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7 GOLDEN RULES IN LIFE
1st
Don't let someone become a priority in your life, when you are just an option in their life. Relationships work best when they are balanced.
2nd
Never explain yourself to anyone.
Because the person who likes you doesn't need it, and the person who dislikes you won't believe it.
3rd
When you keep saying you are busy, then you are never free.
When you keep saying you have no time, then you will never have time.
When you keep saying that you will do it tomorrow, then your tomorrow will never come.
4th
When we wake up in the morning, we have two simple choices.
Go back to sleep and dream, or wake up and chase those dreams.
Choice is yours
5th
We make them cry who care for us.
We cry for those who never care for us.
And we care for those who will never cry for us.
This is the truth of life, it's strange but true. Once you realize this, it's never too late to change.
6th
Don't make promise when you are in joy.
Don't reply when you are sad. Don't take decision when you are angry.
Think twice, act twice.
7th
Time is like river. You can't touch the same water twice,
because the flow that has passed will never pass again.
Enjoy every moment of life
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लॉटरी :प्रेमचंद (hindi story)
mजल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती ? उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आये, तो मेरे दोस्त, विक्रम के पिता, चचा, अम्मा, और भाई,सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जाने, किसकी तकदीर जोर करे ? किसी के नाम आये, रुपया रहेगा तो घर में ही। मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रुपये आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता है ? बहुत होगा, दस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा ? उसकी जिन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलूलू, ये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने
उड़कर लौट आनेवा���ों में न था। वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा का एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया-भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जायँ। पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था, बँगला, कार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आये, तो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मिल जायँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धोला भी न लगेगा। वह आत्माभिमानी था। घर वालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा, करता था भाई,किसी के सामने हाथ
फैलाने से तो किसी गङ्ढे में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय ? वह बहुत बेकरार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपए
देगा और वह माँगेगा भी तो कैसे ? उसने बहुत सोच-विचार कर कहा, क्यों न ह��-तुम साझे में एक टिकट ले लें ? तजवीज मुझे भी पसंद आयी। मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बलाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत बढ़े।
विक्रम ने कहा, 'क़हो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ ? कह दूंगा, उँगली से फिसल पड़ी।' अँगूठी दस रुपये से कम की न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था; अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है ? सहसा विक्रम फिर बोला, लेकिन भई, तुम्हें नकद देने पड़ेंगे। मैं पाँच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा। अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला, नहीं दोस्त, यह बुरी बात है, चोरी खुल जायेगी, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी। आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेन्ड हैंड किताबों की दूकान पर बेच डाली जायँ और उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों
से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास और कोई चीज न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ लीं, अपनी आँखें फोड़ीं और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियाँ चटका रहे थे, हमने
वहीं हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल-मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्ती करने लगा ? हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा; उनका सत्त निकाल लिया। अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़ेखाने से निकाला और झाड़-पोंछ कर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँध। मास्टर था, किसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे;इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आधा घंटे में दस रुपये का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं; पर यह दस रुपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पाँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगे, पाँच विक्रम के। हम अपने इसी में मगन थे।
मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा, 'पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी !' विक्रम इतना संतोषी न था। बोला, 'पाँच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत है भाई, मगर जिन्दगी का प्र��ग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया। मैंने आपत्ति की आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे ?'
'जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्रामहै। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए ?'
'चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।'
विक्रम ने गर्म होकर कहा, 'मैं शान से रहना चाहता हूँ; भिखारियों की तरह नहीं।'
'दो हजार में भी तुम शान से रह सकते हो।'
'जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न दे देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।'
'कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो ?'
'मैं तो बेजोड़ ही बनवाऊँगा।'
'इसका तुम्हें अख्तियार है, लेकिन मेरे रुपये में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनों का विवाह
है, दो भाइयों की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूंगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्तें लगा दूंगा, कि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।'
विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा, 'हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा; लेकिन बैंक के सूद की दर तो बहुत गिर गयी है। हमने कई बैंकों में सूद की दर देखी, अस्थायी कोष की भी; सेविंग बैंक की भी। बेशक दर बहुत कम थी। दो-ढाई रुपये सैकड़े ब्याज पर जमा करना व्यर्थ है। क्यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाय ? विक्रम भी अभी यात्रा पर न जायगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगी,जब कुछ धन जमा हो जायगा, तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब-दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्छी जमानत न हो, किसी को रुपया न देना चाहिए; चाहे असामी कितना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रुपये दे ही क्यों ? जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो
कोई खटका न रहेगा। यह मंजिल भी तय हुई।
अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया। अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा ! मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई ! एक-एक करके इन्तजार के दिन काटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और ��्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर ��पने-अपने मंसूबे बाँध करते और इस तरह सायँ-सायँ कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा ! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे। एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, भई,शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ की चिंता और हाय-हाय। पत्नी की नाज बरदारी में ही बहुत-से रुपये उड़ जायँगे।
मैंने इसका विरोध किया 'हाँ, यह तो ठीक है; लेकिन जब तक जीवन के सुख-दु:ख का कोई साथी न हो; जीवन का आनन्द ही क्या ? मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हाँ, साथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।'
विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला, 'ख़ैर, अपना-अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना तथा बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बन्दा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर वक्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ क़हाँ थे अब तक ? आप कहीं बाहर निकले और फौरन सवाल हुआ क़हाँ जाते हो ? और जो कहीं द��र्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गयीं, तब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। न भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौंडे मनाने लगे कि कब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रे उड़ायें। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको
कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता। '
कुन्ती आ गयी। वह विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख। इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।
विक्रम ने बिगड़कर कहा, 'तू बड़ी शैतान है कुन्ती, किसने तुझे बुलाया यहाँ ?'
कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा, 'तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बातें किया कर��े हो ? जब देखो,यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखने; कोई जादू-मन्तर जगाते होंगे !'
विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा, 'हाँ एक मन्तर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हजार हण्टर जमाये सड़ासड़।'
कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली, 'मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगा, तो कान गर्म कर दूंगी। अम्माँ को लॉटरी
के रुपये मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे दें। बस, चैन करूँगी। मैं दोनों वक्त ठाकुरजी से अम्माँ के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैं, कुँवारी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता है, अम्माँ को जरूर रुपये मिलेंगे।'
मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादों का महीना आ गया था; मगर पानी की बूँद नहीं। सब लोगों ने चन्दा करके गाँव की सब कुँवारी लड़कियों की दावत की थी।
और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही कुँवारियों की दुआ में असर होता है। मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया।
विक्रम ने कुन्ती से कहा, 'अच्छा, तुझसे एक बात कहें किसी से कहोगी तो नहीं ? नहीं, तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, किसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझे खूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूंगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर। अगर हमें रुपये मिले,
तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे। सच !' कुन्ती को विश्वास न आया। हमने कसमें खायीं। वह नखरे करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने पर राजी हुई। लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी;वह जरा-सी बात
न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण में सारे घर में वह खबर फैल गयी। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्माँ भी, चचा भी, पिता भी क़ेवल विक्रम की शुभ-कामना से या और किसी भाव से, 'कौन जाने बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती है। रुपये लेकर पानी में फेंक दिये। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी ? क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते ? और तुम भी मास्टर साहब, बिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, उसे और चौपट किये डालते हो।'
विक्रम तो लाड़ला बेटा था। ��से और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-��ो जून खाना न खाये, तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसकी सोहबत में लड़का बिगड़ा जाता है।
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब उन दिनों आये हुए थे।
मैंने चुपके से कोठरी में जाकर गिलास में एक घूँट शराब डाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं, कि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानो सेंधा में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया। अम्माँ ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा, मुझे आँसुओं से उनकी क्रोधग्नि शान्त करनी पड़ी; और दोपहर ही को मामूँ साहब नशे में पागल होकर गाने लगे, फिर रोये, फिर अम्माँ को गालियाँ दीं, दादा के मना करने पर भी मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।
विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ाने वाले, पूरे नास्तिक; मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब प्रात:काल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। इस उम्र में भी उन्हें सिंगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति-निष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पण्डितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।
ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिवस समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शान्ति ��ड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इन्कार कर दे, तो मैं क्या करूँगा। साफ इन्कार कर जाय कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत। सबकुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डावाँडोल हुई कि काम-तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो कुछ लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है तब तो वह अभी से इन्कार कर देगा; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं है; मगर भाई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है ? परीक्षा का समय तो तब आयेगा,जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त:करण को टटोला अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे
दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपये बिना कान-पूँछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता ? कौन कह सकता है; मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं हीले-हवाले करता, कहता तुमने मुझे पाँच रुपये उधर दिये थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो और क्या करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बद-नीयती न होती।
दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा, क़हीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया ! वह सरल भाव से मुस्कराया, मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था। मैंने चौंककर कहा,'सच ! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?'
'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है ?'
'इससे क्या।'
'अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इन्कार कर जाऊँ ?'
मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था।'
'मगर है बहुत संभव। पाँच लाख। सोचो ! दिमाग चकरा जाता है !'
'तो भाई, अभी से कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो ! यह संशय रहे ही क्यों ?'
विक्रम ने हँसकर कहा, 'तुम बड़े शक्की हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है ? पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ भी हों,तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूंगा।' किन्तु मुझे उसके इस आश्वासन पर बिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय बैठ गया।
मैंने कहा, 'यह तो मैं जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है ?'
'फजूल है।'
'फजूल ही सही।'
'तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढ़े सात हजार हो जायगी। किस भ्रम में ��ैं आप ?'
मैंने सोचा, 'बला से सादी लिखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाई न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा और दुनिया में बदनामी का भय न हो, तो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला, 'मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।'
विक्रम ने लापरवाही से कहा, 'ज़िस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्या समय नष्ट करें ?'
मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है ? बिगड़कर कहा,'तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गयी। उसने निर्लज्जता से कहा, तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती ?'
'मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है ?'
'रहने भी दो। बड़ी नीयतवाले ! अच्छे-अच्छे को देखा है !'
'तुम्हें इसी वक्त लेखाबद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।'
'अगर तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं है, तो मैं भी नहीं लिखता।'
'तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे ?'
'किसके रुपये और कैसे रुपये ?'
'मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त न हो जायगा, बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।'
हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी। सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैंने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठकर खड़े हो गये थे,एक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्योरियाँ चढ़ी हुईं, मुट्ठियाँ बँधी हुईं। मालूम होता था, बस हाथापाई हुई ही चाहती है। छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा, सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है,बराबर।
बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया -'हरगिज नहीं, अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न है।'
'इसका फैसला अदालत से होगा।'
'शौक से अदालत जाइए। अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी या मेरे नाम लॉटरी निकली, तो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी ��े या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।'
'अगर मैं जानता कि आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था।'
'यह आपकी गलती है।'
'इसीलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।'
'यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए था। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।'
'मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।'
'आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर और न कोई महात्मा।'
विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आयीं और दोनों को समझाने लगीं।
छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा, 'आप मुझे क्या समझती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिये हुए बैठे हैं। मेरे पास क्या है, एक टिकट। उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दु:ख की बात है।'
ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा, 'अच्छा, मेरे रुपये में से आधे तुम्हारे। अब तो खुश हो।'
बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी --'क्यों आधे ले लेंगे ? मैं एक धोला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सह्रदयता से काम लें, फिर भी उन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है ? न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक। छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा, सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं।'
'जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है ?'
'यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंगा।'
'बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का !'
'मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।'
इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लॅगड़ाते हुए, कपड़ों पर ताजा खून के दाग लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक आरामकुर्सी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा, 'यह तुम्हारी क्या हालत है जी ? ऐं, यह चोट कैसे लगी ? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी?'
प्रकाश ने कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुस्कराकर बोले, 'ज़ी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।'
'कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी ? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है ? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गयी ?'
'बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बात नहीं।'
प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, शान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।
बड़े ठाकुर ने ��र व्यग्र होकर पूछा, 'लेकिन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते ? किसी से मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूं।'
प्रकाश ने हलके मन से कहा, 'मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब। बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं,वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं।
जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो कोई पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेंट लिये, कोई कपड़ों के थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोलीं और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मैं घंटेघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयी, खून की धारा बह चली; लेकिन मैं हिला नहीं। फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और
बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्धान हो जाया करते हैं। किसे पुकारूँ, किससे सवारी लाने को कहूँ ? मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डाक्टर के पास गया। उन्होंने देखकर कहा, हड्डी टूट गयी है और पट्टी बाँध दी; गर्म पानी से सेंकने को कहा, है। शाम को फिर आयेंगे, मगर चोट लगी तो लगी; अब लाटरी मेरे नाम आयी धरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूंगा।'
बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगीं, उनका भी मुख प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा
न था। छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्यों ही बड़े ठाकुर भोजन करने गये और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबन्ध करने गयीं, त्यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा, 'क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं ?'
'जोर से तो क्या मारते होंगे !'
प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा, 'अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डील-डौल है और बलवान् इतने हैं कि एक घूँसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक
ही पत्थर में टें हो जाय। कितने ही तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मारकर ��ी नहीं रह जाते,जब तक आप गिर न पड़ें और बेहोश न हो जायँ, वह मारते ही जायँगे; मगर रहस्य यही है कि आप जितनी ज्यादा चोटें खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचेंगे। ..'
प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।
आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया ज़ुलाई की बीसवीं तारीख कत्ल की रात ! हम प्रात:काल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और
मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी। मन्दिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपादृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी ? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन डिज़र्व ;कमेमतअमद्ध करता है ? विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा, मैं डाकखाने जाता हूँ और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मन्दिर के द्वार पर खड़े होकर कंगालों को बाँटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गयी थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाये हुए थे, सिर झुकाये, आँखें बन्द किये हुए, अनुराग में डूबे हुए। बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले,"भगवान् तो बड़े भक्त-वत्सल हैं, क्यों पुजारीजी ?"
पुजारीजी ने समर्थन किया, 'हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।'
एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले क्यों, 'पुजारीजी, भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, अन्तर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं।'
पुजारी ने समर्थन किया-'हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसे जान जाते ? शबरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।'
पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।
सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा, 'तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारीजी ?'
पुजारी बोला, 'सरकार की फते है।'
छोटे ठाकुर ने पूछा, 'और मेरी ?'
पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा, 'आपकी भी फते है।'
बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से निकले -- 'प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी !'
एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मन्दिर से गाते हुए निकले -- 'अब पत राखो मोरे दयानिधन तोरी गति लखि ना परे !'
मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; उन्होंने थाल हटाकर कहा, आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है ? मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुस्कराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर
सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।
बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा, 'बोलो राजा रामचन्द्र की जय !'
छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी, 'बोलो हनुमानजी की जय !'
प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा, 'दुहाई झक्कड़ बाबा की !'
विक्रम ने और जोर से कहकहा, मारा और फिर अलग खड़ा होकर बोला,'जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूँगा ! बोलो, है मंजूर ?'
बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-- 'पहले बता तो !'
'ना ! यों नहीं बताता।'
'छोटे ठाकुर बिगड़े ... महज बताने के लिए एक लाख ? शाबाश !'
प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ायी, 'क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है ?'
'अच्छा, तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।'
सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये।
'होश-हवाश ठीक रखना !'
सभी पूर्ण सचेत हो गये।
'अच्छा, तो सुनिए कान खोलकर इस शहर का सफाया है। इस शहर
का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया है। अमेरिका के एक हब्शी का नाम
आ गया।'
बड़े ठाकुर झल्लाये, 'झूठ-झूठ, बिलकुल झूठ !'
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला क़भी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही ? वाह ?'
प्रकाश ने छाती ठोंककर कहा, 'यहाँ सिर मुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं, दिल्लगी है !'
इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया,अमेरिका का हब्शी ! अभागा ! पिशाच ! दुष्ट ! अब कैसे किसी को विश्वास न आता ? बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो। छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना
मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला। माताजी ने केवल इतना कहा, 'सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें ? किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेंगे ?'
रात को ��िसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला, 'चलो, होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।'
मैंने पूछा, तुम डाकखाने से आये, 'तो बहुत प्रसन्न क्यों थे।'
उसने कह��, ज़ब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे। और दुनिया में
तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायँगे। मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया,और मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि ...
मैं भी हँसा 'हाँ, बात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं?' विक्रम मुस्कराकर बोला, 'अब क्या करोगे पूछकर ? परदा ढँका रहने दो।'
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लॉटरी :प्रेमचंद (hindi story)
जल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती ? उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आये, तो मेरे दोस्त, विक्रम के पिता, चचा, अम्मा, और भाई,सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जाने, किसकी तकदीर जोर करे ? किसी के नाम आये, रुपया रहेगा तो घर में ही। मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रुपये आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता है ? बहुत होगा, दस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा ? उसकी जिन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलूलू, ये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने
उड़कर लौट आनेवालों में न था। वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा का एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया-भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जायँ। पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था, बँगला, कार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आये, तो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मिल जायँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धोला भी न लगेगा। वह आत्माभिमानी था। घर वालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा, करता था भाई,किसी के सामने हाथ
फैलाने से तो किसी गङ्ढे में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय ? वह बहुत बेकरार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपए
देगा और वह माँगेगा भी तो कैसे ? उसने बहुत सोच-विचार कर कहा, क्यों न हम-तुम साझे में एक टिकट ले लें ? तजवीज मुझे भी पसंद आयी। मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बलाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत बढ़े।
विक्रम ने कहा, 'क़हो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ ? कह दूंगा, उँगली से फिसल पड़ी।' अँगूठी दस रुपये से कम की न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था; अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है ? सहसा विक्रम फिर बोला, लेकिन भई, तुम्हें नकद देने पड़ेंगे। मैं पाँच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा। अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला, नहीं दोस्त, यह बुरी बात है, चोरी खुल जायेगी, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी। आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेन्ड हैंड किताबों की दूकान पर बेच डाली जायँ और उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों
से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास और कोई चीज न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ लीं, अपनी आँखें फोड़ीं और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियाँ चटका रहे थे, हमने
वहीं हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल-मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्ती करने लगा ? हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा; उनका सत्त निकाल लिया। अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़ेखाने से निकाला और झाड़-पोंछ कर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँध। मास्टर था, किसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे;इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आधा घंटे में दस रुपये का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं; पर यह दस रुपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पाँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगे, पाँच विक्रम के। हम अपने इसी में मगन थे।
मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा, 'पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी !' विक्रम इतना संतोषी न था। बोला, 'पाँच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत है भाई, मगर जिन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया। मैंने आपत्ति की आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे ?'
'जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्रामहै। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए ?'
'चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।'
विक्रम ने गर्म होकर कहा, 'मैं शान से रहना चाहता हूँ; भिखारियों की तरह नहीं।'
'दो हजार में भी तुम शान से रह सकते हो।'
'जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न दे देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।'
'कोई ज��ूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो ?'
'मैं तो बेजोड़ ही बनवाऊँगा।'
'इसका तुम्हें अख्तियार है, लेकिन मेरे रुपये में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनों का विवाह
है, दो भाइयों की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूंगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्तें लगा दूंगा, कि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।'
विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा, 'हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा; लेकिन बैंक के सूद की दर तो बहुत गिर गयी है। हमने कई बैंकों में सूद की दर देखी, अस्थायी कोष की भी; सेविंग बैंक की भी। बेशक दर बहुत कम थी। दो-ढाई रुपये सैकड़े ब्याज पर जमा करना व्यर्थ है। क्यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाय ? विक्रम भी अभी यात्रा पर न जायगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगी,जब कुछ धन जमा हो जायगा, तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब-दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्छी जमानत न हो, किसी को रुपया न देना चाहिए; चाहे असामी कितना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रुपये दे ही क्यों ? जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो
कोई खटका न रहेगा। यह मंजिल भी तय हुई।
अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया। अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा ! मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई ! एक-एक करके इन्तजार के दिन काटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँध करते और इस तरह सायँ-सायँ कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा ! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे। एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, भई,शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ की चिंता और हाय-हाय। पत्नी की नाज बरदारी में ही बहुत-से रुपये उड़ जायँगे।
मैंने इसका विरोध किया 'हाँ, यह तो ठीक है; लेकिन जब तक जीवन के सुख-दु:ख का कोई साथी न हो; जीवन का आनन्द ही क्या ? मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हाँ, साथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।'
विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला, 'ख़ैर, अपना-अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना तथा बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बन्दा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर वक्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ क़हाँ थे अब तक ? आप कहीं बाहर निकले और फौरन सवाल हुआ क़हाँ जाते हो ? और जो कहीं दुर्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गयीं, तब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। न भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौंडे मनाने लगे कि कब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रे उड़ायें। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको
कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता। '
कुन्ती आ गयी। वह विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख। इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।
विक्रम ने बिगड़कर कहा, 'तू बड़ी शैतान है कुन्ती, किसने तुझे बुलाया यहाँ ?'
कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा, 'तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बातें किया करते हो ? जब देखो,यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखने; कोई जादू-मन्तर जगाते होंगे !'
विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा, 'हाँ एक मन्तर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हजार हण्टर जमाये सड़ासड़।'
कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली, 'मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगा, तो कान गर्म कर दूंगी। अम्माँ को लॉटरी
के रुपये मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे दें। बस, चैन करूँगी। मैं दोनों वक्त ठाकुरजी से अम्माँ के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैं, कुँवारी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता है, अम्माँ को जरूर रुपये मिलेंगे।'
मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादों का महीना आ गया था; मगर पानी की बूँद नहीं। सब लोगों ने चन्दा करके गाँव की सब कुँवारी लड़कियों की दावत की थी।
और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही कुँवारियों की दुआ में असर होता है। मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया।
विक्रम ने कुन्ती से कहा, 'अच्छा, तुझसे एक बात कहें किसी से कहोगी तो नहीं ? नहीं, तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, किसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझे खूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूंगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर। अगर हमें रुपये मिले,
तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे। सच !' कुन्ती को विश्वास न आया। हमने कसमें खायीं। वह नखरे करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने पर राजी हुई। लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी;वह जरा-सी बात
न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण में सारे घर में वह खबर फैल गयी। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्माँ भी, चचा भी, पिता भी क़ेवल विक्रम की शुभ-कामना से या और किसी भाव से, 'कौन जाने बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती है। रुपये लेकर पानी में फेंक दिये। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी ? क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते ? और तुम भी मास्टर साहब, बिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, उसे और चौपट किये डालते हो।'
विक्रम तो लाड़ला बेटा था। उसे और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाये, तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसकी सोहबत में लड़का बिगड़ा जाता है।
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब उन दिनों आये हुए थे।
मैंने चुपके से कोठरी में जाकर गिलास में एक घूँट शराब डाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं, कि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानो सेंधा में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े इतना बिगड़े कि मेरा कले���ा सूखकर छुहारा हो गया। अम्माँ ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा, मुझे आँसुओं से उनकी क्रोधग्नि शान्त करनी पड़ी; और दोपहर ही को मामूँ साहब नशे में पागल होकर गाने लगे, फिर रोये, फिर अम्माँ को गालियाँ दीं, दादा के मना करने पर भी मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।
विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ाने वाले, पूरे नास्तिक; मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब प्रात:काल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। इस उम्र में भी उन्हें सिंगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति-निष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पण्डितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।
ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिवस समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शान्ति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इन्कार कर दे, तो मैं क्या करूँगा। साफ इन्कार कर जाय कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत। सबकुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डावाँडोल हुई कि काम-तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो कुछ लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है तब तो वह अभी से इन्कार कर देगा; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं है; मगर भाई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है ? परीक्षा का समय तो तब आयेगा,जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त:करण को टटोला अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे
दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपये बिना कान-पूँछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता ? कौन कह सकता है; मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं हीले-हवाले करता, कहता तुमने मुझे पाँच रुपये उधर दिये थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो और क्या करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बद-नीयती न होती।
दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा, क़हीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया ! वह सरल भाव से मुस्कराया, मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था। मैंने चौंककर कहा,'सच ! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?'
'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है ?'
'इससे क्या।'
'अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इन्कार कर जाऊँ ?'
मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था।'
'मगर है बहुत संभव। पाँच लाख। सोचो ! दिमाग चकरा जाता है !'
'तो भाई, अभी से कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो ! यह संशय रहे ही क्यों ?'
विक्रम ने हँसकर कहा, 'तुम बड़े शक्की हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है ? पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ भी हों,तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूंगा।' किन्तु मुझे उसके इस आश्वासन पर बिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय बैठ गया।
मैंने कहा, 'यह तो मैं जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है ?'
'फजूल है।'
'फजूल ही सही।'
'तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढ़े सात हजार हो जायगी। किस भ्रम में हैं आप ?'
मैंने सोचा, 'बला से सादी लिखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाई न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा और दुनिया में बदनामी का भय न हो, तो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला, 'मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।'
विक्रम ने लापरवाही से कहा, 'ज़िस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्या समय नष्ट करें ?'
मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है ? बिगड़कर कहा,'तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गयी। उसने निर्लज्जता से कहा, तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती ?'
'मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है ?'
'रहने भी दो। बड़ी नीयतवाले ! अच्छे-अच्छे को देखा है !'
'तुम्हें इसी वक्त लेखाबद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।'
'अगर तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं है, तो मैं भी नहीं लिखता।'
'तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे ?'
'किसके रुपये और कैसे रुपये ?'
'मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त न हो जायगा, बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।'
हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी। सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैंने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठकर खड़े हो गये थे,एक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्योरियाँ चढ़ी हुईं, मुट्ठियाँ बँधी हुईं। मालूम होता था, बस हाथापाई हुई ही चाहती है। छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा, सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है,बराबर।
बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया -'हरगिज नहीं, अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न है।'
'इसका फैसला अदालत से होगा।'
'शौक से अदालत जाइए। अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी या मेरे नाम लॉटरी निकली, तो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।'
'अगर मैं जानता कि आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था।'
'यह आपकी गलती है।'
'इसीलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।'
'यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए था। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।'
'मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।'
'आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर और न कोई महात्मा।'
विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आयीं और दोनों को समझाने लगीं।
छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा, 'आप मुझे क्या समझती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिये हुए बैठे हैं। मेरे पास क्या है, एक टिकट। उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दु:ख की बात है।'
ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा, 'अच्छा, मेरे रुपये में से आधे तुम्हारे। अब तो खुश हो।'
बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी --'क्यों आधे ले लेंगे ? मैं एक धोला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सह्रदयता से काम लें, फिर भी उन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है ? न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक। छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा, सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं।'
'जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है ?'
'यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंगा।'
'बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का !'
'मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।'
इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लॅगड़ाते हुए, कपड़ों पर ताजा खून के दाग लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक आरामकुर्सी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा, 'यह तुम्हारी क्या हालत है जी ? ऐं, यह चोट कैसे लगी ? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी?'
प्रकाश ने कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुस्कराकर बोले, 'ज़ी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।'
'कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी ? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है ? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गयी ?'
'बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बात नहीं।'
प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, शान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।
बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा, 'लेकिन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते ? किसी से मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूं।'
प्रकाश ने हलके मन से कहा, 'मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब। बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं,वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं।
जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो कोई पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेंट लिये, कोई कपड़ों के थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोलीं और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मैं घंटेघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयी, खून की धारा बह चली; लेकिन मैं हिला नहीं। फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और
बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्धान हो जाया करते हैं। किसे पुकारूँ, किससे सवारी लाने को कहूँ ? मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डाक्टर के पास गया। उन्होंने देखकर कहा, हड्डी टूट गयी है और पट्टी बाँध दी; गर्म पानी से सेंकने को कहा, है। शाम को फिर आयेंगे, मगर चोट लगी तो लगी; अब लाटरी मेरे नाम आयी धरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूंगा।'
बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगीं, उनका भी मुख प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा
न था। छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्यों ही बड़े ठाकुर भोजन करने गये और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबन्ध करने गयीं, त्यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा, 'क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं ?'
'जोर से तो क्या मारते होंगे !'
प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा, 'अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डील-डौल है और बलवान् इतने हैं कि एक घूँसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक
ही पत्थर में टें हो जाय। कितने ही तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते,जब तक आप गिर न पड़ें और बेहोश न हो जायँ, वह मारते ही जायँगे; मगर रहस्य यही है कि आप जितनी ज्यादा चोटें खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचेंगे। ..'
प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।
आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया ज़ुलाई की बीसवीं तारीख कत्ल की रात ! हम प्रात:काल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और
मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी। मन्दिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपादृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी ? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन डिज़र्व ;कमेमतअमद्ध करता है ? विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा, मैं डाकखाने जाता हूँ और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मन्दिर के द्वार पर खड़े होकर कंगालों को बाँटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गयी थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाये हुए थे, सिर झुकाये, आँखें बन्द किये हुए, अनुराग में डूबे हुए। बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले,"भगवान् तो बड़े भक्त-वत्सल हैं, क्यों पुजारीजी ?"
पुजारीजी ने समर्थन किया, 'हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।'
एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले क्यों, 'पुजारीजी, भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, अन्तर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं।'
पुजारी ने समर्थन किया-'हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसे जान जाते ? शबरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।'
पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।
सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा, 'तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारीजी ?'
पुजारी बोला, 'सरकार की फते है।'
छोटे ठाकुर ने पूछा, 'और मेरी ?'
पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा, 'आपकी भी फते है।'
बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से निकले -- 'प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी !'
एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मन्दिर से गाते हुए निकले -- 'अब पत राखो मोरे दयानिधन तोरी गति लखि ना परे !'
मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; उन्होंने थाल हटाकर कहा, आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है ? मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुस्कराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर
सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।
बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा, 'बोलो राजा रामचन्द्र की जय !'
छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी, 'बोलो हनुमानजी की जय !'
प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा, 'दुहाई झक्कड़ बाबा की !'
विक्रम ने और जोर से कहकहा, मारा और फिर अलग खड़ा होकर बोला,'जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूँगा ! बोलो, है मंजूर ?'
बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-- 'पहले बता तो !'
'ना ! यों नहीं बताता।'
'छोटे ठाकुर बिगड़े ... महज बताने के लिए एक लाख ? शाबाश !'
प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ायी, 'क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है ?'
'अच्छा, तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।'
सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये।
'होश-हवाश ठीक रखना !'
सभी पूर्ण सचेत हो गये।
'अच्छा, तो सुनिए कान खोलकर इस शहर का सफाया है। इस शहर
का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया है। अमेरिका के एक हब्शी का नाम
आ गया।'
बड़े ठाकुर झल्लाये, 'झूठ-झूठ, बिलकुल झूठ !'
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला क़भी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही ? वाह ?'
प्रकाश ने छाती ठोंककर कहा, 'यहाँ सिर मुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं, दिल्लगी है !'
इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया,अमेरिका का हब्शी ! अभागा ! पिशाच ! दुष्ट ! अब कैसे किसी को विश्वास न आता ? बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो। छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना
मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला। माताजी ने केवल इतना कहा, 'सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें ? किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेंगे ?'
रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला, 'चलो, होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।'
मैंने पूछा, तुम डाकखाने से आये, 'तो बहुत प्रसन्न क्यों थे।'
उसने कहा, ज़ब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे। और दुनिया में
तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायँगे। मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया,और मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि ...
