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whyspeakin · 4 years
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हिमालय - रामधारी सिंह दिनकर
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हिमालय
  हिमालय
                   रामधारी सिंह दिनकर   मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे विशाल! ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष! रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश। सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार, जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार, 'पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार।' उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल, व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। मेरे नगपति! मेरे विशाल! कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष! तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? ओ री उदास गण्डकी! बता विद्यापति कवि के गान कहाँ? तू तरुण देश से पूछ अरे, गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी यह सुलग रही है कौन आग? प्राची के प्रांगण-बीच देख, जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, तू सिंहनाद कर जाग तपी! मेरे नगपति! मेरे विशाल! रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। कह दे शंकर से, आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। सारे भारत में गूँज उठे, 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। ले अंगडाई हिल उठे धरा कर निज विराट स्वर में निनाद तू शैलीराट हुँकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद तू मौन त्याग, कर सिंहनाद रे तपी आज तप का न काल नवयुग-शंखध्वनि जगा रही तू जाग, जाग, मेरे विशाल  रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर' की अधिक कविताओं के लिए ’कृपया विजिट करें':- बागी – रामधारी सिंह दिनकर पटना जेल की दीवार से – रामधारी सिंह दिनकर गा रही कविता युगों से मुग्ध हो – रामधारी सिंह दिनकर जागरण – रामधारी सिंह दिनकर राजा रानी – रामधारी सिंह दिनकर निर्झरिणी - रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar For Government Jobs Please Visit At:-http://sarkarinaukri.ws/ For Information On Family Vacation,Hotels,Forts,etc. Please Visit At:-https://destination.live/  Read the full article
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whyspeakin · 4 years
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बागी - रामधारी सिंह दिनकर
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बागी
  बागी
          रामधारी सिंह दिनकर (बोरस्टल जेल के शहीद यतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु पर) निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले, बन्धन-मुक्ति न हुई, जननि की गोद मधुरतम छोड़ चले। जलता नन्दन-वन पुकारता, मधुप! कहाँ मुँह मोड़ चले? बिलख रही यशुदा, माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले? उबल रहे सब सखा, नाश की उद्धत एक हिलोर चले; पछताते हैं वधिक, पाप का घड़ा हमारा फोड़ चले। माँ रोती, बहनें कराहतीं, घर-घर व्याकुलता जागी, उपल-सरीखे पिघल-पिघल तुम किधर चले मेरे बागी? रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर' की अधिक कविताओं के लिए ’कृपया विजिट करें':- पटना जेल की दीवार से – रामधारी सिंह दिनकर गा रही कविता युगों से मुग्ध हो – रामधारी सिंह दिनकर जागरण – रामधारी सिंह दिनकर राजा रानी – रामधारी सिंह दिनकर निर्झरिणी - रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar For Government Jobs Please Visit At:-http://sarkarinaukri.ws/ For Information On Family Vacation,Hotels,Forts,etc. Please Visit At:-https://destination.live/  Read the full article
