चैत्र नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं - Kisan Satta
चैत्र नवरात्रि की शुरुआत इस साल 9 अप्रैल यानि आज से हो रही है जिसका समापन 17 अप्रैल को होगा । नवरात्रि का पर्व माता दुर्गा को समर्पित होता है और इस पर्व का इंतजार सनातन धर्म को मानने वाले लोग बेसब्री से करते हैं, हिंदू धर्म में नवरात्रि का विशेष महत्व है ।
चैत्र और शारदीय नवरात्रि के अलावा दो गुप्त नवरात्रि भी पड़ती है । चैत्र नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं!
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क्या है ? जैविक खेती का अर्थशास्त्र
हम यह मानते रहे हैं कि जैविक खेती और इसके उत्पाद सीधे खेत और किसानों से हमारी रसोई में आयेंगे परन्तु अब यह सच नहीं है। जैसे-जैसे यह तर्क स्थापित हुआ है कि हमें यानी उपभोक्ता को साफ और रसायनमुक्त भोजन चाहिए, वैसे-वैसे देश और दुनिया में बड़ी और भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जैविक खेती और जैविक उत्पादों के व्यापार को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया।
भारत में पारम्परिक रूप से जैविक उत्पाद सामान्यत: सीधे खेतों से लोगों तक पहुंचे हैं। हमारे यहां हाईब्रिड और देशी टमाटर या लोकल लौकी जैसे शब्दों के साथ ये उत्पाद बाजार में आते रहे हैं पर अब बड़ी कम्पनियों ने इस संभावित बाजार पर अपना नियंत्रण जमाना शुरू कर दिया है। तर्क यह दिया जा रहा है कि जितने बड़े पैमाने पर आधुनिक खेती में रसायनों का उपयोग किया जा रहा है।
उसके खतरे को देखते हुये यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि उसका मालिकाना हक किसके पास है। पर इसके दूसरी तरफ हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि आज की सबसे बड़ी जरूरत यह तय करने की है कि अनाज, खाद्य��न्न और भोजन के उत्पादन का तंत्र और व्यवस्था विकेन्द्र्रीकृत, जनोन्मुखी और पारदर्शी ही होना चाहिये।
ठण्डे पेयों में कीटनाशकों की खतरनाक स्तर तक मौजूदगी, फिर डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों में अमान्य रसायनों का उपयोग और खेतों में एण्डोसल्फान के छिड़काव के मामलों में बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका ने यह सिद्ध किया है कि उनके उत्पादों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।
ये महाकाय आर्थिक रूप से सम्पन्न कम्पनियां भी जानती है कि जैविक उत्पादों का बाजार अब तेजी से बढ़ रहा है। रणनीतिक रूप से इन कम्पनियों ने वर्ष 1997 से 2007 के बीच दुनिया भर में 363 छोटी और स्थानीय उत्पादक इकाइयों का अधिग्रहण किया। इनमें से ज्यादातर ने अधिग्रहण के बाद भी उन स्थानीय ब्राण्डों के नाम से ही व्यापार किया ताकि उनकी बदनामी का असर इस नये व्यापार पर न पड़े। कोकाकोला ने आनेस्ट-टी का अधिग्रहण किया। मुईर ग्लेन और कास्केडियन फार्म को स्माल पेनेट फूड्स के नाम से चलाया जा रहा है जो वास्तव में जनरल मिल्स की कम्पनी हैं।
आनेस्ट टी पर कोकाकोला के नियंत्रण की बात जब लोगों को पता चली तो उसकी दुनिया भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। सच यह है कि आज बाजार में अनाज और भोजन से लाभ कमाने के लिये उसे किसी भी स्तर तक जहरीला बना देने को तत्पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आम समाज विश्वास नहीं करता है। वह यह नहीं मान पाता है कि ये कम्पनियां वास्तव में सच्चे जैविक उत्पाद उन्हें उपलब्ध करवायेंगे।
आर्गेनिक ट्रेड एसोसिएशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि वर्ष 2009 में ही जैविक उत्पादों का बड़ा बाजार 11.40 अरब रुपए यानी 24.8 बिलियन डॉलर का हो चुका था। यानी जितनी ज्यादा संभावना उतना बड़ा भोजन पर आर्थिक उपनिवेशवादी खतरा।
वर्ष 2002 से भारत में जैव संशोधित बीजों (बीटी और जीएम) के प्रयोग और उपयोग की शुरुआत हुई। मोनसेंटो जैसी एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी इन बीजों को इस दावे के साथ भारत लाई थी कि बीटी कपास पर बोल्वार्म या कहें कि कपास को खाने वाला एक कीड़ा नहीं लगेगा। इससे कीटनाशकों का खर्च कम होगा। चूंकि इससे उत्पादन बढ़ेगा, इसलिए इन बीजों की कीमत सामान्य देशी बीजों की तुलना में 7 से 8 गुना ज्यादा रखी गयी और मोनसेंटो ने किसानों से खूब कमाई की।
3 साल बाद की यह स्थापित हो गया कि बीटी बीज पर भी कीट लगता है और उसमें पहले की तुलना में ज्यादा रासायनिक कीटनाशकों-उर्वरकों का उपयोग किसान को करना पड़ रहा है।