मैं भी हँसा 'हाँ, बात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं?' विक्रम मुस्कराकर बोला, 'अब क्या करोगे पूछकर ? परदा ढँका रहने दो।'
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डामुल का कैदी :प्रेमचंद (hindi story )
दस बजे रात का समय, एक विशाल भवन में एक सजा हुआ कमरा, बिजली की अँगीठी, बिजली का प्रकाश। बड़ा दिन आ गया है। सेठ खूबचन्दजी अफसरों को डालियाँ भेजने का सामान कर रहे हैं। फलों, मिठाइयों, मेवों, खिलौनों की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ सामने खड़ी हैं। मुनीमजी अफसरों के नाम बोलते जाते हैं। और सेठजी अपने हाथों यथासम्मान डालियाँ लगाते जाते हैं। खूबचन्दजी एक मिल के मालिक हैं, बम्बई के बड़े ठीकेदार। एक बार नगर के मेयर भी रह चुके हैं। इस वक्त भी कई व्यापारी-सभाओं के मन्त्री और व्यापार मंडल के सभापति हैं। इस धन, यश, मान की प्राप्ति में डालियों का कितना भाग है, यह कौन कह सकता है, पर इस अवसर पर सेठजी के दस-पाँच हज़ार बिगड़ जाते थे। अगर कुछ लोग तुम्हें खुशामदी, टोड़ी, जी-हुजूर
कहते हैं, तो कहा, करें। इससे सेठजी का क्या बिगड़ता है। सेठजी उन लोगों में नहीं हैं, जो नेकी करके दरिया में डाल दें। पुजारीजी ने आकर कहा, 'सरकार, बड़ा विलम्ब हो गया। ठाकुरजी का भोग तैयार है।'
अन्य धानिकों की भाँति सेठजी ने भी एक मन्दिर बनवाया था। ठाकुरजी की पूजा करने के लिए एक पुजारी नौकर रख लिया था। पुजारी को रोष-भरी आँखों से देखकर कहा, 'देखते नहीं हो, क्या कर रहा हूँ? यह भी एक काम है, खेल नहीं, तुम्हारे ठाकुरजी ही सबकुछ न दे देंगे। पेट भरने पर ही पूजा सूझती है। घंटे-आधा-घंटे की देर हो जाने से ठाकुरजी भूखों न मर जायँगे।'
पुजारीजी अपना-सा मुँह लेकर चले गये और सेठजी फिर डालियाँ सजाने में मसरूफ हो गये। सेठजी के जीवन का मुख्य काम धन कमाना था और उसके साधनों की रक्षा करना उनका मुख्य कर्तव्य। उनके सारे व्यवहार इसी सिद्धान्त के अधीन थे। मित्रों से इसलिए मिलते थे कि उनसे धनोपार्जन में मदद मिलेगी। मनोरंजन भी करते थे, तो व्यापार की दृष्टि से; दान बहुत देते थे, पर उसमें भी यही लक्ष्य सामने रहता था। सन्ध्या और वन्दना उनके लिए पुरानी लकीर थीं, जिसे पीटते रहने में स्वार्थ सिद्ध होता था, मानो कोई बेगार हो। सब
कामों से छुट्टी मि��ी, तो जाकर ठाकुरद्वारे में खड़े हो गये, चरणामृत लिया और चले आये। एक घंटे के बाद पुजारीजी फिर सिर पर सवार हो गये। खूबचन्द उनका मुँह देखते ही झुँझला उठे। जिस पूजा में तत्काल फायदा होता था, उसमें कोई बार-बार विघ्न डाले तो क्यों न बुरा लगे? बोले क़ह दिया, 'अभी मुझे फुरसत नहीं है। खोपड़ी पर सवार हो गये ! मैं पूजा का गुलाम नहीं हूँ। जब घर में पैसे होते हैं, तभी ठाकुरजी की भी पूजा होती है। घर में पैसे न होंगे, तो ठाकुर जी भी पूछने न आयेंगे। पुजारी हताश होकर चला गया और सेठजी फिर अपने काम में लगे। सहसा उनके मित्र केशवरामजी पधारे। सेठजी उठकर उनके गले से लिपट गये और 'बोले क़िधर से? मैं तो अभी तुम्हें बुलाने वाला था।'
केशवराम ने मुस्कराकर कहा, 'इतनी रात गये तक डालियाँ ही लग रही हैं? अब तो समेटो। कल का सारा दिन पड़ा है, लगा लेना। तुम कैसे इतना काम करते हो, मुझे तो यही आश्चर्य होता है। आज क्या प्रोग्राम था, याद है?'
सेठजी ने गर्दन उठाकर स्मरण करने की ��ेष्टा करके कहा, 'क्या कोई विशेष प्रोग्राम था? मुझे तो याद नहीं आता (एकाएक स्मृति जाग उठती है) 'अच्छा, वह बात ! हाँ, याद आ गया। अभी देर तो नहीं हुई। इस झमेले
में ऐसा भूला कि जरा भी याद न रही।'
'तो चलो फिर। मैंने तो समझा था, तुम वहाँ पहुँच गये होगे।'
'मेरे न जाने से लैला नाराज तो नहीं हुई?'
'यह तो वहाँ चलने पर मालूम होगा।'
'तुम मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।'
'मुझे क्या गरज पड़ी है, जो आपकी ओर से क्षमा माँगूँ ! वह तो त्योरियाँ चढ़ाये बैठी थी। कहने लगी उन्हें मेरी परवाह नहीं तो मुझे भी उनकी परवाह नहीं। मुझे आने ही न देती थी। मैंने शांत तो कर दिया, लेकिन कुछ बहाना करना पड़ेगा।'
खूबचन्द ने आँखें मारकर कहा, 'मैं कह दूंगा, गवर्नर साहब ने जरूरी काम से बुला भेजा था।'
'जी नहीं, यह बहाना वहाँ न चलेगा। कहेगी तुम मुझसे पूछकर क्यों नहीं गये। वह अपने सामने गवर्नर को समझती ही क्या है। रूप और यौवन बड़ी चीज है भाई साहब ! आप नहीं जानते।'
'तो फिर तुम्हीं बताओ, कौन-सा बहाना करूँ?'
'अजी, बीस बहाने हैं। कहना, दोपहर से 106 डिग्री का ज्वर था। अभी उठा हूँ।' दोनों मित्र हँसे और लैला का मुजरा सुनने चले।
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सेठ खूबचन्द का स्वदेशी मिल देश के बहुत बड़े मिलों में है। जब से स्वदेशी आन्दोलन चला है, मिल के माल की खपत दूनी हो गयी है। सेठजी ने कपड़े की दर में दो आने रुपया बढ़ा दिये हैं फिर भी बिक्री में कोई कमी नहीं है; लेकिन इधर अनाज कुछ सस्ता हो गया है, इसलिए सेठजी ने मजूरी घटाने की सूचना दे दी है। कई दिन से मजूरों के प्रतिनिधियों और सेठजी में बहस होती रही। सेठजी जौ-भर भी न दबना चाहते थे। जब उन्हें आधी मजूरी पर नये आदमी मिल सकते हैं, तब वह क्यों पुराने आदमियों को रखें। वास्तव में यह चाल पुराने आदमियों को भगाने ही के लिए चली गयी थी। अंत में मजूरों ने यही निश्चय किया कि हड़ताल कर दी जाय।
प्रात:काल का समय है। मिल के हाते में मजूरों की भीड़ लगी हुई है। कुछ लोग चारदीवारी पर बैठे हैं, कुछ जमीन पर; कुछ इधर-उधर मटरगश्ती कर रहे हैं। मिल के द्वार पर कांस्टेबलों का पहरा है। मिल में पूरी हड़ताल है। एक युवक को बाहर से आते देखकर सैकड़ों मजूर इधर-उधर से दौड़कर उसके चारों ओर जमा हो गये। हरेक पूछ रहा था, 'सेठजी ने क्या कहा,?'
यह लम्बा, दुबला, साँवला युवक मजूरों का प्रतिनिधि था। उसकी आकृति में कुछ ऐसी दृढ़ता, कुछ ऐसी निष्ठा, कुछ ऐसी गंभीरता थी कि सभी मजूरों ने उसे नेता मान लिया था। युवक के स्वर में निराशा थी, क्रोध था, आहत सम्मान का रुदन था।
'कुछ नहीं हुआ। सेठजी ��ुछ नहीं सुनते।'
चारों ओर से आवाजें आयीं, 'तो हम भी उनकी खुशामद नहीं करते।'
युवक ने फिर कहा, 'वह मजूरी घटाने पर तुले हुए हैं, चाहे कोई काम करे या न करे। इस मिल से इस साल दस लाख का फायदा हुआ है। यह हम लोगों ही की मेहनत का फल है, लेकिन फिर भी हमारी मजूरी काटी
जा रही है। धनवानों का पेट कभी नहीं भरता। हम निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, हमारी कौन सुनेगा? व्यापार-मण्डल उनकी ओर है, सरकार उनकी ओर है, मिल के हिस्सेदार उनकी ओर हैं, हमारा कौन है? हमारा उद्धार तो भगवान् ही करेंगे।
एक मजूर बोला, 'सेठजी भी तो भगवान् के बड़े भगत हैं।'
युवक ने मुस्कराकर कहा, 'हाँ, बहुत बड़े भक्त हैं। यहाँ किसी ठाकुरद्वारे में उनके ठाकुरद्वारे की-सी सजावट नहीं है, कहीं इतना विधिपूर्वक भोग नहीं लगता, कहीं इतने उत्सव नहीं होते, कहीं ऐसी झाँकी नहीं बनती। उसी भक्ति का प्रताप है कि आज नगर में इतना सम्मान है, औरों का माल पड़ा सड़ता है, इनका माल गोदाम में नहीं जाने पाता। वही भक्तराज हमारी मजूरी घटा रहे हैं। मिल में अगर घाटा हो तो हम आधी मजूरी पर काम करेंगे, लेकिन जब लाखों का लाभ हो रहा है तो किस नीति से हमारी मजूरी घटायी जा रही है। हम अन्याय नहीं सह सकते। प्रण कर लो कि किसी बाहरी आदमी को मिल में घुसने न देंगे, चाहे वह अपने साथ फौज लेकर ही क्यों न आये। कुछ परवाह नहीं, हमारे ऊपर लाठियाँ बरसें, गोलियाँ चलें ...'
एक तरफ से आवाज आयी -'सेठजी !'
सभी पीछे फिर-फिरकर सेठजी की तरफ देखने लगे। सभी के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कितने ही तो डरकर कांस्टेबलों से मिल के अन्दर जाने के लिए चिरौरी करने लगे, कुछ लोग रुई की गाँठों की आड़ में जा
छिपे। थोड़े-से आदमी कुछ सहमे हुए पर जैसे जान हथेली पर लिए युवक के साथ खड़े रहे। सेठजी ने मोटर से उतरते हुए कांस्टेबलों को बुलाकर कहा, 'इन आदमियों को मारकर बाहर निकाल दो, इसी दम।'
मजूरों पर डण्डे पड़ने लगे। दस-पाँच तो गिर पड़े। बाकी अपनी- अपनी जान लेकर भागे। वह युवक दो आदमियों के साथ अभी तक डटा खड़ा था। प्रभुता असहिष्णु होती है। सेठजी खुद आ जायँ, फिर भी ये लोग सामने खड़े रहें, यह तो खुला विद्रोह है। यह बेअदबी कौन सह सकता है। जरा इस लौंडे को देखो। देह पर साबित कपड़े भी नहीं हैं; मगर जमा खड़ा है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। समझता होगा, यह मेरा कर ही क्या सकते हैं। सेठजी ने रिवाल्वर निकाल लिया और इस समूह के निकट आकर उसे जाने का हुक्म दिया; पर वह समूह अचल खड़ा था। सेठजी उन्मत्त हो गये। यह हेकड़ी ! तुरन्त हेड कांस्टेबल को बुलाकर हुक्म दिया,
'इन आदमियों को गिरफ्तार कर लो।'
कांस्टेबलों ने तीनों आदमियों को रस्सियों से जकड़ दिया और उन्हें फ��टक की ओर ले चले। इनका गिरफ्तार होना था कि एक हजार आदमियों का दल रेला मारकर मिल से निकल आया और कैदियों की तरफ लपका।
कांस्टेबलों ने देखा, बन्दूक चलाने पर भी जान न बचेगी, तो मुलजिमों को छोड़ दिया और भाग खड़े हुए। सेठजी को ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन सारे आदमियों को तोप पर उड़वा दें। क्रोध में आत्मरक्षा की भी उन्हें परवाह न थी। कैदियों को सिपाहियों से छुड़ाकर वह जनसमूह सेठजी की ओर आ रहा था। सेठजी ने समझा सब-के-सब मेरी जान लेने आ रहे हैं। अच्छा! यह लौंडा गोपी सभी के आगे है ! यही यहाँ भी इनका नेता बना हुआ है ! मेरे सामने कैसा भीगी बिल्ली बना हुआ था; पर यहाँ सबके आगे-आगे आ रहा है।
सेठजी अब भी समझौता कर सकते थे; पर यों दबकर विद्रोहियों से दान माँगना उन्हें असह्य था।
इतने में क्या देखते हैं कि वह बढ़ता हुआ समूह बीच ही में रुक गया। युवक ने उन आदमियों से कुछ सलाह की और तब अकेला सेठजी की तरफ चला। सेठजी ने मन में कहा, शायद मुझसे प्राण-दान की शर्तें तय करने आ रहा है। सभी ने आपस में यही सलाह की है। जरा देखो, कितने निश्शंक भाव से चला आता है, जैसे कोई विजयी सेनापति हो। ये कांस्टेबल कैसे दुम दबाकर भाग खड़े हुए; लेकिन तुम्हें तो नहीं छोड़ता बचा, जो कुछ होगा, देखा जायगा। जब तक मेरे पास यह रिवाल्वर है, तुम मेरा क्या कर सकते हो। तुम्हारे सामने तो घुटना न टेकूँगा। युवक समीप आ गया और कुछ बोलना ही चाहता था कि सेठजी ने रिवाल्वर निकालकर फायर कर दिया। युवक भूमि पर गिर पड़ा और हाथ-पाँव फेंकने लगा।
उसके गिरते ही मजूरों में उत्तेजना फैल गयी। अभी तक उनमें हिंसा-भाव न था। वे केवल सेठजी को यह दिखा देना चाहते थे कि तुम हमारी मजूरी काटकर शान्त नहीं बैठ सकते; किन्तु हिंसा ने हिंसा को उद्दीप्त कर दिया।
सेठजी ने देखा, प्राण संकट में हैं और समतल भूमि पर रिवाल्वर से भी देर तक प्राणरक्षा नहीं कर सकते; पर भागने का कहीं स्थान न था ! जब कुछ न सूझा, तो वह रुई के गाँठ पर चढ़ गये और रिवाल्वर दिखा-दिखाकर नीचे वालों को ऊपर चढ़ने से रोकने लगे। नीचे पाँच-छ: सौ आदमियों का घेरा था। ऊपर सेठजी अकेले रिवाल्वर लिए खड़े थे। कहीं से कोई मदद नहीं आ रही है और प्रतिक्षण प्राणों की आशा क्षीण होती जा रही है। कांस्टेबलों ने भी अफसरों को यहाँ की परिस्थिति नहीं बतलायी; नहीं तो क्या अब तक कोई न आता? केवल पाँच गोलियों से कब तक जान बचेगी? एक क्षण में ये सब समाप्त हो जायँगी। भूल हुई, मुझे बन्दूक और कारतूस लेकर आना चाहिए था। फिर देखता इनकी बहादुरी। एक-एक को भूनकर रख देता; मगर
क्या जानता था कि यहाँ ��तनी भयंकर परिस्थिति आ खड़ी होगी।
नीचे के एक आदमी ने कहा, 'लगा दो गाँठों में आग। निकालो तो एक माचिस। रुई से धन कमाया है, रुई की चिता पर जले।'
तुरन्त एक आदमी ने जेब से दियासलाई निकाली और आग लगाना ही चाहता था कि सहसा वही जख्मी युवक पीछे से आकर सामने हो गया। उसके पाँव में पट्टी बँधी हुई थी, फिर भी रक्त बह रहा था। उसका मुख पीला पड़ गया था और उसके तनाव से मालूम होता था कि युवक को असह्य वेदना हो रही है। उसे देखते ही लोगों ने चारों तरफ से आकर घेर लिया। उस हिंसा के उन्माद में भी अपने नेता को जीता-जागता देखकर उनके हर्ष की सीमा न रही। जयघोष से आकाश गूँज उठा 'ग़ोपीनाथ की जय।'
जख्मी गोपीनाथ ने हाथ उठाकर समूह को शान्त हो जाने का संकेत करके कहा, 'भाइयो, मैं तुमसे एक शब्द कहने आया हूँ। कह नहीं सकता, बचूँगा या नहीं। सम्भव है, तुमसे यह मेरा अन्तिम निवेदन हो। तुम क्या करने जा रहे हो? दरिद्र में नारायण का निवास है, क्या इसे मिथ्या करना चाहते हो? धनी को अपने धन का मद हो सकता है। तुम्हें किस बात का अभिमान है? तुम्हारे झोपड़ों में क्रोध और अहंकार के लिए कहाँ स्थान है? मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, सब लोग यहाँ से हट जाओ। अगर तुम्हें मुझसे कुछ स्नेह है, अगर मैंने तुम्हारी कुछ सेवा की है, तो अपने घर जाओ और सेठजी को घर जाने दो।'
चारों तरफ से आपत्तिजनक आवाजें आने लगीं; लेकिन गोपीनाथ का विरोध करने का साहस किसी में न हुआ। धीरे-धीरे लोग यहाँ से हट गये। मैदान साफ हो गया, तो गोपीनाथ ने विनम्र भाव से सेठजी से कहा, 'सरकार,
अब आप चले जायँ। मैं जानता हूँ, आपने मुझे धोखे से मारा। मैं केवल यही कहने आपके पास आ रहा था, जो अब कह रहा हूँ। मेरा दुर्भाग्य था, कि आपको भ्रम हुआ। ईश्वर की यही इच्छा थी।
सेठजी को गोपीनाथ पर कुछ श्रद्धा होने लगी है। नीचे उतरने में कुछ शंका अवश्य है; पर ऊपर भी तो प्राण बचने की कोई आशा नहीं है। वह इधर-उधर सशंक नेत्रों से ताकते हुए उतरते हैं। जनसमूह कुछ दस गज के अन्तर पर खड़ा हुआ है। प्रत्येक मनुष्य की आँखों में विद्रोह और हिंसा भरी हुई है। कुछ लोग दबी जबान से पर सेठजी को सुनाकर अशिष्ट आलोचनाएँ कर रहे हैं, पर किसी में इतना साहस नहीं है कि उनके सामने आ सके। उस मरते हुए युवक के आदेश में इतनी शक्ति है। सेठजी मोटर पर बैठकर चले ही थे कि गोपी जमीन पर गिर पड़ा।
सेठजी की मोटर जितनी तेजी से जा रही थी, उतनी ही तेजी से उनकी आँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र भी दौड़ रहा था। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में आने लगीं। अपराधी भावनाएँ चित्त को आन्दोलित कर��े लगीं। अगर गोपी उनका शत्रु था, तो उसने क्यों उनकी जान बचायी ऐसी दशा में, जब वह स्वयं मृत्यु के जे में था? इसका उनके पास कोई जवाब न था। निरपराध गोपी, जैसे हाथ बाँधे उनके सामने खड़ा कह रहा था आपने मुझ बेगुनाह को क्यों मारा? भोग-लिप्सा आदमी को स्वार्थान्ध बना देती है। फिर भी सेठजी की आत्मा अभी इतनी अभ्यस्त और कठोर न हुई थी कि एक निरपराध की हत्या करके उन्हें ग्लानि न होती। वह सौ-सौ युक्तियों से मन को समझाते थे; लेकिन न्याय-बुद्धि किसी युक्ति को स्वीकार न करती थी। जैसे यह धारणा उनके न्याय-द्वार पर बैठी सत्याग्रह कर रही थी और वरदान लेकर ही टलेगी। वह घर पहुँचे तो इतने दुखी और हताश थे, मानो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हों !
प्रमीला ने घबड़ायी हुई आवाज में पूछा, 'हड़ताल का क्या हुआ? अभी हो रही है या बन्द हो गयी? मजूरों ने दंगा-फसाद तो नहीं किया? मैं तो बहुत डर रही थी।'
खूबचन्द ने आरामकुर्सी पर लेटकर एक लम्बी साँस ली और बोले, 'क़ुछ न पूछो, किसी तरह जान बच गयी; बस यही समझ लो। पुलिस के आदमी तो भाग खड़े हुए, मुझे लोगों ने घेर लिया। बारे किसी तरह जान लेकर भागा।जब मैं चारों तरफ से घिर गया, तो क्या करता, मैंने भी रिवाल्वर छोड़ दिया।
प्रमीला भयभीत होकर बोली, 'क़ोई जख्मी तो नहीं हुआ?'
'वही गोपीनाथ जख्मी हुआ, जो मजूरों की तरफ से मेरे पास आया करता था। उसका गिरना था कि एक हजार आदमियों ने मुझे घेर लिया। मैं दौड़कर रुई की गाँठों पर चढ़ गया। जान बचने की कोई आशा न थी।
मजूर गाँठों में आग लगाने जा रहे थे।'
प्रमीला काँप उठी।
'सहसा वही जख्मी आदमी उठकर मजूरों के सामने आया और उन्हें समझाकर मेरी प्राणरक्षा की। वह न आ जाता, तो मैं किसी तरह जीता न बचता।'
'ईश्वर ने बड़ी कुशल की ! इसीलिए मैं मना कर रही थी कि अकेले न जाओ। उस आदमी को लोग अस्पताल ले गये होंगे?'
सेठजी ने शोक-भरे स्वर में कहा, 'मुझे भय है कि वह मर गया होगा ।जब मैं मोटर पर बैठा, तो मैंने देखा, वह गिर पड़ा और बहुत-से आदमी उसे घेरकर खड़े हो गये। न-जाने उसकी क्या दशा हुई।'
प्रमीला उन देवियों में थी जिनकी नसों में रक्त की जगह श्रद्धा बहती है। स्नान-पूजा, तप और व्रत यही उसके जीवन के आधार थे। सुख में, दु:ख में, आराम में, उपासना ही उसका कवच थी। इस समय भी उस पर संकट
आ पड़ा। ईश्वर के सिवा कौन उसका उद्धार करेगा ! वह वहीं खड़ी द्वार की ओर ताक रही थी और उसका धर्म-निष्ठ मन ईश्वर के चरणों में गिरकर क्षमा की भिक्षा माँग रहा था। सेठजी बोले यह मजूर उस जन्म का कोई महान् पुरुष था। नहीं तो जिस आदमी ने उसे मारा, उसी की प्राणरक्षा के लिए क्यों इतनी तपस्या करता !
प्रमीला श्रद्धा-भाव से बोली, ��गवान् की प्रेरणा और क्या ! भगवान् की दया होती है, तभी हमारे मन में सद्विचार भी आते हैं। सेठजी ने जिज्ञासा की --'तो फिर बुरे विचार भी ईश्वर की प्रेरणा ही से आते होंगे?'
प्रमीला तत्परता के साथ बोली, 'ईश्वर आनन्द-स्वरूप हैं। दीपक से कभी अन्धकार नहीं निकल सकता।
सेठजी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाहर शोर सुनकर चौंक पड़े। दोनों ने सड़क की तरफ की खिड़की खोलकर देखा, तो हजारों आदमी काली झण्डियाँ लिए दाहिनी तरफ से आते दिखाई दिये। झण्डियों के बाद एक अर्थी थी, सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। यह गोपीनाथ के जनाजे का जुलूस था। सेठजी तो मोटर पर बैठकर मिल से घर की ओर चले, उधर मजूरों ने दूसरी मिलों में इस हत्याकाण्�� की सूचना भेज दी। दम-के-दम में सारे शहर में यह खबर बिजली की तरह दौड़ गयी और कई मिलों में हड़ताल हो गयी। नगर में सनसनी फैल गयी। किसी भीषण उपद्रव के भय से लोगों ने दूकानें बन्द कर दीं। यह जुलूस नगर के मुख्य स्थानों का चक्कर लगाता हुआ सेठ खूबचन्द के द्वार पर आया है और गोपीनाथ के खून का बदला लेने पर तुला हुआ है। उधर पुलिस-अधिकारियों ने सेठजी की रक्षा करने का निश्चय कर लिया है, चाहे खून की नदी ही क्यों न बह जाय। जुलूस के पीछे सशस्त्र पुलिस के दो सौ जवान डबल मार्च से उपद्रवकारियों का दमन करने चले आ रहे हैं।
सेठजी अभी अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाये थे कि विद्रोहियों ने कोठी के दफ्तर में घुसकर लेन-देन के बहीखातों को जलाना और तिजोरियों को तोड़ना शुरू कर दिया। मुनीम और अन्य कर्मचारी तथा चौकीदार सब-के-सब अपनी-अपनी जान लेकर भागे। उसी वक्त बायीं ओर से पुलिस की दौड़ आ धामकी और पुलिस-कमिश्नर ने विद्रोहियों को पाँच मिनट के अन्दर यहाँ से भाग जाने का हुक्म दे दिया। समूह ने एक स्वर से पुकारा -- ग़ोपीनाथ की जय !
एक घण्टा पहले अगर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई होती, तो सेठजी ने बड़ी निश्चिन्तता से उपद्रवकारियों को पुलिस की गोलियों का निशाना बनने दिया होता; लेकिन गोपीनाथ के उस देवोपम सौजन्य और आत्म-समर्पण ने जैसे उनके मन:स्थित विकारों का शमन कर दिया था और अब साधारण औषधि भी उन पर रामबाण का-सा चमत्कार दिखाती थी। उन्होंने प्रमीला से कहा, 'मैं जाकर सबके सामने अपना अपराध स्वीकार किये लेता हूँ। नहीं तो मेरे पीछे न-जाने कितने घर मिट जायँगे।'
प्रमीला ने काँपते हुए स्वर में कहा, 'यहीं खिड़की से आदमियों को क्यों नहीं समझा देते? वे जितना मजूरी बढ़ाने को कहते हों; बढ़ा दो।'
'इस समय तो उन्हें मेरे रक्त की प्यास है, मजूरी बढ़ाने का उन पर कोई असर न होगा।'
सजल नेत्रों से देखकर प्रमीला बोली, 'तब तो तुम्हारे ऊपर हत्या का अभियोग चल जायगा।'
सेठजी ने धीरता से कहा, भगवान् की यही इच्छा है, तो हम क्या कर सकते हैं? एक आदमी का जीवन इतना मूल्यवान् नहीं है कि उसके लिए असंख्य जानें ली जायँ।'
प्रमीला को मालूम हुआ, साक्षात् भगवान् सामने खड़े हैं। वह पति के गले से लिपटकर बोली, 'मुझे क्या कह जाते हो?'
सेठजी ने उसे गले लगाते हुए कहा, 'भगवान् तुम्हारी रक्षा करेंगे।' उनके मुख से और कोई शब्द न निकला। प्रमीला की हिचकियाँ बँधी हुई थीं। उसे रोता छोड़कर सेठजी नीचे उतरे। वह सारी सम्पत्ति जिसके लिए उन्होंने जो कुछ करना चाहिए, वह भी किया, जो कुछ न करना चाहिए, वह भी किया, जिसके लिए खुशामद की, छल किया, अन्याय किये, जिसे वह अपने जीवन-तप का वरदान समझते थे, आज कदाचित् सदा के लिए उनके हाथ से निकली जाती थी; पर उन्हें जरा भी मोह न था, जरा भी खेद न था। वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी; यह सारा कारोबार चौपट हो जायगा, यह सम्पत्ति धूल में मिल जायगी, कौन जाने प्रमीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कौन जियेगा, कौन जानता है, मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आह्वान कर रहे हों। और वह वेदनामय विवशता, जो हमें मृत्यु के समय दबा लेती है, उन्हें भी दबाये हुए थी।
प्रमीला उनके साथ-ही-साथ नीचे तक आयी। वह उनके साथ उस समय तक रहना चाहती थी, जब तक जनता उसे पृथक् न कर दे; लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गये और वह खड़ी रोती रह गयी।
बलि पाते ही विद्रोह का पिशाच शान्त हो गया। सेठजी एक सप्ताह हवालात में रहे। फिर उन पर अभियोग चलने लगा। बम्बई के सबसे नामी बैरिस्टर गोपी की तरफ से पैरवी कर रहे थे।
मजूरों ने चन्दे से अपार धन एकत्र किया था और यहाँ तक तुले हुए थे कि अगर अदालत से सेठजी बरी भी हो जायँ, तो उनकी हत्या कर दी जाय। नित्य इजलास में कई हजार कुली जमा रहते। अभियोग सिद्ध ही था। मुलजिम ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। उनके वकीलों ने उनके अपराध को हलका करने की दलीलें पेश कीं। फैसला यह हुआ कि चौदह साल का कालापानी हो गया। सेठजी के जाते ही मानो लक्ष्मी रूठ गयीं; जैसे उस विशालकाय वैभव की आत्मा निकल गयी हो। साल-भर के अन्दर उस वैभव का कंकाल-मात्र रह गया। मिल तो पहले ही बन्द हो चुकी थी। लेना-देना चुकाने पर कुछ न बचा। यहाँ तक कि रहने का घर भी हाथ से निकल गया। प्रमीला के पास लाखों के आभूषण थे। वह चाहती, तो उन्हें सुरक्षित रख सकती थी;
पर त्याग की धुन में उन्हें भी निकाल फेंका। सातवें महीने में जब उसके पुत्र का जन्म हुआ, तो वह छोटे-से किराये के घर में थी। पुत्र-रत्न पाकर अपनी सारी विपत्ति ��ूल गयी। कुछ दु:ख था तो यही कि पतिदेव होते, तो इस समय कितने आनंदित होते।
प्रमीला ने किन कष्टों को झेलते हुए पुत्र का पालन किया; इसकी कथा लम्बी है। सबकुछ सहा, पर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। जिस तत्परता से उसने देने चुकाये थे, उससे लोगों की उस पर भक्ति हो गयी थी। कई सज्जन तो उसे कुछ मासिक सहायता देने पर तैयार थे; लेकिन प्रमीला ने किसी का एहसान न लिया। भले घरों की महिलाओं से उसका परिचय था ही। वह घरों में स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करके गुजर-भर को कमा लेती थी। जब तक बच्चा दूध पीता था, उसे अपने काम में बड़ी कठिनाई पड़ी; लेकिन दूध छुड़ा देने के बाद वह बच्चे को दाई को सौंपकर आप काम करने चली जाती थी। दिन-भर के कठिन परिश्रम के बाद जब वह सन्ध्या समय घर आकर बालक को गोद में उठा लेती, तो उसका मन हर्ष से उन्मत्त होकर पति के पास उड़ जाता जो न-जाने किस दशा में काले कोसों पर पड़ा था।
उसे अपनी सम्पत्ति के लुट जाने का लेशमात्र भी दु:ख नहीं है। उसे केवल इतनी ही लालसा है कि स्वामी कुशल से लौट आवें और बालक को देखकर अपनी आँखें शीतल करें। फिर तो वह इस दरिद्रता में भी सुखी और संतुष्ट रहेगी। वह नित्य ईश्वर के चरणों में सिर झुकाकर स्वामी के लिए प्रार्थना करती है। उसे विश्वास है, ईश्वर जो कुछ करेंगे, उससे उनका कल्याण ही होगा। ईश्वर-वन्दना में वह अलौकिक धैर्य, साहस और जीवन का आभास पाती है। प्रार्थना ही अब उसकी आशाओं का आधार है। पन्द्रह साल की विपत्ति के दिन आशा की छॉह में कट गये।
सन्ध्या का समय है। किशोर कृष्णचन्द्र अपनी माता के पास मन-मारे बैठा हुआ है। वह माँ-बाप दोनों में से एक को भी नहीं पड़ा। प्रमीला ने पूछा, क्यों बेटा, तुम्हारी परीक्षा तो समाप्त हो गयी? बालक ने गिरे हुए मन से जवाब दिया, 'हाँ अम्माँ, हो गयी; लेकिन मेरे परचे अच्छे नहीं हुए। मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता है।'
यह कहते-कहते उसकी आँखें डबडबा आयीं। प्रमीला ने स्नेह-भरे स्वर में कहा, 'यह तो अच्छी बात नहीं है बेटा, तुम्हें पढ़ने में मन लगाना चाहिए।'
बालक सजल नेत्रों से माता को देखता हुआ बोला, 'मुझे बार-बार पिताजी की याद आती रहती है। वह तो अब बहुत बूढ़े हो गये होंगे। मैं सोचा करता हूँ कि वह आयेंगे, तो तन-मन से उनकी सेवा करूँगा। इतना बड़ा उत्सर्ग किसने किया होगा अम्माँ? उस पर लोग उन्हें निर्दयी कहते हैं। मैंने गोपीनाथ के बाल-बच्चों का पता लगा लिया अम्माँ ! उनकी घरवाली है, माता है और एक लड़की है, जो मुझसे दो साल बड़ी है। माँ-बेटी दोनों उसी मिल में काम करती हैं। दादी बहुत बूढ़ी हो गयी है।'
प्रमीला ��े विस्मित होकर कहा, 'तुझे उनका पता कैसे चला बेटा?'
कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त होकर बोला, 'मैं आज उस मिल में चला गया था। मैं उस स्थान को देखना चाहता था, जहाँ मजूरों ने पिताजी को घेरा था और वह स्थान भी, जहाँ गोपीनाथ गोली खाकर गिरा था; पर उन दोनों
में एक स्थान भी न रहा। वहाँ इमारतें बन गयी हैं। मिल का काम बड़े जोर से चल रहा है। मुझे देखते ही बहुत-से आदमियों ने मुझे घेर लिया। सब यही कहते थे कि तुम तो भैया गोपीनाथ का रूप धारकर आये हो। मजूरों ने वहाँ गोपीनाथ की एक तस्वीर लटका रखी है। उसे देखकर चकित हो गया अम्माँ, जैसे मेरी ही तस्वीर हो, केवल मूँछों का अन्तर है। जब मैंने गोपी की स्त्री के बारे में पूछा,, तो एक आदमी दौड़कर उसकी स्त्री को बुला लाया। वह मुझे देखते ही रोने लगी। और न-जाने क्यों मुझे भी रोना आ गया। बेचारी स्त्रियाँ बड़े कष्ट में हैं। मुझे तो उनके ऊपर ऐसी दया आती है कि उनकी कुछ मदद करूँ।'
प्रमीला को शंका हुई, लड़का इन झगड़ों में पड़कर पढ़ना न छोड़ बैठे। बोली, अभी तुम उनकी क्या मदद कर सकते हो बेटा? धन होता तो कहती, दस-पाँच रुपये महीना दे दिया करो, लेकिन घर का हाल तो तुम जानते ही हो। अभी मन लगाकर पढ़ो। जब तुम्हारे पिताजी आ जायँ, तो जो इच्छा हो वह करना।'
कृष्णचन्द्र ने उस समय कोई जवाब न दिया; लेकिन आज से उसका नियम हो गया कि स्कूल से लौटकर एक बार गोपी के परिवार को देखने अवश्य जाता। प्रमीला उसे जेब-खर्च के लिए जो पैसे देती, उसे उन अनाथों ही पर खर्च करता। कभी कुछ फल ले लिए, कभी शाक-भाजी ले ली।
एक दिन कृष्णचन्द्र को घर आने में देर हुई, तो प्रमीला बहुत घबरायी। पता लगाती हुई विधवा के घर पर पहुँची, तो देखा एक तंग गली में, एक सीले, सड़े हुए मकान में गोपी की स्त्री एक खाट पर पड़ी है और कृष्णचन्द्र खड़ा उसे पंखा झल रहा है। माता को देखते ही बोला, 'मैं अभी घर न जाऊँगा अम्माँ, देखो, काकी कितनी बीमार है। दादी को कुछ सूझता नहीं, बिन्नी खाना पका रही है। इनके पास कौन बैठे?'
प्रमीला ने खिन्न होकर कहा, 'अब तो अन्धेरा हो गया, तुम यहाँ कब तक बैठे रहोगे? अकेला घर मुझे भी तो अच्छा नहीं लगता। इस वक्त चलो।सबेरे फिर आ जाना।'
रोगिणी ने प्रमीला की आवाज सुनकर आँखें खोल दीं और मन्द स्वर में बोली, 'आओ माताजी, बैठो। मैं तो भैया से कह रही थी, देर हो रही है, अब घर जाओ; पर यह गये ही नहीं। मुझ अभागिनी पर इन्हें न जाने क्यों इतनी दया आती है। अपना लड़का भी इससे अधिक मेरी सेवा न कर सकता।'
चारों तरफ से दुर्गन्ध आ रही थी। उमस ऐसी थी कि दम घुटा जाता था। उस बिल में हवा किधर से आती? पर कृष्णचन्द्र ऐस�� प्रसन्न था, मानो कोई परदेशी चारों ओर से ठोकरें खाकर अपन�� घर में आ गया हो।
प्रमीला ने इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो एक दीवार पर उसे एक तस्वीर दिखायी दी। उसने समीप जाकर उसे देखा तो उसकी छाती धक् से हो गयी। बेटे की ओर देखकर बोली, 'तूने यह चित्र कब खिंचवाया बेटा?'
कृष्णचन्द्र मुस्कराकर बोला, 'यह मेरा चित्र नहीं है अम्माँ, गोपीनाथ का चित्र है।'
प्रमीला ने अविश्वास से कहा, 'चल, झूठा कहीं का।'
रोगिणी ने कातर भाव से कहा, 'नहीं अम्माँ जी, वह मेरे आदमी ही का चित्र है। भगवान् की लीला कोई नहीं जानता; पर भैया की सूरत इतनी मिलती है कि मुझे अचरज होता है। जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी यही उम्र थी, और सूरत भी बिलकुल यही। यही हँसी थी, यही बातचीत और यही स्वभाव। क्या रहस्य है, मेरी समझ में नहीं आता। माताजी, जब से यह आने लगे हैं, कह नहीं सकती, मेरा जीवन कितना सुखी हो गया। इस मुहल्ले में सब हमारे ही जैसे मजूर रहते हैं। उन सभों के साथ यह लड़कों की तरह रहते हैं। सब इन्हें देखकर निहाल हो जाते हैं।'
प्रमीला ने कोई जवाब न दिया। उसके मन पर एक अव्यक्त शंका छायी थी, मानो उसने कोई बुरा सपना देखा हो। उसके मन में बार-बार एक प्रश्न उठ रहा था, जिसकी कल्पना ही से उसके रोयें खड़े हो जाते थे। सहसा उसने कृष्णचन्द्र का हाथ पकड़ लिया और बलपूर्वक खींचती हुई द्वार की ओर चली, मानो कोई उसे उसके हाथों से छीने लिये जाता हो। रोगिणी ने केवल इतना कहा, 'माताजी, कभी-कभी भैया को मेरे पास आने दिया करना, नहीं तो मैं मर जाऊँगी।,'
पन्द्रह साल के बाद भूतपूर्व सेठ खूबचन्द अपने नगर के स्टेशन पर पहुँचे। हरा-भरा वृक्ष ठूँठ होकर रह गया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुईं, सिर के बाल सन, दाढ़ी जंगल की तरह बढ़ी हुई, दाँतों का कहीं नाम नहीं, कमर झुकी हुई। ठूँठ को देखकर कौन पहचान सकता है कि यह वही वृक्ष है, जो फल-फूल और पत्तियों से लदा रहता था, जिस पर पक्षी कलरव करते रहते थे। स्टेशन के बाहर निकलकर वह सोचने लगे क़हाँ जायँ? अपना नाम लेते लज्जा आती थी। किससे पूछें, प्रमीला जीती है या मर गयी? अगर है तो कहाँ है? उन्हें देख वह प्रसन्न होगी, या उनकी उपेक्षा करेगी? प्रमीला का पता लगाने में ज्यादा देर न लगी। खूबचन्द की कोठी अभी
तक खूबचन्द की कोठी कहलाती थी। दुनिया कानून के उलटफेर क्या जाने? अपनी कोठी के सामने पहुँचकर उन्होंने एक तम्बोली से पूछा, 'क्यों भैया, यही तो सेठ खूबचन्द की कोठी है।'
तम्बोली ने उनकी ओर कुतूहल से देखकर कहा, ख़ूबचन्द की जब थी तब थी, अब तो लाला देशराज की है।
'अच्छा ! मुझे यहाँ आये बहुत दिन हो गये। सेठजी के यहाँ नौकर था। सुना, सेठजी को कालापानी हो गया था।'
'हाँ, बेचारे भलमनसी में मारे गये। चाहते तो बेदाग बच जाते। सारा घर मिट्टी में मिल गया।'
'सेठानी तो होंगी?'
'हाँ, सेठानी क्यों नहीं हैं। उनका लड़का भी है।'
सेठजी के चेहरे पर जैसे जवानी की झलक आ गयी। जीवन का वह आनन्द और उत्साह, जो आज पन्द्रह साल से कुम्भकरण की भाँति पड़ा सो रहा था, मानो नयी स्फूर्ति पाकर उठ बैठा और अब उस दुर्बल काया में समा
नहीं रहा है। उन्होंने इस तरह तम्बोली का हाथ पकड़ लिया, जैसे घनिष्ठ परिचय हो और बोले, 'अच्छा, उनके लड़का भी है ! कहाँ रहती है भाई, बता दो, तो जाकर सलाम कर आऊँ। बहुत दिनों तक उनका नमक खाया ह
तम्बोली ने प्रमीला के घर का पता बता दिया। प्रमीला इसी मुहल्ले में रहती थी। सेठजी जैसे आकाश में उड़ते हुए यहाँ से आगे चले। वह थोड़ी दूर गये थे कि ठाकुरजी का एक मन्दिर दिखायी दिया। सेठजी ने मन्दिर में जाकर प्रतिमा के चरणों पर सिर झुका दिया। उनके रोम-रोम से आस्था का ऱेत-सा बह रहा था। इस पन्द्रह वर्ष के कठिन प्रायश्चित्त में उनकी सन्तप्त आत्मा को अगर कहीं आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान् के चरण थे। उन पावन चरणों के ध्यान में ही उन्हें शान्ति मिलती थी। दिन भर ऊख के कोल्हू में जुते रहने या फावड़े चलाने के बाद जब वह रात को पृथ्वी की गोद में लेटते, तो पूर्व स्मृतियाँ अपना अभिनय करने लगतीं। वह अपना विलासमय जीवन, जैसे रुदन करता हुआ उनकी आँखों के सामने आ जाता और उनके अन्त:करण से वेदना में डूबी हुई ध्वनि निकलती ईश्वर ! मुझ पर दया करो। इस दया-याचना में उन्हें एक ऐसी अलौकिक शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती थी, मानो बालक माता की गोद में लेटा हो। जब उनके पास सम्पत्ति थी, विलास के साधन थे, यौवन था, स्वास्थ्य था, अधिकार था, उन्हें आत्म-चिन्तन का अवकाश न मिलता था। मन प्रवृत्ति ही की ओर दौड़ता था, अब इन स्मृतियों को खोकर दीनावस्था में उनका मन ईश्वर की ओर झुका। पानी पर जब तक कोई आवरण है, उसमें सूर्य का प्रकाश कहाँ? वह मन्दिर से निकलते ही थे कि एक स्त्री ने उसमें प्रवेश किया। खूबचन्द का ह्रदय उछल पड़ा। वह कुछ कर्तव्य-भ्रम-से होकर एक स्तम्भ की आड़ में हो गये। यह प्रमीला थी।
इन पन्द्रह वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब उन्हें प्रमीला की याद न आयी हो। वह छाया उनकी आँखों में बसी हुई थी। आज उन्हें उस छाया और इस सत्य में कितना अन्तर दिखायी दिया। छाया पर समय का क्या असर हो सकता है। उस पर सुख-दु:ख का बस नहीं चलता। सत्य तो इतना अभेद्य नहीं। उस छाया में वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे आभूषण, म���स्कान और लज्जा से रंजित। इस सत्य में उन्होंने साधक का तेजस्��ी रूप देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर की भाँति उनका ह्रदय थरथरा उठा। मन में ऐसा उद्गार उठा कि इसके चरणों पर गिर पङूँ और कहूँ देवी ! इस पतित का उद्धार करो, किन्तु तुरन्त विचार आया क़हीं यह देवी मेरी उपेक्षा न करे। इस दशा में उसके सामने जाते उन्हें लज्जा आयी। कुछ दूर चलने के बाद प्रमीला एक गली में मुड़ी। सेठजी भी उसके पीछे-पीछे चले जाते थे। आगे एक कई मंजिल की हवेली थी। सेठजी ने प्रमीला को उस चाल में घुसते देखा; पर यह न देख सके कि वह किधर गयी। द्वार पर खड़े-खड़े सोचने लगे क़िससे पूछूँ?
सहसा एक किशोर को भीतर से निकलते देखकर उन्होंने उसे पुकारा। युवक ने उनकी ओर चुभती हुई आँखों से देखा और तुरन्त उनके चरणों पर गिर पड़ा। सेठजी का कलेजा धक्-से हो उठा। यह तो गोपी था, केवल उम्र में उससे कम। वही रूप था, वही डील था, मानो वह कोई नया जन्म लेकर आ गया हो। उनका सारा शरीर एक विचित्र भय से सिहर उठा। कृष्णचन्द्र ने एक क्षण में उठकर कहा, 'हम तो आज आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बन्दर पर जाने के लिए एक गाड़ी लेने जा रहा था। आपको तो यहाँ आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा। आइए अन्दर आइए। मैं आपको देखते ही पहचान गया। कहीं भी देखकर पहचान जाता।'
खूबचन्द उसके साथ भीतर चले तो, मगर उनका मन जैसे अतीत के काँटों में उलझ रहा था। गोपी की सूरत क्या वह कभी भूल सकते थे? इस चेहरे को उन्होंने कितनी ही बार स्वप्न में देखा था। वह कांड उनके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी और आज एक युग बीत जाने पर भी वह उनके पथ में उसी भाँति अटल खड़ा था। एकाएक कृष्णचन्द्र जीने के पास रुककर बोला, ज़ाकर अम्माँ से कह आऊँ, 'दादा आ गये ! आपके लिए नये-नये कपड़े बने रखे हैं।'
खूबचन्द ने पुत्र के मुख का इस तरह चुम्बन किया, जैसे वह शिशु हो और उसे गोद में उठा लिया। वह उसे लिये जीने पर चढ़े चले जाते थे। यह मनोल्लास की शक्ति थी। तीस साल से व्याकुल पुत्र-लालसा, यह पदार्थ पाकर, जैसे उस पर न्योछावर हो जाना चाहती है। जीवन नयी-नयी अभिलाषाओं को लेकर उन्हें सम्मोहित कर रहा है। इस रत्न के लिए वह ऐसी-ऐसी कितनी ही यातनाएँ सहर्ष झेल सकते थे। अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ अनुभव के रूप में कमाया था, उसका तत्त्व वह अब कृष्णचन्द्र के मस्तिष्क में भर देना चाहते हैं। उन्हें यह अरमान नहीं है कि कृष्णचन्द्र धन का स्वामी हो, चतुर हो, यशस्वी हो; बल्कि दयावान् हो, सेवाशील हो, नम्र हो, श्रद्धालु हो। ईश्वर की दया में अब उन्हें असीम विश्वास है, नहीं तो उन-जैसा अधम व्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्र बनता? और प्रमीला तो सा��्षात् लक्ष्मी है। कृष्णचन्द्र भी पिता को पाकर निहाल हो गया है। अपनी सेवाओं से मानो उनके अतीत को भुला देना चाहता है। मानो पिता की सेवा ही के लिए उसका जन्म हुआ। मानो वह पूर्वजन्म का कोई ऋण चुकाने के लिए ही संसार में आया है।
आज सेठजी को आये सातवाँ दिन है। सन्ध्या का समय है। सेठजी संध्या करने जा रहे हैं कि गोपीनाथ की लड़की बिन्नी ने आकर प्रमीला से कहा, "माताजी, अम्माँ का जी अच्छा नहीं है ! भैया को बुला रही हैं।
प्रमीला ने कहा, आज तो वह न जा सकेगा। उसके पिता आ गये हैं, उनसे बातें कर रहा है। "
कृष्णचन्द्र ने दूसरे कमरे में से उसकी बातें सुन लीं। तुरंत आकर बोला, 'नहीं अम्माँ, मैं दादा से पूछकर जरा देर के लिए चला जाऊँगा।'
प्रमीला ने बिगड़कर कहा, 'तू कहीं जाता है तो तुझे घर की सुधि ही नहीं रहती। न-जाने उन सभों ने तुझे क्या बूटी सुँघा दी है।
'मैं बहुत जल्दी चला आऊँगा अम्माँ, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ।'
'तू भी कैसा लड़का है ! वह बेचारे अकेले बैठे हुए हैं और तुझे वहाँ जाने की पड़ी हुई है।'
सेठजी ने भी ये बातें सुनीं। आकर बोले, 'क्या हरज है, जल्दी आने को कह रहे हैं तो जाने दो।'
कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त बिन्नी के साथ चला गया। एक क्षण के बाद प्रमीला ने कहा, 'ज़ब से मैंने गोपी की तस्वीर देखी है, मुझे नित्य शंका बनी रहती है, कि न-जाने भगवान् क्या करने वाले हैं। बस यही मालूम होता है।'
सेठजी ने गम्भीर स्वर में कहा, 'मैं भी तो पहली बार देखकर चकित रह गया था। जान पड़ा, गोपीनाथ ही खड़ा है।'
'गोपी की घरवाली कहती है कि इसका स्वभाव भी गोपी ही का-सा है।'
सेठजी गूढ़ मुस्कान के साथ बोले, 'भगवान् की लीला है कि जिसकी मैंने हत्या की, वह मेरा पुत्र हो। मुझे तो विश्वास है, गोपीनाथ ने ही इसमें अवतार लिया है।'
प्रमीला ने माथे पर हाथ रखकर कहा, 'यही सोचकर तो कभी-कभी मुझे न-जाने कैसी-कैसी शंका होने लगती है'
सेठजी ने श्रद्धा-भरी आँखों से देखकर कहा, भगवान् जो कुछ करते हैं, प्राणियों के कल्याण के लिए करते हैं। हम समझते हैं, हमारे साथ विधि ने अन्याय किया; पर यह हमारी मूर्खता है। विधि अबोध बालक नहीं है, जो अपने ही सिरजे हुए खिलौने को तोड़-फोड़कर आनन्दित होता है। न वह हमारा शत्रु है, जो हमारा अहित करने में सुख मानता है। वह परम दयालु है, मंगल-रूप है। यही अवलम्ब था, जिसने निर्वासन-काल में मुझे सर्वनाश से बचाया। इस आधार के बिना कह नहीं सकता, मेरी नौका कहाँ-कहाँ भटकती और उसका क्या अन्त होता।'
बिन्नी ने कई कदम चलने के बाद कहा, 'मैंने तुमसे झूठ-मूठ कहा, कि अम्माँ बीमार है। अम्माँ तो अब बिल्कुल अच्छी हैं। तुम कई दिन से गये नहीं, इसीलिए उन्होंने मुझसे कहा, इस बहाने से बुला लाना। तुमसे वह एक सलाह करेंगी।' कृष्णचन्द्र ��े कुतूहल-भरी आँखों से देखा।
'तुमसे सलाह करेंगी? मैं भला क्या सलाह दूंगा? मेरे दादा आ गये, इसीलिए नहीं आ सका।'
'तुम्हारे दादा आ गये ! उन्होंने पूछा होगा, यह कौन लड़की है?'
'नहीं, कुछ नहीं पूछा,।'
'दिल में तो कहते होंगे, कैसी बेशरम लड़की है।'
'दादा ऐसे आदमी नहीं हैं। मालूम हो जाता कि यह कौन है, तो बड़े प्रेम से बातें करते। मैं तो कभी-कभी डरा करता था कि न-जाने उनका मिजाज कैसा हो। सुनता था, कैदी बड़े कठोर-ह्रदय हुआ करते हैं, लेकिन दादा तो दया के देवता हैं।'
दोनों कुछ दूर फिर चुपचाप चले गये। तब कृष्णचन्द्र ने पूछा, 'तुम्हारी अम्माँ मुझसे कैसी सलाह करेंगी?'
बिन्नी का ध्यान जैसे टूट गया। 'मैं क्या जानूँ, कैसी सलाह करेंगी। मैं जानती कि तुम्हारे दादा आये हैं, तो न आती। मन में कहते होंगे, इतनी बड़ी लड़की अकेली मारी-मारी फिरती है।'
कृष्णचन्द्र कहकहा, मारकर बोला, 'हाँ, कहते तो होंगे। मैं जाकर और जड़ दूंगा।
बिन्नी बिगड़ गयी। 'तुम क्या जड़ दोगे? बताओ, मैं कहाँ घूमती हूँ? तुम्हारे घर के सिवा मैं और कहाँ जाती हूँ?'
'मेरे जी में जो आयेगा, सो कहूँगा; नहीं तो मुझे बता दो, कैसी सलाह है?'
'तो मैंने कब कहा, था कि नहीं बताऊँगी। कल हमारे मिल में फिर हड़ताल होने वाली है। हमारा मनीजर इतना निर्दयी है कि किसी को पाँच मिनिट की भी देर हो जाय, तो आधे दिन की तलब काट लेता है और दस
मिनिट देर हो जाय, तो दिन-भर की मजूरी गायब। कई बार सभों ने जाकर उससे कहा,-सुना; मगर मानता ही नहीं। तुम हो तो जरा-से; पर अम्माँ का न-जाने तुम्हारे ऊपर क्यों इतना विश्वास है और मजूर लोग भी तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा रखते हैं। सबकी सलाह है कि तुम एक बार मनीजर के पास जाकर दोटूक बातें कर लो। हाँ या नहीं; अगर वह अपनी बात पर अड़ा रहे, तो फिर हम भी हड़ताल करेंगे।'
कृष्णचन्द्र विचारों में मग्न था। कुछ न बोला। बिन्नी ने फिर उद्दण्ड-भाव से कहा, 'यह कड़ाई इसीलिए तो है कि मनीजर जानता है, हम बेबस हैं और हमारे लिए और कहीं ठिकाना नहीं है। तो हमें भी दिखा देना है कि हम चाहे भूखों मरेंगे, मगर अन्याय न सहेंगे।'
कृष्णचन्द्र ने कहा, 'उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेंगी।'
'तो चलने दो। हमारे दादा मर गये, तो क्या हम लोग जिये नहीं।'
दोनों घर पहुँचे, तो वहाँ द्वार पर बहुत-से मजूर जमा थे और इसी विषय पर बातें हो रही थीं।
कृष्णचन्द्र को देखते ही सभों ने चिल्लाकर कहा, 'लो भैया आ गये।'
वही मिल है, जहाँ सेठ खूबचन्द ने गोलियाँ चलायी थीं। आज उन्हीं का पुत्र मजदूरों का नेता बना हुआ गोलियों के सामने खड़ा है। कृष्णचन्द्र और मैनेजर में बातें हो चुकीं। मैनेजर ने नियमों को नर्म करना स्वीकार न किया। हड़ताल की घोषणा कर दी गयी। आज हड़ताल है। मजदूर मिल के हाते में जमा हैं और मैनेजर ने ��िल की रक्षा के लिए फौजी गारद बुला लिया है। मिल के मजदूर उपद्रव नहीं करना चाहते थे। हड़ताल केवल उनके असन्तोष का प्रदर्शन थी; लेकिन फौजी गारद देखकर मजदूरों को भी जोश आ गया। दोनों तरफ से तैयारी हो गयी है। एक ओर गोलियाँ हैं, दूसरी ओर ईंट-पत्थर के टुकड़े। युवक कृष्णचन्द्र ने कहा, आप लोग तैयार हैं? हमें मिल के अन्दर जाना है, चाहे सब मार डाले जायँ। बहुत-सी आवाजें आयीं सब तैयार हैं।
जिसके बाल-बच्चे हों, वह अपने घर चले जायँ। बिन्नी पीछे खड़ी-खड़ी बोली, 'बाल बच्चे, सबकी रक्षा भगवान् करता है।'
कई मजदूर घर लौटने का विचार कर रहे थे। इस वाक्य ने उन्हें स्थिर कर दिया। जय-जयकार हुई और एक हजार मजदूरों का दल मिल-द्वार की ओर चला। फौजी गारद ने गोलियाँ चलायीं। सबसे पहले कृष्णचन्द्र फिर और कई आदमी गिर पड़े। लोगों के पाँव उखड़ने लगे। उसी वक्त खूबचन्द नंगे सिर, नंगे पाँव हाते में पहुँचे और कृष्णचन्द्र को गिरते देखा। परिस्थिति उन्हें घर ही पर मालूम हो गयी थी। उन्होंने उन्मत्त होकर कहा, क़ृष्णचन्द्र की जय ! और दौड़कर आहत युवक को कंठ से लगा लिया। मजदूरों में एक अद्भुत साहस और धैर्य का संचार हुआ। 'खूबचन्द।' इस नाम ने जादू का काम किया।
इस 15 साल में खूबचन्द ने शहीद का ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। उन्हीं का पुत्र आज मजदूरों का नेता है। धन्य है भगवान् की लीला ! सेठजी ने पुत्र की लाश जमीन पर लिटा दी और अविचलित भाव से बोले भाइयो, यह लड़का मेरा पुत्र था।
मैं पन्द्रह साल डामुल काट कर लौटा, तो भगवान् की कृपा से मुझे इसके दर्शन हुए। आज आठवाँ दिन है। आज फिर भगवान् ने उसे अपनी शरण में ले लिया। वह भी उन्हीं की कृपा थी। यह भी उन्हीं कृपा है। मैं जो मूर्ख, अज्ञानी तब था, वही अब भी हूँ। हाँ, इस बात का मुझे गर्व है कि भगवान् ने मुझे ऐसा वीर बालक दिया। अब आप लोग मुझे बधाइयाँ दें। किसे ऐसी वीरगति मिलती है? अन्याय के सामने जो छाती खोलकर खड़ा हो जाय, वही तो सच्चा वीर है, इसलिए बोलिए कृष्णचन्द्र की जय ! एक हजार गलों से जय-ध्वनि निकली और उसी के साथ सब-के-सब हल्ला मारकर दफ्तर के अन्दर घुस गये। गारद के जवानों ने एक बन्दूक भी न चलाई, इस विलक्षण कांड ने इन्हें स्तम्भित कर दिया था।
मैनेजर ने पिस्तौल उठा लिया और खड़ा हो गया। देखा, तो सामने सेठ खूबचन्द !
लज्जित होकर बोला, 'मुझे बड़ा दु:ख है कि आज दैवगति से ऐसी दुर्घटना हो गयी, पर आप खुद समझ सकते हैं, क्या कर सकता था।'
सेठजी ने शान्त स्वर में कहा, 'ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए करता है। अगर इस बलिदान से मजदूरों का कुछ हित हो, तो मुझे जरा भी खेद न होगा।'
मैनेजर सम्मान-भरे स्वर में बोला, लेकिन इस धारणा से तो आदमी को सन्तोष नहीं होता। ज्ञानियों का भी मन चंचल हो ही जाता है।
सेठजी ने इस प्रसंग का अन्त कर देने के इरादे से कहा, 'तो अब आपक्या निश्चय कर रहे हैं?'
मैनेजर सकुचाता हुआ बोला, 'मैं इस विषय में स्वतन्त्र नहीं हूँ। स्वामियों की जो आज्ञा थी, उसका मैं पालन कर रहा था।'
सेठजी कठोर स्वर में बोले, 'अगर आप समझते हैं कि मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा है, तो आपका धर्म है कि उनका पक्ष लीजिए। अन्याय में सहयोग करना अन्याय करने के ही समान है।'
एक तरफ तो मजदूर लोग कृष्णचन्द्र के दाह-संस्कार का आयोजन कर रहे थे, दूसरी तरफ दफ्तर में मिल के डाइरेक्टर और मैनेजर सेठ खूबचन्द के साथ बैठे कोई ऐसी व्यवस्था सोच रहे थे कि मजदूरों के प्रति इस अन्याय का अन्त हो जाय।
दस बजे सेठजी ने बाहर निकलकर मजदूरों को सूचना दी मित्रो, ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी विनय स्वीकार कर ली। तुम्हारी हाजिरी के लिए अब नये नियम बनाये जायँगे और जुरमाने की वर्तमान प्रथा उठा दी जायगी। मजदूरों ने सुना; पर उन्हें वह आनन्द न हुआ, जो एक घंटा पहले होता।कृष्णचन्द्र की बलि देकर बड़ी-से-बड़ी रियासत भी उनके निगाहों में हेय थी। अभी अर्थी न उठने पायी थी कि प्रमीला लाल आँखें किये उन्मत्त-सी दौड़ी आयी और उस देह से चिमट गयी, जिसे उसने अपने उदर से जन्म दिया और अपने रक्त से पाला था। चारों तरफ हाहाकार मच गया। मजदूर और मालिक ऐसा कोई नहीं था, जिसकी आँखों से आँसुओं की धारा न निकल रही हो।
सेठजी ने समीप जाकर प्रमीला के कन्धो पर हाथ रखा और बोले, 'क्या करती हो प्रमीला, जिसकी मृत्यु पर हँसना और ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, उसकी मृत्यु पर रोती हो।'
प्रमीला उसी तरह शव को ह्रदय से लगाये पड़ी रही। जिस निधि को पाकर उसने विपत्ति को सम्पत्ति समझा था, पति-वियोग से अन्धकारमय जीवन में जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलम्ब पा रही थी, वह दीपक बुझ गया था। जिस विभूति को पाकर ईश्वर की निष्ठा और भक्ति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गयी थी, वह विभूति उससे छीन ली गयी थी। सहसा उसने पति को अस्थिर नेत्रों से देखकर कहा, 'तुम समझते होगे, ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए ही करता है। मैं ऐसा नहीं समझती। समझ ही नहीं सकती। कैसे समझूँ? हाय मेरे लाल ! मेरे लाड़ले ! मेरे राजा, मेरे सूर्य, मेरे चन्द्र, मेरे जीवन के आधार ! मेरे सर्वस्व ! तुझे खोकर कैसे चित्त को शान्त रखूँ? जिसे गोद में देखकर मैंने अपने भाग्य को धन्य माना था, उसे आज धरती पर पड़ा देखकर ह्रदय को कैसे सँभालूँ। नहीं मानता ! हाय नहीं मानता !!'
यह कहते हुए उसने जोर से छाती पीट ली।
उसी रात को शोकातुर माता संसार से प्रस्थान कर गयी। पक्षी अपने बच्चे की खोज में पिंजरे से निकल गया।
तीन साल बीत गये। श्रमजीवियों क�� मुहल्ले में आज कृष्णाष्टमी का उत्सव है। उन्होंने आपस में चन्दा करके एक मन्दिर बनवाया है। मन्दिर आकार में तो बहुत सुन्दर और विशाल नहीं; पर जितनी भक्ति से यहाँ सिर झुकते हैं, वह बात इससे कहीं विशाल मन्दिरों को प्राप्त नहीं। यहाँ लोग अपनी सम्पत्ति का प्रदर्शनकरने नहीं, बल्कि अपनी श्रद्धा की भेंट देने आते हैं। मजबूर स्त्रियाँ गा रही हैं, बालक दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम कर रहे हैं। और पुरुष झाँकी के बनाव-श्रृंगार में लगे हुए हैं। उसी वक्त सेठ खूबचन्द आये। स्त्रियाँ और बालक उन्हें देखते ही चारों ओर से दौड़कर जमा हो गये। यह मन्दिर उन्हीं के सतत् उद्योग का फल है। मजदूर परिवारों की सेवा ही अब उनके जीवन का उद्देश्य है। उनका छोटा-सा परिवार अब विराट रूप हो गया है। उनके सुख को वह अपना सुख और उनके दु:ख को अपना दु:ख मानते हैं। मजदूरों में शराब, जुए और दुराचरण की वह कसरत नहीं रही। सेठजी की सहायता, सत्संग और सद्व्यवहार पशुओं को मनुष्य बना रहा है।
सेठजी ने बाल-रूप भगवान् के सामने जाकर सिर झुकाया और उनका मन अलौकिक आनन्द से खिल उठा। उस झाँकी में उन्हें कृष्णचन्द्र की झलक दिखायी दी। एक ही क्षण में उसने जैसे गोपीनाथ का रूप धारण किया। सेठजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान् की व्यापकता का, दया का रूप आज जीवन में पहली बार उन्हें दिखायी दिया। अब तक, भगवान् की दया को वह सिद्धान्त-रूप से मानते थे। आज उन्होंने उसका प्रत्यक्ष रूप देखा। एक पथ-भ्रष्ट पतनोन्मुखी आत्मा के उद्धार के लिए इतना दैवी विधन ! इतनी अनवरत ईश्वरीय प्रेरणा ! सेठजी के मानस-पट पर अपना सम्पूर्ण जीवन सिनेमा-चित्रों की भाँति दौड़ गया। उन्हें जान पड़ा, जैसे आज बीस वर्ष से ईश्वर की कृपा उन पर छाया किये हुए है। गोपीनाथ का बलिदान क्या था?
