#देवी पार्वती
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#आदिगणेश_सर्व_देवों_का_स्वामी
इस गणेश चतुर्थी पर जरुर जानिए, गणेश जी को प्रसन्न करने का वास्तविक मंत्र क्या है?
आदि गणेश कौन हे।
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#रामचरितमानस_का_अनसुना_सच
#SantRampalJiMaharaj #sanatandharma #hindu #dharma #religion #hinduism #ancientindia #sanatani #FactfulDebates
रामचरितमानस में मिला प्रमाण देवी दुर्गा से उत्पन्न हुई लक्ष्मी पार्वती और सावित्री तीनों देवी। अवश्य देखिए सनातनी पूजा के पतन की कहानी संत रामपाल जी महाराज की जुबानी भाग - 3 Factful Debates YouTube Channel पर
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दहेज के कारण बेटी परिवार पर भार मानी जाने लगी है और उसको गर्भ में ही मारने का सिलसिला शुरू है।जो माता-पिता के लिए महापाप का कारण बनता है। बेटी देवी का स्वरूप है। हमारी कुपरम्पराओं ने बेटी को दुश्मन बना दिया।
- जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज।
💰श्री देवीपुराण के तीसरे स्कंद में प्रमाण है कि इस ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ में तीनों देवताओं का जब इनकी माता श्री दुर्गा जी ने विवाह किया, उस समय न कोई बाराती था, न कोई भाती था। न कोई भोजन-भण्डारा किया गया था। न डी.जे बजा था, न कोई नृत्य किया गया था। श्री दुर्गा जी ने अपने बड़े पुत्र श्री ब्रह्मा
जी से कहा कि हे ब्रह्मा! यह सावित्री नाम की लड़की तुझे तेरी पत्नी रूप में दी जाती है। इसे ले जाओ और अपना घर बसाओ। इसी प्रकार अपने बीच वाले पुत्र श्री विष्णु जी से लक्ष्मी जी तथा छोटे बेटे श्री शिव जी को पार्वती जी को देकर कहा ये तुम्हारी पत्नियां हैं। इनको ले जाओ और अपना-अपना घर बसाओ। तीनों अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर अपने-अपने लोक में चले गए जिससे विश्व का विस्तार हुआ।
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#सत_भक्ति_सन्देश
गरीब, पारबती कै उर धर्या, अमर भई क्षण मांहिं। सुकदेव की चैरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।
भावार्थ : जैसे पार्वती और शिव शंकर को जितना अमरत्व (वह भगवान शिव जितनी आयु नाम प्राप्ति के बाद जीएगी, फिर दोनों की मृत्यु होगी। इतना मोक्ष) भी देवी जी को शिव जी को गुरू मानकर..
#santrampaljiquotes#santrampalji is trueguru#santrampaljimaharaj#across the spiderverse#succession#satlokashram#supreme god kabir
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रामचरितमानस में मिला प्रमाण देवी दुर्गा से उत्पन्न हुई लक्ष्मी पार्वती और सावित्री तीनों देवी। अवश्य देखिए सनातनी पूजा के पतन की कहानी संत रामपाल जी महाराज की जुबानी भाग - 3 Factful Debates YouTube Channel पर
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#रामचरितमानस_का_अनसुनासच
रामचरितमानस में मिला प्रमाण देवी दुर्गा से उत्पन्न हुई लक्ष्मी पार्वती और सावित्री तीनों देवी। अवश्य देखिए सनातनी पूजा के पतन की कहानी संत रामपाल जी महाराज की जुबानी भाग - 3 Factful Debates YouTube Channel पर
सनातन हितैषी vs सनातन विरोधी
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#रामचरितमानस_का_अनसुनासच
सनातन हितैषी vs सनातन विरोधी
✨रामचरितमानस में मिला प्रमाण देवी दुर्गा से उत्पन्न हुई लक्ष्मी पार्वती और सावित्री तीनों देवी। अवश्य देखिए सनातनी पूजा के पतन की कहानी संत रामपाल जी महाराज की जुबानी भाग - 3 Factful Debates YouTube Channel पर
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���रामचरितमानस में मिला प्रमाण देवी दुर्गा से उत्पन्न हुई लक्ष्मी पार्वती और सावित्री तीनों देवी। अवश्य देखिए सनातनी पूजा के पतन की कहानी संत रामपाल जी महाराज की जुबानी भाग - 3 Factful Debates YouTube Channel पर
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भगवान शिव को मृत्युंजय, कालिंजय, त्रिकालदर्शी, सर्वोच्च भगवान कहा जाता है। वह क्यों नहीं पहचान सके कि गणेश को देवी पार्वती ने बनाया है और वह उनका पुत्र है?
#KabirIsGod
#SaintRampalJi
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↪️🔮अवश्य सुनिए जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के मंगल प्रवचन निम्न टीवी चैनलों पर :-
➜ साधना चैनल 📺 शाम 7:30 से 8:30
➜ श्रद्धा चैनल 📺 दोपहर - 2:00 से 3:00
Visit- "Satlok Ashram" on YouTube.
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जिस कन्या या लड़के की शादी में बार बार रुकावटे आती हैं उन्हे किस देवता के कोनसे उपाय करने चाहिये?
ज्योतिष में शादी में रुकावटों को दूर करने के लिए विभिन्न देवताओं के उपायों का सुझाव दिया जाता है। हालांकि, इस तरह के उपायों का असर व्यक्ति की विशेष स्थिति पर भी निर्भर करता है, और इसे निर्धारित करने के लिए सटीक और व्यक्तिगत परामर्श की आवश्यकता है।
गौरी-शंकर पूजा: शिव और पार्वती के रूप में गौरी-शंकर की पूजा करना शादी में रुकावटों को दूर करने के लिए सुझावित है। शनिवार को गौरी-शंकर की आराधना करना भी फलदायक हो सकता है।
गणेश पूजा: गणेश जी की पूजा करना शादी में सुख-शांति एवं सफलता के लिए उपयुक्त हो सकता है। रोजाना गणेश आराधना या गणेश चालीसा का पाठ करना भी लाभकारी हो सकता है।
माँ कात्यायनी की पूजा: माँ कात्यायनी, देवी दुर्गा की एक स्वरूप है, ज���न्हें विवाह एवं सुख-शांति के लिए पूजा जाता है। नवरात्रि के दौरान और माँ कात्यायनी जयंती पर उनकी पूजा करना लाभकारी हो सकता है।
संतान गोपाल मंत्र: विवाह में रुकावटों को दूर करने के लिए संतान गोपाल मंत्र का जाप भी किया जा सकता है।
ग्रह शांति पूजा: ज्योतिषियों के सुझाव के अनुसार, किसी विशेष ग्रह की शांति के लिए उपाय करना भी लाभकारी हो सकता है। यह ग्रह कुंडली के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं, इसलिए सटीक ज्योतिषीय सलाह लेना महत्वपूर्ण है।
यदि किसी को शादी में बार-बार रुकावटें आ रही हैं, तो इसके लिए आप Kundli Chakra 2022 Professional की मदद ले सकते है। और हमसे जोड़ भी सकते है। 8595675042.
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( #MuktiBodh_Part115 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part116
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 227-228
वाणी नं. 134.141 :-
गरीब, कर्म लगे शिब बिष्णु कै, भरमें तीनौं देव।
ब्रह्मा जुग छतीस लग, कछू न पाया भेव।।134।।
गरीब, शिब कूं ऐसा बर दिया, अपनेही परि आय।
भागि फिरे तिहूं लोक में, भस्मागिर लिये ताय।।135।।
गरीब, बिष्णु रूप धरि छल किया, मारे भसमां भूत।
रूप मोहिनी धरि लिया, बेगि सिंहारे दूत।।136।।
गरीब, शिब कूं बिंदु जराईयां, कंदर्प कीया नांस।
फेरि बौहरि प्रकाशियां, ऐसी मनकी बांस।।137।।
गरीब, लाख लाख जुग तप किया, शिब कंदर्प कै हेत।
काया माया छाडिकरि, ध्यान कंवल शिब श्वेत।।138।।
गरीब, फूक्या बिंदु बिधान सैं, बौहर न ऊगै बीज।
कला बिश्वंभर नाथ की, कहां छिपाऊं रीझ।।139।।
गरीब, पारबती पत्नी पलक परि, त्रिलोकी का रूप।
ऐसी पत्नी छाडिकरि, कहां चले शिब भूप।।140।।
गरीब, रूप मोहनी मोहिया, शिब से सुमरथ देव।
नारद मुनि से को गिनै, मरकट रूप धरेव।।141।।
◆ वाणी नं. 134-136 का सरलार्थ :- सुक्ष्म मन की मार सर्व जीवों पर गिरती है। सब एक समान सुक्ष्म मन के सामने विवश हैं। जब तक पूर्ण सतगुरू नहीं मिलता, तब तक सुक्ष्म मन के सामने विवेक कार्य नहीं करता। हिन्दु धर्म के श्रद्धालु श्री शिव जी को तो सक्षम मानते हैं। सब देवों का देव यानि महादेव कहते हैं। सुक्ष्म मन के कारण वे भी मार खा गए।
◆ प्रमाण :- जिस समय भस्मासुर ने तप करके भस्मकण्डा श्री शिव जी से वचनबद्ध करके ले लिया था। तब भस्मासुर ने शिव से कहा कि मैं तेरे को भस्म करूँगा। तेरे को मारकर तेरी पत्नी पार्वती को अपनी पत्नी बनाऊँगा। तब भय के कारण श्री शिव जी भाग लिए। भस्मासुर में भी सिद्धियां थी। वह भी साथ दौड़ा। शिवजी भय के कारण अधिक गति
से दौड़ा तथा एक मोड़ पर मुड़ गया। उसी मोड़ पर एक सुंदर स्त्री खड़ी थी। उसने भस्मासुर की ओर अश्लील दृष्टि से देखा और बोली कि शिव तो आसपास रूकेगा नहीं, जाने दे। आजा मेरे साथ मौज-मस्ती कर ले। मैं तेरा ही इंतजार कर रही हूँ। तुम पूर्ण मर्द हो, शक्तिशाली हो। भस्मासुर पर काम वासना का भूत सवार था ही, उसे और क्या चाहिए था? उसी समय रूक गया। युवती ने उसका हाथ पकड़कर नचाया। गंडहथ नृत्य करते समय हाथ सिर पर करना होता है। भस्मासुर का भस्मकण्डे वाला हाथ भस्मासुर के सिर पर करने को युवती ने कहा कि इस नृत्य में दांया हाथ सिर पर करते हैं। यह नृत्य पूरा करके मिलन करेंगे। ज्यों ही भस्मासुर ने भस्मकण्डे वाला हाथ सिर पर किया तो युवती ने बोला भस्म। उसी समय भस्मासुर जलकर नष्ट हो गया। वह युवती भगवान स्वयं ही शिव शंकर की जान की रक्षा के लिए बने थे।, परंतु महिमा विष्णु को दी। विष्णु रूप में प्रकट होकर परमात्मा उस भस्मकण्डे ��ो लेकर श्री शिव के सामने खडे़ हो गए तथा शिव से कहा हे शिव!