लागत बढ़ी और किसान पर कर्ज:- दामों के उतार चढ़ाव के बीच भारत की सरकार ने उन देशों से सस्ती दर के कपास के आयात पर शुल्क कम रखा जहां खेती पर बहुत सब्सिडी मिलती है। तर्क यह था कि भारत में कपास का उपयोग करने वाले उद्योगों को सस्ता कपास मिल सके। सरकार ने भारत में तो कृषि पर रियायत कम कर दी, बिजली, उर्वरक, कीटनाशक महंगे हो गए और किसान बाजार में आयातित कपास से मार खा गया। विदर्भ में किसानों ने इसीलिए आत्महत्या की है।
अब तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नए और तथाकथित उन्नत बीजों या कृषि तकनीकों को व्यापारिक उपयोग में लाने या उनके परीक्षण करने के लिए हर एक मामले में अनुमति लेना होती थी, पर अब यह एक खुला क्षेत्र हो गया है। हमें यह याद रखना होगा कि संकट को हमने खुद आमंत्रित किया है और अपने आप को बर्बाद करने के लिए हम उसे पुरस्कृत भी कर रहे हैं। हमने यह सवाल नहीं पूछा कि भारत में 42 कृषि विश्वविद्यालय और 193 कृषि महाविद्यालय हैं, उन विश्वविद्यालयों ने भारतीय सन्दर्भ में खेती के विकास के लिए जिम्मेदार भूमिका क्यों नहीं निभाई।
ये क्यों ईमानदार तरीके से शोध और परीक्षणों का काम नहीं कर सकते थे, क्यों ये बीजों को उन्नत करने की तकनीकों पर काम नही करते! यही कारण है जिनके चलते रसायनमुक्त खेती भारत से लुप्तप्राय होती गई। ऐसे में हमें क्यों यह जरूरत पड़ रही है कि विदेशी कंपनियों, जिनके लाभ के लिए अपने निहित स्वार्थ हैं और जिनके बारे में यह स्थापित है कि उनकी रूचि किसानों के हितों में नहीं बल्कि आर्थिक लाभ में है।
ये कम्पनियां बार-बार ऐसे बीज विकसित करती हैं, जिनसे होने वाली पैदावार से अगली बुआई या फसल के लिए उत्पादक बीज नहीं मिल सकते है। मतलब कि हर फसल के समय किसान को एक खास कंपनी के बीज खरीदने पड़ेंगे। उन्होंने ऐसी व्यवस्था भी विकसित कर ली है कि एक खास कंपनी के बीजों पर उसके द्वारा बनाए जाने वाले कीटनाशक और उर्वरक ही प्रभावी होंगे। मतलब साफ है कि किसान पूरी तरह से एक कंपनी का बंधुआ होगा। और नयी नीति में सरकार ने इस बन्धुआपन की पूरी तैयारी कर दी है।
सरकार ईमानदार नहीं है इसीलिए तो उसने देश में कृषि शिक्षा को बढ़ावा नहीं दिया। यही कारण है कि वह देश के किसानों के विज्ञान से ज्यादा कंपनियों के लाभ को ज्यादा महत्वपूर्ण मानती है, इसीलिए तो वह अनाज व्यापार के लिए उगाना चाहती है स्वाबलंबन और खाद्य सुरक्षा के लिए नहीं। इसीलिये तो वह देश में कुपोषण और भुखमरी होने के बावजूद देश का अनाज निर्यात करती है या समुद्र में डुबो देती है। इसलिए तो वह यह जानते हुए कि 10 लाख टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है पर देश के के लोगों में नहीं बांटती है। सरकार ईमानदार नहीं है।
हम बुनियादी रूप से यह मानते हैं कि भारत में चूंकि 67 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर निर्भर है और अब बड़े पैमाने पर किसान भी खेती के स्थाई विकास के लिये रासायनिक खेती को छोड़कर जैविक खेती को अपना रहा है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दखल को खत्म करने की जरूरत है। आंध्रप्रदेश के 23 जिलों के किसान रसायनमुक्त खेती कर रहे हैं पर अब तक देश में इसकी कोई ऐसी नीति नहीं है जो किसानों को बड़े दानवों से सुरक्षित करने की व्यवस्था देती हो।
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि जैविक खेती के लिये उत्पादन के एक पूरे तंत्र की जरूरत होती है। जिसमें विविध किस्मों के अनाज का उत्पादन, पशुधन का संरक्षण, स्थानीय उर्वरकों और कीटनाशकों का उत्पादन शामिल है। इस बात में शक है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस तरह की व्यवस्था को खड़ा करने में कोई रूचि दिखायेंगी। और पूरी आशंका है कि इसके बजाये वे जैव संशोधित बीजों का उपयोग करेंगी और किसी न किसी रूप में रसायनों का उपयोग करती रहेंगी। यानी जैविक खेती को नये खतरों का सामना करना पड़ेगा।
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कोरोना का असर: टोयोटा किर्लोस्कर की घरेलू बिक्री जून में 63 प्रतिशत गिरी
नई दिल्ली। टोयोटा किर्लोस्कर मोटर की घरेलू बिक्री जून में 63.53 प्रतिशत गिरकर 3,866 वाहन रही। पिछले साल जून में कंपनी की बिक्री 10,603 वाहन इकाई थी। इस साल मई में कंपनी ने 1,639 वाहन की बिक्री की थी। कंपनी ने एक बयान में कहा कि जून 2020 में उसने कोई निर्यात नहीं किया।
जबकि जून 2019 में उसने 804 इटियोस कार का निर्यात किया था। टोयोटा किर्लोस्कर के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (बिक्री एवं सर्विस) नवीन सोनी ने कहा कि बाजार में मांग धीरे-धीरे सुधर रही है। कोविड-19 संकट के चलते देशभर में मई में लॉकडाउन रहा था जिससे ऑट कंपनियों की बिक्री गिरी थी। 8 जून के बाद देश में आर्थिक गतिविधियों को धीरे-धीरे दोबारा शुरू किया गया है, इससे कंपनियों की बिक्री में सुधार हो रहा है।