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whyspeakin · 4 years
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पटना जेल की दीवार से - रामधारी सिंह दिनकर
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पटना जेल की दीवार से
  पटना जेल की दीवार से
                                                    रामधारी सिंह दिनकर   मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार! ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार! निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह, दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह । एक मनुज, चालीस कोटि मनुजों का जो है प्यारा, एक मनुज, भारत-रानी की आँखों का ध्रुवतारा। एक मनुज, जिसके इंगित पर कोटि लोग चलते हैं, आगे-पीछे नहीं देखते, खुशी-खुशी जलते हैं । एक मनुज, जिसका शरीर ही बन्दी है पाशों में, लेकिन, जो जी रहा मुक्त हो जनता की सांसों में। जिसका ज्वलित विचार देश की छाती में बलता है, और दीप्त आदर्श पवन में भी निश्चल जलता है। कोटि प्राण जिस यशःकाय ऋषि की महिमा गाते हैं, इतिहासों में स्वयं चरण के चिह्न बने जाते हैं। वह मनुष्य, जो आज तुम्हारा बन्दी केवल तन से, लेकिन, व्याप रहा है जो सारे भारत को मन से। मुट्ठी भर हड्डियाँ निगलकर पापिनि, इतराती हो? मुक्त ��िराट पुरुष की माया समझ नहीं पाती हो ? तुम्हें ज्ञात, उर-उर में किसकी पीड़ा बोल रही है? धर्म-शिखा किसकी प्रदीप्त गृह-गृह में डोल रही है? किसके लिए असंख्य लोचनों से झरने है जारी? किसके लिए दबी आहों से छिटक रही चिनगारी? धुँधुआती भट्ठियाँ एक दिन फूटेंगी, फूटेंगी ; ये जड़ पत्थर की दीवारें टूटेंगी, टूटेंगी। जंजीरों से बड़ा जगत में बना न कोई गहना, जय हो उस बलपुंज सिंह की, जिसने इनको पहना। आँखों पर पहरा बिठला कर हँसें न किरिचोंवाले, फटने ही वाले हैं युग के बादल काले-काले। मिली न जिनको राह, वेग वे विद्युत बन आते हैं, बहे नहीं जो अश्रु, वही अंगारे बन जाते हैं। मानवेन्द्र राजेन्द्र हमारा अहंकार है, बल है, तपःपूत आलोक, देश माता का खड्ग प्रबल है। जिस दिन होगी खड़ी तान कर भृकुटी भारत-रानी खड्ग उगल देना होगा ओ पिशाचिनी दीवानी ! घड़ी मुक्ति की नहीं टलेगी कभी किसी के टाले, शाप दे गये तुम्हे, किन्तु, मिथिला के मरनेवाले । रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर' की अधिक कविताओं के लिए ’कृपया विजिट करें':- गा रही कविता युगों से मुग्ध हो – रामधारी सिंह दिनकर जागरण – रामधारी सिंह दिनकर राजा रानी – रामधारी सिंह दिनकर निर्झरिणी - रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar For Government Jobs Please Visit At:-http://sarkarinaukri.ws/ For Information On Family Vacation,Hotels,Forts,etc. Please Visit At:-https://destination.live/  Read the full article
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whyspeakin · 4 years
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गा रही कविता युगों से मुग्ध हो - रामधारी सिंह दिनकर
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गा रही कविता युगों से मुग्ध हो 
  गा रही कविता युगों से मुग्ध हो 
                                                                   रामधारी सिंह दिनकर गा रही कविता युगों से मुग्ध हो, मधुर गीतों का न पर, अवसान है। चाँदनी की शेष क्यों होगी सुधा, फूल की रुकती न जब मुस्कान है? चन्द्रिका किस रूपसी की है हँसी? दूब यह किसकी अनन्त दुकूल है? किस परी के प्रेम की मधु कल्पना व्योम में नक्षत्र, वन में फूल है? नत-नयन कर में कुसुम-जयमाल ले, भाल में कौमार्य की बेंदी दिये, क्षितिज पर आकर खड़ी होती उषा नित्य किस सौभाग्यशाली के लिए? धान की पी चन्द्रधौत हरीतिमा आज है उन्मादिनी कविता-परी, दौड़ती तितली बनी वह फूल पर, लोटती भू पर जहाँ दूर्वा हरी । रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर' की अधिक कविताओं के लिए ’कृपया विजिट करें':- जागरण – रामधारी सिंह दिनकर राजा रानी – रामधारी सिंह दिनकर निर्झरिणी - रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar For Government Jobs Please Visit At:-http://sarkarinaukri.ws/ For Information On Family Vacation,Hotels,Forts,etc. Please Visit At:-https://destination.live/  Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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कवि
