कोकिल, तुझे कोई न समझा:-
कूह-कूह का राग लगाकर
जो तूने रूह की वार्ता की
मधुरता के संग मित्रता की भावना मिलाकर
जो तूने प्राथना की
हे कोकिल! उसे कोई न समझा|
हृदय की बात बूनी तूने जैसे एक सुंदर माला में
जो तूने सबके हित की कहनी सोची
मानो हो एक मोती सागर की बहती धारा में
जो कथा तूने धर्म की कही
हे कोकिल! उसे कोई न समझा|
पुष्प के भाती मोहक भाषा
जो तुने दुनिया को बोली
प्रेम से भरी ये तेरी भाषा
जो तुने संसार को बताई
हे कोकिल! उसे कोई न समझा|
विश्व ने किया तुझे अनदेखा
लोक ने किया तेरा ये अपमान
जग ने किया तेरा तिरस्कार
पूरा ब्रह्मांड न बुझा
हे कोकिल! तुझे कोई न समझा||
-Dee
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कलयुग की कल्पना
कनक कटाक्ष कंगन सी, कोमल सी तेरी काया,
कादम्बनी के कलम से कल्पित तेरी काया ।
कंकर कंकर डाल काग ने, शिक्षक का स्वांग रचाया,
काल का रहस्य जानकर, समय का चक्कर लगाया ।
कर्ण में माँ कुंती कण कण में थी,
किंतु कुरुक्षेत्र की कहानी में एक अनकही अनबन भी थी ||
कपीश किशन के कानुश अर्जुन ही थे,
किंतु कौरव के साथ खड़े इस कौनतय के लिए कानून कुछ अलग थे |।
कब, क्यों, कौन, कहा और कैसे हर कहानी किशन के कनवी में कंठित थी ||
कर्म की कुंजी हो या धर्म की पूंजी,
चंद्रमा के कुरपता का राज़ को या काले पथ पर बिछा कांच हो,
हर कथा उन कृष्ण नैनो में अंकित थी ||
काम की कामना, ख्याति की वासना,
किरण्या की काशविनी में नाचना, यही तो है, इस कलयुग की विडंबना |
नारी का तिरस्कार, पुरुषो के अधिकारों का बहिष्कार,
पूज्य है तो केवल अंधकार,
तू नग्नता जानता है, तो तू है बहुत बड़ा कलाकार,
यह कलयुग है मेरे दोस्त,
निरर्थक – निराकार |
– अय्यारी
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चयन।
मै हर पहर यूं उपद्र सा, दर्पण समक्ष खड़ा होता हु
जो परछाई मुझसे मुंह फेर लेती है
भरी सभा में
उसे मै अपने पूरे बाल से जकड़े अपने भीत छिपाने की
इच्छा को ज्वलित रखता हूं
मै सबका, पर मै ना किसका
ओह प्रिय, मै बस स्वयं का,
ना तो मैं संत, नही पवित्र गंगा मैया सा,
मै हु सुपूत तिमिर वह तिरस्कार का
मैं पापी हूं, मानो साक्षात कली सा
निहारूं उस दरपण पर अपनी प्रीतिबिंब को
क्या हु मै जो मै हूं उसमे दिखता?
मै कौन हूं? मै स्वयं के सागर में हर क्षण अस्त होता
मै तामसी, मै, एक व्यर्थ सा धरा का अंश,
मै स्वार्थी, स्वयमासती मै कहलाता।
क्षोभ है मिल��े आती मुझसे हर सप्ताह,
मै लिपटा उसमे, अपने पाप त्यागता
मैला हूं, और कीचड़ में हर दिवस स्नान हु करता,
मोह से मोक्ष, या मोक्ष से मोह है मुझे,
मै हूं खुद में एक विडंबना सा,
स्वामी जग का, किंतु जग का ना प्रिया
स्वामी लोभ का, दास किंतु अणु सी बाधक का।
(पर its okay dawg, we ball.)
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1421.