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चिकित्सा-सेवा को कोरोना के समय में अनेक अस्पतालों ने मखौल बना दिया
भारत में कोरोना महामारी ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र की खामियों की पोल खोल दी है। भले केन्द्र सरकार की जागरूकता एवं जिजीविषा ने जनजीवन में आशा का संचार किया हो, लेकिन इस महाव्याधि से लड़ने में चिकित्सा सुविधा नाकाफी रही है। राजधानी दिल्ली सहित महानगरों, नगरों एवं गांवों में चिकित्सा की चरमराई स्थितियों ने निराश किया है। चिकित्सक, अस्पताल, दवाई, संसाधन इत्यादि से जुड़ी कमियां एक-एक कर सामने आ रही हैं।
कोरोना महासंकट के दौरान डॉक्टरों और सुविधाओं की कमी आए दिन सामने आती रही है, कोरोना से बड़ा खतरा कोरोना से लड़ती चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का है। इस स्थिति ने कोरोना पीड़ितों को दोहरे घाव दिये हंै, निराश किया है। हमारी चिकित्सा क्षेत्र की खामियां आज की नहीं, बल्कि अतीत से चली आ रही विसंगतियों एवं विषमताओं का परिणाम है, जिसका समाधान आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की प्राथमिकता होनी ही चाहिए। भारत में सरकारी अस्पतालों को निजी अस्पतालों की तुलना में अधिक सक्षम बनाने की जरूरत है, तभी हम वास्तविक रूप में चिकित्सा की खामियों का वास्तविक समाधान पा सकेंगे।
मानव निर्मित कारणों से जो कोरोना महासंकट दुनिया के सामने खड़ा है उसका समाधान भी हमंे ही खोजना है, विशेषतः चिकित्सा जगत को इसमें तत्परता बरतने की अपेक्षा है। ऐसा हुआ भी है और हमारे चिकित्साकर्मियों ने अपने जान की परवाह न करते हुए कोरोना पीड़िता का इलाज किया गया है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन ने स्वयं चिकित्सा अभियान का प्रभावी नेतृत्व करते हुए न केवल कोरोना संक्रमण को फैलने से रोका है बल्कि पीड़ितों को समूचा उपचार भी प्रदत्त करने के समुचित उपक्रम किये हैं। प्रश्न केन्द्र सरकार एवं केन्द्रीय स्वास्थ्यमंत्री की कोरोना मुक्ति की योजनाओं को लेकर नहीं है। प्रश्न है भारत की चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का, कोरोना के दौरान इस अंधेरे का अहसास तीव्रता से हुआ है।
देश में कोरोना के दौरान सरकारी अस्पतालों में जहां चिकित्सा सुविधाओं एवं दक्ष डाॅक्टरों का अभाव देखने को मिला है, वहीं निजी अस्पतालों में आज के भगवान रूपी डॉक्टर एवं अस्पताल मालिक मात्र अपने पेशा के दौरान वसूली व लूटपाट ही करते हुए नजर आए हैं।
उनके लिये मरीजों की ठीक तरीके से देखभाल कर इलाज करना प्राथमिकता नहीं होती, उन पर धन वसूलने का नशा इस कदर हावी होता है कि वह उन्हें सच्चा सेवक के स्थान पर शैतान बना देता है। केन्द्र सरकार कोरोना पीडित को बेहतर तरीके से इस असाध्य बीमारियों की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये प्रतिबद्ध है। निजी अस्पतालों पर कार्रवाई करना बेहद जरूरी है क्योंकि कोरोना के समय में अनेक अस्पतालों ने चिकित्सा-सेवा को मखौल बना दिया था।
सरकार की जागरूकता एवं सख्त कार्रवाई से न केवल कोरोना पीड़ित व्यक्ति को चिकित्सा का वास्तविक लाभ मिल सकेगा, बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं गड़बड़ियों को दूर किया जा सकेगा, जो शर्मनाक ही नहीं बल्कि डॉक्टरी पेशा के लिए बहुत ही घृणित है। इन अमानवीयता एवं घृणा की बढ़ती स्थितियों पर नियंत्रण एवं कोरोना महामारी को फैलने से रोकने की एक सार्थक पहल और दोषी अस्पतालों पर कठोर कार्रवाई जरूरी है।
भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रभावी चिकित्सा व्यवस्था स्थापित करना एक महत्वपूर्ण मिशन एवं विजन है, उन्होंने इसके लिये आयुष्मान भारत योजना लागू करते हुए हर व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया था। लेकिन सरकार के साथ-साथ इसके लिये आम व्यक्ति को भी जागरूक होना होगा।
हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना जागे, तभी भारत आयुष्मान बनेगा, तभी कोरोना को चिकित्सा स्तर पर परास्त करने में सफलता मिलेगी, और तभी चिकित्सा जगत में व्याप्त अनियमितताओं एवं धृणित आर्थिक दृष्टिकोणों पर नियंत्रण स्थापित होगा। डाॅक्टर का पेशा एक विशिष्ट पेशा है। एक डाॅक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है, इसलिये इसकी विशिष्टता और गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। एक कुशल चिकित्सक वह है जो न केवल रोग की सही तरह पहचान कर प्रभावी उपचार करें, बल्कि रोगी को जल्द ठीक होने का भरोसा भी दिलाए।
