लेखक - डॉ शंकर शरण जी , प्राध्यापक राजनीति शास्त्र
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नाथूराम गोडसे के नाम, और उनके एक काम, के अतिरिक्त लोग उन के बारे में कुछ नहीं जानते। एक लोकतांत्रिक देश में यह कुछ रहस्यमय बात है। रहस्य का आरंभ 8 नवंबर 1948 को ही हो गया था, जब गाँधीजी की हत्या के लिए चले मुकदमे में गोडसे द्वारा दिए गए बयान को प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोडसे का बयान लोग जानें, इस पर प्रतिबंध क्यों लगा?
इस का कुछ अनुमान जस्टिस जी. डी. खोसला, जो गोडसे मुकदमे की सुनवाई के एक जज थे, की टिप्पणी से मिल सकता है। अदालत में गोडसे ने अपनी बात पाँच घंटे लंबे वक्तव्य के रूप में रखी थी, जो 90 पृष्ठों का था। जब गोडसे ने बोलना समाप्त किया तब का दृश्य जस्टिस खोसला के शब्दों में,
“सुनने वाले स्तब्ध और विचलित थे। एक गहरा सन्नाटा था, जब उसने बोलना बंद किया। महिलाओं की आँखों में आँसू थे और पुरुष भी खाँसते हुए रुमाल ढूँढ रहे थे।…
मुझे कोई संदेह नहीं है, कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित लोगों की जूरी बनाई जाती और गोडसे पर फैसला देने कहा जाता तो उन्होंने भारी बहुमत से गोडसे के ‘निर्दोष’ होने का फैसला दिया होता।”
( द मर्डर ऑफ महात्मा एन्ड अदर केसेज फ्रॉम ए जजेज नोटबुक , पृ. 305-06)
यही नहीं, तब देश के कानून मंत्री डॉ. अंबेडकर थे। उन्होंने गोडसे के वकील को संदेश भेजा कि यदि गोडसे चाहें तो वे उन की सजा आजीवन कारावास में बदलवा सकते हैं। गाँधीजी वाली अहिंसा दलील के सहारे यह करवाना सरल था।
किंतु गोडसे ने आग्रह पूर्वक मना कर, उलटे डॉ. अंबेदकर को लौटती संदेश यह दिया,
“कृपया सुनिश्चित करें कि मुझ पर कोई दया न की जाए। मैं अपने माध्यम से यह दिखाना चाहता हूँ कि गाँधी की अहिंसा को फाँसी पर लटकाया जा रहा है।”
गोडसे का यह कथन कितना लोमहर्षक सच साबित हुआ, यह भी यहाँ इतने निकट इतिहास का एक छिपाया गया तथ्य है!
गाँधीजी की हत्या के बाद गाँधी समर्थकों ने बड़े पैमाने पर गोडसे की जाति-समुदाय की हत्याएं की। गाँधी पर लिखी, छपी सैकड़ों जीवनियों में कहीं यह तथ्य नहीं मिलता कि कितने चितपावन ब्राह्मणों को गाँधीवीदियों ने मार डाला था।
31 दिसंबर 1948 के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित समाचार के अनुसार, केवल बंबई में गाँधीजी की हत्या वाले एक दिन में ही 15 लोगों को मार डाला गया था। पुणे के स्थानीय लोग आज भी जानते हैं कि वहाँ उस दिन कम से कम 50 लोगों को मार डाला गया था। कई जगह हिंदू महासभा के दफ्तरों को आग लगाई गई। चितपावन ब्राह्मणों पर शोध करने वाली अमेरिकी अध्येता मौरीन पैटरसन ने लिखा है कि सबसे अधिक हिंसा बंबई, पुणे, नागपुर आदि नहीं, बल्कि सतारा, बेलगाम और कोल्हापुर में हुई। तब भी सामुदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग पर कड़ा नियंत्रण था। अतः, मौरीन के अनुसार, उन हत्याओं के दशकों बीत जाने बाद भी उन्हें उन पुलिस फाइलों को देखने नहीं दिया गया, जो 30 जनवरी 1948 के बाद चितपावन ब्राह्मणों की हत्याओं से संबंधित थीं।