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कवि
 कवि
  नवल उर में भर विपुल उमंग, विहँस कल्पना-कुमारी-संग, मधुरिमा से कर निज शृंगार, स्वर्ग के आँगन में सुकुमार ! मनाते नित उत्सव-आनन्द, कौन तुम पुलकित राजकुमार ! फैलता वन-वन आज वसन्त, सुरभि से भरता अखिल दिगन्त, प्रकृति आकुल यौवन के भार, सिहर उठता रह-रह संसार। पुलक से खिल-खिल उठते प्राण ! बनो कवि ! फूलों की मुस्कान । सरित सम पर देती है ताल, चन्द्र बुनता किरणों का जाल । सरल शिशु-सा सोता है विश्व, ओढ़ सपनों का वसन विशाल । निशा का परम मधुर यह हास । बनो कवि ! रत्न-खचित आकाश । विरह से व्याकुल, तप्त शरीर, नयन से झरता झर-झर नीर, जलन से झुलस रहे सब गात, जुड़ी है आँखों की बरसात, सिसक-संयुक्त अति करुण उसाँस । बनो कवि ! सावन-भादो मास । न उपवन का वह विभव-विलास, न कलियों का मृदु गंधोच्छ्वास, लता, तरुओं की शुष्क कतार, यही है उपवन के शॄंगार । काल का अति निर्मम आघात । बनो कवि ! तरु का मर्मर-पात । मधुर यौवन-स्वप्नों में भूल और फँस वैभव के छवि-जाल वासना-आसव का कर पान मनुजता हुई बहुत बेहाल । अचिर अन्तहित हों सब क्लेश । लिखो कवि ! अमर स्वर्ण-संदेश । न खिलता उपवन में सुकुमार सुमन कोई अक्षय छविमान, क्षणिक निशि का हीरक-शृंगार, उषा की क्षणभंगुर मुसकान । क्षणिक चंचल जीवन नादान । हँसो कवि ! गाकर ऐसे गान ।   
रामधारी सिंह "दिनकर"
  कलातीर्थ 
  sarakari naukri ke liye: www.sarkarinaukri.ws Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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गीतवासिनी
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गीतवासिनी
  गीतवासिनी
  सात रंगों के दिवस, सातो सुरों की रात, साँझ रच दूँगा गुलावों से, जवा से प्रात।   पाँव धरने के लिए पथ में मसृण, रंगीन, भोर का दूँगा बिछा हर रोज मेघ नवीन।   कंठ में मोती नहीं, उजली जुही की माल, अंग पर दूँगा उढ़ा मृदु चाँदनि का जाल।   दूब की ले तूलिका, ले नीलिमा से वारि, आँक दूँगा दो धनुष भ्रू-देश पर सुकुमारि।   श्रवन के ताटंक दो, पीले कुसुम सुकुमार, पहुँचियों के दो वलय, उजली कली के हार।   स्वर्णदीप्त ललाट पर दे एक टीका लाल, बाल-रवि से आँक दूँगा चंद्रमा का भाल।   आँख में काली घटा, उर में प्रणय की प्यास, साँस में दूँगा मलय का पूर्ण भर उच्छ्वास।   चाँद पर लहरायेगी दो नागिनें अनमोल, चूमने को गाल दूँगा दो लटों को खोल।   वक्र धन्वा पर चढ़ा दूँगा कुसुम के तीर, मत्त यौवन-नाग पर लावण्य की जंजीर।   कल्पना-जग में बनाऊँगा तुम्हारा वास, और ही धरती जहाँ, कुछ और ही आकाश।   स्वप्न मेरे छानते फिरते निखिल संसार, रोज लाते हैं नया कुछ रूप का शृंगार।   दूब के अंकुर कभी बौरे बकुल के फूल, पद्म के केशर कभी कुछ केतकी की धूल।   साँझ की लाली वधू की लाज की उपमान, चंद्रमा के अंक में सिमटी निशा के गान,   देखती अपलक अपरिचित पुरुरुवा की ओर, उर्वशी की आँख की मद से लबालब कोर,   प्रथम रस-परिरंभ से कंपित युवति का वेश, थरथराते-से अधर-पुट, आलुलायित केश।   चूस कर औचक जलद को भाग जाना दूर, दामिनी का वह निराला रूप मद से चूर।   रवि-करों के स्पर्श से होकर विकल, कुछ ऊब, कमलिनी का वारि में जाना कमर तक डूब।   ताल में तन, किन्तु, मन निशिभर शशी में लीन, कुमुदिनी की आँख आलस-युक्त, निद्रा-हीन।   स्वप्न की संपत्ति सारी, प्राण का सब प्यार, पास हैं जो भी विभव, दूँगा तुम्हीं पर वार।   नग्न उँगली की पहुँच के पार है जो देश, है जहाँ रहता अलभ आदर्श उज्ज्वल-वेश।   