ll काशी विश्वनाथाष्टकम् ll
गंगा तरंग रमणीय जटा कलापं
गौरी निरंतर विभूषित वाम भागं
नारायण प्रियमनंग मदापहारं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 1 ॥
वाचामगोचरमनेक गुण स्वरूपं
वागीश विष्णु सुर सेवित पाद पद्मं
वामेण विग्रह वरेन कलत्रवंतं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 2 ॥
भूतादिपं भुजग भूषण भूषितांगं
व्याघ्रांजिनां बरधरं, जटिलं, त्रिनेत्रं
पाशांकुशाभय वरप्रद शूलपाणिं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 3 ॥
सीतांशु शोभित किरीट विराजमानं
बालेक्षणातल विशोषित पंचबाणं
नागाधिपा रचित बासुर कर्ण पूरं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 4 ॥
पंचाननं दुरित मत्त मतंगजानां
नागांतकं धनुज पुंगव पन्नागानां
दावानलं मरण शोक जराटवीनां
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 5 ॥
तेजोमयं सगुण निर्गुणमद्वितीयं
आनंद कंदमपराजित मप्रमेयं
नागात्मकं सकल निष्कलमात्म रूपं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 6 ॥
आशां विहाय परिहृत्य परश्य निंदां
पापे रथिं च सुनिवार्य मनस्समाधौ
आधाय हृत्-कमल मध्य गतं परेशं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 7 ॥
रागाधि दोष रहितं स्वजनानुरागं
वैराग्य शांति निलयं गिरिजा सहायं
माधुर्य धैर्य सुभगं गरलाभिरामं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् ॥ 8 ॥
वाराणसी पुर पते स्थवनं शिवस्य
व्याख्यातं अष्टकमिदं पठते मनुष्य
विद्यां श्रियं विपुल सौख्यमनंत कीर्तिं
संप्राप्य देव निलये लभते च मोक्षम् ॥
विश्वनाधाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेः शिव सन्निधौ
शिवलोकमवाप्नोति शिवेनसह मोदते ॥
ॐ नमः पार्वतिपतये हर हर महादेव🔱☘️🙏
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अनुशासन के आठ अंग
अष्टांग शब्द संस्कृत के दो शब्दों ‘अष्ट’और ‘अंग’से मिलकर बना है। ‘अष्ट’संख्या आठ को संदर्भित करती है जबकि ‘अंग’ का अर्थ है शरीर या अंग। इसलिए अष्टांग योग, योग के आठ अंगों का एक पूर्ण मिलन है जो कि योग सूत्रों के दर्शन की विभिन्न शाखाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्र में अनुशासन के लिए महर्षि पतंजलि ने साधन पाद में इसके बारे में बताया है। योग दर्शन में वर्णित यह आठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
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संकष्टी चतुर्थी का पर्व अश्विना मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाएगा ।
इस दिन विघ्नहर्ता भगवान गणेश की विशेष पूजा अर्चना की जाती है । इस दिन चांद को देखकर अर्ध्य दिया जाता है ।
इस दिन हस्त नक्षत्र रहेगा और चंद्रमा कन्या राशि में विराजमान रहेगा।
संकष्टी चतुर्थी हिन्दू धर्म का एक प्रसिद्ध त्यौहार है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, भगवान गणेश को अन्य सभी देवी-देवतों में प्रथम पूजनीय माना गया है। इन्हें बुद्धि, बल और विवेक का देवता का दर्जा प्राप्त है। भगवान गणेश अपने भक्तों की सभी परेशानियों और विघ्नों को हर लेते हैं इसीलिए इन्हें विघ्नहर्ता और संकटमोचन भी कहा जाता है।
क्या है संकष्टी चतुर्थी?
संकष्टी चतुर्थी का मतलब होता है संकट को हरने वाली चतुर्थी। संकष्टी संस्कृत भाषा से लिया गया एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘कठिन समय से मुक्ति पाना’।
इस दिन व्यक्ति अपने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए गणपति की अराधना करता है। पुराणों के अनुसार चतुर्थी के दिन गौरी पुत्र गणेश की पूजा करना बहुत फलदायी होता है। इस दिन लोग सूर्योदय के समय से लेकर चन्द्रमा उदय होने के समय तक उपवास रखते हैं। संकष्टी चतुर्थी को पूरे विधि-विधान से गणपति की पूजा-पाठ की जाती है।
कब होती है संकष्टी चतुर्थी?