विद्रोही मजदूरों ने जिस समय उनका मकान घेर लिया था, उस समय उनका आत्म-समर्पण ईश्वर की दया के सिवा और क्या था, पन्द्रह साल के निर्वासित जीवन में, फिर कृष्णचन्द्र के रूप में, कौन उनकी आत्मा की रक्षा कर रहा था? सेठजी के अन्त:करण से भक्ति की विह्वलता में डूबी हुई जय-ध्वनि निकली क़ृष्ण भगवान् की जय ! और जैसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड दया के प्रकाश से जगमगा उठा।
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जुरमाना : प्रेमचंद (hindi story )
ऐसा शायद ही कोई महीना जाता कि अलारक्खी के वेतन से कुछ जुरमाना न कट जाता। कभी-कभी तो उसे ६) के ५) ही मिलते, लेकिन ��ह सब कुछ सहकर भी सफाई के दारोग़ा मु० खैरात अली खाँ के चंगुल में कभी न आती। खाँ साहब की मातहती में सैकड़ों मेहतरानियाँ थीं। किसी की भी तलब न कटती, किसी पर जुर्माना न होता, न डाँट ही पड़ती। खाँ साहब नेकनाम थे, दयालु थे। मगर अलारक्खी उनके हाथों बराबर ताडऩा पाती रहती थी। वह कामचोर नहीं थी, बेअदब नहीं थी, फूहड़ नहीं थी, बदसूरत भी नहीं थी; पहर रात को इस ठण्ड के दिनों में वह झाड़ू लेकर निकल जाती और नौ बजे तक एक-चित्त होकर सडक़ पर झाड़ू लगाती रहती। फिर भी उस पर जुर्माना हो जाता। उसका पति हुसेनी भी अवसर पाकर उसका काम कर देता, लेकिन अलारक्खी की क़िस्मत में जुर्माना देना था। तलब का दिन औरों के लिए हँसने का दिन था अलारक्खी के लिए रोने का। उस दिन उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहता। न जाने कितने पैसे कट जाएँगे? वह परीक्षा वाले छात्रों की तरह बार-बार जुर्माना की रकम का तखमीना करती।
उस दिन वह थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गयी थी। उसी वक्त दारोगाजी अपने इक्के पर आ रहे थे। वह कितना कहती रही हजूरअली, मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के सेवड़े लेकर खा रही थी। उसी वक्त दारोग़ा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहाँ छिपा रहता है? जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है-अल्ला जाने! आठ आने से बढक़र एक रुपया न हो जाए। वह सिर झुकाये वेतन लेने जाती और तखमीने से कुछ ज्यादा ही कटा हुआ पाती। काँपते हुए हाथों से रुपये लेकर आँखों में आँसू भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दारोग़ा के सामने उसकी सुनेगा कौन?
आज फिर वही तलब का दिन था। इस महीने में उसकी दूध पीती बच्ची को खाँसी और ज्वर आने लगा था। ठण्ड भी खूब पड़ी थी। कुछ तो ठण्ड के मारे और कुछ लडक़ी के रोने-चिल्लाने के कारण उसे रात-रात-भर जागना पड़ता था। कई दिन काम पर जाने में देर हो गयी। दारोग़ा ने उसका नाम लिख लिया था। अबकी आधे रुपये कट जाएँगे। आधे भी मिल जाएँ तो गनीमत है। कौन जाने कितना कटा है? उसने तडक़े बच्ची को गोद में उठाया और झाड़ू लेकर सडक़ पर जा पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही न थी। उसने बार-बार दारोग़ा के आने की धमकी दी-अभी आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लडक़ी को अपने नाक-कान कटवाना मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर न था; आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, ��िसी उपाय से न उतरी तो अलारक्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती छोडक़र झाड़ू लगाने लगी। मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर रोती भी न थी। अलारक्खी के पीछे लगी हुई बार-बार उसकी साड़ी पकडक़र खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर जमीन पर लोट जाती और एक क्षण में उठकर फिर रोने लगती।
उसने झाड़ू तानकर कहा-चुप हो जा, नहीं तो झाड़ू से मारूँगी, जान निकल जाएगी; अभी दारोग़ा दाढ़ीजार आता होगा...
पूरी धमकी मुँह से निकल भी न पाई थी कि दारोग़ा खैरातअली खाँ सामने आकर साइकिल से उतर पड़ा। अलारक्खी का रंग उड़ गया, कलेजा धक्-धक् करने लगा! या मेरे अल्लाह, कहीं इसने सुन न लिया हो! मेरी आँखें फूट जाएँ। सामने से आया और मैंने देखा नहीं। कौन जानता था, आज पैरगाड़ी पर आ रहा है? रोज तो इक्के पर आता था। नाडिय़ों में रक्त का दौडऩा बन्द हो गया। झाड़ू हाथ में लिए नि:स्तब्ध खड़ी रह गयी।
दारोग़ा ने डाँटकर कहा-काम करने चलती है तो एक पुच्छिल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं छोड़ आयी?
अलारक्खी ने कातर स्वर में कहा-इसका जी अच्छा नहीं है हुजूर, घर पर किसके पास छोड़ आती।
‘क्या हुआ है इसको!’
‘बुखार आता है हुजूर!’
‘और तू इसे यों छोडक़र रुला रही है। मरेगी कि जियेगी?’
‘गोद में लिये-लिये काम कैसे करूँ हुजूर!
‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेती!’
‘तलब कट जाती हुजूर, गुजारा कैसे होता?’
‘इसे उठा ले और घर जा। हुसेनी लौटकर आये तो इधर झाड़ू लगाने के लिए भेज देना।’
अलारक्खी ने लडक़ी को उठा लिया और चलने को हुई, तब दारोग़ाजी ने पूछा-मुझे गाली क्यों दे रही थी?
अलारक्खी की रही-सही जान भी निकल गयी। काटो तो लहू नहीं। थर-थर काँपती बोली-नहीं हुजूर, मेरी आँखें फूट जाएँ जो तुमको गाली दी हो।
और वह फूट-फूटकर रोने लगी।
२
सन्ध्या समय हुसेनी और अलारक्खी दोनों तलब लेने चले। अलारक्खी बहुत उदास थी।
हुसेनी ने सान्त्वना दी-तू इतनी उदास क्यों है? तलब ही न कटेगी-काटने दे अबकी से तेरी जान की कसम खाता हूँ, एक घूँट दारू या ताड़ी नहीं पिऊँगा।
‘मैं डरती हूँ, बरखास्त न कर दे मेरी जीभ जल जाय! कहाँ से कहाँ ...
‘बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्ला भला करे! कहाँ तक रोयें!’
‘तुम मुझे नाहक लिये चलते हो। सब-की-सब हँसेंगी।’
‘बरखास्त करेगा तो पू��ूँगा नहीं किस इलजाम पर बरखास्त करते हो, गाली देते किसने सुना? कोई अन्धेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे और कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी के दरवाजे पर सर पटक दूँगा।’
‘ऐसी ही एकता होती तो दारोग़ा इतना जरीमाना करने पाता?’
‘जितना बड़ा रोग होता ह��, उतनी दवा होती है, पगली!’
फिर भी अलारक्खी का मन शान्त न हुआ। मुख पर विषाद का धुआँ-सा छाया हुआ था। दारोग़ा क्यों गाली सुनकर भी बिगड़ा नहीं, उसी वक्त उसे क्यों नहीं बरखास्त कर दिया, यह उसकी समझ में न आता था। वह कुछ दयालु भी मालूम होता था। उसका रहस्य वह न समझ पाती थी, और जो चीज हमारी समझ में नहीं आती उसी से हम डरते हैं। केवल जुरमाना करना होता तो उसने किताब पर उसका नाम लिखा होता। उसको निकाल बाहर करने का निश्चय कर चुका है, तभी दयालु हो गया था। उसने सुना था कि जिन्हें फाँसी दी जाती है, उन्हें अन्त समय खूब पूरी मिठाई खिलायी जाती है, जिससे मिलना चाहें उससे मिलने दिया जाता है। निश्चय बरखास्त करेगा।
म्युनिसिपैलिटी का दफ्तर आ गया। हजारों मेहतरानियाँ जमा थीं, रंग-बिरंग के कपड़े पहने, बनाव-सिंगार किये। पान-सिगरेट वाले भी आ गये थे, खोंचे वाले भी। पठानों का एक दल भी अपने असामियों से रुपये वसूली करने आ पहुँचा था। वह दोनों भी जाकर खड़े हो गये।
वेतन बँटने लगा। पहले मेहतरानियों का नम्बर था। जिसका नाम पुकारा जाता वह लपककर जाती और अपने रुपये लेकर दारोग़ाजी को मुफ्त की दुआएँ देती हुई चली जाती। चम्पा के बाद अलारक्खी का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज अलारक्खी का नाम उड़ गया था। चम्पा के बाद जहूरन का नाम पुकारा गया जो अलारक्खी के नीचे था।
अलारक्खी ने हताश आँखों से हुसेनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगीं। उसके जी में आया, घर चली जाए। यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट जाती कि उसमें समा जाती।
एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अलारक्खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब इसकी परवा न थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।
सहसा अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ी! धीरे से उठी और नवेली बहू की भाँति पग उठाती हुई चली। खजांची ने पूरे ६) उसके हाथ पर रख दिये।
उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीन बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और अबकी तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकण्ड वहाँ खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रुपया वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा, अब क्यों खड़ी है। जाती क्यों नहीं? तब वह धीरे से बोली-यह तो पूरे रुपये हैं।
खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा!
‘तो और क्या चाहती है, कम मिलें?’
‘कुछ जरीमाना नहीं है?’
‘नहीं, अबकी कुछ जरीमाना नहीं है।’
अलारक्खी चली, पर उसका मन प्रसन्न न था। वह पछता रही थी कि दारोग़ाजी को गाली क्यों दी।
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एक पाँव का जूता : भैरव प्रसाद गुप्त ( hindi story)
जाने कैसी आवाज़ उनके कानों में पड़ी कि वह चिहुक उठीं। तीन दिन से रात में कई-कई बार ऐसा हो रहा था। जीवन में पहले ऐसा कभी हुआ हो, उन्हें याद नहीं। इसी कारण दो रातों वह अपने कानों पर विश्वास न कर सकीं, यों ही, कुछ नहीं कहकर उन्होंने अपने को बहला लिया और करवट बदलकर सो गयीं। किन्तु आज वह कुछ सावधान थीं, दो रातों के लगातार अनुभव ने उनके मन में अनजाने की एक सन्देह पैदा कर दिया था। दिन में कई-कई बार उन्होंने बाबूजी को घूर-घूर कर देखा था। बाबूजी उन्हें बेहद उदास दिखाई पड़ते थे। उन्हें ऐसा लगा था कि अबकी लखनऊ से वापस आने के बाद बाबूजी की बोली बहुत कम सुनने को मिली थी। लेकिन ऐसा तो जीवन में अनेक बार हो चुका था। उनके मौन-व्रत से कौन परिचित नहीं? फिर भी आज उन्हें लगा कि ज़रूर कोई बात है! बाबूजी उदास यों ही नहीं होते, मौन-व्रत भी वह सब से कहकर ही धारण करते। लेकिन इधर तो बाबूजी ने उनसे भी कोई बात नहीं की थी।
उन्होंने पूछा था-क्या बात है? ऐसे खोये-खोये क्यों दिखाई देते हैं? तबीयत तो ठीक है?
बाबूजी ने जाने कैसी नज़रों से उन्हें एक पल को देखा था और फिर आँखें झुकाकर घर से बाहर चले गये थे। उन्हें उस तरह जाते हुए देखकर मन में खटका होना स्वाभाविक ही था। उन्होंने सोचा, शायद वह बाहर बैठक में जाएँगे। वह दरवाजे तक आयी थीं। लेकिन बाबूजी तो दूसरी दिशा में उसी तरह सिर झुकाये जाने कहाँ चले जा रहे थे। बिना कोई ख़ बर दिये तो वह कभी कहीं नहीं जाते। वह वहीं फ़र्श पर बैठ गयी थीं।
ज़रा दूर जाकर ही बाबूजी लौट आये थे। द्वार पर ठिठककर वह बोले थे-मन व्यग्र है। लेकिन तुम कोई चिन्ता न करो। जाकर भोजन करो। मैं थोड़ा आराम करूँगा।-और वह बैठक की ओर बढ़ गये थे।
बाबूजी के इस तरह के व्यवहार की वह अभ्यस्त थीं। बाबूजी ने उन्हें शुरू से ही सिखाया था कि उनकी व्यग्रता की स्थिति में उन्हें अकेले छोड़ देना चाहिए, उनके पीछे नहीं पडऩा चाहिए और उनके आदेश का, बिना किसी हील-हुज्जत के, पालन करना चाहिए। उन्हें इसी से शान्ति मिलती है।
वह अन्दर जाकर बाबूजी के आदेश का पालन करने लगीं। बाबूजी की तरह इनका भी जीवन यान्त्रिक होकर रह गया था। सन् ३१ में जो बाबूजी ने एक व्रत लिया था, जीवन-भर के लिए उसी के व्रती होकर रह गये। कभी किसी ने कोई अन्��र नहीं देखा ... वही एक जोड़ा अपने काते सूत के खद्दर का कुर्ता, धोती, गंजी, गाँधी टोपी और झोला ... वही चप्पल, वही अपने हाथ से कपड़े साफ करना, दिन-रात में एक बार भोजन करना, चौकी पर चटाई बिछाकर सोना, सदा तीसरे दर्जे में सफ़र करना, सच बोलना और जनता की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना। पहले तो बाबूजी का यह सुराजी बाना जाने कैसा-कैसा उन्हें लगा था। यह किसी ऋषि की तपस्या से किसी भी माने में कम नहीं था। लेकिन बाबूजी की दृढ़ता भी कोई साधारण नहीं थी। कभी वह अपने पन से डिगे हों, ऐसा किसी ने नहीं देखा। वह बेचारी क्या करतीं? बब्बू को गोद में लिये वह मन-ही-मन रोतीं, लेकिन ऊपर से बाबूजी के आदेशों के पालन में कोई कमी दिखाई न दे, इसके प्रयत्न में लगी रहतीं। बब्बू के होने के बाद बाबूजी ने यह व्रत लिया, इसे वह अपना सौभाग्य समझतीं, वर्ना ... और इसके आगे सोचकर वह काँप-काँप उठतीं। बाबूजी कभी ऐसे हठी हो जाएँगे, कौन सोचता था।
बाबूजी की तपस्या सफल होते बहुत देर न लगी। जनता के वह प्रिय हो गये। कस्बे से जि़ले के और फिर प्रान्त के नेता हो गये। चारों ओर बाबूजी की धूम, सब के मुँह पर बाबूजी-बाबूजी! लेकिन बाबूजी का जीवन वहीं-का-वहीं। रंचमात्र का भी परिवर्तन नहीं, जैसे जो बाबूजी पहले थे, वही अब भी, कहीं कोई अन्तर आया ही नहीं। फि र जेल ... पुलिस की लाठियाँ ... और सन् बयालीस ... भगवान की कृपा से उन्हें सिर्फ़ दस साल की सज़ा हुई, वर्ना लोग तो कहते थे, फाँसी पर लटका दिये जाएँगे। ... प्यूनिटिव टैक्स ... खेती-बारी ज़ब्त। ... कैसे कटे थे बब्बू की माँ के दिन! भगवान दुश्मन को भी न दिखाये वैसे दिन! लोग उनके पास भी आते सहमते। घर में एक दाना नहीं। रात को पड़ोसी सोता पडऩे पर छुपकर कुछ खाने को दे जाता, तो अधम काया की भूख मिटती वर्ना फ़ाका ...
आखिर वे यातना और आतंक के दिन भी कट ही गये। स्थिति सुधरी तो खोज-खबर लेनेवाले भी आये। ... फिर तीन बरस बीतते-न-बीतते बाबूजी छूटकर आ गये। उनका स्वागत देखकर जैसे सारा कष्ट भूल गया। वह एक दिन और यह एक दिन! बाबूजी घर में आये तो बब्बू को गोद में उठाकर चूमा और उसकी माँ के सिर पर हाथ रखकर पूछा-तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा न!
तीन वर्ष तक रोते-रोते बब्बू की माँ के आँसू जैसे सूख गये थे। इस क्षण अचानक जाने कहाँ से फिर उबल पड़े।
बाबूजी जाने कैसे कण्ठ से बोले -रोती हो? मैं तो नहीं रोया।
बब्बू की माँ आँचल से आँसू पोंछती हुई बोलीं-आप आ गये, ये तो ख़ुशी के आँसू थे।
बाहर भीड़ 'बाबूजी जि़न्दाब���द' के नारे लगा रही थी।
बाबूजी अचानक गम्भीर होकर बोले-मैं आ गया, तुम ख़ुश हो। लेकिन मेरी ख़ुशी तो ग़ुलामी ने लूट ली है। जब तक हमारा देश आज़ाद नहीं हो जाता, हमारी ख़ुशी वापस नहीं आने की। आज़ादी बहुत मुश्किल चीज़ है, इसके लिए ... और वह बब्बू को गोद से उतारकर बाहर चले गये।
बब्बू की माँ की समझ में कुछ न आया था। उनकी ख़ुशी बहुत ही छोटी थी, वही उनका जीवन था। उन्होंने बाबूजी को कभी किसी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। ... लेकिन जब बाबूजी की ख़ुशी के दिन आये तो अचानक ही बब्बू की माँ को लगा कि अब उनकी ख़ुशी बहुत बड़ी हो गयी है। कई बार उनका मुँह खुला कि बाबूजी से कुछ कहें। लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। जाने वह ख़ुशी बाबूजी के चेहरे पर कब आयी और कब चली गयी, जैसे एक फुलझड़ी जली हो, और बुझ गयी हो। और बब्बू की माँ मुँह ताकती रह गयी हों।
बब्बू ने किसी तरह हाईस्कूल पास किया और अपनी योग्यता से या भाग्य से रेलवे में क्लर्क हो गया। लोगों ने बब्बू की माँ से कहा-बाबूजी का इकलौता लडक़ा और ...
लेकिन बब्बू की माँ ने बाबूजी से फिर भी कोई शिकायत न की।
लोगों ने कहा-बाबूजी के सभी-के-सभी साथी जाने क्या-से-क्या हो गये। लेकिन बाबूजी एम.एल.ए. होकर भी ...
लेकिन बब्बू की माँ ने बाबूजी से फिर भी कोई शिकायत न की।
और बाबू जी के जीवन में जैसे कोई परिवर्तन आने ही वाला न हो। वही सब-कुछ, बल्कि और भी सख्ती के साथ। कभी-कभी वह आप ही बब्बू की माँ के पास आ बैठते और जैसे आत्म-स्वीकृति कर रहे हो, बोल उठते-बब्बू की माँ! मैं कितना ग़लत सोचता था! आज़ादी अपने में कोई ख़ुशी की चीज़ नहीं। ख़ुशी तो देश की ख़ुशहाली में है। हाय, हम कितने ग़रीब हैं, कितने दुखी हैं! जिस दिन यह ग़रीबी दूर होगी, दरअसल वही ख़ुशी का दिन होगा! ...
और बब्बू की माँ जैसे उनकी यह बात भी नहीं समझती और उनका मुँह ताकती रहतीं। उनकी ख़ुशहाली बहुत छोटी थी और वह सोचती थीं कि बाबूजी उसे बड़ी आसानी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन वह कुछ भी न कहतीं।
लोग कहते-बाबूजी सचमुच महात्मा हैं!
बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि महात्मा का अर्थ क्या होता है, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।
लोग कहते-न रहने पर तो सभी फ़क़ीर बनते हैं, रहने पर जो फ़क़ीर बने वही सच्चा फ़क़ीर!
बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि फ़क़ीर किसे कहते हैं, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।
उनकी बानी तो बाबूजी थे, उन्हें ख़ुद कहने की क्या ज़रूरत?
एक बार पहले भी इसी तरह लखनऊ से लौटकर उन्होंने अपनी व्यग्रता प्रकट की थी। लेकिन उस बार तो ज़रा ही देर बाद बब्बू की माँ के पास आकर हँसते हुए कह गये थे-वे सब मुझे पाखण्डी कहते हैं, बब्बू की माँ। कहते हैं, जब फ़स्र्ट क्लास का टिकट मिलता है तो थर्ड क्लास में सफ़र करने का क्या मतलब? कुछ समझती हो?
बब्बू की माँ क्या समझें? जीवन में उन्होंने सफ़र कब किया कि उन्हें फ़स्र्ट और थर्ड की तमीज़ हो?
��ेकिन उस बार रात में कभी कोई ऐसी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी। अबकी तो तीन-तीन दिन बीत गये। दिन-भर बाबूजी मौन व्यग्रता में पड़े रहते हैं। और रात में कई-कई बार जाने कैसी आवाज़ बब्बू की माँ के कानों में पड़ती है कि वह चिहुक-चिहुककर उठ बैठती हैं। लगता है, जैसे कोई बालक रोता हो, बापू-बापू की रट लगाता हो।
बब्बू की माँ आज रात अपने को बहला न सकीं। वह उठ बैठीं। आवाज़ वैसी ही आ रही है। उन्होंने ज़रा ध्यान से आहट ली, तो लगा, आवाज बाहर से आ रही है। बाहर सहन में बाबूजी सो रहे थे। अन्दर आँगन की अपनी चारपाई से बब्बू की माँ उठ खड़ी हुई। आँगन में मैली चाँदनी फैली हुई थी। दिन-भर की लू की मारी हवा इस वक़्त कुछ ठण्डी-ठण्डी सी लग रही थी। रात के सन्नाटे में वह किसी बालक के रुदन-सी आवाज़ कितनी भयानक लग रही थी! बब्बू की माँ को ध्यान आया कि पहले तो यह आवाज़ ज़रा-ज़रा देर में चुप हो जाती थी, लेकिन आज तो यह जाने कब से आ रही है। ... दूर के अपने स्टेशन पर जाने बब्बू कैसे है? क्यों ऐसा लगता है कि जैसे बब्बू ही रो रहा हो? जैसे शिकायत कर रहा हो कि बाबूजी ने उसकी पढ़ाई भी पूरी नहीं करायी ... यह उम्र हो गयी, अभी शादी नहीं करायी ... लेकिन नहीं, नहीं, वह शिकायत करने वाला, मुँह लेकर कुछ कहने वाला बेटा नहीं है! जैसी माँ वैसा ही बेटा। ...
वह आवाज़ जैसे और भी करुण, और भी भयानक हो उठी। अकेले घर में बब्बू की माँ को डर लगने लगा। वह चारपाई से उठ खड़ी हुई। बाहर के दरवाज़े के पास की खिडक़ी से उन्होंने बाहर झाँका। आवाज़ बाहर से आ रही थी। बाबूजी चौकी पर दायीं करवट पड़े थे। कुहनी में उनका मुँह छुपा हुआ था, साफ़ दिखाई न दे रहा था। वह आवाज़ उसी तरह बही आ रही थी। फिर बाबूजी को देखते हुए बब्बू की माँ को सहसा ही ऐसा लगा कि जैसे अब वह आवाज़ उनके कानों से टकराकर दूर चली गयी है और उनको एक बहुत पुरानी बात याद आ गयी। ... जब वह इस घर में आयी थीं तो बाबूजी अकेले ही थे। उनके माँ-बाप जाने कब के गुज़र चुके थे। रात में चारों ओर जब सोता पड़ जाता तो वह इसी खिडक़ी पर आकर उन्हें धीरे-धीरे पुकारते, दरवाज़ा खोलो ... और एक बार वह भी इस खिडक़ी पर आयी थीं। यही जेठ के दिन थे। आँगन में सोयी थीं कि अचानक उनकी नींद उचट गयी। जाने मन में क्या उठा कि वह इस खिडक़ी पर आ गयीं। लेकिन उन्हें पुकारें कैसे? फिर आँगन में से कुछ कंकड़ियाँ चुन लायीं और एक-एक कर खिडक़ी से उनकी चारपाई पर फेंकने लगीं। वह उठे तो दरवाज़ा ज़ोर से खोलकर आँगन में चली गयी थीं। उन्होंने अन्दर आकर कहा-एक कंकड़ी मेरी भौंह पर लगी है!
-अरे, उन्होंने व्यस्त होकर कहा था-कहाँ? चोट तो नहीं लगी?
-नहीं, नहीं, वह कंकड़ी थी कि पंखुड़ी? ...
और वह बब्बू! हे भगवान, उस रात कहीं वह चुक गयी होतीं तो उन्हें बब्बू की माँ कौन कहता? और फिर उसके बाद तो ...
उनके मन में आया, एक कंकड़ी फेकूँ क्या? ... कि अचानक बाबूजी चौकी पर ��ठ बैठे।
और बब्बू की माँ के मन में आया, दरवाज़ा खोल दूँ क्या? और सच ही बढक़र उन्होंने दरवा��़ा खोला ही था कि उनकी आवाज़ आयी-बब्बू की माँ!-उस आवाज़ में कैसी तो एक तड़प थी कि बब्बू की माँ का सपना टूट गया। सिर का आँचल ठीक करती हुई जैसे एक अपराधी की तरफ वह बोलीं-कहिए!
-इस बेला तुमने दरवाज़ा क्यों खोला?
-मुझे ऐसा लगा कि बाहर कोई बालक रो रहा है।
-तुमने सुना था?
-तीन रातों से सुन रहीं हूँ।
-ओह! तनिक रुककर बाबूजी ने कहा-यहाँ आओ।
वह सहमी-सहमी-सी उनके पास आ गयीं।
वह बोले-बैठो!
आपकी चौकी पर?
-हाँ, तुमसे एक बात कहनी है।
-मुझसे?
-हाँ, बाबूजी खड़े-खड़े ही बोले-अपनी यह बात मैं और किसी से कह नहीं सकता। ... जानती हो तीन रातों से मैं ही रो रहा हूँ ...
-आप?
-हाँ, मैं। तुम ने ठीक ही किसी बालक का रुदन सुना। इन्सान जब रोता है तो बालक ही बन जाता है।
-लेकिन क्यों? आप तो मोह-माया ...
-कितने दिनों बाद आज तुमने मुझसे एक सवाल पूछा है ...
-ओह, क्षमा कीजिए!
-नहीं-नहीं, बब्बू की माँ! एक नहीं तुम हज़ार सवाल पूछो!
मेरा पतन हो गया है। जिस सिंहासन पर तुम लोगों ने मुझे बैठा रखा था, उससे मैं च्युत हो गया हूँ। मैं ...
-यह-सब आप क्या कहते हैं? मेरी समझ ...
-आज तक तुम ने समझकर मेरी कोई बात नहीं मानी। मेरी बात ही तुम लोगों के लिए वेद-वाक्य रही। लेकिन आज मैं चाहता हूँ कि पहले तुम मेरी बात समझो। तुम्हें मैं वह पूरी घटना ही सुनाता हूँ, जिसने मेरे जीवन के सभी आदर्शों, सिद्धान्तों और बड़ी-बड़ी त्याग-तपस्या की बातों को एक मामूली-सी स्थिति की चट्टान पर पटककर चूर-चूर कर दिया है। मैं तीन दिनों से रो रहा हूँ, लेकिन ऐसा लगता है कि सारी जि़न्दगी जिस राह मैं चला हूँ, उसी पर मैं भटक गया हूँ। सुनो! उस दिन गाड़ी में बेहद भीड़ थी। दोपहर को गाड़ी पहुँची, तो ऐसी भीड़ डब्बे में घुसी कि मेरा दम फूलने लगा। ऐसा लग रहा था। कि मैं बेहोश हो जाऊँगा। लोगों की साँसों से जैसे लपटें छूट रही थीं सोचा, उतरकर जान बचाऊँ, लेकिन उस भीड़ में से उतरना कोई मामूली काम न था। फिर भी मैं झोला लेकर उठ खड़ा हुआ। और किसी तरह एक पग बढ़ाया ही था कि गाड़ी ने सीटी दे दी। अब क्या करूँ, लोगों ने कहा, बैठ जाइए, गाड़ी चलेगी तो थोड़ी राहत मिलेगी। मेरे बैठते-बैठते गाड़ी चल पड़ी। तभी एक चमौंधा जूता मेरी गोद में आ गिरा। मैंने खिडक़ी की ओर नज़र घुमायी तो एक पोटली मेरी पीठ से बज उठी। देखा, एक बूढ़ा किसान मेरी खिडक़ी में पाँव डाले ऊपर चढ़ रहा है। जाने मुझे क्या हुआ कि मेरा दिमाग़ ही ख़ राब हो गया। गोद का जूता उठाकर मैंने बाहर फेंक दिया और मारे ग़ुस्से से काँपने लगा। किसानों ने अन्दर आकर माथे का पसीना मेरे सिर पर चुलाते हुए कहा, छिमा कीजिएगा, बाबूजी, हमें दो ही टीसन जाना है। उसके मुँह से 'बाबूजी' सुनकर मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। वह शायद मुझे पहचानता था। मैंने दूसरी ओर मुँह फेर लिया वह अपनी पोटली और जूते सँभालने लगा। फिर बोला, हमारा एक जूता किधर जा पड़ा? मैं जानता था कि उसका एक जूता कहाँ है, लेकिन मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली। अब मैं सोच रहा था कि कहीं इसे मालूम हो जाय कि मैंने ही इसका एक जूता ... वह छटपटाकर आस-पास के लोगों से पूछ रहा था और लोग उसे डाँट रहे थे। आख़िर हार-पछताकर उसने पूछना बन्द कर दिया। फिर भी रह-रहकर बोल उठता था, जाने हमारा एक जूता कहाँ चला गया? भुभुर में मेरा पाँव जल जाएगा। ... आख़िर बेल्थरा रोड आया और जब वह एक जूता और पोटली लटकाये नीचे उतर गया, तो मेरी जान में जान आयी। लेकिन, बब्बू की माँ, फिर जो दृश्य मैंने देखा है, वह ... वह ... -बाबू जी का गला भर्रा गया-वह मैं कभी भी न भूल सकूँगा! वह किसान एक पाँव में जूता डाले और दूसरे नंगे पाँव से पिघलते कोलतार पर चला जा रहा था। वह उसका नंगा पाँव पिघलते कोलतार पर ऐसे पड़ रहा था, जैसे अंगार पर ... और फिर मुझे ऐसा लगा कि वह नंगा पाँव अंगार पर नहीं, मेरी छाती पर चल रहा है ... और मैं कुचला जा रहा हूँ ... कुचला जा रहा हूँ ... बब्बू की माँ, मैं क्या करूँ? क्या करूँ?-और बाबूजी अपनी छाती मसलते हुए चौकी पर बैठ गये।
बब्बू की माँ को लगा कि जैसे वही आवाज़ फिर उनके कानों से आकर टकराने लगी। वह उठ खड़ी हुईं और दरवाज़े की तरफ बढ़ती हुई बोलीं-मैं क्या जानूँ, बाबूजी मेरी समझ में तो आज तक आपकी कोई बात नहीं आयी, फिर यह बात तो और भी मुश्किल मालूम होती है। मैं आपको क्या बता सकती हूँ?
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धनिया की साड़ी (hindi story)ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग
लड़ाई का ज़माना था, माघ की एक साँझ। ठेलिया की बल्लियों के अगले सिरों को जोडऩे वाली रस्सी से कमर लगाये रमुआ काली सडक़ पर खाली ठेलिया को खडख़ड़ाता बढ़ा जा रहा था। उसका अधनंगा शरीर ठण्डक में भी पसीने से तर था। अभी-अभी एक बाबू का सामान पहुँचाकर वह डेरे को वापस जा रहा था। सामान बहुत ज़्यादा था। उसके लिए अकेले खींचना मुश्किल था, फिर भी, लाख कहने पर भी, बाबू ने जब नहीं माना, तो उसे पहुँचाना ही पड़ा। सारी राह कलेजे का ज़ोर लगा, हुमक-हुमककर खींचने के कारण उसकी गरदन और कनपटियों की रगें मोटी हो-हो उभरकर लाल हो उठी थीं, आँखें उबल आयी थीं और इस-सबके बदले मिले थे उसे केवल दस आने पैसे!