इतने तेज क्यों दौड़ रहे हो? शिव ने सब बात बताई कि आप भी दौड़ जाओ। भस्मासुर मुझे मारने को मेरे पीछे लगा है। तब विष्णु रूपधारी परमात्मा ने कहा कि देख! आपका
भस्मकण्डा मेरे पास है। शिव ने तुरंत पहचान लिया और रूककर पूछा कि यह आपको कैसे मिला? विश्वास नहीं हो रहा है। भगवान ने कहा यह न पूछ। अपना कण्डा लो और घर को जाओ। परंतु शिव को विश्वास नहीं हो रहा था कि उग्र रूप धारण किए भस्मासुर से कैसे ये भस्मकण्डा लिया। जिद कर ली। तब परमात्मा ने कहा कि फिर बताऊँगा। इतना कहकर अंतर्ध्यान (अदृश्य) हो गए। शिव कुछ आगे गया तो देखा कि एक अति सुंदर युवती
अर्धनग्न शरीर में मस्ती से एक बाग में टहल रही थी। दूर तक कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। शिवजी ने इधर-उधर देखा और लड़की की ओर मिलन के उद्देश्य से चले। लड़की शिव को देखकर मुस्कुराकर आगे को कुछ तेज चाल से चटक-मटककर चल पड़ी।
शिव ने मुस्कट के बाद लड़की का हाथ पकड़ा। तब तक शिव का वीर्यपतन हो चुका था। उसी समय विष्णु रूप में परमात्मा खड़े थे और कहा कि मैंने भस्मासुर को इस प्रकार वश में करके गंडहथ नाच नचाकर भस्म किया है।
संत गरीबदास जी ने सुक्ष्म मन की शक्ति बताई है कि शिवजी की पत्नी पार्वती तीन लोक में अति सुंदर स्त्रियों में से एक थी। अपनी पत्नी को छोड़कर शिवजी ने चंचल माया
यानि बद नारी से मिलन (sex) करने के लिए उसे पकड़ लिया। यह सुक्ष्म मन की उत्पत्ति का उत्पात है।
◆ वाणी नं. 137-141 का सरलार्थ :-
◆ इन्हीं काल प्रेरित आत्माओं (देवियों) ने ब्रह्मादिक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को भी मोहित कर लिया यानि अपने जाल में फँसा रखा है। शेष यानि अन्य बचे हुए गणेश जी भी स्त्री से संग में रहे। गणेश जी के दो पुत्र थे। एक का नाम शुभम्=शुभ, दूसरे लाभम्=लाभ था। शंकर (शिव जी) की अडिग
(विचलित न होने वाली) समाधि
(आंतरिक ध्यान) लगी थी जो हमेशा (सदा) ध्यान में रहते हैं। उनको भी मोहिनी अप्सरा (स्वर्ग की देवी) ने मोहित करके डगमग कर दिया था।
क्रमशः_________
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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🐅 शारदीय नवरात्रि : पञ्चमी: माँ स्कन्दमाता [Thursday, 19 October 2023]
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ॥
जब देवी पार्वती भगवान स्कंद की माता बनीं, तब माता पार्वती को देवी स्कंदमाता के रूप में जाना गया। वह कमल के फूल पर विराजमान हैं, और इसी वजह से स्कंदमाता को देवी पद्मासना के नाम से भी जाना जाता हैं।
तिथि: आश्विन शुक्ल पञ्चमी
अन्य नाम: देवी पद्मासना
सवारी: उग्र शेर
अत्र-शस्त्र: चार हाथ - कमल, कमल, बाल मुरुगन, अभय मुद्रा में है।
मुद्रा: मातृत्व रूप
ग्रह: बुद्ध
शुभ रंग: पीला
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✨ ललिता पञ्चमी - Lalita Panchami
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Manikarnika Ghat Ke Rahasya (Mystery of Manikarnika Ghat)
Manikarnika Ghat : काशी को वाराणसी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है। ��हां के घाट बहुत पुराने और प्रसिद्ध हैं। यहां आप गंगा घाट, दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट सहित कई ऐतिहासिक घाट देख सकते हैं। अस्सी घाट पर गंगा आरती देखने के लिए दुनिया भर से लोग आते हैं। यहां का मणिकर्णिका घाट विशेष रूप से पवित्र और महत्वपूर्ण है।
इस घाट के बारे में दो कहानियां प्रचलित हैं। पहली कहानी कहती है कि भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक तालाब खोदा था। उनकी प्रार्थना से आया पसीना तालाब के पानी में मिल गया और जब शिव उसे देखने आए तो वे प्रसन्न हुए। विष्णु के कान से कुंड में गिरी मणिकर्णिका (कान की बाली) उस घटना की याद दिलाती है।
दूसरी कथा के अनुसार भगवान शिव अपने भक्तों के बीच इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें उनसे फुर्सत ही नहीं मिलती। इस बात से देवी पार्वती नाराज हो जाती हैं, । इसलिए वह शिवजी को रोके रखने के लिए अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी को उसे ढूंढने के लिए बोलती है । जो शिवजी नहीं कर पाए। तब से, मणिकर्णिका घाट पर जिस किसी का भी अंतिम संस्कार किया जाता है, वह उस व्यक्ति से पूछता है कि क्या उसने इसे देखा है। मणिकर्णिका घाट विशेष रूप से उस स्थान के लिए प्रसिद्ध है जहां हिंदू अंत्येष्टि लगातार आयोजित की जाती है और चिता हमेशा जलती रहती है। यहां जानिए इससे जुड़े 10 राज।
मणिकर्णिका घाट के रहस्य (Mystery of Manikarnika Ghat)
1. स्नान करने से पापों से मिलती है मुक्ति
2. श्मशानभूमि है यह घाट
3. जलती चिताओं के बीच नगरवधुएं करती है नृत्य
4. चिता भस्म की होली
5. देवी का शक्तिपीठ है यहां पर
6. मणिकर्णिका कुंड
7. भगवान विष्णु ने किया था पहला स्नान
8. कुंड से निकली मूर्ति
9. माता सती का अंतिम संस्कार
10. मृत शरीर से पूछते हैं कि कहां है कुंडल
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धौम्य गोत्र के आस्पद (अल्लैं)
1. लायसे- ये आश्वलायन ऋषि के वंशज 2986 वि0पू0 हैं । ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा के कुछ लोग मध्य प्रदेश के रायसेन तथा सबलानों स्थानों में जाकर रहे थे । आश्वलायन जन्मेजय के नागसत्र में सदस्य थे ।
2. भरतवार- ये भरद्वाज के पिता भरत चक्रवर्ती के आश्रय प्राप्त 4882 वि0पू0 सम्मानित सभासद थे । इनने भारत वर्ष देश के अन्तर्गत अपना भरत खंड राज्य स्थापित किया था ।
3. घरवारी- ये गार्हपत्य नामक अग्नि कुल के देव पुरूष थे । वेद में इन्हें"अग्निर्गृपतिर्युवा" कहा है । ऋग्वेद क�� अनुसार ये सहस्त्रशीर्ष विराज पुरूष के पुत्र थे । वैसांधर अल्ल के माथुर वैश्वानर अग्नि वंशी भी इसी शाखा में थे । वैश्वानर अग्नि ने सरस्वतीतट मथुरा से पुष्कर राजस्थान तक तथा पांचाल देश पीलीभीत व बरैली अल्मौड़ा नैनीताल तक की भूमि में फैले गहन वनों को जलाकर पवित्र देश पांचाल मत्स्य सूरसेन जनपदों के स्वायंभू मनु के प्रदेश ब्रह्मर्षि देश(9200 वि0पू0) को प्रकट किया । गृहपति अग्नि ने पुरूरवा के यज्ञ में मंथु अग्नि पुरगटकर किभाबसु अग्नि प्रगटर की ओर उसके तीन भाग करके (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षियाणाड्नि) तीनों के तीन यज्ञ कुण्डों में स्थापित कर यज्ञ कराया था ।
'तस्य निर्मथाज्जातो जातवेदा विभावसु' ।
इस यज्ञ से 6241 वि0पू0 में प्रतिष्ठान पुर ब्रज के पैठा स्थान में पुत्रेष्टियाग के फलरूप आयु नहुष ययाति पुत्र चन्द्र वन्श की वृद्धि कर्त्ता उत्पत्र हुए थे । विराट प्रजापति (दीर्घविष्णु) 7 के पुत्र थे जो आदि मानव प्रजा के पितर कहे गये हैं । इनमें चार वेद ज्ञाता चतुर्वेद तथा पत्निगृह (पाकशाला) में प्रयुक्त गार्हपत्य अग्नि कर्म के प्राशिक्षक गार्हपत्य अग्नि (9200 वि.पू.) घरवारी प्रधान थे ।
ये 7 आध पित-1. अग्निष्वात 2. सोमप (वर्हिषद) 3. बैराज 4. गार्हपत्य, 5. चतुर्वेथ, 6. एक श्रंग, 7 कुल के नाम के थे । मत्स्य के अनुसार ये सभी महायोगी थे । योग भंग होने पर पृथ्वी पर जन्मे । श्रेष्ठ ब्रह्मवादी होने और पूर्वजन्म के ज्ञान से ये योगाभ्यास में मग्न रहकर प्रजाओं का कल्याण करते थे । इनकी मानसी कन्या मैनां (मैनांगढ़ टीला मथुरा) में उत्पत्र हुई थी जिसके वन्शधर मैनां या मीणां जाति के लोग यहाँ रहते थे जो प्रजा विस्तार होने पर मैनाक पर्वत तथा समस्त राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में फैल गये । मैनका अप्सरायें इसी वंश में थी ।
