#दिल्ली शहर की खबर
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prabudhajanata · 10 months ago
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अयोध्या: (Amitabh Bachchan) राम मंदिर के उद्घाटन के बाद से देशभर से लोग रामलला की दर्शन के लिए अयोध्या पहुंच रहे हैं। आपको बता दें कि अभी हाल में अयोध्या से खबर आई है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी रामलला का दर्शन करने रामनगरी अयोध्या धाम पहुंचे। दर्शन के बाद अमिताभ बच्चन ने मीडिया से बातचीत में कहा कि 22 जनवरी को प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल हुआ और आज भी अयोध्या पहुंचकर रामलला का दर्शन किया। अब तो अयोध्या आना-जाना लगा ही रहेगा। दरअसल अमिताभ बच्चन ने लोढ़ा ग्रुप के जरिए अयोध्या में एक जमीन भी ले रखी है l Amitabh Bachchan वहीं पुरानी बातों को ताजा करते हुए बच्चन ने कहा कि जब मैं कहीं जाता हूं तो लोग कहते हैं आप मुंबई रहते हैं, यहां आना-जाना नहीं होगा। कैसे आपके साथ ताल्लुक बढ़ाया जाएगा, तो बाबूजी (हरिबंशराय बच्चन) ने एक बात कही थी वह कहावत भी अवधी में है। हमारी पैदाइश इलाहाबाद की है, हम दिल्ली रहे कोलकाता रहे, मुंबई रहे, आपका ताल्लुक है उत्तर प्रदेश से l बच्चन ने बताया कि बाबूजी कहते थे एक कहावत है अवधी में, ‘हाथी घूमे गांव-गांव, जेके हाथी वही कै नाव’, यह सच है कि हम इलाहाबाद में रहे, कोलकाता में रहे, दिल्ली में रहे, मुंबई में रहे लेकिन जहां कहीं भी रहे कहलाए गए छोरा गंगा किनारे वाला। अमिताभ बच्चन ने शहर के सिविल लाइन स्थित एक ज्वेलर्स शोरूम का उद्घाटन भी किया l https://twitter.com/PTI_News/status/1755832666056749122?s=20
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hindinewsmanch · 11 months ago
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UP News : उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद से एक अजब गजब खबर सामने आई है। यहां पर एक डाक्टर पत्नी अपने डाक्टर पति के साथ सोने के लिए न केवल तरस रही है, बल्कि तड़प भी रही है। मामला इतना हाईप्रोफाइल फैमिली से जुड़ा हुआ है और अब कोर्ट तक पहुंच गया है। मामला कोर्ट में पहुंचा तो डाक्टर पति जहां तलाक मांग रहा है, वहीं डाक्टर पत्नी तलाक देने से मना कर रही है।
आपको बता दें कि यह मामला सहारनपुर शहर के दिल्ली रोड स्थित ​एक पॉश कालोनी का है। यहां पर एक डाक्टर और उसकी पत्नी की शादी कुछ समय पहले हुई थी। बताया जाता है कि डाक्टर पति शादी के बाद से ही अपनी पत्नी के साथ नहीं सोता है। डाक्टर पत्नी का कहना है कि उसका पति अच्छा डाक्टर है, लेकिन पति धर्म नहीं निभा रहा है। पति को रात में अपनी पत्नी के साथ सोना चाहिए, लेकिन उसका डाक्टर पति उसे छोड़कर अपनी मां के कमरे में सोता है। जिस वजह से वह बेहद ही टेंशन में हैं।
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sarkariyojanainfo · 1 year ago
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LPG की दर में कटौती: भारतीय उपभोक्ताओं के लिए राहत की खबर
बहुत अच्छी खबर LPG की दर में कटौती, कितनी कमी हुई है?
परिचय
LPG की दर में कटौती: भारतीय घरों के लिए एक प्रसन्नता के मोमें, शुद्ध पेट्रोलियम गैस (LPG) की कीमतों में एक महत्वपूर्ण अवलोकन हुआ है। इस विकास ने सामान्य कनेक्शन उपयोगकर्ताओं और विशेष रूप से उज्ज्वला लाभार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण घटान की तरफ बड़ी राहत की है। मूल दर में गिरावट के साथ, उपभोक्ताएं अब अपने घरों को ईंधन प्रदान करने के लिए एक और बजट-मित्रित दृष्टिकोण की ओर बढ़ सकती हैं।
मूलभूत दर कमी का विवरण
LPG मूलभूत दरों में कमी भारतीय ऊर्जा परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण पल की निशानी है। 30 अगस्त 2023 के रूप में, सामान्य कनेक्शन उपयोगकर्ताओं के लिए LPG सिलेंडर की कीमतों में Rs 200 और विशेष रूप से उज्ज्वला योजना से लाभान्वित होने वालों के लिए धारा धार की कीमत में Rs 400 की कटौती हुई है। यह दर समायोजन, एक बेहद प्रतीक्षित आराम, मई 2022 में हुई पिछली कीमत सुधार के बाद एक महत्वपूर्ण दौर की परिभाषा है। On Raksha Bandhan, PM @narendramodi gifts a priceless gesture to sisters across India. The price drop of LPG cylinders will bring relief and happiness to 33 crore citizens, illuminating homes with warmth and affordability.#RakshaBandhanWithPMModi#UjjwalaSeUjjwalGhar… pic.twitter.com/a7u1KzvQaY— MyGovIndia (@mygovindia) August 29, 2023
कारण-भूत कारक: कूदते हुए कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट
भारत सरकार इस सकारात्मक परिवर्तन की श्रेय को अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में कूद में देती है। पिछले महीने में, ब्रेंट कच्चे तेल की कीमतों में 10% से अधिक की गिरावट आई है। यह विश्वस्तरीय कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट ने भारतीय घरों को सस्ते LPG दरों के वित्तीय लाभों का आनंद लेने की राह खोल दी है।
उज्ज्वला लाभार्थियों के लिए दोहरी आनंद
उज्ज्वला योजना, जिसका उद्देश्य आर्थिक रूप से पिछड़े हुए परिवारों की महिलाओं को सस्ते पैकी गैस प्रदान करना है, इस कीमत घटाव में दोहरा लाभ प्राप्त कर रही है। उज्ज्वला उपभोक्ताएं एक अतिरिक्त सब्सिडी राशि के रूप में Rs 200 प्राप्त करेंगी, जिससे कीमत में हुई कटौती की राहत को बढ़ावा मिलेगा। इस स िलेंडर की कीमत और सब्सिडी में दोनों की कटौती के इस संयोजन से उज्ज्वला लाभार्थियों को कुल Rs 400 की बचत हो सकती है। https://www.youtube.com/watch?v=HvO6yahJ3YA
प्रमुख शहरों में नए दर
LPG की कीमत में कमी विभिन्न प्रमुख शहरों में विशिष्ट रूप से प्रकट होगी। यहां कुछ प्रमुख शहरों में संशोधित दरों की एक झलक है: दिल्ली दिल्ली में 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत अब Rs 1099 से नीचे होगी, पहले Rs 899। मुंबई मुंबई में, 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1149 से Rs 949 हो जाएगी। कोलकाता कोलकाता शहर में 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1079 से Rs 879 हो जाएगी। चेन्नई चेन्नई निवासियों को एक 14.2 किलोग्राम के सिलेंडर की कीमत में गिरावट का अनुभव करने को मिलेगा, नयी कीमत Rs 1129 से घटकर Rs 929। हैदराबाद हैदराबाद निवासियों के लिए LPG सिलेंडर की कीमत अब Rs 1069 से Rs 869 होगी। अहमदाबाद अहमदाबाद में, 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1119 से Rs 919 हो जाएगी, एक महत्वपूर्ण कटौती। लखनऊ लखनऊ निवासियों के लिए 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1089 से Rs 889 हो जाएगी। बैंगलोर बैंगलोर वालों के लिए एक 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1119 से घटकर Rs 919 हो जाएगी। पटना पटना में, 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1099 से Rs 899 हो जाएगी। जयपुर गुलाबी शहर, जयपुर, में एक 14.2 किलोग्राम के LPG सिलेंडर की कीमत Rs 1109 से Rs 909 हो जाएगी। CITYDOMESTIC (14.2 KG)COMMERCIAL (19 KG)Alipurduar₹ 956.50 ( -200)₹ 2039.50 ( -93)Bankura₹ 941.50 ( -200)₹ 1819.50 ( -93)Birbhum₹ 960.50 ( -200)₹ 1853.50 ( -93)Cooch Bihar₹ 956.50 ( -200)₹ 2038.00 ( -93)Dakshin Dinajpur₹ 1,001.50 ( -200)₹ 1965.50 ( -93)Darjeeling₹ 956 ( -200)₹ 2050.50 ( -93)Hooghly₹ 932 ( -200)₹ 1809.00 ( -93)Howrah₹ 930.50 ( -200)₹ 1807.00 ( -93)Jalpaiguri₹ 956.50 ( -200)₹ 2042.50 ( -93)Jhargram₹ 921.50 ( -200)₹ 1763.00 ( -93)Kalimpong₹ 1,058.50 ( -200)₹ 2200.00 ( -93)Kolkata₹ 929 ( -200)₹ 1802.50 ( -93)Malda₹ 1,000 ( -200)₹ 1961.00 ( -93)Murshidabad₹ 947 ( -200)₹ 1835.00 ( -93)Nadia₹ 929.50 ( -200)₹ 1803.50 ( -93)North 24 Parganas₹ 929 ( -200)₹ 1802.50 ( -93)Paschim Bardhaman₹ 942.50 ( -200)₹ 1820.50 ( -93)Paschim Medinipur₹ 922 ( -200)₹ 1759.50 ( -93)Purba Bardhaman₹ 942.50 ( -200)₹ 1820.50 ( -93)Purba Medinipur₹ 905 ( -200)₹ 1733.50 ( -93)Purulia₹ 958 ( -200)₹ 1845.00 ( -93)South 24 Parganas₹ 937.50 ( -200)₹ 1816.00 ( -93)Uttar Dinajpur₹ 1,001.50 ( -200)₹ 1965.50 ( -93)
निष्कर्ष
संक्षेप में, भारत में LPG की कीमतों में कटौती घरों के लिए वित्तीय आराम की एक किरण प्रदान करती है, जो वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में घटाव के साथ साथ अनुसरण करती है। मूल दरों में बड़ी कटौतियों के साथ, सामान्य कनेक्शन उपयोगकर्ताएं और उज्ज्वला लाभार्थियाँ आर्थिक दुर्घटनाओं से अधिक सस्ती और सामर्थ्यशील ऊर्जा समाधानों की प्रतिष्ठा के लिए एक सकारात्मक कदम के रूप में देख सकती हैं।