इस प्रकार, उस ‘गाँधीवादी हिंसा’ का कोई हिसाब अब तक सामने नहीं आने दिया गया है, जिस में असंख्य निर्दोष चितपावन ब्राह्मणों को इसलिए मार डाला गया था क्योंकि गोडसे उसी जाति के थे। निस्संदेह, राजनीतिक जीवन में गाँधीजी के कथित अहिंसा सिद्धांत के भोंडेपन का यह एक व्यंग्यात्मक प्रमाण था! चाहे, कांग्रेसी शासन और वामपंथी बौद्धिकों ने इन तथ्यों को छिपाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा किया।
कडवा सच तो यह है कि गोडसे ने गाँधीजी की हत्या करके उन्हें वह महानता प्रदान करने में केंद्रीय भूमिका निभाई, जो सामान्य मृत्यु से उन्हें मिलने वाली नहीं थी। स्वतंत्रता से ठीक पूर्व और बाद देश में गाँधी का आदर कितना कम हो गया था, यह 1946-48 के अखबारों के पन्नों को पलट कर सरलता से देख सकते हैं। नोआखली में गाँधी के रास्ते में पर लोगों ने टूटे काँच बिछा दिए थे। ऐसी वितृष्णा अकारण न थी। देश विभाजन रोकने के लिए गाँधी ने अनशन नहीं किया, और अपना वचन (‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’) तोड़ा, यह तो केवल एक बात थी।
पश्चिमी पंजाब से आने वाले हजारों हिंदू-सिखों को उलटे जली-कटी सुनाकर गाँधी उनके घावों पर नमक छिड़कते रहते थे। दिल्ली की दैनिक प्रार्थना-सभा में गाँधी उन अभागों को ताने देते थे, कि वे जान बचाकर यहाँ क्यों चले आये, वहीं रहकर मर जाते तो अहिंसा की विजय होती, आदि। फिर, विभाजन रोकने या पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की जान को तो गाँधीजी ने अनशन नहीं किया; किन्तु भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे, इसके लिए गाँधीजी ने जनवरी 1948 में अनशन किया था! तब कश्मीर पर पाकिस्तानी हमला जारी था, और गाँधीजी के अनशन से झुककर भारत सरकार ने वह रकम पाकिस्तान को दी। यह विश्व-इतिहास में पहली घटना थी जब किसी आक्रमित देश ने आक्रमणकारी को, यानी अपने ही विरुद्ध युद्ध को वित्तीय सहायता दी!
गोडसे द्वारा गाँधीजी को दंड देने के निश्चय में उस अनशन ने निर्णायक भूमिका अदा की। तब देश में लाखों लोग गाँधीजी को नित्य कोस रहे थे। पाकिस्तान से जान बचाकर भागे हिन्दू-सिख गाँधी से घृणा करते थे। वही स्थिति कश्मीरी और बंगाली हिन्दुओं की थी। ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ के यशस्वी संस्थापक दीनानाथ मल्होत्रा ने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘भूली नहीं जो यादें’ (पृ. 168) में उल्लेख किया है कि जब गाँधीजी की हत्या की पहली खबर आई, तो सब ने स्वतः मान लिया कि किसी पंजाबी ने ही उन्हें मारा।
