#KrishnaSobti
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jalwagah · 8 years ago
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कृष्णा सोबती दार्जलिंग को याद करते:
आकाश मंडल  को सजाए हुए ऊँचाईयां, गहराइयां, आकाश छूते पर्वत-पहाड़ धवल-बर्फीले, धूप में उजराते, भूरे हरियाते पहाड़ों पर बिछी बर्फीली रूई की चादरें. सूरज की दुपहरिया ताप से उनमें से फूटते चांदी के पगले झोरे. सूरज से दमकते पनीले बाके. हवाओं में उछलते-कूदते. वह रही हिमालय महाराज की दुल्हनियां-कंचनजंगा
रूठकर लेटी है सिर पर चांदी के चौक फूल पहने. रात भर हिमालय के उजरे प्रकाश की प्रतीक्षा में. हिमालय ठीक भोर से पहले अंबर में अपनी खिड़की खोलेंगे.
        कंचनजंगा को लाड़ से देखेंगे. चमकते रहो कंचनी. मेरी ओर से तुम्हारे लिए सदा के  लिए शुभकामनाएं. अँधेरे में उगते भोर से पहले देखना मेरी पूर्व दिशा में! यही खेल इतना ही है दिन-रात की आँखमिचौनी का. यह रहा दिन और वह रही रात.
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jalwagah · 8 years ago
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लद्दाख यात्रा वृतांत से जुड़े सवाल पर कृष्णा सोबती ने कहा:
मुझे सैलानी स्वाभाव मिला है मगर घूमने की सहूलियतें कुछ कम रहींमैं इस से कभी परेशान नहीं हुई. टोली, पहाड़ों की थपथपाती, गुनगुनाती हवाएं, सागर में एक-दुसरे को छेड़ती,  थपथपाती लहरें, अंधियारे में झमझमाते पेड़ों की कतारें। इस मंडल को सजाए हुए ऊंचाइयां, गहराइयां, भूरे पहाड़ों पर बिछी बर्फीली चद्दरें, धूप में पिघलती पानी की धाराएं - मैं इन सब को अपने जीवन का उपहार मानती हूँ कि  इन्हें देख सकी. क्या कंचनजंगा और क्या हिमालय!  
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