पूछे जाने वाले प्रश्न
नई LPG की कब प्रभावित होगी?संशोधित LPG दरें 30 अगस्त, 2023 से प्रभावी होंगी।इस कटौती से सबसे ज्यादा कौन फायदा उठाता है?सामान्य कनेक्शन उपयोगकर्ता और उज्ज्वला लाभार्थियों दोनों कटौती से विशेष फायदा उठाते हैं।LPG कीमतों में कमी की पीछे की क्या वजह है?अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में कमी की वजह से यह सकारात्मक परिवर्तन हुआ है, खासकर ब्रेंट कच्चे तेल की कीमतों में।उज्ज्वला लाभार्थियों को कितना अतिरिक्त लाभ मिलता है?उज्ज्वला उपभोक्ताएं अतिरिक्त सब्सिडी राशि Rs 200 के रूप में प्राप्त करती हैं, जो कीमत में हुई कटौती की राहत को बढ़ावा देता है।क्या यह 2022 के बाद पहली कीमत में कटौती है?हां, यह मई 2022 के बाद LPG की कीमतों में पहली कटौती है। Read the full article
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nationalnewsindia · 1 year ago
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best24news · 2 years ago
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Haryana News: इस शहर में 723 करोड़ की लागत से बनेगा एलिवेटेड, जाम से मिलेगी मुक्ति
Haryana News: इस शहर में 723 करोड़ की लागत से बनेगा एलिवेटेड, जाम से मिलेगी मुक्ति
हरियाणा: हिसारवासियो के लिए बडी खुशी की खबर है। करीब 723 करोड की लागत से 8.5 किलोमीटर लंबा एलिवेटिड रोड बनाया जाएगा। हरियाणा के डिप्टी सीएमदुष्यंत चौटाला ने बताया कि हिसार में पुराने दिल्ली-हिसार- सिरसा रोड़ पर लोक निर्माण विभाग एलिवेटिड रोड बनाया जाएगा। यह रोड़ सिरसा चुंगी से लेकर जिंदल फैक्ट्री के पास फ्लाइओवर तक बनेगा। हरियाणा के डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला ने अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि…
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mwsnewshindi · 2 years ago
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स्टीफेंस के प्राचार्य की नियुक्ति पर डीयू दुगना
स्टीफेंस के प्राचार्य की नियुक्ति पर डीयू दुगना
विश्वविद्यालय दिल्ली प्रिंसिपल की नियुक्ति के मामले पर एक बार फिर सेंट स्टीफंस कॉलेज के शासी निकाय को लिखा है, जिसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय “प्रोफेसर जॉन वर्गीज को उनके प���ंच साल के कार्यकाल समाप्त होने के बाद से कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में मान्यता नहीं देने के लिए विवश है”, और कॉलेज को यूजीसी के नियमों क�� पालन करने को कहा। संयुक्त रजिस्ट्रार (कॉलेजों) की ओर से शासी निकाय के अध्यक्ष को…
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lok-shakti · 3 years ago
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फरीदाबाद: 'गोहत्या' पर भ्रामक सामग्री पोस्ट करने के आरोप में दो गिरफ्तार
फरीदाबाद: ‘गोहत्या’ पर भ्रामक सामग्री पोस्ट करने के आरोप में दो गिरफ्तार
फरीदाबाद पुलिस ने जिले में कथित गोहत्या से संबंधित सोशल मीडिया पर भड़काऊ और भ्रामक सामग्री पोस्ट करने के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया है। पुलिस ने बताया कि आरोपी की पहचान दिल्ली निवासी कमल तंवर और पलवल के एक यूट्यूब चैनल चलाने वाले योगेश के रूप में हुई है। पुलिस ने कहा कि सोशल मीडिया पर अपलोड किए गए दो वीडियो में दावा किया गया है कि मृत गायों के अवशेष सूरजकुंड इलाके में पहाड़ियों में पड़े…
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currentnewsss · 3 years ago
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नमाज फिर बाधित हुई क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने 'हेलिकॉप्टर दुर्घटना पीड़ितों के शोक' के लिए कार्यक्रम आयोजित किया
नमाज फिर बाधित हुई क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने ‘हेलिकॉप्टर दुर्घटना पीड़ितों के शोक’ के लिए कार्यक्रम आयोजित किया
खांडसा, मोहम्मदपुर झारसा, बेगमपुर खटोला गांवों के कुछ निवासियों और दक्षिणपंथी समूहों के सदस्यों ने शुक्रवार को गुड़गांव के सेक्टर 37 पुलिस स्टेशन के बाहर एक निर्दिष्ट नमाज स्थल पर कब्जा कर लिया और सीडीएस को श्रद्धांजलि देने के लिए एक “शोक सभा” की। बिपिन रावत और अन्य बुधवार के हेलीकाप्टर दुर्घटना में मारे गए। समूह ने मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को जुमे की नमाज अदा करने की अनुमति नहीं दी, जो सेक्टर…
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allgyan · 4 years ago
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म्यांमार जिसे हम वर्मा के नाम से भी जानते है -
म्यांमार दक्षिण एशिया का एक देश है |इसका पुराना अंग्रेज़ी नाम बर्मा था जो यहाँ के सर्वाधिक मात्रा में आबाद जाति (नस्ल) बर्मी के नाम पर रखा गया था|इसके उत्तर में चीन, पश्चिम में भारत, बांग्लादेश एवम् हिन्द महासागर तथा दक्षिण एवंम पूर्व की दिशा में थाईलैंड एवं लाओस देश स्थित हैं।यह भारत एवम चीन के बीच एक रोधक राज्य का भी काम करता है। इसकी राजधानी नाएप्यीडॉ और सबसे बड़ा शहर देश की पूर्व राजधानी यांगून है, जिसका पूर्व नाम रंगून था| म्यांमार को सात राज्य और सात मण्डल मे विभाजित किया गया है। जिस क्षेत्र मे बर्मी लोगों की जनसंख्या अधिक है उसे मण्डल कहा जाता है। राज्य वह मण्डल है, जो किसी विशेष जातीय अल्पसंख्यकों का घर हो।यहाँ 2011 पहले तक सैन्य शासन था |आज जब खबर आयी की म्यांमार में तख्तापलट हो गया है तो हम भी सोचों की आपको इसके बारे प्रकाश डाला जाये |
म्यांमार में सेना और सरकार के बीच टकराव -
म्यांमार में सेना और सरकार के बीच नवम्बर से ही तनाव देखने को मिल रहा था |क्योकि म्यांमार में नवंबर में ही आम चुनाव हुए थे और उस चुनाव में चुनावी नतीजों में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने 83% स��टें जीत ली थीं| इस चुनाव को कई लोगों को आंग सान सू ची सरकार के जनमत संग्रह के रूप में देखा| साल 2011 में सैन्य शासन ख़त्म होने के बाद से ये दूसरा चुनाव था|चुनाव में सू ची की पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने भारी अंतर से जीत हासिल की थी लेकिन वहाँ की सेना का दावा था कि चुनाव में धोखाधड़ी हुई है |सेना की ओर से सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और चुनाव आयोग के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ शिकायत की गई थी|
सेना ने लगाया था सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप -
हाल ही में सेना द्वारा कथित भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करने की धमकी देने के बाद तख़्तापलट की आशंकाएं पैदा हो गई हैं|हालांकि, चुनाव आयोग ने इन सभी आरोपों का खंडन किया था |लेकिन सोमवार जैसे ही ये खबर आयी है पूरी दुनिया में हलचल पैदा हो गयी है |सेना ने सोमवार को कहा कि उसने सत्ता सैन्य प्रमुख मिन आंग लाइंग को सौंप दी है|सेना का ये क़दम दस साल पहले उसी के बनाए संविधान का उल्लंघन है |उनका कहना है कि सेना ने पिछले शनिवार को ही कहा था कि वो संविधान का पालन करेगी |इस संविधान के तहत सेना को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है लेकिन आंग सान सू ची जैसे नेताओं को हिरासत में लेना एक ख़तरनाक और उकसाने वाला कदम हो सकता है जिसका कड़ा विरोध देखा जा सकता है|
तख़्तापलट से नागरिकों क्यों हो रही है समस्या -
म्यांमार पे पूरी तरह सेना का शासन हो गया है और देश में आपातकाल लग गया है | म्यांमार के बड़े शहरों में मोबाइल इंटरनेट डेटा और फोन सर्विस बंद हो गई हैं|सरकारी चैनल एमआरटीवी ने तकनीकी समस्याओं का हवाला दिया है और प्रसारण बंद हो चुका है|म्यांमार की राजधानी नेपिडॉ के साथ संपर्क टूट चुका है और वहां संपर्क साधना मुश्किल हो गया है|म्यांमार की पूर्व राजधानी और सबसे बड़े शहर यंगून में फोन लाइन और इंटरनेट कनेक्शन सीमित हो गया है|कई सेवा प्रदाताओं ने अपनी सेवाएं बंद करना शुरू कर दिया है|बीबीसी वर्ल्ड न्यूज़ टेलीविज़न समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रसारकों को ब्लॉक कर दिया गया है| और स्थानीय स्टेशन ऑफ़ एयर कर दिए गए हैं|यंगून में स्थानीय लोगों ने आने वाले दिनों में नकदी की कमी पड़ने की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए एटीएम के सामने लाइन लगाना शुरू कर दिया है|जैसी लम्बी -लम्बी लाइन भारत में नोटबंदी के समय लगी थी |
आंग सान सू की की गिरफ़्तारी क्यों ?