मैना ब्रज के हिमवन्त मेवात के पर्वतीय राजा हिमवन्त को ब्याही थी और उससे हेमवती पार्वती उमां गौरी आदि अनेक नामों वाली पुत्री हुई जो सतीदहन के बाद तप करके भगवान शिव की पत्नी बनी और उससे विनायक गणेश (गणेश टीला) तथा स्कंधस्वामी (खंडवेल तीर्थ मथुरा) वासी विश्व विजयी देवता (स्कैंडेनेविया सिकन्दरिया बन्दरगाह नाम प्रदाता तथा सिकन्दर यूनानी विश्व विजयी को प्रभावशाली नामकरण प्रदाता) पुत्र हुए । ये सातौ आद्यपितर परम कृपाल�� परोपकारी स्नेहमय स्वभाव के तथा पितृ स्नेह से समस्त प्रजाओं का संरक्षण और संवर्धन करने के कारण ही मानव पितर माने गये ।
4. तिलमने- ये यज्ञ साकल्य हेतु श्यामातिल (कालेतिल) उत्पत्र करने वाले क्षेत्र तिलपत के निवासी तिलमटे लोगों के प्रोहित होने से तिलमने कहलाये । तिलपत का गौकुला जाट बड़ी सेना लेकर औरंगजेब के समय ब्रज में हुए विद्रोह का नेतृत्व करने आया था । दलित मत्तिल नाम के दो यक्षों के सरोवर भी कामबन में दतीला मतीला कुन्ड नाम से थे । ये दत्तिल संगीत शास्त्र ग्रन्थ का प्रमुख आचार्य था तथा उसका दत्तिलम, नाम वाला संगीत ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।
तिलोत्तमा अप्सरायें अतिसुन्दर और नृत्य करने वाली इस वन्श में प्रख्यात रही हैं । इस वन्श के तैलंग जनों ने दक्षिण महाराष्ट्र में तिलंगाना प्रदेश बसाया तथा तेल निकालने की कला विस्तार किया । यमराज के नर्कों में कोल्हू यन्त्र में पापियों को पेरने या बैलों की जगह जोतने का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।
5. शुक्ल- याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजु प्रयोगों के अनुयायी शुक्ल कहलाये । शुक्ल वस्त्रधारी 'शुक्लांवर धर विष्णु' भगवान विष्णु देवी सरस्वती, वेदमाता गायत्री- तथा इनके भक्त माथुर ब्राह्मण शुक्त प्रसिद्ध हुए ।
6. व्रह्मपुरि- मथुरा में ब्रह्मलोक तीर्थ के ब्रह्मोपासक ब्रह्मसभा के सदस्य मालाधारी ब्रह्मपुर्या जिस स्थान में रहते थे वह पद्मनाम तीर्थ पद्मावती सरस्वती के तट पर था उसे अभी भी मालावारी चौवे को शिवाजी महाराज द्वारादिया गया हाथी उनके द्वार पर झूमता था जिससे इसे हाथीवारी गली कहते हैं । राव मरहठों में सरदार को तथा राजस्थान में राजा की बांदियों के पुत्र होते हैं । मानाराव को राव की पदवी शिवाजी ने ही प्रदान की तथा जियाजीराव, दौलतराव, सयाजीराव आदि रावों ने अपनी समता का राव पद देकर पचीसियों गांव भेंट कर अपना पूज्य पुरोहित बनाया था । इसी क्षेत्र में पांडे माथुरों का प्राचीन निवास है ।
7. आत्मोती- आत्मा को आत्मतत्व में लीन कर उसके परम गूढ प्रकाश का अनुभव अरने और कराने वाले आत्माहुति ब्रह्मज्ञान विद्या के साधक सिद्ध पुरूष आलोवि प्रसिद्ध थे । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आत्म ज्ञान कहा है ।
8. मौरे- ये मयूरगणों की प्रजा मार्यवन्श केप्रे हित होने से मौरे कहे गये । मौर्यवंश में ही मुरदैत्य प्रजाओं के प्राचीन आवास मोरा मयूरवन, मुरसान, मुरार, मौर��ड़, मोरवी मयूरकूट पर्वत (मोरकुटी) हैं तथा मुरदैत्यों का संहार करने के कारण श्री कृष्ण को मुरारी कहा जाता है ।
9. चंदपेरखी- चंद्रवंशी यादवों के मनोरंजन हेतु यादवों की रंगशाला प्रेक्षागृह का निर्माण और उसकी रंगमंचीय व्यवस्था सम्भालने वाले माथुर चन्द्रप्रेक्षी या चैदपेखी थे । माथुरी भाषा में श्रंगार युक्त नारी को पेखने की पूतरी' कहा जाता है । पाणिनि के अनुसार यादव कंस वध का अभिनय (उत्प्रेक्ष दर्शन पेखनां) बड़े उत्साह के साथ आयोजित करते थे ।
10. जोजले- देवों के यजन पूजा आराधना स्तुति पाठ कीर्तन भजन आदि प्रहलाद द्वारा प्रतिपादित नवधा भक्ति के आचार्य 'याजक' संयोजक झूंझर आक्रोश के साथ भक्ति उन्माद में आत्म विस्मृत जुझारून रूवभाव के लोग जोजले कहे जाने लगे ।
11. सोती- यह बड़ी अल्ल है । श्रौत स्मार्त धर्म के उपदेशक सोती थे । श्रौतधर्म में मूलवैदिक संहिताओं के अतिरिक्त वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, परिशिष्ट, निरूद्य, सूत्र, उपनिषद, सहितायें, इतिहास पुराण, आदि अनेक आधार हैं । सूत पुत्र सौति वन्श के जिन्हें वेदाधिकार नहीं था उन शूद्र वर्ण रथकारों को वेदातिरिक्त पुराण विद्या तथा संहितादि अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रदान करते रहने को महर्षि वेद व्यास ने इन्हैं सूतों शौनकों के धर्मोपदेशक के रूप में नियुक्त किया था । सोती प्रवासी माथरों के साथ भदावर आदि क्षेत्रों में जाकर बस गये थे ।
12. सोगरे- सोगर गाँव के सोगरिया जाटों के पुरोहित सोगरे हैं ।
13. चौपरे चौपरे या चौपौरिया इनके 4 घर(पौरी) मूल में एक स्थान पर स्थिति थे । एक कथन से चौपड़ का खेल जो कौरव पांडवों के समय में बहुप्रचलित था उसमें ये परम परांगत पासा डालने की मन्त्र विद्या इन्हें सिद्ध थी तथा बड़ी बड़ी राज सभाओं में द्यूत निर्णय के लिए बुलाये और सम्मानित किये जाते थे । शकुनी इनका गांधारी (अफ़ग़ान) शिष्य था ।
प्रकीर्ण परवर्ती आस्पद
इनके अतिरिक्त परवर्तीकाल में माथुरों के कुछ अन्यान्द आस्पद आख्या या ख्यात समयानुसार बनते गये जिनमें से कुछ के नाम हैं – छौंका, भारवारे, तिवारे, नौसैनावासी, तखतवारे, महलवारे, नारेनाग, सकनां, होरीवारे, भरौच, चीबौड़ा, उचाड़ा, भदौरियाद्व, घाट्या, नगरावार, दक्ख, मानाराव, टोपीदा�� के, देवमन मंसाराम के, लाल चौवे के, गहनियाँ के, पंडिता के, भारवाले, आरतीवारे, नौघर वारे, करमफोर के, कोबीराम के, काहौ, स्वामी, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, निधाये के, हथरौसिया, मुरसानियाँ, करौर्या आदि ।
माथुर चतुर्वेद विरूदावली
माथुरों की वंश वैभव युक्त विरूदावली लल्लू गोपालजी द्वारा प्रस्तुत यहाँ दी जा रही है-
माथुर परिचय-
चौसठ अल्लैं
136 से 138
माथुर चतुर्वेदियों की माता-श्री यमुना मैया
श्री यमुना महारानी माथुरों की परम वात्सल्यमयी कुल प्रतिपालिनी मैया हैं । श्री यमुना विश्व की सबसे पुरातन प्रजा संरक्षिणी देवी हैं । आसुरी सर्ग युग् 12600 वि0पू0 में वे यमयमी के रूप में भाई बहिन सूर्य देव सूरसेन देश में उत्पत्र हुए, और अंतरिक्ष में बिहार करने की कामना से आकाश मंडल (आक्सस नदी, आकाश गंगा और आक्साई चीन आकाशिय उदीचीना प्रदेश) में ऊँचे पर्वतों पर वीणां बजाते हुए बिहार करने को चले गये । वहां यमी ने आसुरी धर्म से प्रभावित होकर अपने भाई की धर्म नीति की परीक्षा हेतु उससे संयोग की याचना की जिसे यमदेव ने द्दठता से ठुकराकर चरित्र श्रेष्ठता का परिचय दिया । इत पवित्र आचरण से नतमस्त होकर असुरों ने उन्हैं जमशेद (यम सिद्ध), जमरूद (यमरूद्र), जुम्मा, जुमेरात जमालू, जमाउल अव्वल, आदि रूपों में पूजित माना । मार्कण्डेय आश्रम (मक्का) में अश्वत्थ लिंग (संग असवद) के मन्दिर में इनका यमुना यम सरोवर आवेजमजम के नाम से पवित्र माना जाता है । 9370 वि.पू. में ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि में ये पुन: कश्यपवंश में माता अदिति के गर्भ से उत्पत्र द्वादश सूर्यों में ज्येष्ठ आदित्य विवस्वान देव के यहाँ संज्ञा माता के गर्भ से मथुरा देव पुरी के प्राजापत्यययाग प्रयाग तीर्थ में अवतरित हुए । यहाँ दिवाकर देव ने पुत्र यमराज को दक्षिण दिशा में यमलोक बसाकर पापी जनों को दण्ड देकर धर्म और सदाचार की मर्यादा बनाये रखने का धर्मराज पद पितामह ब्रह्मा से दिलाया, और सूरसेन (सूर्य सेनाओं का देश) देवलोक का अनुग्रह युक्त शानक अपनी प्रिय पुत्री यमुना को प्रदान किया । आनी बहिन तपती देवी के शाप से जलधारा नदी रूप बनी श्री यमुना भागीरथी गंगा से बहुत युगों प्राचीन हैं । श्रीयमुना की उत्पत्ति 9,320 वि0पू0 है और प्रभु बारादेव ने बसुन्धरा देवी से श्री यमुना का महात्म कहा है । भक्त प्रहलाद ने भी 9254 वि0पू0 में अपनी तीर्थ यात्रा में यमुना तट के तीर्थों क�� यात्रा की है ।
