#ब्राह्मण ग्रंथ क्या हैं
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samanygyan · 2 years ago
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astrovastukosh · 11 months ago
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💥Bharat ak Khoj: भारतीय ऋषि-मुनि द्वारा रचे वेदों का ज्ञान💥
अथर्वदेव : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसके 20 अध्यायों में 5687 मंत्र है। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।
हिंदुओ के मूल ग्रन्थ
(१) वेद { जिनको श्रुति भी कहते हैं }
ऋग्वेद ( ज्ञान ) = १०५७९ मंत्र
यजुर्वेद ( कर्म ) = १९७५ मंत्र
सामवेद ( उपासना ) = १८७५ मंत्र
अथर्ववेद ( विज्ञान ) = ५९७० मंत्र
कुल मंत्र = २०४१६
वेदों के अर्थों को समझाने के लिए जिन ग्रन्थों का प्रवचन वैदिक ऋषियों ने किया है, उनको शाखा कहते हैं ।
कुल शाखाएँ = ११२७
वर्तमान में उपलब्ध शाखाएँ = १२
उपलब्ध शाखाओं के नाम
{१} ऋग्वेद की उपलब्ध शाखाएँ
(क) शाकल (ख) वाष्कल
{२} यजुर्वेद की उपलब्ध शाखाएँ
(क) काण्व (ख) मध्यन्दिनी (ग) तैत्तिरीय संहिता (घ) काठक (ङ) मैत्रायणी
{३} सामवेद की उपलब्ध शाखाए
(क) जैमिनीया (ख) राणायसीम
{४} अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाएँ
(क) शौनक (ख) पिप्पलाद
वेदों में से कुछ लघु वेद भी ऋषियों ने बनाए थे जिनको उपवेद कहते हैं , भिन्न भिन्न विषयों को समझाने के लिए चार उपवेद हैं।
{१} ऋग्वेद ------------------- आयुर्वेद
{२} यजुर्वेद------------------- धनुर्वेद
{३} सामवेद ------------------ गन्धर्ववेद
{४} अथर्ववेद ----------------- अर्थवेद
चारों वेदों में से विज्ञान के उत्कृष्ट स्वरूप को समझाने के लिए वेदों में से ब्राह्मण ग्रन्थ भी बनाए हैं।
{१} ऋग्वेद का ब्राह्मण ------------- ऐतरेय
{२} यजुर्वेद का ब्राह्मण ------------- शतपथ
{३} सामवेद का ब्राह्मण ------------ सामविधान
{४} अथर्ववेद का ब्राह्मण ----------- गोपथ
[ इन्हीं ब्राह्मणों को पुराण भी कहते हैं । ]
६ वैदिक शास्त्र :--
(क) न्याय (ख) वैशेषिक
(ग) साङ्ख्य (घ) योग
(ङ) मिमांसा (च) वेदांत
{ य�� छः शास्त्र तर्क प्रणाली को प्रस्तुत करते हैं, इनको पढ़ने से तर्क के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म के भेद को जान सकता है }
६ वेदाङ्ग वे हैं जिनको पढ़कर मनुष्य वेदों का अर्थ करने में समर्थ होता है।
(क) शिक्षा
(ख) कल्प
(ग) व्याकरण
(घ) निरुक्त
(ङ) छंद
(च) ज्योतिष
वेदांत शास्त्र को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं और इसको समझने के लिए ११ मुख्य उपनिषदें हैं :-
(१) ईश
(२) कठ
(३) केन
(४) प्रश्न
(५) मुण्डक
(६) माण्डुक्य
(७) ऐतरेय
(८) तैत्तिरीय
(९) छांदोग्य
(१०) बृहदारण्यक
(११) श्वेताश्वतर
ऐतिह्या ( इतिहास ग्रन्थ ) :-
(१) योगवशि��्ठ महारामायण
(२) वेदव्यास कृत महाभारतम्
समृति ग्रन्थ :-
(१) मनुस्मृति ( विशुद्ध - कर्म पर आधारित न कि जन्म पर )
(२) विधुर नीति
(३) चाणक्य नीति
राम
*🌳 चार वेद, जानिए किस वेद में क्या है 🌳*
          *बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां है*
        *प्रत्येक हिन्दू को पता होनी चाहिए*
         *और कृपया अपने बच्चो को भी*
          *अपने धर्म के विषय मे बताइये*
वेद दुनिया के प्रथम धर्मग्रंथ है। इसी के आधार पर दुनिया के अन्य मजहबों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने वेदों के ज्ञान को अपने अपने तरीके से भिन्न भिन्न भाषा में प्रचारित किया। वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित है इसीलिए इसे श्रुति कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। शतपथ ब्राह्मण के श्लोक के अनुसार अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया। प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु, सूर्य (आदित्य), से जोड़ा जाता है और संभवत: अथर्वदेव को अंगिरा से उत्पन्न माना जाता है। एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।... वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं इसलिए किसी व्यक्ति या स्थान का नाम वेदों पर से रखा जाना स्वाभाविक है। जैसे आज भी रामायण, महाभारत इत्यादि में आए शब्दों से मनुष्यों और स्थान आदि का नामकरण किया जाता है।
वेद ��ानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
वेद के विभाग चार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
1.ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।
2.यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।
कृष्ण :वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्��ों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके ��लावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
सामवेद : साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है।  इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।
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pchandra · 1 year ago
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AT GURU RAMPAL JI
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 पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी: सभी आत्माओं के जनक
पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी: सभी आत्माओं के जनक
हम सभी जानते हैं कि कबीर साहेब आज से लगभग 600 वर्ष पहले इतिहास के भक्तियुग में जुलाहे की भूमिका निभाकर गये। पर वे वास्तव में कौन हैं? कबीर साहेब कोई सूफी संत हैं या कवि मात्र? क्या कबीर साहेब परमात्मा हैं? इस लेख में हम कुछ प्रश्नों के उत्तर बताने का प्रयत्न करेंगे, जैसे कबीर कौन हैं? वे कवि हैं या पूर्ण परमेश्वर? कबीर जी इस पृथ्वी पर कब अवतरित हुए? क्या कबीर साहेब ने सशरीर इस मृत्युलोक को छोड़ा था? आखिर क्या रहस्य है जो अब तक अनसुलझा है? कबीर साहेब कहाँ रहते थे? कबीर का क्या अर्थ है? कबीर साहेब ने पूर्ण परमेश्वर के विषय में क्या ज्ञान दिया है?
लेख में हम निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेंगे
परमेश्वर कबीर साहेब की जीवनी
परमात्मा कबीर का रूप
परमेश्वर कबीर साहेब का अवतरण
कबीर साहेब ही पूर्ण परमेश्वर है इसका सभी धर्मग्रंथों से प्रमाण
कबीर साहेब के गुरु कौन थे?
परमात्मा कबीर किन महापुरुषों को मिले?
परमात्मा कबीर साहेब के चमत्कार
परमेश्वर कबीर साहेब की मृत्यु- एक रहस्य
पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान
पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब का कलियुग में अवतरण
परमात्मा कबीर की जीवनी
परमात्मा कबीर जनसाधारण में सामान्यतः "कबीर दास" नाम से जाने  जाते थे तथा बनारस (काशी, उत्तर प्रदेश) में जुलाहे की भूमिका कर रहे थे। विडंबना है कि सर्व सृष्टि के रचनहार, भगवान स्वयं धरती पर अवतरित हुए और स्वयं को दास सम्बोधित किया। कबीर साहेब के वास्तविक रूप से सभी अनजान थे सिवाय उनके जिन्हें कबीर साहेब ने स्वयं दर्शन दिए और ��पनी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया जिनमें नानक देव जी (तलवंडी, पंजाब), आदरणीय धर्मदास जी ( बांधवगढ़, मध्यप्रदेश), दादू साहेब जी (गुजरात) शामिल हैं। वेद भी पूर्ण परमेश्वर के इस लीला की गवाही देते हैं (ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 4 मन्त्र 6)। इस मंत्र में परमेश्वर कबीर जी को "तस्कर" अर्थात छिप कर कार्य करने वाला कहा है। नानक जी ने भी परमेश्वर कबीर साहेब की वास्तविक स्थिति से परिचित होने पर उन्हें "ठग" (गुरु ग्रंथ साहेब, राग सिरी, महला पहला, पृष्ठ 24) कहा है।
 
कबीर परमेश्वर का अवतरण
 
कबीर साहेब भारत के इतिहास में मध्यकाल के भक्ति युग में आये थे। उनकी बहुमूल्य एवं अनन्य कबीर वाणी / (Kabir Vani) कविता आज भी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। परमेश्वर की कबीर वाणी में ढेरों गूढ़ रहस्य भरे पड़े हैं जिनके माध्यम से परमेश्वर ने विश्व को समझाने का प्रयत्न किया था। हम सभी लगभग बाल्यकाल से ही कबीर जी के दोहे (Kabir Saheb Ji Ke Dohe), शबद पढ़ते आये हैं अतः आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि आखिर कबीर जी कौन हैं?  वास्तव में एक जुलाहे एवं कवि की भूमिका करने वाला जो मानव सदृश पृथ्वी पर अवतरित हुआ और अपनी प्यारी आत्माओं को सही आध्यात्मिक ज्ञान का बोध कराया वह कोई और नहीं बल्कि पूर्ण ब्रह्म कविर्देव हैं। यह सभी धर्मग्रंथों पवित्र वेद, पवित्र कुरान शरीफ, पवित्र बाइबल, पवित्र गुरु ग्रंथ साहेब में प्रमाण है कि कबीर साहेब ही भगवान हैं। आइए हम आगे बढ़ें और जानें कि 600 वर्ष पहले इस मृत्युलोक में कबीर साहेब के माता पिता कौन थे? 600 वर्ष पूर्व किस प्रकार वे अवतरित हुए एवं पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब कहाँ अवतरित हुए?
कबीर साहेब के माता पिता कौन थे?
जैसा वेदों में वर्णित है कि पूर्ण परमेश्वर कभी भी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है, वह स्वयं सतलोक से अवतरित होते हैं और निसंतान दंपत्ति को प्राप्त होते हैं। 600 वर्ष पूर्व जब कबीर परमेश्वर आये तो उन्होंने नीरू और नीमा को अपना माता-पिता चुना। नीरू और नीमा निसंतान दम्पति थे जो जुलाहे का कार्य करते थे, वे बालक रूपी कबीर परमात्मा को लहरतारा तालाब से उठाकर घर ले आये। यह परमेश्वर कबीर की अलौकिक लीला है। 
नीरू नीमा कौन थे?
नीरू और नीमा, यानी कबीर परमेश्वर के माता पिता वास्तव में ब्राह्मण थे जिन्हें अन्य ब्राह्मणों की ईर्ष्या के परिणामस्वरूप, मुसलमानों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तित कर दिया गया था। नीरू का नाम गौरीशंकर था तथा नीमा का नाम सरस्वती था। वे दोनों शिव जी के उपासक थे वे परमात्मा ��ाहने वाली आत्माओं के बीच शिव पुराण का कथा वाचन किया करते थे। वे किसी से कोई दान आदि नहीं लेते थे फिर भी किसी भक्त द्वारा दिये जाने पर जरूरत के अनुसार रख लेते एवं बचे हुए धन का भंडारा कर दिया करते थे।
अन्य ब्राह्मणों को गौरी शंकर और सरस्वती द्वारा किये जाने वाली इस निस्वार्थ भाव से की जाने वाली कथा से ईर्ष्या होने लगी। गौरीशंकर किसी भी भक्तात्मा को धन के लालच में बहकाता नहीं था जिसके परिणामस्वरूप वह अनुयायियों में प्रिय बन गया। वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को यह पता हो गया कि कोई भी हिन्दू ब्राह्मण उनके पक्ष में नहीं है जिसका उन्होंने फायदा उठाया और जबरदस्ती उनके घर मे में पानी छिड़क दिया एवं उन्हें भी पिला दिया। उन्हें धर्म परिवर्तित कर दिया। इस पर हिन्दू ब्राह्मणों ने कहा कि वे मुस्लिम हो चुके हैं एवं उनका अब कोई वास्ता नहीं रह सकता।
बेचारे गौरीशंकर और सरस्वती के पास कोई रास्ता नहीं बचा। मुस्लिमों ने उनका नाम क्रमशः नीरू और नीमा रख दिया। उन्हें जो भी दान मिला करता था वे उस समय का निर्वाह करके बाकी बचा हुआ दान कर दिया करते थे। अब न तो उनके पास कोई संचित राशि थी और न ही उनके पास आजीविका का कोई साधन बचा था क्योंकि दान आना अब बंद हो चुका था और वे मुस्लिम ठहराए जा चुके थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने चरखा लेकर जुलाहे का कार्य प्रारंभ कर दिया। किन्तु अब भी वे मात्र जीविका निर्वाह का धन रखकर अन्य बचे धन का भंडारा कर देते थे। नीरू-नीमा का गंगा में स्नान करना अन्य ब्राह्मणों ने बंद कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार वे मुस्लिम हो गए थे।
अब हम जानेंगे कि पूर्ण परमात्मा कहाँ प्रकट हुए?
कबीर परमेश्वर का प्राकट्य
कलयुग में कबीर साहेब काशी में लहरतारा तालाब पर अवतरित हुए थे। लहरतारा तालाब में जल गंगा नदी का ही आता था। वर्ष 1398 (विक्रम संवत 1455) को ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन कबीर साहेब कमल के पुष्प पर अवतरित हुए। इस घटना के गवाह ऋषि अष्टानंद हुए जो स्वामी रामानन्द जी के शिष्य थे। वे अपनी साधना करने के लिए तालाब के किनारे बैठे हुए थे और अचानक उन्होंने आकाश से तीव्र प्रकाश उतरता और कमल के पुष्प पर सिमटता हुआ देखा जिससे आंखें चौंधिया गईं।
भगवान कबीर साहेब का कमल के पुष्प पर अवतरण
कबीर ���ाहेब का कुंवारी गायों से पोषण
परमात्मा कबीर का कमल के पुष्प पर अवतरण
काशी में गंगा नदी की लहरों से लहरतारा तालाब जो कि एक बड़ा तालाब था, भर जाता था। वह सदा गंगा के पवित्र जल से भरा रहता था। तालाब में कमल पुष्प उगते थे। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को सन 1398 (विक्रमी संवत 1455) को सुबह ब्रह्म मुहूर्त में (जोकि सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टे पहले होता है) कबीर परमेश्वर सतलोक (ऋतधाम) से सशरीर आकर शिशु रूप में लहरतारा तालाब के ही कमल के पुष्प में विराजमान हुए। इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा स्वामी रामानन्द जी के शिष्य ऋषि अष्टानांद जी थे जो प्रतिदिन सुबह वहाँ साधना के लिए जाते थे। उन्होंने तेज प्रकाश उतरता देखा, उस तीव्र प्रकाश से सारा लहरतारा तालाब जगमग हो उठा एवं स्वयं ऋषि अष्टानांद की आंखें चौंधिया गईं। उन्होंने वह प्रकाश एक कोने में सिमटते देखा। अष्टानांद जी ने सोचा कि "यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या कुछ अन्य अवतार अवतरित हुआ है" ऐसा सोचते हुए वे अपने गुरुदेव के पास पहुँचे।
 
यहाँ नीरू नीमा गंगा नदी में नहाने से रोक दिए जाने के कारण लहरतारा तालाब में नहाने जाने लगे क्योंकि उसमें भी गंगा का ही स्वच्छ जल रहता था। चूँकि वे निसंतान थे अतः बालक रूप में कबीर साहेब को देखकर अति प्रसन्न हुए। नीमा ने शिशु रूप में आये परमात्मा को हृदय से लगाया। तब नीरू को परमात्मा ने स्वयं उसी बालक रूप में ही घर ले चलने का आदेश दिया।
 
परमात्मा कबीर साहेब का लालन पालन
नीरू नीमा शिशु रूप में कबीर परमात्मा को घर ले आये। परमेश्वर कबीर बहुत सुंदर थे और पूरी काशी उस सुंदर मुखड़े वाले परमेश्वर के अवतार को देखने के लिए चली आयी। किसी ने भी इतना सुंदर बालक पहले कभी नहीं देखा था। काशीवासी स्वयं कह रहे थे कि इतना सुंदर बालक कभी नहीं देखा। काशी के स्त्री पुरुष कह रहे थे कि किसी ब्रह्मा-विष्णु-महेश में से किसी का अवतरण हुआ है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने कहा कि यह कोई अन्य परम् शक्ति है। कबीर परमेश्वर का सुंदर मुखड़ा देखकर सभी पूछना भूल गए कि इस बालक को आप कहाँ से लाये हैं?
