#तो अर्जुन ने पूछा
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#जब काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर विराट रूप दिखाया#तो अर्जुन ने पूछा#“आप कौन हैं?” क्या साले से यह सवाल किया जाता है?
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Sadhna TV Satsang || 11-12-2024 || Episode: 3113 || Sant Rampal Ji Mahar...
*🪷बन्दीछोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय🪷*
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11/12/24
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1📙पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?
2📙‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
- जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
3📙गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि उत्तम पुरुष यानि पूर्ण परमात्मा तो कोई और है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है। उस परमात्मा को प्राप्त करने की विधि क्या है?
4📙पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित पूर्ण परमात्मा के सांकेतिक मंत्र "ॐ, तत्, सत्" को पूर्ण संत से प्राप्त करके सतभक्ति करने से परमात्मा की प्राप्ति होगी और वर्तमान में इन मंत्रों को देने के एकमात्र अधिकारी पूर्ण संत, सतगुरु रामपाल जी महाराज हैं।
5📙 क्या आप जानते हैं कि गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
6📙क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
7📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
8📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
9📙गीता जी में तत्त्वदर्शी संत की क्या पहचान बताई है?
10📙श्राद्ध के बारे में क्या कहती है भगवद्गीता?
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( #MuktiBodh_Part118 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part119
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 232-233
कुछ वर्षों के बाद दुर्वासा के शॉप के कारण द्वारिका में अनहोनी घटनाऐं होने लगी। आपसी झगड़े होने लगे। एक-दूसरे को छोटी-सी बात पर मारने लगे। सारी द्वारिका मेंउपद्रव होने लगे। द्वारिका नगरी के बड़े-सयाने लोग मिलकर श्री कृष्ण जी के पास गए तथा
दुःख बताया कि नगरी में किसी को किसी का बोल अच्छा नहीं लग रहा है। बिना बात के मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। छोटे-बड़े की शर्म नहीं रही है। क्या कारण है तथा यह कैसे शान्त होगा? श्री कृष्ण जी ने बताया कि ऋषि दुर्वासा के शॉप के कारण यह हो रहा है। इसका समाधान सुनो! नगरी के सर्व नर (छोटे नवजात लड़के साहित) यादव प्रभास क्षेत्र में उसी स्थान पर यमुना नदी में स्नान करो जिस स्थान पर कड़ाही का चूर्ण डाला था। शॉप से बचने के लिए द्वारिका नगरी के सब बालक, नौजवान तथा वृद्ध स्नान करने गए। स्नान करके बाहर निकलकर एक-दूसरे से गाली-गलौच करने लगे और उस कड़ाही के चूरे से उत्पन्न घास को उखाड़कर एक-दूसरे को मारने लगे। तलवार की तरह घास से सिर कटकर दूर गिरने लगे। कुछ व्यक्ति बचे थे। अन्य सब के सब लड़कर मर गए। उन बचे हुओं को ज्योति निरंजन काल ने स्वयं श्री कृष्ण में प्रवेश करके उस घास से मार डाला। ��केला श्री कृष्ण बचा था। एक वृक्ष के नीचे जाकर लेट गया। एक पैर को दूसरे पैर के घुटने पर रखकर लेट गया। दांये पैर के तलुए (पँजे) में पदम जन्म से लगा था जो चमक रहा था। जिस बालिया नाम के भील शिकारी ने मछली से निकले कड़ाही के कड़े का विष लगाकर तीर बनवाया था। वह शिकारी उसी तीर को लेकर उस स्थान पर शिकार की तलाश में आया जिस वृक्ष के नीचे श्री कृष्ण लेटे थे। वृक्ष की छोटी-छोटी टहनियाँ चारों और नीचे पृथ्वी को छू रही थी। लटक रही थी। उन झुरमुटों में से श्री कृष्ण के पैर का पदम ऐसा लग रहा था जैसे किसी मृग की आँख चमक रही हो। शिकारी बालिया ने आव-देखा
न ताव, उस चमक पर तीर दे मारा। तीर निशाने पर लगा। पैर के तलवे में विषाक्त तीर लगने से श्री कृष्ण की चीख निकली। बालिया समझ गया कि किसी व्यक्ति को तीर लगा है। निकट जाकर देखा तो कोई राजा है। पूछने पर पता चला कि श्री कृष्ण है। अपनी गलती की क्षमा याचना करने लगा कहा कि भगवान! धोखे से तीर लग गया। मैंने आपके पैर के पदम की चमक मृग की आँख जैसी लगी। क्षमा करो। श्री कृष्ण ने कहा कि बालिया तेरा कोई दोष नहीं है, होनी प्रबल होती है। मैंने तेरा बदला चुकाया है। त्रोतायुग में तू कसकंदा का राजा सुग्रीव का भाई बाली था। मैं अयोध्या में रामचन्द्र नाम से राजा दशरथ के घर जन्मा था। उस समय मैंने तेरे को वृक्ष की ओट लेकर धोखा करके लड़ाई में मारा था। अब तू मेरा एक काम कर। द्वारिका में जाकर बता दे कि सर्व यादव दुर्वासा के शॉपवश आपस में लड़कर मर गए हैं। कुछ समय उपरांत द्वारिका की स्त्रियों की भीड़ लग गई। हाहाकार मच गया। पाण्डव श्री कृष्ण के रिश्तेदार थे। वे भी आ गए। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि आप सर्व गोपियों यानि यादवों की स्त्रियों को अपने पास ले जाना। यहाँ कोई नर यादव नहीं बचा है। आसपास के भील इनकी इज्जत खराब करेंगे। पाण्डवों से कहा कि तुम राज्य अपने पौत्र को देकर हिमालय में जाकर घोर तप करो और अपने युद्ध में किए पापों का नाश करो। अर्जुन ने पूछा भगवान! एक प्रश्न आज मैं आपसे करूँगा। आप सत्य उत्तर देना। आप अंतिम श्वांस गिन रहे हो, झूठ मत बोलना। श्री कृष्ण ने कहा कि प्रश्न कर। अर्जुन बोला! आपने गीता का ज्ञान कुरूक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध से पहले सुनाया था। उसमें कहा था कि अर्जुन! युद्ध कर ले। तुम्हें कोई पाप नहीं लगेंगे। तू निमित मात्र बन जा। सब सैनिक मैंने मार रखे हैं। तू युद्ध नहीं करेगा तो भी मैं इन्हें मार दूँगा। जब युद्धिष्ठिर को भयंकर स्वपन आने लगे। आपसे कारण जाना तो आपने बताया था कि युद्ध में किए बंधुघा�� के पाप के परिणाम स्वरूप कष्ट आया। समाधान यज्ञ करना बताया। उस समय मैं आपसे विवाद नहीं कर सका क्योंकि भाई की जिंदगी का सवाल था। आज फिर आपने वही जख्म हरा कर दिया। इतनी झूठ बोलकर हमारा नाश किसलिए करवाया? कौन-से जन्म का बदला लिया? श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन! तुम मेरे अजीज हो! होनहार