माथुरों के यमुना पुत्र होने का चरित्र ब्रज रहस्य महोदधि श्री उद्ववाचार्य देव जू ने अपने ब्रज यात्रा ग्रन्थ में कथन किया है जो माथुरों के लिए प्रमाणप है-
एकदा ब्रह्म सदने कश्यपस्य कृतेऽच्वरे ।
समेता सुप्रजा सर्वा कश्यपस्यच औरसा ।।1।।
भक्तिनम्रा धावयन्ता: कर्मान् सम्पादयन्ति ते ।
तान्द्दष्ट्वा भानुतनया मनोभवं मनोदधे ।।2।।
एमाद्दषी प्रजा धन्या मद्गृहेपि भवेदिति ।
तानहं पालयिष्यामि बात्सल्य रस निर्भरा: ।।3।।
पुत्रेष्वेव गृहं धन्यं शोभाढ़यं गृहमेधिनाम् ।
पुत्रका यत्र क्रीडन्ति तदेव सुकृतं गृहम् ।।4।।
एक दिवस शुभ मुहूर्त में ब्रह्मलोक तीर्थ मथुरा में कश्यप महर्षि के आयोजित महासत्र में समस्त देव प्रजा और कश्यप वंशज ब्राह्मण सम्मिलित हुए । ये महर्षि गण अपने पुत्र पौत्रों और पत्नियों पिरवारों सहित भक्ति से विनम्र होकर दौड़ दौड़कर यज्ञ कार्यों को बड़े उत्साह से सम्पादन कर रहे थे इन्हैं इस आनन्दमय रूप से देखकर सूर्य पुत्री श्री यमुना महारानी जी ने अपने मन में यह भावना स्थापित की- इस प्रकार की सुन्दर ह्दय को आकर्षित करने वाली प्रजा धन्य है तथा ऐसी प्रजा मेरे भवन में भी स्थापित होनी चाहिए । मैं उनका सनेह मय अन्त: करण से लालन पालन करूँगी और सदा वात्सल्य रस में आनन्द निमग्न रहूँगी ।
आहूता बालका सर्वे सप्तर्षि कुल संभवा: ।
माथुरान् गृह्म उत्संगे पयपानं मुद्रा ददु: ।।5।।
स्नेह निर्झरितं वक्षं तानलिंग्य त्वरान्विता ।
मुहुर्महु मुखं द्दष्ट्वा परमानन्द प्राप्नुयु: ।।6।।
एतानि विप्र जातानि अग्निवंश समुद्भवान् ।
विद्या विनय सम्पत्रान् सदाचार समन्वितान् ।।7।।
माथुरेस्मिन्पुण्यक्षेत्रे पुत्रत्वेन व्रतानि मे ।
अद्यत: मम पुत्रावै लोके ख्याति लभंतिहि ।।8।।
दत्वा बहुगुणं प्रीतिं हैरण्यं भवनानि च ।
स्वगेहे स्थापिता: सर्वे माथुरा मुनि पुंगवा ।।9।।
कदाचिदपि मद्धामं न त्यजेयु: मुनीश्वरा: ।
ममाश्रये द्दढी भूत्वा दुर्गमान् संतरिष्यत: ।।10।।
तब माताजी ने हेला देकर सपत ऋषियों के दल को बुलाया एवं उन माथुर मुनि बालकों को गोद में उठाकर उन्हैं स्नेह से झरते हुए अपने स्तनों का पयपान कराया ।।5।।
प्रेम से झरते हुए वक्ष स्थल से उन्हैं अति आतुर होकर अलिंगन किया तथा उनके मुख बारम्बार निहारकार परम आनन्द का अनुभव किया ।।6।।
माता ने कहा- ये श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल अग्निवंश में उत्पत्र हैं तथा विद्या विनय और सदाचार से युक्त हैं ।।7।।
इस परम पुण्यमय मथुरा क्षेत्र में मैंने इन्हैं पुत्र पद पर वरण किया है अत: आज से लोग में मेरे पुत्र अर्थात् यमुना पुत्र नाम की ख्याति प्राप्त करेंगे ।।8।।
इतना महान पद देकर माता ने उन माथुर पुत्रों को बहुत श्रेष्ठ अपना अपार प्यार बहुत सा सोना और अनेक उत्तम देवोपम भवन दिए और उन माथुर मुनि पुगवों के पुत्रों को अपने निज भवन में स्थापित किया ।।9।।
उनसे कहा – हे पुत्रो कभी भी कैसे घोर संकट में भी मेरे इस धाम को त्याग मत करना यहाँ रहकर मेरे आश्रय की दृढ़ता को गृहण किए हुए तुम सब दुर्गम संकटों से निश्चय पूर्वक पार हो जाओगे ।।10।।
माता ने अपने पुत्रों को यह उदार बर दिया और इसे पाकर महर्षि अंगिरा ने वेदोक्त 'श्री यमुना सूक्त' का सरस्वर भक्ति और स्नेह के साथ गान किया जिसे सुनकर माता ने अपार हर्ष का अनुभव किया । यह अति दुर्लभ सद्य फल प्रद कृपा का सहज साधन सूक्त महर्षि अंगिरा ने 9300 वि.पू. में जगज्जनिनी मातु श्री के चरणों में बैठकर सिद्ध किया तथा श्रीमद् उद्धवाचार्य देववर्य इसको धारण कर परम सिद्ध पुरूष बन गये ।
इसके द्वारा यमुना उपासना भक्त प्रहलाद, प्रभु वामन देव, हिरण्यकशि पुदैत्यराज, स्वायंभूमनु देव, अंवरीष राजा, शत्रुघ्न, यपरशुराम मुनीन्द्र, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, दक्ष, उशनाभृंगु, पुरन्दर इन्द्र, वायुदेव ने की तथा महर्षि वेद व्यास के काल में इसकी उपासना से चन्द्रवन्शी यादवों पौरवों आनवों ने विशेषकर नहुष ययाति, यदु, बसुदेव, श्री कृष्ण बलराम, महर्षि वेद व्यास ने माता कालिदी की आराधना करके वेद विभाजन, 18 पुराण प्रतिपादन, महाभारत, श्रीमद् भागवत ब्रह्मसूत्र आदि अनेकानेक शास्त्रों की रचना की ।
यह सर्वप्राचीन, वेदसत्रिहित, सर्व सिद्धित्रद माथुरों का मातृस्तवन सूक्त है जो यहाँ दिया जा रहा है-
हरि: ओउम्- आदित्यासो जायमानां सहस्त्रभारस्वद्रोचिषम् ।
श्यामारूणां वैवस्वतिं श्री यमुनां भजमाहे ।।1।।
संज्ञात्मजां यमस्वसां विश्रयन्ति भृमृतावृधे ।
देवयन्तिं देवगणानाम् वरदां संवृणीमहे ।।2।।
आवाह्मामि श्रीयमुने कालिंदी संशितवृते ।
एह्मेहि विरजे सत्ये राष्ट्र मे शर्म यच्छताम् ।।3।।
कूर्मासनां मणिपृष्ठां वेणु पद्मां भुजद्वयाम् ।
केयूर मेखलांन्वितां महामणि किरीटिनीम् ।।4।।
संमे सन्तु सिद्धि दात्रिं श्री मधुपुर्याधीश्वरिम् ।
धान्यं धनं प्रजां राज्यं विभवं देहि मे जयम् ।।5।।
वर्धयन्तिं महैश्वर्य प्रियं नो अस्तु मातर: ।
नित्यं संसेवनं धेहि पादार्चनं गृणीमहे ।।6।।
वरेण्यां ब्रजाधिष्ठात्रिं वासल्यां सुप्रसादिनीं ।
संरक्षिणी प्रवर्धिनी अकानुकूल्यं बावृधस्व ।।7।।
वैराज धारिणीं विरजां गभस्ति कोटि मास्वतिम् ।
सौरसेनिं गोष्ठ शतिं सोमं क्रतुमयच्छतु ।।8।।
मधु कैट दिनं निघ्नां कौमारीं संपयस्त्रविम् ।
तां माधवीं उपव्हये आर्विभव हिरण्ययी ।।9।।
कालिंदी सरस्वतीत यमुना तिस्त्रो पदेशु भ्राजिता: ।
अरंकृर्ति मधुमर्ति सौर्या गव्यं गृणीमसि: ।।10।।
आयाहि शर्म यच्छति प्रथमं विश्व सृजे ।
अर्यन्त प्रार्चन्त देवा: साँजलि र्नतकन्धरा: ।।11।।
जिधांसति यमकौर्य शरण्यं ईरयति शर्मम् ।
मूर्त्या मांगल्यमये संसीदस्व कुले मम ।।12।।
तपस्विनीं स्वयं सिद्धां वरेण्यां भर्ग भास्करिम् ।
संगोप्त्रि अक्षयनिधिं गोपशी स्वस्तिरस्तुन: ।।13।।
उपैतु मां महाराज्ञी कीर्ति प्रज्ञां स्थैर्य सह ।
अभिरक्षतु मां नित्यं कालिन्दी माथुरेश्वरी ।।14।।
संकृणुध्वं पदानुगं आत्मानं भर्ग आभर ।
नित्योत्सवा वैजयन्ति अनन्या भीति शन्तमे ।।15।।
यज्ञेश्वरी मन्त्रेश्वरी भक्तानुग्रह तत्परा: ।
कौवेरं निधिं साम्राज्यं महैश्वर्य दधातु मे ।।16।।
तुरीयस्था योग प्रभा सहस्त्रदल मीरिता: ।
आत्मतत्वा परतत्वा महाविद्या पात्वंहस ।।17।।
गोवर्धनं वर्धयन्तिं गवि गोष्ठान्यकरन्महत् ।
मनश्चिन्तां जिघन्वतिं अभिष्टय: सम्प्रमोषि: ।।18।।
त्रिसप्त धामं त्रिदिवं त्रयो त्रिशदभ्यर्चितम् ।
यक्षस्वधामं द्युमन्तं ध्रुवस्यांगिरसस्यहि ।।19।।
प्रहल्लादो उरूक्रमणों हिरप्यकशिपु बलिं: ।
स्वायंभुवश्चांवरीषो अरिघ्नो भार्गवोत्तम: ।।20।।
वशिष्ठो कश्यपश्चात्रि: दक्षो औशनसो भृगु: ।
पुरन्दरस्य वायोश्च विधेहि से महत्पदम् ।।21।।
ब्रह्मविद्या राजविद्या ब्रह्मपारगा: छान्दोगा: ।