 
25 दिनों तक कबीर साहेब ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। इस बात से नीरू और नीमा अत्यंत दुखी हुए। दुखी होकर नीरू-नीमा ने भगवान शिव से प्रार्थना की क्योंकि वे भगवान शिवजी के अनुयायी थे। तब शिवजी एक साधु का वेश बनाकर आये तथा नीमा ने अपनी सारी व्यथा शिवजी को सुनाई। शिवजी ने परमेश्वर कबीर साहेब को गोद में लिया, तब परमेश्वर कबीर ने शिवजी से संवाद किया एवं उन्हें प्रेरणा दी। तब कबीर जी के बताए अनुसार शिवजी ने नीरू को कुंवारी गाय लाने का आदेश दिया। कुंवारी गाय पर हाथ रखते ही गाय ने दूध देना प्रारंभ कर दिया और वह दूध कबीर साहेब ने पिया। परमात्मा की इस लीला का ज़िक्र वेदों में भी है। (ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9)
 
जब काजी मुल्ला कबीर साहेब के नामकरण के लिए आये तब उन्होंने कुरान खोली लेकिन पुस्तक के सभी अक्षर कबीर-कबीर हो गए। उन्होंने पुनः प्रयत्न किया लेकिन तब भी सभी अक्षर कबीर में तब्दील हो गए। तन उनका नाम कबीर रखकर ही चल पड़े। इस तरह कबीर परमात्मा ने अपना नाम स्वयं रखा।
कुछ समय बाद कुछ काजी कबीर साहेब की सुन्नत करने के उद्देश्य से आये तथा कबीर साहेब ने उन्हें एक लिंग के स्थान पर ढेरों लिंग दिखाए जिससे डर कर वे वापस लौट गए। परमात्मा की इस लीला का वर्णन पवित्र कबीर सागर में भी है।
आइए जानें कबीर साहेब ही परमात्मा हैं इसका धर्मग्रंथों में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है-धर्मग्रंथों में प्रमाण
परमात्मा कबीर स्वयं ही पूर्ण परमात्मा का संदेशवाहक बनकर आते हैं और अपना तत्वज्ञान सुनाते हैं। इस बात के साक्षी पवित्र वेद, पवित्र कुरान, पवित्र बाइबल, पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब हैं।
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है पवित्र वेदों में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र क़ुरान में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र बाइबल में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र गुरु ग्रन्थ साहेब में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है पवित्र वेदों में प्रमाण
वेदों में प्रमाण है कि कबीर साहेब प्रत्येक युग में आते हैं। परमेश्वर कबीर का माता के गर्भ से जन्म नहीं होता है तथा उनका पोषण कुंवारी गायों के दूध से होता है। अपने तत्वज्ञान को अपनी प्यारी आत्माओं तक वाणियों के माध्यम से कहने के कारण परमात्मा एक कवि की उपाधि भी धारण करता है।
आइए वेदों में प्रमाण जानें
यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9
यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25
यजुर्वेद में स्पष्ट प्रमाण है कि कबीर परमेश्वर अपने तत्वज्ञान के प्रचार के लिए पृथ्वी पर स्वयं अवतरित होते हैं। वेदों में परमेश्वर कबीर का नाम कविर्देव वर्णित है।
समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रामहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।
भावार्थ- जिस समय भक्त समाज को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) कराया जा रहा होता है। उस समय कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तत्वज्ञान को प्रकट करता है।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17
यह उधृत है कि पूर्ण परमेश्वर शिशु रूप में प्रकट होकर अपनी प्यारी आत्माओं को अपना तत्वज्ञान प्रचार कविर्गीर्भि यानी कबीर वाणी से पूर्ण परमेश्वर करते हैं।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17
शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम् अत्येति रेभन्।।17।।
भावार्थ - वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कविर्गिभिः अर्थात कबीर वाणी द्वारा निर्मल ज्ञान अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयायियों को कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा सम्बोधन करके अर्थात उच्चारण करके वर्णन करता है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही होता है।
 
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18
 
पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब जब तक पृथ्वी पर रहे उन्होंने ढेरों वाणियां अपने मुख कमल से उच्चारित की जिन्हें उनके शिष्य आदरणीय धर्मदास जी ने जिल्द किया। आज ये हमारे समक्ष कबीर सागर और कबीर बीजक के रूप में मौजूद हैं जिनमें कबीर परमेश्वर की वाणियों का संकलन है। आम जन के बीच कबीर साहेब एक साधारण कवि के रूप में प्रचलित थे जबकि वे स्वयं सारी सृष्टि के रचनाकार है। परमात्मा की इस लीला का वर्णन हमें ऋग्वेद में भी मिलता है।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 18
ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षाः सहस्त्रणीथः पदवीः कवीनाम्।
तृतीयम् धाम महिषः सिषा सन्त् सोमः विराजमानु राजति ��्टुप्।।18।।
भावार्थ- वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि जो पूर्ण परमात्मा विलक्षण बच्चे के रूप में आकर प्रसिद्ध कवियों की उपाधि प्राप्त करके अर्थात एक संत या ऋषि की भूमिका करता है उस संत रूप में प्रकट हुए प्रभु द्वारा रची  हजारों वाणी संत स्वभाव वाले व्यक्तियों अर्थात् भक्तों के लिए स्वर्ग तुल्य आनन्द दायक होती हैं। वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष तीसरे मुक्तिलोक अर्थात सत्यलोक पर सुदृढ़ पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात् मानव सदृश संत रूप में होता हुआ गुबंद अर्थात गुम्बज में ऊंचे टीले रूपी सिंहासन पर उज्जवल स्थूल आकार में अर्थात मानव सदृश तेजोमय शरीर में विराजमान है।
 
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मंत्र 9
 
अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।
भावार्थ - पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष ��ब लीला करता हुआ बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है उस समय कंवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है। ऋग्वेद  मंडल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 में परमात्मा की अन्य लीलाओं का भी वर्णन है कि पूर्ण परमेश्वर भ्रमण करते हुए अपने तत्वज्ञान का प्रचार करते हैं और कवि की उपाधि धारण करते हैं।
परमात्मा के अन्य अनेकों गुणों का वर्णन इन अध्याय में है
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 19,20
ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 मन्त्र 3,4,5,15,16
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26,30
यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25
सामवेद संख्या नं. 359, अध्याय 4 खंड 25, श्लोक 8
सामवेद संख्या नं. 1400, अध्याय 12, कांड 3, श्लोक 8
अथर्वेद कांड नं. 4, अनुवाक 1, मन्त्र 1,2,3,4,5,6,7
कबीर साहेब पूर्ण परमेश्वर है कुरान शरीफ में प्रमाण
पवित्र कुरान शरीफ, सूरत फुरकान 25, आयत 52 से 59 में कहा गया है कि "तुम काफिरों का कहा न मानना क्योंकि वे कबीर को अल्लाह नहीं मानते। कुरान में विश्वास रखो और अल्लाह के लिए संघर्ष करो, अल्लाह की बड़ाई करो। "साथ ही आयात 25:59 में कुरान का ज्ञानदाता कहता है कि कबीर ही अल्लाह है जिसने धरती और आकाश तथा इनके बीच जो कुछ है की छः दिनों में रचना की और सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, उसके बारे में किसी बाख़बर से पूछो। बाख़बर/ धीराणाम/ तत्वदर्शी सन्त एक ही होता है।
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*🚩॥सनातनपूजनसामग्रीभण्डार ॥🚩*
सवर्णों में एक जाति आती है ब्राह्मण जिस पर सदियों से राक्षस, यवन, मुगल, अंग्रेज, कांग्रेस, सपा, बसपा, वामपंथी, सभी राजनीतिक पार्टियाँ, विभिन्न जातियाँ आक्रमण करते आ रहे है!
आरोप ये लगे कि ब्राह्मणों ने जाति का बटवारा किया
उत्तर: सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद जो अपौरुषेय जिसका संकलन वेदव्यास जी ने किया, जो ब्राह्मण नहीं थें
१८-पुराण, महाभारत, गीता सब व्यास विरचित है जिसमें वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था दी गई है, रचनाकार व्यास ब्राह्मण जाति से नही थे
ऐसे ही कालीदास या कई कवि जो वर्णव्यवस्था और जाति-व्यवस्था के पक्षधर थे पर जन्मजात ब्राह्मण नहीं थे
मेरा प्रश्न:- कोई एक भी ग्रन्थ का नाम बतलाइए जिसमें जातिव्यवस्था लिखी गई हो और ब्राह्मण न��� लिखा हो?
शायद एक भी नही मिलेगा, मुझे पता है आप मनुस्मृति का ही नाम लेंगे, जिसके लेखक मनु महाराज थे, जो कि क्षत्रिय थे, मनु स्मृति जिसे आपने कभी पढ़ा ही नहीं और पढ़ा भी तो टुकड़ों में! कुछ श्लोकों को जिसके कहने का प्रयोजन कुछ अन्य होता है और हम समझते अपने विचारानुसार है
अब रही बात कि ब्राह्मणों ने क्या किया? तो सुनें! यंत्रसर्वस्वम् (इंजीनियरिंग का ग्रन्थ) भारद्वाज
वैमानिक शास्त्रम् (विमान बनाने हेतु) भारद्वाज
सुश्रुतसंहिता (सर्जरी चिकित्सा)- सुश्रुत
चरकसंहिता (चिकित्सा) चरक
अर्थशास्त्र (जिसमें सैन्यविज्ञान, राजनीति, युद्धनीति, दण्डविधान, कानून आदि कई महत्वपूर्ण विषय हैं) कौटिल्य
आर्यभटीयम् (गणित) आर्यभट्ट
ऐसे ही छन्दशास्त्र, नाट्यशास्त्र, शब्दानुशासन, परमाणुवाद, खगोल विज्ञान, योगविज्ञान सहित प्रकृति और मानव कल्याणार्थ समस्त विद्याओं का संचय अनुसंधान एवं प्रयोग हेतु ब्राह्मणों ने अपना पूरा जीवन भयानक जंगलों में, घोर दरिद्रता में बिताए!
उसके पास दुनियाँ के प्रपंच हेतु समय ही कहां शेष था? कोई बताएगा समस्त विद्याओं में प्रवीण होते हुए भी, सर्वशक्तिमान् होते हुए भी ब्राह्मण ने पृथ्वी का भोग करने हेतु गद्दी स्वीकारा हो?
विदेशी मानसिकता से ग्रसित वामपंथियों ने कुचक्र रचकर गलत तथ्य पेश किया, आजादी के बाद इतिहास संरचना इनके हाथों सौपी गई और ये विदेश संचालित षड़यन्त्रों के तहत देश में जहर बोने लगे
ब्राह्मण हमेशा से यही चाहता रहा है कि हमारा राष्ट्र शक्तिशाली हो अखण्ड हो, न्याय व्यवस्स्था सुदृढ़ हो
सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वे सन्तु निरामया: सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्.. का मन्त्र देने वाला ब्राह्मण, वसुधैव कुटुम्बकम् का पालन करने वाला ब्राह्मण सर्वदा काँधे पर जनेऊ कमर में लंगोटी बाँधे एक गठरी में लेखनी, मसि, पत���ते, कागज, और पुस्तक लिए चरैवेति-चरैवेति का अनुशरण करता रहा, मन में एक ही भाव था लोक कल्याण!
ऐसा नहीं कि लोक कल्याण हेतु मात्र ब्राह्मणों ने ही काम किया, बहुत सारे ऋषि, मुनि, विद्वान्, महापुरुष अन्य वर्णों के भी हुए जिनका महत् योगदान रहा है, किन्तु आज ब्राह्मण के विषय में ही इसलिए कह रहा हूँ कि जिस देश की शक्ति के संचार में ब्राह्मणों के त्याग तपस्या क��� इतना बड़ा योगदान रहा!
जिसने मुगलों, यवनों, अंग्रेजों और राक्षसी प्रवृत्ति के लोंगों का भयानक अत्याचार सहकर भी यहां की संस्कृति और ज्ञान को बचाए रखा, वेदों, शास्त्रों को जब जलाया जा रहा था तब ब्राह्मणों ने पूरा का पूरा वेद और शास्त्र कण्ठस्थ करके बचा लिया और आज भी वे इसे नई पीढ़ी में संचारित कर रहे हैं वे सामान्य कैसे हो सकते हैं?
जिसने शिक्षा को बचाने के लिए सर्वस्व त्याग दिया उसके साथ इतनी भयानक ईर्ष्या क्यों?
ब्राह्मणों को किसी जाति विशेष से द्वेष नही है, ब्राह्मणों ने शास्त्रों को जीने का प्रयास किया है, अत: जातिगत छुआछूत को पाप मानता है
गलत तथ्यों के आधार पर हमें क्यों सताया जा रहा है? हमारे धर्म के प्रतीक शिखा और यज्ञोपवीत, वेश भूषा का मजाक क्यों बनाया जा रहा हैं?
हमारे मन्त्रों और पूजा पद्धति का उपहास होता है और आप सहन कैसे करते हैं? विश्व की सबसे समृद्ध और एकमात्र वैज्ञानिक भाषा संस्कृत को हम भारतीय हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं। *इसी तरह के रोचक तथ्य एवं अध्यात्मिक ज्ञान हेतू हमारे tumblr / instragram page से जुड़े👇🏻* https://instagram.com/sanatanpoojansamagribhandar?igshid=MzNlNGNkZWQ4Mg==,https://www.tumblr.com/sanatan-poojan-samagri-bhandar
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singhmanojdasworld · 1 year ago
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पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी: सभी आत्माओं के जनक
पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी: सभी आत्माओं के जनक
हम सभी जानते हैं कि कबीर साहेब आज से लगभग 600 वर्ष पहले इतिहास के भक्तियुग में जुलाहे की भूमिका निभाकर गये। पर वे वास्तव में कौन हैं? कबीर साहेब कोई सूफी संत हैं या कवि मात्र? क्या कबीर साहेब परमात्मा हैं? इस लेख में हम कुछ प्रश्नों के उत्तर बताने का प्रयत्न करेंगे, जैसे कबीर कौन हैं? वे कवि हैं या पूर्ण परमेश्वर? कबीर जी इस पृथ्वी पर कब अवतरित हुए? क्या कबीर साहेब ने सशरीर इस मृत्युलोक को छोड़ा था? आखिर क्या रहस्य है जो अब तक अनसुलझा है? कबीर साहेब कहाँ रहते थे? कबीर का क्या अर्थ है? कबीर साहेब ने पूर्ण परमेश्वर के विषय में क्या ज्ञान दिया है?
लेख में हम निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेंगे
परमेश्वर कबीर साहेब की जीवनी
परमात्मा कबीर का रूप
परमेश्वर कबीर साहेब का अवतरण
कबीर साहेब ही पूर्ण परमेश्वर है इसका सभी धर्मग्रंथों से प्रमाण
कबीर साहेब के गुरु कौन थे?
परमात्मा कबीर किन महापुरुषों को मिले?
परमात्मा कबीर साहेब के चमत्कार
परमेश्वर कबीर साहेब की मृत्यु- एक रहस्य
पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान
पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब का कलियुग में अवतरण
परमात्मा कबीर की जीवनी
परमात्मा कबीर जनसाधारण में सामान्यतः "कबीर दास" नाम से जाने जाते थे तथा बनारस (काशी, उत्तर प्रदेश) में जुलाहे की भूमिका कर रहे थे। विडंबना है कि सर्व सृष्टि के रचनहार, भगवान स्वयं धरती पर अवतरित हुए और स्वयं को दास सम्बोधित किया। कबीर साहेब के वास्तविक रूप से सभी अनजान थे सिवाय उनके जिन्हें कबीर साहेब ने स्वयं दर्शन दिए और अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया जिनमें नानक देव जी (तलवंडी, पंजाब), आदरणीय धर्मदास जी ( बांधवगढ़, मध्यप्रदेश), दादू साहेब जी (गुजरात) शामिल हैं। वेद भी पूर्ण परमेश्वर के इस लीला की गवाही देते हैं (ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 4 मन्त्र 6)। इस मंत्र में परमेश्वर कबीर जी को "तस्कर" अर्थात छिप कर कार्य करने वाला कहा है। नानक जी ने भी परमेश्वर कबीर साहेब की वास्तविक स्थिति से परिचित होने पर उन्हें "ठग" (गुरु ग्रंथ साहेब, राग सिरी, महला पहला, पृष्ठ 24) कहा है।
कबीर परमेश्वर का अवतरण
कबीर साहेब भारत के इतिहास में मध्यकाल के भक्ति युग में आये थे। उनकी बहुमूल्य एवं अनन्य कबीर वाणी / (Kabir Vani) कविता आज भी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। परमेश्वर की कबीर वाणी में ढेरों गूढ़ रहस्य भरे पड़े हैं जिनके माध्यम से परमेश्वर ने विश्व को समझाने का प्रयत्न किया था। हम सभी लगभग बाल्यकाल से ही कबीर जी के दोहे (Kabir Saheb Ji Ke Dohe), शबद पढ़ते आये हैं अतः आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि आखिर कबीर जी कौन हैं? वास्तव में एक जुलाहे एवं कवि की भूमिका करने वाला जो मानव सदृश पृथ्वी पर अवतरित हुआ और अपनी प्यारी आत्माओं को सही आध्यात्मिक ज्ञान का बोध कराया वह कोई और नहीं बल्कि पूर्ण ब्रह्म कविर्देव हैं। यह सभी धर्मग्रंथों पवित्र वेद, पवित्र कुरान शरीफ, पवित्र बाइबल, पवित्र गुरु ग्रंथ साहेब में प्रमाण है कि कबीर साहेब ही भगवान हैं। आइए हम आगे बढ़ें और जानें कि 600 वर्ष पहले इस मृत्युलोक में कबीर साहेब के माता पिता कौन थे? 600 वर्ष पूर्व किस प्रकार वे अवतरित हुए एवं पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब कहाँ अवतरित हुए?
कबीर साहेब के माता पिता कौन थे?
जैसा वेदों में वर्णित है कि पूर्ण परमेश्वर कभी भी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है, वह स्वयं सतलोक से अवतरित होते हैं और निसंतान दंपत्ति को प्राप्त होते हैं। 600 वर्ष पूर्व जब कबीर परमेश्वर आये तो उन्होंने नीरू और नीमा को अपना माता-पिता चुना। नीरू और नीमा निसंतान दम्पति थे जो जुलाहे का कार्य करते थे, वे बालक रूपी कबीर परमात्मा को लहरतारा तालाब से उठाकर घर ले आये। यह परमेश्वर कबीर की अलौकिक लीला है।
नीरू नीमा कौन थे?
नीरू और नीमा, यानी कबीर परमेश्वर के माता पिता वास्तव में ब्राह्मण थे जिन्हें अन्य ब्राह्मणों की ईर्ष्या के परिणामस्वरूप, मुसलमानों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तित कर दिया गया था। नीरू का नाम गौरीशंकर था तथा नीमा का नाम सरस्वती था। वे दोनों शिव जी के उपासक थे वे परमात्मा चाहने वाली आत्माओं के बीच शिव पुराण का कथा वाचन किया करते थे। वे किसी से कोई दान आदि नहीं लेते थे फिर भी किसी भक्त द्वारा दिये जाने पर जरूरत के अनुसार रख लेते एवं बचे हुए धन का भंडारा कर दिया करते थे।
अन्य ब्राह्मणों को गौरी शंकर और सरस्वती द्वारा किये जाने वाली इस निस्वार्थ भाव से की जाने वाली कथा से ईर्ष्या होने लगी। गौरीशंकर किसी भी भक्तात्मा को धन के लालच में बहकाता नहीं था जिसके परिणामस्वरूप वह अनुयायियों में प्रिय बन गया। वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को यह पता हो गया कि कोई भी हिन्दू ब्राह्मण उनके पक्ष में नहीं है जिसका उन्होंने फायदा उठाया और जबरदस्ती उनके घर मे में पानी छिड़क दिया एवं उन्हें भी पिला दिया। उन्हें धर्म परिवर्तित कर दिया। इस पर हिन्दू ब्राह्मणों ने कहा कि वे मुस्लिम हो चुके हैं एवं उनका अब कोई वास्ता नहीं रह सकता।
बेचारे गौरीशंकर और सरस्वती के पास कोई रास्ता नहीं बचा। मुस्लिमों ने उनका नाम क्रमशः नीरू और नीमा रख दिया। उन्हें जो भी दान मिला करता था वे उस समय का निर्वाह करके बाकी बचा हुआ दान कर दिया करते थे। अब न तो उनके पास कोई संचित राशि थी और न ही उनके पास आजीविका का कोई साधन बचा था क्योंकि दान आना अब बंद हो चुका था और वे मुस्लिम ठहराए जा चुके थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने चरखा लेकर जुलाहे का कार्य प्रारंभ कर दिया। किन्तु अब भी वे मात्र जीविका निर्वाह का धन रखकर अन्य बचे धन का भंडारा कर देते थे। नीरू-नीमा का गंगा में स्नान करना अन्य ब्राह्मणों ने बंद कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार वे मुस्लिम हो गए थे।
अब हम जानेंगे कि पूर्ण परमात्मा कहाँ प्रकट हुए?
