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श्रीकांत
मंच पर खड़े होकर कुछ बेवकूफ़ चीख़ रहे हैं कवि स�� आशा करता है सारा देश. मूर्खों! देश को खो कर ही मैंने प्राप्त की थी यह कविता जो किसी की भी हो सकती है जिस के जीवन में वह वक़्त आ गया हो जब कुछ भी नहीं हो उसके पास खोने को जो न उम्मीद करता हो न अपने से छल जो न करता हो प्रश्न न ढूँढ़ता हो हल हल ढूँढ़ने का काम कवियों ने ऊबकर सौंप दिया है गणितज्ञ पर और उसने राजनीतिज्ञ पर - श्रीकांत
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श्रीकांत
मंच पर खड़े होकर कुछ बेवकूफ़ चीख़ रहे हैं कवि से आशा करता है सारा देश. मूर्खों! देश को खो कर ही मैंने प्राप्त की थी यह कविता जो किसी की भी हो सकती है जिस के जीवन में वह वक़्त आ गया हो जब कुछ भी नहीं हो उसके पास खोने को जो न उम्मीद करता हो न अपने से छल जो न करता हो प्रश्न न ढूँढ़ता हो हल हल ढूँढ़ने का काम कवियों ने ऊबकर सौंप दिया है गणितज्ञ पर और उसने राजनीतिज्ञ पर - श्रीकांत
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कुमार विजय गुप्त
"हर तरफ कीचड़-ही-कीचड़, हर जगह जमी है काई जरा संभल के, बड़ा ही फिसलन भरा समय है भाई
अलबत्ता अपने ही मज़े हैं ऐसी फिसलनों के लिहाजा इन फिसलनों को बार बार दुहराया जा रहा है इन फिसलनों के लुत्फ़ उठाए जा रहे हैं इन फिसलनों पर इतराया जा रहे हैं बिना किसी शर्मिंदगी के बग़ैर किसी खेद के
इन दिनों फिसलने में तज़ुर्बे तोले जा रहे हैं फिसलने में उम्मीद ढूंढ़ी जा रही है फिसलने पर बाग-बाग हुआ जा रहा है कि फिसलने को, मंज़िल तक पहुँचने का सब से क़ामयाब रास्ता माना जा रहा है
बड़ा ही फिसलन भरा समय है भाई कि लाख आगाह किए जाने के बावजूद लोग बारबार फिसल रहे हैं लोग गिर रहे हैं गंदले हो रहे हैं और फिर खीसें निपोरते हर बार यही कह रहे हैं कि दाग़ अच्छे हैं“
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कृष्णा सोबती दार्जलिंग को याद करते:
आकाश मंडल को सजाए हुए ऊँचाईयां, गहराइयां, आकाश छूते पर्वत-पहाड़ धवल-बर्फीले, धूप में उजराते, भूरे हरियाते पहाड़ों पर बिछी बर्फीली रूई की चादरें. सूरज की दुपहरिया ताप से उनमें से फूटते चांदी के पगले झोरे. सूरज से दमकते पनीले बाके. हवाओं में उछलते-कूदते. वह रही हिमालय महाराज की दुल्��नियां-कंचनजंगा
रूठकर लेटी है सिर ��र चांदी के चौक फूल पहने. रात भर हिमालय के उजरे प्रकाश की प्रतीक्षा में. हिमालय ठीक भोर से पहले अंबर में अपनी खिड़की खोलेंगे.
कंचनजंगा को लाड़ से देखेंगे. चमकते रहो कंचनी. मेरी ओर से तुम्हारे लिए सदा के लिए शुभकामनाएं. अँधेरे में उगते भोर से पहले देखना मेरी पूर्व दिशा में! यही खेल इतना ही है दिन-रात की आँखमिचौनी का. यह रहा दिन और वह रही रात.
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लद्दाख यात्रा वृतांत से जुड़े सवाल पर कृष्णा सोबती ने कहा:
मुझे सैलानी स्वाभाव मिला है मगर घूमने की सहूलियतें कुछ कम रहींमैं इस से कभी परेशान नहीं हुई. टोली, पहाड़ों की थपथप��ती, गुनगुनाती हवाएं, सागर में एक-दुसरे को छेड़ती, थपथपाती लहरें, अंधियारे में झमझमाते पेड़ों की कतारें। इस मंडल को सजाए हुए ऊंचाइयां, गहराइयां, भूरे पहाड़ों पर बिछी बर्फीली चद्दरें, धूप में पिघलती पानी की धाराएं - मैं इन सब को अपने जीवन का उपहार मानती हूँ कि इन्हें देख सकी. क्या कंचनजंगा और क्या हिमालय!
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दाग़
जिस वक़्त आये होश में कुछ बेखुदी से हम करते रहे ख़्याल में बातें उसी से हम
नाचार तुम हो दिल से तो मजबूर जी से हम रखते हो तुम किसी से मुहब्बत किसी से हम"
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दाग़
"हाथ अपने दोनों निकले काम के दिल को थामा उनका दामन थाम के"
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दाग़
अगर आप में से कोई उर्दू लिखने वाला हो तो पेश है आप के लिए:
"दाग़ के सब हर्फ़ लिखते हैं जुदा टुकड़े कर डाले हमारे नाम के"
उर्दू लिपि में दाग़ के अक्षर अलग-अलग लिखे जाते हैं: दाल-अलिफ़-ग़ैन
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दाग़
रोज़ मरता हूँ रोज़ जीता हूँ ज़िन्दगी का कोई हिसाब नहीं
साक़िया तिशनगी की ताब नहीं ज़हर दे दे अगर शराब नहीं
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दाग़ की नसीहतें आगे और:
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मेरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है
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दाग़
जो हो आगाज़ में बेहतर वो ख़ुशी है बदतर जिसका अंजाम हो अच्छा वो मुसीबत अच्छी
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शमीम कुरहानी की "तेरे शबिस्ताँ से" से
सजी हुई है सितारों से मयकदे की फ़िज़ा कि रात तेरे तसव्वुर में ढल के आई है
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जोश मलीहाबादी
इश्क़ में कहते हो हैरान हुए जाते हैं ये नहीं कहते कि इंसान हुए जाते हैं
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सैयद ज़मीर जाफ़री
तूने देखा ही नहीं प्यार से ज़र्रे की तरफ़ आँख होती तो सितारे भी नुमाया होते
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गुलज़ार
पिघल-पिघलकर गले से उतरेगी आख़िरी बूँद दर्द की जब मैं साँस की आख़िरी गिरह को भी खोल दूँगा
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गुलज़ार
हाँ यही बूँद लहू की जिसे दिल कहते हैं एक दिन आँखों में बह जाएगी दरिया होकर तुम्हारे होंट मुझे देखते हैं हैरां-से मेरी उदासी का चेहरा तुम्हारा चेहरा है
उदास रहने दो मुझे सुकूते-दर्द लिये
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