बलवान होती है। गीता में क्या कहा, उसका मुझे कोई ज्ञान नहीं। आप मेरी आज्ञा का पालन करो। यह कहकर श्री कृष्ण मर गए। पाँचों पाण्डवों व साथ गए नौकरों ने मिलकर सब यादवों का अंतिम संस्कार किया। कुछ के शव दरिया में प्रवाह कर दिए। श्री कृष्ण ने कहा था कि मेरे शरीर को जलाकर बची हुई अस्थियाँ व राख को एक लकड़ी के संदूक (ठवग) में डालकर दरिया में बहा देना। पाण्डवों ने वैसा ही किया। {वह संदूक समुद्र में चला गया।
फिर उड़ीसा प्रांत के अंदर जगन्नाथ पुरी के पास बहता हुआ चला गया। उड़ीसा के राजा इन्द्रदमन को स्वपन में श्री कृष्ण ने दर्शन देकर कहा कि एक संदूक समुद्र में इस स्थान पर है। उसमें मेरे शरीर की अस्थियाँ तथा राख हैं। उसको निकाल कर उसी किनारे पर उन अस्थियों (हडिड्यों) को जमीन में दबाकर ऊपर एक सुंदर मंदिर बनवा दे। ऐसा किया गया। जो जगन्नाथ नाम से मंदिर प्रसिद्ध है।}
◆ चार पाण्डव पहले चले गए। अर्जुन को गोपियों को लेकर आने को छोड़ गए। अर्जुन के पास वही गांडीव धनुष था जिससे लड़ाई करके महाभारत में जीत प्राप्त की थी। अर्जुन द्वारिका की सर्व स्त्रियों को बैलगाडि़यों में बैठाकर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के लिए चल पड़ा।रास्ते में भीलों ने अर्जुन को घेर लिया। अर्जुन को पीटा। गोपियों को लूटा। कुछ स्त्रियों को भील उठा ले गए। अर्जुन कुछ नहीं कर सका। धनुष उठा भी नहीं सका। तब अर्जुन ने कहा
था कि कृष्ण नाश करना था। युद्ध में पाप करवाने के लिए तो बल दे दिया। लाखों योद्धा इसी गांडीव धनुष से मार गिराए। कोई मेरे सामने टिकने वाला नहीं था। आज वही अर्जुन है, वही धनुष है। मैं खड़ा-खड़ा काँप रहा हूँ। कृष्ण जालिम था। धोखेबाज था। कबीर परमेश्वर जी हमें समझाते हैं कि यह जुल्म कृष्ण ने नहीं किया, ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म) ने किया है। श्री कृष्ण का जीवन देख लो। श्री कृष्ण अपने कुल को मथुरा से लेकर जान
बचाकर द्वारिका आया। द्वारिका में उनकी आँखों के सामने सब यादव कुल नष्ट हो गया। श्री कृष्ण का बेटा मर गया। पोता मर गया। सर्व कुल नष्ट हो गया। स्वयं बेमौत मरा। उसके कुल की स्त्रियों की दुर्गति भीलों ने की। जबरदस्ती उठा ले गए। उनकी इज्जत
खराब की। नरक का जीवन जीने के लिए मजबू�� हुई। उसी श्री कृष्ण की पूजा करके जो सु��-शान्ति की आशा कर��ा है। उसमें कितनी बुद्धि है, इस घटना से पता चलता है।
क्रमशः________
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[11/12, 6:25 pm] +91 83078 98929: #गीताजयंती_पर_जानें_गीतारहस्य
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श्राद्ध के बारे में क्या कहती है पवित्र गीता!
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‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
- जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
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शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए। जानने के लिए देखें "खुल गया राज गीता का" Factful Debates YouTube Channel पर।
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क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
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क्या आप जानते हैं कि गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
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जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
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श्राद्ध के बारे में क्या कहती है पवित्र गीता!
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‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
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पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित पूर्ण परमात्मा के सांकेतिक मंत्र "ॐ, तत्, सत्" को पूर्ण संत से प्राप्त करके सतभक्ति करने से परमात्मा की प्राप्ति होगी और वर्तमान में इन मंत्रों को देने के एकमात्र अधिकारी पूर्ण संत, सतगुरु रामपाल जी महाराज हैं।
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क्या आप जानते हैं कि गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
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क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
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📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए। जानने के लिए देखें "खुल गया राज गीता का" Factful Debates YouTube Channel पर।
📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
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#खुल_गया_राज_गीता_का
जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) अटल विधान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य की तरह किसी के सामने नही आता हूँ।
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क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
अधिक जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें अनमोल पुस्तक ज्ञान गंगा
📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
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📙 क्या आप जानते हैं कि गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
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📙क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
अधिक जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें अनमोल पुस्तक ज्ञान गंगा
📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
📙गीता जी में तत्त्वदर्शी संत की क्या पहचान बताई है?
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📙श्राद के बारे में क्या कहती है भगवद्गीता?