उस धरातल पर करूँगा मैं तुम्हें आसीन, ताल में भी तुम रहोगी वारि-पंक-विहीन।   निज रुधिर के ताप से जलने न दूँगा अंग, तुम रहोगी साथ रहकर भी सदा निःसंग।   गीत में ढोता फिरूँगा, भाग्य अपना मान, तुम जियोगी विश्व में बन बाँसुरी की तान।   बाँसुरी की तान वह, जिसमें सजीव, अधीर, डोलती होगी तुम्हारी मोहिनी तस्वीर।   रक्त की दुर्जय क्षुधा, दारुण त्वचा कि प्यास, गीत बनकर छा रही होंगी धरा-आकाश।   तुम बजोगी जब, बजेगी चूमने की चाह, तुम बजोगी जब, बजेगी आग-जैसी आह।   तुम बजोगी जब, बजेंगे आँसुओं क�� तार, बज उठेगी विश के प्रति रोम से झंकार।   विश्व तुमको घेरकर कलरव करेगा, फूल का उपहार ला आगे धरेगा।   कुछ तुम्हारी छवि हृदय पर आँक लेंगे; गीत के भीतर तुम्हें कुछ झाँक लेंगें।   कंठ में जाकर बसोगी तुम किसी के। प्राण में जाकर हँसोगी तुम किसी के।   मैं मुदित हूँगा कि जिस पर लुट रहा संसार, वह न कोई और, मेरे गीत की गलहार।                     -     रामधारी सिंह "दिनकर"     https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar-bhoditsav गीतवासिनी Visit Gangtok, Sikkim Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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कस्मै देवाय
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कस्मै देवाय
  कस्मै देवाय
  रच फूलों के गीत मनोहर. चित्रित कर लहरों के कम्पन, कविते ! तेरी विभव-पुरी में स्वर्गिक स्वप्न बना कवि-जीवन।   छाया सत्य चित्र बन उतरी, मिला शून्य को रूप सनातन, कवि-मानस का स्वप्न भूमि पर बन आया सुरतरु-मधु-कानन।   भावुक मन था, रोक न पाया, सज आये पलकों में सावन, नालन्दा-वैशाली के ढूहों पर, बरसे पुतली के घन।   दिल्ली को गौरव-समाधि पर आँखों ने आँसू बरसाये, सिकता में सोये अतीत के ज्योति-वीर स्मृति में उग आये।   बार-बार रोती तावी की लहरों से निज कंठ मिलाकर, देवि ! तुझे, सच, रुला चुका हूँ सूने में आँसू बरसा कर।   मिथिला में पाया न कहीं, तब ढूँढ़ा बोधि-वृक्ष के नीचे, गौतम का पाया न पता, गंगा की लहरों ने दृग मीचे।   मैं निज प्रियदर्शन अतीत का खोज रहा सब ओर नमूना, सच है या मेरे दृग का भ्रम? लगता विश्व मुझे यह सूना।   छीन-छीन जल-थल की थाती संस्कृति ने निज रूप सजाया, विस्मय है, तो भी न शान्ति का दर्शन एक पलक को पाया।   जीवन का यति-साम्य नहीं क्यों फूट सका जब तक तारों से तृप्ति न क्यों जगती में आई अब तक भी आविष्कारों से?   जो मंगल-उपकरण कहाते, वे मनुजों के पाप हुए क्यों? विस्मय है, विज्ञान बिचारे के वर ही अभिशाप हुए क्यों?   घरनी चीख कराह रही है दुर्वह शस्त्रों के भारों से, सभ्य जगत को तृप्ति नहीं अब भी युगव्यापी संहारों से।   गूँज रहीं संस्कृति-मंडप में भीषण फणियों की फुफकारें, गढ़ते ही भाई जाते हैं भाई के वध-हित तलवारें।   शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का आज रुधिर से लाल हुआ है, किरिच-नोक पर अवलंबित व्यापार, जगत बेहाल हुआ है।   सिर धुन-धुन सभ्यता-सुंदरी रोती है बेबस निज रथ में, "हाय ! दनुज किस ओर मुझे ले खींच रहे शोणित के पथ में?"   दिक्‌-दिक्‌ में शस्त्रों की झनझन, धन-पिशाच का भैरव-नर्त्तन, दिशा-दिशा में कलुष-नीति, हत्या, तृष्णा, पातक-आवर्त्तन!   दलित हुए निर्बल सबलों से मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र जन, आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित-शोषण।   क्रांति-धात्रि कविते! जागे, उठ, आडम्बर में आग लगा दे, पतन, पाप, पाखंड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।   विद्युत की इस चकाचौंध में देख, दीप की लौ रोती है। अरी, हृदय को थाम, महल के लिए झोंपड़ी बलि होती है।   देख, कलेजा फाड़ कृषक दे रहे हृदय शोणित की धारें; बनती ही उनपर जाती हैं वैभव की ऊंची दीवारें।   धन-पिशाच के कृषक-मेध में नाच रही पशुता मतवाली, आगन्तुक पीते जाते हैं दीनों के शोणित की प्याली।   