रोगी की सबसे बड़ी आर्थिक चिन्ता को सरकार ने दूर करने की योजनाएं प्रस्तुत की है तो अस्पताल एवं डाॅक्टर गरीबों के निवालों को तो न छीने। राष्ट्रीय जीवन की कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर उन्हें रोज नहीं संभाला जाए या रोज नया नहीं किया जाए तो वे खो जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं जो अगर पुरानी हो जाएं तो सड़ जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जाएं कि वे आपके हाथ में हैं तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं। इन्हें स्वयँ जीकर ही जीवित रखा जाता है। डाॅक्टरों एवं अस्पतालों को नैतिक बनने की जिम्मेदारी निभानी ही होगी, तभी वे चिकित्सा के पेशे को शिखर दें पाएंगे, तभी कोरोना मुक्ति के वास्तविक उद्देश्यों को हासिल कर सकेंगे।
भारत में गांवों में चिकित्सा प्रक्रिया को प्रभावी एवं सशक्त बनाने की जरूरत है। इन दिनों एक रिपोर्ट खास चर्चा में है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के गांवों में मेडिकल प्रैक्टिस करने वाले तीन में से दो के पास न तो यथोचित डिग्री है और न कोई विधिवत प्रशिक्षण।
वे जरूरी ज्ञान के बिना ही लोगों की जान से खेल रहे हैं। यही कारण है कि हमारे गांवों में बीमारी और मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। जाहिर है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के अभाव के कारण ही निजी क्षेत्र में कथित डॉक्टरों का स्याह साम्राज्य फैल गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2016 की एक रिपोर्ट का भी खतरनाक तथ्य यह है कि इन कथित डॉक्टरों या झोलाछाप में से 31.4 प्रतिशत स्कूल से आगे नहीं पढ़े हैं। लोगों के बीच अशिक्षा व गरीबी का आलम ऐसा है कि वे हर इलाज के लिए गांव से शहर नहीं जा सकते। ऐसे में, वे गांवों में मौजूद झोलाछाप पर निर्भर होकर खतरा उठाते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया है कि महज डिग्री होने से ही इलाज में महारत हासिल नहीं हो जाती। तमिलनाडु और कर्नाटक में जो अनौपचारिक चिकित्सा सेवक थे, उनकी योग्यता बिहार व उत्तर प्रदेश के अनेक प्रशिक्षित डॉक्टरों से भी बेहतर पाई गई। दक्षिण के राज्यों में चिकित्सा की अपेक्षाकृत ठीक स्थिति इसलिए भी है, क्योंकि वहां अनौपचारिक सेवक किसी औपचारिक डॉक्टर के पास वर्षों तक काम करके सीखते हैं, जबकि उत्तर के राज्यों में थोड़ी-बहुत जानकारी होते ही मरीजों की सेहत से खिलवाड़ शुरू हो जाता है। केरल एक बेहतर अपवाद है, जहां शिक्षा व जागरूकता ज्यादा होने के कारण झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या समय के साथ कम होती गई है।
इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों एवं कोरोना महामारी के प्रकोप ने ग्रामीण इलाकों में पारंगत डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाने के तमाम उपाय युद्ध स्तर पर किये जाने की आवश्यकता को उजागर किया है। नए डॉक्टरों को कुछ वर्ष गांवों में सेवा के लिए बाध्य करना चाहिए। ऐसे उपाय कुछ राज्यों ने कर रखे हैं, इसक�� कड़ाई से पालना जरूरी है। ऐसे प्रावधान करने चाहिए कि वे कहीं और सेवा या नौकरी में रहते हुए भी महीने या साल में कुछ-कुछ दिन अपने गांव जाकर या किसी भी ग्रामीण क्षेत्र का चयन कर अपनी सेवाएं दे। हमारे गांव अच्छे डॉक्टरों के लिए तरस रहे हैं, उनके इंतजार को जल्द से जल्द खत्म करना सरकार ही नहीं, बल्कि चिकित्सा संगठनों-संस्थानों का भी कर्तव्य है।
एक लोकतांत्रिक देश में लोगों के इलाज की जिम्मेदारी सरकार की होती है और वह इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सरकारी इलाज की सबसे अच्छी व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया की मानी जाती है। वहां अस्पताल में उपलब्ध कुल बेड में से 80 फीसदी सरकारी अस्पतालों में हैं। यही नहीं, सरकारी अस्पताल प्राइवेट की तुलना में बेहतर इलाज मुहैया कराते हैं। ऑस्ट्रेलिया ने आइएएस की तरह हेल्थकेयर का अलग कैडर बना रखा है।
वहां अमीर व्यक्ति भी बीमार होता है तो सबसे पहले सरकारी अस्पताल में जाता है न कि प्राइवेट अस्पताल में। ऐसा ही कुछ मलेशिया में और हांगकांग में है। इसके विपरीत भारत आबादी के हिसाब से अस्पतालों में बेड बढ़ाने एवं चिकित्सा सेवाओं को प्रभावी बनाने में बुरी तरह विफल रहा। अब सरकार का ध्यान इस ओर गया है,जब कि उसे परिणाम आये, तब तक हेल्थकेयर के मोर्चे पर सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी ही द���श में कोरोना पीड़ितों का कारगर इलाज कर सकती है।
भारत में कोरोना महामारी ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र की खामियों की पोल खोल दी है। भले केन्द्र सरकार की जागरूकता एवं जिजीविषा ने जनजीवन में आशा का संचार किया हो, लेकिन इस महाव्याधि से लड़ने में चिकित्सा सुविधा नाकाफी रही है। राजधानी दिल्ली सहित महानगरों, नगरों एवं गांवों में चिकित्सा की चरमराई स्थितियों ने निराश किया है। चिकित्सक, अस्पताल, दवाई, संसाधन इत्यादि से जुड़ी कमियां एक-एक कर सामने आ रही हैं।