आंग सान सू की म्यांमार की सर्वच्या नेता है |वे बर��मा (इस समय म्यांमार )के राष्ट्रपिता आंग सान की पुत्री हैं |उनका जन्म 19 जून 1945 को रंगून में हुआ था | आंग सान सू लोकतांत्रिक तरीके से चुन�� गई प्रधानमंत्री, प्रमुख विपक्षी नेता और म्यांमार की नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की नेता रही है |लोकतंत्र के लिए आंग सान के संघर्ष का प्रतीक बर्मा में पिछले 20  वर्ष में कैद में बिताए गए 14  साल गवाह हैं। बर्मा की सैनिक सरकार ने उन्हें पिछले कई वर्षों से घर पर नजरबंद रखा हुआ था। इन्हें १३ नवम्बर २०१० को रिहा किया गया है।जैसा की मैंने बताया था की म्यांमार में 2011 से ही लोकतंत्र स्थापित किया गया था | उनके पिता भी अंग्रेज़ों से लड़े थे थे लेकिन उनकी हत्या कर दी गयी थी | इनके खून में ही राजनीती थी |
आंग सान सू का भारत से कनेक्शन -
आंग सान सू  का भारत से गहरा रिश्ता है |पिता की हत्या के बाद इनकी माता को म्यांमार में  एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में प्रसिद्ध मिली और इन्हे भारत और नेपाल की राजदूत नियुक्त किया गया |अपनी मां के साथ रह रही आंग सान सू की ने लेडी श्रीराम कॉलेज, नई दिल्ली से 1964  में राजनीति विज्ञान में स्नातक करी|वैसे तो सू पढ़ाई में बहुत अच्छी थी |आगे की पढाई ऑक्सफोर्ड में जारी रखते हुए दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र में 1969  में डिग्री हासिल की। स्नातक करने के बाद वह न्यूयॉर्क शहर में परिवार के एक दोस्त के साथ रहते हुए संयुक्त राष्ट्र में तीन साल के लिए काम किया|
आंग सान सू की राजनीती और परिवार पर प्रभाव -
1972  में आंग सान सू की ने तिब्बती संस्कृति के एक विद्वान और भूटान में रह रहे डॉ॰ माइकल ऐरिस से शादी की। उसके बाद सू ने लंदन में उन्होंने अपने पहले बेटे, अलेक्जेंडर ऐरिस, को जन्म दिया। उनका दूसरा बेटा किम 1977  में पैदा हुआ। इसके बाद उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में से 1985 में पीएच .डी हासिल की।1988 में सू की बर्मा अपनी बीमार माँ की सेवा के लिए लौट आईं, लेकिन बाद में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 1995 में क्रिसमस के दौरान माइकल की बर्मा में सू की आखिरी मुलाकात साबित हुई क्योंकि इसके बाद बर्मा( म्यांमार)सरकार ने माइकल को प्रवेश के लिए वीसा देने से इंकार कर दिया।
1997 में माइकल को प्रोस्टेट कैंसर होना पाया गया, जिसका बाद में उपचार किया गया। इसके बाद अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ और पोप जान पाल द्वितीय द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बर्मी सरकार ने उन्हें वीसा देने से यह कहकर इंकार कर दिया की उनके देश में उनके इलाज के लिए माकूल सुविधाएं नहीं हैं। इसके एवज में सू की को देश छोड़ने की इजाजत दे दी गई, लेकिन सू की ने देश में पुनः प्रवेश पर पाबंदी ��गाए जाने की आशंका के मद्देनजर बर्मा छोड़कर नहीं गईं।माइकल का उनके 53वें जन्मदिन पर देहांत हो गया।1989 में अपनी पत्नी की नजरबंदी के बाद से माइकल उनसे केवल पाँच बार मिले। सू की के बच्चे आज अपनी मां से अलग ब्रिटेन में रहते हैं।इसलिए जब कभी आप संघर्ष करते हो तो बहुत कुछ दाँव पर लगाना पड़ता है | और तो और इन्हे शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिल चूका है |अब देखना होगा की आगे म्यांमार की सैन्य शासन म्यांमार को कहा तक ले जाता है | हमारा काम है आप तक खबर के हर पहलु को पहुँचाना है |
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hindinewsmanch · 1 year ago
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Noida News : उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर से इस समय बड़ी खबर आ रही है। साइबर ठगों का हब बनते जा रहे नोएडा में देश के पूर्व रक्षा सचिव व पूर्व उपराज्यपाल भी सुरक्षित नहीं है। साइबर ठगों ने देश के एक पूर्व उप राज्यपाल को अपना शिकार बनाया है। ठगों ने पूर्व उप राज्यपाल का बैंक एकाउंट पूरी तरह से खाली कर दिया है।
लद्दाख के पूर्व उपराज्यपाल के साथ धोखाधड़ी
साइबर ठगों ने नोएडा के सेक्टर 128 में स्थित कालिस्पो कोर्ट टावर 1 जेपी विश टाउन सोसायटी में रह रहे देश के पूर्व रक्षा सचिव तथा केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के पूर्व उपराज्यपाल राधाकृष्ण माथुर को ठगी का शिकार बनाया है। पूर्व उपराज्यपाल ने थाना सेक्टर 126 में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि उनका एसबीआई दिल्ली के निर्माण भवन स्थित शाखा में बैंक अकाउंट है। उनके अकाउंट में इंटरनेट बैंकिंग के माध्यम से तीन बार में 2 लाख 28360 रुपये की ट्रांजैक्शन की गई।
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bakaity-poetry · 5 years ago
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कोरोना डायरी / अभिषेक श्रीवास्तव
22 मार्च, 2020
कम से कम छह किस्म की चिड़ियों की आवाज़ आ रही है।
कबूतर सांस ले रहे हैं, गोया हांफ रहे हों। तोते फर्र फुर्र करते हुए टें टें मचाये हुए हैं। एक झींगुरनुमा आवाज़ है, तो एक चुकचुकहवा जैसी। एक चिड़िया सीटी बजा रही है। दूसरी ट्वीट ट्वीट कर रही है। इसी कोरस में कहीं से चियांओ चियांओ, कभी कभी टिल्ल टिल्ल टाइप ध्वनि भी पकड़ में आती है। पूरा मोहल्ला अजायबघर हुआ पड़ा है।
अकेले कुत्ते हैं जो सदियों बाद धरती पर अपने सबसे अच्छे दोस्त मनुष्य की गैर-मौजूदगी ��े हैरान परेशान हैं। उनसे बोला भी नहीं जा रहा। वे आसमान की ओर देख कर कूंकते हैं, फिर कंक्रीट पर लोटते हुए चारों टांगें अंतरिक्ष में फेंक देते हैं। कुछ दूर दौड़ कर पार्क के गेट तक आते हैं। ताला बंद पाकर वापस गली में पहुंच जाते हैं। दाएं बाएं बालकनियों को निहारते हैं। रेंगनियों पर केवल सूखते कपड़े नज़र आते हैं।
इंसान अपने पिंजरे में कैद है। जानवरों से दुनिया आबाद है। ये सन्नाटा नहीं, किसी अज़ाब के गिरने की आहट है।
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शाम से बिलकुल तस्कर टाइप फील हो रहा है।
दो दिन पहले रजनी तुलसी का स्टॉक भरने का ख़याल आया था। आश्वासन मिला कि ज़रूरत नहीं है, सब मिलेगा, यहीं मिलेगा। मैंने चेताया कि बॉस, कर्फ्यू है, घंटा मिलेगा। जवाब मिला, जनता का कर्फ्यू है, स्वेच्छा का मामला है, दिक्कत नहीं होगी। शाम को जब स्टॉक खत्म हुआ, तो दैनिक सहजता के साथ मैं चौराहे पर निकला। सब बंद था। केवल मदर डेयरी खुली थी। लगे हाथ दूध ले लिया। दूध को चबाया नहीं जा सकता यह मैं अच्छे से जानता हूं। संकट सघन था, अजब मन था। आदमी को काम पर लगाया गया। तम्बाकू की संभावना देख भीड़ जुट गयी। इसी बीच किसी ने मुखबिरी कर दी।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। आगे पीछे से हूटर बजाती पुलिस की जीपों और पुलिस मित्र जनता की निगहबानी के बीच एक डब्बा रजनी और दो ज़िपर तुलसी मैंने पार कर दी। इमरजेंसी के बीच गांजे का जुगाड़ करने मित्र के यहां गए कानपुर के उस नेता की याद बरबस हो आयी जो विजया भाव से लौटते वक्त बीच में धरा गये थे और आज तक आपातकाल के स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन समाजवादी पार्टी से पाते हैं।
तस्करी के माल का रस ले लेकर तब से सोच रहा हूं, काश यह संवैधानिक इमरजेंसी होती। मोदीजी भी न! राफेल से लेकर कर्फ्यू तक, हर काम off the shelf करते हैं!
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24 मार्च, 2020
आधी रात जा चुकी। आधी बच रही है। घर में दो दिन बंद हुए भारी पड़ रहे हैं पड़ोसी को। इस वक़्त चिल्ला रहा है। बीवी को चुप करा रहा है। परसों मेरे ऊपर वाले फ्लैट में विदेश से कुछ लोग वापस लौटे और ट्रक में सामान लोड करवाने लगे। कल बचा हुआ सामान लेने आए थे, कि पुलिस बुला ली गई। खबर फैली कि लोग इटली से आए थे। असामाजिक सोसा��टियों में नेतागिरी के नए ठौर RWA के सदस्यों को चिल्लाने का बहाना मिल गया। मीटिंग जमी। बगल वाली सोसायटी में कोई दुबई से आया था, वहां भी पुलिस अाई।
लोगों को अपनी पॉवर दिखाने का नया बहाना मिला है। जनता पहली बार जनता के लिए पुलिस बुलवा रही है। दिल्ली पुलिस बरसों से कह रही है, हमारे आंख कान बनो। मौका अब आया है। एक मित्र बता रहे थे कि शहर से जो गांव जा रहा है, गांव वाले उसकी रिपोर्ट थाने में दे रहे हैं। मित्र नवीन के लिए पुलिस नहीं बुलवानी पड़ी, उन्हें रास्ते में ही पुलिसवालों ने पीट दिया। एक वायरस ने यहां पुलिस स्टेट को न सिर्फ और मजबूत बना दिया है, बल्कि स्वीकार्य भी। सड़क पर कोई कुचल जाता है तो लोग मुंह फेर कर निकल लेते हैं। अब कोई खांस दे रहा है तो लोग सौ नंबर दबा दे रहे हैं।
समय बदल चुका है। यह बात झूठी है कि बाढ़ आती है तो सांप और नेवला एक पेड़ पर चढ़ जाते हैं। हर बाढ़ सांप को और ज़हरीला बनाती है, नेक्लों को और कटहा। अनुभव बताते हैं कि अकाल के दौर में मनुष्य नरभक्षी हुआ है। चिंपांज़ी पर पावलोव का प्रयोग सौ साल पहले यही सिखा गया है। जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की नींव कमजोर पड़ रही है, वे गलती पर हैं। यह नवउदारवाद का पोस्ट कैपिटलिस्ट यानी उत्तर पूंजीवादी संक्रमण है जहां पूंजीवाद और लोकतंत्र के बुनियादी आदर्श भी फेल हो जाने हैं। आदमी के आदमी बचने की गुंजाइश खत्म होती दिखती है गोकि आदमी की औकात एक अदद वायरस ने नाप दी है।
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25 मार्च, 2020
मेरा दोस्त मकनपुर रोड को खारदुंगला पास कहता है। आज प्रधान जी के ऐलान के बाद पहली बार उसके कहे का अहसास हुआ। पैदल तो पैदल, गाड़ीवाले भी भाक्काटे के मूड में लहरा रहे थे। पहला नज़ारा गली में पतंजलि और श्रीश्री की ज्वाइंट दुकान। बंटोरा बंटोरी चल रही थी। सामने परचून वाले के यहां जनता का शटर लगा हुआ था, कुछ नहीं दिख रहा था। मदर डेयरी के बाहर कोई तीसेक लोगों की कतार। सब्ज़ी वाला हलवाई बन चुका था, बचे खुचे प्याज और टमाटर गुलाबजामुन हो गए थे और इंसान मक्खी। प्याज पर जब हमला हुआ तो खुद दुकान के भीतर से एक आदमी आकर छिलके में से कुछ चुनने लगा। मैंने तरेरा, तो बोला - घरे भी ले जाना है न!