उठ भूषण की भाव-रंगिणी! लेनिन के दिल की चिनगारी! युग-मर्दित यौवन की ज्वाला ! जाग-जाग, री क्रान्ति-कुमारी!   लाखों क्रौंच कराह रहे हैं, जाग, आदि कवि की कल्याणी? फूट-फूट तू कवि-कंठों से बन व्यापक निज युग की वाणी।   बरस ज्योति बन गहन तिमिर में, फूट मूक की बनकर भाषा, चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन, उमड़ गरीबी की बन आशा।   गूँज, शान्ति की सुकद साँस-सी कलुष-पूर्ण युग-कोलाहल में, बरस, सुधामय कनक-वृष्टि-सी ताप-तप्त जग के मरुथल में।   खींच मधुर स्वर्गीय गीत से जगती को जड़ता से ऊपर, सुख की सरस कल्पना-सी तू छा जाये कण-कण में भू पर।   क्या होगा अनुचर न वाष्प हो, पड़े न विद्युत-दीप जलाना; मैं न अहित मानूँगा, चाहे मुझे न नभ के पन्थ चलाना।   तमसा के अति भव्य पुलिन पर, चित्रकूट के छाया-तरु तर, कहीं तपोवन के कुंजों में देना पर्णकुटी का ही घर।   जहाँ तृणों में तू हँसती हो, बहती हो सरि में इठलाकर, पर्व मनाती हो तरु-तरु पर तू विहंग-स्वर में गा-गाकर।   कन्द, मूल, नीवार भोगकर, सुलभ इंगुदी-तैल जलाकर, जन-समाज सन्तुष्ट रहे हिल-मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर।   धर्म-भिन्नता हो न, सभी जन शैल-तटी में हिल-मिल जायें; ऊषा के स्वर्णिम प्रकाश में भावुक भक्ति-मुग्ध-मन गायें,   "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्‌, स दाधार पृथिवीं द्यामुतेर्माम्‌ कस्मै देवाय हविषा विधे म?"                 - रामधारी सिंह "दिनकर"  https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar https://ghazals.co/mithila-ramdhari-singh-dinkar https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar-bhoditsav For Jobs in Bihar Please visit: www.sarkarinaukri.ws To Visit Bihar go-to destination.live Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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मिथिला
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मिथिला
  मिथिला
  मैं पतझड़ की कोयल उदास, बिखरे वैभव की रानी हूँ मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।   अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि, गरिमा की हूँ धूमिल छाया, मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, मैं मुरझी सुषमा की माया।   मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा, सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली, खँडहर में खोज रही अपने उजड़े सुहाग की हूँ लाली।   मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि, मेरे पुत्रों का महा ज्ञान । मेरी सीता ने दिया विश्व की रमणी को आदर्श-दान।   मैं वैशाली के आसपास बैठी नित खँडहर में अजान, सुनती हूँ साश्रु नयन अपने लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान।   नीरव निशि में गंडकी विमल कर देती मेरे विकल प्राण, मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ विद्यापति-कवि के मधुर गान।   नीलम-घन गरज-गरज बरसें रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर, लहरें गाती हैं मधु-विहाग, ‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’   चांदनी-बीच धन-खेतों में हरियाली बन लहराती हूँ, आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ।   बिखरी लट, आँसू छलक रहे, मैं फिरती हूँ मारी-मारी । कण-कण में खोज रही अपनी खोई अनन्त निधियाँ सारी।   मैं उजड़े उपवन की मालिन, उठती मेरे हिय विषम हूख, कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच रह-रह अतीत-सुधि रही कूक।   मैं पतझड़ की कोयल उदास, बिखरे वैभव की रानी हूँ, मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ। रामधारी सिंह "दिनकर" read about Read the full article
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whyspeakin · 4 years
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हिमालय - रामधारी सिंह दिनकर