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[10/26, 7:18 AM] +91 87709 48261: काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं स्थूल शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान तो सही(वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए भी अटकल बाजी में कसर नहीं छोड़ी।
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart89 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart90
।। पाण्डवों की यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंख बजाना।।
जैसा कि सर्व विदित है कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया था तथा शस्त्र त्याग कर युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच में खड़े रथ के पिछले हिस्से में आंखों से आँसू बहाता हुआ बैठ गया था। तब भगवान कृष्ण के अन्दर प्रवेश काल शक्ति (ब्रह्म) अर्जुन को युद्ध करने की राय देने लगा था। तब अर्जुन ने कहा था कि भगवान यह घोर पाप मैं नहीं करूंगा। इससे अच्छा तो भिक्षा का अन्न भी खा कर गुजारा कर लेंगे। तब भगवान काल श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था कि अर्जुन युद्ध कर। तुझे कोई पाप नहीं लगेगा। देखें गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 33, अध्याय 2 के श्लोक 37, 38 में।
महाभारत में लेख (प्रकरण) आता है कि कृष्ण जी के कहने से अर्जुन ने युद्ध करना स्वीकार कर लिया। घमासान युद्ध हुआ। करोड़ों व्यक्ति व सर्व कौरव युद्ध में मारे गए और पाण्डव विजयी हुए। तब पाण्डव प्रमुख युधिष्ठिर को राज्य सिंहासन पर बैठाने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा तो युधिष्ठिर ने यह कहते हुए गद्दी पर बैठने से मना कर दिया कि मैं ऐसे पाप युक्त राज्य को नहीं करूंगा। जिसमें करोड़ों व्यक्ति मारे गए ��े। उनकी पत्नियाँ विधवा हो गई, करोड़ों बच्चे अनाथ हो गए, अभी तक उनके आँसू भी नहीं सूखे हैं। किसी प्रकार भी बात बनती न देख कर श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप भीष्म जी से राय लो। क्योंकि जब व्यक्ति स्वयं फैसला लेने में असफल रहे तब किसी स्वजन से विचार कर लेना चाहिए। युधिष्ठिर ने यह बात स्वीकार कर ली। तब श्री कृष्ण जी युधिष्ठिर को साथ लेकर वहाँ पहुँचे जहाँ पर श्री भीष्म शर (तीरों की) शैय्या (चारपाई) पर अंतिम स्वांस गिन रहे थे, वहाँ जा कर श्री कृष्ण जी ने भीष्म से कहा कि युधिष्ठिर राज्य
गद्दी पर बैठने से मना कर रहे हैं। कृपा आप इन्हें राजनीति की शिक्षा दें। भीष्म जी ने बहुत समझाया परंतु युधिष्ठिर अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुआ। यही कहता रहा कि इस पाप से युक्त रूधिर से सने राज्य को भोग कर मैं नरक प्राप्ति नहीं चाहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप एक धर्म यज्ञ करो। जिससे आपको युद्ध में हुई हत्याओं का पाप नहीं लगेगा। इस बात पर युधिष्ठिर सहमत हो गया और एक धर्म यज्ञ की। फिर राज गद्दी पर बैठ गया। हस्तिनापुर का राजा बन गया।
प्रमाण सुखसागर के पहले स्कन्ध के आठवें तथा नौवें अध्याय से सहाभार पृष्ठ नं. 48 से 53)
कुछ वर्षों पर्यन्त युधिष्ठिर को भयानक स्वपन आने शुरु हो गए। जैसे बहुत सी औरतें रोती-बिलखती हुई अपनी चूड़ियाँ तोड़ रहीं हैं तथा उनके मासूम बच्चे अपनी माँ के पास खड़े कुछ बैठे पिता-पिता कह कर रो रहे हैं मानों कह रहे हो हे राजन् ! हमें भी मरवा दे, भेज दे हमारे पिता के पास। कई बार बिना शीश के धड़ दिखाई देते है। किसी की गर्दन कहीं पड़ी है, धड़ कहीं पड़ा है, हा हा कार मची हुई है। युधिष्ठिर की नींद उचट जाती, घबरा कर बिस्तर पर बैठ कर हाँफने लग जाता। सारी-2 रात बैठ कर या महल में घूम कर व्यतीत करता है। एक दिन द्रौपदी ने बड़े पति की यह दशा देखी और परेशानी का कारण पूछा तो युधिष्ठिर कुछ नहीं कुछ नहीं कह कर टाल गए। जब द्रौपदी ने कई रात्रियों में युधिष्ठिर की यह दुर्दशा देखी तो एक दिन चारों (अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव) को बताया कि आपका बड़ा भाई बहुत परेशान है। कारण पूछो। तब चारों भाईयों ने बड़े भईया से प्रार्थना करके पूछा कि कृप्या परेशानी का कारण बताओ। ज्यादा आग्रह करने पर अपनी सर्व कहानी सुनाई। पाँचों भाई इस परेशानी का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्णजी के पास गए तथा बताया कि बड़े भईया युधिष्ठिर जी को भयानक स्वपन आ रहे हैं। जिनके कारण उनकी रात्रि की नींद व दिन का चैन व भूख समाप्�� हो गई। कृप्या कारण व समाधान बताएँ। सारी बात सुनकर श्री कृष्ण जी बोले युद्ध में किए हुए पाप परेशान कर रहे हैं। इन पापों का निवारण यज्ञ से होता है।
गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 13 का हिन्दी अनुवाद यज्ञ में प्रतिष्ठित ईष्ट (पूर्ण परमात्मा) को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं अर्थात् यज्ञ करके सर्व पापों से मुक्त हो जाते हैं। और कोई चारा न देख कर पाण्डवों ने श्री कृष्ण जी की सलाह स्वीकार कर ली। यज्ञ की तैयारी की गई। सर्व पृथ्वी के मानव, ऋषि, सिद्ध, साधु व स्वर्ग लोक के देव भी आमन्त्रित करने को, श्री कृष्ण जी ने कहा कि जितने अधिक व्यक्ति भोजन पाएंगें उतना ही अधिक पुण्य होगा। परंतु संतों व भक्तों से विशेष लाभ होता है उनमें भी कोई परम शक्ति युक्त संत होगा वह पूर्ण लाभ दे सकता है तथा यज्ञ पूर्ण होने का साक्षी एक पांच मुख वाला (पंचजन्य) शंख एक सुसज्जित ऊँचे आसन पर रख दिया जाएगा तथा जब इस यज्ञ में कोई परम शक्ति युक्त संत भोजन खाएगा तो यह शंख स्वयं आवाज करेगा। इतनी गूँज होगी की पूरी पृथ्वी पर तथा स्वर्ग लोक तक आवाज सुनाई देगी।