आज पहली बार पता चला कि केवल त्यागीजी की चक्की का आटा लोग यहां नहीं खाते। दो लोकप्रिय विकल्प और हैं। मैं दूसरी चक्की में नंबर लगवा के निकल लिया। लौट���े के बाद भी आटा मिलने में पंद्रह मिनट लगा। चीनी गायब थी। नमक गायब। चावल लहरा चुका था। तेल फिसल गया था। एक जगह नमक मांगा। बोला पैंतीस वाला है। जब सत्ताईस का आटा अड़तीस में लिया, तो नमक से कैसी नमक हरामी। तुरंत दबा लिया। एटीएम खाली हो चुका था, कैश क्रंच है। ग्रोफर वाले ने ऑर्डर डिलिवरी को मीयाद अब बढ़ा कर 6 अप्रैल कर दी है। सोचा लगे हाथ मैगी के पैकेट दबा दिए जाएं।
एक दुकान पर पूरी शेल्फ पीली नज़र आती थी। दशकों का अनुभव है, आंख से सूंघ लिया मैंने कि मैगी है। मैंने कहा - अंकल, दस पैकेट दस वाले। अंकल ने बारह वाले पांच पकड़ाए और बोले - बस! मैंने पांच और की ज़िच की। उन्होंने समझाया - बेटे, और लोग भी हैं, सब थोड़ा थोड़ा खाएं, क्या हर्ज़ है! अंकल लाहौर से आए थे आज़ादी के ज़माने में, शायद तकसीम का मंज़र उन्हें याद हो। वरना ऐसी बातें आजकल कहां सुनने को मिलती हैं। जिस बदहवासी में लोग सड़कों पर निकले थे, ऐसी बात कहने वाले का लिंच होना बदा था। क्या जाने हो ही जाए ऐसा कुछ, अभी तो पूरे इक्कीस दिन बाकी हैं।
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आज बहुत लोगों से फोन पर बात हुई। चौथा दिन है बंदी का, लग रहा है कि लोग हांफना शुरू कर चुके हैं। अचानक मिली छुट्टी वाला शुरुआती उत्साह छीज रहा है। चेहरे पर हवा उड़ने लगी है। कितना नेटफ्लिक्स देखें, कितना फेसबुक करें, कितना फोन पर एक ही चीज के बारे में बात करें, कितनी अफ़वाह फैलाएं वॉट्सएप से? कायदे से चार दिन एक जगह नहीं टिक पा रहे हैं लोग, चकरघिन्नी बने हुए हैं जैसे सबके पैर में चक्र हो। ये सब समाज में अस्वस्थता के लक्षण हैं। अस्वस्थ समाज लाला का जिन्न होता है, हुकुम के बगैर जी नहीं सकता।
स्वस्थ समाज, स्वस्थ आदमी, मने स्व में स्थित। स्व में जो स्थित है, उसे गति नहीं पकड़ती। गति को वह अपनी मर्ज़ी से पकड़ता है। गति में भी स्थिर रहता है। अब सारी अवस्थिति, सारी चेतना हमारी, बाहर की ओर लक्षित रही इतने साल। हमने शतरंज खेलना छोड़ दिया। हॉकी को कौन पूछे, खुद हॉकी वाले छोटे छोटे पास देने की पारंपरिक कला भूल गए। क्रिकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी का कब्ज़ा हो गया। घर में अंत्याक्षरी खेले कितनों को कितने बरस हुए? किताब पढ़ना भूल जाइए ट्विटर के दौर में, उतना श्रम पैसा मिलने पर भी लोग न करें। खाली बैठ कर सोचना भी एक काम है, लेकिन ऐसा कहने वाला आज पागल करार दिया जाएगा।
ये इक्कीस दिन आर्थिक और सामाजिक रूप से भले विनाशक साबित हों, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर इसका असर बुनियादी और दीर्घकालिक होगा। बीते पच्चीस साल में मनुष्य से कंज्यूमर बने लोगों की विकृत सांस्कृतिकता, आधुनिकता के कई अंधेरे पहलू सामने आएंगे। कुछ लोग शायद ठहर जाएं। अदृश्य गुलामियों को पहचान जाएं। रुक कर सोचें, क्या पाया, क्या खोया। बाकी ज़्यादातर मध्यवर्ग एक पक चुके नासूर की तरह फूटेगा क्योंकि संस्कृति के मोर्चे पर जिन्हें काम करना था, वे सब के सब राजनीतिक हो गए हैं। जो कुसंस्कृति के वाहक थे, वे संस्कार सिखा रहे हैं।
गाड़ी का स्टीयरिंग बहुत पहले दाहिने हाथ आ गया था, दिक्कत ये है कि चालक कच्चा है। उसने गाड़ी बैकगियर में लगा दी है और रियर व्यू मिरर फूटा हुआ है। सवारी बेसब्र है। उसे रोमांच चाहिए। इस गाड़ी का लड़ना तय है। तीन हफ्ते की नाकाबंदी में ऐक्सिडेंट होगा। सवारी के सिर से खून नहीं निकलेगा। मूर्खता, पाखंड, जड़ता का गाढ़ा मवाद निकलेगा। भेजा खुलकर बिखर जाएगा सरेराह। जिस दिन कर्फ्यू टूटेगा, स्वच्छता अभियान वाले उस सुबह मगज बंटोर के ले जाएंगे और रिप्रोग्राम कर देंगे। एक बार फिर हम गुलामियों को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित कर के रेत में सिर गड़ा लेंगे।
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27 मार्च, 2020
एक राज्य के फलाने के माध्यम से दूसरे राज्य से ढेकाने का फोन आया: "भाई साहब, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी, मुझे किसी तरह यहां से निकालो। फंसा हुआ हूं, पहुंचना ज़रूरी है। मेरे लोग परेशान हैं।" अकेले निकालना होता तो मैं सोचता। साथ में एक झंडी लगी बड़ी सी गाड़ी भी थी जो देखते ही पुलिस की निगाह में गड़ जाती। वैसे सज्जन पुरुष थे। नेता थे। दो बार के विधायकी के असफल प्रत्याशी। समस्या एक नहीं, दो राज्यों की सीमा पार करवाने की थी। उनकी समस्या घर पहुंचने की नहीं क्योंकि वे घर में ही थे। समस्या अपने क्षेत्र और लोगों के बीच पहुंचने की थी। ज़ाहिर है, इन्हें गाड़ी से ही जाना था।
एक और फोन आया किसी के माध्यम से किसी का। यहां घर पहुंचने की ऐसी अदम्य बेचैनी थी कि आदमी पैदल ही निकल चुका था अपने जैसों के साथ। तीन राज्य पार घर के लिए। ये भी सज्जन था। इसे बस घरवालों की चिंता थी। वो पहुंचता, तब जाकर राशन का इंतजाम होता उसकी दो महीने की पगार से। ऐसा ही फंसा हुआ एक तीसरा मा��ला अपना करीबी निकला, पारिवारिक। सरकारी नौकरी में ��गे दंपत्ति दो अलग शहरों में फंस गए थे, एक ही राज्य में। लोग हज़ार किलोमीटर पैदल निकलने का साहस कर ले रहे हैं। यहां ऐसा करना तसव्वुर में भी नहीं रहा जबकि फासला सौ किलोमीटर से ज़्यादा नहीं है। वे न मिलें तो भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उन्हें चूल्हे चौकी की चिंता नहीं। बस प्रेम है, जो खींच रहा था।
पहला केस सेवाभाव वाला है। एक भला नेता अपने लोगों के बीच जल्द से जल्द पहुंचना चाह रहा है। दूसरा केस आजीविका और ज़िन्दगी का है। यह भला आदमी नहीं पहुंचा तो परिवार भुखमरी का शिकार हो जाएगा। तीसरा केस अपना है, विशुद्ध मध्यमवर्गीय और भला। यहां केवल पहुंचना है, उसके पीछे कोई ठोस उद्देश्य नहीं है, सिवाय एक नाज़ुक धागे के, जिसे प्रेम कहते हैं। पहुंचने की बेसब्री और तीव्रता के मामले में तीनों अलग केस हैं। पहला घर से समाज में जाना चाहता है, लेकिन पैदल नहीं जा सकता। बाकी दो घर जाना चाहते हैं, लेकिन पैदल वही निकलता है जिसकी ज़िन्दगी दांव पर लगी है। समाज के ये तीन संस्तर भी हैं। तीन वर्ग कह लीजिए।
मुश्किल वक्त में चीजें ब्लैक एंड व्हाइट हो जाती हैं। प्राथमिकताएं साफ़। वर्गों की पहचान संकटग्रस्त समाज में ही हो पाती है। अगर मेरे पास किसी को कहीं से कहीं पहुंचवाने का सामर्थ्य होता तो सबसे पहले मैं पैदल मजदूर को उठाता। उससे फारिग होने के बाद भले नेता को। अंत में मध्यमवर्गीय दंपत्ति को। इस हिसाब से संकट के प्रसार की दिशा को समझिए। सबसे पहले गरीब मरेगा। उसके बाद गरीबों के बारे में सोचने वाले। सबसे अंत में मरेंगे वे, जिन्हें अपने कम्फर्ट से मतलब है। ये शायद न भी मरें, बचे रह जाएं।
सबसे अंतिम कड़ी की सामाजिक उदासीनता ही बाकी सभी संकटों को परिभाषित करती है - जिसे हम महान मिडिल क्लास कहते हैं। ये वर्ग अपने आप में समस्या है। दुनिया को ये कभी नहीं बचाएगा। कफ़न ओढ़ कर अपना मज़ार देखने का ये आदी हो चुका है। दुनिया बचेगी तो गरीब के जीवट से और एलीट की करुणा से। क्लास स्ट्रगल की थिअरी में इसे कैसे आर्टिकुलेट किया जाए, ये भी अपने आप में विचित्र भारतीय समस्या है।
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28 मार्च, 2020
बलिया के मनियर निवासी 14 प्रवासी मजदूरों के फरीदाबाद में अटके होने की शाम को सूचना मिली। इनमें दो बच्चे भी थे, चार और छह साल के। मित्रों को फोन घुमाया गया। एक पुलिस अधिकारी के माध्यम से प्रवासियों तक भोजन पहुंचवाने की अनौपचारिक गुंजाइश बन गई। फिर भी सौ नंबर पर फोन कर के ऑफिशली कॉल रजिस्टर करवाने की सलाह उन्हें दी गई। वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। सबने ��मझाया, लेकिन तैयार ही नहीं हुए। बोले, पुलिस आएगी तो मारेगी। उल्टे भाई लोगों ने कैमरे में एक वीडियो रिकॉर्ड कर के भिजवा दिया, सरकार से मदद मांगते हुए कि भोजन वोजन नहीं, हमें गांव पहुंचाया जाए। बस, पुलिस न आवे।
इस घटना ने नोटबंदी के एक वाकये की याद दिला दी। नोटबंदी की घोषणा के बाद चौराहे से चाय वाला अचानक गायब हो गया था। बहुत दिन बाद मैंने ऐसे ही उसकी याद में उसका ज़िक्र करते हुए जनश्रुति के आधार पर एक पोस्ट लिखी। उसे अगले दिन नवभारत टाइम्स ने छाप दिया। शाम को मैं चौराहे पर निकला। पहले सब्ज़ी वाले ने पूछा। फिर रिक्शे वाले ने। फिर एक और रिक्शे वाले ने। फिर नाई ने पूछा। सबने एक ही सवाल अलग अलग ढंग से पूछा- "क्यों गरीब आदमी को मरवाना चाहते हो, पत्रकार साहब? आपने लिख दिया कि वो महीने भर से गायब है, अब कहीं पुलिस उसे पकड़ न ले!" एक सहज सी पोस्ट और उसके अख़बार में आ जाने के चलते मैं उस चायवाले के सारे हितैषियों की निगाह में संदिग्ध हो गया। यह मेरी समझ से बाहर था। अप्रत्याशित।
प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी श्रमिकों, गरीबों, मजलूमों पर लिखना एक बात है। मध्यमवर्गीय पत्रकार के दिल को संतोष मिलता है कि चलो, एक भला काम किया। आप नहीं जानते कि आपके लिखे को आपके किरदार ने लिया कैसे है। हो सकता है अख़बार में अपने नाम को देख कर, अपनी कहानी सुन कर, वह डर जाए। आपको पुलिस का आदमी मान बैठे। फिर जब आप प्रोएक्टिव भूमिका में लिखने से आगे बढ़ते हैं, तो उनसे डील करने में समस्या आती है। आपके फ्रेम और उनके फ्रेम में फर्क है। मैं इस बात को जानता हूं कि कमिश्नर को कह दिया तो मदद हो ही जाएगी, लेकिन उसको तो पुलिस के नाम से ही डर लगता है। वो आपको पुलिस का एजेंट समझ सकता है। आपके सदिच्छा, सरोकार, उसके लिए साजिश हो सकते हैं।
वर्ग केवल इकोनोमिक कैटेगरी नहीं है। उसका सांस्कृतिक आयाम भी होता है। यही आयाम स्टेट सहित दूसरी ताकतों और अन्य वर्गों के प्रति एक मनुष्य के सोच को बनाता है। इस सोच का फ़र्क दो वर्गों के परस्पर संवाद, संपर्क और संलग्नता से मालूम पड़ता है। अगर आप एक इंसान की तरफ हाथ बढ़ाते वक़्त उसके वर्ग निर्मित सांस्कृतिक मानस के प्रति सेंसिटिव और अलर्ट नहीं हैं, तो आपको उसकी एक अदद हरकत या प्रतिक्रिया ही मानवरोधी बना सकती है। गरीब, वंचित, पीड़ित का संकट यदि हमारा स्वानुभूत नहीं है तो कोई बात नहीं, सहानुभूत तो होना ही चाहिए, कम से कम! इससे कम पर केवल कविता होगी, जो फटी ब��वाइयां भरने में किसी काम नहीं आती।
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29 मार्च, 2020
माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और वहां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदमी के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?
वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी - आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?
भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?
आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि वे उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली ��ेकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?
सोचिए, और उनके बारे में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!
मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है...।
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30 मार्च, 2020
आज हम लोग ऐसे ही चर्चा कर रहे थे कि जो लोग घर में बंद हैं, उनमें सबसे ज़्यादा दुखी कौन होगा। पहले ही जवाब पर सहमति बन गई - प्रेमी युगल। फिर 'रजनीगंधा' फिल्म का अचानक संदर्भ आया, कि दो व्यक्तियों के बीच भौतिक दूरी होने से प्रेम क्या वाकई छीज जाता होगा? हो सकता है। नहीं भी। कोई नियम नहीं है इसका। निर्भर इस बात पर करता है कि दूरी की वजह क्या है।
इस धरती के समाज को जितना हम जानते हैं, दो व्यक्तियों के बीच कोई बीमारी या बीमारी की आशंका तो हमेशा से निकटता की ही वजह रही है। घर, परिवार, समाज, ऐसे ही अब तक टिके रहे हैं। ये समाज तो बलैया लेने वाला रहा है। बचपन से ही घर की औरतों ने हमें बुरी नज़र से बचाया है, अपने ऊपर सारी बलाएं ले ली है। यहीं हसरत जयपुरी लिखते हैं, "तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय।" बाबर ने ऐसे ही तो हुमायूं की जान बचाई थी। उसके पलंग की परिक्रमा कर के अपनी उम्र बेटे को दे दी थी!
बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत प्रेम कथाओं में किशोर कुमार और मधुबाला का रिश्ता गिना जाता है। मधुबाला को कैंसर था, किशोर जानते थे फिर भी उनसे शादी रचाई। डॉक्टर कहते रह गए उनसे, कि पत्नी से दूर रहो। वे दूर नहीं हुए। जब खुद मधुबाला ने उनसे मिन्नत की, तब जाकर माने। अपने यहां एक बाबा आमटे हुए हैं। बाबा चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे लेकिन बारिश में भीगते एक कोढ़ी को टांगकर घर ले आए थे। बाद में उन्होंने पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों को समर्पित कर दिया। ऐसे उदाहरणों से इस देश का इतिहास भरा पड़ा है। सोचिए, बाबा ने कुष्ठ लग जाने के डर से उस आदमी को नहीं छुआ होता तो?
मेरे दिमाग में कुछ फिल्मी दृश्य स्थायी हो चुके हैं। उनमें एक है फिल्म शोले का दृश्य, जिसमें अपनी बहू राधा के जय के साथ दोबारा विवाह के लिए ठाकुर रिश्ता लेकर राधा के पिता के यहां जाते हैं। प्रस्ताव सुनकर राधा के पिता कह उठते हैं, "ये कैसे हो सकता है ठाकुर साब? समाज और बिरादरी वाले क्या कहेंगे?" यहां सलीम जावेद ने अपनी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा डायलॉग संजीव कुमार से कहलवाया है, "समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं, नर्मदा जी। किसी को अकेला रखने के लिए नहीं।"
यही समझ रही है हमारे समाज की। हम यहां तक अकेले नहीं पहुंचे हैं। साथ पहुंचे हैं। ज़ाहिर है, जब संकट साझा है, तो मौत भी साझा होगी और ज़िन्दगी भी। बाजारों में दुकानों के बाहर एक-एक ग्राहक के लिए अलग अलग ग्रह की तरह बने गोले; मुल्क के फ़कीर के झोले से सवा अरब आबादी को दी गई सोशल डिस्टेंसिंग नाम की गोली; फिर शहर और गांव के बीच अचानक तेज हुआ कंट्रास्ट; कुछ विद्वानों द्वारा यह कहा जाना कि अपने यहां तो हमेशा से ही सोशल डिस्टेंसिंग रही है जाति व्यवस्था के रूप में; इन सब से मिलकर जो महीन मनोवैज्ञानिक असर समाज के अवचेतन में पैठ रहा है, पता नहीं वो आगे क्या रंग दिखाएगा। मुझे डर है।
बाबा आमटे के आश्रम का स्लोगन था, "श्रम ही हमारा श्रीराम है।" उस आश्रम को समाज बनना था। नहीं बन सका। श्रम अलग हो गया, श्रीराम अलग। ये संयोग नहीं है कि आज श्रीराम वाले श्रमिकों के खिलाफ खड़े दिखते हैं। अनुपम मिश्र की आजकल बहुत याद आती है, जो लिख गए कि साद, तालाब में नहीं समाज के दिमाग में जमी हुई है। आज वे होते तो शायद यही कहते कि वायरस दरअसल इस समाज के दिमाग में घुस चुका है। कहीं और घुसता तो समाज फिर भी बच जाता। दिमाग का मरना ही आदमी के मर जाने का पहला और सबसे प्रामाणिक लक्षण है।
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3 अप्रैल, 2020
इंसान के मनोभावों में भय सबसे आदिम प्रवृत्ति है। इसी भय ने हमें गढ़ा है। सदियों के विकासक्रम में इकलौता भय ही है, जो अब तक बना हुआ है। मन के गहरे तहखानों में, दीवारों से चिपटा। काई की तरह, हरा, ताज़ा, लेकिन आदिम। जब मनुष्य अपने विकासक्रम में छोटा हुआ करता था, उसे तमाम भय थे। जानवरों का भय प्राथमिक था। कोई भी आकर खा सकता था। सब बड़े-बड़े जंगली पशु होते थे। जो जितना बड़ा, छोटे को उतना भय। हर बड़ा अपने से छोटे को खाता था। यह जंगल का समाज था। ��ुरुआत में तो इसका इलाज यह निकाला गया कि जिससे ख़तरा हो उसके सामने ही न पड़ो। मचान पर पड़े रहो। पेड़ से लटके रहो। अपने घर के भीतर दुबके रहो। आखिर कोई कितना खुद को रोके लेकिन?
फिर मनुष्य ने भाषा विकसित की। हो हो, हुर्र हुर्र, गो गो जैसी आवाज़ें निकाली जाने लगीं जानलेवा पशु को भगाने के लिए। खतरा लगता, तो हम गो गो करने लग जाते। इसकी भी सीमा थी। पांच किलोमीटर दूर बैठे अपने भाई तक आवाज़ कैसे पहुंचाते? उसे सतर्क कैसे करते? फिर बजाने की कला आयी। खतरे का संकेत देने और भाइयों को सतर्क करने के लिए हमने ईंट बजायी, लकड़ी पीटी, दो पत्थरों को आपस में टकराया। तेज़ आवाज़ निकली, तो शिकार पर निकला प्रीडेटर मांद में छुप गया। फिर धीरे-धीरे उसे आवाज़ की आदत पड़ गयी। हम थाली पीटते, वह एकबारगी ठिठकता, फिर आखेट पर निकल जाता। समस्या वैसी ही रही।
एक दिन भय के मारे पत्थर से पत्थर को टकराते हुए अचानक चिंगारी निकल आयी। संयोग से वह चकमक पत्थर था। मनुष्य ने जाना कि पत्थर रगड़ने से आग निकलती है। ये सही था। अब पेड़ से नीचे उतर के, अपने घरों से बाहर आ के, अलाव जला के टाइट रहा जा सकता था। आग से जंगली पशु तो क्या, भूत तक भाग जाते हैं। रूहें भी पास आने से डरती हैं। मानव विकास की यात्रा में हम यहां तक पहुंच गए, कि जब डर लगे बत्ती सुलगा लो। भाषा, ध्वनि, प्रकाश के संयोजन ने समाज को आगे बढ़ाने का काम किया। आग में गलाकर नुकीले हथियार बनाए गए। मनुष्य अब खुद शिकार करने लगा। पशुओं को मारकर खाने लगा। समाज गुणात्मक रूप से बदल गया। आदम का राज तो स्थापित हो गया, लेकिन कुदरत जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा बड़ी चीज़ है। उसने सूक्ष्म रूप में हमले शुरू कर दिए। डर, जो दिमाग के भीतरी तहखानों में विलुप्ति के कगार पर जा चुका था, फिर से चमक उठा।
इस आदिम डर का क्या करें? विकसित समाज के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था। राजा नृतत्वशास्त्री था। वह मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को पहचानता था। दरअसल, इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को संकट की घड़ी में खोपड़ी के भीतर से मय भेजा बाहर खींच निकाल लाना और सामने रख देना उसकी ट्रेनिंग का अनिवार्य हिस्सा था। उसका वजूद मस्तिष्क के तहखानों में चिपटी काई और फफूंद पर टिका हुआ था। चिंतित और संकटग्रस्त समाज को देखकर उसने कहा- "पीछे लौटो, ��दम की औलाद बनो"। राजाज्ञा पर सब ने पहले कहा गो गो गो। काम नहीं बना। फिर समवेत��� स्वर में बरतनों, डब्बों, लोहे-लक्कड़ और थाली से आवाज़ निकाली, गरीबों ने ताली पीटी। अबकी फिर काम नहीं बना। राजा ज्ञानी था, उसने कहा- "प्रकाश हो"!