लिफ़ाफ़े में बंद आमंत्रण
-© कामिनी मोहन।
अनायास ही न चाहने पर भी
हर आमंत्रण स्वीकार कर लेता हूँ
यह खींच लेती है अपनी ओर
वो अनगिन अनछुई कलाएँ
जो लिफ़ाफ़े में बंद है
पड़ी रहेंगी, टेबल पर अपनी तिथि तक
खुले रहेंगे
उसके दरवाज़े
टुकड़ों में कटे दृश्य को जोड़े जाने तक।
अजीब भावनाओं के गंध समेटे
पेट और भूख के बीच
नज़रे रोटियाँ सेकती हैं
कभी फ़ायदा कभी नुक़सान देखती हैं
तलाश कभी पूरी नहीं होती है
फिर भी
सुंदर आँखें फाड़-फाड़कर देखती हैं
उन्हें नहीं पता,
ख़ूबसूरती अपनी पूरी उम्र लेकर आती है
जैसे हवा में ख़ुशबू पूरी नहीं घुलती
वेसे ही प्रेम की भाषाएँ कहीं नहीं मिलती हैं
ये फ़िल्म के पर्दे पर
चलने वाले लिखित संवाद की तरह
दृश्य और श्रव्य की मांग करती है।
कँटीले रास्ते
उड़ते धूल गुबार
गूढ़ रहस्य हर भूल स्वीकार कर लेती हैं
छलनी संवेदना के
नज़रअंदाज़ तिरस्कार छू लेती हैं
अपार प्रेम की यात्रा के स्मारकों के बीच
शताब्दियों का जीवन अनुराग बुनते हुए
ये केवल कविता की मांग करती है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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नई राह by
इन्दू गुप्ता
किताब के बारे में...
जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती, स्त्री विशेष कहानियों का संग्रह है यह पुस्तकl इसमें नारी के संघर्ष, प्रेम, तिरस्कार और साहस जैसे विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया हैl
यदि आप इस पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे दिए गए लिंक से इस पुस्तक को पढ़ें या नीचे दिए गए दूसरे लिंक से हमारी वेबसाइट पर जाएँ!
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पैदा होने से अंतिम समय तक!
बचपन से किशोरावस्था, जवानी,मध्य आयु, वृद्धावस्था
पार कर वयोवृद्ध होने तक
जीवन के विभिन्न पड़ावों में अधिकांश व्यक्तियों को
विभिन्न मानसिक अवस्थाओं से भी गुजरना पड़ता है
चाहे एक पड़ाव से दूसरे की समय अवधि हर एक व्यक्ति
के लिए अलग भले ही क्यों न हो
लाड़ प्यार, प्रोत्साहन, अनुशासन अंकुश डाँट फटकार,
समीक्षा विवेचना आलोचना, प्रशंसा, शोहरत,आदर,
तिरस्कार अधिकांश के लिए कभी प्रसन्नता तो कभी पीड़ा
के क्षण लाते हैं
मगर यह किसी भी व्यक्ति के हाथ में कम और समाज के
हाथ में ज़्यादा है अगर समाज को उसकी ज़रूरत है तो
उसकी वाहवाही है वरना उसकी जगहँसाई है
तिरस्कार झेलेगा जब दूसरों को वो बोझ लगेगा और
शोहरत की बुलंदियाँ छुएगा जब वह दूसरों के लिए
उपयोगी होगा और उन्हें लाभान्वित करेगा
बस यही सिलसिला चलता आया है और इसी तरह चलेगा
चाहे कोई जीयेगा या मरेगा मगर उसका अस्तित्व उससे होने
वाला लाभ ही तय करेगा !
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कोड / ऋतुराज
भाषा को उलट कर बरतना चाहिए
मैं उन्हें नहीं जानता
यानी मैं उन्हें बख़ूबी जानता हूं
वे बहुत बड़े और महान् लोग हैं
यानी वे बहुत ओछे, पिद्दी
और निकृष्ट कोटि के हैं
कहा कि आपने बहुत प्रासंगिक
और सार्थक लेखन किया है
यानी यह अत्यन्त अप्रासंगिक
और बकवास है
आप जैसा प्रतिबद्ध और उदार
दूसरा कोई नहीं
यानी आप जैसा बेईमान और जातिवादी इस धरती पर
कहीं नहीं
अगर अर्थ मंशा में छिपे होते हैं
तो उल्टा बोलने का अभ्यास
ख़ुद-ब-ख़ुद आशय व्यक्त कर देगा
मुस्कराने में घृणा प्रकट होगी
स्वागत में तिरस्कार
आप चाय में शक्कर नहीं लेते
जानता हूँ
यानी आप बहुत ज़हरीले हैं
मैंने आपकी बहुत प्रतीक्षा की
यानी आपके दुर्घटनाग्रस्त होने की ख़बर का
इन्तज़ार किया
वह बहुत कर्तव्यनिष्ठ है
यानी बहुत चापलूस और कामचोर है
वह देश और समाज की
चिन्ता करता है
यानी अपनी सन्तानों का भविष्य सुनहरा
बनाना चाहता है
हमारी भाषा की शिष्टता में
छिपे होते हैं
अनेक हिंसक रूप
विपरीत अर्थ छानने के लिए
और अधिक सुशिक्षित होना होगा
इतना सभ्य और शिक्षित
कि शत्रु को पता तो चले
कि यह मीठी मार है
लेकिन वह उसका प्रतिवाद न कर सके
सिर्फ कहे, आभारी हूँ,
धन्यवाद !!