सहस्त्रदल संस्थिता: दधातु मेऽजरा मरम् ।।22।।
नारायणीं महत्पदां नमोमि पुत्र वत्सलाम् ।
संवर्धयति सौभाग्यं शं म�� सन्तु सुवर्चसा: ।।23।।
यज्ञेश्वरी विस्फुलिंगा आयाहि जातवेदसे ।
प्रियगंधा: प्रियरसा: धियंनो धार्यतां ध्रुवम् ।।24।।
व्यासोवाच-चतुविंशतिकं सूक्तं श्री यमुनाया: प्रमीरितम् ।
जय कामो यशस्कामो श्रेयस्कामो विधारयेत् ।।1।।
शुचिर्भूत्वा ऽनन्यामना जुहुयाच्च साज्यं मधुम् ।
सर्वान्कामान वाप्नोति पदं वैश्रवणोपमम् ।।2।।
यावल्लीलां न पश्येत तावच्छेवा व्रतं चरेत् ।
प्रणतिं दर्शनं जाप्यं सर्व सिद्धि करं मतम् ।।3।।
जयं राज्यं धनं धान्यं आरोग्यं सुप्रजां सुखम् ।
सर्वाधिपत्यं यशसं संसिद्धि जयते ध्रुवम् ।।4।।
दर्शयोद् विग्रहं पुण्यं कैंकर्यत्वं समाचरेत् ।
गुरा: सेवा समायुक्तो सर्व सिद्धि प्रजायते ।।5।।
इत्यंगिरा प्रकथितं श्री यमुना सूक्त मुत्तमम् ।
भक्तिं मुक्तिं रसोद्भांव लीला प्रत्यक्ष कारकम् ।।6।।
आरार्धितं चन्द्रवंशेन नहुषेन ययातिना ।
यदोश्च श्रीकृष्णश्च बलरामेण धारितम् ।।7।।
वेदव्यासमिदं जप्त्वा ध्यात्वा श्री रविरात्मजाम् ।
कृतवानसर्व शास्त्राणि वेदांश्चापि प्रयणदिता ।।8।।
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन गोपयेत्परमं धनम् ।
अस्याराधनया वत्स सर्व सिद्धि प्रजायते ।।9।।
हरि:ओऽम् तत्सत् नमोनम: ।
महर्षि अंगिरा द्वारा सम्पूर्ण माथुर मुनि पुत्रों के साथ गान किये इस सूक्त से माता श्री यमुना अति आनंदित हुई । उन्होंने पुन: कहा-
यो यूयं मम पुत्रान्वै अर्चयिष्यन्ति श्रद्या ।
तेन मे परमातुष्टि भवेदिति न संशय: ।।11।।
माथुरा मम रूपाहि माथुरा मम वल्लभा ।
माथुरे परि तुष्टे वै तुष्टोऽहं नात्र संशय ।।22।।
हे प्रिय पुत्रो ! जो धर्म निष्ठ प्राणी उदार विनय युक्त मन से मेरे तुम पुत्रों माथुरों की अर्चना करेगा तुम्हें सन्तुष्ट करेगा उससे मैं परम सन्तुष्टि प्राप्त करूँगी इसमें सन्देह नहीं है ।।11।। माथुर मेरे ही रूप हैं, माथुर मुझे प्राणों से ज़्यादा प्यारे हैं, माथुर के सन्तुष्ट होने से मैं आप स्वयं आनन्द के साथ सन्तुष्ट होती हूँ यह निश्चित अटल सत्य है ।।22।। इस सन्दर्भ में श्री उद्धाचार्य देवजू के सुपुत्र श्री भगवान मिहारी के कुछ सुन्दर छन्द भी प्राप्त हैं-
कवित्त-
चाह करी मन में रविनं दिनी । सप्त ऋषीन के बालकटेरे । पुत्र बिना घर सून्यों अमंगल, वाल विनोद आनन्द घनेरे ।। 'भगवन्त जू' याविधि पायि सनेह, कहै सब जै जै महासुख हेरे ।। माथुर बाल लगाये हियेते, सो आजु ते पूत भये तुम मेरे ।।1।। मो मथुरा करियो सदा बास, औ कीजो सदां पयपान सुखारी । उत्तम भोजन कंचन वैभव, पाऔ सदा मुद मंगलकारी ।। भगवंतजू पूजियो मोहि सनेह सौ, जो नहीं पूजै सो होई भिखारी पूत सपूत बने रहोगे तो मैं- रच्छा करौं सब काल तिहारी ।2।
यमूना पूत्र कर्त्तव्य
द्वारपै नाम जो मेरौ लिखै, घर भीतर सेवा मेरी पघरावै । मन्त्र जपै नित, ध्यान धरै, सिर सादर नायि मेरे गुन गावै ।। भगवंत प्रसादी बिना नहीं भोजन, पर्थ पै उच्छव हर्ख मनावै । या मति मेरौ आधार गहैं रहैं, एसौ सपूत मेरे मन भावै ।।3।।
कृपा प्रभाव प्रत्यक्ष
राजा नवै, महाराजा गहै पद, मातु कृपा कौ प्रतापु है भारी । संत महंत आचार्ज घनाधिप, आसन दैंई दै मान अपारौ ।। 'भगवंत' ज वैभव ठाठ लगे रहैं, भाव अभाव न हो दुखारी । एसी उदार अपार कृपा, रविनंदनि की महिमां कछु न्यारी ।।
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की परम स्नेहमयी इन मातु श्री का स्तवन प्राय: प्रत्येक संप्रदाय के आचार्य ने किया है । अपने आराधित इष्ट देव की सिद्धि का साक्षात्कार बिना श्री यमुना मैया की कृपा के होना असंभव मानकर श्री आद्यशंकराचार्य ने श्री यमुना स्तबन-"जययमुने जय भीतिनिवारिणि संकट नाशिनि पाबय माम्", श्री कालिन्दी माता का स्तबन-" धुनोतु मे मनोमलं कलिंदनंदिनी सदा" किया है श्री गर्गाचार्य मुनि की गर्ग संहिता माधुर्य खंड में महर्षि सौमरि का राजा मांधाता को उपदिष्ट श्री यमुना पंचांग(यमुना स्तोत्र, कवच, पटल, अर्चन, सहस्त्रनाम) श्री प्रभु उद्धवाचार्यदेव का यमुना शरणागति स्तोत्र, श्रीमद् बल्लभाचार्य का यमुना अष्टक, श्री गो0 विद्वल नाथजी, श्री हरिराय जी, हरिबल्लभ, माधव, हरिदास, रमेश भट्ट गोकुलेश आदि वैष्णव भक्तों के स्तोत्र, श्री हित हरिवंश (राधा बल्लभी आचार्य) श्री रूप (सनातन) गौड़ीय आचार्य, सम्राट दीक्षित पंडितराज, कविवर ग्वाल, कविवर श्री मुदित मुकुन्द की यमुना लहरी आदि प्रभूत साहित्य हैं, जिसे वेदपाठी श्री बिहारीलाल जी की यमुना पूजन पद्धति में देखा जा सकता हैं ।
श्री मथुरा पुरी में महर्षि अंगिरा द्वारा आराधित श्री यमुना मैया की यह पुरातन देव विग्रह प्रतिमा अनंदमयी मुद्रा में वैदिक सूत्र के अनुसार- "कूर्मासनां मणि पृष्ठां वेणु पद्मां भुज द्वयाम्" छवि को धारण किये हुए यमुना तट पर अपने निजधाम श्री यमुना निकुंज देवस्थान सूर्य गोलपुर (गोल पारा) प्रयाग घाट पर विराजमान हैं । यह माथुरों की परम पूज्य म��या और श्री सिद्धि स्वरूपा हैं । आश्चर्य है कि माथुर मुनीश अपनी परमाराधनीय इस माता की सेवा आराधना करने में निपट उदासीन तणा बहिर्मुख हैं । यहीं श्री उद्धवाचार्य देवजू का प्राचीन ब्रजयात्रा ग्रंथ उनकी छवि जी तथा पादुका जी विराजमान हैं जो सेवा करने पर कृपा सिद्धि प्रदायक हैं ।
वृम्हरात्रि का अधर्म वृद्धि युग
3000 वि.पू. के बाद कलियुग ने अपना पैर जमाया । महाभारत के पश्चात मगध का राजवंश चक्रवर्ती सम्राट बना परिक्षित को कलिप्रेरित प्रयास से ब्राह्मण शाप द्वारा तक्षक नाग ने समाप्त कर दिया । यादव स्वयं ही कलह की अग्नि में कूद गये । द्वारिका की जल प्रलय ने दूर दूर तक समुद्र तटवर्ती देशों को ध्वस्त किया । जनमेजय को नागों की शक्ति के सामने पराभव देखना पड़ा । वैशम्पायन और याज्ञवल्क्य की कलह में यजुर्वेद के कारे गोरे दो टुकड़े हो गये । जरासंध ने मथुरा शूरसेन देश पर 17 आक्रमण किये जिनमें 41 राज्यों के सत्ताधारी सहायक थे । इधर श्री कृष्ण बलराम के साथ मात्र केवल 18 यादव नरेश ही थे । बड़ी सेना के दबाव से वे 32 वर्ष की आयु में अंधक वृष्णि संघ के साथ सुदूर पश्चिम के जल दुर्ग द्वारिका में चले गये ।
जरासंध यादवों का शत्रु था । द्रोपदी स्वयंवर में बृहद्रथ में धनुष उठाते समय घुटने फूट जाने पर उसका पलायन और श्री कृष्ण के समर्थन से अर्जुन का द्रोपदी से विवाह, महर्षि धौम्य की पांडव पौरोहित्य प्रतिष्ठा, कंस का वध और उग्रसेन का राज्यारोहण इसके उत्तेजक हेतु थे । उधर सूत मागध शौनकशूद्र प्राय माने जाते थे । इन्होंने माथुर महामुनीष महर्षि वेद व्यास की सेवा में अपने को समर्पित किया और कृपालु मुनि ने सूतों को पुराणाचार्य पद, शौनक को अथर्वा वेदाचार्य तथा मागधों को माथुरों की मैत्री के साथ गया तीर्थ का पौरोहित्य और वंदीजनों को ब्रह्ममट्ट राय भाट जागा के रूप में वंशावली संरक्षण् के कार्यो��� में नियुक्त किया । "माथुरों मागधश्चैव" एक मैत्री बनी और माथुरों को उस समय की अपनी उदार नीति के कारण अनेक प्रहार और अपवाद सहन करने पड़े , परिणामत: मथुरा पर अधिकार के बाद जरासँध ने मथुरा को लूटा जलाया या विनष्ट किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।