पूर्णिमा के बाद आने वाली चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं, वहीं अमावस्या के बाद आने वाली चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं। संकष्टी चतुर्थी को भगवान गणेश की आराधना करने के लिए विशेष दिन माना गया है। शास्त्रों के अनुसार माघ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा के बाद की चतुर्थी बहुत शुभ होती है। यह दिन भारत के उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में ज्यादा धूम-धाम से मनाया जाता है।
गजाननं भूत गणादि सेवितं, कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।
#संपन्नमाया अगरबत्ती की तरफ से आप सभी को संकष्टी चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं!
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संकष्टी चतुर्थी का पर्व अश्विना मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाएगा ।
इस दिन विघ्नहर्ता भगवान गणेश की विशेष पूजा अर्चना की जाती है । इस दिन चांद को देखकर अर्ध्य दिया जाता है ।
इस दिन हस्त नक्षत्र रहेगा और चंद्रमा कन्या राशि में विराजमान रहेगा।
संकष्टी चतुर्थी हिन्दू धर्म का एक प्रसिद्ध त्यौहार है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, भगवान गणेश को अन्य सभी देवी-देवतों में प्रथम पूजनीय माना गया है। इन्हें बुद्धि, बल और विवेक का देवता का दर्जा प्राप्त है। भगवान गणेश अपने भक्तों की सभी परेशानियों और विघ्नों को हर लेते हैं इसीलिए इन्हें विघ्नहर्ता और संकटमोचन भी कहा जाता है।
क्या है संकष्टी चतुर्थी?
संकष्टी चतुर्थी का मतलब होता है संकट को हरने वाली चतुर्थी। संकष्टी संस्कृत भाषा से लिया गया एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘कठिन समय से मुक्ति पाना’।
इस दिन व्यक्ति अपने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए गणपति की अराधना करता है। पुराणों के अनुसार चतुर्थी के दिन गौरी पुत्र गणेश की पूजा करना बहुत फलदायी होता है। इस दिन लोग सूर्योदय के समय से लेकर चन्द्रमा उदय होने के समय तक उपवास रखते हैं। संकष्टी चतुर्थी को पूरे विधि-विधान से गणपति की पूजा-पाठ की जाती है।
कब होती है संकष्टी चतुर्थी?
पूर्णिमा के बाद आने वाली चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहते हैं, वहीं अमावस्या के बाद आने वाली चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहते हैं। संकष्टी चतुर्थी को भगवान गणेश की आराधना करने के लिए विशेष दिन माना गया है। शास्त्रों के अनुसार माघ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा के बाद की चतुर्थी बहुत शुभ होती है। यह दिन भारत के उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में ज्यादा धूम-धाम से मनाया जाता है।
गजाननं भूत गणादि सेवितं, कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।
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क्या है भक्ति, कैसे करें सुफल भक्ति:
कैसा हो भक्ति का स्वरुप:
भक्ति का आशय भक्त अपने इष्टदेव अथवा देवी, ईश्वर (भगवत व भगवती) के प्रति संपूर्ण समर्पण होता है। अर्थात् सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि भक्त की आत्मा का परमात्मन् की डोर से बंध जाना।
महंत श्री पारस भाई जी की नजरों में भक्ति का तात्पर्य है " स्नेह, लगाव, श्रद्धांजलि, विश्वास, प्रेम, पूजा, पवित्रता, समर्पण "। इसका उपयोग मूल रूप से हिंदू धर्म में एक भक्त द्वारा व्यक्तिगत भगवान या प्रतिनिधि भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम का उल्लेख करते हुए किया गया था।
भक्ति का स्वरुप कैसा होना चाहिए:
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्वार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
