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एक बार ये जान जाओ कि किस माहौल में,
किस विधि से,
किस संगति से
शांति मिलती है,
सच्चाई मिलती है,
उसके बाद एकनिष्ठ होकर उसको पकड़ लो।
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मुझसे अगर कुछ सीखना चाहते हो, तो यही सीखो कि जीवन में बड़े विवेक से और बड़ी निष्कामना से सही लक्ष्य बनाना है, और फिर उसमें आकंठ डूब जाना है।
मेहनत अपने-आप हो जाती है, गिननी नहीं पड़ती।
ठीक वैसे ही जैसे बैडमिंटन खेलो तो स्कोर गिनते हो, कैलोरी तो नहीं न? कैलोरी अपने-आप घट जाती है। इधर स्कोर बढ़ रहा है, उधर कैलोरी घट रही है। मुझे ये बड़ा पसंद है। पर जिम में बड़ी गड़बड़ होती है, वो सीधे कैलोरी दिखाते हैं। वो चीज़ मुझे रूचती ही नहीं। कैलोरी गिनना, इसमें क्या मज़ा है? बैडमिंटन बेहतर है; उसमें कुछ और गिन रहे हो, और पीछे-पीछे जो होना है वो चुपचाप हो रहा है। वैसा ही जीवन होना चाहिए ।
तुम वो करो जो आवश्यक है, उससे तुम्हारा जो लाभ होना है वो पीछे-पीछे चुपचाप हो जाएगा; तुम्हें वो लाभ गिनना नहीं पड़ेगा।
मेहनत अपने-आप हो जाएगी।
जिम में तुम जाते हो ये लक्ष्य बनाकर कि मेहनत करनी है। बैडमिंटन कोर्ट पर ये लक्ष्य बनाकर नहीं जाते न कि मेहनत करनी है, अपने-आप हो जाती है मेहनत । सावधानी से सुनना, सिर्फ उदाहरण है। इस उदाहरण को बहुत दूर तक खींचोगे तो फिर कह दोगे कि, "नहीं, ये... वो..." इधर-उधर की बातें। जिधर को इशारा कर रहा हूँ, बस उतना समझो।
जब तुम्हारे सामने 'वो' मौजूद होता है जिसको तुमने अपने विवेक का पूरा इस्तेमाल करके जान लिया कि आवश्यक है, अब तुम्हें मेहनत करनी नहीं पड़ेगी, अब तुम्हारी अपनी व्यवस्था मजबूर हो जाएगी मेहनत करने के लिए।
तुम अगर चाहोगे भी कि नहीं करूँ मेहनत, तो भी तुम्हें बाध्य होकर करनी ही पड़ेगी। अब इसमें तुम्हारे पास चुनाव नहीं रहा, निर्विकल्प हो गए तुम । सच दिख गया, नकारोगे कैसे उसको?
तो देखो कि तुम्हारे जीवन का यथार्थ क्या है। देखो कि क्या हो सकते हो और क्या हुए पड़े हो । देखो कहाँ बंधे हुए हो। पूछो अपने-आप से कि अगर तमाम तरह के स्वनिर्धारित, स्वप्रमाणित बंधन न हों, तो क्या वैसे ही जीना चाहोगे जैसे आज जी रहे हो? चौंक जाओगे, हतप्रभ हो जाओगे बिल्कुल जब तुम्हें पता चलेगा कि अगर तुमने अपने ऊपर जो तमाम बंधन लगा रखे हैं वो न हों, तो तुम एक-प्रतिशत भी वैसा न जियो जैसा अभी जी रहे हो । फिर तुम्हें दया आएगी अपने ऊपर, तुम कहोगे कि, "कितने कष्ट में जी रहा हूँ मैं। जीवन का एक-एक पल मेरा बिल्कुल वैसा नहीं है जैसा होता, यदि मैं मुक्त होता। एक-एक पल में पीड़ा है, एक-एक पल में दासता है। गुलामी की साँस लेकर जीना मौत से बदतर है।" उसके बाद मेहनत अपने- आप कर लोगे, जब कहोगे कि, "बुरे-से-बुरा क्या है, सब छिन जाएगा, शरीर भी, मौत आ जाएगी? मौत से बदतर हो जो हो सकता है, वो तो फिलहाल ही हो रहा है, तो फिर तो मैं दूसरा ही विकल्प चुनूँगा, भले ही उस विकल्प में मौत मिलती हो। मेरी जो अभी हालत है उससे तो मौत भली!"