कबीर परमेश्वर का प्राकट्य
कलयुग में कबीर साहेब काशी में लहरतारा तालाब पर अवतरित हुए थे। लहरतारा तालाब में जल गंगा नदी का ही आता था। वर्ष 1398 (विक्रम संवत 1455) को ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन कबीर साहेब कमल के पुष्प पर अवतरित हुए। इस घटना के गवाह ऋषि अष्टानंद हुए जो स्वामी रामानन्द जी के शिष्य थे। वे अपनी साधना करने के लिए तालाब के किनारे बैठे हुए थे और अचानक उन्होंने आकाश से तीव्र प्रकाश उतरता और कमल के पुष्प पर सिमटता हुआ देखा जिससे आंखें चौंधिया गईं।
भगवान कबीर साहेब का कमल के पुष्प पर अवतरण
कबीर साहेब का कुंवारी गायों से पोषण
परमात्मा कबीर का कमल के पुष्प पर अवतरण
काशी में गंगा नदी की लहरों से लहरतारा तालाब जो कि एक बड़ा तालाब था, भर जाता था। वह सदा गंगा के पवित्र जल से भरा रहता था। तालाब में कमल पुष्प उगते थे। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को सन 1398 (विक्रमी संवत 1455) को सुबह ब्रह्म मुहूर्त में (जोकि सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टे पहले होता है) कबीर परमेश्वर सतलोक (ऋतधाम) से सशरीर आकर शिशु रूप में लहरतारा तालाब के ही कमल के पुष्प में विराजमान हुए। इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा स्वामी रामानन्द जी के शिष्य ऋषि अष्टानांद जी थे जो प्रतिदिन सुबह वहाँ साधना के लिए जाते थे। उन्होंने तेज प्रकाश उतरता देखा, उस तीव्र प्रकाश से सारा लहरतारा तालाब जगमग हो उठा एवं स्वयं ऋषि अष्टानांद की आंखें चौंधिया गईं। उन्होंने वह प्रकाश एक कोने में सिमटते देखा। अष्टानांद जी ने सोचा कि "यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या कुछ अन्य अवतार अवतरित हुआ है" ऐसा सोचते हुए वे अपने गुरुदेव के पास पहुँचे।
यहाँ नीरू नीमा गंगा नदी में नहाने से रोक दिए जाने के कारण लहरतारा तालाब में नहाने जाने लगे क्योंकि उसमें भी गंगा का ही स्वच्छ जल रहता था। चूँकि वे निसंतान थे अतः बालक रूप में कबीर साहेब को देखकर अति प्रसन्न हुए। नीमा ने शिशु रूप में आये परमात्मा को हृदय से लगाया। तब नीरू को परमात्मा ने स्वयं उसी बालक रूप में ही घर ले चलने का आदेश दिया।
परमात्मा कबीर साहेब का लालन पालन
नीरू नीमा शिशु रूप में कबीर परमात्मा को घर ले आये। परमेश्वर कबीर बहुत सुंदर थे और पूरी काशी उस सुंदर मुखड़े वाले परमेश्वर के अवतार को देखने के लिए चली आयी। किसी ने भी इतना सुंदर बालक पहले कभी नहीं देखा था। काशीवासी स्वयं कह रहे थे कि इतना सुंदर बालक कभी नहीं देखा। काशी के स्त्री पुरुष कह रहे थे कि किसी ब्रह्मा-विष्णु-महेश में से किसी का अवतरण हुआ है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने कहा कि यह कोई अन्य परम् शक्ति है। कबीर परमेश्वर का सुंदर मुखड़ा देखकर सभी पूछना भूल गए कि इस बालक को आप कहाँ से लाये हैं?
25 दिनों तक कबीर साहेब ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। इस बात से नीरू और नीमा अत्यंत दुखी हुए। दुखी होकर नीरू-नीमा ने भगवान शिव से प्रार्थना की क्योंकि वे भगवान शिवजी के अनुयायी थे। तब शिवजी एक साधु का वेश बनाकर आये तथा नीमा ने अपनी सारी व्यथा शिवजी को सुनाई। शिवजी ने परमेश्वर कबीर साहेब को गोद में लिया, तब परमेश्वर कबीर ने शिवजी से संवाद किया एवं उन्हें प्रेरणा दी। तब कबीर जी के बताए अनुसार शिवजी ने नीरू को कुंवारी गाय लाने का आदेश दिया। कुंवारी गाय पर हाथ रखते ही गाय ने दूध देना प्रारंभ कर दिया और वह दूध कबीर साहेब ने पिया। परमात्मा की इस लीला का ज़िक्र वेदों में भी है। (ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9)
जब काजी मुल्ला कबीर साहेब के नामकरण के लिए आये तब उन्होंने कुरान खोली लेकिन पुस्तक के सभी अक्षर कबीर-कबीर हो गए। उन्होंने पुनः प्रयत्न किया लेकिन तब भी सभी अक्षर कबीर में तब्दील हो गए। तन उनका नाम कबीर रखकर ही चल पड़े। इस तरह कबीर परमात्मा ने अपना नाम स्वयं रखा।
कुछ समय बाद कुछ काजी कबीर साहेब की सुन्नत करने के उद्देश्य से आये तथा कबीर साहेब ने उन्हें एक लिंग के स्थान पर ढेरों लिंग दिखाए जिससे डर कर वे वापस लौट गए। परमात्मा की इस लीला का वर्णन पवित्र कबीर सागर में भी है।
आइए जानें कबीर साहेब ही परमात्मा हैं इसका धर्मग्रंथों में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है-धर्मग्रंथों में प्रमाण
परमात्मा कबीर स्वयं ही पूर्ण परमात्मा का संदेशवाहक बनकर आते हैं और अपना तत्वज्ञान सुनाते हैं। इस बात के साक्षी पवित्र वेद, पवित्र कुरान, पवित्र बाइबल, पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब हैं।
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है पवित्र वेदों में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र क़ुरान में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र बाइबल में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा हैं पवित्र गुरु ग्रन्थ साहेब में प्रमाण
कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा है पवित्र वेदों में प्रमाण
वेदों में प्रमाण है कि कबीर साहेब प्रत्येक युग में आते हैं। परमेश्वर कबीर का माता के गर्भ से जन्म नहीं होता है तथा उनका पोषण कुंवारी गायों के दूध से होता है। अपने तत्वज्ञान को अपनी प्यारी आत्माओं तक वाणियों के माध्यम से कहने के कारण परमात्मा एक कवि की उपाधि भी धारण करता है।
आइए वेदों में प्रमाण जानें
यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9
यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25
यजुर्वेद में स्पष्ट प्रमाण है कि कबीर परमेश्वर अपने तत्वज्ञान के प्रचार के लिए पृथ्वी पर स्वयं अवतरित होते हैं। वेदों में परमेश्वर कबीर का नाम कविर्देव वर्णित है।
समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रामहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।
भावार्थ- जिस समय भक्त समाज को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) कराया जा रहा होता है। उस समय कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तत्वज्ञान को प्रकट करता है।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17
यह उधृत है कि पूर्ण परमेश्वर शिशु रूप में प्रकट होकर अपनी प्यारी आत्माओं को अपना तत्वज्ञान प्रचार कविर्गीर्भि यानी कबीर वाणी से पूर्ण परमेश्वर करते हैं।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17
शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम् अत्येति रेभन्।।17।।
भावार्थ - वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कविर्गिभिः अर्थात कबीर वाणी द्वारा निर्मल ज्ञान अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयायियों को कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा सम्बोधन करके अर्थात उच्चारण करके वर्णन करता है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही होता है।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18
पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब जब तक पृथ्वी पर रहे उन्होंने ढेरों वाणियां अपने मुख कमल से उच्चारित की जिन्हें उनके शिष्य आदरणीय धर्मदास जी ने जिल्द किया। आज ये हमारे समक्ष कबीर सागर और कबीर बीजक के रूप में मौजूद हैं जिनमें कबीर परमेश्वर की वाणियों का संकलन है। आम जन के बीच कबीर साहेब एक साधारण कवि के रूप में प्रचलित थे जबकि वे स्वयं सारी सृष्टि के रचनाकार है। परमात्मा की इस लीला का वर्णन हमें ऋग्वेद में भी मिलता है।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 18
ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षाः सहस्त्रणीथः पदवीः कवीनाम्।
तृतीयम् धाम महिषः सिषा सन्त् सोमः विराजमानु राजति स्टुप्।।18।।
भावार्थ- वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि जो पूर्ण परमात्मा विलक्षण बच्चे के रूप में ��कर प्रसिद्ध कवियों की उपाधि प्राप्त करके अर्थात एक संत या ऋषि की भूमिका करता है उस संत रूप में प्रकट हुए प्रभु द्वारा रची हजारों वाणी संत स्वभाव वाले व्यक्तियों अर्थात् भक्तों के लिए स्वर्ग तुल्य आनन्द दायक होती हैं। वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष तीसरे मुक्तिलोक अर्थात सत्यलोक पर सुदृढ़ पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात् मानव सदृश संत रूप में होता हुआ गुबंद अर्थात गुम्बज में ऊंचे टीले रूपी सिंहासन पर उज्जवल स्थूल आकार में अर्थात मानव सदृश तेजोमय शरीर में विराजमान है।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मंत्र 9
अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।
भावार्थ - पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब लीला करता हुआ बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है उस समय कंवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है। ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 में परमात्मा की अन्य लीलाओं का भी वर्णन है कि पूर्ण परमेश्वर भ्रमण करते हुए अपने तत्वज्ञान का प्रचार करते हैं और कवि की उपाधि धारण करते हैं।
परमात्मा के अन्य अनेकों गुणों का वर्णन इन अध्याय में है
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 19,20
ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 मन्त्र 3,4,5,15,16
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26,30
यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25
सामवेद संख्या नं. 359, अध्याय 4 खंड 25, श्लोक 8
सामवेद संख्या नं. 1400, अध्याय 12, कांड 3, श्लोक 8
अथर्वेद कांड नं. 4, अनुवाक 1, मन्त्र 1,2,3,4,5,6,7
कबीर साहेब पूर्ण परमेश्वर है कुरान शरीफ में प्रमाण
पवित्र कुरान शरीफ, सूरत फुरकान 25, आयत 52 से 59 में कहा गया है कि "तुम काफिरों का कहा न मानना क्योंकि वे कबीर को अल्लाह नहीं मानते। कुरान में विश्वास रखो और अल्लाह के लिए संघर्ष करो, अल्लाह की बड़ाई करो। "साथ ही आयात 25:59 में कुरान का ज्ञानदाता कहता है कि कबीर ही अल्लाह है जिसने धरती और आकाश तथा इनके बीच जो कुछ है की छः दिनों में रचना की और सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, उसके बारे में किसी बाख़बर से पूछो। बाख़बर/ धीराणाम/ तत्वदर्शी सन्त एक ही होता है।
फजाईले अमाल जिसे फजाईले ज़िक्र भी कहते हैं, में आयत 1 में प्रमाण है कि अल्लाह कबीर है।
परमात्मा कबीर हैं पवित्र बाइबल में प्रमाण
पवित्र बाइबल में भी प्रमाण है कि परमेश्वर कबीर साकार है। वह निराकार नहीं है।
पवित्र बाइबल के उत्पत्ति ग्रन्थ के अध्याय 1:26 और 1:27 में प्रमाण है कि परमेश्वर ने 6 दिनों में ��ृष्टि रचना की। बाइबल के अध्याय 3 के 3:8,3:9,3:10 में प्रमाण है कि परमात्मा सशरीर है।
बाइबल के उत्पत्ति ग्रन्थ 18:1 में प्रमाण है कि परमेश्वर अब्राहम के समक्ष प्रकट हुए इससे प्रमाणित होता है कि परमेश्वर सशरीर है।ऑर्थोडॉक्स यहूदी बाइबल के अय्यूब 36:5 में प्रमाण है कि "परमेश्वर कबीर (शक्तिशाली) है, किन्तु वह लोगों से घृणा नहीं करता है। परमेश्वर कबीर (सामर्थी) है और विवेकपूर्ण है।"
कबीर साहेब परमात्मा हैं गुरु ग्रन्थ साहेब में प्रमाण
गुरु ग्रन्थ साहेब में प्रमाण है कि कबीर साहेब ही वह परमात्मा हैं जिसने सर्व ब्रह्मांडों की रचना की। वह साकार है और उसी परमेश्वर कबीर ने काशी, उत्तर प्रदेश में जुलाहे की भूमिका भी निभाई।
गुरु ग्रन्थ साहेब के पृष्ठ 24 राग सिरी, महला 1, शब्द संख्या 9; गुरु ग्रंथ साहेब पृष्ठ 721 महला 1 तथा गुरु ग्रंथ साहेब, राग असावरी, महला 1 के अन्य भागों में प्रमाण है.
कबीर परमात्मा के गुरु कौन थे?
मोक्ष मार्ग में गुरु का स्थान सर्वोच्च एवं महत्वपूर्ण है जैसा कि कबीर साहेब ने अपने तत्वज्ञान में बताया है। इसलिए कबीर साहेब जी ने स्वामी रामानंद की को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में सबके समक्ष स्वीकार किया था। स्वामी रामानंद जी को वेद एवं गीता के श्लोक अच्छी तरह कंठस्थ थे।
परमेश्वर कबीर ने स्वामी रामानंद जी के आश्रम में दो रूप बनाये
स्वामी रामानन्द जी के मन की बात बताना
स्वामी रामानंद जी को सतलोक दिखाना
जब कबीर साहेब अपने लीलामय शरीर के पांच वर्ष के हो गए तब गुरु मर्यादा के पालन (तत्वज्ञान में उन्होंने प्रचार किया है कि गुरु होना आवश्यक है) के लिए उन्होंने एक लीला की। परमेश्वर ढाई वर्ष के शिशु का रूप बनाकर काशी के पंचगंगा घाट पर लेट गए। स्वामी रामानंद जी प्रतिदिन स्नान हेतु वहाँ जाते थे। उस समय स्वामी रामानन्द जी की आयु 104 वर्ष हो चुकी थी। उन्होंने काशी के अन्य पंडितों की तरह आडम्बर युक्त भक्ति को नहीं अपनाया। रामानंद जी शास्त्रों के अनुसार भक्ति करने के पक्ष में थे तथा यही शिक्षा वे अपने 52 शिष्यों को दिया करते थे। वे पवित्र गीता और पवित्र वेदों के आधार पर भक्ति करने को कहते और ॐ नाम का जाप जपने के लिए देते थे।
उस दिन भी प्रतिदिन के अनुसार जब स्वामी रामानन्द जी पंच गंगा घाट पर स्नान के लिए गए तब कबीर परमेश्वर घाट की सीढ़ियों में लेट गए। ब्रह्म मुहूर्त के समय रामानंद जी कबीर साहेब को नहीं देख पाए इस कारण रामानंद जी के खड़ाऊँ की ठोकर कबीर परमेश्वर के सिर पर लगी। परमेश्वर कबीर जी रोने की लीला करने लगे तब रामानन्द जी ने उन्हें गोद मे उठाया, उठाते समय रामानंद जी के गले से कंठी माला कबीर साहेब के गले में चली गई तथा रामानंद जी ने कहा बेटा राम राम बोलो, राम नाम से सब दुख दूर होते हैं। कबीर साहेब बालक रूप में चुप हो गए। तब रामानन्द जी स्नान करने लगे और परमेश्वर कबीर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए। रामानन्द जी ने कबीर साहेब को बाद में खोजने का प्रयत्न भी किया किन्तु वे वहाँ नहीं थे।
महत्वपूर्ण- पांच वर्ष की आयु में ही कबीर साहेब ने संसार के समक्ष रामानंद जी को गुरु स्वीकार कर लिया था किन्तु वास्तव में रामानंद जी के गुरु कबीर परमेश्वर थे।
रामानंद जी के आश्रम में परमेश्वर कबीर के दो रूप बनाना
एक दिन स्वामी रामानंद जी का शिष्य कहीं कथा कर रहा था। कबीर परमेश्वर भी वहाँ गए। ऋषि जी विष्णु पुराण की कथा का वचन कर रहे थे जिसमें वे विष्णु जी को सारे ब्रह्मांड का मालिक और रचनाकार घोषित कर रहे थे, उन्हें अजर अमर बता रहे थे, एवं बताया कि विष्णु जी के कोई माता पिता नहीं हैं। कबीर परमेश्वर ने सारा प्रवचन सुना। सत्संग समापन के पश्चात कबीर परमेश्वर ने प्रश्न किया कि "ऋषि जी क्या मैं आपसे एक प्रश्न कर सकता हूँ?" ऋषि जी ने कहा "पूछो बेटा"। सैकड़ों की संख्या में अनुयायी वहां उपस्थित थे। कबीर साहेब ने कहा कि "आप जो विष्णु पुराण का ज्ञान बता रहे थे तब आपने कहा कि भगवान विष्णु ही परम् शक्ति हैं जिनसे ब्रह्मा और शिव जी उत्पन्न हुए हैं।" तब ऋषि जी ने उत्तर दिया कि मैंने जो कुछ भी बताया वह विष्णु पुराण में लिखा हुआ है। तब कबीर परमेश्वर ने कहा कि "ऋषि जी यदि नाराज न हों तो मैं अपना प्रश्न आपके समक्ष रखूं। एक दिन मैंने शिव पुराण सुना तब वे सज्जन बता रहे थे कि विष्णु जी और ब्रह्मा जी का जन्म शिव जी से हुआ है। (प्रमाण- पवित्र शिव पुराण, रुद्र संहिता, अध्याय 6,7। प्रकाशक- गीता प्रेस गोरखपुर)
देवी भागवत के तीसरे स्कंद में यह वर्णन है कि माता दुर्गा, ब्रह्मा-विष्णु-शिव की माता हैं। तथा ये तीनों देव जन्म-मरण में आते हैं तथा अमर नहीं बल्कि नाशवान हैं।" तब कोई उत्तर न पाकर ऋषि जी क्रोधित हो गए और पूछा कि "कौन हो तुम? किसके पुत्र हो?" इसके पहले कबीर परमेश्वर कोई उत्तर देते उपस्थित लोगों ने कहना शुरू किया कि यह नीरु जुलाहे का बेटा है। तब ऋषि जी ने पूछा कि तुमने कंठी माला कैसे धारण की? (तुलसी की कंठी माला वैष्णव साधु पहनते थे जो इस बात का परिचायक थी कि उन्होंने वैष्णव गुरु धारण किया है।) तब कबीर जी ने कहा कि मेरे गुरुदेव भी वही हैं जो आपके गुरु हैं। ऋषि जी आग बबूला हो उठे और कहने लगे "अरे मूर्ख! निम्न जा��ि के जुलाहे का पुत्र होकर मेरे गुरुदेव को अपना बता रहा है। वे तुम जैसे शूद्रों को अपने पास भी नहीं आने देते और तुम कहते हो तुमने उनसे नाम दीक्षा ली है। देखो लोगों! यह झूठा है! धोखेबाज है! मैं अभी अपने गुरुदेव के पास जाकर तुम्हारी कहानी बताऊँगा।
तुम एक निम्न जाति के जुलाहे के पुत्र हो तुमने मेरे गुरुजी का अपमान किया है।" कविरग्नि ने कहा "ठीक है आप गुरुजी को बताएँ।" तब वह ऋषि स्वामी रामानंद जी के पास जाकर उनसे बोला कि " गुरुदेव एक निम्न जाति का लड़का जा। उसने हमारा अपमान किया है। उसने कहा कि स्वामी रामानन्द जी उसके गुरु हैं।" ऋषि अष्टानंद ने कहा कि "हे भगवान हमारा बाहर निकलना दूभर हो जाएगा।" इस पर स्वामी रामानंद जी ने कहा," उसे कल बुलाकर लाओ। मैं कल तुम सबके सामने उसे सजा दूंगा।"
स्वामी रामानंद जी के मन की बात कहना
जब रामानंद जी कबीर परमेश्वर को परमात्मा नहीं स्वीकार कर रहे थे तब कबीर साहेब ने उनके मन की बात बताई जो वे अपनी नित्य साधना के दौरान कर रहे थे। आइए विस्तार से घटना के विषय में जानें
अगली सुबह 10 अनजान आदमी आये और परमेश्वर कबीर को पकड़कर रामानन्द जी के समक्ष ले गए। रामानंद जी ने अपने पास एक परदा डाल लिया यह दिखाने के लिए कि दीक्षा देना दूर वे शूद्रों के दर्शन भी नहीं करते हैं। रामानन्द जी पर्दे के पीछे से ही पूछ रहे थे कि तुम कौन हो व तुम्हारी क्या जाति है?