संध्यावन्दन, योग, ध्यान, तंत्र, ज्ञान, कर्म के अतिरिक्त भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है। भक्ति भी कई प्रकार ही होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग आदि शामिल हैं। इसे नवधा भक्ति कहते हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्���ार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
ध्यान उपासना करने हेतु दिशा:
ध्यान आराधना करते समय भक्त का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। वास्तु शास्त्र के अनुसार उत्तर-पूर्व को उत्तमोत्तम दिशा माना गया है क्योंकि उत्तर-पूर्व को ईशान कोण कहा जाता है ।
वास्तु शास्त्र के अनुसार पूजा गृह में कभी भी पूर्वजों की तस्वीर न तो लगानी चाहिए व ना हीं रखनी चाहिए। भगवान् की किसी प्रतिमा या मूर्ति की पूजा करते समय भक्त उपासक का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। यदि पूर्व दिशा में मुंह नहीं कर सकते तो पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पूजा करना भी उचित है।
वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खाना खाने से सभी तरह के रोग मिटते हैं पूर्व दिशा को देवताओं की दिशा माना जाता है तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने से देवताओं की कृपा और आरोग्य की प्राप्ति होती है एवं आयु में वृद्धि होती है।
दक्षिण-पूर्व दिशा में भगवान् के विराट स्वरूप की चित्र लगाएं। यह ऊर्जा का सूचक है। समस्त ब्रह्माण्ड को स्वयं में समाए असीम ऊर्जा के प्रतीक भगवान् श्रीकृष्ण समस्त संसार के भोक्ता हैं.।
भागवत भक्ति क्यों की जाती है:
संक्षेप में हम यह मानते व जानते एवं जानते हैं कि आराधक निज मनोरथ-पूर्ति हेतु ईश्वर (भगवत व भगवती) की भक्ति करते हैं। मनुष्य इसलिए ईश्वर के समीप जाता है कि वह ईश्वर-भक्ति करके अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके। परमेश्वर एक है। गुरु एवं गोविन्द भी एक है।
क्या है भगवान् की भक्ति:
जब भक्त सेवा अथवा आराधना के माध्यम से परमात्मन् से साक्षात संबंध स्थापित कर लेता है तो इसे ही गीता में भक्तियोग कहा गया है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति मर्मवेधी (उत्कट) प्रेम ही भक्ति है। ऋषि शांडिल्य के अनुसार परमात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा ही भक्ति है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति परितस अथवा उत्कट प्रेम होने पर भक्त भगवान् के रङ्ग में ही रंग जाते हैं।
महंत श्री पारस भाई जी के कहा कि जिसके विचारों में पवित्रता हो, साथ ही जो अहंकार से दूर हो और जो सबके प्रति समान भाव रखता हो, ऐसे व्यक्ति की भक्ति सच्ची है और वही सच्चा भक्त है।
भक्त कितने प्रकार के होते हैं:
भक्ति विविध प्रकार की होती है। भक्ति में श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद-सेवन, पूजन-अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग इत्यादि शामिल हैं।
चार तरह के भक्त:
श्रीमद भगवद् गीता के सप्तम अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण पार्थ (अर्जुन) विभिन्न प्रकार के भक्तों के विषय में वर्णन करते हुए कहते हैं कि
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥०७-१६॥
सार: हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इन चारों भक्तों में से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, तथा जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।
अर्थार्थी: अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य तथा सुख प्राप्त करने के लिए भगवान् का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है एवं ईश्वर का भजन गौण।
आर्त: आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान् को पुकारता है।
जिज्ञासु: जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान् का तत्व जानने एवं उन्हें प्राप्त करने के लिए भजन करता है।