यज्ञ की तैयारी हुई। निश्चित दिन को सर्व आदरणीय आमन्त्रित भक्तगण, अठासी हजार ऋषि, तेतीस करोड़ देवता, नौ नाथ, चौरासी सिद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि पहुँच गए। यज्ञ कार्य शुरु हुआ। बाद में सब ने यज्ञ का बचा प्रसाद (भण्डारा) सर्व उपस्थित महानुभावों व भक्तों तथा जनसाधारण को बरताया (खिलाया)। स्वयं भगवान कृष्ण जी ने भी भोजन खा लिया। परंतु शंख नहीं बजा। शंख नहीं बजा तो यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हुई। उस समय युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी से पूछा हे मधुसूदन ! शंख नहीं बजा। सर्व महापुरुषों व आगन्तुकों ने भोजन पा लिया। कारण क्या है? श्री कृष्ण जी ने कहा कि इनमें कोई पूर्ण सन्त (सतनाम व सारनाम उपासक) नहीं है। तब युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने महा मण्डलेश्वर जिसमें वशिष्ठ मुनि, मार्कण्डेय, लोमष ऋषि, नौ नाथ (गोरखनाथ जैसे), चौरासी सिद्ध आदि-2 व स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी ने भी भोजन खा लिया। परंतु शंख नहीं बजा। इस पर कृष्ण जी ने कहा ये सर्व मान बड़ाई के भूखे हैं। परमात्मा चाहने वाला कोई नहीं तथा अपनी मनमुखी साधना करके सिद्धि दिखा कर दुनियाँ को आकर्षित करते हैं। भोले लोग इनकी वाह-2 करते हैं तथा इनके इर्द-गिर्द मण्डराते हैं। ये स्वयं भी पशु जूनी में जाएंगे तथा अपने अनुयाईयों को नरक ले जाएंगे।
गरीब, साहिब के दरबार में, गाहक कोटि अनन्त । चार चीज चाहै हैं, रिद्धि सिद्धि मान महंत ।।
गरीब, ब्रह्म रन्द्र के घाट को, खोलत है कोई एक। द्वारे से फिर जाते हैं, ऐसे बहुत अनेक ।।
गरीब, बीजक की बातां कहें, बीजक नाहीं हाथ। पृथ्वी डोबन उतरे, कह-कह मीठी बात ।। गरीब, बीजक की बातां कहैं, बीजक नाहीं पास।
ओरों को प्रमोदही, अपन चले निरास ।।
प्रमाण के लिए गीता जी के कुछ श्लोक ।।
अध्याय 9 का श्लोक 20
त्रैविद्याः, माम्, सोमपाः, पूतपापाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्टवा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते, ते, पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान् । ।20 ।। अनुवाद :- (त्रैविद्याः) तीनों वेदों में विधान (सोमपाः) सोमरस को पीने वाले (पूतपापाः) पाप रहित पुरुष (माम्) मुझको (यज्ञैः) यज्ञों के द्वारा (इष्टवा) पूज्य देव के रूप में पूज कर (स्वर्गतिम्) स्वर्ग की प्राप्ति (प्रार्थयन्ते) चाहते हैं (ते) वे पुरुष (पुण्यम्) अपने पुण्यों के फलरूप (सुरेन्द्रलोकम्) स्वर्ग लोक को (आसाद्य) प्राप्त होकर (दिवि) स्वर्ग में (दिव्यान्) दिव्य (देवभोगान्) देवताओं के भोगों को (अश्नन्ति) भोगते हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद तीनों वेदों में विधान सोम रस को पीने वाले पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूज्य देव के रूप में पूज कर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं। वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्ग लोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।
अध्याय 9 का श्लोक 21
ते, तम्, भुक्त्वा, स्वर्गलोकम्, विशालम्, क्षीणे, पुण्ये, मर्त्यलोकम्, विशन्ति,
एवम्, त्रयीधर्मम्, अनुप्रपन्नाः, गतागतम्, कामकामाः, लभन्ते । ।21 ।। अनुवाद :- (ते) वे (तम्) उस (विशालम्) विशाल (स्वर्गलोकम्) स्वर्गलोकको (भुक्त्त्वा) भोगकर (पुण्ये) पुण्य (क्षीणे) क्षीण होनेपर (मर्त्यलोकम्) मृत्युलोकको (विशन्ति) प्राप्त होते हैं। (एवम्) इस प्रकार (त्रयीधर्मम्) तीनों वेदों में कहे हुए पूजा कर्मों का (अनुप्रपन्नाः) आश्रय लेने वाले और (कामकामाः) भोगों की कामनावस (गतागतम्) बार-बार आवागमन को (लभन्ते) प्राप्त होते हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए पूजा कर्मों का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावश बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 17
आत्सम्भाविताः, स्तब्धाः, धनमानमदान्विताः, यजन्ते, नामयज्ञैः, ते, दम्भेन, अविधिपूर्वकम् । ।17 ।।
अनुवाद :- (ते) वे (आत्मसम्भाविताः) अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले (स्तब्धाः) घमण्डी पुरुष (धनमानमदान्विताः) धन और मान के मद से युक्त होकर (नामयज्ञैः) केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा (दम्भेन) पाखण्ड से (अविधिपूर्वकम्) शास्त्रविधि रहित पूजन करते हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी
पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित पूजन करते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 18
अहंकार��्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोध��्, च, संश्रिताः, माम्, आत्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तः, अभ्यसूयकाः । |18||
अनुवाद :- (अहंकारम्) अहंकार (बलम्) बल (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) कामना और (क्रोधम) क्रोधादि के (संश्रिताः) परायण (च) और (अभ्यसूयकाः) दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष (आत्मपरदेहेषु) प्रत्येक शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा (माम्) मुझसे (प्रद्विषन्तः) द्वेष करने वाले होते हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद: अहंकार बल घमण्ड कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष प्रत्येक शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा मुझसे द्वेष करने वाले होते हैं। अध्याय 16 का श्लोक 19
तान् अहम्, द्विषतः, क्रूरान्, संसारेषु, नराधमान्, क्षिपामि, अजस्त्रम्, अशुभान्, आसुरीषु, एव, योनिषु । ।19 ।।
अनुवाद :- (तान्) उन (द्विषतः) द्वेष करने वाले (अशुभान्) पापाचारी और (क्रूरान्) क्रूरकर्मी (नराधमान) नराधमों को (अहम्) मैं (संसारेषु) संसार में (अजस्त्रम्) बार-बार (आसुरीषु) आसुरी (योनिषु) योनियों में (एव) ही (क्षिपामि) डालता हूँ।