फिर, उन लाखों बेघरों, शरणार्थियों के सिवा पाकिस्तान में हिन्दुओ का जो कत्लेआम हुआ, और जबरन धर्मांतरण कराए गए, उस पर भारत में दुःख, आक्रोश और सहज सहानुभूति थी। यह सब गाँधीजी के प्रति क्षोभ में भी व्यक्त होता था। विशेषकर तब, जब वे पंजाबी हिन्दुओं, सिखों को सामूहिक रूप से मर जाने का उपदेश देते हुए यहाँ मुसलमानों (जो वैसे भी असंगठित, अरक्षित, भयाक्रांत नहीं थे जैसे पाकिस्तान में हिन्दू थे। नहीं तो वे यहीं रह न सके होते) और उनकी संपत्ति की रक्षा के लिए सरकार पर कठोर दबाव बनाए हुए थे।
इस तरह, दुर्बल को अपने हाल पर छोड़ कर गाँधी सबल की रक्षा में व्यस्त थे! यह पूरे देश के सामने तब आइने की तरह स्पष्ट था।
अतः उस समय की संपूर्ण परिस्थिति का अवलोकन करते हुए यह बात वृथा नहीं कि, यदि गाँधीजी प्राकृतिक मृत्यु पाते, तो आज उन का स्थान भारतीय लोकस्मृति में बालगंगाधार तिलक, जयप्रकाश नारायण, आदि महापुरुषों जैसा ही कुछ रहा होता। तीन दशक तक गाँधी की भारतीय राजनीति में अनगिनत बड़ी-बड़ी विफलताएं जमा हो चुकी थीं। खलीफत-समर्थन से लेकर देश-विभाजन तक, मुस्लिमों को ‘ब्लैंक चेक’ देने जैसे नियमित सामुदायिक पक्षपात और अपने सत्य-अहिंसा-ब्रह्मचर्य सिद्धांतों के विचित्र, है���त भरे, यहाँ तक कि अनेक निकट जनों को धक्का पहुँचाने वाले कार्यान्वयन से बड़ी संख्या में लोग गाँधीजी से वितृष्ण हो चुके थे।
लेकिन गोडसे की गोली ने सब कुछ बदल कर रख दिया। इसलिए भक्त गाँधीवादियों को तो गोडसे का धन्यवाद करते हुए, बतर्ज अनिल बर्वे, “थैंक यू, मिस्टर गोडसे!” जैसी भावना रखनी चाहिए।
गोडसे ने चाहे गाँधी को दंड देने का लिए गोली मारी, लेकिन वस्तुतः उसी नाटकीय अवसान से गाँधीजी को वह महानता मिल सकी, जो वैसे संभवतः न मिली होती।
भारत में नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा घोर इतिहास-मिथ्याकरण का एक अध्याय यह भी है कि लोग गोडसे के बारे में कुछ नहीं जानते! यहाँ तक कि गाँधी-आलोचकों की लिस्ट में भी गोडसे का उल्लेख नहीं होता। इसी विषय पर लिखी इतिहासकार बी. आर. नंदा की पुस्तक, गाँधी एन्ड हिज क्रिटिक्स (1985) में भी गोडसे का नाम नहीं। जबकि गोडसे का 90 पृष्ठों का वक्तव्य, जो 1977 के बाद पुस्तिका के रूप में प्रकाशित होता रहा है, गाँधीजी के सिद्धांतों और कार्यों की एक सधी आलोचना है।
लेकिन 67 वर्ष बीत गए, गोडसे की उस आलोचना का किसी भारतीय ने उत्तर नहीं दिया। न उस की कोई समीक्षा की गई। यदि गोडसे की बातें प्रलाप, मूर्खतापूर्ण, अनर्गल, आदि होतीं, तो उन्हें प्रकाशित करने पर प्रतिबंध नहीं लगा होता! लोग उसे स्वयं देखते, समझते कि गाँधीजी की हत्या करने वाला कितना मूढ़, जुनूनी या सांप्रदायिक था। पर स्थिति यह है कि विगत 38 वर्ष से गोडसे का वक्तव्य उपलब्ध रहने पर भी एक यूरोपीय विद्वान (कोएनराड एल्स्ट, गांधी एंड गोडसेः ए रिव्यू एंड ए क्रिटीक , 2001) के अतिरिक्त किसी भारतीय ने उस की समीक्षा नहीं की है। क्यों?