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अबकी बार यह पूरब से चलेगा।
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अच्छा या बुरा नही होकर एक वक्त हैं। जो वक्त बेवक्त खाली हो जाता हैं। उस खालीपन के अंदर कई मौसम एक साथ रहा करते हैं।
आज चमकती हुई धूप हैं। सर्द मौसम बहुत पास से गुजर रहा है। धूप निश्चिंत हैं कि अब सर्द मौसम बाधा नहीं बनेंगे, लेकिन बीच बीच में बेमकसद भटकती असंतुष्ट बदली धूप को आशंकित करती हैं। इस आशंका को तब और बल मिलता हैं, जब हवाएं अट्टहास करती पास से गुजर जाती हैं।
शोर करता यह उद्वेलित मालूम पड़ता हैं जैसे बेमतलब का हो।
बेमतलब का होना इसे और जंगली बनाता हैं। उपेक्षा और तिरस्कार से सख्त हो चुका, यह लोगो को दर्द दे कर अपना गुस्सा निकालता है। अपन�� पहचान खातिर बार–बार शोर करता अपनी मौजूदगी का अहसास कराता हैं।
लेकिन इन जाड़ों के बाद वाली धूप में तुम्हारा क्या काम?
वेग से गुजरती इन हवाओं को देख धूप थोड़ी देर के लिए ठिठक पड़ती हैं। जानी पहचानी लेकिन पहचान का कोई सिरा नजर नहीं आता। मिलने की खुशबू आ रही , लेकिन कैसे मिले थे याद नही! हवाएं शिकायती और उम्मीद की मिलीजुली नजरों से धूप को ताक रही हैं। जैसे कुछ इशारा करना चाह रही हो। "भूल गए क्या वो तपिश जब मुझे गले लगाएं थे? भूल गए वो शाम जब मेरे आगोश में ताजे हुए थे। या सुकून वाली वो रातें जब तुम मेरे सपनो में सोएं थे? अब मुझे तुम्हारी जरूरत हैं और तुम मुझे निचोड़ रहे हो। सूखा डाल रहे हो। कोई कैसे भूल सकता हैं!"
धूप निःशब्द हैं। थोड़ी देर के लिए सहम जाता हैं। यादें पीछा करती हैं और सुबह ओस बन जाती हैं।
बेउम्मीद मुसाफ़िर बन चुका हवा शुष्क हो चला हैं। धूप का सहारा मिले तो अभी भी बरस सकता हैं, लेकिन इसके आसार नजर नहीं आते। धूप को भी फरवरी का कर्तव्य निभाना हैं। ऐसे कैसे उस आवारगी में वापस मुड़ जाए।
एक दर्द फैल रही हैं हवा के अंदर, एक ऐसा दर्द जिसे दस्तक की कमी खाती हैं। जिधर से गुजरती हैं खामोशी पसरा देती हैं। यह सिर्फ खामोशी नही जादुई खामोशी हैं– जो सर्द हैं रूखा सूखा हैं। सामने पड़ने वाले खुद ब खुद इसमें समा जाते हैं।
यह संक्रमण काल हैं, जिधर ठंडी गर्मी आमने –सामने, नजरे मिलाए एक दूसरे से विदा ले रहे हैं। और अंततः किसी एक को विदा हो जाना हैं। बेदिली से ही सही हर बार इस मौसम में सर्द हवा को ही विदा लेनी पड़ती है। कुछ वक्त गुजार चुकने के बाद भला कौन कही जाना चाहता हैं।
लेकिन कोई आगे बढ़ने के वावजूद भी एकाएक चला तो नही जाता?