तर्जनी अँगुली से माथे का पसीना पोंछ, हाथ झटककर उसने जब फिर बल्ली पर रखा, तो जैसे अपनी कड़ी मेहनत की उसे फिर याद आ गयी।
तभी सहसा पों-पों की आवाज़ पास ही सुन उसने सर उठाया, तो प्रकाश की तीव्रता में उसकी आँखें चौंधिया गयीं। वह एक ओर मुड़े-मुड़े कि एक कार सर्र से उसकी बग़ल से बदबूदार धुआँ छोड़ती हुई निकल गयी। उसका कलेजा धक-से रह गया। उसने सर घुमाकर पीछे की ओर देखा, धुएँ के पर्दे से झाँकती हुई कार के पीछे लगी लाल बत्ती उसे ऐसी लगी, जैसे वह मौत की एक आँख हो, जो उसे गुस्से में घूर रही हो। 'हे भगवान्!' सहसा उसके मुँह से निकल गया, 'कहीं उसके नीचे आ गया होता, तो?' और उसकी आँखों के सामने कुचलकर मरे हुए उस कुत्ते की तस्वीर नाच उठी, जिसका पेट फट गया था, अँतड़ियाँ बाहर निकल आयी थीं, और जिसे मेहतर ने घसीटकर मोरी के हवाले कर दिया था। तो क्या उसकी भी वही गत बनती? और जि़न्दा रहकर, दर-दर की ठोकरें खानेवाला और बात-बात पर डाँट-डपट और भद्दी-भद्दी गालियों से तिरस्कृत किये जाने वाला इन्सान भी अपने शव की दुर्गति ���ी बात सोच काँप उठा, 'ओफ़! यहाँ की मौत तो जि़न्दगी से भी ज्यादा जलील होगी!' उसने मन-ही मन कहा और यह बात खयाल में आते ही उसे अपने दूर के छोटे-से गाँव की याद आ गयी। वहाँ की जि़न्दगी और मौत के नक्शे उसकी आँखों में खिंच गये। जि़न्दगी वहाँ की चाहे जैसी भी हो, पर मौत के बाद वहाँ के ज़लीलतरीन इन्सान के शव को भी लोग इज़्ज़त से मरघट तक पहुँचाना अपना फ़जऱ् समझते हैं! ओह, वह क्यों गाँव छोडक़र शहर में आ गया? लेकिन गाँव में ...
''ओ ठेलेवाले!'' एक फ़िटन-कोचवान ने हवा में चाबुक लहराते हुए कडक़कर कहा, ''बायें से नहीं चलता? बीच सडक़ पर मरने के लिए चला आ रहा है? बायें चल, बायें!'' और हवा में लहराता हुआ उसका चाबुक बिलकुल रमुआ के कान के पास से सन सनाहट की एक लकीर-सा खींचता निकल गया।
विचार-सागर में डूबे रमुआ को होश आया। उसने शीघ्रता से ठेलिया को बायीं ओर मोड़ा।
लेकिन रमुआ की विचार-धारा फिर अपने गाँव की राह पर आ लगी। वहाँ ऐसी जि़न्दगी का आदी न था। जोतता, बोता, पैदा करता और खाता था। फिर उसे वे सब बातें याद हो आयीं, जिनके कारण उसे अपना गाँव छोडक़र शहर में आना पड़ा। लड़ाई के कारण ग़ल्ले की क़ीमत अठगुनी-दसगुनी हो गयी। गाँव में जैसे खेतों का अकाल पड़ गया। ज़मींदार ने अपने खेत ज़बरदस्ती निकाल लिये। कितना रोया-गिड़गिड़ाया था वह! पर जमींदार क्यों सुनने ��गा कुछ? कल का किसान आज मज़दूर बनने को विवश हो गया। पड़ोस के धेनुका के साथ वह गाँव में अपनी स्त्री धनिया और बच्चे को छोड़, शहर में आ गया। यहाँ धेनुका ने अपने सेठ से कह-सुनकर उसे यह ठेलिया दिलवा दी। वह दिन-भर बाबू लोगों का सामान इधर-उधर ले जाता है। ठेलिया का किराया बारह आने रोज़ उसे देना पड़ता है। लाख मशक़्कत करने पर भी ठेलिया का किराया चुकाने के बाद डेढ़-दो रुपये से अधिक उसके पल्ले नहीं पड़ता। उसमें से बहुत किफ़ायत करने पर भी दस-बारह आने रोज़ वह खा जाता है। वह कोई ज़्यादा रक़म नहीं होती। पता नहीं, ग़रीब धनिया इस महँगी के ज़माने में कैसे अपना खर्च पूरा कर पाती है।
और धनिया, उसके सुख-दुख की साथिन! उसकी याद आते ही रमुआ की आँखें भर आयीं। कलेजे में एक हूक-सी उठ आयी। उसकी चाल धीमी हो गयी। उसे याद हो आयी बिछुडऩ की वह घड़ी, किस तरह धनिया उससे लिपटकर, बिलख-बिलखकर रोयी थी, किस तरह उसने बार-बार मोह और प्रेम से भरी ताक़ीद की थी कि अपनी देह का ख़ याल रखना, खाने-पीने की किसी तरह की कमी न करना। और रमुआ की निगाह अपने-ही-आप अपने बाज़ुओं से होकर छाती से गुज़रती हुई रानों पर जाकर टिक गयी, जिनकी माँस-पेशियाँ घुल गयी थीं और चमड़ा ऐसे ढीला होकर लटक गया था, जैसे उसका माँस और हड्डियों से कोई सम्बन्ध ही न रह गया हो। ओह, शरीर की यह हालत जब धनिया देखेगी, तो उसका क्या हाल होगा! पर वह करे क्या? रूखा-सूखा खाकर, इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। हुमक-हुमककर दिन-भर ठेलिया खींचने से माँस जैसे घुल जाता है और खून जैसे सूख जाता है। और शाम को जो रूखा-सूखा मिलता है, उससे पेट भी नहीं भरता। फिर गयी ताक़त लौटे कैसे? जब धनिया उससे पूछेगी, सोने की देह माटी में कैसे मिल गयी, तो वह उसका क्या जवाब देगा? कैसे उसे समझाएगा? जब-जब उसकी चिट्ठी आती है, वह हमेशा ताक़ीद करती है कि अपनी देह का ख़ याल रखना। कैसे वह अपनी देह का ख़ याल रखे? इतना कतर-ब्योंतकर चलने पर तो यह हाल है। आज करीब नौ महीने हुए उसे आये। धनिया के शरीर पर वह एक साड़ी और एक झूला छोडक़र आया था। वह बार-बार चिठ्ठी में एक साड़ी भेजने की बात लिखवाती है। उसकी साड़ी तार-तार हो गयी होगी। झूला कब का फट गया होगा। पर वह करे क्या? कई बार कुछ रुपया जमा हो जाने पर एक साड़ी खरीदने की गरज़ से वह बाज़ार में भी जा चुका है। पर वहाँ मामूली जुलहटी साड़ियों की कीमत जब बारह-चौदह रुपये स��नता है, तो उसकी आँखें ललाट पर चढ़ जाती हैं। मन मारकर लौट आता है। वह क्या करे? कैसे साड़ी भेजे धनिया को? साड़ी खरीदकर भेजे, तो उसके खर्चे के लिए रुपये कैसे भेज सकेगा? पर ऐसे कब तक चलेगा? कब तक धनिया सी-टाँककर गुज़ारा करेगी? उसे लगता है कि यह एक ऐसी समस्या है, जिसका उसके पास कोई हल नहीं है। तो क्या धनिया ... और उसका माथा झन्ना उठता है। लगता है कि वह पागल हो उठेगा। नहीं, नहीं, वह धनिया की लाज ...
उसकी गली का मोड़ आ गया। इस गली में ईंटें बिछी हैं। उन पर ठेलिया और ज़ोर से खडख़ड़ा उठी। उसकी खडख़ड़ाहट उस समय रमुआ को ऐसी लगी, जैसे उसके थके, परेशान दिमाग़ पर कोई हथौड़े की चोट कर रहा हो। उसके शरीर की अवस्था इस समय ऐसी थी, जैसे उसकी सारी संजीवनी-शक्ति नष्ट हो गयी हो। और उसके पैर ऐसे पड़ रहे थे, जैसे वे अपनी शक्ति से नहीं उठ रहे हों, बल्कि ठेलिया ही उनको आगे को लुढक़ाती चल रही हो।
उस दिन से रमुआ ने और अधिक मेहनत करना शुरू कर दिया। पहले भी वह कम मेहनत नहीं करता था, पर थक जाने पर कुछ आराम करना ज़रूरी समझता था। किन्तु अब थके रहने पर भी अगर कोई उसे सामान ढोने को बुलाता, तो वह ना-नुकर न करता। खुराक में भी जहाँ तक मुमकिन था, कमी कर दी। यह सब सिर्फ़ इसलिए कर रहा था कि धनिया के लिए वह एक साड़ी खरीद सके।
महीना ख़ त्म हुआ, तो उसने देखा कि इतनी तरूद्दद और परेशानी के बाद भी वह अपनी पहले की आय में सिर्फ़ चार रुपये अधिक जोड़ सका है। यह देख उसे आश्चर्य के साथ घोर निराशा हुई। इस तरह वह पूरे तीन-चार महीनों मेहनत करे, तब कहीं एक साड़ी का दाम जमा कर पाएगा। पर इस महीने के जी-तोड़ परिश्रम का उसे जो अनुभव हुआ था, उससे यह बात तय थी कि वह ऐसी मेहनत अधिक दिनों तक लगातार करेगा, तो एक दिन खून उगलकर मर जायगा। उसने तो सोचा था कि एक महीने की बात है, जितना मुमकिन होगा, वह मशक्कत करके कमा लेगा और साड़ी खरीदकर धनिया को भेज देगा। पर इसका जो नतीजा हुआ, उसे देखकर उसकी हालत वही हुई, जो रेगिस्तान के उस प्यासे मुसाफ़िर की होती है, जो पानी की तरह किसी चमकती हुई चीज़ को देखकर थके हुए पैरों को घसीटता हुआ, और आगे चलने की शक्ति न रहते भी सिर्फ़ इस आशा से प्राणों का ज़ोर लगाकर बढ़ता है कि बस, वहाँ तक पहुँचने में चाहे जो दुर्गति हो जाय, पर वहाँ पहुँच जाने पर जब उसे पानी मिल जायगा, तो सारी मेहनत-मशक्कत सुफल हो जायगी। किन्तु जब वहाँ किसी तरह पहुँच जाता है, तो देखता है कि अरे, वह चीज़ तो अभी उतनी ही दूर है। निदान, रमुआ की चिन्ता बहुत बढ़ गयी। वह अब क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कई महीने से वह धनिया को बहलाता आ रहा था कि अब साड़ी भेजेगा, तब साड़ी भेजेगा, पर अब उसे लग रहा है कि वह धनिया को कभी भी साड़ी न भेज सकेगा। उसे अपनी दुरावस्था और बेबसी पर बड़ा दुख हुआ। साथ ही अपनी जि़न्दगी उसे वैसे ही बेकार लगने लगी, जैसे घोर निराशा में पडक़र किसी आत्महत्या करनेवाले को लगती है। फिर भी जब धनिया को रुपये भेजने लगा, तो अपनी आत्मा तक को धोखा दे उसने फिर लिखवाया कि अगले महीने वह ज़रूर साड़ी भेजेगा। थोड़े दिनों तक वह और किसी तरह गुज़ारा कर ले।
उस सुबह रमुआ अपनी ठेलिया के पास खड़ा जँभाई ले रहा था कि सेठ के दरबान ने आकर कहा, ''ठेलिया लेकर चलो। सेठजी बुला रहे हैं।''
बेगार की बात सोच रमुआ ने दरबान की ओर देखा। दरबान ने कहा, ''इस तरह क्या देख रहे हो! सेठजी की भैंस मर गयी है। उसे गंगाजी में बहाने ले जाना है। चलो, जल्दी करो!''
वैसे निषिद्घ काम की बात सोच उसे कुछ क्षोभ हुआ। गाँव में मरे हुए जानवरों को चमार उठाकर ले जाते हैं। वह चमार नहीं है। वह यह काम नहीं करेगा। पर दूसरे ही क्षण उसके दिमाग़ में यह बात भी आयी कि वह सेठ का ताबेदार है। उसकी बात वह टाल देगा, तो वह अपनी ठेलिया उससे ले लेगा। फिर क्या रहेगा उसकी जि़न्दगी का सहारा? मरता क्या न करता? वह ठेलिया को ले दरबान के पीछे चल पड़ा।
कोठी के पास पहुँचकर रमुआ ने देखा कि कोठी की बग़ल में टीन के छप्पर के नीचे मरी हुई भैंस पड़ी है और उसे घेरकर सेठ, उसके लडक़े, मुनीम और नौकर-चाकर खड़े हैं, जैसे उनका कोई अज़ीज़ मर गया हो। ठेलिया खड़ी कर, वह खिन्न मन लिये खड़ा हो गया।
उसे आया देख , मुनीम ने सेठ की ओर मुडक़र कहा, ''सेठजी, ठेलिया आ गयी। अब इसे जल-प्रवाह के लिए उठवाकर ठेलिया पर रखवा देना चाहिए।''
''हाँ, मुनीमजी तो इसके कफ़न बगैरा का इन्तज़ाम करा दें। मेरे यहाँ इसने जीवन-भर सुख किया। अब मरने के बाद इसे नंगी ही क्या जल-प्रवाह के लिए भेजा जाय। मेरे विचार से बिछाने के लिए एक नयी दरी और ओढ़ाने के लिए आठ गज़ मलमल काफ़ी होगी। जल्द दुकान से मँगा भेजें।''
देखते-ही देखते उसकी ठेलिया पर नयी दरी बिछा दी गयी। उसे देखकर रमुआ की धँसी आँखों में जाने कितने दिनों की एक पामाल हसरत उभर आयी। सहज ही उसके मन में उठा, 'काश, वह उस पर सो सकता!' पर दूसरे ही क्षण इस अपवित्र खयाल के भय से जैसे वह काँप उठा। उसने आँखें दूसरी ओर मोड़ लीं।
कई नौकरों ने मिलकर भैंस की लाश उठा दरी पर रख दी। फिर उसे मलमल से अच्छी तरह ढँक दिया गया। इतने में एक खैरख़्वाह नौकर सेठजी की बगिया से कुछ फूल तोड़ लाया। उनका एक हार बना भैंस के गले में डाल दिया गया और कुछ इधर-उधर उसके शरीर पर बिखेर दिये गये।
यह सब-कुछ हो जाने पर सेठ के बड़े लडक़े ने रमुआ की ओर मुडक़र कहा, ''देखो, इसे तेज़ धारा में ले जाकर छोडऩा और जब तक यह धारा में बह न जाय, तब तक न हटना, नहीं तो कोई इसके क़फ़न पर हाथ साफ़ कर देगा।''
उसकी बात सुनकर नमकहलाल मुनीम ने रद्दा जमाया, ''हाँ, बे रमुआ, बाबू की बात का ख़ याल रखना!''
रमुआ को लगा, जैसे वह बातें उसे ही लक्ष्य करके कही गयी हों। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो बात आदमी के मन में कभी स्वप्न में भी नहीं आती, वही किसी के कह देने पर ऐसे मन में उठ जाती है, जैसे सचमुच वह बात पहले ही से उसके मन में थी। रमुआ के ख़ याल में भी यह बात नहीं थी कि वह कफ़न पर हाथ लगाएगा, पर मुनीम की बात सुन सचमुच उसके मन में यह बात कौंध गयी कि क्या वह भी ऐसा कर सकता है?
वह इन्हीं विचारों में खोया हुआ ठेलिया उठा आगे बढ़ा। अभी थोड़ी ही दूर सडक़ पर चल पाया था कि किसी ने पूछा, ''क्यों भाई, यह किसकी भैंस थीं?''
रमुआ ने आगे बढ़ते हुए कहा, ''सेठ गुलजारी लाल की!''
उस आदमी ने कहा, ''तभी तो! भाई, बड़ी भागवान थी यह भैंस! नहीं तो आजकल किसे नसीब होता है मलमल का कफ़न!''
रमुआ के मन में उसकी बात सुनकर उठा कि क्या सचमुच मलमल का कफ़न इतना अच्छा है? उसने अभी तक उसकी ओर निगाह नहीं उठायी थी, यही सोचकर कि कहीं उसे देखते देखकर सेठ का लडक़ा और मुनीम यह न सोचें कि वह ललचायी आँखों से कफ़न की ओर देख रहा है। उसकी नीयत ख़ राब मालूम होती है। पर वह अब अपने को न रोक सका। चलते हुए ही उसने एक बार अगल बग़ल देखा, फिर पीछे मुडक़र भैंस पर पड़े कफ़न को उड़ती हुई नज़र से ऐसे देखा, जैसे वह कोई चोरी कर रहा हो।
काली भैंस पर पड़ी सफ़ेद मलमल, जैसे काली दूब के एक चप्पे पर उज्ज्वल चाँदनी फैली हुई हो। 'सचमुच यह तो बड़ा उम्दा कपड़ा मालूम देता है' उसने मन में ही कहा।
कई बार यह बात उसके मन में उठी, तो सहज ही उसे उन झिलँगी साड़ियों की याद आ गयी, जिन्हें वह बाज़ार में देख चुका था और जिनकी क़ीमत बारह-चौदह से कम न थी। उसने उन साड़ियों का मुक़ाबला मलमल के उस कपड़े से जब किया, तो उसे वह मलमल बेशक़ीमती जान पड़ा। उसने फिर मन में ही कहा, 'इस मलमल की साड़ी तो बहुत ही अच्छी होगी।' और उसे धनिया के लिए साड़ी की याद आ गयी। फिर जैसे इस कल्पना से ही वह काँप उठा। ओह, कैसी बात सोच रहा है वह! जीते-जी ही धनिया को कफ़न की साड़ी पहनाएगा? नहीं-नहीं, वह ऐसा सोचेगा भी नहीं! ऐसा सोचना भी अपशकुन है। और इस ख़ याल से छुटकारा पाने के लिए वह अब और ज़ोर से ठेलिया खींचने लगा।
अब आबादी पीछे छूट गयी थी। सूनी सडक़ पर कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था। अब जाकर उसने शान्ति की साँस ली। जैसे अब उसे किसी की अपनी ओर घूरती आँखों का डर न रह गया हो। ठेलिया कमर से लगाये ही वह सुस्ताने लगा। तेज़ चलने में जो ख़ याल पीछे छूट गये थे, जैसे वे फिर उसके खड़े होते ही उसके मस्तिष्क में पहुँच गये। उसने बहुत चाहा कि वे खयाल न आएँ। पर ख़ यालों का यह स्वभाव होता है कि जितना ही आप उनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करेंगे, वे उतनी ही तीव्रता से आपके मस्तिष्क पर छाते जायँगे। रमुआ ने अन्य कितनी ही बातों में अपने को बहलाने की कोशिश की, पर फिर-फिर उन्हीं ख़ यालों से उसका सामना हो जाता। रह-रहकर वही बातें पानी में तेल की तरह उसकी विचार-धारा पर तैर जातीं। लाचार वह फिर चल पड़ा। धीरे-धीरे रफ़्तार तेज़ कर दी। पर अब ख़ यालों की रफ़्तार जैसे उसकी रफ़्तार से भी तेज़ हो गयी थी। तेज़ रफ़्तार से लगातार चलते-चलते उसके शरीर से पसीने की धाराएँ छूट रही थीं, छाती फूल रही थी, चेहरा सुर्ख हो गया था, आँखें उबल रही थीं और गर्दन और कनपटियों की रगें फूल-फूलकर उभर आयी थीं। पर उसे उन-सब का जैसे कुछ ख़ याल ही नहीं था। वह भागा जा रहा था कि जल्द-से-जल्द नदी पहुँच जाय और भैंस की लाश धारा में छोड़ दे। तभी उसे उस अपवित्र विचार से, उस धर्म-संकट से मुक्ति मिलेगी।
अब सडक़ नदी के किनारे-किनारे चल रही थी। उसने सोचा, क्यों न कगार पर से ही लाश नदी की धारा में लुढक़ा दे। पर दूसरे ही क्षण उसके अन्दर से कोई बोल उठा, अब जल्दी क्या है? नदी आ गयी। थोड़ी दूर और चलो। वहाँ कगार से उतरकर बीच धारा में छोडऩा। वह आगे बढ़ा। पर बीच धारा में छोडऩे की बात क्यों उसके मन में उठ रही है? क्यों नहीं वह उसे यहीं छोडक़र अपने को कफ़न के लोभ से, उस अपवित्र ख़ याल से मुक्त कर लेता? शायद इसलिए कि सेठ के लडक़े ने ऐसा ही करने को कहा था। पर सेठ का लडक़ा यहाँ खड़ा-खड़ा देख तो नहीं रहा है- फिर ? तो क्या उसे अब उसी वस्तु से, जिससे जल्दी-से-जल्दी छुटकारा पाने के लिए वह भागता हुआ आया है, अब मोह हो गया है? नहीं, नहीं, वह तो ...वह तो ...
अब वह श्मशान से होकर गुज़र रहा था। अपनी झोपड़ी से झाँककर डोमिन ने देखा, तो वह उसकी ओर दौड़ पड़ी। पास आकर बोली ''भैया यहीं छोड़ दे न!''
रमुआ का दिल धक-से कर गया, तो क्या यह बात डोमिन को मालूम है कि वह लाश को इसलिए लिये जा रहा है कि ... नहीं, नहीं! तो?
''भैया, यहाँ धारा तेज़ है, छोड़ दो न यहीं!'' डोमिन ने फिर विनती की।
हाँ, हाँ, छोड़ दे न! यह मौक़ा अच्छा है। डोमिन के सामने ही, उसे गवाह बनाकर छोड़ दे। और साबित कर दे कि तेरे दिल में वैसी कोई बात नहीं है। रमुआ के दिल ने ललकारा। पर वह योंही डोमिन से पूछ बैठा, ''क्यों, यही क्यों छोड़ दूँ?''
''तुम्हें तो कहीं-न-कहीं छोडऩा ही है। यहाँ छोड़ दोगे, तो तुम भी दूर ले जाने की मेहनत से छुटकारा पा जाओगे और मुझे ...'' कहकर वह कफ़न की ओर ललचायी दृष्टि से देखने लगी।
''तुम्हें क्या?'' रमुआ ने पूछा।
''मुझे यह कफ़न मिल जायगा,'' उसने कफ़न की ओर अँगुली से इशारा करके कहा।
''कफ़न?'' रमुआ के मुँह से यों ही निकल गया।
''हाँ-हाँ! कहीं इधर-उधर छोड़ दोगे, तो बेकार में सड़-गल जायगा। मुझे मिल जायगा, तो मैं उसे पहनूँगी। देखते हो न मेरे कपड़े? कहकर उसने अपने लहँगे को हाथ से उठाकर उसे दिखा दिया।''
''तुम पहनोगी कफ़न?'' रमुआ ने ऐसे कहा, जैसे उसे उसकी बात पर विश्वास ही न हो रहा हो।
''हाँ-हाँ, हम तो हमेशा कफ़न ही पहनते हैं। मालूम होता है, तुम शहर के रहने वाले नहीं हो। क्या तुम्हारे यहाँ ...''
''हाँ, हमारे यहाँ तो कोई छू���ा तक नहीं। कफ़न पहनने से तुम्हें कुछ होता नहीं?'' रमुआ की किसी शंका ने जैसे अपना समाधान चाहा, पर वह ऐसे स्वर में बोला, जैसे यों ही जानना चाहता हो।
''गरीबों को कुछ नहीं होता, भैया! आजकल तो जमाने में ऐसी आग लगी है कि लोग लाशें नंगी ही लुढक़ा जाते हैं। नहीं तो पहले इतने कफ़न मिलते थे कि हम बाजार में बेच आते थे।''
''बाजार में बेच आते थे?'' रमुआ ने ऐसे पूछा, जैसे उसके आश्चर्य का ठिकाना न हो, ''कौन खरीदता था उन्हें?''
''हमसे कबाड़ी खरीदते थे और उनसे गरीब और मजदूर,'' उसने कहा।
''गरीब और मजदूर?'' रमुआ ने कहा।
''हाँ-हाँ , बहुत सस्ता बिकता था न! शहर के गरीब और मजदूर जियादातर वही कपड़े पहनते थे।''
रमुआ उसकी बात सुन जैसे किसी सोच में पड़ गया।
उसे चुप देख डोमिन फिर बोली, ''तो भैया, छोड़ दो न यहीं। आज न जाने कितने दिन बाद ऐसा कफ़न दिखाई पड़ा है। किसी बहुत बड़े आदमी की भैंस मालूम पड़ती है। तभी तो ऐसा कफ़न मिला है इसे। छोड़ दे, भैया, मुझ गरीब के तन पर चढ़ जायगा। तुम्हें दुआएँ दूँगी!'' कहते-कहते वह गिड़गिड़ाने लगी।
रमुआ के मन का संघर्ष और तीव्र हो उठा। उसने एक नजर डोमिन पर उठायी, तो सहसा उसे लगा, जैसे उसकी धनिया चिथड़ों में लिपटी डोमिन की बग़ल में आ खड़ी हुई है, और कह रही है, ''नहीं-नहीं, इसे न देना! मैं भी तो नंगी हो रही हूँ! मुझे! मुझे ...'' और उसने ठेलिया आगे बढ़ा दी।
''क्यों, भैया, तो नहीं छोड़ोगे यहाँ?'' डोमिन निराश हो बोली।
रमुआ सकपका गया। क्या जवाब दे वह उसे? मन का चीर जैसे उसे पानी-पानी कर रहा था। फिर भी ज़ोर लगाकर मन की बात दबा उसने कहा, ''सेठ का हुकुम है कि इसका कफ़न कोई छूने न पाये।'' और ठेलिया को इतने ज़ोर से आगे बढ़ाया, जैसे वह इस ख़ याल से डर गया हो कि कहीं डोमिन कह न उठे, हूँ-हूँ! यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी नीयत खुद खराब है!
काफ़ी दूर बढक़र, यह सोचकर कि कहीं डोमिन कफ़न के लोभ से उसका पीछा तो नहीं कर रही है, उसने मुडक़र चोर की तरह पीछे की ओर देखा। डोमिन एक लडक़े से उसी की ओर हाथ उठाकर कुछ कहती-सी लगी। फिर उसने देखा कि वह लडक़ा उसी की ओर आ रहा है। वह घबरा उठा, तो क्या वह लडक़ा उसका पीछा करेगा?
अब वह धीरे-धीरे, रह-रहकर पीछे मुड़-मुडक़र लडक़े की गति-विधि को ताड़ता चलने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा, तो लडक़ा दिखाई नहीं दिया। फिर जो उसकी दृष्टि झाऊँ के झुरमुटों पर पड़ी, तो शक हुआ कि वह छिपकर तो उसका पीछा नहीं कर रहा है। पर कई बार आगे बढ़ते-बढ़ते देखने पर भी जब उसे लडक़े का कोई चिन्ह दिखाई न दिया, तो वह उस ओर से निश्चिन्त हो गया। फिर भी चौकन्नी नज़रों से इधर-उधर देखता ही बढ़ रहा था।
काफ़ी दूर एक निर्जन स्थान पर उसने नदी के पास ठेलिया रोकी। फिर चारों ओर शंका की दृष्टि से एक बार देखकर उसने कमर से ठेलिया छुड़ा ज़मीन पर रख दी।
अब उसके दिल में कोई दुविधा न थी। फिर भी जब उसने कफ़न की ओर हाथ बढ़ाया, तो उसकी आत्मा की नींव तक हिल उठी। उसके काँपते हाथों को जैसे किसी शक्ति ने पीछे खींच लिया। दिल धड़-धड़ करने लगा। आँखें वीभत्सता की सीमा तक फैल गयीं। उसे लगा, जैसे सामने हवा में हज़ारों फैली हुई आँखें उसकी ओर घूर रही हैं। वह किसी दहशत में काँपता बैठ गया। नहीं, नहीं, उससे यह नहीं होगा! फिर जैसे किसी आवेश ��ें उठ, उसने ठेलिया को उठाया कि लाश को नदी में उलट दे कि सहसा उसे लगा कि जैसे फिर धनिया उसके सामने आ खड़ी हुई है, जिसकी साड़ी जगह-जगह बुरी तरह फट जाने से उसके अंगों के हिस्से दिखाई दे रहे हैं। वह उन अंगों को सिमट-सिकुडक़र छिपाती जैसे बोल उठी, देखो, अबकी अगर साड़ी न भेजी, तो मेरी दशा ...
''नहीं, नहीं!'' रमुआ हथेलियों से आँखों को ढँकता हुआ बोल उठा और ठेलिया ज़मीन पर छोड़ दी। फिर एक बार उसने चारों ओर शीघ्रता से देखा और जैसे एक क्षण को उसके दिल की धडक़न बन्द हो गयी, उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, उसका ज्ञान जैसे लुप्त हो गया और उसी हालत में, उसी क्षण उसके हाथों ने बिजली की तेज़ी से कफ़न खींचा, समेटकर एक ओर रखा और ठेलिया उठाकर लाश को नदी में उलटा दिया। तब जाकर जैसे होश हुआ। उसने जल्दी से कफ़न ठेलिया पर रख उसे माथे के मैले गमछे से अच्छी तरह ढँक दिया और ठेलिया उठा तेज़ी से दूसरी राह से चल दिया।
कुछ दूर तक इधर-उधर देखे बिना वह सीधे तेज़ी से चलता रहा। जैसे वह डर रहा था कि इधर-उधर देखने पर कहीं कोई दिखाई न पड़ जाय। पर कुछ दूर और आगे बढ़ जाने पर वह वैसे ही निडर हो गया, जैसे चोर सेंध से दूर भाग जाने पर। अब उसकी चाल में धीरे-धीरे ऐसी लापरवाही आ गयी, जैसे कोई विशेष बात ही न हुई हो, जैसे वह रोज़ की तरह आज भी किसी बाबू का सामान पहुँचाकर खाली ठेलिया को धीरे-धीरे खींचता, अपने में रमा हुआ, डेरे पर वापस जा रहा हो। अपनी चाल में वह वही स्वाभाविकता लाने की भरसक चेष्टा कर रहा था, पर उसे लगता था कि कहीं से वह बेहद अस्वाभाविक हो उठा है और कदाचित उसकी चाल की लापरवाही का यही कारण था कि वह रात होने के पहले शहर में दाख़िल नहीं होना चाहता था।
काफ़ी दूर निकल जाने पर न जाने उसके जी में क्या आया कि उसने पलटकर उस स्थान की ओर एक बार फिर देखा, जहाँ उसने भैंस की लाश गिरायी थी। कोई लडक़ा कोई काली चीज़ पानी में से खींच रहा था। वह फिर बेतहाशा ठेलिया को सडक़ पर खडख़ड़ाता भाग खड़ा हुआ।
उस दिन गाँव में हल्दी में रंगी मलमल की साड़ी पहने धनिया ��पने बच्चे को एक हाथ की अँगुली पकड़ाये और दूसरे हाथ में छाक-भरा लोटा कन्धे तक उठाये, जब काली माई की पूजा करने चली, तो उसके पैर असीम प्रसन्नता के कारण सीधे नहीं पड़ रहे थे। उसकी आँखों से जैसे उल्लाल छलका पड़ता था।
रास्ते में न जाने कितनी औरतों और मर्दों ने उसे टोककर पूछा, ''क्यों, धनिया, यह साड़ी रमुआ ने भेजी है?''
और उसने हर बार शरमायी आँखों को नीचेकर, होंठों पर उमड़ती हुई मुस्कान को बरबस दबाकर, सर हिला जताया, हाँ!