संभवतः इसीलिए, क्योंकि उसे उपेक्षित तहखाने में दबे रहना ही प्रभावी राजनीति के लिए सुविधाजनक था। गोडसे की अनेक बातें संपूर्ण समकालीन सेक्यूलर भारतीय राजनीति की भी आलोचना हो जाती है। इस अर्थ में वह आज भी प्रासंगिक है। यह भी कारण है कि यहाँ राजनीतिक रूप से प्रभावी इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों ने उसे मौन की सेंसरशिप से अस्तित्वहीन-सा बनाए रखा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज का कहीं उल्लेख न हो। न इतिहास, न राजनीति में उस का अध्ययन, विश्लेषण किया जाए। यह चुप्पी सहज नहीं है। यह न्याय नहीं है।
इस सायास चुप्पी का कारण यही प्रतीत होता है कि किसी भी बहाने यदि गोडसे के वक्तव्य को नई पीढ़ी पढ़े, और परखे, तो आज भी भारी बहुमत से लोगों का निर्णय वही होगा, जो जस्टिस खोसला ने तब अदालत में उपस्थित नर-नारियों का पाया था। तब गोडसे को ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ या ‘जुनूनी हत्यारा’ कहना संभव नहीं रह जाएगा।
वस्तुतः नाथूराम गोडसे के जीवन, चरित्र और विचारों का समग्र मूल्यांकन करने से उन का स्थान भगत सिंह और ऊधम सिंह की पंक्ति में चला जाएगा।
तीनों देश-भक्त थे। तीनों को राजनीतिक हत्याओं के लिए फाँसी हुई। तीनों ने अपने-अपने शिकारों को करनी का ‘दंड’ दिया, जिस से सहमति रखना जरूरी नहीं। मगर तीनों की दृष्टि में एक समानता तो है ही। भगत सिंह ने पुलिस की लाठी से लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जॉन साउंडर्स की हत्या की। ऊधम सिंह ने जलियाँवाला नरसंहार करने वाले कर्नल माइकल डायर को 13 मार्च 1940 को गोली मार दी। उसी तरह, नाथूराम गोडसे ने भी गाँधी को देश का विभाजन, लाखों हिन्दुओं-सिखों के साथ विश्वासघात, उन के संहार व विध्वंस तथा हानिकारक सामुदायिक राजनीति करने का कारण मानकर उन्हें 30 जनवरी 1948 को गोली मारी थी।
आगे की तुलना में भी, जैसे अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह और ऊधम सिंह को हत्या का दोषी मानकर उन्हें फाँसी दी, उसी तरह भारत सरकार ने भी नाथूराम गोडसे को फाँसी दी। तीनों के कर्म, तीनों की भावनाएं, तीनों का जीवन-चरित्र मूलतः एक जैसा है। इस सचाई को छिपाया नहीं जाना चाहिए।
उक्त निष्कर्ष डॉ. लोहिया के विचारों से भी पुष्ट होता है। देश का विभाजन होने पर लाखों लोग मरेंगे, यह गाँधीजी जानते थे, फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका। बल्कि नेहरू की मदद करने के लिए खुद कांग्रेस कार्य-समिति को विभाजन स्वीकार करने पर विवश किया जो उस के लिए तैयार नहीं थी। इसे लोहिया ने गाँधी का ‘अक्षम्य’ अपराध माना है। तब इस अपराध का क्या दंड होता?
संभवतः सब से अच्छा दंड गाँधी
को सामाजिक, राजनीतिक रूप से उपेक्षित करना, और अपनी सहज मृत्यु पाने देना होता। पर, अफसोस!
डॉ. लोहिया के शब्दों पर गंभीरता से विचार करें – विभाजन से दंगे होंगे, ऐसा तो गाँधीजी ने समझ लिया था, लेकिन “जिस जबर्दस्त पैमाने पर दंगे वास्तव में हुए, उस का उन्हें अनुमान न था, इस में मुझे शक है। अगर ऐसा था, तब तो उन का दोष अक्षम्य हो जाता है। दरअसल उन का दोष अभी भी अक्षम्य है। अगर बँटवारे के फलस्वरूप हुए हत्याकांड के विशाल पैमाने का अन्दाज उन्हें सचमुच था, तब तो उन के आचरण के लिए
कुछ अन्य शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। ”
( ‘ गाँधीजी के दोष’ )
ध्यान दें, सौजन्यवश लोहिया ने गाँधी के प्रति उन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जो उन के मन में आए होंगे। किंतु वह शब्द छल, अज्ञान, हिन्दुओं के प्रति विश्वासघात, बुद्धि का दिवालियापन, जैसे ही कुछ हो सकते हैं। ��सलिए, जिस भावनावश गोडसे ने गाँधीजी को दंडित किया, वह उसी श्रेणी का है जो भगत सिंह और ऊधम सिंह का था।
इस कड़वे सत्य को भी लोहिया के सहारे वहीं देख सकते हैं। लोहिया के अनुसार, “देश का विभाजन और गाँधीजी की हत्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जाँच किए बिना दूसरे की जाँच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।” यह कथन क्या दर्शाता है?