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हिमालय
  हिमालय
                   रामधारी सिंह दिनकर   मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे विशाल! ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष! रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश। सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार, जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार, 'पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार।' उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल, व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। मेरे नगपति! मेरे विशाल! कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष! तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? ओ री उदास गण्डकी! बता विद्यापति कवि के गान कहाँ? तू तरुण देश से पूछ अरे, गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी यह सुलग रही है कौन आग? प्राची के प्रांगण-बीच देख, जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, तू सिंहनाद कर जाग तपी! मेरे नगपति! मेरे विशाल! रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। कह दे शंकर से, आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। सारे भारत में गूँज उठे, 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। ले अंगडाई हिल उठे धरा कर निज विराट स्वर में निनाद तू शैलीराट हुँकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद तू मौन त्याग, कर सिंहनाद रे तपी आज तप का न काल नवयुग-शंखध्वनि जगा रही तू जाग, जाग, मेरे विशाल  रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर' की अधिक कविताओं के लिए ’कृपया विजिट करें':- बागी – रामधारी सिंह दिनकर पटना जेल की दीवार से – रामधारी सिंह दिनकर गा रही कविता युगों से मुग्ध हो – रामधारी सिंह दिनकर जागरण – रामधारी सिंह दिनकर राजा रानी – रामधारी सिंह दिनकर निर्झरिणी - रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar For Government Jobs Please Visit At:-http://sarkarinaukri.ws/ For Information On Family Vacation,Hotels,Forts,etc. Please Visit At:-https://destination.live/  Read the full article
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कलातीर्थ
कलातीर्थ 
  कलातीर्थ
पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन, विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे; मसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ, वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे। पहन शुक्र का कर्ण-विभूषण दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से मुक्त-कुन्तला मिला रही थी अवनी को ऊँचे अम्बर से। कला-तीर्थ को मैं जाता था एकाकी वनफूल-नगर में, सहसा दीख पड़ी सोने की हंसग्रीव नौका लघु सर में। पूर्णयौवना, दिव्य सुन्दरी जिस पर बीन लिए निज कर में भेद रही थी विपिन-शून्यता भर शत स्वर्गों का मधु स्वर में। लहरें खेल रहीं किरणों से, ढुलक रहे जल-कण पुरइन में, हलके यौवन थिरक रहा था ओस-कणों-सा गान-पवन में। मैंने कहा, "कौन तुम वन में रूप-कोकिला बन गाती हो, इस वसन्त-वन के यौवन पर निज यौवन-रस बरसाती हो?’ वह बोली, "क्या नहीं जानते? मैं सुन्दरता चिर-सुकुमारी, अविरत निज आभा से करती आलोकित जगती की क्यारी। मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ, मदभरी, रसमयी, नवेली प्रेममयी तरुणी का दृग-मद, कवियों की कविता अलबेली। वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ, मैं किसलय-किसलय पर हिमकण। फूल-फूल पर नित फिरती हूँ, दीवानी तितली-सी बन-वन। प्रेम-व्यथा के सिवा न दुख है, यहाँ चिरन्तन सुख की लाली। इस सरसी में नित म्राल के संग विचर्ती सुखी मराली। लगा लालसा-पंख मनोरम, आओ, इस आनन्द-भवन में, जी-भर पी लो आज अधर-रस, कल तो आग लगी जीवन