ज्ञानी: आर्त, अर्थार्थी एवं जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं किंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त परमात्मन् के अतिरिक्त कोई अभिलाषा नहीं रखता है। इसलिए परमात्मन् ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवन् स्वयं करते हैं।
चारों भक्तों में से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ:
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥१७॥
अर्थात् परमात्मन् श्रीकृष्णः श्रीमद भगवद् गीता में कुंतीपुत्र अर्जुन (कौन्तेय) से कहते हैं कि
सार: इनमें से जो परमज्ञानी है तथा परमात्मन् की शुद्ध भक्ति में लीन रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं एवं वह मुझे अतिसय प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है वह साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।
कलयुग में भगवान् को कैसे प्राप्त करें:
श्रीमद्भागवत के अनुसार कलयुग दोषों का भंडार है। किन्तु इसमें एक महान सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान् के ध्यान, तप एवं त्रेता युग में यज्ञ-अनुष्ठान, द्वापर युग में आराधक को भक्त तप व पूजा-अर्चन से जो फल प्राप्त ह��ता था, कलयुग में वह पुण्य परमात्मन् श्रीहरिः के नाम-सङ्कीर्तन मात्र से ही सुलभ हो जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी कहते हैं इस कलयुग में शुद्ध भक्ति, प्रेम का वह उच्चतम रूप है जिसका जवाब भगवान बिना शर्त, प्रेम और ध्यान के साथ देते हैं।
कलयुग में चिरजीविन् देव:
वैसे तो महर्षि मार्कण्डेय, दैत्यराज बलि, परशुराम, आञ्जनेय (महावीर्य हनुमन्त् अवा हनुमत्), लङ्केश विभीषण, महर्षि वेदव्यास, कृप व अश्वत्थामन् किन्तु महाबली हनुमन् को समस्त युगों में जगदीश्वर सदाशिवः, चिरजीविन् नारायणः, पितामह ब्रह्मदेव व धर्मराज यमदेव एवं अन्य समग्र देवगणों के आशीर्वचन के अनुसार अतुलित बलधामन् हनुमन्त् अथवा हनुमत् को चिरजीविन् बने रहने का वरदान प्राप्त है। पुरुषोत्तम श्रीरामः ने भी निज साकेत लोक में जाने के पूर्व आञ्जनेय को चिरजीविन् रहने का वरदान दिया था।
गोसाईं तुलसीदास जी रामायण में लिखते हैं कलियुग में भी हनुमान् जी न केवल जीवंत रहेंगे अपितु चिरजीविन् बने रहेंगे एवं उनकी कृपा से ही उन्हें (महात्मा तुलसीदास) पुरुषोत्तम श��रीराम व लक्ष्मण जी के साक्षात दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्हें सीताराम जी से आशीर्वाद स्वरूप अजर अमर होने का वर प्राप्त है।
हनुमान् जी का वास स्थान:
कहते हैं कि कलियुग में आञ्जनेय (हनुमन्त्) गन्धमादन (गंधमादन) गिरि पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है। उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पाण्डव (महाराज पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव व द्रौपदी सहित गंधमादन पर्वत के निकट पहुंचे थे।
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पाद मारने वाली टीचर| student story | School Teacher | Hindi Kahani | Mor...
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इनरव्हील क्लब होराइजन ने 301 कन्याओं का पाद पूजन किया Innerwheel Club Horizon performed the foot worship of 301 girls
जालना- इनरव्हील क्लब ऑफ जालना होराइजन ने चैत्र दुर्गा अष्टमी के मौके पर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की 301 कन्याओं के पाद्य पूजन किया और उन्हें मिठाई, भोजन और उपहार प्रदान किए.
करवानगर स्थित गिरिराज डोम में आयोजित कार्यक्रम में, क्लब अध्यक्ष शिखा गोयल, सचिव सोनिया मिश्रीकोटकर, सारिका अग्रवाल, उर्वशी खंडेलवाल, आरती भक्कड़, सपना अग्रवाल, मनाली बागड़िया, रेखा निवेटिया, नेत्रा भक्कड़, शिल्पा अग्रवाल और…
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संकष्ट चतुर्थी - 28 फरवरी , (चंद्रोदय : रात्रि 09:42)
क्या है संकष्ट चतुर्थी ?