अब प्रजा बत्ती बनाएगी, माचिस सुलगाएगी। उससे आग का जो पुनराविष्कार होगा, उसमें अस्त्र-संपन्न लोग अपने भाले तराशेंगे, ढोल की खाल गरमाएंगे। फिर एक दिन आदम की औलाद आग, ध्वनि और भाषा की नेमतें लिए सामूहिक आखेट पर निकलेगी। इस तरह यह समाज एक बार फिर गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाएगा। पिछली बार प्रकृति के स्थूल तत्वों पर विजय प्राप्त की गयी थी। अबकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों को निपटा दिया जाएगा।
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7 अप्रैल, 2020
मनुष्य की मनुष्यता सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में कसौटी पर चढ़ती है। आपकी गर्दन पर गड़ासा लटका हो, उस वक़्त आपके मन में जो खयाल आए, समझिए वही आपकी मूल प्रवृत्ति है। आम तौर से ज़्यादातर लोगों को जान जाने की स्थिति में भगवान याद आता है। कुछ को शैतान। भगवान और शैतान सबके एक नहीं होते। भूखे के लिए रोटी भगवान है। भरे पेट वाले के लिए धंधा भगवान है। भरी अंटी वाले के लिए बंदूक भगवान है। जिसके हाथ में बंदूक हो और सर पर भी तमंचा तना हो, उसके लिए? ये स्थिति ऊहापोह की है। आप एक ही वक़्त में जान ले भी सकते हैं और गंवा भी सकते हैं। जान लेने के चक्कर में जान जा सकती है। सामने वाले को अभयदान दे दिया तब भी जान जाएगी। क्या करेंगे?
एक ही वक़्त में सबसे कमज़ोर होना लेकिन सबसे ताकतवर महसूस करना, ये हमारी दुनिया की मौजूदा स्थिति है। हाथ में तलवार है लेकिन गर्दन पर तलवार लटकी हुई है। समझ ही नहीं आ रहा कौन ले रहा है और कौन दे रहा है, जान। ये स्थिति मोरलिटी यानी नैतिकता के लिए सबसे ज़्यादा फिसलन भरी होती है। यहां ब्लैक एंड व्हाइट का फर्क मिट जाता है। कायदे से, ये युद्ध का वक़्त है जिसमें युद्ध की नैतिकता ही चलेगी। जो युद्ध में हैं, जिनके हाथ में तलवार है, वे इसमें पार हो सकते हैं। संकट उनके यहां है जिनकी गर्दन फंसी हुई है और हाथ खाली है।
जिनके हाथ खाली हैं, उनमें ज़्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने युद्ध के बजाय अमन की तैयारी की थी। उनकी कोई योजना नहीं थी भविष्य के लिए। वे खाली हाथ रह गए हैं। अब जान फंसी है, तो पलट के मार भी नहीं सकते। सीखा ही नहीं मारना। इसके अलावा, इस खेल के नियम उन्हीं को आते हैं जिन्होंने गुप्त कमरों में किताब पढ़ने के नाम पर षड्यंत्रों का अभ्यास किया था; जिन्होंने दफ्तरों में नौकरी की और दफ्तर के बाहर इन्कलाब; जिन्होंने मास्क लूटे और पब्लिक हेल्थ की बात भी करते रहे। अब संकट आया है तो उनके शोरूम और गोदाम दोनों तैयार हैं। ��ो लोग दुनिया को दुनिया की तरह देखते रहे- शतरंज की तरह नहीं- वे खेत रहेंगे इस बार भी। इस तरह लॉकडाउन के बाद की सुबह आएगी।
कैसी होगी वो सुबह? जो ज़िंदा बचेगा, उसके प्रशस्ति गान लिखे जाएंगे। वे ही इस महामारी का इतिहास भी लिखेंगे और ये भी लिखेंगे कि कैसे मनु बनकर वे इस झंझावात से अपनी नाव निकाल ले आए थे। जो निपट जाएंगे, वे प्लेग में छटपटा कर भागते, खून छोड़ते, मोटे, सूजे और अचानक बीच सड़क पलट गए चूहों की तरह ड्रम में भरकर कहीं फेंक दिए जाएंगे। उन्हें दुनिया की अर्थव्यवस्था को, आर्थिक वृद्धि को बरबाद करने वाले ज़हरीले प्राणियों में गिना जाएगा। हर बार जब जब महामारी अाई है, एक नई और कुछ ज़्यादा बुरी दुनिया छोड़ गई है। हर महामारी भले लोगों को मारती है, चाहे कुदरती हो या हमारी बनाई हुई। भले आदमी की दिक्कत ये भी है कि वो महामारी आने पर चिल्ला नहीं पाता। सबसे तेज़ चिल्लाना सबसे बुरे आदमी की निशानी है।
होता ये है कि जब बुरा आदमी चिल्लाता है तो भला आदमी डर के मारे भागने लगता है। भागते भागते वह हांफने लगता है और मर जाता है। बुरा आदमी जा���ता है कि दुनिया भले लोगों के कारण ही बची हुई थी। इसलिए वह दुनिया के डूबने का इल्ज़ाम भले लोगों पर लगा देता है। जैसे महामारी के बाद प्लेग का कारण चूहों को बता दिया जाता है, जबकि प्लेग के हालात तो बुरे लोगों के पैदा किए हुए थे! चूहे तो चूहे हैं। मरने से बचते हैं तो कहीं खोह बनाकर छुप जाते हैं। कौन मरने निकले बाहर?
आदमी और चूहे की नैतिकता में फर्क होता है। घिरा हुआ आदमी मरते वक़्त अपने मरने का दोष कंधे पर डालने के लिए किसी चूहे की तलाश करता है। चूहे मरते वक़्त आदमी को नहीं, सहोदर को खोजते हैं। इस तरह इक्का दुक्का आदमी की मौत पर चूहों की सामूहिक मौत होती है। दुनिया ऐसे ही चलती है। हर महामारी के बाद आदमी भी ज़हरीला होता जाता है, चूहा भी। फिर एक दिन समझ ही नहीं आता कि प्लेग कौन फैला रहा है - आदमी या चूहा, लेकिन कटे कबंध हाथ भांजते चूहों को हथियारबंद मनुष्य का प्राथमिक दुश्मन ठहरा दिया जाता है। इस तरह हर बार ये दुनिया बदलती है। इस तरह ये दुनिया हर बदलाव के बाद जैसी की तैसी बनी रहती है।
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8 अप्रैल, 2020
बर्नी सांडर्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है। बर्नी ने जो ट्वीट किया है उसे देखा जाना चाहिए: "मेरा कैंपेन भले समाप्त हो गया, लेकिन इंसाफ के लिए संघर्ष जारी रहना चाहिए।" आज ही यूरोपियन यूनियन के शीर्ष वैज्ञानिक और यूरोपीय रिसर्च काउंसिल के अध्यक्ष प्रोफेसर मौरो फरारी ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस्तीफा देते वक़्त क्या कहा, इसे भी देखें: "कोविड 19 पर यूरोपीय प्रतिक्रिया से मैं बेहद निराश हूं। कोविड 19 के संकट ने मेरे नज़रिए को बदल दिया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय सहयोग के आदर्शों को मैं पूरे उत्साह के साथ समर्थन देता रहूंगा।"
जर्मनी के उस मंत्री को याद करिए जिसने रेलवे की पटरी पर लेट कर अपनी जान दे दी थी। थॉमस शेफर जर्मनी के हेसे प्रांत के आर्थिक विभाग के मुखिया थे। कोरोना संकट के दौर में वे दिन रात मेहनत कर के यह सुनिश्चित करने में लगे हुए थे कि महामारी के आर्थिक प्रभाव से मजदूरों और कंपनियों को कैसे बचाया जाए। वे ज़िंदा रहते तो अपने प्रांत के प्रमुख बन जाते, लेकिन उनसे यह दौर बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने ट्रेन के नीचे आकर अपनी जान दे दी।
दो व्याख्याएं हो सकती हैं बर्नी, फरारी और शेफर के फैसलों की: एक, वे जिस तंत्र में बदलाव की प्रक्रिया से जुड़े थे उस तंत्र ने इन्हें नाकाम कर दिया और इन्होंने पैर पीछे खींच लिए; दूसरे, संकट में फंसी दुनिया को बीच मझधार में इन्होंने गैर ज़िम्मेदार तरीके से छोड़ दिया। कुछ इंकलाबी मनई अतिउत्साह में कह सकते हैं कि बर्नी ने अमेरिकी जनवादी राजनीति के साथ, फरारी ने विज्ञान के साथ और शेफर ने जर्मनी की जनता के साथ सेबोटेज किया है। व्याख्या चाहे जो भी हो, अप्रत्याशित स्थितियां अप्रत्याशित फैसलों की मांग करती हैं। इन्होंने ऐसे ही फैसले लिए।
शेफर तो रहे नहीं, लेकिन फरारी और बर्नी सांडर्स के संदेश को देखिए तो असल बात पकड़ में आएगी। वो ये है, कि संघर्ष जारी रखने के दोनों हामी हैं और दोनों ने ही भविष्य के प्रति संघर्ष में अपनी प्रतिबद्धता जताई है। यही मूल बात है। एक चीज है अवस्थिति, दूसरी चीज है प्रक्रिया। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की प्रक्रिया किसी अवस्थिति पर जाकर रुक जाए। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की भावना से काम कर रहा व्यक्ति किसी संस्था या देश या किसी इकाई के प्रति समर्पित हो। समर्पण विचार के प्रति होता है, अपने लोगों के प्रति होता है। जो यह सूत्र समझता है, वह प्रक्रिया चलाता है, कहीं ठहरता नहीं, बंधता नहीं।
समस्या उनके साथ है जिन्होंने एक सच्चे परिवर्तनकामी से कहीं बंध जाने की अपेक्षा की थी। जब वह बंधन तोड़ता है, तो उसे विघ्नसंतोषी, विनाशक, अराजक और हंता कह दिया जाता है। ऐसे विश्लेषण न सिर्फ अवैज्ञानिक होते हैं, बल्कि प्रतिगामी राजनीति के वाहक भी होते हैं। नलके के मुंह पर हाथ लगा कर आप तेज़ी से आ रही जल को धार को कैसे रोक पाएंगे और कितनी देर तक? दुनिया जैसी है, उससे सुंदर चाहिए तो ऐसे बेचैन लोगों का सम्मान किया जाना होगा जिन्हें तंत्र ने नाकाम कर देने की कसम खाई है। तंत्र को तोड़ना, उससे बाहर निकलना, ��दलाव की प्रक्रिया को जारी रखना ही सच्ची लड़ाई है। जो नलके के मुंह पर कपड़ा बांधते हैं, इतिहास उन्हें कचरे में फेंक देता है।