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साथी (HINDI STORY)
पिता की आकस्मिक मृत्यु ने निकिता को स्तब्ध कर दिया। माँ तो जन्म देते ही उसेपिता के हाथो सौप, यह दुनिया छोड़ गई थीं। पापा और दादी ने माँ की कमी कभी महसूसनहीं होने दी। दादी की मृत्यु का आघात भी बहुत गहरा था, पर पापा के प्यार का सहाराथा। अब वह किसके सहारे जीएगी? एक चाचा हैं, पर वह लंदन मे बस गए हैं। दादी कीमौत पर चाचा-चाची आए ज़रूर थे, पर भीड़भाड़ में उनसे ठीक से बात भी नहीं हो सकी।बच्चों को लंदन में ही छोड़ आए थे इसलिए तीसरे दिन, शान्ति -हवन के बाद दोनों वापसचले गए थे। पापा के मन को दीन-दुखियों के दुख ने इस तरह छुआ कि अच्छी-भली सरकारी नौकरीछोड़, समाज-सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। छुट्टियों में निकिता भी अपनेपापा के साथ गाँवों में जाकर पापा की सहायता करती। घर में दादी के साथ रामायण कापाठ सुनती निकिता, कॉलेज तक पहुँच गई। कॉलेज में लड़कियाँ निकिता के काले लंबेबालों की कस कर बाँधी गई चोटियों और घर के सिले सादे सलवार-सूट पर व्यंग्य करतीं- “ऐ निकिता, तेरे इतने प्यारे लंबे बाल हैं, अगर खोल कर रखे तो लड़के मर-मर जाएँ।” रमाकहती। “इतने सुन्दर चेहरे के साथ ज़रा ढंग के कपड़े पहन ले तो मॉडलिंग कर सकती है।”शिल्पाउसे उसकी सुंदरता का अर्थ समझाती। “ हम ऐसे ही ठीक हैं। दादी कहती है, असली सुन्दरता सादगी में होती है। तन की सुन्दरताकी जगह मन सुन्दर होना चाहिए।” भोलेपन से निकिता जवाब देती। वैसे दादी ने उसे सर्वगुण संपन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। संगीत, नृत्य,पाक-कला सभी में निकिता दक्ष थी। कॉलेज में कविता-पाठ, डिबेट, संगीत और नृत्यप्रतियोगिताओं में निकिता सबसे आगे रहती। अपने इन्हीं गुणों और सरल स्वभाव केकारण निकिता सब की प्रिय पात्री थी। भाई की मृत्यु की सूचना पाते ही लंदन से चाचा आ पहुँचे। दूर रहने के बावजूद दोनोंभाइयों में बहुत प्यार था। चाचा के चेहरे में पिता की छवि देख, पत्थर बनी निकिता केआँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। सीने से लिपटा, चाचा ने तसल्ली दी थी- “ रो मत, निक्की। पापा नहीं रहे तो क्या हुआ, तेरा चाचा तो है। तू अकेली नहीं है। अब तूहमारे साथ लंदन में रहेगी।” “ लंदन?” निकिता चौंक गई। “ हाँ, बेटी। तू यू. के. की सिटीजन है। भाई साहब तो अपनी समाज-सेवा में लगे रहते थे।भाभी की डिलीवरी के समय माँ बहुत बीमार थीं। अच्छा हुआ मैं भाभी को लंदन ले गया।तेरा जन्म लंदन में हुआ, पर दुख है भाभी चली गईं।” चाचा का गला भर आया। घर छोड़ने की बात ने निकिता का दुख और बढ़ा दिया। उस घर से जुड़ी दादी और पापा कीन जाने कितनी मीठी यादें थीं, पर पुश्तैनी बड़े-से मकान में अकेली लड़की का रहना भी तोसंभव नहीं था। कुछ शुभचिंतकों की मदद से चाचा ने जल्दी ही घर को अच्छे दामों में बेच दिया। उदारचाचा ने घर की रकम निकिता के नाम जमा कर दी। अगर उसका विवाह भारत में हुआतो वह रकम काम आएगी या निकिता उन पैसों को अपने ऊपर खर्च कर सकती थी।चाचा के साथ लंदन जाने के अलावा निकिता के पास और कोई विकल्प नहीं था। चाचा केसिवा उसका कोई अपना था ही कहाँ? हवाई उड़ान निकिता को अपने घर, अपनी जन्मभूमि से दूर लिए जा रही थी, पर निकिताका मन पुरानी यादों में पीछे दौड़ रहा था। अनजान देश और एक बार मिली चाची में क्यावह अपनी दादी-माँ को पा सकेगी? चाचा ने बताया है, उसकी कजि़न मिनी और भाईराकेश उर्फ रॉकी, निकिता का इंतजार कर रहे है। लंदन पहुँच, बड़ी-सी कार में बैठती निकिता का मन बैठा जा रहा था। कैसा होगा नयापरिवे्श? महलनुमा घर में प्रवेश करते ही चाची से सामना हुआ था। पाँव छूने को झुकतीनिकिता ने जैसे चाची को डरा दिया -” व्हाट इज़ दिस नॉनसेंस? “ अरे निक्की तुम्हें सम्मान दे रही है। यही तो हमारे दे्श की परम्परा है? चाचा ने निक्कीके विस्मित चेहरे को देख कर पत्नी को समझाना चाहा। “ हलो, यह तुम्हारा इंडिया नहीं है। सुनो, यहाँ यह सब नहीं चलता। एनीहाउ, कम इन।” चाची के चेहरे की रूक्षता ने निकिता को सहमा दिया। सामने इाडनिंग-टेबल पर आधुनिक परिधान में मिनी और रॉकी ब्रेकफास्ट ले रहे थे।निकिता को देखते ही दोनों के चेहरों पर व्यंग्यभरी मुस्कान आ गई। “ हाय, डैडी! अपने साथ यह स्पेसिमेन कहाँ से उठा लाए?” मिनी ने शैतानी से पूछा। “ शट अप। यह तुम्हारी कजिन निकिता है। तुम इसे निक्की पुकार सकती हो।” “ हमारी कजि़न? आर यू जोकिंग, डैडी?” अब रॉकी के हँसने की बारी थी। “ लिलियन, तुमने इन्हें बताया नहीं, निकिता अब हमारे साथ ही रहेगी?” “ नहीं, मैंने सोचा तुम समझदारी से काम लोगे। इसके रहने का इंतजाम इन्डिया में हीकरके आओगे। लुक ऐट हर, यह यहाँ लंदन में कैसे एडजस्ट करेगी?” “ तुम जानती हो, हमारे सिवा निक्की का और कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं है। यह मेरेभाई की आखिरी निशानी है।” “ ओह माई गॉड! यू एंड योर सेंटीमेट्स। आयम फेड-अप।” चाची के चेहरे पर खिजलाहटस्पष्ट थी। “ मिनी, तुम्हारी बहिन निक्की तुम्हारे साथ रूम -शेयर करेगी। रॉकी, निक्की का सूटकेसमिनी के रूम में पहुँचा दो।” “ ओह नो। इट्स इमपॉसिबिल। मैं अपना रूम किसी के साथ शेयर नहीं कर सकती,स्पेशली इसके साथ।” मिनी का चेहरा तमतमा आया। “ ठीक है, निक्की मेरी स्टडी के पास वाले रूम में रहेगी।” इस स्वागत से निक्की की आँखेंभर आईं। थोड़ी देर में चाचा ने प्यार से पुकारा- “ निक्की बेटी, आओ ब्रेकफास्ट ले लो।” “ हमें भूख नहीं है, चाचा।” “ वाह! भूख कैसे नहीं है? अगर तू नहीं खाएगी तो मुझे भी भूखा रहना पड़ेगा।” सहास्यचाचा ने कहा। जबरन निक्की एक कुर्सी पर बैठ गई। उसके बैठते ही रॉकी और मिनी ब्रेकफ़ास्ट छोड़करउठ खड़े हुए। मानो निक्की की वेशभूषा उनके आधुनिक फ़ै्शनेबल परिधान कोअपमानित कर देगी। “ ओ.के. मॉम। वी आर डन। डैडी के सरप्राइज़ ने भूख ही खत्म कर दी।” मिनी व्यंग्य सेबोली। “ थैंक्स गॉड। मैं तो कल ही होस्टेल जा रहा हूँ वर्ना...।” अधूरा वाक्य छोड़कर भी रॉकीबहुत कुछ कह गया। अपराधी भाव से निकिता ब्रेड गले से नीचे उतारने लगी। ऑफिस जाने को तैयार चाचा ने स्नेह से निकिता को समझाया “ निक्की, तू अपने बहादुर पापा की बेटी है। हिम्मत से काम लेगी तो सारी कठिनाइयों परविजय पा लेगी। तू हिम्मत तो नहीं हारेगी?” “ नहीं, चाचा।” रूंधे स्वर में निकिता इतना ही कह सकी। उसका दिल कितनी ज़ोरों सेधड़क रहा था, चाचा कैसे जान पाते। चाचा के जाने के कुछ देर बाद स्कर्ट-ब्लाउज पहने हेवी मेकअप के साथ आई लिलियन नेसपाट षब्दों में कहा- “ मैं काम पर जा रही हूँ। फ्रिज में खाना होगा, खा लेना। यहाँ सबको अपने काम खुद करनेहोते हैं। हाँ, बाथ लेते वक्त बाथ-_ टब का करटेन खींच लेना। इन्डिया की तरह पूराबाथरूम गीला मत कर देना, समझी।” “ जी...ई, चाची।” “ एक बात और यहाँ लंदन में चाचा-चाची नहीं चलता। मुझे सब लिलियन कहते हैं। तुमभी आदत डाल लो, एण्ड फ़ार गॉड् सेक मुझे कभी चाची मत पुकारना।” लिलियन के जाते ही पलंग पर औंधी पड़, निक्की जी भर कर रो ली। दादी और पापाकितने प्यार से उसे खिलाते थे। पहला निवाला उसके मुँह में देते पापा कहते- “ यह निवाला हमारी रानी बिटिया के नाम।” आज निक्की के आँसू पोंछने वाला कौन था? आँसू पोंछ निक्की उठ खड़ी हुई। चाचा नेठीक कहा है, उसे हिम्मत से काम लेना होगा। नहा-धोकर निकिता ने बडा़-सा फ्रिज खोला,पर खाना कहाँ था। दाल-रोटी खाने वाली निकिता को अंगे्रजी खाना समझ में ही नहींआता। किसी तरह ब्रेड पर जैम लगाकर पेट भर लिया। रात में चाचा ने कहा- “ निक्की बेटी, कल सुबह जल्दी तैयार हो जाना। तुम्हें कॉलेज में एडमीशन दिलाना है।” “ व्हाट पापा? यह कॉलेज में क्या करेगी? कॉलेज में पढ़ाई इंगलिश में होती है।” मिनी नेटेढ़ी दृष्टि से संकुचित निक्की को देखकर कहा। “ तू नहीं जानती, निकिता इंगलिश लिटरेचर के साथ बी.ए. कर रही थी। निक्की हमेशाफ़र्स्ट आती है।” “ इन्डिया और यू. के. की पढ़ाई के स्टैंडर्ड में बहुत फर्क है, पापा। यहाँ की पढ़ाई करनाआसान काम नहीं है।” गर्व से मिनी ने कहा। “ यह तो वक्त ही बताएगा। वैसे तुझे पढ़ाई के बारे में खास जानकारी कहाँ होगी? तेरे लिएतो कॉलेज मौज-मस्ती की जगह है।” रुखाई से चाचा ने कहा। “ ओह, दैट्स टू मच, पापा।” तिनक कर मिनी चली गई। “ दूसरों के सामने बेटी की इंसल्ट करना क्या ठीक है? मिनी को बेकार ही नाराज़ करदिया।” लिलियन ने क्रुद्ध दृष्टि पति पर डाली। अपने कारण हो रहे घरेलू विवाद ने निक्कीको सहमा दिया। इन बातों के बावजूद सुबह कॉलेज जाने की खुशी ने निक्की को सोने नहींदिया। गुलाबी सलवार-सूट वह खास मौकों पर ही पहनती थी। दादी कहा करतीं- “ इस सूट में तू गुलाब का फूल दिखती है, बिटिया। तेरी गोरी रंगत पर यह गुलाबी रंग खूबखिलता है।” सचमुच गुलाबी सूट में निक्की का चेहरा खिल उठा। घने बालों की लम्बी चोटियाँ पीठ परझूल रही थीं। चाचा के साथ जाती निक्की के मन में अनजाना डर और खुशी दोनों शामिलथीं। कॉलेज की भव्य इमारत के सामने कार रूकी थी। निकिता की काबलियत उसकीरिजल्ट- शीट में स्पष्ट थी। बिना किसी समस्या के निकिता को एडमीशन मिल गया।एडमीशन की फ़ॉर्मेलिटीज़ पूरी करने के बाद चाचा असमंजस में थे, इतनी बड़ी कॉलेज कीइमारत में क्या निकता आसानी से अपना डिपार्टमेंट खोज सकेगी? उनकी मुश्किल काहल नूरी के आ जाने से हो गया। “ हलो, अंकल। आप यहाँ? क्या मिनी की कोई प्रॉबलेम है?” हँसती नूरी ने पूछा। अपनीहरकतों की वजह से मिनी की शिकायत अक्सर घर भेजी जाती थी। “ थैंक्स गॉड। इस बार वह प्रॉबलेम नहीं है। आज मैं अपनी भतीजी निकिता का एडमीशनकराने आया हूँ। निकिता अभी इन्डिया से आई हैं। इसके लिए सब कुछ नया है। नूरी, क्यातू इसे इसके डिपार्टमेंट तक पहुँचा देगी। मुझे आफिस जाना है।” “ श्योर, अंकल। आप आराम चले जाइए। मैं निकिता को ले जाती हूँ।” “ थैंक्स, नूरी। मेरी पस्रेशानी दूर हो गई। मिनी को तो तू जानती ही है, उससे कोई उम्मीदरखना ही बेकार है।” “ अंकल, मैं जानती हूँ, मिनी अपनी हेल्प कर ले, उतना ही काफी है। बाय, अंकल।” चाचा के जाते ही नूरी ने प्यार से निकिता का हाथ थमाकर कहा- “ हम दोनों को अपने नाम तो पता लग ही गए। मैं नूरजहाँ सबके लिए नूरी हूँ। पाकिस्तानसे आई हूँ। मेरे अब्बू तेरे अंकल, मेरा मतलब तेरे चाचा के पक्के दोस्त हैं। हम पहलेइंडिया में ही थे, अब अब्बू की पोस्टिंग पाकिस्तान में है। तू अपनी सुना।” “ मेरे पापा नहीं रहे, नूरी। अब चाचा के साथ रहना है।” निकिता का गला भर आया। “ डोंट वरी। यही जिन्दगी है, निक्की। अब हम दोनों दोस्त हैं। मैं तुम्हें निक्की पुकारसकती हूँ, न?” “ हाँ, मुझे अच्छा लगेगा। पापा और घर में आने वाले निक्की ही पुकारते हैं।” “ अरे बातों में मैं भूल ही गई। तुझे किस डिपार्टमेंट में जाना हैं। कौन सा सबजेक्ट लियाहै?” “ इंगलिश लिटरेचर लिया है। इंडिया में भी मेरा यही सबजेक्ट था। तुम्हारा क्या सबजेक्टहै?” “ फ़ाइन आर्टस। हम दोनों के डिपार्टमेंट पास-पास हैं। हम मिलते रहेंगे। तेरा फेवरिट कविकौन है?” “ कीट्स.........। मैं कीट्स की फैन हूँ।’शर्माते हुए निकिता ने कहा। “ भई, हमारा तो दूर-दूर तक कीट्स से कोई रिश्ता नहीं है, पर तुझसे दोस्ती का रिश्ताजरूर बन जाएगा। बाई दि वे तुम्हारी क्या हॉबीज़ हैं?” “ संगीत और नृत्य मुझे प्रिय हैं। कुछ कुकिंग भी कर लेती हूँ।” कुछ झिझकते हुए निक्कीने बताया। “ वाह! तब तो तेरे बनाए लजीज़ खाने के साथ गीतों का भी मज़ा मिलेगा। एक बात,शायद तेरी ड्रेस को लेकर कुछ रिमार्क्स दिए जाएँ, पर घबराना नहीं। कुछ दिनों बाद तुझेभी जीन्स और टॉप की आदत हो जाएगी। जानती है, पाकिस्तान में तो एक बार मुझेबुरका भी पहनना पड़ा था, पर यहाँ तो पूरी आज़ादी है, जो चाहे पहनो।” नूरी दिलखोलकर हँस पड़ी। फ़ाउंटेन के पास लड़के-लड़कियों का जमघट था। एक-दूसरे का खुले आम चुम्बन करतेलड़के-लड़कियों को देख, निक्की ने दृष्टि नीची कर ली। ऐसा खुलापन उसकी कल्पना सेपरे था। अचानक शोर-सा मच गया। एक आवाज स्पष्ट उभरी- “ हे ब्वॉयज। लुक, ए पोनी विद टू टेल्स।” सबकी दृष्टियों का केन्द्र-बिन्दु बनी निकिता का चेहरा लाल हो उठा। आगे बढ़कर एकलड़के ने कहा- “ कमिंग स्ट्रेट फ्राम एन इंडियन बार्न।” हँसी का फौब्बारा छूट गया। तभी बाइसिकिल सेउतरा एक युवक गिटार लटकाए सामने आ गया। “ हाय गाईज। क्यों शोर मचा रखा है?” “ उधर देखो, रॉबिन, समझ जाओगे।” एक शरारती लड़के ने निकिता की ओर इशाराकिया। रॉबिन नाम पर निकिता ने झुकी नज़र उठाई, पर रॉबिन से दृष्टि मिलते ही नज़र झुकाली। “ व्हाट इज़ राँग विद हर? आई थिंक शी इज़ ऐन इंडियन ब्यूटी। एम आई करेक्ट, मिज़?” “ ओह! लव ऐट फ़र्स्ट साइट। लेट्स हैव सम फन। मिस ब्यूटीफुल एक गीत गाइए, हमाराहीरो रॉबिन आपके लिए गिटार बजाएगा। आर यू रेडी रॉबिन।” “ ओह, श्योर, इट विल बी माई प्लेज़र्।” सबकी तालियों ने निकिता को डरा दिया। धीमी आवाज़ में नूरी ने कहा- “ तू तो संगीत जानती है। कोई भी गीत सुना दे, वर्ना ये ऐसे छोड़ने वाले नहीं है।” “ हम इनके सामने नहीं गा पाएंगे।” डरती निकिता ने कहा। “ तब तू क्लास में जा चुकी। पहले दिन मुझे भी एक नज़्म सुनानी पड़ी थी।” नूरी नेहिम्मत बंधाई। “ वी आर वेटिंग, मिस। डोंट वेस्ट अवर टाइम।” चारो�� ओर दृष्टि डाल निकिता ने अपना एक प्रिय भजन शुरू कर दिया। निकिता कीसधी-मीठी आवाज़ ने सबको विस्मित कर दिया। रॉबिन के गिटार ने तो समा ही बाँधदिया। गीत समाप्त होते ही अचानक आगे बढ़ रॉबिन ने निकिता की हथेली चूम ली।निकिता का सर्वांग सिहर उठा। अनायास ही उसके मुँह से ‘नो-नो’ निकल गया। “ क्या मुझसे कोई गलती हो गई?” रॉबिन ने हिन्दी में सवाल पूछकर निकिता को चौंकादिया। “ असल में निकिता अभी इंडिया से आई है। वहाँ का कल्चर अलग है। लड़की को किसकरना गलत समझा जाता है।” “ मैंने लड़की को नहीं उसकी संगीत कला को किस किया है। ऐनीहाउ आई एम सॉरी, मिसनिकिता।” “ रॉबिन, तुम्हारे सालाना जलसे के लिए एक और कलाकार मिल गया। मुझे थैंक्स तोदोगे?” गर्व से नूरी ने कहा। ‘ थैंक्यू, नूरी। वैसे सच कहूँ, लगता है, मुझे एक म्यूजि़क टीचर भी मिल गई है। बहुत दिनोंमें इंडियन म्यूजिक सीखना चाहता था।” रॉबिन ने निकिता को सम्मान से देखा। “ ओ.के. तो अब हमें क्लास में जाने की इजाज़त है, गाईज़?” नूरी ने मुस्करा कर पूछा। “ कौन से डिपार्टमेंट में जाना है, नूरी?” रॉबिन ने जानना चाहा। “ तुम्हारे ही डिपार्टमेंट के पास यानी इंगलिश-डिपार्टमेंट जा रहे हैं।” “ वाह! यह तो मेरी खुशकिस्मती है। चलो, मैं भी चलता हूँ।” “ रॉबिन तो गया काम से।” लड़कों ने तालियाँ बजाई। इंगलिश-डिपार्टमेंट के सामने पहुँचरॉबिन ने विदा मांगी- “ एनुअल (वार्षिक) फंक्शन के लिए हेड के साथ कुछ डिसकस करना है। डिपार्टमेंट मेंमिलना होता ही रहेगा। मैं चलता हूँ, नाइस मीटिंग यू, मिस निकिता। बाय।” साइकिलतेज़ी से चलाता रॉबिन चला गया। “ पुअर रॉबिन।” नूरी के मुँह से निकला। “ क्यों क्या हुआ?” “ जानती है, रॉबिन एक ब्रोकेन फ़ैमिली से है। अंग्रेज माँ और हिन्दुस्तानी बाप में डाइवोर्सहो चुका है। म्यूजि़क- परफ़ारमेंस देकर रॉबिन ने पढ़ाई की है। खु्शकिस्मती यही है, पढ़ाईमें बेहद ज़हीन है। मास्टर्स के बाद अब रिसर्च-वर्क कर रहा है। अब तो उसे फलोशिप मिलरही है।” “ सच, जि़न्दगी में कब, किसे क्या दुख मिले, कोई नहीं जानता। अकेलापन सबसे बड़ाअभिशाप है, नूरी।” निकिता उदास हो गई। “ रॉबिन को अकेलेपन ने तोड़ दिया है, निक्की। अक्सर टेम्स के किनारे बेंच पर बैठ,गिटार बजाता रहा है। सुना है, कभी-कभी लड़कियों के साथ रातें काटकर अकेलापन दूरकरता है। अगर गिटार उसका साथी न होता तो पता नहीं क्या करता। अब डिपार्टमेंट केकल्चरल प्रोग्राम रॉबिन ही आर्गनाइज़ करता है। हैड इस रॉबिन को बहुत सपोर्ट करते हैं।एक ही डर है, यह ग़लत राह पर न भटक जाए। खुदा खैर करे। अच्छा अब तुम फ़र्स्टफ़्लोर पर चली जाओ, तुम्हारी क्लासेज़ वही होंगी। मैं भी चलती हूँ।” “ थैंक्स। तुम न होतीं तो न जाने कहाँ भटकती।” “ ओह, कम ऑन। तुम इंटलिजेंट लड़की हो, अपनी मंजि़ल तक ज़रूर पहुँचेगी।बाय-बाय।” क्लास के पहले दिन ने ही निकिता का मुरझाया मन हरा कर दिया। प्रोफ़ेसर ने इतनीअच्छी तरह से पाठ की व्याख्या की कि निकिता अपने सारे दुख भूल गई। मिनी ने ठीककहा है, यहाँ बहुत अच्छी पढ़ाई होती है। बुक-लिस्ट लेकर निकिता ने देखा, बहुत सेलेखकों और कवियों की रचनाएँ वह पढ़ चुकी थी। वापसी के समय नूरी उसके साथ थी। नूरी भी वापस बस से ही जाती थी। बातों-बातों मेंनूरी ने बताया। “ डिपार्टमेंट की लाइब्रेरी बहुत अच्छी है। । लाइब्रेरी से बहुत सहायता मिल जाएगी। कुछकिताबों के चैप्टरों की फ़ोटो कापी की जा सकती है।” “ मैं लाइब्रेरी का पूरा फ़ायदा उठाऊँगी, नूरी। मैं जानती हूँ, यहाँ पढ़ाई बहुत महंगी है। चाचापर मैं ज्यादा बोझ नहीं डाल सकती।” “ तुम समझदार लड़की हो, निक्की। मैं हमे्शा तुम्हारे साथ हूँ।” घर पहुँचकर निकिता फिर उदास हो गई। कॉलेज का खुशनुमा माहौल घर से बिल्कुलअलग था। मिनी, लिलियन को उससे बातें करना नागवार गुजरता। एक चाचा ही थे जोउससे स्नेह से बात करते। चाचा से कुछ किताबों के लिए पैसे मांगने होंगे। देर रात तकजागी निकिता मोटरबाइक की आवाज़ से चौंक गई। खिड़की से झांकने पर नशे में धुत्तलड़खड़ाती मिनी, एक युवक के सहारे घर में प्रवेश कर रही थी। निकिता सोच में पड़ गई,क्या चाचा और लिलियन को मिनी के देर से आने पर आपत्ति नहीं होती? दूसरी सुबह निकिता कॉलेज बस से जाने को तैयार हो गई। नूरी ने समझाया था- “ आने-जाने के लिए बस लेना ठीक होगा। किसी की मदद रोज़-रोज़ नहीं ली जा सकती।यहाँ तो माँ-बाप भी बालिग बेटे-बेटियों की जि़म्मेदारी उन पर ही छोड़ देते हैं।” “ आर यू श्योर तू बस में जा सकती है?” चाचा ने उसे तैयार देख पूछा था। “ जी, चाचा। आप चिंता न करें। मैं मैनेज कर लूँगी।” “ गुड। तू सचमुच होशियार लड़की है।” बस कॉलेज के सामने क्रासिंग पर रूकी थी। कॉलेज जाते हुए निकिता ने मिनी को रातवाले लड़के के साथ बाइक पर जाते हुए देख कर सोचा, अभी उसे इस देश के बारे मेंसमझना बाकी है। इंडिया और यू.के. के बीच कल्चरल गैप काफी है। नूरी से बात करने परनूरी हँस पड़ी- “ तू एक मिनी की बात कर रही है, यहाँ की जि़ंन्दगी में यह आम बात है। एक जवानलड़की का ब्वाय फ्रेंड न होना, उसके और परिवार के लिए अपमानजनक होता है। वैसेमिनी की जिस जेम्स के साथ दोस्ती है, वह एक ग़लत लड़का है।” “ तुम्हारा भी कोई ब्वाय फ्रेंड है ‘नूरी?’ भोलेपन से निकिता ने पूछा। “ मेरे अब्बू ने मेरे लिए रास्ता ही नहीं छोड़ा। मेरी मंगनी जो कर दी।” नूरी के चेहरे परखुशी छलक आई। “ तू अपनी मंगनी से खुश है?” “ हाँ, लाखों में एक है मेरा रशीद। जल्द ही हमारा निकाह होने वाला है।” “ मुबारक हो। तुम चली जाओगी तो मैं अकेली रह जाऊँगी।” “ तू भी एक ब्वाय फ्रेंड बना ले।” नूरी ने मज़ाक किया। “ न-न। हमसे यह कभी नहीं होगा।” “ अरे, पगली। मैंने तो मज़ाक किया, पर शायद कभी यह सच भी हो जाए।” अचानक एक दिन रॉबिन एक प्रस्ताव लेकर निकिता के पास आया- ‘कॉलेज के फंक्शन में आपको गीत गाना है।” “ नहीं, मेरे लिए यह पॉसिबिल नहीं है।” “ देखिए, ये मेरी ही रिक्वेस्ट नहीं है ,बहुतों की फ़र्माइश है।' “ मुझे परमीशन नहीं मिलेगी और मेरी हिम्मत भी नहीं है। मैं नहीं गा सकती।” “ परमीशन की बता मुझ पर छोड़ दीजिए। यह कॉलेज आपका है, इसके प्रोग्राम में भागलेना आपका फ़र्ज है। हिम्मत दिलाने के लिए मैं आपके साथ हूँ।” निकिता का जवाब सुनेबिना रॉबिन चला गया। उसी शाम रॉबिन को अपने घर आया देख, निकिता चौंक गई। थोड़े शब्दों में अपनी बातकहकर रॉबिन ने निकिता के लिए चाचा की परमी्शन पा ली। “ यह तो बड़ी खुशी की बात है, हमारी निक्की इतनी अच्छी सिंगर है। इसी बहाने हमें भीइसका गीत सुनने को मिल जाएगा, क्यों निक्की बेटी?” चाचा ��े चेहरे पर सच्ची खुशीथी। उस दिन देर रात तक निकिता सो नहीं सकी। क्या वह उतने लोगों के सामने गा सकेगी?कौन-सा गीत पसंद किया जाएगा। निकिता के सोच में मोटरबाइक रूकने के शोर ने बाधाडाल दी। हमेशा की तरह मिनी, जेम्स की बांहों के सहारे लड़खड़ाती घर की ओर आ रहीथी। निकिता ने सोचा, बहन होने के नाते उसे मिनी को रोकना चाहिए। सुबह मिनी से बातकरने का नि्श्चय कर निकिता सो गई। चाचा और लिलियन के जाने के बाद निकिता मिनी के कमरे में गई। मिनी मेकअप कररही थी। शीशे में निकिता का प्रतिबिंब देख, उसके माथे पर बल पड़ गए- “ तुम मेरे कमरे में क्या कर रही हो?” “ मिनी, मैं तुमसे कहना चाहती हूँ, जेम्स का साथ छोड़ दो। वह अच्छा लड़का नहीं है।” “ हाउ डेयर यू एडवाइज मी? शायद तुम्हें मेरा ब्वाय-फ्रेंड देखकर जलन हो रही है। “ सुना है, जेम्स कई लड़कियों की जि़ंदगी बर्बाद कर चुका है। मैं तुम्हारी बहन हूँ इसीलिए- - -‘ “ तुम मेरी कोई नहीं हो। ख़बरदार, जो मेरी लाइफ़ में दखलअंदाजी की कोशिश की।अपनी औक़ात में रहो। मेरे डैडी की मर्सी पर मज़े उड़ा रही हो। आई हेट यू। नाउ, गेटआउट।” अपमान से निकिता की आँखें छलछला आईं। उसी रात धीमी आवाज़ में चाचा से कहा- “ चाचा, अपने इंडिया में जो पैसे मेरे नाम पर रखे हैं, आप ले लीजिए।” “ क्यों, बेटी?” चाचा चैंक गए। “ मेरी पढ़ाई पर आपके बहुत पैसे खर्च हो रहे हैं- -” “ किसी ने तुझसे कुछ कहा है, निक्की।” “ नहीं, मैंने खुद सोचा है, चाचा।” “ एक बात समझ ले, तू मेरे लिए मिनी से कम नहीं है। भाई साहब ने मुझे बेटे की तरहप्यार दिया है। आज मैं जो भी हूँ, भाई साहब की देन हूँ। फिर कभी ऐसी बात सोचने कीग़लती मत करना, निक्की। “ जी, चाचा। अब ऐसी गलती नहीं करूँगी।” “ तो इस ग़लती के बदले में मुझे अपने हाथ से बनाकर अपने घर वाला खाना खिलाएगी?घर की रोटी दाल खाए बहुत लंबा समय बीत गया है।” चाचा ने लम्बी सांस भरी। “ आपको वो खाना अच्छा लगता है, चाचा? हम ज़रूर बनाएँगे। दादी ने हमें खाना बनानासिखाया है।” खुशी से निकिता का चेहरा चमक उठा। “ एक बात ध्यान में रखना। मेरे लिए खाना लिलियन की अनुपस्थिति में ही बनाना।” “ ठीक है, चाचा।” निकिता जानती थी, लिलियन को कोई भी हिन्दुस्तानी चीज़ पसंदनहीं आती। लिलियन की ग़ैर हाजि़री में निकिता ने चाचा की मनपंसद डिशेज़ बनाकर चाचा कोचमत्कृत कर दिया- “ तू तो सचमुच इंडियन कुकिंग में एक्सपर्ट है, निक्की। काश मिनी तुझसे कुछ सीखपाती, पर उसकी तो ट्रेनिंग ही ग़लत है। कभी सोचता हूँ, इंग्लैंड आना मेरी ग़लती थी।” “ आप परेशान न हों, सब ठीक हो जाएगा।” निकिता ने तसल्ली-सी दी। कॉलेज में पढ़ाई के साथ वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ ज़ोर शोर से चल रही थीं। रॉबिन केगिटार और आकेस्ट्रा के साथ निकिता को अपने गीत का रिहर्सल करना ज़रूरी था। कईबार रॉबिन की मुग्ध दृष्टि, निकिता की नज़रों से टकरा जाती। एक दिन रॉबिन पूछ बैठा, “ निकिता मैं आपसे इंडियन म्यूजि़क सीखना चाहता हूँ। वादा करता हूँ, बहुत अच्छास्टूडेंट साबित होऊँगा।” “ मैं अपने को इस लायक नहीं समझती। अपने लिए अच्छा गुरू ढूँढ़ लीजिए।” “ मेरे लिए आपसे अच्छा कोई और टीचर हो ही नहीं सकता। प्लीज मुझे अपना शिष्यबना लीजिए।” निकिता के मौन पर रॉबिन ने फिर अनुनय की- “ मैं जानता हूँ, मैं बदनाम स्टूडेंट हूँ, पर यकीन कीजिए मैं इतना खराब इंसान नहीं हूँ।क्या आप मुझे अपनी संगीत-कला से वंचित रखेंगी? यह मेरे लिए बहुत बड़ी सजा होगी,निकिता। शायद मैं इतनी बड़ी सज़ा लायक नहीं हूँ।” “ अभी मैं कुछ नहीं कह सकती। चाचा से बात करने के बाद ही निर्णय ले सकूँगी।” “ थैंक्स। मेरे लिए इतना ही काफ़ी है।” वार्षिकोत्सव में निकिता के गीत की सबसे प्रशंसा की। चाचा का मुख गर्व से चमक उठा।स्रॉबिन की पीठ थपथपा स्नेह से कहा- “ रॉबिन, तुम्हारी वजह से हम निकिता का यह गुण जान सके, वर्ना निकिता तो घर मेंगुनगुनाती भी नहीं है। थैंक्स।” “ तब तो मैं इनाम का हकदार हूँ, अंकल।” सहास्य रॉबिन ने कहा। “ ज़रूर। बोलो क्या चाहिए?” “ मैं निकिता से इंडियन म्यूजि़क सीखना चाहता हूँ, प्लीज आप उसे परमीशन देदीजिए।” “ मुझे कोई ऑब्जेक्शन नहीं है। तुम निकिता को तैयार कर लो। वह थोड़ी संकोची लड़कीहै।” “ वो आप मुझ पर छोड़ दीजिए।” रॉबिन की जि़द के आगे निकिता को हार माननी ही पड़ी। समस्या स्थान की थी। चाचा केघर संगीत सिखाने की बात ही असंभव थी। रॉबिन ने अपने घर संगीत सीखने का प्रस्तावरख दिया निकिता के संकोच पर लिलियन ने कहा- ‘रॉबिन के घर में ही म्यूजि़क क्लास ठीक रहेगा। हमें अपने घर में इंडियन-म्यूजि़क झेलनाकठिन है। वैसे भी तुम्हारी उम्र की लड़की का कोई ब्वाय-फ्रेंड न होना शर्मनाक स्थिति है।रॉबिन के साथ कम से कम यहाँ के तरीके़ तो सीख लोगी। हाँ म्यूजि़क-टीचिंग के लिएउसके साथ फ़ीस तय कर लेना।” संगीत-सिखाने के लिए फ़ीस लेना, निकिता को स्वीकार नहीं था। रॉबिन के प्रस्ताव परउसने स्पष्ट कह दिया- “ संगीत एक कला है। कला को बेचना मुझे स्वीकार नहीं है। अगर मुझे पैसे देना चाहोगे तोमैं तुम्हें संगीत नहीं सिखा सकती।” निकिता के उत्तर ने रॉबिन को फिर विस्मित कर दिया। निकिता ड्राइव नहीं करती थी।उसे घर से ले जाने और पहुँचाने का दायित्व रॉबिन ने ले किया। नियत दिन रॉबिन के स्टूडियोनुमा फ्लैट में पहुँच निकिता ने चारों ओर दृष्टि डाली थी।एक बेडरूम वाला स्टूडियो रूम काफ़ी सुव्यवस्थित था। “ वाह! एक बेचलर का इतना साफ़-सजा रूम सोचा नहीं जा सकता।” निकिता मुस्करारही थी। “ इन फ़ैक्ट, आज मेरी टीचर आने वाले थी, इसीलिए ज़रा सफ़ाई कर डाली। अगर कोईअचानक आ जाए तब असलियत पता लगेगी।” रॉबिन ने सच्चाई से कहा। “ अरे वाह! यहाँ तो तानपुरा भी है।” तानपुरा देख, निकिता खुश हो गई। “ हाँ, पापा अच्छे गायक हैं। तानपुरे के तार जब बेसुरे हो गए, पापा ने तानपुरा मुझे देदिया।” रॉबिन उदास हो गया। “ बेसुरे तारों केा सुर में लाया जा सकता है, रॉबिन। कभी अपने पापा-मम्मी से नहींमिलते?” मिलकर क्या करूँगा? दोनों ने अपनी-अपनी दुनिया बसा ली है। मेरे लिए कहीं जगह नहींहै।” “ सॉरी, रॉबिन।” “ मेरे लिए दुख करने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ की जिंदगी के लिए यह कोई नई बात नहींहै। चलें आज का पाठ शुरू करें। एक श्लोक से पाठ शुरू करने की इजाज़त चाहूँगा। श्लोक कीग़लतियों के लिए माफ कीजिएगा, ठीक याद नहीं रहा है।” “ गुरू बह्माः, गुरूः विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वरः गुरूः साक्षात परमेष्वरः, तस्मै श्रीगुरूवे नमः।” निकिता को हाथ जोड़कर प्रणाम कर, रॉबिन ने सहास्य पूछा- “ मेरे श्लोक में ग़लतियाँ थीं, गुरूदेवी?” “ सच्चे मन से जो बात ही जाए, उसकी सारी ग़लतियाँ क्षमा होती हैं रॉबिन। मैं टीचर नहीं,तुम्हारी मित्र बनी रहना चाहूँगी।” “ ओ.के.डन। तब हमारे बीच आपका रिश्ता नहीं रहेगा। हम एक-दूसरे को तुम कह सकतेहैं?” “ मुझे अच्छा लगेगा।” निक्की हँस पड़ी। तानुपरे के तार सुर में मिलाकर निकिता ने सरगम शुरू की। रॉबिन सरगम दोहरता गया।कुछ ही देर में वातावरण संगीतमय हो गया। वह दिन निकिता का बहुत अच्छा बीता।