केवल हिन्दी अनुवाद उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ।
अध्याय 16 का श्लोक 20
आसुरीम्, योनिम्, आपन्नाः, मूढाः, जन्मनि, जन्मनि,
माम् अप्राप्य, एव, कौन्तेय, ततः, यान्ति, अधमाम्, गतिम् । ।20।।
अनुवाद :- (कौन्तेय) हे अर्जुन ! (मूढाः) वे मूर्ख (माम्) मुझको (अप्राप्य) न प्राप्त होकर (एव) ही (जन्मनि) जन्म (जन्मनि) जन्म में (आसुरीम्) आसुरी (योनिम्) योनि को (आपन्नाः) प्राप्त होते हैं फिर (ततः) उससे भी (अधमाम्) अति नीच (गतिम्) गति को (यान्ति) प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद हे अर्जुन! वे मूर्ख मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।
अध्याय 16 का श्लोक 23
यः, शास्त्रविधिम्, उत्सृज्य, वर्तते, कामकारतः, न, सः, सिद्धिम्, अवाप्रोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम् । ।23 ।।
अनुवाद (यः) जो पुरुष (शास्त्रविधिम्) शास्त्र विधि को (उत्सृज्य) त्यागकर (कामकारतः) अपनी इच्छा से मनमाना (वर्तते) आचरण करता है (सः) वह (न) न (सिद्धिम्) सिद्धि को (अवाप्नोति) प्राप्त होता है (न) न (पराम्) परम (गतिम्) गति को और (न) न (सुखम्) सुख को ही।
केवल हिन्दी अनुवाद: जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart91 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart92
"अन्य वाणी सतग्रन्थ से"
तेतीस कोटि यज्ञ में आए सहंस अठासी सारे। द्वादश कोटि वेद के वक्ता, सुपच का शंख बज्या रे ।।
"अर्जुन सहित पाण्डवों को युद्ध में की गई हिंसा के पाप लगे"
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पाण्डवों को युद्ध की हत्याओं का पाप लगा। आगे सुन और सुनाता हूँ :-
दुर्वासा ऋषि के शाप वश यादव कुल आपस में लड़कर प्रभास क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे नष्ट हो गया। श्री क��ष्ण जी भगवान को एक शिकारी ने पैर में विषाक्त तीर मार कर घायल कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने उस शिकारी को बताया कि आप त्रेता युग में सुग्रीव के बड़े भाई बाली थे तथा मैं रामचन्द्र था। आप को मैंने धोखा करके वृक्ष की ओट लेकर मारा था। आज आपने वह बदला (प्रतिशोध) चुकाया है। पाँचों पाण्डवों को पता चला कि यादव आपस में लड़ मरे हैं वे द्वारिका पहुँचे। वहाँ गए जहाँ पर श्री कृष्ण जी तीर से घायल तड़फ रहे थे। पाँचों पाण्डवों के धार्मिक गुरू श्री कृष्ण जी थे। श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों से कहा! आप मेरे अतिप्रिय हो। मेरा अन्त समय आ चुका है। मैं कुछ ही समय का मेहमान हूँ। मैं आपको अन्तिम उपदेश देना चाहता हूँ कृप्या ध्यान पूर्वक सुनों। यह कह कर श्री कृष्ण जी ने कहा (1) आप द्वारिका की स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ ले जाना। यहाँ कोई नर यादव शेष नहीं बचा है (2) आप अति शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय चले जाओ वहाँ अपने शरीर के नष्ट होने तक तपस्या करते रहो। इस प्रकार हिमालय की बर्फ में गल कर नष्ट हो जाओ। युधिष्ठर ने पूछा हे भगवन्! हे गुरूदेव श्री कृष्ण ! क्या हम हिमालय में गल कर मरने का कारण जान सकते हैं? यदि आप उचित समझें तो बताने की कृपा करें। श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठर! आप ने युद्ध में जो प्राणियों की हिंसा करके पाप किया है। उस पाप का प्रायश्चित् करने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इस प्रकार तपस्या करके प्राण त्यागने से आप के महाभारत युद्ध में किए पाप नष्ट हो जाएँगे।
कबीर जी बोले हे धर्मदास ! श्री कृष्ण जी के श्री मुख से उपरोक्त वचन सुन कर अर्जुन आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा श्री कृष्ण जी आज फिर कह रहे हैं कि युद्ध में किए पाप नष्ट इस विधि से होगें। अर्जुन अपने आपको नहीं रोक सका। उसने श्री कृष्ण जी से कहा हे भगवन्! क्या मैं आप से अपनी शंका का समाधान करा सकता हूँ। वैसे तो गुरूदेव! यह मेरी गुस्ताखी है, क्षमा करना क्योंकि आप ऐसी स्थिति में हैं कि आप से ऐसी-वैसी बातें करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि प्रभु ! मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो यह शंका रूपी कांटा आयु पर्यन्त खटकता रहेगा। मैं चैन से जी नहीं सकूंगा। श्री कृष्ण ने कहा हे अर्जुन ! तू जो पूछना चाहता है निःसंकोच होकर पूछ। मैं अन्तिम स्वांस गिन रहा हूँ जो कहूंगा सत्य कहूंगा। अर्जुन बोला हे श्री कृष्ण! आपने श्री मद्भगवत् गीता का ज्ञान देते समय कहा था कि अर्जुन ! तू युद्ध कर तुझे युद्ध में मारे जाने वालों का पाप नहीं लगेगा तू केवल निमित्त मात्र बन जा ये सर्व योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं (प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 32-33) आपने यह भी कहा कि अर्जुन युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को चला जाएगा, यदि युद्ध जीत गया तो ��ृथ्वी के राज्य का सुख भोगेगा। तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। (प्रमाण श्री मदभगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 37) तू युद्ध के लिए खड़ा हो जो जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर युद्ध कर इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 38) जिस समय बड़े भईया को बुरे 2 स्वपन आने लगे हम आप के पास कष्ट निवारण के लिए विधि जानने गए तो आपने बताया कि जो युद्ध में बन्धुघात अर्थात् अपने नातियों (राजाओं, सैनिकों, चाचा, भतीजा आदि) की हत्या का पाप दुःखी कर रहा है। मैं (अर्जुन) उस समय भी आश्चर्य में पड़ गया था कि भगवन् गीता ज्ञान में कह रहे