परमेश्वर कबीर ने कहा जी "यदि आप मेरी जाति के बारे में पूछ रहे हैं तो मैं बताता हूँ। मैं जगतगुरू हूँ (वेदों में वर्णन है कि पूर्ण परमेश्वर जगतगुरू होता है क्योंकि वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान बताता है) और मेरा पंथ क्या है? मेरा पंथ परमेश्वर का है। मैं सबको पूर्ण परमेश्वर का रास्ता बताने आया हूँ। परमेश्वर जो करोड़ों ब्रह्मांडों का रचनहार है, पालनहार है, जो कबीर, कविरग्नि आदि नामों से वेदों में वर्णित है।"
जाति हमारी जगतगुरु परमेशवर है पंथ, दास गरीब लिखत पढ़ें, मेरा नाम निरंजन कंत ||
रामानन्द जी ने सोचा इससे बाद में निपटूंगा पहले अपनी नित्य साधना पूरी कर लूं। वे आंखें बंद करके मनमुखी साधना करते थे जिसमें कृष्ण जी की मूर्ति को नहलाते, सुसज्जित करते और भोग लगते थे। उस दिन उन्होंने कृष्ण जी को मुकुट पहना दिया किन्तु माला पहनाना भूल गए। स्वामी जी को बड़ा पछतावा हुआ। अब मुकुट तो उतारा नहीं जा सकता था और बिना मुकुट उतारे माला कैसे पहनाएँ और दोनो ही स्थिति में उनकी पूजा खंडित थी। तभी पर्दे के पीछे खड़े कबीर परमात्मा स्वामी जी के मन की बात जानकर बोल उठे कि "स्वामी जी माला की घुंडी खोलकर माला पहना दो।" तब रामानन्द जी ने सोचा कि यह बच्चा मेरी मानसिक पूजा के बारे कैसे जाना। उन्होंने पूजा छोड़कर पर्दा हटाया और सबके समक्ष कबीर परमेश्वर को हृदय से लगा लिया।
रामानन्द जी ने पूछा कि "आपने झूठ क्यों कहा?" तब कबीर साहेब बोले "क्या झूठ स्वामी जी?" तब स्वामी जी बोले "यही कि आपने मुझसे नामदीक्षा ली है।" उत्तर में परमेश्वर कबीर बोले कि " स्वामी जी याद कीजिये आप पंचगंगा घाट पर स्नानार्थ गए हुए थे और आपकी खड़ाऊँ मेरे सर लगी थी और मैं रोने लगा था। तब आपने कहा कि बेटा राम राम बोलो।" रामानन्द जी ने कहा कि " मुझे याद है लेकिन वह बालक बहुत छोटा था (उस समय पांच वर्ष के बालक काफी बड़े हो जाया करते थे और 5 वर्ष और ढाई वर्ष के बालक में पर्याप्त अंतर होता था)" तब कबीर साहेब ने कहा "देखो स्वामी जी मैं ऐसे ही दिख रहा था न?" और उन्होंने अपने दो रूप बना लिए एक ढाई वर्ष का और पांच वर्ष के वे स्वयं खड़े थे। अब स्वामी रामानन्द जी छह बार इधर देखते और छह बार उधर कि कहीं आंखें धोखा न खा रही हों। और इस तरह उनके देखते देखते कबीर साहेब के ढाई वर्ष वाला रूप परमेश्वर के पांच वर्ष वाले रूप में समा गया। तब रामानन्द जी बोले "मेरा संशय दूर हुआ हे परमेश्वर आपको कैसे जाना जा सकता है। आ��� ऐसी जाति धारण करके खड़े हैं। हम अनजान तुच्छ बुद्धि जीवों को क्षमा करें। पूर्ण परमेश्वर कविर्देव मैं आपका नादान बच्चा हूँ।"
कबीर परमेश्वर ने पूछा कि "स्वामी जी आप क्या साधना करते हो?" रामानन्द जी ने कहा कि " मैं वेदों और गीता पर आधारित साधना करता हूँ।" कबीर साहेब ने प्रश्न किया कि "गीता और वेदों के आधार पर आप कहाँ जायेंगे?" स्वामी रामानन्द ने उत्तर दिया कि स्वर्ग में। तब परमेश्वर कबीर साहेब ने कहा कि आप स्वर्ग में क्या करेंगे? तब स्वामी रामानंद जी बोले "मैं वहां रहूँगा, वहाँ दूध की नदियां बहती हैं, श्वेत स्थान है, कोई दुख और चिंता नहीं है।" कबीर परमात्मा ने पूछा "स्वामी जी आप कितने समय तक रहेंगे वहां?" (स्वामी जी ज्ञानी पुरुष थे उन्हें समझते देर नहीं लगी।) स्वामी जी बोले "अपनी भक्ति की कमाई अनुसार वहाँ रहूँगा।" तब कबीर साहेब ने समझाया कि "स्वामी आप यह साधना जाने कब से करते आ रहे हैं इससे मुक्ति संभव ही नहीं है।
आप विष्णु जी की साधना करके विष्णु लोक जाना चाहते हैं। ब्रह्म साधना से ब्रह्मलोक जाते है किंतु मुक्ति तब भी संभव नहीं है, क्योंकि एक दिन महास्वर्ग जो ब्रह्मलोक में है वह भी नष्ट होगा ऐसा गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में लिखा है।" स्वामी जी को सभी श्लोक उंगलियों पर याद थे उन्होंने कहा "हां यही लिखा है।" तब कबीर साहेब ने कहा "बताओ गुरुदेव तब आप कहाँ जाओगे?" अब रामानन्द जी सोचने पर विवश हुए। परमात्मा कबीर ने पूछा-" स्वामी जी गीता का ज्ञान किसने दिया है?" तब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ने दिया है गीता ज्ञान। परमात्मा कबीर ने प्रश्न किया कि "स्वामी जी संस्कृत महाभारत कांड 2 (पृष्ठ 1531 पुरानी पुस्तक में वे पृष्ठ 667 नई पुस्तक) में लिखा है कि "हे अर्जुन अब मुझे वो गीता का ज्ञान याद नहीं रहा और उसे मैं पुनः नहीं सुना सकता।" कबीर परमात्मा ने सभी प्रमाण सामने रख दिये।
स्वामी जी का सतलोक जाना
कबीर परमात्मा ने स्वामी जी को तत्वज्ञान समझाया और उन्हें सतलोक ��ेकर गए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की वास्तविक स्थिति से परीचित करवाया। आइए जानें कबीर परमेश्वर द्वारा स्वामी रामानंद जी को सतलोक ले जाने की लीला
कबीर साहेब ने स्वामी रामानन्द जी से पूछा कि आप क्या साधना करते हो? रामानन्द जी ने उत्तर दिया कि मैं योग विधि से अपने शरीर के कमलों को खोलकर सीधा त्रिकुटी तक पहुंच जाता हूँ। कबीर साहेब ने उन्हें एक बार त्रिवेणी पर पहुंचने को कहा। स्वामी रामानन्द जी समाधि लगाकर पहुंच गए। वहां उन्हें कबीर परमेश्वर मिले। ब्रह्मलोक में पहुंचते ही तीन रास्ते हो गए। बीस ब्रह्मांड पर करने के पश्चात इक्कीसवें ब्रह्मांड में भी वैसा ही रास्ता है। तीन में से एक रास्ता उस स्थान को जाता है जहां ज्योति निरजंन तीन रूपों में रहता है। परमात्मा ने रामानन्द जी को आगे बताया कि ब्रह्मरंध्र उस नाम से नहीं खुलेगा जिसका रामानन्द जी जाप करते हैं बल्कि केवल सतनाम से खुलेगा। कबीर साहेब ने श्वासों से सतनाम का सिमरन किया और दरवाजा खुल गया। फिर कबीर साहेब ने बताया कि "अब मैं तुम्हें उस काल का रूप बताता हूँ जिसे आप सब निराकार कहते हैं, जिसने गीता में कहा है कि मैं सबको खाने के लिए आया हूँ, जिसने कहा कि अर्जुन मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता।" तब कबीर परमेश्वर ने काल ब्रह्म के सभी गुप्त स्थानों को दिखाया जहाँ वह ब्रह्मलोक में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूपों में था। तब ब्रह्मलोक से आगे इक्कीसवें ब्रह्मांड में गए। काल भगवान की नज़र ब्रह्मलोक से आने वाले रास्ते पर हमेशा रहती है जोकि जटा कुंडली सरोवर के ऊपर है ताकि कोई बाहर न निकल पाए। 21 वे ब्रह्माण्ड का आखिरी लोक काल ब्रह्म का निजी स्थान है, वहाँ वह अपने वास्तविक रूप में रहता है।
कबीर परमात्मा ने काल ब्रह्म को दिखाया कि देखो वह तुम्हारे निराकार भगवान का वास्तविक स्वरूप। (क्योंकि सभी योगी व ऋषिजन ओम नाम के जाप से साधना करते हैं। लेकिन परमात्मा हासिल नहीं होता। योगीजन, ऋषिजन सिद्धियां पा जाते हैं, स्वर्ग-महास्वर्ग तक जाते हैं और अंततः 84 लाख योनियों में जाते हैं। काल के दर्शन न हो पाने के कारण सभी परमात्मा को निराकार बताते हैं। जबकि शास्त्र प्रमाण हैं कि परमात्मा साकार है।) कालब्रह्म कि निकट आकर परमेश्वर ने सतनाम का उच्चारण किया (गीता अध्याय 17 श्लोक 23 ओम, तत,सत)। उसी क्षण काल का सिर झुक गया। काल के सिर के ऊपर एक दरवाज़ा है जिसके माध्यम से सतलोक और परब्रह्म के लोको में जाया जाता है। उसके बाद भंवर गुफा की शुरुआत होती है। (काल के लोक में भी एक भंवर गुफा है) कबीर साहेब के हंस कालब्रह्म के सिर को सीढ़ी बनाकर ऊपर जाते हैं। काल का सिर सीढ़ी की तरह कार्य करता है।
परब्रह्म के लोक को पार करने के बाद परमेश्वर स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को सतलोक लेकर गए। (वहा भी एक भंवर गुफा है) सतलोक में स्वामी जी ने रामानंद जी ने कबीर परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप को देखा। उस मोहिनी सूरत में ��ैठे परमेश्वर के एक रोम कूप के शरीर का प्रकाश करोड़ों सूर्य और चंद्रमा के बराबर है। लेकिन गर्मी के स्थान पर शीतलता है। तब कबीर साहेब आगे बढ़कर सत्पुरुष के सिर पर चँवर करने लगे। स्वामी रामानन्द जी ने सोचा कि वास्तविक परमात्मा सत्पुरुष हैं और कबीर साहेब उनके सेवक होंगे। किन्तु तभी सत्पुरुष उठे और कबीर साहेब के हाथों से चँवर ले लिया और परमेश्वर कबीर साहेब के पांच वर्षीय शरीर को चँवर करने लगे। और तभी दोनों रूप एक हो गए। स्वामी रामानंद जी की आत्मा को इसके पश्चात कबीर साहेब ने पृथ्वी पर भेज दिया और रामानंद जी की समाधि टूट गई।
रामानंद जी 104 वर्ष के पुरुष 5 वर्ष के बालक रूप में कबीर परमेश्वर से कहते हैं "हे परमेश्वर आप पूर्ण परमात्मा है और मैं आपका सेवक हूँ। मैंने पूर्ण परमेश्वर का वास्तविक स्वरूप देख लिया। चारों वेद और गीता जी आपका ही गुणगान कर रहे हैं।"
अब हम जानेंगे कि कबीर साहेब किन महापुरुषों को मिले?
कबीर परमेश्वर किन महापुरुषों को मिले?
पूर्ण परमेश्वर बहुत सी महान आत्माओं को मिले और उन्हें सृष्टि रचना बताई, तत्वज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें सतलोक भी लेकर गए। किन महापुरुषों को कबीर परमेश्वर मिले?
आदरणीय धर्मदास जी
आदरणीय गरीबदास जी महाराज
आदरणीय नानकदेव जी
आदरणीय सन्त दादूदयाल जी
आदरणीय घीसादास जी
आदरणीय सन्त मलूक दास जी
आदरणीय स्वामी रामानंद जी
कबीर साहेब और धर्मदास जी
आदरणीय धर्मदास जी बांधवगढ़, मध्यप्रदेश के निवासी थे। धर्मदास जी शास्त्रविरुद्ध साधनाएँ करते थे। कबीर साहेब उन्हें मिले और उन्हें समझाया कि धर्मग्रंथों में परमेश्वर की वास्तविक स्थिति से परिचित करवाया और तत्वज्ञान से परिचित करवाया। परमात्मा कबीर साहेब के तत्वज्ञान को सुनकर धर्मदास जी को आश्चर्य हुआ। कबीर साहेब धर्मदास जी की आत्मा को अपने वास्तविक स्थान सचखंड लेकर गए और वहाँ उन्हें अपनी वास्तविक से परीचित करवाया। वापस आने के बाद धर्मदास जी ने सभी आंखों देखा लिखा। उन्होंने कबीर परमेश्वर की सभी वाणियों को कबीर सागर, कबीर बीजक व कबीर साखी में लिखा। कबीर सागर आदरणीय धर्मदास जी और कबीर परमेश्वर जी के मध्य का संवाद है। कबीर परमेश्वर जी ही पूर्ण परमात्मा हैं जो पृथ्वी पर आते हैं और अपनी प्यारी आत्माओं को तत्वज्ञान बताते हैं।
आज मोहे दर्शन दियो जी कबीर।।टेक।।
सत्यलोक से चल कर आए, काटन जम की जंजीर।।1।।
थारे दर्शन से म्हारे पाप कटत हैं, निर्मल होवै जी शरीर।।2।।
अमृत भोजन म्हारे सतगुरु जीमैं, शब्द दूध की खीर।।3।।
हिन्दू के तुम देव कहाये, मुस्लमान के पीर।।4।।
दोनों दीन का झगड़ा छिड़ गया, टोहे ना पाये शरीर।।5।।
धर्मदास की अर्ज गोसांई, बेड़ा लंघाईयो परले तीर।।6।।
कबीर साहेब और गरीबदास जी महाराज
गरीबदास जी महाराज, गाँव छुड़ानी, जिला- झज्जर, हरियाणा वाले कबीर साहेब के बारहवें पंथ से हैं। परमात्मा कबीर साहेब उन्हें 1727 में मिले जब गरीबदासजी महाराज केवल 10 वर्ष की आयु के थे एवं अपनी गायें चराने गए हुए थे। परमात्मा कबीर साहेब गरीबदास जी महाराज को ज़िंदा महात्मा के रूप में मिले उन्हें सतलोक लेकर गए और उन्हें सच्चा वास्तविक ज्ञान बताया। परमात्मा कबीर साहेब ने गरीबदास जी मजराज को नामदीक्षा दी। सतलोक से वापस आने के बाद गरीबदास जी महाराज ने सत ग��रन्थ साहेब में सारा तत्वज्ञान लिखा।
गरीबदास जी महाराज ने अपनी पवित्र वाणी में सतलोक और परम् अक्षर ब्रह्म कबीर साहेब के विषय में लिखा है।
हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया |
जाति जुलाहा भेद नहीं पाया, काशी माहे कबीर हुआ ||
गैबी ख्याल विशाल सतगुरु, अचल दिगम्बर थीर है |
भक्ति हेत काया धर आये, अविगत सत् कबीर हैं |
नानक दादू अगम अगाधू, तेरी जहाज खेवट सही |
सुख सागर के हंस आये, भक्ति हिरम्बर उर धरी ||
अधिक जानकारी के लिए देखें आदरणीय गरीब दास जी महाराज
कबीर साहेब और नानक देव जी
नानक देव जी का जन्म 1469 को जिला तलवंडी, लाहौर (वर्तमान पाकिस्त��न) में हुआ। परमात्मा कबीर साहेब जिंदा महात्मा के रूप में नानक देव जी को बेई नदी के किनारे मिले जहाँ वे प्रतिदिन स्नान के लिए जाते थे। एक दिन उन्होंने नहाने के लिए डुबकी लगाई पर बाहर नहीं आये। लोगों को लगा कि वे डूब गए और उन्होंने ने उन्हें मरा मान लिया जबकि वास्तव में पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब उन्हें मिले थे और अपनी प्यारी आत्मा को वे सतलोक लेकर गए थे। उन्हें तत्वज्ञान समझाया, सृष्टि रचना समझाई और अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित करवाया तथा बताया कि परमात्मा स्वयं तत्वदर्शी संत के रूप में काशी में जुलाहे की भूमिका कर रहे हैं और उनकी आत्मा को पृथ्वी पर भेज दिया।
गुरुनानक जी ने कबीर साहेब का अपनी पवित्र वाणी में बखान किया है
फाही सुरत मलूकी वेस, उह ठगवाड़ा ठगी देस |
खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार ||
- गुरु ग्रन्थ साहेब, राग सिरी, महला 1
हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदीगार |
नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरा पाखाक ||
-गुरु ग्रन्थ साहेब, राग तिलंग, महला 1
कबीर साहेब और दादू जी
आदरणीय दादू जी भी कबीर परमेश्वर के साक्षी रहे। कबीर साहेब उन्हें सतलोक लेकर गए और उन्हें वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित करवाया। तीन दिन तक दादू साहेब जी अचेत रहे और जब कबीर साहेब ने दादू जी की आत्मा को पुनः पृथ्वी पर भेजा तो दादू जी ने अपने मुख कमल से कबीर परमेश्वर का गुणगान किया।
जिन मोकू निज नाम दिया, सोई सतगुरु हमार |
दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार ||
दादू नाम कबीर की, जै कोई लेवे ओट |
उनको कबहू लागे नहीं, काल बज्र की चोट ||
केहरि नाम कबीर का, विषम काल गज राज |
दादू भजन प्रतापते, भागे सुनत आवाज ||
अबही तेरी सब मिटै, जन्म मरण की पीर |
स्वांस उस्वांस सुमिरले, दादू नाम कबीर ||
कबीर साहेब और संत मलूक दास जी
आदरणीय मलूक दास जी को भी परमेश्वर कबीर मिले और उन्हें सही आध्यात्मिक ज्ञान समझाया मलूक दास जी दो दिनों तक अचेत रहे। जब परमेश्वर ने उनकी आत्मा को सतलोक की सैर करवा दी तब पुनः पृथ्वी पर भेजा। मलूक दास जी ने सचखंड और पूर्ण परमेश्वर को देखने के बाद निम्न वाणियां उच्चारित की।
जपो रे मन सतगुरु नाम कबीर।।टेक।।
जपो रे मन परमेश्वर नाम कबीर |
एक समय गुरु बंसी बजाई कालंद्री के तीर |
सुर-नर मुनि थकत भये थे, रुक गया दरिया नीर ||
काँशी तज गुरु मगहर आये, दोनों दीन के पीर |
कोई गाढ़े कोई अग्नि जरावै, ढूंडा न पाया शरीर |
चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर |
दास मलूक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर ||
पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब के चमत्कार
परमात्मा स्वयं तत्वदर्शी संत के रूप में पृथ्वी पर आते हैं और तत्वज्ञान का प्रचार करते हैं। परमेश्वर कबीर तत्वज्ञान को दोहों, चौपाइयों, शब्द इत्यादि के माध्यम से अपनी प्यारी आत्माओं तक पहुंचाते हैं किंतु परमेश्वर से अनजान आत्माएं उन्हे नहीं समझ पाती। परमेश्वर कबीर साहेब ने ढेरों चमत्कार भी हजारों लोगों की उपस्थिति में किए जो भी कबीर सागर में वर्णित हैं।
परमात्मा कबीर ने सिकंदर लोदी का जलन का रोग ठीक किया था। अतः सिकन्दर लोदी का धार्मिक पीर शेख तकी इस बात से ईर्ष्या करता था कि कबीर परमेश्वर को सिकन्दर लोदी महत्व देता है। कई बार सिकन्दर लोदी ने परमेश्वर कबीर साहेब को नीचा दिखाने का प्रयत्न किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कबीर परमेश्वर ने दो बार दो शवों को सभी के सामने जीवित किया जिनके नाम कमाल व कमाली रखे गए। शेख तकी के सिवाय सभी समझ गए थे कि कबीर साहेब कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। कबीर साहेब सर्वशक्तिमान हैं किंतु शेख तकी अपनी ईर्ष्या पर ही अड़ा रहा।
एक बार शेख तकी ने ईर्ष्यावश यह झूठी अफवाह उड़ा दी कि कबीर साहेब भंडारे का आयोजन कर रहे हैं। तथा कबीर साहेब (जो एक जुलाहे की भूमिका निभा रहे थे) प्रत्येक भोजन करने वाले को एक स्वर्ण मोहर व दोहर (कीमती शॉल) भेंट करेगें। लेकिन कबीर परमेश्वर ने इस भंडारे को अंजाम भी दिया और केशव रूप बनाकर सतलोक से भंडारा लाकर 18 लाख व्यक्तियों को भोजन करवाने की पूरी अद्भुत लीला की जिसका वर्णन कबीर सागर में है।
भगवान कबीर साहेब की मृत्यु एक रहस्य
अक्सर यह पूछा जाता है कि कबीर साहेब की मृत्यु कब और कैसे हुई? असल में कबीर साहेब नहीं मरे। जैसा कि वेदों में वर्णित है कि कबीर परमेश्वर कबीर कभी नहीं मरते वह अमर और अविनाशी परमात्मा है। पूर्व निर्धारित समय अनुसार जब परमात्मा की लीला का समय समाप्त हुआ और वे सतलोक जाने लगे तो उन्होंने एक और लीला की। कबीर परमेश्वर काशी से चलकर मगहर आये इस भ्रांति को तोड़ने के लिए कि जो मगहर में मरता है वह नरक जाता है व जो काशी में मरता है वह स्वर्ग जाता है। स्थान का महत्व नहीं बल्कि व्यक्ति के किये हुए कर्मों का महत्व होता है।