कोरोना महासंकट के दौरान डॉक्टरों और सुविधाओं की कमी आए दिन सामने आती रही है, कोरोना से बड़ा खतरा कोरोना से लड़ती चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का है। इस स्थिति ने कोरोना पीड़ितों को दोहरे घाव दिये हंै, निराश किया है। हमारी चिकित्सा क्षेत्र की खामियां आज की नहीं, बल्कि अतीत से चली आ रही विसंगतियों एवं विषमताओं का परिणाम है, जिसका समाधान आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की प्राथमिकता होनी ही चाहिए। भारत में सरकारी अस्पतालों को निजी अस्पतालों की तुलना में अधिक सक्षम बनाने की जरूरत है, तभी हम वास्तविक रूप में चिकित्सा की खामियों का वास्तविक समाधान पा सकेंगे।
मानव निर्मित कारणों से जो कोरोना महासंकट दुनिया के सामने खड़ा है उसका समाधान भी हमंे ही खोजना है, विशेषतः चिकित्सा जगत को इसमें तत्परता बरतने की अपेक्षा है। ऐसा हुआ भी है और हमारे चिकित्साकर्मियों ने अपने जान की परवाह न करते हुए कोरोना पीड़िता का इलाज किया गया है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन ने स्वयं चिकित्सा अभियान का प्रभावी नेतृत्व करते हुए न केवल कोरोना संक्रमण को फैलने से रोका है बल्कि पीड़ितों को समूचा उपचार भी प्रदत्त करने के समुचित उपक्रम किये हैं। प्रश्न केन्द्र सरकार एवं केन्द्रीय स्वास्थ्यमंत्री की कोरोना मुक्ति की योजनाओं को लेकर नहीं है। प्रश्न है भारत की चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का, कोरोना के दौरान इस अंधेरे का अहसास तीव्रता से हुआ है।
देश में कोरोना के दौरान सरकारी अस्पतालों में जहां चिकित्सा सुविधाओं एवं दक्ष डाॅक्टरों का अभाव देखने को मिला है, वहीं निजी अस्पतालों में आज के भगवान रूपी डॉक्टर एवं अस्पताल मालिक मात्र अपने पेशा के दौरान वसूली व लूटपाट ही करते हुए नजर आए हैं।
उनके लिये मरीजों की ठीक तरीके से देखभाल कर इलाज करना प्राथमिकता नहीं होती, उन पर धन वसूलने का नशा इस कदर हावी होता है कि वह उन्हें सच्चा सेवक के स्थान पर शैतान बना देता है। केन्द्र सरकार कोरोना पीडित को बेहतर तरीके से इस असाध्य बीमारियों की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये प्रतिबद्ध है। निजी अस्पतालों पर कार्रवाई करना बेहद जरूरी है क्योंकि कोरोना के समय में अनेक अस्पतालों ने चिकित्सा-सेवा को मखौल बना दिया था।
सरकार की जागरूकता एवं सख्त कार्रवाई से न केवल कोरोना पीड़ित व्यक्ति को चिकित्सा का वास्तविक लाभ मिल सकेगा, बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं गड़बड़ियों को दूर किया जा सकेगा, जो शर्मनाक ही नहीं बल्कि डॉक्टरी पेशा के लिए बहुत ही घृणित है। इन अमानवीयता एवं घृणा की बढ़ती स्थितियों पर नियंत्रण एवं कोरोना महामारी को फैलने से रोकने की एक सार्थक पहल और दोषी अस्पतालों पर कठोर कार्रवाई जरूरी है।
भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रभावी चिकित्सा व्यवस्था स्थापित करना एक महत्वपूर्ण मिशन एवं विजन है, उन्होंने इसके लिये आयुष्मान भारत योजना लागू करते हुए हर व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया था। लेकिन सरकार के साथ-साथ इसके लिये आम व्यक्ति को भी जागरूक होना होगा।
हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना जागे, तभी भारत आयुष्मान बनेगा, तभी कोरोना को चिकित्सा स्तर पर परास्त करने में सफलता मिलेगी, और तभी चिकित्सा जगत में व्याप्त अनियमितताओं एवं धृणित आर्थिक दृष्टिकोणों पर नियंत्रण स्थापित होगा। डाॅक्टर का पेशा एक विशिष्ट पेशा है। एक डाॅक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है, इसलिये इसकी विशिष्टता और गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। एक कुशल चिकित्सक वह है जो न केवल रोग की सही तरह पहचान कर प्रभावी उपचार करें, बल्कि रोगी को जल्द ठीक होने का भरोसा भी दिलाए।
रोगी की सबसे बड़ी आर्थिक चिन्ता को सरकार ने दूर करने की योजनाएं प्रस्तुत की है तो अस्पताल एवं डाॅक्टर गरीबों के निवालों को तो न छीने। राष्ट्रीय जीवन की कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर उन्हें रोज नहीं संभाला जाए या रोज नया नहीं किया जाए तो वे खो जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं जो अगर पुरानी हो जाएं तो सड़ जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जाएं कि वे आपके हाथ में हैं तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं। इन्हें स्वयँ जीकर ही जीवित रखा जाता है। डाॅक्टरों एवं अस्पतालों को नैतिक बनने की जिम्मेदारी निभानी ही होगी, तभी वे चिकित्सा के पेशे को शिखर दें पाएंगे, तभी कोरोना मुक्ति के वास्तविक उद्देश्यों को हासिल कर सकेंगे।