थे कि तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा युद्ध करो। आज कह रहे है कि युद्ध में की गई हिंसा का पाप दुःखी कर रहा है। आपने पाप नाश होने का समाधान बताया "अश्वमेघ यज्ञ" करना जिसमें करोड़ों रूपये का खर्च हुआ। उस समय मैं अपने मन को मार कर यह सोच कर चुप रहा कि यदि मैं आप (श्री कृष्ण जी) से वाद-विवाद करूँगा कि आप तो कह रहे थे तुम्हें युद्ध में होने वाली हत्याओं का कोई पाप नहीं लगेगा। आज कह रहे हो तुम्हें महाभारत युद्ध में की हत्याओं का पाप दुःख दे रहा है। कहाँ गया आप का वह गीता वाला ज्ञान। किसलिए हमारे साथ धोखा किया, गुरू होकर विश्वासघात किया। तो बड़े भईया (युधिष्ठर जी) यह न सोच लें कि मेरी चिकित्सा में धन लगना है। इस कारण अर्जुन वाद-विवाद कर रहा है। यह (अर्जुन) मेरे कष्ट निवारण में होने वाले खर्च के कारण विवाद कर रहा है यह नहीं चाहता कि मैं (युधिष्ठर) कष्ट मुक्त हो जाऊं। अर्जुन को भाई के जीवन से धन अधिक प्रिय है। उपरोक्त विचारों को ध्यान में रखकर मैंने सोचा था कि यदि युधिष्ठर भईया को थोड़ा सा भी यह आभास हो गया कि अर्जुन ! इस दृष्टि कोण से विवाद कर रहा है तो भईया ! अपना समाधान नहीं कराएगा। आजीवन कष्ट को गले लगाए रहेगा। हे कृष्ण! आप के कहे अनुसार हमने यज्ञ किया। आज फिर आप कह रहे हो कि तुम्हें युद्ध की हत्याओं का पाप लगा है उसे नष्ट करने के लिए शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय में तपस्या करके गल मरो। आपने हमारे साथ यह विश्वास घात किसलिए किया? यदि आप जैसे सम्बन्धी व गुरू हों तो शत्रुओं की आवश्यकता ही नहीं। हे कृष्ण हमारे हाथ में तो एक भी लड्डू नहीं रहा न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग गए न पृथ्वी के राज्य का सुख भोग सके। क्योंकि आप कह रहे हो कि राज्य त्याग कर हिमालय में गल मरो।
आँसू टपकाते हुए ��र्जुन के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर युधिष्ठर बोला, अर्जुन ! जिस परिस्थिति में भगवान है। इस समय ये शब्द बोलना शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी बोले हे अर्जुन ! सुन मैं आप को सत्य-2 बताता हूँ। गीता के ज्ञान में मैंने क्या कहा था मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। यह जो कुछ भी हुआ है यह होना था इसे टालना मेरे वश नहीं था। कोई अन्य शक्ति है जो आप और हम को कठपुतली की तरह नचा रही है। वह तेरे वश न मेरे वश। परन्तु जो मैं आपको हिमालय में तपस्या करके शरीर अन्त करने की राय दे रहा हूँ। यह आप को लाभदायक है। आप मेरे इस वचन का पालन अवश्य करन���। यह कह कर श्री कृष्ण जी शरीर त्याग गए। जहाँ पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया। उस स्थान पर यादगार रूप में श्री कृष्ण जी के नाम पर द्वारिका में द्वारिकाधीश मन्दिर बना है।
श्री कृष्ण ने पाण्डवों से कहा था कि मेरे शरीर का संस्कार करके राख तथा अधजली अस्थियों को एक काष्ठ के संदूक (Box) में डालकर उसको पूरी तरह से बंद करके यमुना में प्रवाह कर देना। पाण्डवों ने वैसा ही किया। वह संदूक बहता हुआ समुद्र में उस स्थान पर चला गया जिस स्थान पर उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ का मंदिर बना है। एक समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था जो श्री कृष्ण जी का परम भक्त था। स्वपन में श्री कृष्ण जी ने बताया कि एक काष्ठ के संदूक में मेरे कृष्ण वाले शरीर की अस्थियाँ हैं। उस स्थान पर वह संदूक बहकर आ चुका है। उसी स्थान पर उनको जमीन में दबाकर एक मंदिर बनवा दें। राजा ने स्वपन अपनी धार्मिक पत्नी तथा मंत्रियों के साथ साझा किया और उस स्थान पर गए तो वास्तव में एक लकड़ी का संदूक मिला। उसको जमीन में दबाकर जगन्नाथ नाम से मंदिर बनवाया। संपूर्ण जानकारी पढ़ें इसी पुस्तक "हिन्दू साहेबान ! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण" में पृष्ठ 56 पर।
धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर जी ने बताया। हे धर्मदास ! सर्व (छप्पन करोड़) यादव का जो आपस में लड़कर मर गए थे, अन्तिम संस्कार करके अर्जुन को द्वारिका में छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ चले गए। अकेला अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों तथा श्री कृष्ण जी की गोपियों को लेकर आ रहे थे। रास्ते में जंगली लोगों ने अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के पास अपना गांडीव धनुष भी था जिस से महाभारत का युद्ध जीता था। परन्तु उस समय अर्जुन से वही धनुष नहीं चला। अपने आप को शक्तिहीन जानकर अर्जुन कायरों की तरह सब देखता रहा। वे जंगली व्यक्ति स्त्रियों के गहने लूट ले गए तथा कुछ स्त्रियों को भी अपने साथ ले गए। शेष स्त्रियों को साथ लेकर अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान किया तथा मन में विचार किया कि श्री कृष्ण जी महाधोखेबाज (विश्वासघाती) था। जिस समय मेरे से युद्ध कराना था तो शक्ति प्रदान कर दी। उसी धनुष से मैंने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। आज मेरा बल छीन लिया, मैं कायरों की तरह पिटता रहा मेरे से वही धनुष नहीं चला। कबीर परमेश्वर जी ने बताया धर्मदास ! श्री कृष्ण जी छलिया नहीं था। वह सर्व कपट काल ब्रह्म ने किया है जो ब्रह्मा-विष्णु व शिव का पिता है। जिसके समक्ष श्री विष्णु (कृष्ण) तथा श्री शिव आदि की कुछ पेश नहीं चलती।
उपरोक्त कथा सुनकर धर्मदास जी ने प्रश्न किया धर्मदास ने कहा हे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी! आप ने तो मेरी आँखे खोल दी हे प्रभु! हिमालय में तपस्या कर युधिष्ठर का तो केवल एक पैर का पंजा ही बर्फ से नष्ट हुआ तथा अन्य के शरीर गल गए थे। सुना है वे सर्व पापमुक्त होकर ��्वर्ग चले गए?