कबीर परमेश्वर के सभी शिष्य जो दोनों धर्मों के थे वे इकट्ठे हुए। मुसलमान राजा बिजली खा पठान और हिन्दू राजा वीर सिंह देव भी उनके शिष्यों में से थे जो युद्ध की पूरी तैयारी के ���ाथ खड़े थे क��योंकि वे दोनों ही अपने-अपने तरीके से कबीर साहेब का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। परमात्मा कबीर साहेब ने दोनों को झगड़ा न करने व शांतिपूर्वक रहने के सख्त आदेश दिए। कुछ समय बाद कबीर परमात्मा ने आकाशवाणी की कि वे सशरीर सतलोक जा रहे हैं। चादरें उठाई गईं वहाँ सुगन्धित फूलों के अतिरिक्त कुछ नहीं था। परमात्मा कबीर साहेब के आदेशानुसार दोनों धर्मों ने प्रेम से फूल आधे-आधे बांट लिए और आज भी मगहर में यादगार स्थित है। इस तरह वह सशरीर आये हुए परमात्मा सशरीर सतलोक चले गए।
पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान
पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान हमारे शास्त्रों में वर्णित है जैसे पवित्र गीता, पवित्र वेद, पवित्र कुरान शरीफ, पवित्र बाइबल, पवित्र गुरु ग्रंथ साहेब।
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में वर्णन किया है कि वह जो उल्टे लटके संसार रूपी वृक्ष के सभी भागों को विस्तार से बताएगा वह वेदों के अनुसार तत्वदर्शी संत है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में भी प्रमाण है कि तत्वदर्शी संत ओम-तत-सत (सांकेतिक मंत्र) तीन बार मे नाम उपदेश की प्रक्रिया पूर्ण करते हैं।
यजुर्वेद अध्याय 19, मन्त्र 25,26 में बताया गया है कि तत्वदर्शी संत धार्मिक ग्रन्थों के गूढ़ रहस्य उजागर करता है।
कबीर सागर, के बोध सागर के अध्याय जीव धर्म बोध में भी पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान लिखी है।
सामवेद संख्या 822 , अध्याय 3, कांड 5, श्लोक 8 में तत्वदर्शी संत के गुणों का वर्णन है।
गुरु ग्रंथ साहेब (राग मारू, महला 1) में भी प्रमाण है कि-
सुनहु ब्रह्मा, बिसनु, महेसु उपाए। सुने वरते जुग सबाए।।
इसु पद बिचारे सो जनु पुरा। तिस मिलिए भरमु चुकाइदा।।(3)
साम वेद, रुगु जुजरु अथरबणु। ब्रहमें मुख माइआ है त्रौगुण।।
ता की कीमत कहि न सकै। को तिउ बोले जिउ बुलाईदा।।(9)
कुरान शरीफ के सूरत फुरकान आयत 25:59 में ज्ञान को बाख़बर से पूछने को कहा गया है जो अल्लाह तक पहुंचने का सही मार्ग बताएंगे।
अधिक जानकारी के लिए देखें विश्व में सही पूर्ण सन्त की पहचान
परमेश्वर कबीर का कलियुग में अवतरण
वेदों में वर्णन है कि परमेश्वर चारों युगों में अलग अलग नामों से आते हैं। सतयुग में सत सुकृत नाम से, त्रेता युग में मुनींद्र नाम से, द्वापर में करुणामय नाम से और कलयुग में अपने वास्तविक नाम कबीर से प्रकट होते हैं। कलियुग में आज से 600 वर्ष पूर्व कबीर परमात्मा आये हुए थे। इसका प्रमाण भी हमें ऋग्वेद सूक्त 96 मन्त्र 17 में वर्णन है कि पूर्ण परमात्मा लीला करता हुआ बड़ा होता है और अपने तत्वज्ञान का प्रचार दोहों, शब्द, चौपाइयों के माध्यम से करता है, जिससे वह कवि की उपाधि भी धारण करता है।
देखें पूर्ण परमात्मा चारों युगों में आते हैं प्रमाण
कबीर परमात्मा आज भी उपस्थित हैं। वे सदैव ही तत्वदर्शी संत के रूप में विद्यमान रहते हैं। आज वे हमारे समक्ष जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के रूप में आये हैं। आप सभी से प्रार्थना है कि ��न्हें पहचानें व उनकी शरण ग्रहण करें।
सार
सभी प्रमाण संत रामपाल जी महाराज पर खरे उतरते हैं तथा पूर्ण तत्वदर्शी संत की पहचान इंगित करते है कि तत्वदर्शी संत के रूप में इस पूरी पृथ्वी पर जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज हैं, वे तार्किक तत्वज्ञान बताने वाले पूर्ण तत्वदर्शी संत हैं। उनकी शरण में आए और अपना जीवन सफल बनाएं।
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uniquestrangercat · 2 years ago
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chaitanyabharatnews · 4 years ago
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अक्षय तृतीया को इन 4 कारणों से माना गया है बेहद शुभ, जानें इस तिथि से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं
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चैतन्य भारत न्यूज अक्षय तृतीया का पर्व वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जात�� है। अक्षय तृतीया को बहुत ही शुभ तिथि मानी गई है। इस साल अक्षय तृतीया 14 मई को मनाई जाएगी। हिंदू धर्म में इस तिथि का विशेष महत्व है, क्योंकि यह साल में आने वाले 4 अबूझ मुहूर्तों में से एक है। आइए जानते हैं अक्षय तृतीया से जुड़ी कुछ खास बातें- अक्षय तृतीया क्यों है विशेष? धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, वर्ष के दूसरे महीने वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इस दिन किए गए दान-धर्म का अक्षय यानी कभी नाश न होने वाला फल व पुण्य मिलता है। इस वजह से लोग वैवाहिक कार्यक्रम, धार्मिक अनुष्ठान, गृह प्रवेश, व्यापार, जप-तप और पूजा-पाठ करने के लिए अक्षय तृतीया का दिन ही चुनते हैं। इस दिन शुभ मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसे चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं, क्योंकि यह तिथि 8 चिरंजीवियों में एक भगवान परशुराम की जन्म तिथि भी है। किन पौराणिक मान्यताओं के कारण शुभ है अक्षय तृतीया? शास्त्रों के मुताबिक, वैशाख माह विष्णु भक्ति का शुभ काल है। अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्‍णु के छठें अवतार एवं ब्राह्माण जाति के कुल गुरु भगवान परशुराम का जन्‍म हुआ था। परशुराम महर्षि जमदाग्नि और माता रेनुकादेवी के पुत्र थे। भगवान परशुराम आठ चिरंजीवियों में से एक हैं। इसलिए अक्षय तृतीया के शुभ दिन भगवान विष्‍णु की उपासना के साथ परशुराम जी की भी पूजा करने का विधान बताया गया है। इसके अलावा सतयुग और त्रेतायुग की शुरुआत इसी अक्षय तृतीया की शुभ तिथि से मानी जाती है। कहा जाता है कि अक्षय तृतीया पर मां गंगा का धरती पर आगमन हुआ था। वेद व्यास जी ने इस शुभ दिन से ही महाभारत ग्रंथ लिखना आरंभ किया। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा भी पुण्यदायी व महामंगलकारी मानी जाती है। अक्षय तृतीया पर किन चीजों के दान का है खास महत्व? इस शुभ तिथि पर किए गए दान व उसके फल का नाश नहीं होता। इस दिन खासतौर पर जौ, गेह��ं, चने, सत्तू, दही-चावल, गन्ने का रस, दूध के बनी चीजें जैसे मावा, मिठाई आदि, सोना और जल से भरा कलश, अनाज, सभी तरह के रस और गर्मी के मौसम में उपयोगी सारी चीजों के दान का महत्व है। अक्षय तृतीया पर पितरों का श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन कराने का भी अनन्त फल मिलता है। ये भी पढ़े... अक्षय तृतीया पर घर की सुख-समृद्धि के लिए जानें क्या करें और क्या न करें Akshaya Tritiya 2021: जानें कब है अक्षय तृतीया और क्यों मनाया जाता है यह पर्व? अक्षय तृतीया पर खरीदें ये पांच चीजें, कभी नहीं होगी धन संबंधी परेशानियां इन चार राशि के लोगों के लिए बेहद खास रहेगी अक्षय तृतीया, ये चीजें दान करने पर मिलेगा पुण्य Read the full article
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shubhchetna · 4 years ago
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"भगवद गीता" series 🙏🙏 प्रारंभ. ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के साथ साथ में एक भारतीय होना भी मेरे लिए सौभाग्य की बात है..आपको जानकर आश्चर्य बिल्कुल नहीं होगा कि मुझे बचपन से ही धर्म ग्रंथो को पढ़ना और उसका क्या मेहेत्व है ये सिखाया गया .. और मुझे बहुत सारे मंत्र कंठस्थ याद है..पूजा पाठ करना भगवान में आस्था सब मुझे घर में ही देखने को मिली और मैने सी��ी ... लेकिन एक ऐसी बात है जो मुझे मेरे घर वालो ने नहीं बताई और मुझे उसके बारे में पढ़ कर आगे की जानकारी प्राप्त हुई जैसे "भगवद गीता" यह एक ऐसा ग्रंथ है जो सिर्फ हमें एक पॉजिटिव सोच नहीं प्रदान करता बल्कि हमारे कई ऐसे जवाब है को हमें इससे प्राप्त होते है.. प्रभुपाद जी ने इसका प्रचार पूरे देश भर में करने का निर्णय लिया और आज दुनिया भर में आप देख रहे होंगे इसके कितने अनुयाई है कहते हैं ब्रिटिशर्स का जब हम पे शासन था तो उन्होंने भरपूर कोशिश करी हमारे ग्रंथो को हमारे इतिहास को हमसे दूर करने की और कई हद्द तक कर भी दिया में खुद English literature की student रह चुकी हूं तो मुझे पता है कि हमें क्या पढ़ाया जाता है और उससे पढ़ कर पाता चलता है कि हम कुछ नहीं जानते अपने देश के बारे में क्यूंकि उसमें कुछ है ही नहीं ऐसा maybe मुझे Hindi literature पढ़नी चाहिए थी शायद कुछ मिल जाता ... पर कहते हैं की गांधी जी ने पहली बार भगवद गीता इंग्लैंड में पड़ी तो वो भी इंग्लिश में और फिर वो उसे भारत में वापिस लेके आए ताकि हम इसका महत्व जान सके ... पर कहीं न कहीं हम इसे आज भूलते जा रहे हैं बहुत बड़े बड़े लोग है जो आज भी इससे जन तक पहुंचाने में लगे हैं ... अब covid 19 आया तो लोगो को रामायण महाभारत दुबारा देखने का समय मिला और हमारी संस्कृति का मूल उद्देश्य पाता चला कि हम क्या भूलते जा रहे हैं ... भगवत गीता भी उसी का एक महत्वूर्ण भाग है ... जो हर व्यक्ति को पढ़ना और सुनना चाहिए यह किसी धर्म जाती या किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि सबके लिए है... और इससे मिलकर में भी अपनी एक भूमिका निभा रही हूं इसको आगे बड़ा कर आप तक पहुंचाकर ।। में आज से भगवत गीता सीरीज शुरू करने जा रही हूं जिसमें में इसके प्रत्येक श्लोक उसकी व्याख्या के साथ यहां अपने पेज पर सांझा करूंगी...ताकि जिनके पास रोज़ इससे पड़ने का समय नहीं है वहां वो इससे एक एक कर यहां पढ़ सके इसमें कोई मुश्किल नहीं बस थोड़ा समय एक श्लोक को पड़ने के लिए देना है .. ..मुझे उम्मीद है कि आप इससे पड़ेंगे और इसका महत्व समझ सकेंगे ।। 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 राधे राधे 🙏🙏🙏 #bhagwadgita #newseries (at Hare Krishna) https://www.instagram.com/p/CEWox_DF-Hv/?igshid=mjv2xdga9o5r
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awadhesh-cvmnews · 4 years ago
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श्री राम चरित मानस अनुरागी डॉ अंशुमान सिंह गुड्डू के विचार “बंदउं प्रथम महीसुर चरना मोह जनित संशय सब हरना” श्री राम चरित मानस की इस चौपाई में मानस के रचयिता बाबा तुलसीदास जी ने सर्व प्रथम महीसुर अर्थात पृथ्वी के देवताओं की वंदना की है, सच भी है कि ब्राह्मण पृथ्वी के देवता हैं। किंतु अब ब्राह्मण पूजा बहुत कम हो चुकी है। चर्चा करो तो लोग कहते हैं अब ब्राह्मण कहां हैं तो लोगों को दिखाई ही नहीं देता अरे जिस दिन धरा पर ब्राह्मण नहीं होंगे वेदों की पूजा नहीं होगी उस दिन संसार धरातल में समा जाएगा। कुछ लोग बताते हैं कि ब्राह्मण पथ भ्रष्ट हो चुके हैं तो मैं कहना चाहता हूं कि इतिहास देखिए कि पथ भ्रष्ट तो रावण भी हुआ था उसके कर्म कुकर्म किसी से छिपे नहीं हैं लेकिन फिर भी उसका वध करने के बाद भी प्रभु श्रीराम ने जब पुष्पक विमान पर बैठ कर अयोध्या की ओर प्रस्थान करने को हुए तो भी रावण के चरणों में शीश झुकाया था इसका प्रमाण लंकाकाण्ड के अंत में श्रीराम चरित मानस में ही मिलता है कि- विप्र चरन पंकज सिर नावा, उत्तर दिसहि विमान चलावा। अब सोचिए जो जगत पिता त्रैलोक्य स्वामी एक ब्राह्मण के कर्म कुकर्म पर ध्यान नहीं देते और एक मृत ब्राह्मण को सिर झुकाते हैं तो हमारी क्या बिसात है कि हम ब्राह्मण को न माने। श्री राम चरित मानस में एक नहीं अनेक चौपाइयां हैं जो ब्राह्मण का अपमान करने से रोकती हैं फिर भी कुछ लोग नहीं समझते। तो ऐसे लोगों को श्रीराम चरित मानस जैसे महान ग्रंथ का अध्ययन कर ज्ञान का अर्जन करना चाहिए ताकि सद्बुद्धि आ सके। ब्राह्मण और गौसेवा तो क्षत्रिय को अवश्य करना चाहिए। जो क्षत्रिय ब्राह्मण और गऊ की सेवा करता है, उस पर साक्षात निरंकार पारब्रह्म परमेश्वर की कृपा सदैव बनी रहती है और लोभवश जो क्षत्रिय पथ भ्रष्ट हुआ है उसका सर्वनाश हुआ है। इसका प्रमाण भी श्रीराम चरित मानस से ही मिलता है छठवें मासपारायण में राजा प्रतापभानु की कथा देख ले जिसे विश्वास न हो। किंतु अब तो कैसे कैसे लोग हैं जो खुद पूजा पाठ और कर्मकांड कर रहे हैं लेकिन क्या जो गैर ब्राह्मण पूजा पाठ और कर्मकांड कर रहे हैं उनके द्वारा किए जाने वाले पूजा पाठ और कर्मकांड ब्राम्हणों के पूजा पाठ और कर्मकांड जैसा फल देंगे बिल्कुल नहीं देंगे क्योंकि ये ढपोरशंख ब्राह्मण जैसे न ज्ञानी हो सकेंगे न उनके जैसा कर्मकांड पूजा-पाठ आदि करा ही सकेंगे। इसलिए मैं कहता हूं कि- वेद चहै केतनौ वांचै, बंदरिया जेहिकै वही से नाचै।
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radheradheje · 5 years ago
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आज की कथा पढ़े, कि कैसे प्रेम मै विभोर हो कर ना आते हुए भी संस्कृत पढ़ रहे और रो रहे ,आइए पढ़ते है चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे। उन्होंने एक स्थान पर देखा कि सरोवर के किनारे एक ब्राह्मण स्नान करके बैठा है और गीता का पाठ कर रहा है। वह पाठ करने में इतना तल्लीन है कि उसे अपने शरीर का भी पता नहीं है। उसके नेत्रों से आँसू की धारा बह रही है। महाप्रभु चुपचाप जाकर उस ब्राह्मण के पीछे खड़े हो गए। पाठ समाप्त करके जब ब्राह्मण पुस्तक बन्द की तो महाप्रभु सम्मुख आकर पूछा, 'ब्राह्मण देवता ! लगता है कि आप संस्कृत नहीं जानते, क्योंकि श्लोकों का उच्चारण शुद्ध नहीं हो रहा था। परन्तु गीता का ऐसा कौन-सा अर्थ आप समझते हैं जिसके आनन्द में आप इतने विभोर हो रहे थे ?' अपने सम्मुख एक तेजोमय भव्य महापुरुष को देखकर ब्राह्मण ने भूमि में लेटकर दण्डवत किया। वह दोनों हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोला, 'भगवन ! में संस्कृत क्या जानूँ और गीता के अर्थ का मुझे क्या पता ? मुझे पाठ करना आता ही नहीं मैं तो जब इस ग्रंथ को पढ़ने बैठता हूँ, तब मुझे लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों और बड़ी भारी सेना सजी खड़ी है। दोनों सेनाओं के बीच में एक रथ खड़ा है। रथ पर अर्जुन दोनों हाथ जोड़े बैठा है, और रथ के आगे घोड़ों की रास पकड़े भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं। भगवान मुख पीछे घुमाकर अर्जुन से कुछ कह रहे हैं, मुझे यह स्पष्ट दिखता है। भगवान और अर्जुन की ओर देख-देखकर मुझे प्रेम से रुलाई आ रही है। गीता और उसके श्लोक तो माध्यम हैं। असल सत्य भाषा नहीं, भक्ति है और इस ��क्ति में मैं जितना गहरा उतरता जाता हूँ मेरा आनन्द बढ़ता जाता है।' 'भैया ! तुम्हीं ने गीता का सच्चा अर्थ जाना है और गीता का ठीक पाठ करना तुम्हें ही आता है।' यह कहकर महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को अपने हाथों से उठाकर हृदय से लगा लिया। https://www.instagram.com/p/B9QusqpgObD/?igshid=1vzwhnzdazh35
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pyotra · 7 years ago
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आपका दिनांक 13 का निमंत्रण पत्र के साथ संलग्न प्रार्थना पत्र प्राप्त हुआ। उससे बड़ा परमानंद हुआ। किंतु मेरे भोंदू भैय्या (घालमोड्या), जिस आदमी के द्वारा कुल मिलाकर सभी मनुष्य के मानवाधिकारों के विषय में यथार्थ रूप में विचार विमर्श कर उनके अधिकार उनकी खुशी से और खुलकर नहीं दिए जा सकते और वर्तमान स्थिति के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि आगे भी नहीं दिए जा सकेंगे, ऐसे लोगों द्वारा आयोजित सभाओं से और उनके पुस्तकों में किए गए भावार्थ से हमारी सभाओं और पुस्तकों का मेल नहीं बैठता; क्योंकि उनके पूर्वजों ने हमसे बदला लेने के इरादे से हमें दास बनाने का अध्याय उन्होंने अपने बनावटी धर्मग्रंथ में कृत्रिमता से दबा दिया। इसके बारे में उनके पुराने दुष्ट ग्रंथ साक्ष्य दे रहे हैं। इससे हम शूद्रातिशूद्रों को किन विपत्तियों और तकलीफों का सामना करना पड़ता है, यह उनमें से ऊँट पर बैठकर बकरियों को हाँकने वाले ग्रंथकारों को और बड़ी-बड़ी सभाओं में आगंतुक बनकर भाषण करने वालों को कहाँ से पता चलेगा? 