भारत में गांवों में चिकित्सा प्रक्रिया को प्रभावी एवं सशक्त बनाने की जरूरत है। इन दिनों एक रिपोर्ट खास चर्चा में है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के गांवों में मेडिकल प्रैक्टिस करने वाले तीन में से दो के पास न तो यथोचित डिग्री है और न कोई विधिवत प्रशिक्षण।
वे जरूरी ज्ञान के बिना ही लोगों की जान से खेल रहे हैं। यही कारण है कि हमारे गांवों में बीमारी और मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। जाहिर है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के अभाव के कारण ही निजी क्षेत्र में कथित डॉक्टरों का स्याह साम्राज्य फैल गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2016 की एक रिपोर्ट का भी खतरनाक तथ्य यह है कि इन कथित डॉक्टरों या झोलाछाप में से 31.4 प्रतिशत स्कूल से आगे नहीं पढ़े हैं। लोगों के बीच अशिक्षा व गरीबी का आलम ऐसा है कि वे हर इलाज के लिए गांव से शहर नहीं जा सकते। ऐसे में, वे गांवों में मौजूद झोलाछाप पर निर्भर होकर खतरा उठाते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया है कि महज डिग्री होने से ही इलाज में महारत हासिल नहीं हो जाती। तमिलनाडु और कर्नाटक में जो अनौपचारिक चिकित्सा सेवक थे, उनकी योग्यता बिहार व उत्तर प्रदेश के अनेक प्रशिक्षित डॉक्टरों से भी बेहतर पाई गई। दक्षिण के राज्यों में चिकित्सा की अपेक्षाकृत ठीक स्थिति इसलिए भी है, क्योंकि वहां अनौपचारिक सेवक किसी औपचारिक डॉक्टर के पास वर्षों तक काम करके सीखते हैं, जबकि उत्तर के राज्यों में थोड़ी-बहुत जानकारी होते ही मरीजों की सेहत से खिलवाड़ शुरू हो जाता है। केरल एक बेहतर अपवाद है, जहां शिक्षा व जागरूकता ज्यादा होने के कारण झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या समय के साथ कम होती गई है।
इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों एवं कोरोना महामारी के प्रकोप ने ग्रामीण इलाकों में पारंगत डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाने के तमाम उपाय युद्ध स्तर पर किये जाने की आवश्यकता को उजागर किया है। नए डॉक्टरों को कुछ वर्ष गांवों में सेवा के लिए बाध्य करना चाहिए। ऐसे उपाय कुछ राज्यों ने कर रखे हैं, इसकी कड़ाई से पालना जरूरी है। ऐसे प्रावधान करने चाहिए कि वे कहीं और सेवा या नौकरी में रहते हुए भी महीने या साल में कुछ-कुछ दिन अपने गांव जाकर या किसी भी ग्रामीण क्षेत्र का चयन कर अपनी सेवाएं दे। हमारे गांव अच्छे डॉक्टरों के लिए तरस रहे हैं, उनके इंतजार को जल्द से जल्द खत्म करना सरकार ही नहीं, बल्कि चिकित्सा संगठनों-संस्थानों का भी कर्तव्य है।
एक लोकतांत्रिक देश में लोगों के इलाज की जिम्मेदारी सरकार की होती है और वह इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सरकारी इलाज की सबसे अच्छी व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया की मानी जाती है। वहां अस्पताल में उपलब्ध कुल बेड में से 80 फीसदी सरकारी अस्पतालों में हैं। यही नहीं, सरकारी अस्पताल प्राइवेट की तुलना में बेहतर इलाज मुहैया कराते हैं। ऑस्ट्रेलिया ने आइएएस की तरह हेल्थकेयर का अलग कैडर बना रखा है।
वहां अमीर व्यक्ति भी बीमार होता है तो सबसे पहले सरकारी अस्पताल में जाता है न कि प्राइवेट अस्पताल में। ऐसा ही कुछ मलेशिया में और हांगकांग में है। इसके विपरीत भारत आबादी के हिसाब से अस्पतालों में बेड बढ़ाने एवं चिकित्सा सेवाओं को प्रभावी बनाने में बुरी तरह विफल रहा। अब सरकार का ध्यान इस ओर गया है,जब कि उसे परिणाम आये, तब तक हेल्थकेयर के मोर्चे पर सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी ही देश में कोरोना पीड़ितों का कारगर इलाज कर सकती है।
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शर्मनाक हरकत, कोविड मरीज़ का हुआ बलात्कार
नई दिल्ली। केरल के पथानमथिट्टा जिले में शनिवार देर रात अस्पताल ले जाते समय एम्बुलेंस चालक द्वारा कथित तौर पर कोविड-19 के लिए सकारात्मक परीक्षण करने वाली 19 वर्षीय महिला के साथ बलात्कार किया गया। पुलिस ने चालक नौफाल को गिरफ्तार कर लिया और कहा कि, उसके खिलाफ 2019 से लंबित हत्या का प्रयास का मामला है। पुलिस ने यह भी कहा कि, उसने राज्य के स्वास्थ्य विभाग की एम्बुलेंस सेवा के साथ चालक के रूप में जुड़ने से पहले अनिवार्य मंजूरी प्रमाण पत्र प्राप्त नहीं किया था।
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यह भी पढ़े:- ‘भूत पुलिस’ की हिस्सेदार बनी यामी और जैकलिन