पहली बार उस रात निकिता गुनगुना उठी। मिनी का रात देर से आने के टेंशन भी भूलकर,आराम से सो गई। निकिता को रॉबिन के घर संगीत सिखाने जाने की उत्सुकता रहने लगी। रॉबिन औरसंगीत के साथ कुछ समय के लिए वह मिनी और लिलियन की अपमानजनक बातें भूलजाती। संगीत का पाठ समाप्त हो जाने के बाद रॉबिन दोनों के लिए चाय बनाता। पहलेदिन उसने नाटकीय अंदाज़ में कहा था- “ टीचर को फ़ीस लेना मंजूर नहीं है, पर शिष्यकी बनाई चाय तो स्वीकार की जाएगी?” रॉबिन की चाय का मज़ा ही दूसरा होता। चाय पीते हुए दोनों अपने-अपने सुख-दुख कीबातें करते। दोनों के बीच की दूरियाँ कम हो चली थीं। रॉबिन ने स्पष्ट बताया था- “ पापा-मम्मी के अलग हो जाने के बाद मैं भटक गया था। कुछ लड़कियों ने मेरा फ़ायदाउठाया। दोस्ती का वास्ता देकर उन्होने मूर्ख बनाया। आज उन ग़लतियों के लिए बहुतपछतावा है।” निकिता को याद आया, नूरी ने उससे कहा था- “ रॉबिन से दूर ही रहना। वह ग़लत राह पर भटक रहा है।” निकिता को चुप देख रॉबिन जैसे डर गया- “ मुझसे नाराज़ हो, निकिता। मुझसे नफ़रत तो नहीं करोगी? तुम्हारी नफ़रत नहीं रहसकूँगा।” “ नहीं, रॉबिन। हम दोस्त हैं। मैं जानती हूँ, ग़लती इंसान ही करता है। गलतियाँ मानकरउन्हें फिर न दोहराने से गलतियाँ अपराध नहीं बनतीं। वादा करो, अब कभी ग़लत राह परनहीं भटकोगे। “ मेरा वादा है, निक्की। तुम मेर�� जिंदगी में पहले क्यों नहीं आईं, निक्की?” “ क्योंकि मैं पहले इंग्लैण्ड में नहीं, भारत में रहती थी।” निकिता ने हँसते हुए कहा। “ सच, न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहा। कहीं शांति नहीं मिली, पर तुम्हारे साथ इतनीशांति और खुशी मिलती है जिसे , मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। निक्की, तुम सब��ेइतनी अलग क्यों हो? एक वादा तुम्हें भी करना होगा।“ “ कैसा वादा, रॉबिन?” निकिता जैसे चौंक गई। “ तुम कभी मेरी जिंदगी से दूर नहीं जाओगी। हमेशा मेरा साथ दोगी, कभी भटकने कोनहीं छोड़ोगी? वादा करो, निक्की........।” निकिता चुप रह गई। उस वादे का अर्थ वह समझ रही थी, पर वादा करने का साहस नहींथा उसमें। वह स्वतन्त्र निर्णय कैसे ले सकती थी? वह चाचा पर आश्रित है, यह सत्य कैसेभूल सकती थी। उसे चुप देख, रॉबिन ने कहा- “ अगर मैंने कुछ गलत कह दिया तो माफ़ कर देना। मैं अपने पर नियंत्रण नहीं रखसका...���ॉरी।” न जाने कब और कैसे निकिता रॉबिन के लिए निक्की बन गई थी, दोनों ही नहीं जानसके। “ इट्स ओ.के. रॉबिन। दोस्त की ग़लती को माफ़ी ज़रूर मिलनी चाहिए।” “ थैंक्स, निक्की, पर मैं इसे अपनी गलती नहीं मानता। यह मेरे दिल की आवाज़ है।” उस रात निकिता बहुत बेचैन रही। रॉबिन की बातें उसे परेशान कर रही थीं। नूरी अपनेनिकाह के लिए अपने वतन जा चुकी थी। ऐसा कोई नहीं था, जिसके साथ निकिता अपनेमन की बात शेयर कर सकती। एक सच वह जान गई थी, रॉबिन के साथ वह खुश रहती,उसका साथ उसकी जरूरत बन गया था। क्या रॉबिन भी वैसा ही महसूस करता है, परक्या उन दोनों का साथ संभव हो सकता है? उधेड़बुन में सोई निकिता की नींद चाचा कीक्रोध भरी आवाज से टूटी थी- “ देख लिया, तुम्हारी आज़ादी का क्या नतीजा निकला। न जाने किसका पाप पाल रही हैतुम्हारी लाड़ली।” “ क्यों चिल्लाकर दुनिया भर में ढि़ंढोरा पीट रहे हो। ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। कल हीडॉक्टर से मिलकर इस मुसीबत से छुटकारा दिला दूँगी।” लिलियन ने नाराज़गी से कहा। “ कैसी माँ हो, बेटी की ग़लती पर सज़ा देने की जगह उसकी हिमायत कर रही हो?” “ इस उम्र में ऐसी गलती हो जाना नामुमकिन नहीं है। तुम चुप हो जाओ, मैं सम्हाल लूँगी।एक बात और, मिनी को डांटना नहीं वर्ना वह घर छोड़कर जा सकती है।” लिलियन की बातों ने निकिता को ताज्जुब में डाल दिया। भारत में ऐसी घटना पूरे परिवारके लिए अभिशाप बन जाती है। चाचा की बेबसी पर निकिता को तरस आ रहा था, पर वहउनकी सहायता नहीं कर सकती थी। शाम की संगीत-कक्षा में निकिता के चेहरे पर उदासी स्पष्ट थी। रॉबिन पूछ बैठा- “ आज तो तुम्हें खुश होना चाहिए, सेमेस्टर में तुम्हें इतने अच्छे नम्बर मिले हैं, पर तुमउदास दिख रही हो। क्या घर में कोई प्रॉब्लेम है, निक्की?” “ नहीं, कोई खास बात नहीं है।” आज सेमेस्टर के रिज़ल्ट के बाद प्रोफे़सर ने क्लास मेंउसकी तारीफ़ की थी, पर घर में चाचा की परेशानी देख, उन्हें बताने की हिम्मत नहीं करसकी। “ इतने दिनों में तुम्हारा चेहरा देख, तुम्हारे मन की बात पढ़ सकता हूँ। सच कहो, क्याहुआ। दोस्त को तुम्हारी प्रॉबलेम जानने का हक़ है, न?” रॉबिन की आवाज़ में उसके लिए कंसर्न था। हल्की आवाज़ में मिनी के बारे में बता गई। “ तुम्हारे लिए यह एक सीरियस बात है, निक्की, पर यहाँ के समाज में सिंगल मदर एकसामान्य बात है। उन्हें नीची दृष्टि से नहीं देखा जाता। कभी-कभी तो तेरह-चैदह साल कीलडकी को माँ बनी देख सकती हो। तुम बहुत अलग तरह की लड़की हो। तुम्हारी इसीइनोसेंस ने मेरा मन जीत लिया है, निक्की। रॉबिन के साथ बातें करके निक्की का मन हल्का हो गया।शायद कुछ समय बाद वह भीइन बातों पर ध्यान न दे। रॉबिन और नूरी उसे दो अच्छे मित्र मिले हैं, पता नहीं निकाह केबाद नूरी कब वापस आएगी। उसे नूरी को बताना है, रॉबिन अच्छा लड़का है। उसके बारे मेंनूरी की ग़लत धारणा है। निकाह के लिए जाने के पहले उसने निकिता को समझाया था-‘ ‘तुम रॉबिन के साथ ज़्यादा ही घुलमिल रही हो। मुझे डर है, तुम धोखा न खा बैठो।” “ यकीन करो, नूरी, ऐसा कुछ नहीं है। रॉबिन को संगीत से प्यार है। वह संगीत सीरियसलीसीख रहा है।” “ ठीक है, मेरा काम तुम्हें समझाना था, आगे तुम्हारी मर्ज़ी। अपने भोलेपन का किसी कोफ़ायदा मत उठाने देना, निक्की।” इतने दिनों में निकिता रॉबिन पर पूरा विश्वास करने लगी थी। चाह कर भी उससे दूर रहनेकी बात भी नहीं सोच पाती। एक वही तो है, जिससे वह दिल खोलकर बातें कर पाती है। घर मेंस डॉक्टर की मदद से अपनी मुश्किल से छुटकारा पाकर मिनी खुश थी। चाचा नेचाहा, मिनी उस इंसान से शादी कर ले, जिसने उसे यह अनचाही सोगात दी थी। बातसुनते ही मिनी हंस पड़ी।” “ उसके साथ शादी? व्हॉट नॉनसेंस, डैडी। वह तो मेरा पास टाइम था। मैं अभी आज़ादी कीजि़ंदगी का मज़ा लेना चाहती हूँ।” लिलियन को लगता, मिनी कमज़ोर हो गई है। उसे एक-दो महीनों के लिए किसीशांत-खुली जगह में ले जाना चाहिए। लिलियन की जि़द पर चाचा ने एक महीने की छुट्टीले ली। निकिता क्लासेज़ मिस नहीं करना चाहती थी। अगले सेमेस्टर में भी वह अच्छेनम्बर लेने को दृढ़ संकल्प थी। समस्या का हल लिलियन ने कर दिया- “ निकिता बच्ची नहीं है। अपना ख़्याल रख सकती है। वैसे भी रॉबिन तो है ही। कोईज़रूरत होने पर वह मैनेज कर सकता है।” रॉबिन ने खुशी-खुशी वो जि़म्मेदारी लेकर चाचा को चिंता-मुक्त कर दिया- “ डोंट वरी अंकल। लिलियन इज़ राइट, निकिता अब मेरी रिसपांसिबिलिटी है। आपआराम से जाइए।” “ थैंक्स, रॉबिन।” सबके जाने के बाद रॉबिन का अधिकांश खाली समय निकिता के साथ बीतता। निकिताकी बनाई इंडियन डिषेज उसे अपने पापा की याद दिला देते। “पापा की हिन्दुस्तानी खाना बेहद पसंद था। अक्सर छुट्टी के दिन वह मेरी मदद सेहिन्दुस्तानी खाना बनाते थे।त तुम्हारे हाथ का खाना खाकर पापा बहुत खुश होते,निक्की।” “ उन्हें एक दिन लंच के लिए इन्वाइट कर लो, रॉबिन। मुझे खुशी होगी।” “ अब वह पॉसिबिल नहीं है, हम दोनों बहुत दूर हो चुके हैं।” “ दूरियाँ पाटी भी तो जा सकती है, रॉबिन। किसी को बस पहल करनी होती है।” “ हम इस टॉपिक पर बात नहीं करेंगे, निक्की।” रूखी आवाज़ में अपनी बात कहकररॉबिन ने निक्की को चुप करा दिया। निक्की सोच में पड़ गई, न जाने क्या बात रही होगी जिसने रॉबिन के मन में इतनीकड़वाहट भर दी। अपनी मम्मी-पापा को लेकर रॉबिन जितना ही रूखा था, निक्की केलिए उतना ही मीठा था। उसके चेहरे पर ज़रा-सी थकान दिखती तो अपने को अपराधीमान बैठता- “ मेरी संगीत-साधना तुम्हें थका देती है कॉलेज की पढ़ाई ही कम नहीं है, उस पर हरसेमेस्टर में अच्छे मार्क्स लाना तुम्हारी जि़द रहती है।” “ पढ़ाई तो तुम भी करते हो, रॉबिन।” ? “ मेरा क्या? रिसर्च-वर्क एकाध साल ज़्यादा चल सकता है। थीसिस सबमिट कर ही लूँगा।हेड की कृपा से जॉब मिलना भी पक्का है।” मज़ाकिया अंदाज़ में रॉबिन ने कहा। “ तुम खुद इतने काबिल हो, हमेशा फ़र्स्ट पोज़ीशन रही है। तुम्हें किसी की कृपा की क्याज़रूरत है।” निकिता ने सच्चाई से कहा। “ थैंक्स, निक्की। मुझे तुम्हारी फि़क्र रहती है।” “ तुम मेरी इतनी पर्वाह क्यों करते हो, रॉबिन?” “ तुम्हारी केयर लेने वाला दूसरा कौन है, निक्की?” रॉबिन की आवाज़ में प्यार ही प्यार छलक रहा था। घर खाली होने की वजह से रॉबिन कीसंगीत कक्षा निकिता के घर में ही चल रही थी। एक दिन मीरा का भजन गाती निकिता सेरॉबिन एक अजीब अनुरोध कर बैठा- “ निक्की प्लीज। आज मेरी एक बात माननी होगी।” “ कौन सी बात, रॉबिन।” “ पहले वादा करो, मानोगी।” “ अगर मानने लायक बात हुई तो ज़रूर मानूँगी। “ आज मीरा बनकर नृत्य करना होगा।” “ क्या- - आ? नहीं, यह संभव नहीं है।” “ यह न मानने वाली बात तो नहीं है, निक्की। मैं जानता हूँ, तुम्हें नृत्य के लिए कईपुरस्कार मिले हैं। प्लीज........।” रॉबिन की आवाज़ में न जाने क्या था, निकिता घुंघरूबाँध उठ खड़ी हुई......... . “ पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे..........ं।” मंत्र-मुग्ध रॉबिन निकिता को एकटक निहारता रह गया। “ तुमने मीरा को साकार कर दिया, निक्की।” “ तुम मीरा को जानते हो, रॉबिन?” “ हाँ, पापा बताया करते, कैसी वह प्रेम-दीवानी थी। काश, मैं कृष्ण बन पाता।” रॉबिन कीअनुराग भरी दृष्टि ने निकिता का गोरा चेहरा लाल कर दिया। “ आज की मीरा हमेशा याद रहेगी। थैंक्स, निक्की।” कॉलेज की नोटिस-बोर्ड पर अपील लगी थी- “ फ़ाइनल इअर का जॉनसन सीरियस कंडीषन में हॉस्पीटल में एडमिट है। उसे बी-ने��ेटिवग्रुप का खून चाहिए। संपर्क करें।” “ रॉबिन, मेरा ब्लड ग्रुप बी नेगेटिव है। मुझे हॉस्पीटल पहुँचा दो, प्लीज।” “ सोच लो, अंकल यहाँ नहीं है, क्या उनकी परमीशन के बिना ब्लड देना ठीक होगा?’रॉबिन ने सलाह दी। “ यह किसी की जान का सवाल है, रॉबिन मैं जानती हूँ, मेरे इस फ़ैसले से चाचा खुश होंगे।चलो, देर हो रही है।” निकिता उतावली थी। हॉस्पीटल में तीन लड़के खून देने पहुँचे हुए थे। निकिता के साथ उनके भी खून के नमूनेजांच के लिए ले लिए गए। कुछ देर बाद एक-एक करके लड़कों को ब्लड-डोनेट करने केलिए बुला लिया गया। निकिता को अपनी बारी का इंतजार था। नर्स ने आकर कहा- “ आपको डॉक्टर ने केबिन में बुलाया है।” “ अपने फ़ादर के साथ मुझसे मिलो।” डॉक्टर गंभीर थे। “ मेरे फ़ादर-मदर नहीं हैं। मैं अपने अंकल के साथ रहती हूँ।” “ तो अंकल को साथ लाकर मिलो।” “ क्यों, डॉक्टर? मेरे अंकल ब्लड देने की परमीशन जरूर देंगे। प्लीज़ मेरा खून लेलीजिए।” निकिता ने अनुनय की। “ सॉरी, तुम्हारा खून नहीं दिया जा सकता।” “ क्या बात है, डॉक्टर? मुझसे कुछ छिपाइए नहीं।” “ तुम अकेली आई हो, अभी कुछ बताना ठीक नहीं होगा।” “ नहीं, डॉक्टर। मैंने जिंदगी में बहुत दुख देखे हैं। सच कहिए, आखिर बात क्या है। मैं कुछभी सह सकती हूँ।” “ एक बात सच-सच बताना, क्या तुमने कभी किसी के साथ शारीरिक-सम्बन्ध बनाए हैं?” “ नहीं, नहीं, कभी नहीं। ऐसी बात तो सोचना भी पाप है। ऐसा सवाल क्यों पूछ रहे हैं,डॉक्टर?” निकिता डर सी गई। “ क्या कभी तुम्हें खून दिए जाने की ज़रूरत पड़ी थी?” “ जी, हाँ, डॉक्टर। चार-पांच साल पहले दादी के साथ उनके गाँव गई थी। सीढ़ी से पथरीलीज़मीन पर गिरने की वजह से सिर से बहुत खून बह गया था। छोटी सी डिस्पेंसरी में खूनचढाया गया था। दादी ने बताया था बड़ी मुश्किल से एक आदमी का खून मैच कर सकाथा। अगर उस वक्त खून न मिलता तो शायद मैं आज जीवित न होती।” निकिता नेसच-सच बताया। “ ओह तो शायद उसी ब्लड ट्रांसफ़्यूजन के कारण यह हुआ।” “ क्या हुआ, डॉक्टर, प्लीज बताइए।” निकिता अब चिंतित थी। “ तुम्हारे खून में एच.आई.वी के विषाणु मौजूद मिले हैं।” “ क्या.......आ? इसका मतलब है एड्स की शिकार हो जाऊँगी। नहीं, यह सच नहीं होसकता। अब मैं क्या करूँगी, डॉक्टर?” निकिता की स्थिति दयनीय हो आई। “ घबराओं नहीं, मैंने पहले ही कहा था, यह सच तुम अकेले नहीं सह पाओगी। वैसेआजकल मेडिकल साइंस बहुत एडवांस हो गई है। एड्स कैंसर की तरह ही एक गंभीर रोगहै, हिम्मत रखो। दवाइयों के साथ तुम लंबे समय तक सामान्य जिंदगी जी सकोगी।डॉक्टर स्टीवेन्सन मेरे अच्छे दोस्त हैं। मैं लेटर दे दूँगा, वह तुम्हें गाइड कर देंगे।” “ थैंक्स, डॉक्टर।” किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से निकिता। बाहर आ गई। “ क्या हुआ, निक्की? सब ठीक तो है, डाक्टर ने क्यों बुलाया था?” रॉबिन प्रतीक्षा में खड़ाथा। “ कुछ भी ठीक नहीं है, सब खत्म हो गया, रॉबिन, मुझे घर ले चलो।” “ आखिर बात क्या है, तुम परेशान क्यों हो?” “ मैं एच आई वी पॉज़ीटिव हूँ, रॉबिन। मेरे खून में एड्स के विषाणु मिले हैं।” निकिताफूट-फूट कर रो पड़ी। “ क्या कह रही हो? यह कैसे हो सकता है। तुम जैसी लड़की कोई ग़लती कर ही नहींसकती।” रॉबिन परेशान सा दिखा। “ तुम भी ऐसा ही सोच रहे हो? यह सच नहीं है, रॉबिन।” “ मैं तुम्हारे बारे में कभी ग़लत नहीं सोच सकता। तुम्हें तो अपने से ज़्यादा जानता हूँ,निक्की। इसीलिए- - “ “ डॉक्टर ने बताया है ब्लड-ट्रांसफ़्यूजन की वजह से मेरे रक्त में एच.आई.वी.विषाणु आ गएहैं।” आँसूभरी आँखों के साथ निकिता पूरी बात बता गई। “ इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है, निक्की। परेशान मत हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ, न।” “ नहीं, रॉबिन, मैं जानती हूँ, तुम भी मेरा साथ छोड़ दोगे। मैं कैसे जी सकूँगी।” निकिताफिर रो पड़ी। “ यह क्या कह रही हो, निक्की? क्या मैं कभी तुमसे दूर हो सकता हूँ? तुम तो मेरा जीवनहो।” सच्चे मन से रॉबिन ने तसल्ली देनी चाही।” “ मैं सच्चाई जानती हूँ, रॉबिन। अब तो चाचा भी शायद अपने घर में जगह न दें। मेरे लिएकहीं जगह नहीं।” “ ये क्या कह रही हो, निक्की। एड्स कोई छूत की चीज़ नहीं है। मेरे घर में हमेशा तुम्हारास्वागत है, निक्की। चलो अभी वहीं चलते हैं।” घर पहुँच रॉबिन ने काफी बनाई थी। आज काफ़ी गले से नीचे उतारना निकिता को कठिनलग रहा था। “ हैव करेज, निक्की। चलो, आज अपने हाथ से कोई स्पेशल डिश बनाकर खिलानी होगी।इतनी देर से भूखा-प्यासा तुम्हारी सेवा में लगा हुआ हूँ।” रॉबिन ने परिहास किया। “ आज माफ़ करो, रॉबिन। कुछ नहीं कर पाऊँगी।” रूंधी आवाज़ में निकिता बोली। “ ठीक है, तब मैं ही सैंडविचेज़ बनाता हूँ। रात होती जा रही है। अनजान इंसान के साथ देररात तक रहना, इस इंडियन ब्यूटी के लिए ठीक नहीं है। कहीं मेरा दिल मचल गया तोमुश्किल होगी।” “ छिः रॉबिन, अब तो मैं किसी के स्पर्श लायक भी नहीं बची हूँ। अपराधिन बन गई हूँ मै।” “ जिस बात के लिए तुम जि़म्मेदार नहीं हो, उसके लिए अपने को दोषी ठहराना ग़लत है।फिर कभी ऐसी बात मत करना।” निकिता को घर छोड़, सुबह जल्दी आने का वादा कर रॉबिन चला गया। पूरी रात बेचैनी सेकरवटें बदलती निकिता सोचती रही, अगर रॉबिन सुबह नहीं आया तो? शायद सुबह ही निकिता की आँख लगी थी कि डोर-बेल बज उठी- “ रॉबिन, तुम?” निकिता विश्वास नहीं कर पा रही थी। “ क्यों, क्या जल्दी आ गया? मिज़ निकिता, सुबह के आठ बज रहे हैं। आज कॉलेज नहींजाना है?” “ नहीं, मैं वापस इंडिया जा रही हूँ।” “ अरे वाह। दोस्त की परमीशन लिए बिना इंडिया जाने का प्रोग्राम बना डाला।” “ इसके सिवा कोई और रास्ता भी नहीं है, रॉबिन।” “ सच तो यह है, निक्की, मैं भी पूरी रात नहीं सो सका। हाँ। बहुत सोचने के बाद एक पक्काफैसला लिया है।” “ पक्का फ़ैसला?” “ हाँ, अभी तक हम दोस्त थे, अब मैं तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाना चाहता हूँ। बोलो,तुम्हे मेरी पत्नी बनना मंजूर है या नहीं? एक बात, जवाब हाँ में होना चाहिए वर्नाभूख-हड़ताल के साथ धरना देकर जान दे डालूँगा।” “ सब कुछ जानकर भी यह क्या कह रहे हो। मुझे तुम्हारी दया नहीं, दोस्ती चाहिए।” “ यह दया नहीं, मेरी जि़ंदगी का सच है। तुमने मुझे एक नया इंसान बनाया है। मेरीजिंदगी तुम्हारी देन है। तुम्हारे बिना मैं नहीं रह सकता। अब फिर भटकने की हिम्मतनहीं है, निक्की।” “ मुझसे शादी करने का मतलब जानते हो, रॉबिन?” “ अच्छी तरह से जानता हूँ, निक्की। पति-पत्नी का सम्बन्ध सिर्फ़ शरीर से नहीं, मन सेहोता है। मुझे यकीन है, मेरा प्यार तुम्हें जीने को मजबूर कर देगा। मैं तुम्हें दुनिया की हरखुशी दूँगा। “ लेकिन मैं तुम्हें क्या दे पाऊँगी, रॉबिन?” “ प्यार-ढेर सा प्यार। मेरी जिंदगी में बस इसी प्यार की कमी है। जितने दिन हम साथरहेंगे, हर लमहा हम दोनों के प्यार से सराबोर होगा।” “ तुम्हारी जि़ंदगी कैसे बर्बाद होने दे सकती हूँ, रॉबिन?” “ मुझे छोड़कर गई तो मेरी जिंदगी जरूर बर्बाद हो जाएगी। मैं फिर उन्हीं गलतियों कासाथी बन जाऊँगा। फ़ैसला तुम्हें लेना है, मेरी बर्बादी या तुम्हारे साथ सुकून-भरी जिंदगी।” “ ऐसे दोराहे पर मत खड़ा करो, रॉबिन।” “ मुझ पर विश्वास करती हो, निक्की?” “ अपने से भी ज़्यादा रॉबिन।” “ तो मेरी बताई राह चुन लो, निक्की।” “ तुम्हारे विश्वास पर विश्वास कर रही हूँ, रॉबिन। कभी अकेला तो नहीं छोड़ोग?” भीगेस्वर में निकिता ने पूछा। आगे बढ़कर निकिता की भीगी आँखों को चूम, रॉबिन ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। Written by Indian national award winning author Dr. Pushpa Saxena
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इट्स माई लाइफ (HINDI STORY)
हाँलीडे रिसोर्ट के बाहर युवा पीढ़ी कुछ रंग जमाने के मूड में थी। पिछले दो दिनों की लगातार बारिश ने सबको अपने कमरों में कैद रहने को बाध्य कर दिया था। आज शाम आसमान खुलते ही लड़कों ने सूखी लकड़ियाँ जमा करनी शुरू कर दी थीं। आज रात जम कर कैम्प- फ़ायर चलेगा। उनके उत्साह से साथ आए प्रौढ़ भी उत्साहित हो चले थे। पहाड़ी मौसम का क्या ठिकाना, जब आकाश खुले मौज मना लो वर्ना फिर वही डिप्रेसिंग वेदर उन पर हावी हो जाएगा। कैम्प- फ़ायर की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। राँबिन ने जोरों से आवाज़ लगाई थी, ”हे, आँल आँफ़ यू कम आउट। लेट्स हैव म्यूजिक एण्ड डांस।“ रोहन ने म्यूजिक सिस्टम चालू कर दिया था। लड़के-लड़कियों और बच्चों ने संगीत पर झूम-झूमकर नाचना-गाना शुरू कर दिया । अचानक वो उदास शाम बहुत रंगीन हो उठी । बारिश से धुली प्रकृति बेहद खूबसूरत लगने लगी थी। राँबिन जैसे सबका चहेता हीरो बन गया था। प्रभुदेवा ��ी स्टाइल में नृत्य करते राँबिन ने जब जलती आग को पार किया तो बुजुर्गो ने डर से साँस रोक ली और युवा पीढ़ी ने जोरों से तालियाँ बजा, उसका अभिनंदन किया था। राँबिन को डांस करते देखना, सचमुच एक अनुभव था। आकर्षक व्यक्तित्व के साथ उसकी नृत्य मुद्राओं ने सबको विस्मय-विमुग्ध कर दिया था। ”अगर लड़के को फ़िल्म वाले देख लें तो तुरन्त ब्रेक मिल जाए। इसे तो फ़िल्म्स में ट्राई करना चाहिए।“ मिस्टर आजमानी ने राय दी थी। ”आप ठीक कह रहे हैं, मुझे तो डर है कहीं ये हमारी लड़कियों का मन न मोह ले। मुश्किल में पड़ जाएँगें सारे पापा लोग..........।“ रामदास जी की बात पर सब जोरों से हॅंस पड़े थे। उस पहाड़ी क्षेत्र का वह हाँलीडे रिसोर्ट न केवल देशी बल्कि विदेशी पर्यटकों के भी आर्कषण का केन्द्र था। शहर से दूर एकान्त में स्थित उस हालीडे रिसोर्ट मे पर्यट्कों के लिए सारी सुख.सुविधाएं उपलब्ध थीं। हेल्थ केयर सेंटर, मसाज ब्यूटी पार्लर, स्केटिंग और डांसिंग फ्लोर के अलावा रोज की ज़रूरतों के लिए छोटी-सी मार्केट भी थी। रिसोर्ट की अपनी अलग ही दुनिया थी। भीड़भाड़ से दूर, शांति की खोज में आए पर्यटकों के लिए वो हाँलीडे रिसोर्ट स्वर्ग ही था। युवा पीढ़ी ने सचमुच रंग जमा लिया था। राँबिन और उसके दोस्तों ने अपने रंग में बड़ो को भी शामिल कर लिया था। ”हे लिसिन एवरीबडी! डू यू नो हाऊ टु प्ले पिंक पायजामा?“ ”नही.....ई ........“ समवेत स्वर गूंजा था। ”ओ.के. मैं एक्सप्लेन करता हूँ। पहले सब एक सर्कल में आ जाइए। अंकल-आंटी, यंग फ्रेंड्स सबको घेरे में आना है। कम आँन एवरी बडी.........“ राँबिन की पुकार पर सब घेरे में सिमट आये थे। तभी राँबिन की दृष्टि कोने में सिमटी खडी निकिता पर पड़ी थी। सबके उस सर्कल में चले जाने पर अकेली छूट गई निकिता जैसे घबरा-सी रही थी। तेजी से निकिता के पास पहुँचे राँबिन ने उसका हाथ पकड़, घेरे में खींचना चाहा था। निकिता के प्रतिरोध पर राँबिन हॅंस पड़ा था- ”कम आँन बेबी, लेट्स एन्ज्वाँय। अपने ग़म भूल जाओ...............“ निकिता को सर्कल में शामिल कर राँबिन ने गेम समझाना शुरू किया था- ”हाँ तो ये गेम ऐसे है, आपको अपने नेक्स्ट पर्सन के कान में किसी फ़िल्म का नाम देना है, वह व्यक्ति अपने अगले पर्सन को किसी दूसरी फ़िल्म का नाम देगा। बस ऐसे ही करते जाना है, समझ गए?“ ”यस....।“ उत्साहपूर्ण स्वर उभरे थे। ”एक-दूसरे के कान में पिक्चर का नाम फुसफुसाते सर्कल पूरा हो गया था। अब? राँबिन ने समझाया था, ”गेम इज वेरी सिम्पल। आपको जिस फ़िल्म का नाम बताया गया है, उसके आगे "इन पिंक पायजामा" जोड़कर फ़िल्म का नाम बोलते जाइए। नाउ दिस यंग लेडी विल स्टार्ट......“ ”दिल देके देखो इन पिंक पायजामा.......... हॅंसी का दौर पड़ गया था। ”हम आपके हैं कौन, इन पिंक पायजामा...........“ अजीब समाँ बॅंध गया था, कुछ अजीबोगरीब नामों के साथ जुड़कर पिंक पायजामा बेहद सेक्सी बन गया था। निकिता की बारी आते ही मौन छा गया था। राँबिन उसके पास आया - ”हाय निकिता बेबी, बोलती क्यों नहीं?“ निकिता जैसे और सिमट गई थी। ”हे! व्हाँट इज राँग? तुम खेल समझ गई न?“ निकिता ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया था। ”फिर बोलती क्यों नहीं?“ निकिता फिर चुप रही। ”अगर तुम नहीं बोलोगी तो हम गेम यहीं खत्म करते हैं, तुम्हारे लिए सबका मज़ा खत्म हो जाएगा।“ निकिता के मौन पर सबको नाराज़गी थी। मम्मी की तो नाक ही कट गई। इस लड़की की वजह से उन्हें कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है! निकिता के कंधे जोर से दबा उन्होंने अपना गुस्सा उतारा था- ”यू सिली गर्ल, अगर दिमाग नहीं है तो गेम मे शामिल क्यों हुई? अब बोल भी दे..........“ फुसफसाहट में कहे गए मां के शब्द निकिता को आतंकित कर गए, घर पर रोज उनके निर्देश-डाँट सुनती निकिता, अब क्या चुप रह सकती थी। ”सैक्सी गर्ल इन पिंक पायजामा“ हॅंसी के फौव्वारे छूट गए थे। सबकी दृष्टि निकिता की पिंक सलवार पर पड़ गई थी। व्हाँट ए कोइंसीडेंस! डनकी हॅंसी पर हथेलियों में मुँह छिपा निकिता अपने काँटेज की ओर दौड़ गई थी। दूर तक लोगों की हॅंसी उसका पीछा करती रही थी। जब से मम्मी-पापा यू.के. से आए हैं, उसके शांत-स्थिर जीवन में व्यवधान पड़ गया था। दादी के संरक्षण में वह अपने को कितना सुरक्षित पाती थी।! बॅंधी-बॅंधाई दिनचर्या, रोज सुबह मंदिर में पूजा के बाद काँलेज जाना, शाम को दादी को रामायण पढ़कर सुनाना और रात में दादी से सटकर लेटी निकिता, गहरी नींद में डूब जाती। बाबा की मृत्यु पर आए मम्मी-पापा को दादी के एकान्तवास की चिन्ता थी। लाख कहने पर भी दादी लंदन जाने को तैयार नहीं हुई थीं। हाँ बेटे से ये जरूर कहा था, ”अगर मेरे अकेलेपन की इतनी ही चिन्ता है तो निक्की को छोड़ जा, मुझे देखने को घर के पुराने मुनीम जी और माली हैं ही, तुझे चिन्ता करने की जरूरत नही। ये पूरा कस्बा तेरे पिता का आभारी है।“ मम्मी ने राहत की साँस ली थी। दादी को साथ रखने में उन्हें कितनी असुविधाएँ झेलनी पड़तीं ! एक बार निकिता को छोड़ते मन हिचका था, पर पति ने समझाया था, ”वहाँ तुम्हारा इतना बिज़ी प्रोग्राम रहता है, तीन बच्चों में से एक यहाँ रह जाए तो कुछ बर्डेन कम होगा। माँ निक्की को अच्छी तरह देख सकती हैं। आखिर मैं भी तो उन्हीं की देखरेख में पला-बड़ा हुआ हूँ।“ पति की बातों में सच्चाई थी। वैसे भी अपने बच्चों में निकिता का सामान्य रंग-रूप, गौरी को अपने गोर-चिट्टे रंग का मज़ाक-सा उड़ाता ���गता था। दूसरे दोनों बच्चे मनोज और नेहा, उन्हीं पर गए थे। निकिता का साँवला रंग, उसकी ददसाल की देन था, शायद इसीलिए मम्मी को निकिता से कभी भी ज्यादा लगाव नही रहा। इस बार भारत आने पर उन्हें लगा, निकिता की साँवली काया खिल आई थी। शायद यह उसकी उम्र का तकाजा था। सोलह साल की उम्र में तो हर लड़की मोहक दिखती है, पर उसके तौर-तरीकों ने गौरी को परेशान कर डाला था। लम्बे बालों को कसकर दो चोटियों में गूंथ, बालों की शोभा ही नष्ट हो गई थी। सुबह-शाम पूजा-पाठ करने वाली लड़की से यू.के. का कौन लड़का शादी करेगा? रात में गौरी ने पति से कहा था, ”सुनो जी, इस बार निक्की को साथ ले जाना है, यहाँ रहकर यह निरी गॅंवार बन गई है।“ पत्नी की बात सुन निखिल परेशान हो उठे थे। कुछ ही दिनों में उन्होंने जान लिया था माँ और निक्की किस तरह एक-दूसरे से जुड़ गई थीं, उन्हें अलग करना, उनके प्रति अन्याय होगा। निकिता अब क्या लंदन के जीवन से साम्य बिठा सकेगी? पति को सोच में डूबा देख गौरी झुझॅंला उठी थी, ”क्या सोच रहे हो! लड़की की जिन्दगी यूं खराब नहीं की जा सकती, कुछ तो करना ही होगा।“ ”वही सोच रहा हूँ। ऐसा करते हैं हम सब किसी हिल स्टेशन पर चलते हैं, देखते हैं निक्की हमारे साथ रह सकेगी या नहीं।“ ”क्या मतलब? हमारी बेटी हमारे साथ नहीं रह पाएगी, आखिर हमारा खून है वो।“ ”तुमने देखा नहीं, माँ के साथ वह किस तरह जुड़ गई है। उन दोनों को अलग करना क्या आसान होगा?“ ”इसमें तुम्हारी ही ग़लती है, मैंने तो पहले ही कहा था, उसे यहाँ छोड़ना ग़लती थी।“ ”ठीक है, चलो इसी बहाने एक सप्ताह सब साथ एन्ज्वाँय कर लेंगे और मेरी बात की सच्चाई का भी टेस्ट हो जाएगा।“ अपने ही माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ निकिता अपने को बेहद अजनबी पाती थी। दादी के साथ सब कुछ कितना सहज और सामान्य-सा लगता था। गौरी उसकी आदतों से परेशान थी। बार-बार निर्देश देती, वह झुँझला उठती- ”हे भगवान, ये तो एकदम जाहिल बन गई है। हाथ से दाल-भात खाती, कैसी तो लगती है!“ डर कर निकिता चावल खाना छोड़, रोटी कुतरने लगती। मनोज और नेहा उसे कौतुक से देखते, क्या सचमुच वो उनकी बड़ी बहन थी? उसी निकिता को आज सबके सामने कैसे आशोभनीय शब्द दोहराने पड़े थे, ”सैक्सी गर्ल इन पिंक पायजामा।“ कमरे के पलंग पर औंधी पड़ी निकिता रोती जा रही थी, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई थी, ”मे आई कम इन..........“ निकिता घबरा उठी थी। जल्दी से आँसू पोंछ दरवाजा खोला था, सामने राँबिन खड़ा था। ”हे बेबी! व्हाँट इस दिस? आँसुओं में डूबी राजकुमारी, तुम्हें क्या तकलीफ़ है? क्या हुआ?“ राँबिन सचमुच कंसर्न दिख रहा था। राँबिन की सहानुभूति पर निकिता के आँसू फिर बह चले थे। आश्चर्य से राँबिन ने उसकी ठोढ़ी उठा कर फिर पूछा था, ”कम आँन! क्या हुआ, निकिता बेबी?“ ”कुछ नहीं..........“ ”फिर रोती क्यों हो?“ ”हमें ये सब गंदी बातें अच्छी नहीं लगतीं।“ राँबिन ठठाकर हॅंस पड़ा था। ”ओह गाँड! तुम खेल को सीरियसली लेती हो?“ ”खेल में ऐसी बातें कही जाती हैं? सब क्या सोचते होंगे?“ ”पागल......... सिम्पली मैड। अरे ये खेल है, कोई इन बातों को सीरियसली नहीं लेता। सच तो ये हैं तुम्हारी वहाँ से एबसेंस का भी किसी ने नोटिस नहीं लिया।“ ”फिर तुम यहाँ कैसे आए?“ ”क्योंकि मैंने तुम्हारी एबसेंस फील की थी, निक्की बेबी!