जरासंध की शत्रुता यादवों से थी । उसने 86 यादव नरेश और उनकी अविवाहित राजकन्याओं को अपने कारागार में ��ाल रखीं थीं महाभारत के बाद योद्धाओं की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी । मगध साम्राज्य का शौर्य और वि��्तार बढ़ रहा था । किन्तु मगध विदेशयी जातीय गांधारी (कंधारी पठान) वंश के उपरिचर बसु की सन्तान होने से वैदिक यज्ञों धर्म और देव पद्यति के प्रति निष्ठावान न थे । उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज में उच्चता समानता युक्त सम्मान भी प्राप्त न था फिर भी उन्होंने 3233 से 2011 वि0पू0 तक 1222 बर्ष भारत पर अपना एक छत्र राज्य जमाये रक्खा । इसी अवधि में 1800 वि0 पू0 में ब्रह्म दिवस के कलियुग का अवसान हुआ ।
व्रम्हरात्रि का द्वितिय कलयुग- शौनकसत्र
ब्रहद्रथ वंश के राजा रिपुंजय के बाद शुनक वंशी व्यासशिष्य शौनकों का वंश शासनारूढ़ हुआ । वृहद्रथ वंश ने अपने लंबे राज्यकाल में कोई उल्लेखनीय धर्म कार्य किया हो एसा ज्ञात नहीं होता, किन्तु शुनक वंशियों ने सूतों को पुराणों के क्षेत्र में महान प्रतिष्ठा देकर नैमिषारण्य मिश्रिक आदि नव तीर्थों की स्थापना करके लंबे काल के कथा सत्र आयोजित किये । इन कथा महा सम्मेलनों में 88 हज़ार ऋषि महर्षि, लक्षाबधि प्रजाजन, तथा दानी मानी राजपुरूषों ने भक्ति के साथ 18 पुराणों का कथारस पान किया ं पुराणों का बहुविधि विकास विस्तार और जनसम्मान इसी युग में माथुर वेदव्यास शिष्यों के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित हुआ । माथुर ऋषि महर्षि इन सत्रों के प्रथम कोटि के निर्देशन और सहायक थे । इन सत्रों में श्री कृष्ण की महिमा, उनके रसप्लावित चरित्र, ब्रजभूमि, मथुरा, और माथुर चतुर्वेद ब्रह्मणों की कीर्ति का महान प्रचार हुआ । 5 पीढ़ी राजकर 1873 वि0पू0 में महाराज वंशजों ब्रज औ काशी के नागों का अधिकार मगध साम्राज्य पर आया ।
भाग ब्रज की प्राचीन जाति थी । इस वंश में विंवसार(1727-1689 वि0पू0) अजात शत्रु (1627-1662 वि0पू0) उदायी डदितोदय मथुरा का राजा(1627-1594 वि0पू0), नंदिवर्धन(1594-1554 वि0पू0) तथा महामंदी कालाशोक (1554-1511 वि0पू0) आदि 10 राजा हुए । यह द्वितीय कलि (1800-600 वि0पू0) का समय इतिहास में बहुत क्रान्तिकारी समय हैं । एतिहासिक शंसोधन के अनुसार इस युग में जैन धर्म आचार्य महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 मेंतथा बुद्धि धर्म प्रवर्तक बुद्धदेव का जन्म 1760 वि0पू0 में हुआ । इन दोनों मतों ने प्राचीन वैदिक धर्म को झकझोर डाला और रात्रि कलियुग का झंझावात खड़ा कर दिया । उदायी या ऊदितोदय के मथुरा पर सासनारूढ़ रहने के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, और उसके समय मथुरा धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था तथा माथुर अपनी स्वधर्म निष्ठा पर दृढ़ तथा सम्मानित थे ।
महापद्म नंद वंश
1511 वि0पू0 में महापद्मनंद ��े वंश का महा साम्राज्य स्थापित हुआ । महापद्मनंद एक महान प्रतापी सम्राट था उसके राज्य में माथुरा और मथुरों के वैभव और श्रेष्ठता का महान विस्तार हुआ । सुमाल्य आदि इसके 9 पुत्रों ने मथुरा की वैभव वृद्धि में स्नेहयुक्त योगदान दिया ।
मौर्य वंश
1411 वि0पू0 में कटैलिया जाटों के पुरोहित कौटिल्य चांड़क्य की कूटनीति योजना से परम प्रतापी चंद्रगुप्तमौर्य द्वारा मौर्य वंश के साम्राज्य की नींव पड़ी । मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर ग्राम(मोरा गाँव) के निवासी मयूर गण थे । ब्रज की तेजस्विता के फलस्वरूप वे अनेक खंडों में फैलकर स्व्च्छंद और महावलशाली बन कर मुरदैत्य तथा मूर मुराई मुरशद कहे जाने लगे । मुरसान, मुरार, मोरवी, मुरैना मोरावां आदि अनेक क्षेत्रों में इनका वंश फैंल चुका था । चंद्रगुप्त के उत्तर भारतीय साम्राज्य में मथुरा एक प्रमुख केन्द्र था, तथा इस वंश के वैभवशाली राजपुरोहित मौरे अल्ल धारी माथुरों के अनेक परिवार अभी भी मथुरा नगर में बसे हुए हैं । मौर्य काल में बौद्ध मत सारे भारत तथा विदेशों में भी ख़ूब फैला । विंदुसार पुत्र सम्राट अशोक इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी सम्राट था । इसने मथुरा में अनेक बौद्धस्तूप विहार और सनातन धर्म के देवालय निर्माण कराये, जिनकी वैभव संपति तथा अर्चना विधि के संचालक माथुर ब्राह्मण थे । इस वंश के सम्राट शालिशूक (इंद्रपालित) 1300 वि.पू. के समय बौद्धधर्म बहुत विकृतियों से युक्त हो गया था । बौद्ध राजाओं का आरय पाकर बौद्धभिक्षुओं की संख्या इतनी बढ़ी कि वह भूमि का भार बन गयी ।
कुछ इतिहास ज्ञों के मत से बौद्ध भिक्षु बल पूर्वक ग्रहस्थों के घरों से भिक्षा बसूल करने लगे । वे किसान का अनाज, ग्वालों का दूध घी, कुम्हारों के वर्तन, बजाज, दर्जी, माली, तेली, नाई, वाहन, चालकों के उत्पादनों और साधनों का बिना मूल्य अपहरण करने लगे । किसान, कारीगर, मजदूर, व्ययसायी, विद्वज्जन सभी वस्त्र रंगकर बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर मुफ़्त के माल उड़ाने लगे । राजाओं की सेना सैनिक निशस्त्र भिक्षु बनकर चैन की नींद लेते हुए शौर्य हीन हो गये । राजदंड में क्षमा और दया का प्रवेश होने से चोरी लूट व्यभिचार आदि अपराध बढ़ गये । बौद्ध भिक्षुव्यसनी विलासी और तंत्र मंत्र नग्नासनों सिद्धियों के प्रयोंक्ता बन गये । सारा देश अकर्मण्य दुर्वल, कायर, शौर्यहीन और निस्तेज हो गया । इस अवसर का लाभ उठाने को उत्तर पश्चिम के आसुर क्रूर लोग भारत की दबोच कर अपने आधीन करने के प्रयास करने लगे । देश का धर्म और सुरक्षा महान संकट में पड़ गये ।
��गवान काल्कि का प्रादुर्भाव
ऐसे समय गीता में अपनी धर्म घोषणा के प्रतिपालनार्थ प्रभु ने भगवान काल्कि के रूप् में अवतार धारण किया । प्रभु काल्कि का आविर्भाव संमल ग्राम में विष्णुयशा पराशर बशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण के यहाँ मौर्य शालिशूक राज के राज्यकाल में 1338 वि0पू0 में हुआ । विष्णुयश को अपने गुरु याज्ञवल्क्य वंशज तपस्वी ब्राह्मण से कृपारूप् आशीर्वाद प्राप्त था । कल्कि ने सिंहल द्वीप में पद्मावती नाम की राजकन्या से विवाह किया और फिर वहाँ से देवदत्त अश्व पर सवार होकर कराल खग्ङ धारण कर वैदिक धर्म के विरोधियों के संहार की घोषणा की । प्रथम उन्होंने विन्ध्येश्वरी नंदपुत्री योगमाया भगवती की आराधना की और फिर आकर मगध देश में ही विशाल धर्म सेना तैयार कर विधर्मियों का दमन आरंभ किया । इस समय बुद्ध धर्म को 450 वर्ष तथा उसके 25 बुद्ध हो चुके थे ।
देश में नास्तिक अधर्मवादी संप्रदायों का जोर था । इनमें चावकि निरीश्वरवादी, अजितकेशी, उच्छेवादी, गोशालमंखली, आजोवकी, गोष्ठा माहिल, अनीश्वरवादी, पक्थ काच्चायन अशाश्वत वादी, पूरण काश्यप, सांजय वेल्हीपुत्र विक्षेप वादी आडार कालम अकिर्चिन्नायन बाद (संसार में कहीं कुछ नहीं है), आम्रपालिगणिका उपलि नापित का जात पांत निर्मूलन प्रयास, आदि प्रमुख थे । ये दान धर्म यज्ञ पाप पुण्य स्वर्ग नर्क कुछ नहीं हैं, हत्या चोरी व्यभिचार से पाप नहीं लगता तथा तीर्थ दान पूजा से पुण्य नहीं होता ऐसा घर घर प्रचार करते थे । जैनों के 363 पंथ तथा बौद्धों के अनगिनती थे । मगध, लिच्छवी, शाल्व, बुलि, कोल्लिय, मत्म्त्मे, कौशल आदि अनेकों राजा इन संघों के भक्त थे ।