पुलिस अधीक्षक के जी साइमन ने कहा कि, चालक ने पीड़ित और एक अन्य महिला, एक 40 वर्षीय कोविड रोगी, अदूर से उठाया। जबकि 19 वर्षीय को पंडालम के एक कोविड फर्स्ट टाइम ट्रीटमेंट सेंटर में भर्ती होना था, दूसरी महिला को अरनमुला के एक कोविड केंद्र में ले जाना था। हालाँकि पांडालम अदूर से अरनमुला जाने का मार्ग है, लेकिन ड्राइवर सीधे अरनमुला चला गया, वहाँ 40 वर्षीय को गिरा दिया, और फिर 19 वर्षीय के साथ पंडालम के लिए रवाना हो गया। अपने रास्ते पर, चालक ने कथित तौर पर एम्बुलेंस को एक सुनसान जगह पर पहुँचाया और उसे कोविड केंद्र में ले जाने से पहले उसका बलात्कार किया।
पुलिस ने कहा कि, ‘उसे छोड़ने से पहले, ड्राइवर ने उससे माफी मांगी और उसे इस घटना के बारे में नहीं बोलने के लिए कहा।’ पुलिस ने कहा कि, महिला ने उसकी बातों को रिकॉर्ड किया और अस्पताल के कर्मचारियों को सूचित किया, जिससे चालक की गिरफ्तारी हुई।
केरल मानवाधिकार आयोग और केरल महिला आयोग ने पुलिस से कार्रवाई की रिपोर्ट मांगी है।
महिला पैनल की चेयरपर्सन और सीपीआई (एम) नेता एम सी जोसेफीन ने कहा कि, आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को कोविड ड्यूटी पर नहीं रखा जाना चाहिए। उसने कहा, घटना से पता चलता है कि, महिला रोगियों को अस्पताल ले जाने के दौरान विशेष सुरक्षा की आवश्यकता होती है। सभी ड्राइवरों को अब इस घटना की पृष्ठभूमि के खिलाफ निकासी प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है|
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शर्मनाक हरकत, कोविड मरीज़ का हुआ बलात्कार
नई दिल्ली। केरल के पथानमथिट्टा जिले में शनिवार देर रात अस्पताल ले जाते समय एम्बुलेंस चालक द्वारा कथित तौर पर कोविड-19 के लिए सकारात्मक परीक्षण करने वाली 19 वर्षीय महिला के साथ बलात्कार किया गया। पुलिस ने चालक नौफाल को गिरफ्तार कर लिया और कहा कि, उसके खिलाफ 2019 से लंबित हत्या का प्रयास का मामला है। पुलिस ने यह भी कहा कि, उसने राज्य के स्वास्थ्य विभाग की एम्बुलेंस सेवा के साथ चालक के रूप में जुड़ने से पहले अनिवार्य मंजूरी प्रमाण पत्र प्राप्त नहीं किया था।
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पुलिस अधीक्षक के जी साइमन ने कहा कि, चालक ने पीड़ित और एक अन्य महिला, एक 40 वर्षीय कोविड रोगी, अदूर से उठाया। जबकि 19 वर्षीय को पंडालम के एक कोविड फर्स्ट टाइम ट्रीटमेंट सेंटर में भर्ती होना था, दूसरी महिला को अरनमुला के एक कोविड केंद्र में ले जाना था। हालाँकि पांडालम अदूर से अरनमुला जाने का मार्ग है, लेकिन ड्राइवर सीधे अरनमुला चला गया, वहाँ 40 वर्षीय को गिरा दिया, और फिर 19 वर्षीय के साथ पंडालम के लिए रवाना हो गया। अपने रास्ते पर, चालक ने कथित तौर पर एम्बुलेंस को एक सुनसान जगह पर पहुँचाया और उसे कोविड केंद्र में ले जाने से पहले उसका बलात्कार किया।
पुलिस ने कहा कि, ‘उसे छोड़ने से पहले, ड्राइवर ने उससे माफी मांगी और उसे इस घटना के बारे में नहीं बोलने के लिए कहा।’ पुलिस ने कहा कि, महिला ने उसकी बातों को रिकॉर्ड किया और अस्पताल के कर्मचारियों को सूचित किया, जिससे चालक की गिरफ्तारी हुई।
केरल मानवाधिकार आयोग और केरल महिला आयोग ने पुलिस से कार्रवाई की रिपोर्ट मांगी है।
महिला पैनल की चेयरपर्सन और सीपीआई (एम) नेता एम सी जोसेफीन ने कहा कि, आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को कोविड ड्यूटी पर नहीं रखा जाना चाहिए। उसने कहा, घटना से पता चलता है कि, महिला रोगियों को अस्पताल ले जाने के दौरान विशेष सुरक्षा की आवश्यकता होती है। सभी ड्राइवरों को अब इस घटना की पृष्ठभूमि के खिलाफ निकासी प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है|
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केवल 19 घंटे में पांच दर्शन याद किए काशी के कौटिल्य ने
वाराणसी. गंगा गोमती संगम तट पर स्थित कैथी की पहचान यूं तो श्री मार्कंडेय महादेव तीर्थ स्थल होने के कारण अधिक है. लेकिन हाल ही में एक अत्यंत प्रतिभाशाली बच्चे ने वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाकर इस इलाके को मशहूर कर दिया है. कैथी का रहने वाला अक्षत पाण्डेय को महज 11 वर्ष की उम्र में श्रीमद भगवतगीता, 9 उपनिषद और पांच दर्शन पूरी तरह कंठस्थ है. अब अक्षत वेद तथा अष्टाध्यायी (पण विकृत) याद करने में जुटा है. ग्रंथों को याद करने के साथ ही अक्षत ने योग और प्राणायाम में भी महारत हासिल की है. जिस प्रकार गणना के अद्भुत ज्ञान के लिए गूगल ब्वाय कौटिल्य की ख्याति है उसी प्रकार जल्द ही काशी के अक्षत की भी वेद अध्ययन के क्षेत्र में एक विशेष पहचान होगी.