संकष्ट चतुर्थी का मतलब होता है संकट को हरने वाली चतुर्थी । संकष्ट संस्कृत भाषा से लिया गया एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘कठिन समय से मुक्ति पाना’।
इस दिन व्यक्ति अपने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए गणपति की अराधना करता है । पुराणों के अनुसार चतुर्थी के दिन गौरी पुत्र गणेश की पूजा करना बहुत फलदायी होता है । इस दिन लोग सूर्योदय के समय से लेकर चन्द्रमा उदय होने के समय तक उपवास रखते हैं । संकष्ट चतुर्थी को पूरे विधि-विधान से गणपति की पूजा-पाठ की जाती है ।
संकष्ट चतुर्थी पूजा विधि
गणपति में आस्था रखने वाले लोग इस दिन उपवास रखकर उन्हें प्रसन्न कर अपने मनचाहे फल की कामना करते हैं ।
इस दिन आप प्रातः काल सूर्योदय से पहले उठ जाएँ ।
व्रत करने वाले लोग सबसे पहले स्नान कर साफ और धुले हुए कपड़े पहन लें । इस दिन लाल रंग का वस्त्र धारण करना बेहद शुभ माना जाता है और साथ में यह भी कहा जाता है कि ऐसा करने से व्रत सफल होता है ।
स्नान के बाद वे गणपति की पूजा की शुरुआत करें । गणपति की पूजा करते समय जातक को अपना मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखना चाहिए ।
सबसे पहले आप गणपति की मूर्ति को फूलों से अच्छी तरह से सजा लें ।
पूजा में आप तिल, गुड़, लड्डू, फूल ताम्बे के कलश में पानी, धुप, चन्दन , प्रसाद के तौर पर केला या नारियल रख लें ।
ध्यान रहे कि पूजा के समय आप देवी दुर्गा की प्रतिमा या मूर्ति भी अपने पास रखें । ऐसा करना बेहद शुभ माना जाता है ।
गणपति को रोली लगाएं, फूल और जल अर्पित करें ।
संकष्टी को भगवान् गणपति को तिल के लड्डू और मोदक का भोग लगाएं ।
गणपति के सामने धूप-दीप जला कर निम्लिखित मन्त्र का जाप करें ।
गजाननं भूत गणादि सेवितं, कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकम्, नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।
पूजा के बाद आप फल फ्रूट्स आदि प्रसाद सेवन करें ।
शाम के समय चांद के निकलने से पहले आप गणपति की पूजा करें और संकष्ट व्रत कथा का पाठ करें ।
पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद बाटें । रात को चाँद देखने के बाद व्रत खोला जाता है और इस प्रकार संकष्ट चतुर्थी का व्रत पूर्ण होता है ।
कार्य सिद्धि के लिए
1. ॐ सुमुखाय नम: 2. ॐ एकदंताय नम: 3. ॐ कपिलाय नम: 4. ॐ गजकर्णाय नम: 5. ॐ लंबोदराय नम: 6. ॐ विकटाय नम: 7. ॐ विघ्ननाशाय नम: 8. ॐ विनायकाय नम: 9. ॐ धूम्रकेत��े नम: 10. ॐ गणाध्यक्षाय नम: 11. ॐ भालचंद्राय नम: 12. ॐ गजाननाय नम: ।
जो भी साधक श्री गणेश जी को रोज सिंदूर अर्पित कर इन 12 नाम का जाप करता है उसे कार्य सिद्धि प्राप्त होती है । - नारद पुराण
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100% आपको नहीं पता हैं, जाने पादने से जुड़ी गंभीर बिमारी, Know your Fart
हर इंसान पाद जरूर छोड़ता है ऐसे में सवाल उठता है कि पाद कितने प्रकार के होते हैं हम उनके बारे में विस्तार से जानेंगे लेकिन उससे पहले पाद के बारे में थोड़ी बहुत समझ को बदलना जरूरी है, अक्सर भरी महफिल में लोगों को इसलिए भी शर्मिंदा होना पड़ जाता है कि जाने अनजाने में उनकी पाद निकल जाती है,
और वह खुद को छुपाने की बहुत कोशिश करते हैं मगर तब उन्हें नोटिस कर लेते हैं लोगों के बीच में गलती स��� पाद का निकल जाना आपको तब और अधिक शर्मिंदा कर देता है जब आपकी पाद में Read more..
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#हिन्दू_भाई_संभलो
भक्ति वेदानंद स्वामी प्रभु पाद अध्याय 18 श्लोक 66 का अनुवाद ब्रज का अर्थ आना किया है।
हिंदू भाइयों के साथ धोखा
जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी ने गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का सही अनुवाद किया है।
ब्रज का अर्थ जाना होता है।
Hindu Bhai Dhokhe Mein
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श्रीमन्मानतुङ्गाचार्य कृत ‘भक्तामरस्तोत्र’ Bhaktamar Stotra
श्री आदिनाथाय नमः
भक्तामरस्तोत्रम्
कालजयी महाकाव्य श्रीमन्मानतुङ्गाचार्य-विरचितम्
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
सम्यक्-प्रणम्य जिन प-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥
य: संस्तुत: सकल-वां मय-तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोक-नाथै: ।
स्तोत्रैर्जगत्-त्रितय-चित्त-हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र ! शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥4॥
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्त: ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ॥5॥
अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ॥6॥
त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त-लोक-मलि-नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥7॥
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु: ॥8॥
आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥9॥
नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त-मभिष्टुवन्त: ।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र-तोष-मुपयाति जनस्य चक्षु: ।
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इ��्छेत्?॥11॥
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्-त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं न हि रूप-मस्ति ॥12॥
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥13॥
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति ।
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥14॥
चित्रं-किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥
निर्धूम-वर्ति-रपवर्जित-तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥16॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥17॥
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ॥18॥
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु ��म:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र: ॥19॥
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥20॥
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥21॥
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥22॥
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: ॥23॥
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनंग-केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥24॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥25॥
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्-त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥27॥
उच्चै-रशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति ॥28॥
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥29॥
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम् ।
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥30॥
छत्रत्रयं-तव-विभाति शशांककान्त,
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर-प्रतापम् ।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्ष: ।
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी ॥32॥
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात-
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्घा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ॥33॥
शुम्भत्-प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक-त्रये-द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ॥34॥
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्-त्रिलोक्या: ।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य: ॥35॥
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुंज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ॥36॥
॥ अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी मंत्र॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्-जिनेन्द्र्र !