यह सब उनके सार्वजनिक सभा को पैदा करनेवाले को पता हो तब भी उन्होंने सिर्फ अपने और अपने बाल-बच्चों के क्षणिक हितों के लिए आँखों पर पट्टी बाँधकर, उसे अंग्रेज सरकार से पेंशन मिलते ही वह फिर से घुटे हुए जाति-अभिमानी, पक्के मूर्तिपूजक, छद्म पवित्र बनकर हमारे शूद्रातिशूद्रों को नीच मानने लगा और अपने पेंशनदाता सरकार द्वारा छापी गई कागज की नोट को भी अपनी शुद्धता के बहाने ऊँगली लगाने में छुआछूत मानने लगा! क्या इसी प्रकार अंत में वे सभी आर्य ब्राह्मण इस हतभागी देश की उन्नति करेंगे! ठीक, अब इससे आगे हम शूद्र लोग हमें ठगकर खाने वाले लोगों की बातों में नहीं आने वाले। सारांश, उनके साथ मेल-मिलाप करने से हम शूद्रातिशूद्रों को कोई लाभ नहीं होने वाला, इसके बारे में हमें ही अपना विचार करना ��ाहिए। अजी, उन भाईसाहब को अगर सबको एक करना हो तो वे कुल मिलाकर सभी मनुष्य-प्राणियों में परस्पर अक्षय बंधु-प्रीति क्या करने पर बढ़ेगी, उसका बीज खोज निकालें और उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करें। ऐसे समय आँखें मूँद लेना किसी काम का नहीं। इसके ऊपर उन सबकी मर्जी। यह मेरा अभिप्राय के रूप में छोटा-सा पत्र उन लोगों के विचार-विमर्श के लिए उनके पास भेजने की मेहरबानी करें। सामान्य बनकर बुड्ढे का यह पहला सलाम लो।
आपका दोस्त,जोतिराव गो. फुले(ज्ञानोदय, दि. 11 जून 1885)(महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित मराठी फुले समग्र वांग्मय से साभार)
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hellodkdblog · 5 years ago
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श्रद्धा: कृतम् कर्म श्राद्ध:, श्रद्धा: श्रद्धयेति श्राद्धम्।।
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श्राद्ध कर्म:-
न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राद्धं न कुरूते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते।।
अर्थः-
पितृ होते ही नहीं है ! और ऐसा विचार करके जो गृहस्थ मनुष्य वर्ष में एक बार भी "श्राद्धकर्म " नहीं करता है, उस मनुष्यका अतृप्त पितृगण रक्तपान करते है।
अतः यथाशक्ति विधि-विधान से श्राद्ध कर्म अवश्य करना ही चाहिये।
प्रत्येक सुपात्र सनातनी कम से कम....प्रतिवर्ष में पितृ पक्ष में 6-श्राध दिवस अथवा दो श्राध्द दिवस अवश्य करे। यथा:-
1-भाद्रपद पूर्णिमा: भीष्म पितामह हेतु। (सर्वप्रथम दिन)
2-आश्विन अमावस्या: ज्ञात-अज्ञात सर्व पितर हेतु अन्तिम दिन।
उपरोक्त के मध्य दादा, दादी एवं माता और पिता की मृत्यु तिथी की तिथि को अवश्य ही अपने पितरों का स्मरण करें।
विधि-विधान से न कर सकें तो श्राद्ध कर्म की एक अति सरल विधि:-
1-दोपहर बारह बजे से एक बजे के मध्य ( मध्याह्न काल) में स्वयं की पंचाग (दो हाथ,दो पैर और गर्दन तक मुख ) शुध्दि करें।
2- फिर एक लोटा जल में काले तिल ( तिल 84 दानों से कम न हों) मिला कर मुख्यद्वार (Main gate) खोल कर दोनों दिशाऔं में अपने पितरों की उपस्थिति की कल्पना करके उन्हें प्रणाम करे।
3-फिर दक्षिणदिशा मुखी होकर वह जल अपने पितरों को अर्घ्य कर दें।
4- अर्घ्य करते समय लोटा की ऊंचाई अपने सीने तक ही सीमित रखें।
मध्याह्न काल मे ही सूर्य से अर्यमा नामक किरणें निकलती है। इन्ही अर्यमा नामक किरणों के माध्यम समस्त स्वधाएं (सामग्री) पितरो तक पहुचती है।
करके देखिए! तुरन्त असीम शान्ति का अनुभव होगा।
श्राद्ध क्या है?
ब्रह्म पुराण के "श्राद्ध प्रकाश" में कहा गया है कि जो दान अथवा कर्म उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार, शास्त्रोचित विधि से पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध है।
मनुस्मृति के अनुसार मनुष्य के तीन पूर्वज- पिता, पितामह एवं प्रतिपामह क्रम से अष्ट वसुओं, एकादस रुद्रों एवं द्वादस आदित्यों के समान हैं।
अत: श्राद्ध करते समय इन वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों को ही अपने पूर्वजों का प्रतिनिधि मानें।
ऋग्वेद में पितृगण 1- निम्न, 2-मध्यम और 3- उच्च, श्रेणियों के बताए गए हैं।
" तैतरीय ब्राह्मण ग्रंथ " में उल्लेख है कि पितर लोग जिस लोक में निवास करते हैं, वह भू-लोक और अंतरिक्ष के बाद है।
पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक हम जो कुछ भी अर्पण करते हैं, उसे सूर्यदेव जो वायु के देवता हैं अपनी अर्यमा नामक किरणों की प्रचण्ड किरणों (अग्नि) से वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों के निकट पहुंचा देते हैं। कहते हैं इनसे ही सृष्टि की रचना हुई है।
ऐसे तो भारत में लगभग सभी तीर्थों पर श्राद्ध, पिण्डदान किया जाता है, लेकिन उनमें गयाजी को सबसे उत्तम माना गया है।
वशिष्ठ धर्मसूत्र में उल्लेख है कि कृषक जैसे अच्छी वर्षा से प्रसन्न होते हैं, वैसे ही गया में पिण्डदान से पितर प्रसन्न होते हैं।
नारद पुराण के उत्तर भाग में वर्णन है- ‘हे! सुभाग्ये महापाप करने वाला भी, जो पितृ कर्म का अधिकार रखता हो, यदि वह गयापुण्य क्षेत्र के दर्शन व वहां श्राद्ध कर्म करता है तो वह फल के रुप में ब्रह्मलोक पा जाता है।'
गया को भगवानविष्णु के जाग्रत तीर्थ के रुप में कहा गया है। अत: यहां पूरे वर्ष पिण्डदान होता रहता है।
लेकिन प्रत्येक वर्ष में भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक का काल, जिसे पितृपक्ष कहा जाता है, में श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व है। इस अवधि में पितृगण ‘गया श्राद्ध' के लिए आस लगाए रहते हैं। गया में किया गया श्राद्ध लोक व परलोक दोनों के लिए सुखकारी है।
बौधायन धर्मसूत्र में वर्णन है कि जो पितृ कर्म करता है, उसे दीर्घायु, स्वर्ग, यश और समृद्धि प्राप्त होती है।
कूर्म पुराण के श्राद्ध प्रकरण के अनुसार, विभिन्न दिनों को किए गए श्राद्ध का पुण्य फल:-
सोमवार - सौभाग्य वृद्घि।
मंगलवार - संतति प्राप्ति।
बुधवार - शत्रु नाश।
गुरुवार - धन प्राप्ति।
शुक्रवार - समृद्घि प्राप्ति।
शनिवार - आरोग्य सुख।
रविवार - यश प्राप्ति।
तिथि के अनुसार श्राद्ध का पुण्य फल:-
प्रतिपदा - धन लाभ।
द्वितीया - आरोग्य।
तृतीया - संतति प्राप्ति।
चतुर्थी - शत्रु नाश।
पंचमी - लक्ष्मी प्राप्ति।
षष्ठी - पूज्यता प्राप्ति।
सप्तमी - गणों का आधिपत्य प्राप्ति।
अष्टमी - उत्तम बुद्घि की प्राप्ति।
नवमी - उत्तम स्त्री की प्राप्ति।
दशमी - कामना पूर्ति।
एकादशी - वेद ज्ञान की प्राप्ति।
द्वादशी - सर्वत्र विजय।
त्रयोदशी - दीर्घायु व ऐश्वर्य प्राप्ति।
चतुर्दशी - अपघात से हुए मृतकों की तृप्ति।
अमावस्या - कामना पूर्ति व स्वर्ग की प्राप्ति।
महात्म:-
विष्णु पुराण में कहा है कि श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते बल्कि ब्रह्मा, सप्त इंद्र, एकादस रुद्र, द्वादस आदित्य और दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्ट वसु, वायु, विश्वदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य ऋषिगण आदि तथा अन्य समस्य भूत प्राणी तृप्त होते हैं।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥
अर्थः-
जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।
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jayveer18330 · 7 years ago
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भुलाए गए भारतीय : महर्षि भरद्वाज
  विमान विद्या के जनक महर्षि भरद्वाज आम तौर पर आज भी भारत के जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, कोपीन और वल्कल वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था। इस सोच को जन्म देने वाले विदेशी है । इस सदी तीनसौ सालों की ग़ुलामी ने बहोत सारे तथ्यों को तोड़ मरोड़कर रख दिया है । अफसोस कि बात है कि हम आज भी इसे ही सत्य मानकर चल रहे है । इस का बहोत भयानक मोड़ आ गया है जिसकी वजह से हमारे इतिहास  का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू बन गया है कि  हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।      ऋग्वेद के मंत्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि परिवारों द्वारा हुई है, उनमें सात अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इन सात में महर्षि भरद्वाज अनन्यतम हैं। ये छठे मण्डल के ऋषि के रूप में विख्यात हैं। भारतीय वांग्मय में अनेक स्थानों पर इन्हें बृहस्पति का पुत्र बताया गया है। एक ऋषि तथा मन्त्रकार के रूप में भरद्वाज का उल्लेख अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों (ब्राह्मण-ग्रंथों) में प्राय: हुआ है। रामायण तथा महाभारत में भी गोत्रज ऋषि के रूप में भरद्वाज का उल्लेख है। इन्हें एक महान् चिन्तक और ज्ञानी माना गया है। वेदकाल से लेकर महाभारत तक मिलती है भरद्वाज परंपरा ऋग्वेद से लेकर महाभारत तक जिन महर्षि भरद्वाज का उल्लेख स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है, उनके जन्म का वृत्तान्त बड़ा विचित्र है। श्रीमद्भागवत, मत्स्य-पुराण (8-27( 49-15-33), ब्रह्म पुराण (2-38-27) और वायु पुराण (99-137, 148, 150, 169) में यह कथा कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप में दी गयी है। इन सबमें इन्हें उतथ्य ऋषि का क्षेत्रज और बृहस्पति का औरस पुत्र बतलाया गया हैं उक्त सभी के अनुसार ये देवगुरु बृहस्पति के पुत्र थे। माता ममता और पिता बृहस्पति दोनों के द्वारा परित्याग कर दिये जाने पर मरुद्गणों ने इनका पालन किया। तब इनका एक नाम वितथ पड़ा। जब राजा दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र सम्राट भरत का वंश डूबने लगा, तो उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु मरुत्सोम यज्ञ किया, जिससे प्रसन्न होकर मरुतों ने अपने पालित पुत्र `भरद्वाज´ को उपहार रूप में भरत को अर्पित कर दिया- भरत का दत्तक-पुत्र बनने पर ये ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गये थे। इनका निवास गोवर्द्धन पर्वत (व्रज-क्षेत्र) पर था जहाँ इन्होंने वृक्ष लगाये। (कालान्तर में गोवर्द्धन पर्वत पुन: वृक्षहीन हो गया। केन्द्र में केबिनेट मंत्री तथा उत्तर प्रदेश के (द्वितीय) राज्यपाल रहे डॉ0 कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने जब `वन-महोत्सव´ के नाम से वृक्षारोपण का आंदोलन चलाया, तो उस समय इस पवित्र पर्वत पर उन्होंने वृक्षारोपण कराया था। भरद्वाज के जन्म की जो विचित्र कथा विभिन्न ग्रंथों में दी है, उसमें क्या रहस्य छिपा है, यह अन्वेषण का विषय है। अभिधा (शब्दों के अर्थ ज्यों के त्यों मान लेने) में यह कथा देवगुरु बृहस्पति के आचार-विचार पर आक्षेपपूर्ण दिखती है( परन्तु लक्षणा या व्यंजना में इसके गूढ़ रहस्य के अन्तर्निहित होने की पूरी संभावना इसलिए बनती है क्योंकि ऋग्वेद में बृहस्पति के संदर्भ में किया गया वर्णन खगोलीय घटनाओं से जुड़ता है। इनकी पत्नी तारा के चन्द्रमा द्वारा अपहरण और उससे बुध की उत्पत्ति की पौराणिक कथा अपने में खगोल-शास्त्रीय किसी रहस्य को छिपाये है, यह स्पष्टतः भासित होता है। भरद्वाज आंगिरस गोत्र में उत्पन्न एक वैदिक ऋषि हैं। ये गोत्र प्रवर्तक तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्त ऋषियों (कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज) में से एक हैं। महाभारत के अनुसार अजेय धनुर्धर तथा कौरवों और पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य इन्हीं के पुत्र थे। भरद्वाज ने एक बार भ्रम में पड़कर अपने मित्र रैभ्य को शाप दे दिया और बाद में मारे शोक के जलकर प्राण त्याग दिये। परन्तु रैभ्य के पुत्र अर्वावसु ने इन्हें अपने तपोबल से जीवित कर दिया। वन जाते समय तथा लंका-विजय के पश्चात् वापस लौटते समय श्री रामचन्द्र जी इनके आश्रम में गये थे। वायुमार्ग से पुष्पक विमान से लौटते समय प्रभु राम महर्षि भरद्वाज के आश्रम के वर्णन करते हुए कहते हैं- (सुमित्रानन्दन! वह देखो प्रयाग के पास भगवान् अग्निदेव की ध्वजा रूप धूम उठ रहा है। मालूम होता है, मुनिवर भरद्वाज यहीं हैं।) (वा0रा0, अ0का0, 54-5) महर्षि वाल्मिकी अपने ग्रंथ रामायण में लिखते हैं- श्रीराम चन्द्र जी ने चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी तिथि को भरद्वाज आश्रम में पहुँचकर मन को वश में रखते हुए मुनि को प्रणाम किया। तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका आश्रम था, जो आज भी विद्यमान है। महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से एक (सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा मुनि को- विश्रवा-इडविडा के ही पुत्र थे यक्षराज कुबेर, जिनकी स्वर्ण-नगरी लंका ओर पुष्पक विमान को रावण ने छीन लिया था। वर्णन आता है कि महर्षि भरद्वाज धर्मराज युधिष्टिर के राजसूय-यज्ञ में भी आमंत्रित थे। महर्षि भरद्वाज आंगिरस की पन्द्रह शाखाओं में से शाखा प्रवर्तक तथा एक मन्त्रदृष्टा ऋषि हैं। (वायुपुराण-65, 103( 207 तथा 59, 101)। ये आयुर्वेद शास्त्र के आदि प्रवर्तक भी हैं, जिसे इन्होंने आठ भागों में बाँटा था। अष्टांग आयुर्वेद से प्राय: सभी आयुर्वेदज्ञ सुपरिचित हैं और महर्षि ने इन भागों को पृथक-पृथक कर इनका ज्ञान अपने शिष्यों को दिया था। इन्होंने आयुर्वेद पर प्रथम संगोष्ठी का आयोजन किया था। आयुर्वेद की शिक्षा इन्होंने इन्द्र से ली थी (भाव प्रकाश)। काशिराज दिवोदास और धन्वन्तरि इन्हीं के शिष्य थे (हरिवंश पुराण)। यह तो रहा महर्षि भरद्वाज का एक वैदिक एवं पौराणिक रूप( किन्तु व्यक्तित्व एवं कृतित्व की दृष्टि से उनके जीवन का जो दूसरा रूप है, वह है एक महान् तथा अद्वितीय वैज्ञानिक का। वे जहाँ आयुर्वेद के धुरन्धर ज्ञाता थे, वहीं मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों क्षेत्रों में पारंगत थे। दिव्यास्त्रों से लेकर विभिन्न प्रकार के यन्त्र तथा विलक्षण विमानों के निर्माण के क्षेत्र में आज तक उन्हें कोई पा नहीं सका है। उनके इस रूप के बारे में लोगों को शायद ही कोई जानकारी हो क्योंकि ऋषि-मुनि की हमारी कल्पना ही बड़ी विचित्र रही है। विमानशास्त्री महर्षि भरद्वाज एक महान् आयुर्वेदज्ञ के अतिरिक्त भरद्वाज मुनि एक अद्भुत विलक्षण प्रतिभा-संपन्न विमान-शास्त्री थे। वेदों में विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। ऋभु देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे रथ का उल्लेख ऋग्वेद (मण्डल 4, सूत्र 25, 26) में मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है। ऋभुओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था। देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित पक्षी की तरह उड़ने वाले त्रितल रथ, विद्युत-रथ और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है। व��ल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’ के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं। लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित माना जाता रहा है। लगभग छह दशक पूर्व सुविख्यात भारतीय वैज्ञानिक डॉ0 वामनराव काटेकर ने अपने एक शोध-प्रबंध में पुष्पक विमान को अगस्त्य मुनि द्वारा निर्मित बतलाया था, जिसका आधार `अगस्त्य संहिता´ की एक प्राचीन पाण्डुलिपि थी। अगस्त्य के `अग्नियान´ ग्रंथ के भी सन्दर्भ अन्यत्र भी मिले हैं। इनमें विमान में प्रयुक्त विद्युत्-ऊर्जा के लिए `मित्रावरुण तेज´ का उल्लेख है। महर्षि भरद्वाज ऐसे पहले विमान-शास्त्री हैं, जिन्होंने अगस्त्य के समय के विद्युत् ज्ञान को अभिवर्द्धित किया। तब उसकी संज्ञा विद्युत्, सौदामिनी, हलालिनी आदि वर्गीकृत नामों से की जाने लगी। अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये। फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले, उनके आधार पर भरद्वाज का `विमान-प्रकरण´ प्रकाश में आया। महर्षि भरद्वाज रचित `यन्त्र-सर्वस्व´ के `विमान-प्रकरण´ की यती बोधायनकृत वृत्ति (व्याख्या) सहित पाण्डुलिपि मिली, उसमें प्राचीन विमान-विद्या संबंधी अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा चामत्कारिक तथ्य उद्घाटित हुए। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली द्वारा इस विमान-प्रकरण का स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक की हिन्दी टीका सहित सुसम्पादित संस्करण `बृहत् विमान शास्त्र के नाम से 1958 ई. में प्रकाशित हुआ। यह दो अंशों में प्राप्त हुआ। कुछ अंश पहले बड़ौदा के राजकीय पुस्तकालय की पाण्डलिपियों में मिला, जिसे वैदिक शोध-छात्र प्रियरत्न आर्य ने `विमान-शास्त्र´ नाम से वेदानुसन्धान सदन, हरिद्वार से प्रकाशित कराया। बाद में कुछ और महत्वपूर्ण अंश मैसूर राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों में प्राप्त हुए। इस ग्रंथ के प्रकाशन से भारत की प्राचीन विमान-विद्या संबंधी अनेक महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यचकित कर देने वाले तथ्यों का पता चला। भरद्वाज प्रणीत `यन्त्र-सर्वस्व´ ग्रंथ तत्कालीन प्रचलित सूत्र शैली में लिखा गया है। इसके वृत्तिकार यती बोधायन ने अपनी व्याख्या में स्पष्ट लिखा है कि- महर्षि भरद्वाज ने वेद रूपी समुद्र का निर्मन्थन कर सब मनुष्यों के अभीश्ट फलप्रद `यन्त्रसर्वस्व´ ग्रन्थरूप् नवनीत (मक्खन) को निकालकर दिया। धनुर्विद्या में कहां है धनुर्धरों का देश! स्वामी विवेकानंद यानी जीवित है हिंदू राष्ट्र ‘यंत्रसर्वस्व’ में लिखी है विमान बनाने और उड़ाने की कला स्पष्ट है कि ‘यन्त्रसर्वस्व´ ग्रन्थ’ और उसके अन्तर्गत वैमानिक-प्रकरण की रचना वेदमंत्रों के आधार पर ही की गयी है। विमान की तत्कालीन प्रचलित परिभाषाओं का उल्लेख करते हुए भरद्वाज ने बतलाया है कि `वेगसाम्याद् विमानोण्डजजानामिति´ अर्थात् आकाश में पक्षियों के वेग सी जिसकी क्षमता हो, वह विमान कहा गया है। वैमानिक प्रकरण में आठ (8) अध्याय हैं, जो एक सौ (100) अधिकरणों में विभक्त और पाँच सौ (500) सूत्रों में निबद्ध हैं। इस प्रकरण में बतलाया गया है कि विमान के रहस्यों का ज्ञाता ही उसे चलाने का अधिकारी है । इन रहस्यों की संख्या बत्तीस (32) है। यथा-विमान बनाना, उसे आकाश में ले जाना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना, वेग को कम या अधिक करना, लंघन (लाँघना), सर्पगमन, चपल परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण, क्रियारहस्यग्रहण, शब्दप्रसारण, दिक्प्रदर्शन इत्यादि। ये तो हुए विमानों के सामान्य रहस्य है। विभिन्न प्रकार के विमानों में चालकों को उनके विशिश्ट रहस्यों का ज्ञान होना आवश्यक होता था। `रहस्य लहरी´ नामक ग्रंथ में विमानों के इन रहस्यों का विस्तृत वर्णन है। `वैमानिक प्रकरण´ के अनुसार विमान मुख्यत: तीन प्रकार के होते थे- 1. मान्त्रिक (मंत्रचालित दिव्य विमान), 2. तांत्रिक-औषधियों तथा शक्तिमय वस्तुओं से संचालित तथा, 3. कृतक-यन्त्रों द्वारा संचालित। पुष्पक मांत्रिक विमान था। यह विमान मंत्रों के आधार पर चलता था। कह सकते हैं कि यह रिमोट पद्धति से चलता था। मान्त्रिक विमानों का प्रयोग त्रेता युग तक रहा और तांत्रिक विमानों का द्वापर तक। इस श्रेणी में छप्पन (56) प्रकार के विमानों की गणना की गयी है। तृतीय श्रेणी कृतक के विमान कलियुग में प्रचलित रहे। ये विमान पच्चीस (25) प्रकार के गिनाये गये हैं। इनमें शकुन अर्थात पक्षी के आकार का पंख-पूँछ सहित, सुन्दर अर्थात धुएँ के आधार पर चलने वाला-यथा आज का जेट विमान, रुक्म अर्थात खनिज पदार्थों के योग से रुक्म अर्थात् सोने जैसी आभायुक्त लोहे से बिना विमान, त्रिपुर अर्थात जल, स्थल और आकाश तीनों में चलने, उड़ने में समर्थ आदि का उल्लेख आता है। इन विमानों की गति अत्याधुनिक विमानों की गति से कहीं अधिक होती थी। विमानों और उनमें प्रयुक्त होने वाले यन्त्रों को बनाने के काम में लाया जाने वाला लोहा भी कई प्रकार को होता था। भरद्वाज ने जिन विमानों तथा यन्त्रों का उल्लेख अपने `यन्त्र-सर्वस्व´ ग्रन्थ में किया है, उनमें से अनेक तो ऐसे हैं, जिन्हें आज के समुन्नत वैज्ञानिक युग में भी नहीं बनाया जा सका है। `शकुन´, `सुन्दर´ और `रुक्म´ के अतिरिक्त एक ऐसे भी विमान का वर्णन उक्त ग्रन्थ में है, जिसे न तो खण्डित किया जा सके, न जलाया जा सके और न ही काटा जा सके। ऐसे विमानों का उल्लेख भी है, जिनमें यात्रा करने पर मनुष्य का शरीर जरा भी न हिले, शत्रु के विमान की सभी बातें सुनी जा सकें और यह भी ज्ञात किया जा सके कि शत्रु-विमान कहाँ तक कितने समय में पहुँचेगा। विमान को हवा में स्थिर रखने (जैसे हैलीकॉप्टर) और कार की तरह बिना मुड़े ही पीछे जाने का उल्लेख है। (हवा में स्थिर रह सकने वाला हेलीकॉटर तो बना लिया ��या है( परन्तु कार की तरह बिना मुड़े पीछे की ओर गति कर सकने वाला विमान अभी तक नह��ं बनाया जा सका है।) महर्षि भरद्वाजकृत `यन्त्र-सर्वस्व´ ग्रन्थ के अतिरिक्त उन्हीं की लिखी एक प्राचीन पुस्तक `अंशुबोधिनी´ में अन्य अनेक विद्याओं का वर्णन हैं इसमे प्रत्येक विद्या के लिए एक-एक अधिकरण है। एक अधिकरण में विमानों के संचालन के लिए प्रयुक्त होनेवाली शक्ति के अनुसार उनका वर्गीकरण किया गया है। महर्षि के सूत्रों की व्याख्या करते हुए यती बोधायन ने आठ प्रकार के विमान बतलाये हैं- 1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला। 2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला। 3. धूमयान - गैस से चलने वाला। 4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला। 5. अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला। 6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला। 7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला। 8. मरुत्सखा - केवल आयु से चलने वाला। परमाणु-ऊर्जा विभाग के भूतपूर्व वैज्ञानिक जी0एस0 भटनागर द्वारा संपादित पुस्तक `साइंस एण्ड टेक्नालोजी ऑफ डायमण्ड´ में कहा गया है कि `रत्न-प्रदीपिका´ नामक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में कृत्रिम हीरा के निर्माण के विषय में मुनि वैज्ञानिक भरद्वाज ने हीरे और कृत्रिम हीरे के संघटन को विस्तार से बताया है। पचास के दशक के अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी द्वारा पहले कृत्रिम हीरे के निर्माण से भी सहस्रों वर्ष पूर्व मुनिवर भरद्वाज ने कृत्रिम हीरा के निर्माण की विधि बतलायी थी। एकदम स्पष्ट है कि वे रत्नों के पारखी ही नहीं, रत्नों की निर्माण-विधि के पूर्ण ज्ञाता भी थे। भरद्वाज मुनि के इस वैज्ञानिक-रूप की जानकारी आज शायद ही किसी को हो। पहले विमान निर्माता नहीं हैं राइट ब्रदर्स महर्षि भरद्वाज द्वारा वर्णित विमानों में से एक `मरुत्सखा´ विमान का निर्माण 1895 ई. में `मुम्बई स्कूल ऑफ आर्टस´ के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान् वैदिक विद्वान् थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की पण्डिता थीं) की सहायता से विमान का एक मॉडल (नमूना) तैयार किया। फिर प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित विवरणों के आधार पर एक `मरुत्सखा´ प्रकार के विमान का निर्माण किया। यह विमान एक चालकरहित विमान था। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े जी ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर सयाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान 1500 (पन्द्रह सौ फुट) की ऊँचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊँचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने ��हादेव गोविन्द रानडे को भी दिखलाया था। दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपदेजी की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। 17 सितंबर, 1917 ई. को उनका स्वर्गवास हो जाने के बाद उस मॉडल विमान तथा सामग्री को उत्तराधिकारियों ने एक ब्रिटिश फर्म `रैली ब्रदर्स´ के हाथ बेंच दिया। `राइट ब्रदर्स´ के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपडे महोदय को `आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता´ होने की मान्यता देश के स्वाधीन हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलायी जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपदे के बजाय `राइट ब्रदर्स´ (राइट बन्धुओं) को ही अब भी `प्रथम विमान निर्माता´ होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।
  इस के संदर्भ में जाने कुछ ऐसे भारतीय साहित्य को जो आपको हिला के रख देगा । जरूर पढ़िए ये हमारी धरोहर है , लेकिन इसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा हम ही करते है । 
   विमानिका शास्त्र
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katirabhavesh05-blog · 8 years ago
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हिन्दू धर्म : कौन थे आठ ‘वसु’ जानिए… वसु पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवताओं का एक गण है, जिसके अंतर्गत आठ देवता माने गये हैं। ‘श्रीमद्भागवत’ के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री तथा धर्म की पत्नी ‘वसु’ के गर्भ से ही सब वसु उत्पन्न हुए थे। महाभारत के प्रसिद्ध चरित्रों में से एक और महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म भी आठ वसुओं में से एक थे। हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ ‘बृहदारण्यकोपनिषद’ में तैंतीस देवताओं का विस्तार से परिचय मिलता है। इनमें से जो पृथ्वी लोक के देवता कहे गए हैं, उनमें आठ वसु का ही स्मरण किया जाता है। इन्हें ही धरती का देवता भी माना जाता है। महाभारत के अनुसार आठ वसु ये हैं- 1.धर 2.ध्रुव 3.सोम 4.विष्णु 5.अनिल 6.अनल 7.प्रत्यूष 8.प्रभास श्रीमद्भागवतके अनुसार ‘द्रोण’, ‘प्राण’, ‘ध्रुव’, ‘अर्क’, ‘अग्नि’, ‘दोष’, ‘वसु’ और ‘विभावसु’ आठ नाम हैं। कथा इन आठ वसुओं के बारे में एक विचित्र कथा भी मिलती है। कथा के अनुसार इन आठ वसुओं में सबसे छोटे वसु प्रभास ने एक दिन वशिष्ठ की गायों को लालचवश चुरा लिया। वशिष्ठ ने इनको पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। बाद में आठों वसुओं ने उनसे क्षमा माँगी। उनके क्षमा माँग लेने पर वसिष्ठ ने सात से कहा कि- “तुम पृथ्वी पर जन्म लेने के कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त करोगे, लेकिन प्रभास लंबे समय तक पृथ्वी लोक पर ही रहेगा। इसका ना तो विवाह होगा और ना ही कोई संतान होगी।” यही प्रभास नामक वसु बाद में भीष्म कहलाये, जिन्होंने जीवन भर विवाह ना करने की प्रतिज्ञा की थी। उनकी माता गंगा ने जो सात पुत्र पैदा ��ोते ही गंगा में बहा दिए थे, वह सातों वसु ही थे। केवल प्रभास ही बचा था। अग्नि को प्रथम वसु माना जाता है, क्योंकि अग्नि में हवन के माध्यम से ही सभी देवी-देवताओं को उनका आहार मिलता है। यह वसु ब्रह्माजी के पौत्र माने जाते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार- अपनी गाय नंदिनी को चुरा लेने के कारण वसिष्ठ ने वसुओं को मनुष्य योनि में उत्पन्न होने का शाप दिया था। वसुओं के अनुनय विनय करने पर सात वसुओं के शाप की अवधि केवल एक वर्ष कर दी। ‘द्यो’ नाम के वसु ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर उनकी धेनु का अपहरण किया था। अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने तथा संतान उत्पन्न न करने, महान विद्वान और वीर होने तथा स्त्रीभोगपरित्यागी होने को कहा। इसी शाप के अनुसार इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। सात को गंगा ने जल में फेंक दिया, आठवें भीष्म थे, जिन्हें बचा लिया गया था। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है। शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’ याज्ञवल्क्य.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं। ऐसी मान्यता है कि हिन्दू देवी-देवताओं की संख्या 33 या 36 करोड़ है, लेकिन ये सच नहीं है। वेदों में देवताओं की संख्या 33 कोट‍ि बताई गई है। कोटि का अर्थ प्रकार होता है जिसे लोगों ने या बताने वाले तथाकथित पंडितों ने 33 करोड़ कर दिया। यह भ्रम आज तक जारी है। देवी और देवताओं को परमेश्वर ने प्रकाश से बनाया है और ये प्रमुख रूप से कुल 33 हैं। ये सभी ईश्वर के लिए संपूर्ण ब्रह्मांड में कार्य करते हैं। देवताओं को इस्लाम में फरिश्ते और ईसाई धर्म में एंजेल कहते हैं। प्रमुख 33 देवता ये हैं:- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवी और देवता होते हैं। कुछ लोग इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। 12 आदित्यों में से एक विष्णु हैं और 11 रुद्रों में से एक शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं। कौन थे 8 वसु? : ‘वसु’ शब्द का अर्थ ‘वसने वाला’ या ‘वासी’ है। धरती को वसुंधरा भी कहते हैं। 8 पदार्थों की तरह ही 8 वसु हैं। इन्हें ‘अष्ट वसु’ भी कहते हैं। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। सभी का जन्म दक्ष कन्या और धर्म की पत्नी वसु से हुआ है। दक्ष कन्याओं में से एक सती भी थी, जो शिव की पत्नी थीं। सती ने दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया था। स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के हा��ों की अंगुलियों की सृष्टि अष्ट वसुओं के ही तेज से हुई थी। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है। हालांकि यह शोध का विषय भी है। आठ वसुओं के नाम और उनके कार्य… आठ वसुओं के नाम : वेद और पुराणों में इनके अलग-अलग नाम मिलते हैं। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में 8 वसुओं के नाम इस प्रकार हैं:- 1. अप्, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष। भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है। ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं। तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या क्रमश: 333 और 12 है। प्रकृति से संबंध :- धर धरती के देव हैं, अनल अग्नि के देव है, अनिल वायु के देव हैं, आप अंतरिक्ष के देव हैं, द्यौस या प्रभाष आकाश के देव हैं, सोम चंद्रमास के देव हैं, ध्रुव नक्षत्रों के देव हैं, प्रत्यूष या आदित्य सूर्य के देव हैं। वसुओं का इतिहास :- जालंधर दैत्य के अनुचर शुंभ को वसुओं ने ही मारा था। पद्मपुराण के अनुसार वसुगण दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे और हिरण्याक्ष के विरुद्ध युद्ध में इन्द्र की ओर से लड़े थे। भागवत में कालकेयों से इनके युद्ध का वर्णन है। एक कथा के अनुसार पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदा तीर जाकर 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया। तदनंतर वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। वसुओं की उत्पत्ति की कथा :- 8 वसुओं में सबसे छोटे वसु ‘द्यो’ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था। वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। वसुओं के क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने 7 वसुओं के शाप की अवधि केवल 1 वर्ष कर दी। ‘द्यो’ नाम के वसु ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने तथा संतान उत्पन्न न करने, महान विद्वान और वीर होने तथा स्त्री-भोग परित्यागी होने को कहा। इसी शाप के अनुसार इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। 7 को गंगा ने जल में फेंक दिया, 8वें भीष्म थे जिन्हें बचा लिया गया था। लेकिन इससे इतर भी उनकी मनुष्य योनि में जन्म से पूर्व की कथा प्राचीन है। क्या वसु आठ प्रकार की ध्‍वनियों का नाम है.. संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं। इसी वैज्ञानिक आधार पर कुछ विद्वान मानते हैं कि मूलत: 36 देवता हैं और कुल मिलाकर 108…। लेकिन इतिहास के जानकारों का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने अनाम सितारों और अन्य प्राकृतिक शक्तियों को अपने समय के महान लोगों का नाम दिया, इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसे ध्रुव नाम से एक विष्णु भक्त थे और उसकी भक्ति के चलते ही एक तारे का नाम ध्रुव रखा गया। तो उस काल के खगोलशास्त्रियों ने जब तारों, नक्षत्रों, राशियों और ग्रहों का नामकरण करना शुरू किया और उनका आपस में संबंध बताना शुरू किया तो उन्होंने अपने ही काल के महान लोगों के नाम पर उनका नाम रखा।
