वरूपधारी! सहस्त्रबाहु! आप पुनः उसी चतुर्भुज रूप में प्रकट होइए।
#GodMorningThursday
#SantRampalJiMaharaj
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#भूखे_बच्चों_को_देख_माता_दुखी #kabirisgod
#santrampaljimaharaji
श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत अर्थात् भूखे रहने के लिए मन�� किया गया है। इसके साथ ही विचारणीय विषय यह भी है की क्या बच्चे भूखे रहेंगे तो क्या मां खुश हो सकती है? मां कभी खुश नहीं हो सकती मां केवल सब भक्ति से खुश हो सकती है अधिक जानने के लिए पढ़े पवित्र पुस्तक ज्ञान गंगा
True way of worship
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क्या माता इस प्रकार खुश होगी.??
#भूखे_बच्चों_को_देख_माता_दुखी श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत अर्थात् भूखे रहने के लिए मना किया गया है। इसके साथ ही विचारणीय विषय यह भी है की क्या बच्चे भूखे रहेंगे तो क्या मां खुश हो सकती है?
True way of worship
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#FridayThoughts
श्रीमद भगवद्गीता में अध्याय 18 श्लोक 62 में किसी अन्य परमात्मा की शरण में जाने के लिए कह रहा है। वह पूर्ण परमात्मा कौन है जानने के लिए पढ़े पवित्र पुस्तक ज्ञान गंगा। मंगाए बिल्कुल मुफ्त।
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भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में क्या बताया गया है? | Sant Rampal Ji #Sho...
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भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 9
गीता अध्याय ८ श्लोक ९
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जो पुरुष सर्वागया, अनादी, सबके नियंता, सुख से भी अति सुख, सबके धरण-पोषण करना वाले, अचिंत्य स्वरूप, सूर्य के सदिश्य नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविध्या से अति परेची नंद शुद्घं शुद्घं
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कृष्णजी म्हणतात की जो सूक्ष्मतम परमात्म्याचे स्मरण करतो, जो सर्वांना भोजन देतो, जो सूर्यासारखा तेजस्वी आहे
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भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 10
गीता अध्याय ८ श्लोक १०
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वह भक्ती युक्त पुरुष अंत काल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकर स्थिर कर के फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ हमें दिव्य रूप परम पु��ुष परमात्मा को होता है।
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श्री कृष्णजी म्हणतात, योग/भक्तीच्��ा सामर्थ्याने संपन्न तो भक्त, भगवंताचे स्मरण करत असताना, "त्या परम ईश्वराची" प्राप्ती करतो .
इथे कृष्णजी एका वेगळ्या परमात्म्याबद्दल अगदी स्पष्टपणे बोलत आहेत.
हे अगदी स्पष्ट आहे की श्री कृष्णजी दुसऱ्या कोणत्या तरी परमात्म्याबद्दल बोलत आहेत. कृष्णजी क्रमाक्रमाने बोलतात की, अरुज जर तू माझी आठवण ठेवलीस तर तू नक्कीच माझ्याकडे येशील (८:७). 8:8 - 8:10 पासून, श्री कृष्णजी दुसऱ्या कोणत्यातरी देवाचा उल्लेख करत आहेत ज्यांना ते "सर्वोच्च देव" म्हणून संबोधत आहेत.
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sarvmidam a word from geeta
भगवद्गीता पर एक लेख के बारे में आपकी जिज्ञासा को देखते हुए, मैं आपको इस विषय पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान कर सकता हूँ। भगवद्गीता, जिसे अक्सर ‘गीता’ के नाम से जाना जाता है, एक 700-श्लोक हिन्दू धर्मग्रंथ है जो महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 23 से 40 तक फैला है। यह ग्रंथ अर्जुन और उनके सारथी कृष्ण के बीच संवाद के रूप में है, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध के प्रारंभ में होता है। अर्जुन की दुविधा और कृष्ण के उपदेश इस ग्रंथ का मुख्य आधार हैं।
गीता में धर्म, भक्ति, कर्म और राज योग के विभिन्न पहलुओं को समझाया गया है, और इसमें सांख्य-योग दर्शन के विचार भी शामिल हैं। यह ग्रंथ न केवल हिन्दू धर्म में, बल्कि समग्र रूप से भारतीय दर्शन में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
गीता के श्लोकों में जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, जैसे कि निष्काम कर्म या इच्छा के बिना कर्म करना, आत्म-नियंत्रण का महत्व, और सामग्रीवाद और दोषों से दूर रहना। इसके अलावा, गीता के श्लोक जीवन के विभिन्न दृष्टिकोणों को समझने में मदद करते हैं।
यदि आप गीता के बारे में और अधिक गहराई से जानना चाहते हैं, तो आप विकिपीडिया पर उपलब्ध लेख1 या अन्य स्रोतों का अध्ययन कर सकते हैं। ये स्रोत गीता के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और इसके शिक्षाओं को समझने में मदद कर सकते हैं।