उत्तर :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास ! हिमालय में जो तप पाण्डवों ने किया वह शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) होने के कारण व्यर्थ प्रयत्न था। (प्रमाण-गीता अध्याय 16 श्लोक 23 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल कल्पित घोर तप को तपते हैं वे शरीरस्थ परमात्मा को कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को नष्ट हुए जान।) क्योंकि जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह गीता जी व वेदों में वर्णित नहीं है अपितु ऐसे शरीर को पीड़ा देकर साधना करना व्यर्थ बताया है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है ओम् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-2 कर, विशेष कसक के साथ कर मनुष्य जन्म का मुख्य
कर्त्तव्य जान के कर। यही प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 7 व 13 में कहा है कि मेरा तो केवल ॐ नाम है इस का जाप अन्तिम सांस तक करने से लाभ होता है इसलिए अर्जुन ! तू युद्ध भी कर तथा स्मरण (भक्ति जाप) भी कर अतः हे धर्मदास ! जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह व्यर्थ सिद्ध हुई।
गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 में कहा है कि जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रयों को रोककर अर्थात् हठ योग द्वारा एक स्थान पर बैठ कर या खड़ा होकर साधना करता है। वह मन से इन्द्रियों का चिन्तन करता रहता है। जैसे सर्दी लगी तो शरीर की चिन्ता, सर्दी का चिन्तन, भूख लगी तो भूख का चिन्तन आदि होता रहता है। वह हठ से तप करने वाला मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है। कार्य न करने अर्थात् एक स्थान पर बैठ या खड़ा होकर साधना करने की अपेक्षा कर्म करना तथा भक्ति भी करना श्रेष्ठ है। यदि कर्म नहीं करेगा तो तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
विशेष विचार :- श्री मद्भगवत गीता में ज्ञान दो प्रकार का है। एक तो वेदों वाला तथा दूसरा काल ब्रह्म द्वारा सुनाया लोक वेद वाला। यह ज्ञान (गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 वाला ज्ञान) वेदों वाला ज्ञान ब्रह्म काल ने बताया है। श्री कृष्ण जी द्वारा भी काल ब्रह्म ने पाण्डवों को लोक वेद सुनाया जिस से तप हो जाता है। तप से फिर कभी राजा बन जाता है कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।
हे धर्मदास ! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।
हे धर्मदास ! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर की आत्माएँ निकल चुकी हैं सूक्ष्म शरीर युक्त आकाश को जाने लगी। तब युधिष्ठर ने भी अपना शरीर त्याग दिया तथा सूक्ष्म शरीर युक्त युधिष्ठर कर्मों के संस्कार वश अपने पिता धर्मराज के लोक में गया। धर्मराज ने अपने पुत्र को बहुत प्यार किया तथा उसको रहने का मकान बताया। कुछ समय पश्चात् काल ब्रह्म ने युधिष्ठर में प्र���रणा की। उसे अपने भाईयों व पत्नी द्रोपदी तथा माता कुन्ती की याद सताने लगी। युधिष्ठर ने अपने पिता धर्मराज से कहा हे धर्मराज ! मुझे मेरे परिजनों से मिलाईए मुझे उनकी बहुत याद सता रही है। धर्मराज ने कहा युधिष्ठर ! वह तेरा परिवार नहीं था। तेरा परिवार तो यह है। तू मेरा पुत्र है। अर्जुन स्वर्ग के राजा इन्द्र का पुत्र है, भीम-पवन देव का पुत्र है, नकुल-नासत्��� का पुत्र है तथा सहदेव-दस्र का पुत्र है। (नासत्य तथा दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार हैं जो अश्व रूप धारी सूर्य देव तथा अश्वी (घोड़ी) रूप धारी सूर्य की पत्नी संज्ञा के सम्भोग से उत्पन्न हुए थे। सूर्य को घोड़े रूप में न पहचान कर सूर्य पत्नी जो घोड़ी रूप धार कर जंगल में तप कर रही थी अपने धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूपधारी सूर्य को पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया वह उस घोड़े से अभिमुख रही। कामवासना वश घोड़ा रूपधारी सूर्य घोड़ी रूपधारी अपनी पत्नी (विश्वकर्मा की पुत्री) के मुख की ओर चढ़कर सम्भोग करने के कारण वीर्य का कुछ अंश घोड़ी रूपधारी सूर्य की पत्नी के पेट में मुख द्वारा प्रवेश कर गया जिससे दो लड़कों (नासत्य तथा दस्र) का जन्म घोड़ी रूपी सूर्य पत्नी के मुख से हुआ जिस कारण ये दोनों बच्चे अश्विनी कुमार कहलाए। यह पुराण कथा है।]
धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठर को बताया कि आप सब का वहाँ पृथ्वी लोक में इतना ही संयोग था। वह समाप्त हो चुका है। वे सर्व युद्ध में किए पाप कर्मों तथा अन्य जीवन में किए पाप कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में डाल रखे हैं। आप के पुण्य अधिक है इसलिए आप नरक में नहीं डाल रखे हैं। अतः आप उन से नहीं मिल सकते काल ब्रह्म कि प्रबल प्रेरणा वश होकर युधिष्ठर ने उन सर्व (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) को मिलने का हठ किया। धर्मराज ने एक यमदूत से कहा आप युधिष्ठर को इसके परिवार से मिला कर शीघ्र लौटा लाना। यमदूत युधिष्ठर को लेकर नरक में प्रवेश हुआ। वहाँ पर आत्माऐं हा-हाकार मचा रहे थे, कह रहे थे, हे युधिष्ठर हमें नरक से निकलवा दो। मैं अर्जुन हूँ, कोई कह रहा था, मैं भीम हूँ, मैं नकुल, मैं सहदेव हूँ, मैं कुन्ती, मैं द्रोपदी हूँ। इतने में यमदूत ने कहा हे युधिष्ठिर अब आप लौट चलिए। युधिष्ठर ने कहा मैं भी अपने परिवार जनों के साथ यहीं नरक में ही रहूँगा। तब धर्मराज ने आवाज लगाई युधिष्ठिर यहाँ आओ मैं तेरे को एक युक्ति बताता हूँ। यह आवाज सुन कर युधिष्ठिर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया। धर्मराज ने युधिष्ठिर को समझाया कि बेटा आपने एक झूठ बोला था कि अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या युधिष्ठिर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया। आपने एक झूठ बोला था कि
धर्मराज ने युधिष्ठिर को समझाया कि बेटा अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या हाथी। जबकि आप को पता था कि हाथी मरा है। उस झूठ बोलने के पाप का कर्मदण्ड देने के लिए आप को कुछ समय इसी बहाने नरक में रखना पड़ा नहीं तो वह युक्ति मैं पहले ��ी आप को बता देता। युधिष्ठर ने कहा कृप्या आप वह विधि बताईए जिस से मेरे परिजन नरक से निकल सकें। धर्मराज ने कहा उनको एक शर्त पर नरक से निकाला जा सकता है कि आप अपने कुछ पुण्य उनको संकल्प कर दो। युधिष्ठर ने कहा मुझे स्वीकार है। यह कह कर युधिष्ठर ने अपने आधे पुण्य उन छः के निमित्त संकल्प कर दिए। वे छःओं नरक से बाहर आकर धर्मराज के पास जहाँ युधिष्ठर खड़ा था, उपस्थित हो गए। उसी समय इन्द्र देव आया अपने पुत्र अर्जुन को साथ
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हिन्दू साहेबान ! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण
लेकर चला गया, पवन देवता आया अपने पुत्र भीम को साथ लेकर चला गया। इसी प्रकार अश्विनी कुमार (नासत्य, दस्र) आए नकुल व सहदेव को लेकर चले गए। कुन्ती स्वर्ग में चली गई तथा देखते-2 द्रोपदी ने दुर्गा रूप धारण किया तथा आकाश को उड़ चली कुछ ही समय में सर्व की आँखों से ओझल हो गई। वहाँ अकेला युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास रह गया। परमेश्वर कबीर जी ने अपने शिष्य धर्मदास जी को उपरोक्त कथा सुनाई तत्पश्चात् इस सर्व काल के जाल को समझाया।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया हे धर्मदास ! काल ब्रह्मकी प्रेरणा से इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी कर्म करते हैं। जैसा आपने सुना युधिष्ठर पुत्र धर्मराज, अर्जुन पुत्र इन्द्र, भीम पुत्र पवन देव, नकुल पुत्र नासत्य तथा सहदेव पुत्र दस्र थे। द्रोपदी शापवश दुर्गा की अवतार थी जो अपना कर्म भोगने आई थी तथा कुन्ती भी दुर्गा लोक की पुण्यात्मा थी। ये सर्व काल प्रेरणा से पृथ्वी पर एक फिल्म (चलचित्र) बनाने गए थे। जैसे एक करोड़पति का पुत्र किसी फिल्म में रिक्शा चालक का अभिनय करता है। फिल्म निर्माण के पश्चात् अपनी 20 लाख की कार गाडी में बैठ कर आनन्द करता है। भोले-भाले सिनेमा दर्शक उसे रिक्शा चालक मान कर उस पर दया करते हैं। उसके बनावटी अभिनय को देखने के लिए अपना बहुमूल्य समय तथा धन नष्ट करते हैं। ठीक इसी प्रकार उपरोक्त पात्रों (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) द्वारा बनाई फिल्म महाभारत के इतिहास को पढ़-पढ़कर पृथ्वी लोक के प्राणी अपना समय व्यर्थ करते हैं। तत्त्वज्ञान को न सुनकर मानव शरीर को व्यर्थ कर जाते हैं। काल ब्रह्म यही चाहता है कि मेरे अन्तर्गत जितने भी जीव हैं। वे तत्त्वज्ञान से अपरिचित रहे तथा मेरी प्रेरणा से मेरे द्वारा भेजे गुरुओं द्वारा शास्त्रविधि विरुद्ध साधना प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े रहे। काल ब्रह्म की प्रेरणा से तत्त्वज्ञान हीन सन्तजन व ऋषिजन कुछ वेद ज्ञान अधिक लोक वेद के आधार से ही सत्संग वचन श्रद्धालुओं को सुनाते हैं। जिस कारण से साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त न करके काल के जाल में ही रह जाते हैं।
हे धर्मदास ! मैं पूर्ण परमात्मा की आज्ञा लेकर तत्त्वज्ञान बताने के लिए काल लोक में कलयुग में आया हूँ।
धर्मदास जी ने बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी के ��रण पकड़ कर कहा हे परमेश्वर ! आप स्वयं सत्यपुरूष हो धर्मदास जी ने अति विनम्र होकर आधीन भाव से प्रश्न किया।
"क्या पाण्डव सदा स्वर्ग में ही रहेंगे?
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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Ishwar TV Satsang | 13-12-2024 | Episode: 2602 | Sant Rampal Ji Maharaj ...
*🪷बन्दीछोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो🪷*
♦♦♦
13/12/24
*🌿अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव पर खुल गया राज गीता का*
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1📙पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?
2📙 ‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
- जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
3📙गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि उत्तम पुरुष यानि पूर्ण परमात्मा तो कोई और है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है। उस परमात्मा को प्राप्त करने की विधि क्या है?
4📙पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित पूर्ण परमात्मा के सांकेतिक मंत्र "ॐ, तत्, सत्" को पूर्ण संत से प्राप्त करके सतभक्ति करने से परमात्मा की प्राप्ति होगी और वर्तमान में इन मंत्रों को देने के एकमात्र अधिकारी पूर्ण संत, सतगुरु रामपाल जी महाराज हैं।
5📙 क्या आप जानते हैं कि गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत करने को मना किया गया है।
6📙क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
7📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
8📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
9📙गीता जी में तत्त्वदर्शी संत की क्या पहचान बताई है?
10📙श्राद्ध के बारे में क्या कहती है भगवद्गीता?⏬
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गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर!
और ज्ञान मण्डलीक है, चकवै ज्ञान कबीर!!
वेदों, गीता, पुराणों तथा कुरान व बाईबल में मण्डलीक (आंशिक) ज्ञान है। कबीर परमेश्वर द्वारा बोली अमरवाणी स्वस्मवेद में संपूर्ण अर्थात् चक्रवर्ती ज्ञान है।🙏🏻✨
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[03/12, 8:37 am] +91 83078 98929: ‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
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गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
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📙 पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?
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📙 ‘‘गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा’’:-
जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवृत्त हुआ हूँ।
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📙पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित पूर्ण परमात्मा के सांकेतिक मंत्र "ॐ, तत्, सत्" को पूर्ण संत से प्राप्त करके सतभक्ति करने से परमात्मा की प्राप्ति होगी और वर्तमान में इन मंत्रों को देने के एकमात्र अधिकारी पूर्ण संत, सतगुरु रामपाल जी महाराज हैं।
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📙क्या गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था।
📙शास्त्र विरुद्ध क्रिया का कोई लाभ नहीं
गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 के अनुसार, शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण करने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए हमें शास्त्र अनुकूल भक्ति करनी चाहिए।
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📙जिस समय काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर से बाहर निकलकर अपना विराट रूप दिखाया, वह बहुत प्रकाशमान था। अर्जुन भयभीत हो गया तथा श्री कृष्ण उस विराट रूप के प्रकाश में ओझल हो गया था। इसलिए पूछ रहा था कि आप कौन हो? क्या अपने साले से भी यह पूछा जाता है कि आप कौन हो? इसलिए गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था।
📙गीता जी में तत्त्वदर्शी संत की क्या पहचान बताई है?
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📙श्राद्ध के बारे में क्या कहती है भगवद्गीता?
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गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा !
गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन ने पूछा कि हे महानुभाव ! उग्र रूप वाले आप कौन हैं? मुझे बताएं।
श्री कृष्ण जी तो अर्जुन के साले थे। श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था। क्या व्यक्ति अपने साले को भी नहीं जानता? इससे सिद्ध है कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा, काल ब्रह्म ने बोला था।
अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाले प्रभु काल ने कहा है कि 'हे अर्जुन ! यह मेरा वास्तविक काल रुप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।
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गीता ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा !
गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन ने पूछा कि हे महानुभाव ! उग्र रूप वाले आप कौन हैं? मुझे बताएं।
श्री कृष्ण जी तो अर्जुन के साले थे। श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था।
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