और याद रखो, अध्यात्म की ओर बढ़ नहीं सकते जब तक तुममें अपनी वर्तमान हालत के ख़िलाफ़ इतना ज़बरदस्त आक्रोश न आ जाए। जो लोग अपने हालात से संतुष्ट हैं और खुश हैं, अध्यात्म नहीं है उनके लिए, एकदम नहीं है।
भीतर एक गहरी विकलता होनी चाहिए-बड़ी ज़बरदस्त बेचैनी, छटपटाहट होनी चाहिए जो सोने न दे, जीने न दे, जो तुमको उतावला करके रखे, जो तुम्हें एक गहरे आंतरिक तनाव में रखे-तब आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत भी होती है।
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जब मैं कहता हूँ कि 'मत मारो',
तो इसलिए कहता हूँ ताकि तुम चैन से जी सको। बात न मुर्गे की है, न बकरे की है,
न गाय की है, न भैंस की है और न ही फल या सब्जी की है-बात 'मन की गुणवत्ता की है।
और हर प्रकार की हिंसा से मन को बचाओ ताकि 'तुम' चैन और विश्रम पा सको।
अपने स्वार्थ के लिए, अपने परमार्थ के लिए, बचो जानवरों को मारने से,
या किसी को भी मारने से।
किसी भी प्रकार की हिंसा से बचो-किसी और की ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर।
इसमें ये भी शामिल है कि तुम जानवरों का शोषण करते हो, उनका दूध निकालते रहते हो, उनको बंधक बनाकर रखते हो
हर प्रकार की हिंसा की बात कर रहा हूँ मैं मनुष्य के प्रति, पर्यावरण के प्रति, जानवर के प्रति, स्वयं के प्रति ।
मैं कह रहा हूँ-तुमने जो भी हिंसा करी है, चाहे किसी के भी ख़िलाफ़ करी हो, अंततः अपने ही ख़िलाफ़ करी है। इसीलिए, स्वयं से मैत्री दिखाते हुए, हिंसा से बचो।
दूसरे का ख्याल नहीं, अपना ही ख्याल कर लो।
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Adam Godvi's Poem
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे ��ढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
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हमारी इच्छा नहीं, हमारी हस्ती हमारे जीवन का निर्धारण करती है
आप क्या हैं आप उसको बदलिए। अगर आप गलत हैं तो आप जो करेंगे
उसका सामने वाले पर प्र��ाव गलत ही पड़ेगा।
इसलिए फिर ऋषियों ने समझाया है
कि दूसरे को प्यार करने से पहले
खुद से प्यार कर लो,
दूसरे को चाहने से पहले
खुद को चाह लो,
दूसरे को सुधारने से पहले
खुद को सुधार लो!
ये स्वार्थ ज़रूरी है क्योंकि अगर तुमने अभी
खुद को सुधारा नहीं तो तुम दूसरे को भी बर्बाद ही करोगे।
चाहने से कुछ नहीं होता, जागने से होता है, समझने से होता है। उसी के लिए तो अध्यात्म है।
हम बड़ी ग़लतफ़हम��� में जीते हैं, हमें लगता है कि चीज़ें हमारी इच्छा से चलेंगी।
चीज़ें तुम्हारी इच्छा से नहीं तुम्हारी हस्ती से चलती हैं।
इन दोनों में बहुत अंतर है
जो होगा वो आपकी इच्छानुसार नहीं होगा आपके अस्तित्व, आपकी हस्ती के अनुसार होगा।
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आदमी होने का फर्ज़ जानते हो?
बच्चा पैदा होता है दुनिया पर आश्रित और दुर्घटना अक्सर ये होती है कि वो जैसे-जैसे बड़ा होता है हम उसे दुनिया पर और आश्रित रहना सिखा देते हैं।
शिक्षा अगर ठीक हो तो शिक्षा उसे सिखाएगी- आज़ादी। पर हमारी शिक्षा व्यवस्था ठीक है नहीं, बड़ी अधूरी है तो हम उसे आज़ादी सिखा नहीं पाते।
तो गड़बड़ ही पैदा होता है और वो गड़बड़ी बढ़ती ही जाती है।
तो मनुष्य का फ़र्ज़ यही है कि उसने जो बेवजह अपने आपको दुनिया का गुलाम बना लिया है, उस गुलामी से वो निजात पाए।
देखो कि किस तरह से लोगों ने, चीज़ों ने तुम्हें चारो तरफ से जकड़ रखा है। किन-किन चीज़ों की तुम्हारे मन पर पकड़ है।
जितना पकड़ से आज़ाद होते जाओगे, उतना दिल मस्त होता जाएगा और जिंदगी से डर एकदम दफ़ा होता जाएगा।
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कोई ऐसा नहीं है जो ये नहीं जानता वो जिंदगी में कहाँ फँसा हुआ है। एक ही विधि है ऊपर उठने की अपनी बेड़ियों को पहचानो और