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 2.22 https://srimadbhagavadgita.in/2/22 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २.२२ ॥ TRANSLATION जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है । PURPORT अणु-आत्मा द्वारा शरीर का परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है । आधुनिक विज्ञानीजन तक, जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्र्वास नहीं करते, पर साथ ही हृदय से शक्ति-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पाते, उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमारावस्था औए फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं । वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है । इसकी व्याख्या एक पिछले श्लोक में (२.१३) की जा चुकी है । अणु-आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानान्तरण परमात्मा की कृपा से सम्भव हो पाता है । परमात्मा अणु-आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है । मुण्डक तथा श्र्वेताश्र्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है और जो एक ही वृक्ष पर बैठे हैं । इनमें से एक पक्षी (अणु-आत्मा) वृक्ष के फल खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण) अपने मित्र को देख रहा है । यद्यपि दोनों पक्षी समान गुण वाले हैं, किन्तु इनमें से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है, किन्तु दूसरा अपने मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र है । कृष्ण साक्षी पक्षी हैं, और अर्जुन फल-भोक्ता पक्षी । यद्यपि दोनों मित्र (सखा) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है । अणु-आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे ��रीर में जाने का कारण है । जीव आत्मा प्राकृत शरीर रूपी वृक्ष पर अत्याधिक संघर्षशील है, किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है – जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है – त्योंही परतन्त्र पक्षी तुरन्त सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है । मुण्डक-उपनिषद् (३.१.२) तथा श्र्वेताश्र्वतर-उपनिषद् (४.७) समान रूप से इसकी पुष्टि करते हैं – समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोSनीशया शोचति मुह्यमानः । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥ “यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिंता तथा विषाद में निमग्न है । यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान् की ओर अन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है ।” अब अर्जुन ने अपना मुख अपने शाश्र्वत मित्र कृष्ण की ओर फेरा है और उनसे भगवद्गीता समझ रहा है । इस प्रकार वह कृष्ण से श्रवण करके भगवान् की परम महिमा को समझ कर शोक से मुक्त हो जाता है । यहाँ भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु से देहान्तरण पर शोक प्रकट न करे अपितु उसे इस धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए, जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्म-फलों से तुरन्त मुक्त हो जायें । बलिवेदी पर या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरन्त शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है । अतः अर्जुन का शोक करना युक्तिसंगत नहीं है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.22 vāsāṁsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛhṇāti naro ’parāṇi tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāny anyāni saṁyāti navāni dehī TRANSLATION As a person puts on new garments, giving up old ones, the soul similarly accepts new material bodies, giving up the old and useless ones. PURPORT Change of body by the atomic individual soul is an accepted fact. Even the modern scientists who do not believe in the existence of the soul, but at the same time cannot explain the source of energy from the heart, have to accept continuous changes of body which appear from childhood to boyhood and from boyhood to youth and again from youth to old age. From old age, the change is transferred to another body. This has already been explained in a previous verse (2.13). Transference of the atomic individual soul to another body is made possible by the grace of the Supersoul. The Supersoul fulfills the desire of the atomic soul as one friend fulfills the desire of another. The Vedas, like the Muṇḍaka Upaniṣad, as well as the Śvetāśvatara Upaniṣad, compare the soul and the Supersoul to two friendly birds sitting on the same tree. One of the birds (the individual atomic soul) is eating the fruit of the tree, and the other bird (Kṛṣṇa) is simply watching His friend. Of these two birds – although they are the same in quality – one is captivated by the fruits of the material tree, while the other is simply witnessing the activities of His friend. Kṛṣṇa is the witnessing bird, and Arjuna is the eating bird. Although they are friends, one is still the master and the other is the servant. Forgetfulness of this relationship by the atomic soul is the cause of one’s changing his position from one tree to another, or from one body to another. The jīva soul is struggling very hard on the tree of the material body, but as soon as he agrees to accept the other bird as the supreme spiritual master – as Arjuna agreed to do by voluntary surrender unto Kṛṣṇa for instruction – the subordinate bird immediately becomes free from all lamentations. Both the Muṇḍaka Upaniṣad (3.1.2) and Śvetāśvatara Upaniṣad (4.7) confirm this: samāne vṛkṣe puruṣo nimagno ’nīśayā śocati muhyamānaḥ juṣṭaṁ yadā paśyaty anyam īśam asya mahimānam