यही, कि वैसा न करके क्षुद्र राजनीतिक चतुराई की गई। तभी तो जिस किसी को ‘गाँधी के हत्यारे’ कहकर निंदित किया जाता है, जबकि विभाजन की विभीषिका से उस हत्या के संबंध की कभी जाँच नहीं होती। क्योंकि जैसे ही यह जाँच होगी, जिसे लोहिया ने जरूरी माना था, वैसे ही गोडसे का वही रूप सामने होगा जो उन्हें भगत सिंह और ऊधम सिंह के सिवा और किसी श्रेणी में रखने नहीं देगा। इस निष्कर्ष से गाँधी-नेहरूवादी तथा दूसरे भी मतभेद रख सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे असंख्य अंग्रेज लोग भगत सिंह और ऊधम सिंह से रखते ही रहे हैं। आखिर वे तो हमारे भगत सिंह और ऊधम सिंह को पूज्य नहीं मानते! लेकिन वे दोनों ही भारतवासियों के लिए पूज्य हैं। ठीक उसी तरह, यदि हिंदू महासभा या कोई भी हिन्दू नाथूराम गोडसे को सम्मान से देखता है, और उन्हें सम्मानित करना चाहता है, तो इसे सहजता से लेना चाहिए।
आखिर, भगत सिंह या ऊधम सिंह के प्रति भी हमारा सम्मान उन के द्वारा की गई अदद हत्याओं का सम्मान नहीं है। वह एक भावना का सम्मान है, जो सम्मानजनक थी। अतः नाथूराम गोडसे के प्रति किसी का आदर भी देश-भक्ति, राष्ट्रीय आत्मसम्मान और न्याय भावना का ही आदर भी हो सकता है। जिन्हें इस संभावना पर संदेह हो, वे गोडसे का वक्तव्य एक बार आद्योपांत पढ़ने का कष्ट करें।
- हेमंत यादव
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अन्ना ने PM मोदी को लिखा पत्र, बोले- जनवरी के अंत में किसानों के मुद्दे पर दिल्ली में करूंगा भूख हड़ताल
पुणे: सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने बृहस्पतिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा और अपना फैसला दोहराया कि ‘वह जनवरी के अंत में दिल्ली में किसानों के मुद्दे पर अंतिम भूख हड़ताल करेंगे।’ केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर विभिन्न किसान संगठनों के जारी आंदोलन के बीच हजारे ने यह चिट्ठी लिखी है। हजारे ने बाद में संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि नए कृषि कानून ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’’ के अनुरूप नहीं हैं और विधेयकों का मसौदा बनाने में जन भागीदारी जरूरी है।’
महीने के अंत में शुरू करेंगे उपवास
हजारे (83) ने तारीख बताए बिना कहा कि वह महीने के अंत तक उपवास शुरू करेंगे। पिछले साल 14 दिसंबर को हजारे ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को पत्र लिखकर आगाह किया था कि कृषि पर एम एस स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों समेत उनकी मांगें नहीं मानी गयीं तो वह भूख हड़ताल करेंगे। उन्होंने कृषि लागत और मूल्य के लिए आयोग को स्वायत्तता प्रदान करने की भी मांग की है। हजारे ने कहा, ‘किसानों के मुद्दे पर मैंने (केंद्र के साथ) पांच बार पत्र व्यवहार किया लेकिन कोई जवाब नहीं आया।’
नहीं आया जवाब
हजारे ने प्रधानमंत्री को पत्र में लिखा है, ‘इस कारण मैंने अपने जीवन की अंतिम भूख हड़ताल पर जाने का फैसला किया है।’ कार्यकर्ता ने कहा कि उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी भूख हड़ताल के लिए संबंधित प्राधिकारों से अनुमति के लिए चार पत्र लिखे थे लेकिन एक का भी जवाब नहीं आया।
वर्ष 2011 में भ्रष्टाचार रोधी मुहिम का अग्रणी चेहरा रहे हजारे ने याद दिलाया कि उन्होंने जब रामलीला मैदान में भूख हड़ताल शुरू की थी तो तत्कालीन संप्रग सरकार को संसद का विशेष सत्र आहूत करना पड़ा था।
किसानों का किया समर्थन