प्रभु काल्कि ने इन सबका प्रतारण किया । अधिक रक्त पात न करके उन्होंने यज्ञों द्वारा प्रजा को आकर्षित करके और सेना भय से नरेशों को कुमार्ग से विरत करके सारे देश में शाश्वत वैदिक श्रौत स्मार्त पौराणिक धर्म की ध्वजा समग्र भारत वर्ष में फरहादी । लोग लाखों की संख्या में भगवान काल्कि के दर्शनों, यज्ञ महोत्सवों और अपने प्राचीन धर्म को पुन: अंगीकर करने की आने लगे । कहीं कहीं कुछ गर्वित नरेशों ने युद्ध भी किया परन्तु वे पूर्णत: ध्वस्त हुए । फिर उन्होंने सीमा पर आक्रमण की तैयारी करते हुए यवन म्लेच्छ खश, काम्बोज, शवर, बर्वर, भूतवासी सारमेयी, काक, उलूक, चीन, पुर्लिद, श्वपच पिशाच, मल्लार देशों को विजय कर उन्हें धर्मानुकूल बनाया ।
इस धर्म विजय के पश्चात अ��ोध्या तथा फिर "मथुरा मागमन्मही" 'तस्या, भूपंसूर्यकेतु' मभिषिच्य महाप्रभु' वे मथुरा पधारे यहाँ विशाल यज्ञ आयोजित किया प्रधान ब्राह्मण माथुरों की अर्चना की तया समस्त जीती हुई भूमि ब्राह्मणों को दान करके देदी । माथुरा के बाद गाँव में इस यज्ञ का आयोजन करके प्रभु काल्कि ने मथुरों को वेदवाद प्रचार के लिये संयोजित किया । इस प्रकार अपना अवतार कार्य परिपूर्ण करके वे 1296 वि0पू0 में हिमालय में प्रवेश करके स्वधाम को प्रयाण कर गये । भगवान काल्कि का स्नेह माथुर ब्राह्मणों पर विशेष रूप से था पिंडारक तीर्थ पर जब माथुर महर्षि गण अत्नि वशिष्ठ मृगु पराशर दुर्वासा अंगिरा उनके समीप पहुँचे तो उन्होंने कहा –
मथुरायामहं स्थित्वा हरिष्यामितु वो भयम् ।।26।। युवां शस्त्रास्त्र कुशलौ सेनागण परिच्छदौ । भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथ: ।।28।।
भगवान कल्कि का चरित्र दिव्य महान और विस्तार युक्त है । कल्कि पुराण में इसका पूर्ण वर्णन हुआ है । यह पुराण भारत धर्म महामंडल काशी द्वारा 1962 वि0 में निगमागम पुस्तक भंडार बांस का फाटक बाराणसी से प्रकाशित हुआ है तथा बैंकटेश्वर प्रेस बंबई एवं खेमराज श्री कृष्णदास बंबई से भी इसके प्रकाशन हुए हैं । अमरीका की पेन्सिलवेनियाँ विश्वविद्यालय तथा ब्रुकलिन कालेज न्यूया्रक में कल्कि अवतार पर शोधकार्य हुआ है पुराणों में स्कंद पुराण माहेश्वर कल्प के कुमारिकाखंड में तथा महाभारत के बन पर्व 188 तथा 190,191 में भी इस अवतार का कथन है फिर न जाने किस कारण से विद्वद्वर्ग ने ऐसे महान अवतार को अंथकार के गर्त में डाल रक्खा है ।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य और कुमारिल स्वामी
600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक ब्रह्मरात्रि का द्वापर युग प्रवर्तित हुआ । इस काल में आंध्रमृत्यु, वाकाटक, सात वाहन, भारशिवनाग, गुप्तवंश, चालुक्य, पल्लव, पांड्य चोल, बल्लभी, मौखरी आदि अनेक वंश उठे और गिरे/हूणों के आक्रमण का ताँता लगा । युग धर्म के अनुसार जो पांखंड मत काल्कि विजय में भेष बदल कर लुप्त हो गये वे पुन: सिर उठाने लगे । अत: धर्मवीज के अंकुर की रक्षा के लिए भगवद अन्श से और दो महापुरूषों ने जन्म धारण किया । इनमें प्रथम श्री कुमारिलभट्ट स्वामी थे जो श्री शंकराचार्य से 57 वर्ष बड़े थे । श्री पी0 एन0 ओक की शोध के अनुसार इनका जन्म लगभग 509 वि0पू0 का है । इन्होंने 97 वर्ष आयु प्राप्त करके आसेतु हिमालय वेदमार्ग की घ्��जा फहरा कर बौद्धों तथा अन्य बचे खुचे पाखन्ड मतों को उन्मूजन किया । श्री शंकराचार्य के बौद्ध मत खन्डन पत्रक में इनका विशेष उल्लेख है । इन्होंने कार्तकिेय स्वामी का अवतार होने से स्वामी पद धारण किया था । मगध विहार के नालंदा विश्व विद्यालय में जबसे बौद्ध आचार्य से न्याय दर्शन पढ़ रहे थे तब गुरु के चरण दबाते समय वेद निन्दा सुनकर अनके नेत्रों से आँसू टपक कर आचार्य के चरणों में गिरे । यह देख बौद्धों ने यह तो वेद वादी है । वे उन्हैं धनवाद के राजा सुघन्वा के सामने ले गये और वहाँ उन्हैं ताड़ना देकर ऊँचे पर्वत से गिराया गया किन्तू वेद सत्य है तो मेरी रक्षा होगी' एसे निश्चय से इनकी रक्षा हुई । तब इन्होंने समस्त भारत वर्ष में वेद धर्म के प्रचार की प्रतिज्ञा ली । मथुरा के वेदपाठी चतुर्वेदी माथुर ब्राम्हाणों के महत्व को अनुभव कर उन्होंने अपना वेद धर्म आन्दोलन यहीं से श्रीगणेश किया । उन्होंने वेदपाठी चतुर्वेदी ब्राह्मणों का एक वेद प्रचार वर्ग बनाया और उसका केन्द्र जिस स्थान पर रक्खा वह वेदवाद तीर्थ बाद गाँव नाम से अभी भी मथुरा में है तथा इस समूह के वेद वादी माथुरों की भारद्धाज गोत्रिय शाखा कुमारिली या रिली कही जाती है विद्वानों ने इस शाखा को अनअल मनमानी कहा है जबकि उनने इस प्राचीन शाखा के गौरव को जाना ही नहीं । इसके बाद बाद गाँव को आगे चलकर भक्त महात्मा श्री हित हरि वंश जी की जन्म भूमि होने का भी महत्व प्राप्त हुआ है ।
एक बार कुमपरिल स्वामी राजा सुघन्वा के राज महल के नीचे से जा रहे थे । उन्हैं देख राजा की राजकुमारी ने छत पर से व्याथित स्वर में पुकार की 'कि करोमि क्व गच्छामि, को नुइरिष्ययति ।' उन्होंने ऊपर देखा और उत्तर दिया 'मा चितय बरारोहे भट्टाचार्योस्ति भूतले ।।' बौद्धमतानुयामी सुघन्वा राजा ने इन्हैं अनेक कष्ट दिये किन्तु अन्त में पराजित होकर वह इनका शिष्य हो गया और सारे देश में दुन्दुभी घोष करा दिया-
व्यादाथाज्ञां ततो राजा बधाय श्रुति विद्विषां ।
आसेतो रातुषाराद्रे, बौद्धानां वृद्धिं घातकम्
नहनिष्यतिय: स हन्तव्य. भृत्यानित्यन्वशानृप ।
इस राजाज्ञा से सारा बौद्ध समाज निरस्त हो गया ।
विद्यारण्य स्वामी लिखते हैं-
बौद्धादि नास्तिकाध्वस्त वेदमार्ग पुरा किल ।
भट्टाचार्य: कुमाररांश: स्थापयामास भूतले ।।4।।
जगदगुरु श्री आद्यशकराचार्य महाराज- इस समय में 452 वि0पू0 में केरल में शंकर भगवान के अवतार श्री आद्य शंकराचार्य सवामी का प्रादुर्भाव हुआ । वे केवल 32 वर्ष ही भूलव पर विराजे किन्तु इतने ��मय में ही उन्होंने सन्यास ग्रहण कर भारत वर्ष के समस्त धरा मण्डल का परिभ्रमण कर वैदिक समातन धर्म की अखन्ड ध्वजा फहरा दी ।
उन्होंने देश की चारों सीमाओं पर उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमट, पूर्व में गोवर्धन मठ और पश्चिम में शारदा मठ के प्रबल धर्म केन्द्र स्थापित किये । वे मथुरा पुरी भी पधारे और माथुरों का मानकर श्री यमुना महारानी के परम भक्ति पूर्ण दो यमुनाष्टक रचकर गान किये । इनमें से एक में "धुनोतु में मनोमलं कलिंदनदिनी सदा" कहकर महर्षि वेद व्यास के कृष्ण गंगा आश्रम पर विराजमान कलिंदी माता जी तथा दूसरे में जय यमुने जय भीति निवारिणि शंकट नाशिनि पावय माम्" कहकर मधुवन चारिणि भास्कर वाहिनि अर्थात् सूर्य सेन पुरी मथुरा के सूर्य सांव तीर्थ से मधुवन में बहने वाली एतिहासिक यमुना धारा की वन्दनात्मक सूचना दी है ।
इन स्तोत्रों में श्री महाराज ने 'तटाँतवास दास हँस ता" "ब्रजपुरवासि जनार्जित पातक हारिणि तथा तव पद पंकज आश्रित मानव कहकर यमुना पुत्र माथुरों की ओर संकेत किया है । इसी महान परम्परा के द्वारिका पीठ के श्री शंकराचार्य स्वामी वर्य ने यहाँ माथुरों पर होता आक्षेप सुनकर एक अति महत्वपूर्ण धर्म व्यवस्था माथुरों को स्नेहाई होकर प्रदान की जो इस प्रकार हैं-
श्री शारदा पीठ द्वारिका के पीठाधीश्वर जगद् गुरु श्री शंकराचार्य स्वामी द्वारा घोषित
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#GodMorningWednesday संत रामपाल जी महाराज हिंदू देवी देवताओ की पूजा नही छुड़वाते। अपितु उनकी शास्त्रानुकूल सतभक्ति बताते है। हमारे शरीर मे श्री गणेश जी, ब्रह्मा जी, सावित्री जी, विष्णु जी, लक्ष्मी जी, शिव जी-पार्वती जी, दुर्गा जी के कमल है। @SaintRampalJiM इनकी सत साधना बताते है।
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. 🍁 *ज्ञान गंगा* 🍁 .