iti vīta-śokaḥ “Although the two birds are in the same tree, the eating bird is fully engrossed with anxiety and moroseness as the enjoyer of the fruits of the tree. But if in some way or other he turns his face to his friend the Lord and knows His glories – at once the suffering bird becomes free from all anxieties.” Arjuna has now turned his face towards his eternal friend, Kṛṣṇa, and is understanding the Bhagavad-gītā from Him. And thus, hearing from Kṛṣṇa, he can understand the supreme glories of the Lord and be free from lamentation. Arjuna is advised herewith by the Lord not to lament for the bodily change of his old grandfather and his teacher. He should rather be happy to kill their bodies in the righteous fight so that they may be cleansed at once of all reactions from various bodily activities. One who lays down his life on the sacrificial altar, or in the proper battlefield, is at once cleansed of bodily reactions and promoted to a higher status of life. So there was no cause for Arjuna’s lamentation. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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#Mere_Aziz_Hinduon_Swayam Padho Apne Granth
मेरे अज़ीज़ हिंदुओं स्वयं पढ़ो अपने ग्रंथ
श्रीमद् भगवद्गीता
संत रामपाल जी महाराज
पवित्र हिन्दू धर्म के गुरुओं द्वारा गीता अध्याय 18 श्लोक 66 के अर्थ में व्रज शब्द का अर्थ आना किया है जबकि व्रज शब्द का वास्तविक अर्थ जाना होता है। यह हमारे धर्मगुरूओं द्वारा हिन्दुओं के साथ बहुत बड़ा धोखा किया गया है जबकि संत रामपाल जी महाराज ने समाज को सही गीता ज्ञान बताया है।
संस्कृत हिन्दी शब्दार्थकोश में प्रमाण
Sant Rampal Ji Maharaj
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🌞आज का वैदिक हिन्दू पंचांग तुलसी विशेषांक 🌞
👉दिनांक - 05 दिसम्बर 2023*
👉दिन - मंगलवार*
👉विक्रम संवत् - 2080*
👉अयन - दक्षिणायन*
👉ऋतु - हेमंत*
👉मास - मार्गशीर्ष*
👉पक्ष - कृष्ण*
👉तिथि - अष्टमी रात्रि 12:37 तक तत्पश्चात नवमी*
👉नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी 06 दिसम्बर प्रातः 03:38 तक तत्पश्चात उत्तराफाल्गुनी*
👉योग - विष्कम्भ रात्रि 10:42 तक तत्पश्चात प्रीति*
👉राहु काल - दोपहर 03:12 से 04:33 तक*
👉सूर्योदय - 07:06*
👉सूर्यास्त - 05:54*
👉दिशा शूल - उत्तर*
👉ब्राह्ममुहूर्त - प्रातः 05:21 से 06:13 तक*
👉निशिता मुहूर्त - रात्रि 12:04 से 12:57 तक*
👉व्रत पर्व विवरण - योगी अरविंद पुण्यतिथि, कालभैरव जयंती*
👉विशेष - अष्टमी को नारियल का फल खाने से बुद्धि का नाश होता है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)*
👉‘स्कंद पुराण’ (का.खं. :२१.६६) में आता है : ‘जिस घर में तुलसी – पौधा विराजित हो, लगाया गया हो, पूजित हो, उस घर में यमदूत कभी भी नहीं आ सकते ।’*
👉जहाँ तुलसी – पौधा रोपा गया है, वहाँ बीमारियाँ नहीं हो सकतीं क्योंकि तुलसी – पौधा अपने आसपास के समस्त रोगाणुओं, विषाणुओं को नष्ट कर देता है एवं २४ घंटे शुद्ध हवा देता है । वहाँ निरोगता रहती है, साथ ही वहाँ सर्प, बिच्छू, कीड़े-मकोड़े आदि नहीं फटकते । इस प्रकार तीर्थ जैसा पावन वह स्थान सब प्रकार से सुरक्षित रहकर निवास-योग्य माना जाता है । वहाँ दीर्घायु प्राप्त होती है ।*
👉‘तुलसी निर्दोष है । सुबह तुलसी के दर्शन करो । उसके आगे बैठे के लम्बे श्वास लो और छोड़ो, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, दमा दूर रहेगा अथवा दमे की बीमारी की सम्भावना कम हो जायेगी । तुलसी को स्पर्श करके आती हुई हवा रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाती है और तमाम रोग व हानिकारक जीवाणुओं को दूर रखती है ।’*
👉तुलसी रोपने तथा उसे दूध से सींचने पर स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । तुलसी की मिट्टी का तिलक लगाने से तेजस्विता बढ़ती है ।*
👉दूध के साथ तुलसी वर्जित है, बाकी पानी, दही, भोजन आदि हर चीज के साथ तुलसी ले सकतें हैं । रविवार को तुलसी ताप उत्पन्न करती है, इसलिए रविवार को तुलसी न तोड़ें, न खायें । ७ दिन तक तुलसी – पत्ते बासी नहीं माने जाते ।*
👉विज्ञान का आविष्कार इस बात को स्पष्ट करने में सफल हुआ है कि तुलसी में विद्युत् – तत्त्व उपजाने और शरीर में विद्युत् – तत्त्व को सजग रखने का अद्भुत सामर्थ्य है । थोडा तुलसी – रस लेकर तेल की तरह थोड़ी मालिश करें तो विद्युत् – प्रवाह अच्छा चलेगा ।*
💥श्रीमद् भगवद्गीता माहात्म्य 💥
👉 जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है ।*
👉 जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है । गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है ।*
👉जो पुरुष इस पवित्र गीताशास्त्र को सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आदि से रहित होकर श्रीविष्णुपद को प्राप्त होता है ।
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#MondayMotivation
श्रद्धा निकलने वाले भी भूतों की योनि भोंकते हैं। श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 25
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श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में प्रमाण
गीता जी के अनुसार व्रत करना मना है।
किसी भी प्रकार का उपवास करना गलत है
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