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य।
यादृक्-प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥37॥
॥ हस्ती भय निवारण मंत्र ॥
श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावताभमिभ-मुद्धत-मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥38॥
॥ सिंह-भय-विदूरण मंत्र ॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता-फल-प्रकरभूषित-भूमि-भाग:।
बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
॥ अग्नि भय-शमन मंत्र ॥
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ॥40॥
॥ सर्प-भय-निवारण मंत्र ॥
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम्।
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंस: ॥41॥
॥ रण-रंगे-शत्रु पराजय मंत्र ॥
वल्गत्-तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवता-मपि-भूपतीनाम्।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति: ॥42॥
॥ रणरंग विजय मंत्र ॥
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह,
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते: ॥43॥
॥ समुद्र उल्लंघन मंत्र ॥
अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दो���्वण-वाडवाग्नौ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति: ॥44॥
॥ रोग-उन्मूलन मंत्र ॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:।
त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहा:,
मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा: ॥45॥
॥ बन्धन मुक्ति मंत्र ॥
आपाद-कण्ठमुरु-शृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट-जंघा:।
त्वन्-नाम-मन्त्र-मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति: ॥46॥
॥ सकल भय विनाशन मंत्र ॥
मत्त-द्विपेन्द्र-मृग-राज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्ध-नोत्थम्।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते: ॥47॥
॥ जिन-स्तुति-फल मंत्र ॥
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुंग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी: ॥48॥
– आचार्य मानतुंग
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जय श्रीकृष्णा...
१. कृष्ण वो हैं जिनके कान्हा रूप में हर माँ अपना वात्सल्य देखती है।२. कृष्ण वो हैं जिनमें सूरदास को माँ दिखता है।३. कृष्ण वो हैं जिनमें उस काल के सबसे वृद्ध भीष्म को अभिभावक नज़र आता है।४. कृष्ण वो हैं जो अपने मित्र के लिये सारथि बन जातें हैं।५. कृष्ण वो हैं जो सम्राट होते हुए भी सुदामा का पाद-प्रक्षालन करते हैं।६. कृष्ण वो हैं जिन्होंने जरासंघ को मार कर उसका राज्य खुद नहीं रखा बल्कि उसके बेटे को…
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चेम्बर महामंत्री संदीप जैन ने पूज्य मुनि के पाद प्रक्षालन कर मनाया जन्मदिन
सतना। विन्ध्य चेम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज एवं क्लॉथ मर्चेंट एसोसिएशन सतना के महामंत्री संदीप कुमार जैन ने आज 5 सितंबर को अपना जन्मदिन अर्हम ध्यान योग प्रणेता 108 पूज्य मुनि प्रणम्य सागर जी महाराज के पाद प्रक्षालन करके मनाया। प्रातः 8 बजे से सरस्वती भवन में चेम्बर अध्यक्ष सतीश सुखेजा, क्लॉथ मर्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष फेरूमल तोलवानी के साथ शहर के प्रबुद्ध जन पहुंचने लगे और इस अवसर पर संदीप…
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एक वृद्ध सन्यासी ओंकारेश्वर क्षेत्र में एक गुफा के भीतर तपस्यारत था। शरीर की अवस्था अब ऐसी न थी कि वह यात्राएं कर सकें। सन्यासी का प्रभाव ऐसा था कि जो जंगली पशु सदा हिंसक रहते, वे गुफा के समीप आते ही शांत हो जाते।