पतंजलि गुरूकुलम हरिद्वार का छात्र है अक्षत
अक्षत पाण्डेय वर्तमान में योगगुरु स्वामी रामदेव जी द्वारा संचालित पतंजलि गुरूकुलम हरिद्वार में कक्षा 6 का छात्र है. उक्त संस्थान में उसका प्रवेश 25 मार्च 2019 को हुआ. केवल 14 महीने के अध्ययन में अनेक ग्रंथों को आद्योपांत कंठस्थ कर लेने की अदम्य क्षमता के चलते अक्षत आज कुरुकुलम के सभी गुरुजनों का दुलारा बन गया है. स्वयं स्वामी रामदेव जी ने विगत सप्ताह आस्था चैनल में अपने कार्यक्रम के दौरान अक्षत को अपने बगल में बैठा कर उसकी इस प्रतिभा के बारे में बताया और कहा कि मात्र 19 घंटे में अक्षत में पांच दर्शन कंठस्थ किये जो एक विश्व कीर्तिमान है.
परिवार की आध्यात्मिक प्रवृत्ति का असर
अक्षत के माता पिता और कैथी ग्रामवासी अपने इस प्रतिभावान बच्चे की शानदार उपलब्धि से प्रफुल्लित हैं. पिता अरुण पाण्डेय राजन स्नातक हैं और कैथी गाँव में ही जन सुविधा केंद्र का संचालन करते हैं और माता साधना पाण्डेय भी स्नातक हैं . अक्षत का बड़ा भाई देव मिहिर पाण्डेय लक्ष्मी शंकर इंटर कालेज राजवारी में दसवीं कक्षा का छात्र है . अक्षत के दादा चिंता हरण पाण्डेय सेना में थे जो अब अवकाश प्राप्त हैं . पूरा परिवार बहुत ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति का है जिसका असर बचपन से ही अक्षत पर पड़ा.
एक बार में याद हो जाता है पढ़ा हुआ
एक बार भी पढ़ लेने पर उसे पाठ्य सामग्री कंठस्थ हो जाती है इसकी क्षमता को देखते हुए माता पिता ने उसे अपने से दूर रख कर गुरूकुलम में शिक्षा के लिए भेजने का कठिन निर्णय लिया. पतंजलि गुरूकुलम के नियम के अनुसार प्रवेश के बाद छात्र कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद ही घर वापस लौट पायेगा. माता पिता वर्ष में एक बार गुरूकुलम जाकर बच्चे से मिल सकते हैं . 14 महीने की अवधि में अक्षत के माता पिता मात्र एक बार उससे मिले हैं. उसकी प्रगति और उपलब्धियों की सूचना नियमित मिलती रहती है.
गुरूकुल में बिता रहा है अनुशासित दिनचर्या
पतंजलि गुरूकुलम में अक्षत की दिनचर्या बहुत ही व्य्वास्थ्तित और अनुशासित है, योग ध्यान से लेकर भाषा, आध्यात्म और विगयान की पढ़ाई कराई जाती है. इस दौरान सभी गतिविधियों पर गुरुजनों की दृष्टि रहती है. बच्चों की बहुमुखी प्रतिभा को निखारने की हर संभव कोशिश की जाती है. प्रतिभाशाली बच्चों को स्वामी रामदेव जी विशेष रूप से प्रोत्साहित करते रहते हैं .
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बहुत खास होते हैं नवंबर महीने में जन्मे लोग, होती हैं ये खूबियां
किसी भी व्यक्ति के स्वभाव कैसा है और खासियत का पता आप उसके जन्म माह से लगा सकते हैं। आज हम आपको नवंबर में जन्मे लोगों के स्वभाव और पर्सनैलिटी के बारे में बता रहे हैं। इस माह में जन्म लेने वाले लोग न सिर्फ अपनी बुलंदी पर पहुंचते हैं बल्कि वो बेहद भाग्यशाली, धनवान और मस्तमौले किस्म के भी होते हैं। आइए जानते हैं नवंबर में जन्म लेने वाले लोगों की खूबियों के बारे में-
नवंबर में पैदा हुए लोग दूसरों से बहुत अलग होते हैं। वे इतने खास होते हैं कि शायद ही उनकी तरह का कोई दूसरा हो। वह दुनिया से हटकर सोच रखते हैं। उनके काम करने का तरीका बिल्कुल अलग होता है जो सभी को प्रभावित करता है।
इस महीने में पैदा हुए लोग वफादार होते हैं। चाहे दोस्त हो, परिवार या फिर जीवनसाथी वे कभी भी आपके साथ धोखा नहीं करते हैं। आप उन पर आंख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं।
लोग इनके व्यक्तित्व की तरफ बहुत आकर्षित होते हैं। वे जहां कहीं भी जाते हैं, आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। लोग उनकी मौजूदगी को पसंद करते हैं। कई बार दूसरे लोगों को इससे ईर्ष्या भी होने लगती है।
नवंबर में पैदा हुए लोग समय पर काम करते हैं। जो कुछ भी वह ठान लेते हैं, वो करके दिखाते हैं। वो अपने हर काम में 200 प्रतिशत देते हैं। नवंबर में पैदा हुए लोग बहुत ही मेहनती और बुद्धिमान होते हैं।
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