ये सर्द हवा भी एकबारगी नही चला जाएगा। जाने कितने प्रेमी जोड़ों को एक दूसरे से वादा करते देख मुस्कुराएगा। ईश्वर से इनके लिए रहम की भीख मांगेगा। फरवरी को मार्च बनाएगा। सुर्ख रंगो में रंगते चला जाएगा। ऐसा जाएगा की पेड़ के सारे पत्ते दूर तक उसका पीछा करेंगे।
सड़क छत खेत तालाब से गुजर कर यह उन गलियों से भी गुजरेगा जिन गलियों में शोर हुआ करता था। अब रात की वीरानगी है।
अतीत को ओढ़े उस जर्जर महल के सूखे रंगो को कुरेदता उसके सीलन को अपने साथ लेता जाएगा।
खंडहर हो चुके उस मकान के गलियारों से भी गुजरेगा और बंद किवाड़ वाली उस कमरे में सपनों को मुस्कुराता छोड़ आगे बढ़ जाएगा।
चलते चलते यह नदी बन जाएगा। समतल पे सरपट दौड़ेगा, खाइयों को भरते थमी थमी चलेगा। सामने पहाड़ आए, किनारे हो लेगा। जंगल को सींचते यात्रा चलता रहेगा।
क्या हैं यह जिंदगी? कभी सब दे देती हैं। कभी एक झटके में सब छीन लेती हैं! लेकिन इस लेन देन में जिंदा रहना जरूरी हैं। इस बात का हवा को पता हैं। रौशनी चौराहे मुहल्ले खेत खलिहान ओझल होने लगे हैं।
यहां से अकेलेपन की यात्रा हैं। वापसी की यात्रा की नियति हमेशा से अकेलेपन की रही हैं। अकेलापन अकेला ही रहता हैं। जिस पल किसी के साथ की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वह पल प्रायः अकेला गुजरता हैं। कुछ सच्चाईयां भयानक होती हैं। उनके नुकीले दांत होते हैं।
उस जगह से बेदखल हो जाते हैं जहां कुछ वक्त गुजार चुके होते हैं। मन रम जाता हैं। अहंकार अपना घर बना लेता हैं, एक सुंदर महल।
और जब यहां से रवानगी होती है तो सब कुछ बदल जाता हैं।
दिलकश अंदाज की जगह भावशून्यता दिखती हैं। स्वागत करती बांहे अब मजबूरियों में कांप रही होती हैं।
शब्दों में इतनी भी हिम्मत नही कि ढंग से विदा कर सके।
सामने कई रास्ते हैं। जो आगे चल कर एक हो जाते हैं।
वह रास्ता रेगिस्तान को जाता हैं। रेगिस्तान सुना ही था सुना ही रहा।
लोग रास्ते बनाते गए और आंधियां निशान मिटाते गई।
ऐसी पल भर में खो जानें वाली रास्तों में वह होकर भी नही था।
किनारे खड़ा वो पेड़ नजदीक आ रहा हैं।
उमंगों की यात्रा में इसी जगह कुछ वक्त के लिए ठहरा था।
पत्तियां नई–नई सी थी। चिड्डियो की आवाज़ें जैसे महबूब की पुकार हो चले थे।
ढोल बाजे दूर कही गांव में बज रहे थे। शायद कोई दुल्हन धड़कते दिल से अपनी बारात का इंतजार कर रही थी।
अब वो गांव दुल्हन को विदा कर अलसाया सा पड़ा था।
पेड़ भी मौन था।
मुझे पहचानता था मालूम नही। बिना पहचान के कौन कही रुकता हैं।
सामने सपाट आकाश दिख रहा है। मिलों फैली तन्हाईया बांहे फैलाए खड़ी हैं। स्वागत कोई भी करे अच्छा लगता हैं।
शून्य हो चला है समय। समय का शून्य हो जाना वक्त को थाम लेता हैं।
सुख चुकी हवा को लहरे भींगो देने खातिर पास बुला रही हैं।
कभी लहरों के ऊपर हवा तो कभी हवा के ऊपर लहरें। जैसे ईश्वर सबको अपने आगोश में ले लेते हैं वैसे सागर भी हवा को अपने आगोश में लेकर भिगो रही हैं।
हवा को नया बना रही हैं।
हवा का नया जन्म हो रहा हैं।
अबकी बार यह पूरब से चलेगा।
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अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥2॥
संत, पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है॥2॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥3॥
जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता॥3॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥4॥
ऐसा विचार कर बुद्धिमान् हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,॥4॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥5॥
जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा?॥5॥
दोहा :
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥119क॥
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए॥119(क)॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥119ख॥
जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथजी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं॥119(ख)॥
जय श्री राम🏹ᕫ🙏श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड गरुड़ काकभुशुण्डि संबाद
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AAP नेता संजय सिंह ने आरएसएस-बीजेपी पर बोला हमला, बोले- नहीं बदला अपना चरित्र
आम आदमी पार्टी के नेता और राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर तीखा हमला बोला. उन्होंने आरोप लगाया कि बीजेपी ने अपने पुराने आदर्श और चरित्र नहीं बदले हैं. संजय सिंह ने कहा कि बीजेपी देशभक्तों और शहीदों का अपमान करती हैं और 1857 की क्रांति का भी तिरस्कार करती हैं. संजय सिंह ने आगे आरोप लगाया कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान…
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कनक कटाक्ष कंगन सी,
कोमल सी तेरी काया,
किंतु
कादम्बनी के कलम से कल्पित तेरी काया ।
कंकर कंकर डाल काग ने,
शिक्षक का स्वांग रचाया,
काल का रहस्य जानकर,
समय का चक्कर लगाया ।
कर्ण में माँ कुंती कण कण में थी,
किंतु कुरुक्षेत्र की कहानी में एक अनकही अनबन भी थी ||
कपीश किशन के कानुश अर्जुन ही थे,
किंतु कौरव के साथ खड़े ,
इस कौनतय के लिए कानून कुछ अलग थे |।
कब, क्यों, कौन, कहा और कैसे
हर कहानी किशन के कनवी में कंठित थी ||
कर्म की कुंजी हो या धर्म की पूंजी,
चंद्रमा के कुरपता का राज़ को या
काले पथ पर बिछा कांच हो,
हर कथा उन कृष्ण नैनो में अंकित थी ||
काम की कामना, ख्याति की वासना,
किरण्या की काशविनी में नाचना,
यही तो है, इस कलयुग की विडंबना |
नारी का तिरस्कार, पुरुषो के अधिकारों का बहिष्कार,
पूज्य है तो केवल अंधकार,
तू नग्नता जानता है, तो तू है बहुत बड़ा कलाकार,
यह कलयुग है मेरे दोस्त,
निरर्थक – निराकार |
– अय्यारी
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"The extremes of love and intense hatred are the true two masks of a person."
पराकोटीचे प्रेम आणि टोकाचा तिरस्कार हेच माणसाचे खरे दोन मुखवटे….!
If I were asked what is the greatest characteristic that sets humans apart from other creatures, I would firmly say that it is the extremes of passionate “love” and equally intense “hatred” that define humans. These are the two traits that make not only other humans but even animals act cautiously around them. This is because,…
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178 सरल संत का मूल्य न आंके
178 सरल संत का मूल्य न आँकेकिसी मनुष्य द्वारा कोटि जन्मों में किए गए समस्त यज्ञ, व्रत, तप, दान, जप और तीर्थ दर्शन का एकमात्र फल है किसी आत्मज्ञानी संत का मिल जाना। पर मूढ़ मनुष्य संत को न पहचान कर, भगवान की कृपा से प्राप्त फल की उपेक्षा कर, अपने पूर्व अभ्यास से उत्पन्न स्वाभानुसार, मनमाने कर्मों में ही भ्रमता रहता है।मन्दबुद्धि मनुष्य, संत रूपी मंजिल मिलने पर भी, उसका तिरस्कार कर, जो वह अब तक…
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नई राह by
इन्दू गुप्ता
किताब के बारे में...
जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती, स्त्री विशेष कहानियों का संग्रह है यह पुस्तक। इसमें नारी के संघर्ष, प्रेम, तिरस्कार और साहस जैसे विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
यदि आप इस पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे दिए गए लिंक से इस पुस्तक को पढ़ें या नीचे दिए गए दूसरे लिंक से हमारी वेबसाइट पर जाएँ!
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बाइबिल लियोव 36:5 (रूढ़िवादी यहूदी बाइबिल) देखिए, एल कबीर है और किसी का तिरस्कार नहीं करता। वेद, कुरान बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब (सिख धर्म की पवित्र पुस्तक) सहित सभी पवित्र पुस्तकें साबित करती हैं कि कबीर ही शाश्वत भगवान हैं
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