“ अपनी बात खत्म करते राँबिन ने प्यार से निक्की के माथे पर झूल आई लट संवार दी । निकिता सिहर उठी । ”आर यू फ़ीलिंग कोल्ड?........“ निकिता ने नहीं में सिर हिलाया था। ”अच्छा तो आज से हम दोनों दोस्त हुए, बोलो मंजूर है?“ राँबिन ने अपनी हथेली खोल आगे बढ़ा दी थी। निकिता उस खुले हाथ पर अपना हाथ देती हिचक रही थी। राँबिन ने उसका हाथ पकड़ जोर से दबाया था। ”अब हम दोस्त हैं, नाउ नो मोर क्राइंग। चलो एक कप काँफ़ी हो जाए।“ ”हम काँफ़ी नहीं पीते।“ ”फिर क्या दूध पीती हो?“ राँबिन शरारत में मुस्करा रहा था। ”हाँ।“ कहते निकिता को शर्म आई थी। ”चलो आज मैं काँफ़ी बनाता हूँ, टेस्ट करके देखोगी तो दूसरे के हाथ की काँफ़ी कभी नही पियोगी।“ निकिता असमंजस में पड़ गई थी। राँबिन उसको लगभग खींचता-सा अपनी काँटेज में ले गया था। निकिता को एक कुर्सी पर बैठा उसने दो कप काँफ़ी तैयार की थी। विस्मित निकिता उसे देखती रह गई थी। काँफ़ी का मग निकिता को थमा, उसने म्यूजिक सिस्टम आँन किया था। पहला-पहला प्यार है........ निकिता रोमांचित हो उठी थी। जैसे वह सपनों में जाग रही थी। ”तुम्हें डांस आता है?“ ”नहीं.........।“ ”सीखोगी?“ ”हमें शर्म आती है.......“ ”सिली गर्ल! किसी भी आर्ट को सीखने में शर्म क्यों? मैं डांस करता अच्छा नहीं लगता?“ निकिता चुप रह गई थी। ”मैं अच्छा नहीं लगता?“ ”लगते हो.....।“ बहुत मुश्किल से कह पाई थी। ”तुम डांस करती बहुत अच्छी लगोगी, निक्की बेबी! शैल वी स्टार्ट?“ निकिता का हाथ पकड़ राँबिन ने उठाया था। ”नहीं, हमें शर्म आती है। हम डांस नहीं करेंगे..........“ ”हम दोनों दोस्त हैं, अब एक-दूसरे से शर्म क्यों? देखना दो दिन में सीख जाओगी।“ निकिता की कमर में हाथ डाल, राँबिन ने स्टेप्स बताने शुरू किए थे। निकिता जैसे अपना होश खो बैठी थी। पाँवों को पंख लग गए थे, राँबिन के इशारों पर वह स्वप्नवत् नाचती गई थी। ”वैरी गुड। ये तुम्हारा पहला लेसन था, कल दूसरा लेसन शुरू होगा। आज के स्टेप्स अच्छी तरह याद कर लेना वर्ना मेरी डांस-पार्टनर कैसे बन पाओगी?“ ”तुम्हारी डांस- .पार्टनर मैं..... राँबिन, तुमने यही कहा है न?“ खुशी में पगी निकिता बोल नहीं पा रही थी। ”हाँ। यही मेरा चैलेंज है, बोलो मेरा साथ दोगी न, निक्की?“ निकिता मुश्किल से सिर हिला सकी थी। ”तो पक्का रहा। चलो तुम्हें पहुँचा आऊं, देर हो रही है।“ राँबिन के साथ अपने काँटेज पहुंची निकिता जैसे सपने से जगा दी गई थी। ”ओ.के. निकिता, सी यू टुमारो, बाय-“ हाथ हिलाता राँबिन चला गया था। मम्मी-पापा वगैरह अभी भी बाहर के प्रोग्राम में बिज़ी थे। निकिता डांस स्टेप्स का रिहर्सल कर रही थी, कल उसे राँबिन को चौंका देना था। उसके थककर सो जाने के बाद नेहा, मनोज के साथ ममी-पापा वापस आए थे। दूसरे दिन सबका पिकनिक स्पॉट्स देखने जाने का प्रोग्राम था। निकिता ने कहीं भी जाने से साफ़ मना कर दिया था। ठीक समय पर राँबिन आया था। आज काँफ़ी निकिता ने बनाई थी। डांस के स्टेप्स सिखाते राँबिन ने निकिता को न जाने कितनी बार अपने पास खींचा था। बार-बार रोमांचित होती निकिता सपने में जीती रही थी। पाँच दिन बाद राँबिन ने सबके सामने उसे अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित किया था। नेहा तो चौंक गई थीं डांस में एक्सपर्ट उतनी लड़कियों के रहते निकिता को बुलाकर राँबिन क्या उसका अपमान नहीं कर रहा था। इट्स माई लाइफ़....गीत चल रहा था। राँबिन के बढ़े हाथ में अपना हाथ देती निकिता डांस-फ्लोर पर उतर आई थी। नेहा की आँखें विस्मय में फैल गई थी। पति की ओर देख, गौरी मुस्कराई थी। डांस-फ्लोर पर निकिता सहज दिख रही थी। लोगों की दृष्टि मात्र से संकुचित होने वाली निकिता आज राँबिन के साथ डांस-फ्लोर पर थी। सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था! ”कल मैं जा रहा हूँ बेबी.........।“ धीमे से राँबिन ने कहा था। ”क्या.......आ.........कहाँ..क्यों?“ निकिता जाग गई थी। ”घर। ....... तुम्हें भी तो जाना है न?“ ”नहीं, तुम नहीं जाओ, राँबिन.........!“ ”मैं एक जगह बॅंधकर नहीं रह सकता, बेबी। वैसे भी अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं है, यू नो डांसिंग......“ ”नहीं राँबिन, हमें तुम्हारी जरूरत है। हमें छोड़कर नहीं जाओ।“ निकिता की आँखें भर आई थीं। ”कम आँन निकिता, तुम मैच्यूर लड़की हो, बच्चों की तरह नहीं रोते, सिली गर्ल......“ ”तुमने हमसे दोस्ती क्यों की, राँबिन?“ ”क्योंकि तुम एक अच्छी लड़की हो, दूसरी लड़कियों से बहुत अल���। तुम हमेशा याद रहोगी। नाऊ चियर अप निकिता- इट्स माई लाइफ़.........“ मस्ती में गीत गुनगुनाता राँबिन, निकिता को फ्लोर के बाहर पहुंचा, सामने खड़ी लड़की का हाथ पकड़े फ्लोर पर पहुंच गया था। लड़की को चक्कर दिलाते राँबिन को निकिता स्तब्ध ताकती रह गई थी। ”चल निक्की, देर हो रही है।“ गौरी ने स्नेह से उसके कंधे पर हाथ धरा था। काँटेज पहुँचते ही नेहा शुरू हो गई थी, ”मम्मी, निक्की ने क्या सरप्राइज दिया! मैं तो इमेजिन भी नहीं कर सकती थी, शी कुड डांस सो वेल............“ ”हूँह। इसे डांस सिखाने के पूरे पाँच हजार दिए हैं, वर्ना क्या ये डांस कर पाती?“ ”किसे पाँच हजार दिए हैं, मम्मी?“ नेहा ताज्जुब में थी। ”अरे उसी डांसर........ राँबिन को। वो तो इसे सिखाने को तैयार ही नहीं था, कहता था इसे डांस सिखाने की जगह किसी पत्थर की मूरत को सिखा देगा, पर पाँच हजार पर मान गया। आज उसने डिमांस्ट्रेट किया था, बाकी रकम जो लेनी है।“ ”नहीं...... तुम झूठ बोलती हो, वो हमारा दोस्त है...... हमारा दोस्त है।“ अपने सारे टूटे सपनों के साथ निकिता पलंग पर ढेर हो गई थी।
Written by Indian national award winning author Dr. Pushpa Saxena
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इशारे ज़िंदगी के-अज्ञेय
ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे जिन्हें हमने नहीं देखा। क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की और हमने बाँधने से पूर्व देखा था- हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे : हम छली थे शब्द के। 'शब्द ईश्वर है, इसी में वह रहस्य है : शब्द अपने आप में इति है- हमें यह मोह अब छलता नहीं था। शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथकर माला पिन्हाना चाहते थे नए रूपाकार को और हमने यही जाना था कि रूपाकार ही तो सार है। एक नीरव नदी बहती जा रही थी बुलबुले उसमें उमड़ते थे रह : संकेत के : हर उमडऩे पर हमें रोमांच होता था। फूटना हर बुलबुले का हमें तीखा दर्द होता था। रोमांच! तीखा दर्द! नीरव रह : संकेत-हाय। ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे हम पकड़े रहे रूपाकार को। किंतु रूपाकार चोला है किसी संकेत शब्दातीत का, ज़िंदगी के किसी गहरे इशारे का। शब्द : रूपाकार : फिर संकेत ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत- अनगिनती इशारे ज़िंदगी के ओट में जिनकी छिपा है अर्थ। हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को- पूर्व इसके, शब्द ललके। अंक भेंटे अर्थ को क्या हमारे हाथ में वह मंत्र होगा, हम इन्हें संपृक्त कर दें। अर्थ दो अर्थ दो म�� हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो। हम समझते हैं इशारा ज़िंदगी का- हमें पार उतार दो- रूप मत, बस सार दो। मुखर वा��ी हुई : बोलने हम लगे : हमको बोध था वे शब्द सुंदर हैं- सत्य भी हैं, सारमय हैं। पर हमारे शब्द जनता के नहीं थे, क्योंकि जो उन्मेष हम में हुआ जनता का नहीं था, हमारा दर्द जनता का नहीं था संवेदना ने ही विलग कर दी हमारी अनुभूति हमसे। यह जो लीक हमको मिली थी- अंधी गली थी। चुक गई क्या राह! लिख दें हम चरम लिखतम् पराजय की? इशारे क्या चुक गए हैं ज़िंदगी के अभिनयांकुर में? बढ़े चाहे बोझ जितना शास्त्र का, इतिहास, रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का- कम नहीं ललकार होती ज़िंदगी। मोड़ आगे और है- कौन उसकी ओर देखो, झाँकता है?
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नंदा देवी -अज्ञेय
नंदा, बीस-तीस-पचास वर्षों में तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर हम उस पर अखबार छाप चुके होंगे तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक, तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे और तुम्हारी नदियाँ ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ तुम्हारा आकाश हो चुका होगा हमारे अतिस्वन विमानों के धूम-सूत्रों का गुंझर। नंदा, जल्दी ही- बीस-तीस-पचास बरसों में हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुके होंगे और तुम्हारे उस नदी धौत सीढ़ी वाले मंदिर में जला करेगा एक मरुदीप।
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वीर-बहू (कविता)-अज्ञेय
एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था। फेनिल प्रपात पर छाये इंद्र-धनु की फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू पूछती है रव-हीन मखमली स्वर से : याद है क्या, ओट में बुरूँस की प्रथम बार धन मेरे, मैंने जब ओठ तेरा चूमा था?
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पंच परमेश्वर:मुंशी प्रेमचन्द
जुम्मन शेख अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खाना-पाना का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है। इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे, और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरू जी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने ने नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेना कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती? मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज-पास के गॉँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कदम न उठा सकता था। हल्के का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी--सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे। २ जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया; उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हल��े-पुलाव की वर्षा- सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानों मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्राय: नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थी। बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानों मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियॉँ नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गॉँव मोल ले लेते। कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। तुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी—गृहस्वांमी—के प्रबंध देना उचित न समझा। कुछ दिन तक दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अन्त में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा—बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूँगी। जुम्मन ने घृष्टता के साथ उत्तर दिया—रुपये क्या यहाँ फलते हैं? खाला ने नम्रता से कहा—मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं? जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब़ दिया—तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तु मौत से लड़कर आयी हो? खाला बिगड़ गयीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाली की तरफ जाते देख कर मन ही मन हँसता है। वह बोले—हॉँ, जरूर पंचायत करो। फैसला हो जाय। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं। पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न थ। आस-पास के गॉँवों में ऐसा कौन था, उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं। ३ इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिये आस-पास के गॉँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गयी थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना जरूरी था। बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके समाने बुढ़िया ने दु:ख के ऑंसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हॉँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं। कहा—कब्र में पॉँव जटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने इस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली—बेटा, तुम भी दम भर के लिये मेरी पंचायत में चले आना। अलगू—मुझे बुला कर क्या करोगी? कई गॉँव के आदमी तो आवेंगे ही। खाला—अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी। अब आनरे न आने का अख्तियार उनको है। अलगू—यों आने को आ जाऊँगा; मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा। खाला—क्यों बेटा? अलगू—अब इसका कया जवाब दूँ? अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता। खाला—बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाय, तो उसे खबर नहीं होता, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का काई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थे- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? ४ संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हॉँ, वह स्वय अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ जरा दूर पर बैठेजब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दवे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहॉँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गयी; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुऑं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गॉँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे। पंच लोग बैठ गये, तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की-- ‘पंचों, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल किया। साल-भर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दु:ख सुनाऊँ? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूँ। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारी। जुम्मन में बुराई देखो, तो उसे समझाओं, क्यों एक बेकस की आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊँगी।’ रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गांव में बसा लिया था, बोले—जुम्मन मियां किसे पंच बदते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे, वही मानना पड़ेगा। जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले—पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। खालाजान जिसे चाहें, उसे बदें। मुझे कोई उज्र नहीं। खाला ने चिल्लाकर कहा--अरे अल्लाह के बन्दे ! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो। जुम्मन ने क्रोध से कहा--इस वक्त मेरा मुँह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो। खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गयीं, वह बोली--बेटा, खुदा से डरो। पंच न किसी के दोस्त होते हैं, ने किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो; अलगू चौधरी को तो मानते हो, लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ। जुम्मन शेख आनंद से फूल उठे, परन्तु भावों को छिपा कर बोले--अलगू ही सही, मेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू। अलगू इस झमेले में फँसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले--खाला, तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है। खाला ने गम्भीर स्वर में कहा--‘बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।’ अलगू चौधरी सरपंच हुएं रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा। अलगू चौधरी बोले--शेख जुम्मन ! हम और तुम पुराने दोस्त हैं ! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी ��ो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं; मगर इस समय तुम और बुढ़ी खाला, दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी हो, करो। जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाजी मेरी है। अलग यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले--पंचों, तीन साल हुए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें ता-हयात खाना-कप्ड़ा देना कबूल किया था। खुदा गवाह है, आज तक मैंने खालाजान को कोई तकलीफ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी मॉँ के समान समझता हूँ। उनकी खिदमत करना मेरा फर्ज है; मगर औरतों में जरा अनबन रहती है, उसमें मेरा क्या बस है? खालाजान मुझसे माहवार खर्च अलग मॉँगती है। जायदाद जितनी है; वह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफा नहीं होता है कि माहवार खर्च दे सकूँ। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार खर्च का कोई जिक्र नही। नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले मे न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार है, जो फैसला चाहें, करे। अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़ी की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इस प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठी हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था ! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गयी कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी? जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया-- जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया-- जुम्मन शेख ! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार खर्च दिया जाय। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्वानामा रद्द समझा जाय। यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा-प्लेग आदि व्याधियॉँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं। मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता को प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे--इसका नाम पंचायत है ! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती, दोस्ती की जगह है, किन्तु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती। इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखायी देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था। उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह जैसे तलवार से ढाल मिलती है। जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले। ५ अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी दरे लगती है; पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती; जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाये थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बडे-बड़े सीगोंवाले थे। महीनों तक आस-पास के गॉँव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा--यह दग़ाबाज़ी की सजा है। इन्सान सब्र भले ही कर जाय, पर खुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया उसने कहा--जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खुब ही वाद-विवाद हुआ दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंगय, वक्तोक्ति अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डॉँट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया। अब अकेला बैल किस काम का? उसका जोड़ बहुत ढूँढ़ा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गॉँव में एक समझू साहु थे, वह इक्का-गाड़ी हॉँकते थे। गॉँव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और गॉँव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेप हों। आज-कल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दोड़ाया, बाल-भौरी की पहचान करायी, मोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बॉँध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे की परवाह न की। समझू साहु ने नया बैल पाया, तो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फिक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गये, वहॉँ कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बचती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहॉँ बैलराम का रातिब था, साफ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहॉँ वह सुख-चैन, कहॉँ यह आठों पहर कही खपत। महीने-भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का यह जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हडिडयॉँ निकल आयी थी; पर था वह पानीदार, मार की बरदाश्त न थी। एक दिन चौथी खेप में साहु जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भरका थका जानवर, पैर न उठते थे। पर साहु जी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़ का चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लूँ; पर साहु जी को जल्द पहुँचने की फिक्र थी; अतएव उन्होंने कई कोड़े बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया; पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, टॉँग पकड़कर खीचा, नथनों में लकड़ी ठूँस दी; पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहु जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोलकर अलग किया; और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीखे-चिल्लाये; पर देहात का रास्ता बच्चों की ऑंख की तरह सॉझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-पास कोई गॉँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे--अभागे। तुझे मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता ! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा। अब गड़ी कौन खीचे? इस तरह साहु जी खूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ रुपये कमर में बंधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक थे; अतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार वेचारे गाड़ी पर ही लेटे गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह साह जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहें। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे; पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली गायब ! घबरा कर इधर-उधर देखा तो कई कनस्तर तेल भी नदारत ! अफसोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रात: काल रोते-बिलखते घर पहँचे। सहुआइन ने जब यह बूरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियॉँ देने लगी--निगोड़े ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म-भर की कमाई लुट गयी। इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम मॉँगते तब साहु और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते—वाह ! यहॉँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गई, सत्यानाश हो ��या, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम मॉँगने चले हैं ! ऑंखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बॉँध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया है ! हम भी बनिये के बच्चे है, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड़हे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे? चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरें पर वे भी एकत्र हो जाते और साहु जी के बराने की पुष्टि करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। साहु जी बिगड़ कर लाठी ढूँढ़ने घर चले गए। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुस कर किवाड़ बन्द कर लिए। शोरगुल सुनकर गॉँव के भलेमानस घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। कुछ तय हो जाय, उसे स्वीकार कर लो। साहु जी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली। ६ पंचायत की तैयारियॉँ होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नही, और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यकत समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में वह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें वेसुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगां करने में भी संकोच नहीं होता। पंचायत बैठ गई, तो रामधन मिश्र ने कहा-अब देरी क्या है ? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी ; किस-किस को पंच बदते हो। अलगू ने दीन भाव से कहा-समझू साहु ही चुन लें। समझू खड़े हुए और कड़कर बोले-मेरी ओर से जुम्मन शेख। जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानों किसी ने अचानक थप्पड़ मारा दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा-क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नही। चौधरी ने निराश हो कर कहा-नहीं, मुझे क्या उज्र होगा? अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है। पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है: परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्याय-परायण हो जाती है। इसका कारण उत्तर-दायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चितिति रहते है! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थौड़ी हीी समय में परिवार का बौझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है। जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पेदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नही! पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परन्तु वो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। उसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अन्त में जुम्मन ने फैसला सुनाया- अलगू चौधरी और समझू साहु। पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई प्रबंध न किया गया। रामधन मिश्र बोले-समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है, अतएव उससे दंड लेना चाहिए। जुम्मन बोले-यह दूसरा सवाल है। हमको इससे कोई मतलब नहीं ! झगडू साहु ने कहा-समझू के साथं कुछ रियायत होनी चाहिए। जुम्मन बोले-यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करें, तो उनकी भलमनसी। अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और जोर से बोल-पंच-परमेश्वर की जय! इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई-पंच परमेश्वर की जय! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है? थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपट कर बोले-भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से खुदा बोलता है। अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई।
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Hrithik Best Performance ...
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