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chaitanyabharatnews · 4 years ago
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अक्षय तृतीया को इन 4 कारणों से माना गया है बेहद शुभ, जानें इस तिथि से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं
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चैतन्य भारत न्यूज अक्षय तृतीया का पर्व वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। अक्षय तृतीया को बहुत ही शुभ तिथि मानी गई है। इस साल अक्षय तृतीया 14 मई को मनाई जाएगी। हिंदू धर्म में इस तिथि का विशेष महत्व है, क्योंकि यह साल में आने वाले 4 अबूझ मुहूर्तों में से एक है। आइए जानते हैं अक्षय तृतीया से जुड़ी कुछ खास बातें- अक्षय तृतीया क्यों है विशेष? धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, वर्ष के दूसरे महीने वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इस दिन किए गए दान-धर्म का अक्षय यानी कभी नाश न होने वाला फल व पुण्य मिलता है। इस वजह से लोग वैवाहिक कार्यक्रम, धार्मिक अनुष्ठान, गृह प्रवेश, व्यापार, जप-तप और पूजा-पाठ करने के लिए अक्षय तृतीया का दिन ही चुनते हैं। इस दिन शुभ मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसे चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं, क्योंकि यह तिथि 8 चिरंजीवियों में एक भगवान परशुराम की जन्म तिथि भी है। किन पौराणिक मान्यताओं के कारण शुभ है अक्षय तृतीया? शास्त्रों के मुताबिक, वैशाख माह विष्णु भक्ति का शुभ काल है। अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्‍णु के छठें अवतार एवं ब्राह्माण जाति के कुल गुरु भगवान परशुराम का जन्‍म हुआ था। परशुराम महर्षि जमदाग्नि और माता रेनुकादेवी के पुत्र थे। भगवान परशुराम आठ चिरंजीवियों में से एक हैं। इसलिए अक्षय तृतीया के शुभ दिन भगवान विष्‍णु की उपासना के साथ परशुराम जी की भी पूजा करने का विधान बताया गया है। इसके अलावा सतयुग और त्रेतायुग की शुरुआत इसी अक्षय तृतीया की शुभ तिथि से मानी जाती है। कहा जाता है कि अक्षय तृतीया पर मां गंगा का धरती पर आगमन हुआ था। वेद व्यास जी ने इस शुभ दिन से ही महाभारत ग्रंथ लिखना आरंभ किया। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा भी पुण्यदायी व महामंगलकारी मानी जाती है। अक्षय तृतीया पर किन चीजों के दान का है खास महत्व? इस शुभ तिथि पर किए गए दान व उसके फल का नाश नहीं होता। इस दिन खासतौर पर जौ, गेहूं, चने, सत्तू, दही-चावल, गन्ने का रस, दूध के बनी चीजें जैसे मावा, मिठाई आदि, सोना और जल से भरा कलश, अनाज, सभी तरह के रस और गर्मी के मौसम में उपयोगी सारी चीजों के दान का महत्व है। अक्षय तृतीया पर पितरों का श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन कराने का भी अनन्त फल मिलता है। ये भी पढ़े... अक्षय तृतीया पर घर की सुख-समृद्धि के लिए जानें क्या करें और क्या न करें Akshaya Tritiya 2021: जानें कब है अक्षय तृतीया और क्यों मनाया जाता है यह पर्व? अक्षय तृतीया पर खरीदें ये पांच चीजें, कभी नहीं होगी धन संबंधी परेशानियां इन चार राशि के लोगों के लिए बेहद खास रहेगी अक्षय तृतीया, ये चीजें दान करने पर मिलेगा पुण्य Read the full article
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loverajnishyadavblog · 4 years ago
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कभी-कभी हंसी आती है। बोलिए क्यों ? पहले ये तो बताओ, कौन सा धर्म कहता है कि एक दूसरे से प्रेम नहीं करो। क्या कोई धर्म आपस में लड़ने की शिक्षा देता है। क्या कोई  धर्म आपसी अलगाव की शिक्षा देता। तो फिर आज का वर्तमान धर्म कौन सा धर्म है । इसलिए हंसी आती है।  
आप क्यों पड़ते हो इन राजनीतिक धर्म के चक्कर में ।यह आपको डुबो देगी। यह आपको अपना नहीं रहने देगी। राजनीति के धर्म के शतरंज के मोहरे हमेशा आपके अतीत को मिटाने के लिए चलेगी। हमेशा आप को अलग करने के लिए चलेगी । हमेशा आपस में विद्रोह करने के लिए चलेगी। हमेशा आपके आपसी  जातिवादी मतभेद के लिए चलेगी। अगर सच में धर्म की राह पर चलना ही है तो, अपने सत्य सनातन धर्म जिसे वैदिक धर्म भी कहते हैं, उस पर चल के देखिए । रास्ता सुगम हो जाएगा, आसान हो जाएगा और पूरी दुनिया से प्रेम हो जाएगा। सब तरफ प्रेम का वातावरण होगा ऐसा लगेगा जैसे पूरा समाज ही एक दूसरे में परिणत हो गया।
इसे जरूर पढ़ें: जातिवाद के बंधनों को तोड़कर आपसी एकता कैसे बनेगी ? 
अगर आज के परिवेश को सिर्फ निष्पक्ष आंखों से देखा जाए तो धर्म है ही नहीं है। मनुष्य के अंदर धार्मिकता एक भीतरी गुण है और उसका किसी संगठन, किसी संस्था, किसी संप्रदाय या फिर किसी जाति से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि धार्मिक आदमी हिंदू नहीं हो सकता, धार्मिक आदमी मुसलमान नहीं हो सकता। धार्मिक आदमी किसी खास जाति का नहीं हो सकता। 
जानते हो मेरे दोस्त सबसे बड़ा पत्थर रोड़ा बनकर कहां खड़ा है यह हिंदू मुसलमान और आपसी जातिवाद जो मनुष्यता को अलग करते हैं। मनुष्यता को तोड़ने में अपनी भूमिका अदा करते हैं । इसलिए अगर वर्तमान धर्म को आप धर्म कहते हैं तब तो यह तो धर्म हो ही नहीं सकता है । 
अर्चन तब होती है जब हम हिंदू या मुसलमान कहतें हैं । अर्चन तब होती है जब हम अगरा और पिछड़ा कहते हैं। जिस मनुष्यता का हिंदू, मुसलमान या ईसाई से कोई संबंध नहीं है जिस मनुष्यता का ब्राह्मण राजपूत भूमिहार यादव और अन्य जातियों से कोई संबंध नहीं है। तो फिर सब कुछ धर्म के जैसे कैसे चल रहा है ।
मेरे भाई धर्म तो सब से प्रेम करना सिखाता है धर्म तो किसी से द्वेष करना सिखाता नहीं है। एक बात और मैं वर्तमान हिंदू और मुसलमान धर्म की बात नहीं करना चाहता हूं कि को क्या कर रहा है और किसने क्या किया। आप सोचिए इन सब बातों पर थोड़ा ध्यान दीजिए और अपने दिमाग पर जोर देकर इन सब बातों पर सोचिए आप कहां खड़े है । 
हां अगर मैं सत्य सनातन धर्म की बात करूंगा तो कहूंगा कि उस समय सब एक और उस समय धर्म भी था और आपसी प्रेम था। जिस त्रेता में श्री राम का अवतार ही रावण के वध के लिए हुआ था जिसे रावण जानता था उसी त्रेता में धर्म क्या था रावण श्री राम की द्वारा पूजा के आमंत्रण में पूजा कराने आता है। आप समझ रहे हैं मैं क्या कर रहा हूं । क्योंकि उस समय धर्म की एकता थी । धर्म का बोलबाला था। जिस रामायण को सारे हिंदू पढ़ते हैं और मानते हैं उस रामायण की रचना करने वाले भगवान श्री वाल्मीकि और सभी तुलसीदास जी यहां यह बताने की जरूरत नहीं है आपको कि भगवान श्री वाल्मीकि और श्री तुलसीदास जी किस जाति से थे। इसके बारे में उनसे पूछिए जो ऊंच-नीच जाति धर्म का भेदभाव करते हैं वे आपको इसका सही उत्तर बताएंगें। अगर वह सत्य सनातनी होंगे तो और अगर आज के वर्तमान धर्म को मानने वाले होंगे तब तो वो इसका सही उत्तर नहीं बता पाएंगे।
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); द्वापर में धर्म युद्ध हुआ और धर्म को विजय बनाने के लिए भगवान श्री श्री हरि विष्णु में अपने सभी कलाओं के साथ श्री कृष्ण के रूप में अवतार लिए। आप सभी हिंदू भाई महाभारत और श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ते होंगें। जरा यह तो पता कीजिए क्यों उसके रचयिता किस जाति के थे। उसे लिखने वाले किस जाति के थे। और आप सभी आज वर्तमान धर्म को मानकर बैठे हैं और जाति के नाम पर अपने को तोड़ रहे हैं खुद टूट रहे हैं। 
आप देखते हो मैं अपने समाज में चाहे वह किसी भी जाति के हों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, जो सच्चे अर्थों में धर्म जानते हैं से कभी आज के वर्तमान धर्म को लेकर विचलित नहीं होते। मैं आपको हर समय सत्यता का बोध कराएंगे। मैं आपको हर समय एक शब्द समाज का बोध कराएंगें । ओए हर समय आपको शांति का उपदेश देंगें । वे ना खुद विचलित होंगे और अगर उनके सानिध्य में आप रहेंगे तो, वे आपको भी विचलित नहीं होने देंगे ।
सनातन धर्म क्या है ?
सनातन का अर्थ है शासन या हमेशा बना रहने वाला अर्थात जिसका न आदि है न अंत है। आप यहां इतना ही जाने कि सत्यम शिवम सुंदरम यही सनातन और यही सनातन धर्म को मानने बालों की प्रकृति है। जिस पर चल के लोगों ने इतिहास लिख दिया। ऋग्वेद कहता है कि सत्यम शिवम सुंदरम यह पथ सनातन है समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए तथा प्रगति की है इसलिए हे मनुष्य आप अपने उत्पन्न होने की आधार रूपा अपनी माता को भी नष्ट ना करें। (ऋग्वेद 3-18-1) 
सनातन का अर्थ है सास्वत हो जाओ सदा के लिए सत्य मैं खो जाओ। जिन बातों का शासक महत्व उसी को सनातन कहा गया है।  जैसे सत्य सनातन है ईश्वर ही सत्य है आत्मा ही सत्य है मोह ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म है जो सत्य है। क्या हुआ सत्य है जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी अंत नहीं होगा। यानी आपका सकते हैं जिनका ना प्रारंभ है और नागिन का अंत उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है और यही हमारा सनातन धर्म है । जिसमें मूल रूप से तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम, नियम आदि हैं और जिनका सास्वत महत्व है।
सनातन धर्म का इतिहास 
सनातन धर्म जिसे वैदिक धर्म भी कहा जाता है यह ऑडियो और अब साल का इतिहास कहीं-कहीं तो इसे (1960 8513010 साल का इतिहास कहा गया है) भारत की सिंधु घाटी सभ्यता जो सिंधु घाटी अभी आधुनिक पाकिस्तान क्षेत्र में है वह हिंदू धर्म के कई चिन्ह मिले हैं जहां एक और ज्ञात मात्री देवी की मूर्तियां भी मिली है शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएं भी मिली है लिंग और पीपल की पूजा के प्रमाण भी मिले हैं। 
कहां जाता है प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में गणपत शैवदेव कोटि वैष्णव शाक्त और सौर नाम के 5 संप्रदाय होते थे। जिसमें गाने पर श्री गणेश की आराधना करते थे। वैष्णव श्री वैष्णव की आराधना करते थे। शैवदेद कोटि शिव की आराधना करते थे। शाक्त शक्ति की आराधना करते थे। और सौर सूर्य की आराधना करते थे। लेकिन यह सभी अलग-अलग देवताओं को मानने वाले भी एक थे जिनकी एक ही व्याख्या थी सत्य। जिसका वर्णन हमारे प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद ही नहीं रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रंथों में भी स्पष्ट रूप से किया गया।
प्रत्येक संप्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे संप्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उन मे वैमनस्य बना रहता था एकता बनाए रखने के उद्देश्य धर्म गुरुओं ने लोगों को यह सिखा देना आरंभ किया कि सभी देवता समान है विष्णु शिव और शक्ति आदि देवी देवता परस्पर एक दूसरे यह भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाएं से तीनों संप्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति सनातन धर्म में विष्णु शिव और शक्ति को समान माना गया है और तीनों ही संप्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद पुरान श्रुति स्मृतियां उपनिषद रामायण महाभारत गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है और उस पर आधारित है।
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); ऐसा कहा जाता है कि जब कालांतर में मुगलों द्वारा  संस्कृत भाषा जिसे देव भाषा कहते हैं उसका ह्रास होने लगा और और सनातन धर्म की अवनति होने लगी तब विद्वान संत कालिदास जी ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना की और धार्मिक साहित्य की रचना कर सनातन धर्म की रक्षा की। जहां संत कालिदास आज के आधुनिक धर्म और जातिवाद के अनुसार छोटी जाति से थे। 
जब ब्रिटिश शासन को ईसाई मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन सब से उपस्थित होने के कारण उन्होंने यहां के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया 
सनातन धर्म के स्वरूप
सनातन धर्म में आधुनिक और सम सामयिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इसमें समय-समय पर अनेक बदलाव होते रहे जो बदलाव उन महापुरुषों के द्वारा किया गया जो कि सत्य सनातन धर्म की प्रबल सिपाही थे रक्षक थे उन में अग्रणी नाम है राजा ��ाममोहन राय स्वामी दयानंद सरस्वती स्वामी विवेकानंद। जिन्होंने अन्य धर्मो के समावेश जो सनातन संस्कृति में घुल मिल गए थे जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, जैसे सुविधाजनक परंपरागत कुरीतियों से जिसका समर्थन सनातन धर्म कभी नहीं करता है उन कुरीतियों को दूर किए। 
साथ ही साथ उन महान आत्माओं में धर्मशास्त्र में मौजूद उन स्लोको मंत्रों को क्षेपक कहा और उसे प्याज घोषित कर दियाजिसके कारण कई पुरानी परंपराओं का पुनरुद्धार किया गया जैसे विधवा विवाह स्त्री शिक्षा इत्यादि। जबकि आज सनातन का पर्याय हिंदू है वर्षिक बौद्ध जैन धर्मावलंबी भी अपने आप को सनातनी कहते हैं क्योंकि बुध भी अपने को सनातनी कहते थे। सनातन धर्म के अंखियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन धर्म माना जाता है जबकि ऐसा है नहीं। सच्चाई ऐसी नहीं होने के कारण फिर भी इस कितने आयाम इतने पहलू हैं कि लोग बाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं ।
सबसे बड़ा कारण इसका यह है कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक किसी एक एबीसी के विचारों की उपज नहीं है और ना ही यह किसी खास समय में पैदा हुआ है और ना ही यह किसी खास संप्रदाय या खास जाति के द्वारा पैदा किया गया है। सनातन धर्म का प्रभाव अनादि काल से अनवरत बह रहा है और यह प्रभाव मान और विकास मान है जिसके कारण सनातन धर्म किसी एक दृष्टा सिद्धांत या तर्क को भी बड़ियता नहीं देता है
सनातन धर्म और विज्ञान मार्ग 
आधुनिक विश्व का विज्ञान भी सनातन धर्म का अनुसरण करता है और इसकी बताए हुए सिद्धांतों पर चलकर अपनी खोज करता है। जबकि वही विज्ञान सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक नाकामयाब रहा है। स्वामी विवेकानंद के द्वारा दिए गए व्याख्यान में जो वेदांत में सत्य सनातन धर्म की महिमा को उल्लेखित किया गया है अब आधुनिक भारत और विश्व का विज्ञान भी धीरे-धीरे उससे सहमत हो रहा है। जिसे हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने ध्यानऔर मोक्ष की अवस्था में ब्रह्म ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया और उसके बारे में बताया विज्ञान आज उसका अनुसरण कर रहा है। क्योंकि वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटा कर मोक्ष की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसलिए ऋषि यों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।
बंधुओं इसलिए मैं जब भी देखता हूं तो अपने सत्य सनातन धर्म को देखता हूं अपने वेदों को देखता हूं अपने पुराणों को देखता हूं अपने उपनिषदों को देखता हूं ना कि आज के वर्तमान हिंदू धर्म जो कि अलग आओ सिखाता है द्वेष सिखाता है जहां प्रेम का कोई मोल नहीं है यह कोई प्रेम का भाव नहीं है
अंत में मैं भगवान श्री कृष्ण की एक उपदेश के साथ इस पोस्ट को खत्म करना चाहूंगा। भगवान सच्चिदानंद श्री कृष्ण कहते हैं "मैं किसी के भाग को नहीं बनाता हूं, हर कोई अपना भाग्य खुद बनाता है, तुम आज जो कर रहे हो उसका फल अपने कल प्राप्त होगा, और आज जो तुम्हारा भाग्य है वह तुम्हारे पहले किए गए कर्मों का फल है।" 
बस इससे ज्यादा और कुछ नहीं आप जो बोओगे वही फसल पैदा होगी और आपको उसी को काटना भी है । हो सकता है आप उस समय तक नहीं रहे इस पृथ्वी पर आपके बच्चे जरूर रहेंगे। फैसला आपको करना है कि आप प्रेम बोल रहे हो या घृणा बोल रहे हो। चाहे वह धर्म के नाम पर हो या आपसी जातिवाद के नाम पर । 
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