सन्यासी का सारा समय ध्यान में गुजरता, उसे प्रतीक्षा थी किसी के आगमन की। उसे परंपरा से प्राप्त ज्ञान किसी को सौंप कर ही इस संसार से विदा लेनी थी। प्रतीक्षा लंबी होती जा रही थी, लेकिन विश्वास दृढ़ था।
एक दिन वहां से बहती नर्मदा नदी में बाढ़ आ गई। नर्मदा का उफान देखकर किसी की हिम्मत नही थी कि कोई उसके समीप भी जा सके। पशु पक्षियों में भगदड़ मच गई, शोर मचाती नर्मदा हर तट, बांध को तोड़ती जा रही थी।
एक बालक जिसने भगवा रंग के वस्त्र पहने थे, माथे पर त्रिपुंड, शरीर पर यज्ञोपवीत, सर पर गोखुरी शिखा, गले मे रुद्राक्ष और चेहरे पर सूर्य सा तेज औऱ हाथ म् कमंडल पकड़ा हुआ था, नर्मदा के समीप आकर खड़ा हो गया। वह रुक नही सकता था, उसने शांत चित्त से नर्मदा को देखा, उफान देखकर अंदाजा हो गया कि अभी नदी को पार नही किया जा सकता। उस बाल ब्रह्मचारी ने माँ नर्मदा को प्रणाम किया औऱ नर्मदा की स्तुति करते हुए कहा,
"सबिंदु सिन्धु सुस्खल तरंग भंग रंजितम
द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम
कृतान्त दूत काल भुत भीति हारि वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे ||"
इस नर्मदाष्टकम को सुनकर देखते ही देखते नर्मदा उसके कमंडल में आकर समा गई।
नदी के दूसरे छोर पर जंगल में स्थित गुफा में समाधिरत सन्यासी की आंखे खुल गई, वह जान गया कि प्रतीक्षा समाप्त हुई। तभी बाल ब्रह्चारी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा, ब्रह्मचारी ने सन्यासी को प्रणाम किया तो सन्यासी ने परम्परा के निर्वाहन हेतु उसे बाहर से आशीर्वाद दिया, किन्तु मन ही मन प्रणाम किया।
सब कुछ जानते हुए भी लोकाचार की मर्यादा रखते हुए सन्यासी ने पूछा,"कौन हो तुम? अपना परिचय दो।"
बाल ब्रह्चारी जो मात्र आठ वर्ष का था, उसने कहा,
"मनो बुद्धय अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम॥
मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।।"
निर्वाण षट्कम के रूप में ब्रह्चारी ने जो परिचय दिया वह सुनकर सन्यासी की आँखों से आंसू निकल आये औऱ उसने प्रेम से उस बालक को गले लगा लिया।
सन्यासी की प्रतीक्षा औऱ ब्रह्चारी की खोज समाप्त हुई। सन्यासी गोविंद भगवत्पाद ने ब्रह्चारी शंकर को विधिवत सन्यास की दीक्षा दी औऱ परंपरागत ज्ञान को शंकर को सौंप दिया।
यही बालब्रह्चारी शंकर, आदि गुरु शंकराचार्य बने जो स्वयं शिवातार थे। वैशाख शुक्ल पंचमी को 507 ईसापूर्व केरल के कलाड़ी ग्राम में जन्मे आदिगुरु ने महाराज सुधन्वा की सहायता से वैदिक धर्म को पुनर्जीवित किया। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, पूर्व में गोवर्धन, उत्तर में जोशी, पश्चिम में शारदा औऱ दक्षिण में श्रृंगेरी।
आदिगुरु शंकराचार्य भगवान की आज 2530वीं जयंती है, आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
लोकेश कौशिक
#जय_भूतेश्वर
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त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे!,✨ अपने दिव्य जल से कंकर-कंकर को शंकर बना देने वाली मां नर्मदा को जयंती पर कोटि-कोटि नमन् करता हूं!✨ हे मैया, अपने अमृत तुल्य जल से हमारे खेतों व जीवन को धन्य बनाये रखिये और सुख, समृद्धि, खुशहाली का आशीर्वाद दीजिये। हर हर नर्मदे! #narmadajayanti #jaishivsenkhargone #jaishivsenkhargonemp @jayshivsen #jayshivsen (at Indore, India) https://www.instagram.com/p/Cn9LVINJUT8/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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