मैं पल दो पल का शायर हुँ, पल दो पल मेरी कहानी है, पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है
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चंदन की ठंडक पर तक्षक की घात है ऐसा ही कुछ मेरे इस दिल का हाल है,
ज़ुबान पर ज़हर है, कलम में ठहर है, लिखने का यूं तो दिल है, पर इस दिल का दिल नहीं लगता कहीं,
कैसे समझाऊंँ इसे के तुम मेरी नहीं,
पतझड़ की हवाओं में पत्ते जैसे पिघलते हैं,
ये नगमे मेरे बेगाने होके मुझसे तुझपे आके मरते हैं,
ज़रा कुछ दिन ना लिखूंँ तेरे बारे में तो ख़्वाब नहीं खुलता मेरा,
किसे सुनाऊंँ कहानी अपनी, सिर्फ़ इन पन्नों की ख़ामोशी में ही दबा है ज़िक्र तेरा,
ये करिश्मा है?, या कहानी है?, या है ये कयामत?,
या जादू है?, करतब है?, या है ये क़िस्मत?,
तकल्लुफ़ क्यूंँ करनी उसकी जिसकी बला छुट चुकी है?,
समझाता हूंँ इसको बार–बार,
कंबख़्त ये समझने को तैयार ही नहीं है,
अब तो लिखने वाले की तबीयत इतनी नासाज़ दिखाई पड़ती है,
के कमीनी ये दवात ही एक लौती दवा दिखाई पड़ती है,
पर रोता नहीं हूंँ उन झूठे मस्तानों की तरह,
ना ��ेरा दीवाना बना फि़रता हूंँ,
कहीं मगरुर ना होना इस बात पर,
के कैसे तेरी एक "ना" का इतना असर है ज़िगर पर किसी शायर के,
ये तो मेरा कुसूर है, तुम्हें किस बात का गुरूर है?,
ऐ ज़िंदगी तू ही इसकी कारसाज़ है,
तेरी तो नियत ही एक दाग है,
लकीरें नसीब की कितनी बदज़ात हैं,
नियत तेरी की तुझे ख़ुदा ना आज़माएं,
नियत तेरी की तुझे तेरा खोया रूबाब मिल जाए,
नियत तेरी के वापस कभी लब मेरे कोई नगमे न गाएं,
कितनी ही महफ़िलें मेरी तेरे नाम पर नीलाम हैं,
नसीब के सितारे मेरे फ़लक से उतर कर तेरे कदमों पर यूंँ गिरते हैं,
ये नगमे मेरे बेगाने होके मुझसे तुझपे आके मरते हैं
-शशि
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बड़े दिन बाद उदासी आई है दरवाज़े पर मेरे,
ना ख़बर, ना ख़्याल, ना शिकन है दिल में मेरे,
फ़िर क्यूंँ आई है ये पुरानी कोई ख़बर बनके ज़हन में मेरे,
ढलते सूरज के साथ ढली पहरों की ठहर बनके,
बड़े दिनों बाद उदासी आई है दरवाज़े पर मेरे,
अब तो तौबा करली है आदतों से कितनी,
अब तो तौबा करली है ख़्वाबों के मिट्टी के महल बनाने से,
ये लंबे दौर की लहरें ले डुबा है ज़मीर के ख़ज़ाने मेरे कितने,
अब तो किनारे ही रह जाने की दरख़्वास्त है मेरी,
सुनने–सुनाने के किस्से यूंँ किस से जताऊंँ,
अब तो तौबा करली है लफ्ज़ों से ही ज़बान ने मेरी,
ना ख़बर, ना ख़्याल, ना शिकन है दिल में मेरे,
तब भी बड़े दिन बाद उदासी आई है दरवाज़े पर मेरे,
लगता है क़िस्मत बड़ी ख़फ़ा है मुझसे,
कितना डर–डर के जिया है जिगर मेरा हर दम,
अपना हर ग़म छुपाया है मुस्कुराहट के पर्दों में मैंने,
दूर ही रहता हूंँ इन टूटे शीशों से बनी बदनुमा दुनिया से,
हर पल ये भीड़ बताती है मुझे,
ऐ बंदे, बर्बादी बड़ी खड़ी है इस राह पर तेरे,
पर इस राह पर तो मुझे अपना सच दिखता है,
बर्बादी ही सही, सच तो रहे,
कफ़न ही सही, पर सर पर बंँधे,
पर सामना सिर्फ़ करना चाहता हूंँ इसका ज़माने के सामने,
अपनों के शायद मर्म को सह ना पाऊंँगा,
बड़ा बुज़दिल जो हुंँ कहीं मर ही जाऊंँगा,
आज हर सही–ग़लत का हिसाब करने आयी है इस ज़माने का पूरे,
बड़े दिन बाद उदासी आई है दरवाज़े पर मेरे
–शशि
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दिल टूटने की वज़ह भी नहीं चाहिए फ़िलहाल,
अब तो बस यूंँ ही बिखर जाया करता हूंँ,
किसकी याद रखूंँ, किसको छोडूंँ पीछे?
जब हर बार पीछे छूटने वाला मैं ही था,
तो किस बात पर ग़ौर करूंँ, और किसे टाल दूंँ?
जब हर बार टलने वाला मैं ही रहा,
सोचता तो हूंँ पर ध्यान देता नहीं सोच पर,
अब उन बीते लम्हों में ही दफ़्न-दफ़्न सा रहता हूंँ,
दिल टूटने की वज़ह भी नहीं चाहिए फ़िलहाल,
अब तो बस यूंँ ही बिखर जाया करता हूंँ,
क़रीबी लोगों को गुमशुदा होते देखा है इन निगाहों ने मेरी,
यूंँ तो कहने को स़ब्र करना सीख लिया है जिगर ने मेरे,
पर स़ब्र का क्या है, इसे तो आदत है तन्हाई की,
तिल-तिल जर-जर करके मरता हूंँ दिल ही दिल में,
अब तो बस अतीत के सूखे पन्ने ही दुरुस्त रख सकता हूंँ,
दिल टूटने की वज़ह भी नहीं चाहिए फ़िलहाल,
अब तो बस यूंँ ही बिखर जाया करता हूंँ
-शशि
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