उन्होंने कहा, ‘उस सत्र में आप और आपके वरिष्ठ मंत्री (भाजपा उस समय विपक्ष में थी) ने मेरी प्रशंसा की थी लेकिन अब मांगों पर लिखित आश्वासन देने के बावजूद आप उन्हें पूरा नहीं कर रहे हैं।’ बाद में एक स्थानीय समाचार चैनल के साथ बात करते हुए हजारे ने दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आंदोलन पर कहा कि कानूनों का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में लोगों को शामिल होना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘ये (कृषि) कानून लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं। अगर सरकार कानून का मसौदा तैयार करने में लोगों की भागीदारी की अनुमति देती है, तो वह ऐसे कानून बना पाएगी जैसे लोग चाहते हैं।’
https://kisansatta.com/anna-wrote-a-letter-to-pm-modi-said-in-the-end-of-january-i-will-go-on-a-hunger-strike-in-delhi-on-the-issue-of-farmers/ #AnnaWroteALetterToPMModi, #IWillGoOnAHungerStrikeInDelhiOnTheIssueOfFarmers, #SaidInTheEndOfJanuary Anna wrote a letter to PM Modi, I will go on a hunger strike in Delhi on the issue of farmers, said - in the end of January National, State #National, #State KISAN SATTA - सच का संकल्प
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देश पर बेरोजगारी की सर्जिकल स्ट्राइक, क्यों मोदी सरकार ने साधी चुप्पी
लकी जैन,(G.N.S) । देश में लोकसभा चुनाव बीते और “एक बार फिर मोदी सरकार” को आए हुए तीन महीने ही हुए हैं, कि देश को भयंकर मंदी का सामना करना पड़ रहा है। देश पर बेरोजगारी की सर्जिकल स्ट्राइक हो रही है। ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री में लाखों युवाओं की नौकरियां जा चुकी हैं, देश की सबसे बड़ी रोजगार इंडस्ट्री टेक्सटाइल में मंदी इस चरम सीमा तक पहुंच गयी कि उनकी एसोसिएशन ने तो विज्ञापन छपवा कर मंदी को जगजाहिर कर दिया। अंतराष्ट्रीय स्तर पर रूपए की वेल्यू गिर रही है। देश आर्थिक मंदी से घिर चुका है। युवा बेरोजगार हो रहे हैं, लेकिन हमारी प्रिय मोदी सरकार चुप है। विपक्ष मोदी सरकार की इस चुप्पी पर सवाल तो कर रहा है, लेकिन उसे कोई सुनने वाला नहीं।
हिंदुस्तान को युवाओं का देश कहा जाता है और आज की स्थितियों में देश का युवा बेरोजगार है, तो सवाल यह है कि क्या इसी बेरोजगार हिंदुस्तान के लिए जनता ने सरकार को पूर्ण बहुमत के साथ दोबारा चुना था ?
“बेरोजगारी का मुद्दा जब भी राष्ट्रीय स्तर पर उठा है, मोदी सरकार ने कभी एयर स्ट्राइक, तो कभी आर्टिकल 370 को निष्क्रिय करने जैसे हीरो बनने वाले एक्शन कर युवाओं सहित देश की जनता का ध्यान राष्ट्रवाद में लगा दिया, ताकि बेरोजगार हो रहे युवा सरकार से कोई सवाल न पूछ सकें..!“ सरकार ने बालाकोट पर एयर स्ट्राइक कर या कश्मीर से आर्टिकल 370 को निष्क्रिय करने का निर्णय सही लिया, लेकिन क्या सिर्फ इन्हीं मुद्दों से देशभक्ति और राष्ट्रवाद साबित होगा..?
” ध्यान हो लोकसभा चुनाव से पहले जनवरी में बेरोजगारी को लेकर नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे की रिपोर्ट आयी थी, इसमें खुलासा हुआ था कि पिछली मोदी सरकार के दौरान देश में साल 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रिकॉर्ड की है जो कि पिछले 45 साल में सबसे ज्यादा है।”
बेरोजगारी की यह रिपोर्ट जनवरी में आयी। इस रिपोर्ट के बाद विपक्ष इस पर सरकार को घेरता या जनता सरकार से सवाल करती, इससे पहले ही फरवरी में सरकार ने पुलवामा में हुए आतंकी हमले का बदला लेने के नाम से पीओके के बालाकोट में एयर स्ट्राइक करवा दी और मीडिया के जरिए प्रचारित हुआ कि इस हमले में 200 से 300 आतंकी मारे गए। मारे गए आतंकियों के आंकड़ों की पुष्टि तो नहीं हुई, लेकिन पूरा देश राष्ट्रवाद और देशभक्ति की धारा में एकतरफा बह चला। चुनाव के समय बेरोजगारी, सहित अन्य विकास के अहम मुद्दों से देशवासियों का ध्यान भटक गया।
अब जबकि “फिर एक बार मोदी सरकार” का नारा सफल हो गया और मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ले ली, तो उम्मीद जागी कि शायद अब युवा हिंदुस्तान के युवाओं के लिए रोजगार के द्वार खुलेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