बर्नी सांडर्स और फरारी को सलाम! शेफर को श्रद्धांजलि! गली मोहल्ले से लेकर उत्तरी ध्रुव तक मनुष्य के बनाए बेईमान तंत्रों के भीतर फंसे हुए दुनिया के तमाम अच्छे लोगों को शुभकामनाएं, कि वे अपने सपनों की दुनिया को पाने की दौड़ बेझिझक बरकरार रख सकें।
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9 अप्रैल, 2020
बात पांच साल पहले की है। वह फरवरी की एक गहराती शाम थी। हलकी ठंड। मद्धम हवा। वसंत दिल्ली की सड़कों पर उतर चुका था। शिवाजी स्टेडियम के डीटीसी डिपो पर मैगज़ीन की दुकान लगाने वाले जगतजी दुकान समेटने के मूड में थे, लेकिन एक बुजुर्ग शख्स किसी अख़बार के भीतरी पन्नों में मगन था। जगतजी उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। वे सीताराम बाज़ार के मूल निवासी रामगोपाल जी थे। थे इसलिए लिख रहा हूं कि पिछली बार जब फोन लगाया था दिल्ली चुनाव के दौरान, तो उनके बेटे ने उठाया था और बिना कुछ बोले काट दिया था। दोबारा मेरी हिम्मत नहीं बनी कॉल करने की।
रामगोपाल जी सन् चालीस की पैदाइश थे। पांचवीं पास थे। कनॉट प्लेस में एक साइकिल की दुकान हुआ करती थी तब, उसी के लालाजी के साथ टहला करते थे। एक बार लालाजी उन्हें एम्स लेकर गये थे। ढलती शाम में भुनती मूंगफली और रोस्ट होते अंडों की मिश्रित खुशबू में रामगोपालजी ने यह किस्सा सुनाया था मुझे। वे एम्स में भर्ती मरीज़ से मिलकर जब बाहर निकले, तो बड़े परेशान थे। उस मरीज़ ने उन्हें सैर करने को कहा था। तब रामगोपालजी की उम्र पंद्रह साल थी यानी सन् पचपन की बात रही होगी। हंसते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “पांचवीं पास बुद्धि कितना पकड़ेगी? मैंने तो बस सैर की... इतने महान आदमी थे वो... क्या तो नाम था, राहुल जी... हां... सांस्कृत्यायन जी...!"
राहुल सांकृत्यायन से एक अदद मुलाकात ने रामगोपाल की जिंदगी बदल दी। वे अगले साठ साल तक सैर ही करते रहे। रामगोपालजी को उनके लालाजी ने बाद में अज्ञेय से भी मिलवाया था। आज राहुल के बारे में दूसरों का लिखा देख अचानक रामगोपालजी की तस्वीर और दिल्ली की वो शाम मन में कौंध गयी। सोच रहा था कि क्या अब भी यह होता होगा कि एक लेखक की पहचान को जाने बगैर एक पंद्रह साल का लड़का उससे इत्तेफ़ाकन मिले और उसके कहे पर जिंदगी कुरबान कर दे? “सैर कर दुनिया की गाफ़िल...”, बस इतना ही तो ��हा था राहुलजी ने रामगोपाल से! इसे रामगोपालजी ने अपनी जिंदगी का सूत्रवाक्य बना लिया! लगे हाथ मैं यह भी सोच रहा था कि आज राहुलजी होते तो लॉकडाउन में सैर करने के अपने फलसफ़े को कैसे बचाते? आज चाहकर भी आप या हम अपनी मर्जी से सैर नहीं कर सकते। ढेरों पाबंदियां आयद हैं।
बहरहाल, कभी कनॉट प्लेस के इलाके में सैर करते हुए आप शाम छह बजे के बाद पहुंचें तो आंखें खुली रखिएगा। अज्ञेय कट दाढ़ी वाला, अज्ञेय के ही कद व डीलडौल वाला, मोटे सूत का फिरननुमा कुर्ता पहने, काली गांधी टोपी ओढ़े और पतले फ्रेम का चश्मा नाक पर टांगे एक बुजुर्ग यदि आपको दिख जाए, तो समझ लीजिएगा कि ये कहानी उन्हीं की है। रामगोपालजी अगर अब भी हर शाम सैर पर निकलते होंगे, तो शर्तिया उनके जैसा दिल्ली में आपको दूसरा न मिले। एक सहगल साहब हैं जो अकसर प्रेस क्लब में पाए जाते हैं लेकिन उनकी वैसी छब नहीं है। रामगोपालजी इस बात का सुबूत हैं कि एक ज़माना वह भी था जब सच्चे लेखकों ने सामान्य लोगों की जिंदगी को महज एक उद्गार से बदला। ज़माना बदला, तो रामगोपालजी जैसे लोग बनने बंद हो गये। लेखक भी सैर की जगह वैर करने लगे।
उस शाम बातचीत के दौरान पता चला कि पत्रिका वाले जगतजी से लेकर अंडे वाला और मूंगफली वाला सब उन्हें जानते हैं। अंडेवाले ने हमारी बातचीत के बीच में ही टोका था, “अरे, बहुत पहुंचे हुए हैं साहब, पूरी दिल्ली इन्होंने देखी है। क्यों साहबजी?" दिल्ली का ज़िक्र आते ही रामगोपालजी ने जो कहा था, वह मुझे आज भी याद हैः “ये दिल्ली एक धरमशाला होती थी। अब करमशाला बन गयी है। लाज, शरम, सम्मान, इज्ज़त, सब खतम हो गये। ये अंडे उठाकर बाहर फेंक दो नाली में, क्योंकि ये नयी तहज़ीब के अंडे हैं!" इतना कह कर रामगोपालजी आकाश में कहीं देखने लगे थे। अलबत्ता अंडे वाला थाेड़ा सहम गया था और अपने ठीहे पर उसने वापस ध्यान जमा लिया था। गोया नयी तहज़ीब के अंडे आंखाें से छांट रहा हो।
#CoronaDiaries
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nationalnewsindia · 2 years ago
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chaiwithnamkeen · 5 years ago
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आज भी तुमसे प्यार है
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मोहित मेरी अब शादी होने वाली है घर वालों को लड़का पसंद आ गया और अच्छी बात ये है कि वो भी मुम्बई में ही जॉब करता है। प्रिया की बात सुनकर मोहित ने कहा ये तो बहुत अच्छा हुआ तुम तो यही चाह रही थी ना कि ऐसा लड़का मिले जो मुम्बई में ही जॉब करता हो क्योंकि तुम भी मुम्बई अपनी जॉब नही छोड़ना चाहती हो। पर मन ही मन उसे ये सुनकर दुख भी हुआ। उसका तो दिल करता था कि प्रिया कभी शादी ही न करे। जबकि मोहित खुद शादीशुदा है और अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में एक मल्टी नेशनल कंपनी में जॉब करता है। प्रिया भी कई लड़को को शादी के लिए मना कर चुकी थी पर घर वालो के प्रेशर के कारण उसे हा कहना पड़ा। क्या है इन दोनों की कहानी? ये समझने के लिये कुछ साल पीछे जाना होगा।
          मोहित और प्रिया एक ही शहर मैं रहते थे, मोहित पढ़ाई मैं प्रिया से दो साल सीनियर था। स्कूल भी दोनों के अलग अलग थे। मोहित जब आठवीं क्लास में था तभी से प्रिया को पसन्द करता था जबकि प्रिया तो उसे जानती तक नही थी। एक बार प्रिया के एनुअल फंक्शन में मोहित गया था तो पहली बार प्रिया ने मोहित को देखा क्योकि जिस लड़की के साथ प्रिया थी उसे मोहित जनता था। पर प्रिया ने मोहित पर इतना ध्यान नही दिया। समय बीतता गया मोहित कॉलेज में  गया था, दो साल बाद प्रिया ने भी उसी कॉलेज में एडमिशन ले लिया। ��ोहित रोज उसे कॉलेज में देखता था पर कभी हिम्मत नही हुई उससे बात तक करने की।
        मोहित अब अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद आगे एम बी ए करने के लिए बाहर चला गया। दो साल बाद प्रिया भी एम बी ए करने चली गई। मोहित को एम बी ए करने के बाद अच्छी कंपनी में जॉब मिल गई थी। पर अभी तक प्रिया को वो भूल नही पाया था। एक दिन उसने सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट सेंड कर दी, प्रिया ने भी उसे ऐड कर लिया क्योकि उनका कॉलेज एक ही था तो अक्सर एक दूसरे को से सामना होता रहता था। बात हाय हेलो से शुरू हुई, धीरे धीरे दोनो ने एक दूसरे को जानने लगे। प्रिया बहुत खूबसूरत लड़की थी, कई लड़कों ने उसको  प्रपोज़ भी किया पर प्रिया ने किसी को को भी हा नही कहा। उसकी लाइफ का एक कि मकसद था कि किसी अच्छी कंपनी में जॉब करना। दोनो रोज  घंटो फ़ोन पर एक दूसरे से बात करने लगे। मोहित का नेचर प्रिया को अच्छा लगा, और मोहित तो प्रिया बचपन से ही पसंद करता था। एक दिन मोहित ने प्रिया से पूछा कि क्या तुम्हारा कोई बॉय फ्रेंड है? प्रिया ने कहा कि मुझे इन सब चक्कर मे नही पड़ना है, प्रोपोज़ तो काफी लड़को ने किया है पर मुझे इस सब मे नही पड़ना है। मोहित अपने दिल की बात प्रिया को बताना चाहता था पर हिम्मत नही कर पा रहा था। फिर एक दिन उसने अपने दिल की बात प्रिया को बता ही दी कि में तुम्हे बहुत साल पहले से लाइक करता हु और तुम्हे प्यार भी करता हूं, क्या तुम भी मुझसे......प्रिया के पास इसका कोई जवाब नही था उसने कहा कि मैं तुम्हे लाइक तो करती हूं अच्छा दोस्त मानती हूं और इससे ज्यादा कुछ भी नही। ये सुनकर मोहित का मन उदास हो गया पर उसे अभी भी आशा थी कि एक न एक दिन प्रिया जरूर मुझसे प्यार करेगी। समय बीतता गया दोनो एक दूसरे से बातें करते रहे। एक दिन मोहित के घर वालों ने कहा कि अब अब तुम्हे शादी कर लेनी चाहिये, मोहित का मन तो नही था मगर कोई ऑप्शन भी नही था उसके पास तो उसे शादी के लिए हां करदी। इसी बीच प्रिया की जॉब भी मुम्बई में एक एम एन सी कंपनी में लग गई। अचानक उसने मोहित से बात करना छोड़ दिया अपना मोबाइल नंबर भी चेंज कर लिया और फेसबुक पर भी रिप्लाय करना बंद कर दिया। मोहित ने कई मैसेज किये प्रिया को पर कोई जबाब प्रिया ने नही दिया। पता नही क्या चल रहा था प्रिया के मन में।