निर्मम होकर काटते चलो।
लेकिन हम चाहते हैं हमारी बेड़ियाँ यथावत रहें और साथ ही साथ ऊपरी तौर से हम कुछ विधियाँ, प्रैक्टिस आदि करते चले और अपने आपको फुसलाये रखें कि हम धीरे-धीरे मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
कोई शॉर्टकट नहीं है बाबा! नहीं है! कोई जादू नहीं होता
ईमानदारी से मेहनत करनी पड़ेगी, दर्द झेलना पड़ेगा, इसके अलावा कोई तरीका नहीं है।
ये झाड़-फूंक, ये टोना-टोटका, ये तिलिस्म, ये क्रियाएँ, ये विधियाँ इनसे कुछ नहीं होता, ये कुछ नहीं हैं।
👉 Yogesh B. Roy
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तन को रोटी और मन को शांति चाहिए
जिसमें जीवन जीने की इतनी तमीज नहीं,
जो जिंदगी जीने के लिए इतना श्रम नहीं कर सकता कि
ठीक से अपना रोटी-पानी कमा सके, जो ठीक से अपने लिए एक छत की व्यवस्था कर सके, उसके लिए अध्यात्म में कोई जगह नहीं है।
न अध्यात्म में उन लोभी लोगों के लिए जगह है जो जीवन में एक ही काम जानते हैं कमाओ और भोगो! कमाओ और भोगो! धन पशुओं के लिए भी यहाँ कोई जगह नहीं है।
जो विद्या-अविद्या दोनों का महत्व जानते हैं, जो तन को रोटी और मन को शांति देने के इच्छुक होते हैं, अध्यात्म उनके लिए है।
👉 योगेश बी. रॉय
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गुरु और शिष्य का नाता तो परम मुक्ति का होता है।
अगर गुरु वास्तव में गुरु है तो वो चाह ही नहीं सकता कि तुम बंधन में रहो।
गुरु का अर्थ जानते हो क्��ा होता है? जो तुम्हें अंधेरे से प्रकाश की ओर लाए।
और जो तुम्हें अंधेरे में ही रहने को मजबूर करे, वो कहाँ का गुरु है?
गुरु वो जो बंधन खोल दे, जो तुम्हरी आँखों के पर्दे हटा दे। जो तुम्हें ऐसा कर दे कि तुम उड़ सको; तुम्हें किसी की मदद की ज़रूरत ही न रहे, वो गुरु हुआ।
और जो तुम्हारे ऊपर अपने-आपको थोप दे, वो तो तुम्हारे सर का बोझ है।
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घर के बाहर आपका आचरण सिर्फ आपकी अच्छी बुरी छवि नहीं बनाता, वो आपके घर की, समाज की, आपके धर्म की, आपके प्रदेश-देश की भी छवि बनाता है। घर के बाहर हो या सोशल मीडिया पर अपना आचरण सभ्य संस्कारी सुशिक्षित, कर्तव्यनिष्ठ देशभक्त, नियम-कानून को मानने वाले व्यक्ति की तरह ही होना चाहिए ।
अपशब्दों से आप दुसरे का नहीं खुद का अपमान करते है।
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जब भी कभी पिंजरे के पक्ष में, गुलामी के पक्ष में तर्क सुनना, तो उन तर्कों को काटना मत। बस ज़रासा दूर हो जाना। क्योंकि वो तर्क नहीं हैं, वो पिंजरे की सलाखें ही हैं, जो तुम्हारी तरफ आ रही हैं तर्क बन के।
जो व्यक्ति तुम्हें कह रहा हो कि पिंजरा सुन्दर है, और वहाँ सुविधाएं है, और आराम है, वो व्यक्ति नहीं है, वो स्वयं पिंजरा ही है।
बस ज़रा सा पीछे हो जाएँ।
पिंजरा कहीं आसमान से थोड़े ही गिरता है, ऐसे ही बनता है।
धीरे-धीरे, हौले-हौले जब तुम्हें पता भी नहीं होता तब।
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पैसा सिर्फ आपके गुणों में वृद्धि करता है
आप दयालु हो तो आपकी दयालुता बढ़ाता है आप परोपकारी हो आपकी परोपकारिता बढ़ाता है आप दानी है आपको और दान करने की शक्ति देता है आप कंजूस हो आपकी कंजूसी बढ़ाता है आप ओछे हो आपका ओछापन बढ़ाता है आप घमंडी ��ो आपका घमंड बढ़ाता है आप स्वाभिमानी हो तो उसमें बढ़ोत्तरी करता है।
मतलब ये पैसा बिलकुल सही है पर उसको पाने वाला माध्यम केसा है वो पैसे को वैसा सिद्ध कर देता है। यदि आप अच्छे हैं तो पैसा कमाइये ।संसार में मानवता के लिए ऐसे लोगों की जरुरत है। आप नही कमाएंगे तो ये पैसा बुरे के हाथ में जाकर बुराई ही बढ़ाएगा।
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