“अब जब फिर एक बार देश भयंकर मंदी का सामना कर रहा है, ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री और टेक्सटाइल इंडस्ट्री में लाखों युवाओं की नौकरी जा चुकी है, देश में बेरोजगारी दर चरम पर पहुंच चुकी है। इस बार भी विपक्ष या बेरोजगार होते हिंदुस्तान की जनता सरकार से कोई सवाल करती, इससे पहले सरकार ने कश्मीर से 370 को निष्क्रिय करने का निर्णय लेकर देश वासियों के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति की गंगा के गेट खोल दिए हैं। “
देश के बेरोजगार होते युवा से उसकी पीड़ा को सुनने या समझने की किसी को फुर्सत नहीं हैं। देश में बचा नाम मात्र का विपक्ष मंदी पर सवाल पूछ तो रहा है, लेकिन उसकी कोई सुन नहीं रहा।
यहां सबसे ज्यादा निंदनीय भूमिका देश के राष्ट्रीय स्तर के कई समाचार पत्र और न्यूज चैनलों की रही है। आर्टिकल 370 के शगूफे पर डिबेट करने के लिए तो न्यूज चैनलों ने पूरे के पूरे प्रोग्राम प्लान कर दिए, लेकिन देश पर जो बेरोजगारी की स्ट्राइक हो रही है, उस पर किसी ने कोई प्रोग्राम नहीं बनाया, इस बेरोजगारी की स्ट्राइक को अखबारों में भी कोई खास जगह नहीं मिल रही है।
दो दिन पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर एक बयान देकर नयी बहस छेड़ दी। लेकिन आज देश में इन मुद्दों से कहीं ज्यादा बेरोजगारी के मुद्दे पर बहस करनी जरूरी है। असली राष्ट्रवाद तब होगा जब देश के विकास, युवाओं के रोजगार, बच्चों की शिक्षा, लोगों के स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर बहस होगी और इनसे संबंधित समस्याओं के समाधान तलाशे जाएंगे।
सरकार की गलत नीतियां हैं मंदी का कारण : स्वामी
“बेरोजगारी पर सरकार भले ही चुप हो, लेकिन भाजपा के ही राज्य सभा सांसद अब इस मुद्दे को लेकर सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलने लगे हैं। तीन दिन पहले ही भाजपा में अहम कद रखने वाले राज्य सभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने पुणे में हुए एक कार्यक्रम के दौरान पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि देश में आर्थिक मंदी का कारण अरुण जेटली के कार्यकाल के दौरान अपनाई गई गलत नीतियां हैं और यह नीतियां अभी भी लागू हैं।”
देश के प्रति अपना फर्ज वे बिजनेस टायकून निभाने के लिए आगे आ रहे हैं, जिनका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। देश में लाखों लोगों को रोजगार देने वाले इनफोसिस के को-फाउंडर एनआर नारायण मूर्थी ने देश में बिगड़ते आर्थिक हालात पर युवाओं से अपील की है कि युवा सरकार के खिलाफ आवाज उठाएं। नारायण मूर्थि ने तो यहां तक कह दिया कि यह वो देश नहीं है, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। इससे पहले कई अन्य बड़े बिजनेस टायकून भी देश की आर्थिक मंदी के लिए सरकार की गलत नितियों को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं।
नॉर्दन इंडिया टेक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन नामक संगठन ने तो कुछ राष्ट्रीय और स्थानीय अखबारों में “इंडस्ट्री के मंदी” का विज्ञापन छपवाकर सरकार के प्रति अपना विरोध दर्शाया है।
देश की जनता से अब यही अपील है कि….अब भी जाग जाओ….सरकार से देश की आर्थिक मंदी और बेरोजगारी को लेकर सवाल करो….। क्यों कि अब सवाल नहीं किया तो देश में बेरोजगारी के साथ अपराध, अवसाद, आत्महत्याएं, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच जाएगा और देश का विकास कई दशक पीछे चला जाएगा। कहीं ऐसा न हो जाए कि हमारा सरकार से सिर्फ सवाल नहीं करना, देश को आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर न कर दे…, जिस आजादी के लिए हमारे पुरखों ने न जाने कितनी ही कुर्बानियां दी।
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