➖ *विवाहातील प्रचलित वर्तमान परंपरांचा त्याग :-* ➖
विवाहात व्यर्थ खर्च बंद करावा लागे��. उदाहरणार्थ मुलीच्या विवाहात मोठी वरात घेऊन येणे, हुंडा देणे, ह्या व्यर्थ परंपरा आहेत. ज्यामुळे मुलगी ही कुटुंबावरील भार समजली जाते आणि तिला गर्भातच खुडण्याचे उद्योग सुरु आहेत. माता-पित्यांसाठी तर हे महापाप आहे. मुलगी देवीचे स्वरूप आहे. आमच्या विकृत परम्परानी मुलीला शत्रू बनविले आहे. श्री देवीपुराणाच्या तीसर्याे स्कंदात याचे प्रमाण आहे कीह्या ब्रह्माण्डाच्या प्रारम्भी तिन्ही देवतांचा (म्हणजेच श्री ब्रह्मदेवजी, श्री विष्णुजी आणि श्री शिवजी) यांचा त्यांची श्री दुर्गादेवीजींनी विवाह केला त्यावेळी कोणी वरात काढली नव्हती किंवा भोजनावळ सुद्धा घातल्या नव्हत्या. ना नाचगाणी होती किंवा बँडबाजा होता. श्री दुर्गादेवीने आपल्या ज्येष्ठ पुत्रास श्री ब्रह्मदेवाला म्हटले की हे ब्रह्मा! ही सावित्री नामक मुलगी तुला पत्नीच्या रूपात देत आहोत. हिला घेऊन जा आणि आपले घर प्रपंच थाट. त्याचप्रमाणे आपल्या मधल्या पुत्राला म्हणजेच श्री विष्णु यांना लक्ष्मीजी आणि कनिष्ठ पुत्र श्री शंकरजींना पार्वतीजी देऊन सांगितले, ह्या तुमच्या पत्नी आहेत. ह्यांना घेऊन जा आणि आपले घर प्रपंच थाटा. तिघेही आपल्या पत्नी बरोबर घेऊन आपल्या लोकात गेले आणि मग जगाचा विस्तार झाला.
*शंका समाधान* :- काही व्यक्ति असे म्हणतात की पार्वतीजीचा मृत्यु झाला. त्या देवीचा पुनर्जन्म राजा दक्षाच्या घरात झाला होता. यौवनात पदार्पण केल्यावर देवी सतीजींनी (पार्वती) नारदाने सांगितल्यानंतर श्री शंकरांना पति म्हणून स्वीकारण्याचा दृढ़ संकल्प करून आपल्या मातेकरवी आपली इच्छा पिता दक्ष याला सांगितली. तेव्हा राजा दक्ष यांनी म्हटले की हे शंकरजी माझे जावई बनण्यायोग्य नाहीत कारण ते नागडे राहतात. एकाच मृगजीन बांधून राहतात आणि शरीरावर राख फासून भांगेच्या नशेत असतात. सर्पांना सोबत ठेवतात. अशा व्यक्तिशी माझ्या मुलीचा विवाह करून जगात मी आपले हसू नाही करून घेणार. परंतु देवी पार्वती सुद्धा जिद्दीला पक्कया होत्या. त्यांनी स्वतःची इच्छा श्रीशंकरजींना कळवली आणि त्यांना सांगितले मी आपल्याशी विवाह करू इच्छीत आहे. राजा दक्षाने पार्वतीजीचा विवाह अन्य कोणासोबत ठरविला होता. त्याच दिवशी श्री शंकरजी आपल्या हजारोंच्या सँख्येतील भूत-प्रेत, भैरव आणि आपल्या गणां सह विवाह मंडपात पोहोचले. राज��� दक्षाच्या सैनिकांनी विरोध केला. शंकारांची सेना आणि दक्षाच्या सेनेत युद्ध झाले. पार्वतीजींनी शंकरजींना वरमाला घातली. श्री शंकरजी पार्वतीजींना बलपूर्वक कैलाश पर्वतावर आपल्या घरी घेऊन गेले. काही व्यक्ति असे म्हणतात की बघा! श्री शंकरजी सुद्धा भव्य अशी वरात घेऊन पार्वतीशी विवाह करण्यास आले होते. त्यामुळे वरातीची परंपरा पुरातन आहे. त्यामुळे वरातीशिवाय विवाहात शोभा येत नाही. त्याचे उत्तर असे आहे की हा विवाह नव्हता तर प्रेम प्रसंग होता. पार्वतीजींना बलपूर्वक इचलून घेऊन जाण्यासाठी श्री शंकरजी वरात नाही तर सेना घेऊन आले होते. विवाहाची पुरातन परम्परा श्री देवी महापुराणाच्या तीसर्यार स्कंदात आहे व ती वर सांगितली आहे. मुले आणि मुलींनी आपल्या माता-पित्याच्या इच्छेनुसार विवाह केला पाहिजे. प्रेम विवाह हे महाक्लेशाचे कारण होऊ शकते. पुढे भगवान शंकरजी आणि पार्वतीजी यांच्यामध्ये काही गोष्टींवरून तंटा झाला. शंकरजींनी पार्वतीजीशी पत्नीचे नाते समाप्त केले व बोलाचाली सुद्धा बंद केली. पार्वतीजींनी विचार केला आता हे घर माझ्यासाठी एक नरकच बनले आहे.त्यामुळे काही दिवस मी आईकडे जाऊन राहते. पार्वतीजी आपल्या पिता दक्षाच्या घरी माहेरी गेल्या. त्या दिवशी राजा दक्ष यांनी एका हवन यज्ञाचे आयोजन केले होते. राजा दक्षाने आपल्या मुलीला सन्मानाने न वागवता म्हटले की आज काय घ्यायला आली आहेस? बघितलेस त्याचे प्रेम, निघून जा माझ्या घरातून. पार्वतीजींनी आपल्या आईस श्री शंकरजी नाराज झाल्याची गोष्ट सांगितली. मातेने आपल्या पतिला सगळे सांगितले होते. पार्वतीजींना ना माहेरी काही स्थान होते ना सासरी. प्रेमविवाहाने अशी गंभीर परिस्थिति उत्पन्न निर्माण केली की दक्ष पुत्रीला आत्महत्या करण्याशिवाय अन्य कोणताही पर्याय उरला नाही आणि राजा दक्षाच्या विशाल हवनकुण्डात जाळून मृत्यू पावल्या. धार्मिक अनुष्ठानाचा नाश केला. आपले अमोल मानवी जीवन गमावून बसल्या. पित्याचाही नाश करवला कारण जेव्हा श्री शंकरजींना हे सर्व माहिती झाल्यावर ते आपली सेना घेऊन तिथे गेले आणि आपले सासरे दक्षजीचे मुंडके छाटून टाकली. नंतर बकर्याऊचे मुंडके लावून जीवित केले. त्या प्रेम विवाहाने कसे घमासान केले. श्री शंकरांच्या सैन्याला वरात असल्याची बतावणी सांगून ह्या कुप्रथेला जन्म दिला आहे. आणि हा प्रसंग प्रेमविवाह रूपी कुप्रथेचा जनक आहे आणि हे समाजाच्या विनाशाचे कारण बनले आहे.
जे विवाह सुप्रथेनुसार झाले, ते आजपर्यंत सुखी जीवन जगत आहेत. जसे श्री ब्रह्मदेवजी आणि श्री विष्णुजी.
*विवाह करण्याचा उद्देश* :- संततीची उत्पाती हाच विवाहाचा उद्देश आहे. मग पति-पत्नी मिळून परिश्रम करून मुलांचे पालन करतात. त्यांचा विवाह करून देतात. मग ते आपले घर थाटतात. त्याशिवाय प्रेमविवाह हे समाजात अशांतिचे बीज पेरत आहेत. समाज बिघडवणारे हे अस्तनीतले निखारे आहेत.
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