         पर मोहित उसे भूल नही पा रहा था, एक दिन उसने अपनी शादी की खबर भी प्रिया को दी फिर भी उसने कोई जबाब नही दिया। साल निकलते गए मोहित अब शादीशुदा हो चुका था पर प्रिया को भूल नही पा रहा था सोच रहा था काम से कम बात तो कर सकती थी। प्रिया भी महित को मन ही मन बहुत याद करती थी पर फिर भी मोहित से कोई रिश्ता नही रखना चाह रही थी पता नही क्या चल रहा था उसके मन मैं। एक दिन अचानक प्रिया ने मोहित को मैसेज किया, मोहित को तो जैसे समझ मे नही आ रहा था कि क्या बात करूं बहुत सारे सवाल उसके मन में थे। उसने पहले तो यही पूछा कि क्यो तुमने मुझसे बात करना बंद कर दिया। प्रिया ने ��हा कि बहुत बिजी हो गई हूं जॉब में इसलिए टाइम नही मिला, पर ये बात मोहित के गले से नही उतर रही थी कि कोई इतना भी बिजी कैसे हो सकता है कि इतना भी टाइम नही मिले। फिर दोनों की बातें शुरू हो गई पर रोज रोज नही कभी कभी ही। एक दिन मोहित ने उससे फिर पूछा कि क्या तुम मुझसे प्यार करती हो, प्रिया ने कहा अब क्या मतलब इन सब बातों का तुम शादी शुदा हो जबाब में बहुत पहले ही दे चुकी हूं तुम्हे। पर मोहित इस बार मानने वाला नही था उसने कहा जो भी हैं तुम्हारे दिल मे साफ साफ बताओ। तो प्रिया ने  कहा कि हां में भी तुमसे प्यार करती हूं पर तुम्हे कभी बोल नही पायी। क्योकि क्या होता अगर हां कर भी देती तुम कोनसा मुझसे शादी करने वाले थे। क्यो वो दोनों छोटे शहर से आते थे तो लव मेरीज करना इतना आसान नही था कास्ट भी दोनों की अलग अलग थी। मोहित ने कहा मेने तुम्हारे अलावा किसी लड़की से प्यार करने तक का नही सोचा अब भी तुमसे प्यार करता हूँ। पर पता नही क्यो अब प्रिया मोहित से पहले से भी ज्यादा बात करने लगी थी ये जानकर भी की मोहित अब शादी शुदा है और मोहित तो उसे कभी भूल ही नही पाया था। एक दिन मोहित ने प्रिया से कहा कि अब तुम भी शादी करलो तो उसने कहा है कर लूंगी कोई अच्छा लड़का मिल जाये तो। पर मन ही मन यही सोचती थी कि में कभी भी शादी नही करूँगी। वो मोहित से सच्चा प्यार जो करती थी। और मोहित से इसीलिए इतने साल तक बात नही की थी उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी में कोई प्रॉब्लम न आये। मोहित भी मन ही मन यही चाहता था कि प्रिया कभी शादी न करे ऐसे ही मुझसे बात करती रहे हमेशा।
      पर आज वो दिन आ गया जब प्रिया ने कहा कि मेरी शादी होने वाली है। खुश तो दोनों ही नही थे पर कोई ऑप्शन भी तो नही था प्रिया के पास। प्रिया ने मोहित से कहा कि मैं आज भी तुमसे प्यार करती हूं और हमेशा करती रहूंगी। मोहित बहुत उदास था क्योंकि वो कभी प्रिया को भूल नही पायेगा क्योंकि उसका यह पहला और आखिरी प्यार था। पर एक बात की खुशी जरुर थी कि जिस लड़की को में बच्पन से प्यार करता आ रहा हूँ वो भी मुझसे प्यार करती है। एक दिन प्रिया ने कहा कि मैं छुट्टियों में घर जा रही हूं हो सके तो आखिरी बार मिल लेना, मोहित ने भी हां करदी। वो दिन आया जब वो दोनों आखिरी बार मिले, पर बातें काम और दोनो आंखों में आंशु ज्यादा थे।
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lok-shakti · 3 years ago
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डीसीडब्ल्यू ने एसबीआई को जारी किया नोटिस, गर्भवती महिलाओं के लिए रोजगार संबंधी दिशा-निर्देश वापस लेने की मांग
डीसीडब्ल्यू ने एसबीआई को जारी किया नोटिस, गर्भवती महिलाओं के लिए रोजगार संबंधी दिशा-निर्देश वापस लेने की मांग
दिल्ली महिला आयोग (DCW) ने शनिवार को SBI को अपने नए नियमों को वापस लेने की मांग करते हुए एक नोटिस जारी किया, जिसमें तीन महीने से अधिक की गर्भवती महिला को “अस्थायी रूप से अयोग्य” माना जाएगा और उसे प्रसव के बाद चार महीने के भीतर शामिल होने की अनुमति दी जा सकती है। देश के सबसे बड़े ऋणदाता भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) से टिप्पणी के लिए तत्काल संपर्क नहीं हो सका। “भारतीय स्टेट बैंक ने 3 महीने से अधिक…
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currentnewsss · 3 years ago
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किसानों की छुट्टी आज : अलविदा, सिंघू
किसानों की छुट्टी आज : अलविदा, सिंघू
11 दिसंबर को किसानों के घर जाने से एक दिन पहले, एक साल से अधिक समय के बाद विशाल सिंघू सीमा विरोध स्थल को पीछे छोड़ने की तैयारी भावनाओं से भर गई थी। नवंबर 2020 में जीटी करनाल रोड पर हरियाणा के साथ दिल्ली की सीमा पर विरोध स्थल बनने के बाद से, प्रदर्शनकारियों ने उस राजमार्ग पर अस्थायी घरों की स्थापना की है, जो मौसम के मौसम के लिए आवश्यक सभी सुविधाओं के साथ है। सिंघू का दृश्य किसान अपनी आखिरी रात…
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becrazybecalm · 6 years ago
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मौसम बदल रहा है,क्या आपका विश्वास भी बदल रहा है?
आज सारा देश जब राजनीतिक सरगर्मी से सराबोर है, वहीं भारत के कई राज्यों विशेषतः पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली व उत्तर प्रदेश से रोज़ नई खबर मिल रही है कि फलाँ शहर में डेरा सच्चा सौदा का स्थापना माह वहाँ के डेरा अनुयायियों ने हज़ारों की तादात में नाम चर्चा व मानवता भलाई के कार्य कर धूमधाम से मनाया. कुछ अटपटा सा लगा पर जब पूरे अप्रैल माह निरंतर यही समाचार बढ़ च��� कर मिलता जा रहा है तो मैं कुछ सोच में पड़ गया. अगस्त 2017 में डेरा सच्चा सौदा के संत बाबा राम रहीम विभिन्न केसों में रोहतक क़ी सुनारिया जेल में निरुद्ध हैं तो उसी आश्रम की स्थापना माह का क्या महत्व ?? वो भी मानवता भलाई के कार्य करके.
एक गहन सोच के बाद सारी कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर दिलोदिमाग जो रह रह कर कह रहा है, वो एक अनसुलझा प्रश्न कि बाबा राम रहीम जी में ऐसा क्या है ? जो आज भी उनके अनुयायी उनके प्रति दृढ़ विश्वास रखते हुए उनके द्वारा बताए गए मानवता भलाई के कार्यों को पूर्ण सेवा भाव से कर रहे हैं. आज के युग में जब ज़रा सी ग़लत फहमियों की वज़ह से लोग रिश्ता तोड़ किनारा कर जाते हैं तब यहाँ ये प्यार व विश्वास आखिर आज भी ज्यों का त्यों अटल कैसे है??
‌कई लोगों से, सोशल मीडिया व अन्य स्थानों से जानकारी की तो जो बातें 1948 of में डेरा सच्चा सौदा के स्थापना से आज तक डेरा के बारे में पता चली, उससे एक बात ज़हन में बार बार दस्तक़ दे रही है कि 1990 में बाबा राम रहीम के गुरुगद्दी के समय 11 लाख शिष्य थे जो आज छः करोड़ हो गए हैं.
इतना प्यार व दृढ़ विश्वास बाबा राम रहीम के लिए उनके शिष्यों का आख़िर यूँ ही नहीं है.
‌क्या ये अंधभक्ति है? या brain wash? ‌यदि इसे अंध भक्ति की संज्ञा दें तो छह करोड़ लोग अंधभक्त हों या उनका ब्रेन वाश किया गया हो, ये बात गले नहीं उतरती. क्योंकि हर 3 से 4 माह में महिला व पुरुष द्वारा समान रूप से रक्तदान करना, पर्यावरण के संरक्षण के लिए पेड़ पौधे लगाना, मरणोपरांत वैज्ञानिक रिसर्च हेतु शरीर दान, आँखे दान, स्किन दान जैसे कार्य ‌सहर्ष करना और सारी दुनिया जब TRP आधारित मीडिया से प्रभावित होकर डेरा सच्चा सौदा को एक शंका की दृष्टि से देखने लगी हो ऐसे में कोई अपने सजा काट रहे गुरु के प्रति इतना दृढ़ विश्वास किसी अविश्वसनीय सच से भी कहीं बढ़कर है.
‌माननीय हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख को न्याय अवश्य मिलेगा ऐसा मानना है उनके छः करोड़ शिष्यों का...
‌कुछ भी कहें है तो कुछ विशेष और मेरे नज़रिए से ये अंधभक्ति या Brain Wash तो हरगिज़ नहीं है...
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