में।" यौवन ऋषा! प्रेम ! आकर्षण! हाँ, सचमुच, तरुणी मधुमय है, इन आँखों में अमर-सुधा है, इन अधरों में रस-संचय है। मैंने देखा और दिनों से, आज कहीं मादक था हिमकर, उडुओं की मुस्कान स्पष्ट थी, विमल व्योम स्वर्णाभ सरोवर। लहर-लहर में कनक-शिखाएँ झिलमिल झलक रहीं लघु सर में, कला-तीर्थ को मैं जाता था, एकाकी सौन्दर्य-नगर में। बढ़ा और कुछ दूर विपिन में, देखा पथ संकीर्ण सघन है, दूब, फूल, रस, गंध न किंचित, केवल कुलिश और पाहन है। झुर्मुट में छिप रहा पंथ, ऊँचे-नीचे पाहन बिखरे हैं। दुर्गम पथ, मैं पथिक अकेला, इधर-उधर बन-जन्तु भरे हैं। कोमल-प्रभ चढ़ रहा पूर्ण विधु क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में, पर, देखूँ कैसे उसकी छवि? कहीं, हार हो जाय न रण में! कुछ दूरी चल उस निर्जन में देखा एक युवक अति सुन्दर पूर्णस��वस्थ, रक्ताभवदन, विकसित, प्रशस्त-उर, परम मनोहर। चला रहा फावड़ा अकेला पोंछ स्वेद के बहु कण कर से, नहर काटता वह आता था किसी दूरवाही निर्झर से। मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला, वह, "कर्तव्य, सत्य का प्यारा। उपवन को सींचने लिए जाता हूँ यह निर्झर की धारा। मैं बलिष्ठ आशा का सुत हूँ, बिहँस रहा नित जीवन-रण में; तंद्रा, अलस मुझे क्यों घेरें? मैं अविरत तल्लीन लगन में। बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर, मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ। कुचल कुलिश-कंटक-जालों को, लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ। डरो नहीं पथ के काँटों से, भरा अमित आनन्द अजिर में। यहाँ दुःख ही ले जाता है हमें अमर सुख के मन्दिर में। सुन्दरता पर कभी न भूलो, शाप बनेगी वह मीवन में। लक्ष्य-विमुख कर भटकायेगी, तुम्हें व्यर्थ फूलों के वन में। बढ़ो लक्ष्य की ओर, न अटको, मुझे याद रख जीवन-रण में।" उसके इस आतिथ्य-भाव से व्यथा हुई कुछ मेरे मन में। वह तर हुआ कर्म में अपने, मैं श्रम-शिथिल बढ़ा निज पथ पर। "सुंदरता या सत्य श्रेष्ठ है?" उठने लगा द्वन्द्व पग-पग पर। सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है, प्रेम-नदी मोहक, मतवाली। कर्म-कुसुम के बिना किन्तु, क्या भर सकती जीवन की डाली? सत्य सोंचता हमें स्वेद से, सुन्दरता मधु-स्वप्न-लहर से। कला-तीर्थ को मैं जाता था एकाकी कर्त्तव्य-नगर से। कुछ क्षण बाद मिला फिर पथ में गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर। हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों, सघन रत्न-भूषित नीलाम्बर। दूबों की नन्हीं फुनगी पर जगमग ओस बने आभा-कण; कुसुम आँकते उनमें निज छवि, जुगनू बना रहे निज दर्पण। राशि-राशि वन-फूल खिले थे, पुलकस्पन्दित वन-हृत्‌-शतदल; दूर-दूर तक फहर रहा था श्यामल शैलतटी का अंचल। एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो आकर दो प्रतिकूल विजन से; संगम पर था भवन कला का सुन्दर घनीभूत गायन-से। अमित प्रभा फैला जलता था महाज्ञान-आलोक चिरन्तन, दीवारों पर स्वर्णांकित था, "सत्य भ्रमर, सुन्दरता गुंजन। प्रखर अजस्त्र कर्मधारा के अन्तराल में छिप कम्पन-सी सुन्दरता गुंजार कर रही भावों के अंतर्गायन-सी। प्रेम सत्य की प्रथ प्रभा है, जिधर अमर छवि लहराती है; उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन बेसुध - सी दौड़ी जाती है। प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट हो जाता सुन्दरता में लय, दर्शन देता उसे स्वयं तब सुन्दर बनकर सत्य निरामय।" *** *** *** देखा, कवि का स्वप्न मधुर था, उमड़ी अमिय धार जीवन में; पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे ‘शिव-सुन्दर’ ‘आनन्द’-गगन में। मानवता देवत्व हुई थी, मिले प्राण आनन्द अमर से। कला-तीर्थ में आज मिला था महा सत्य भावुक सुन्दर से। * फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना, गुण न वह इस बाँसुरी की तान में। जो चकित करके कँपा डाले हृदय, वह कला पाई न मैंने गान में। जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह, ओस के आँसू बहाकर फूल में, ढूँढती उसकी दवा मेरी कला विश्व-वैभव की चिता की धूल में। कूकती असहाय मेरी कल्पना कब्र में सोये हुओं के ध्यान में, खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ विरहिणी कविता सदा सुनसान में। देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे, व्यापिनी निस्सारता संसार की, एक पल ठहरे जहाँ जग ही अभय, खोज करता हूँ उसी आधार की।पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन, विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे; मसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ, वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे। पहन शुक्र का कर्ण-विभूषण दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से मुक्त-कुन्तला मिला रही थी अवनी को ऊँचे अम्बर से। कला-तीर्थ को मैं जाता था एकाकी वनफूल-नगर में, सहसा दीख पड़ी सोने की हंसग्रीव नौका लघु सर में। पूर्णयौवना, दिव्य सुन्दरी जिस पर बीन लिए निज कर में भेद रही थी विपिन-शून्यता भर शत स्वर्गों का मधु स्वर में। लहरें खेल रहीं किरणों से, ढुलक रहे जल-कण पुरइन में, हलके यौवन थिरक रहा था ओस-कणों-सा गान-पवन में। मैंने कहा, "कौन तुम वन में रूप-कोकिला बन गाती हो, इस वसन्त-वन के यौवन पर निज यौवन-रस बरसाती हो?’ वह बोली, "क्या नहीं जानते? मैं सुन्दरता चिर-सुकुमारी, अविरत निज आभा से करती आलोकित जगती की क्यारी। मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ, मदभरी, रसमयी, नवेली प्रेममयी तरुणी का दृग-मद, कवियों की कविता अलबेली। वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ, मैं किसलय-किसलय पर हिमकण। फूल-फूल पर नित फिरती हूँ, दीवानी तितली-सी बन-वन। प्रेम-व्यथा के सिवा न दुख है, यहाँ चिरन्तन सुख की लाली। इस सरसी में नित म्राल के संग विचर्ती सुखी मराली। लगा लालसा-पंख मनोरम, आओ, इस आनन्द-भवन में, जी-भर पी लो आज अधर-रस, कल तो आग लगी जीवन में।" यौवन ऋषा! प्रेम ! आकर्षण! हाँ, सचमुच, तरुणी मधुमय है, इन आँखों में अमर-सुधा है, इन अधरों में रस-संचय है। मैंने देखा और दिनों से, आज कहीं मादक था हिमकर, उडुओं की मुस्कान स्पष्ट थी, विमल व्योम स्वर्णाभ सरोवर। लहर-लहर में कनक-शिखाएँ झिलमिल झलक रहीं लघु सर में, कला-तीर्थ को मैं जाता था, एकाकी सौन्दर्य-नगर में। बढ़ा और कुछ दूर विपिन में, देखा पथ संकीर्ण सघन है, दूब, फूल, रस, गंध न किंचित, केवल कुलिश और पाहन है। झुर्मुट में छिप रहा पंथ, ऊँचे-नीचे पाहन बिखरे हैं। दुर्गम पथ, मैं पथिक अकेला, इधर-उधर बन-जन्तु भरे हैं। कोमल-प्रभ चढ़ रहा पूर्ण विधु क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में, पर, देखूँ कैसे उसकी छवि? कहीं, हार हो जाय न रण में! कुछ दूरी चल उस निर्जन में देखा एक युवक अति सुन्दर पूर्णस्वस्थ, रक्ताभवदन, विकसित, प्रशस्त-उर, परम मनोहर। चला रहा फावड़ा अकेला पोंछ स्वेद के बहु कण कर से, नहर काटता वह आता था किसी दूरवाही निर्झर से। मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला, वह, "कर्तव्य, सत्य का प्यारा। उपवन को सींचने लिए जाता हूँ यह निर्झर की धारा। मैं बलिष्ठ आशा का सुत हूँ, बिहँस रहा नित जीवन-रण में; तंद्रा, अलस मुझे क्यों घेरें? मैं अविरत तल्लीन लगन में। बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर, मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ। कुचल कुलिश-कंटक-जालों को, लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ। डरो नहीं पथ के काँटों से, भरा अमित आनन्द अजिर में। यहाँ दुःख ही ले जाता है हमें अमर सुख के मन्दिर में। सुन्दरता पर कभी न भूलो, शाप बनेगी वह मीवन में। लक्ष्य-विमुख कर भटकायेगी, तुम्हें व्यर्थ फूलों के वन में। बढ़ो लक्ष्य की ओर, न अटको, मुझे याद रख जीवन-रण में।" उसके इस आतिथ्य-भाव से व्यथा हुई कुछ मेरे मन में। वह तर हुआ कर्म में अपने, मैं श्रम-शिथिल बढ़ा निज पथ पर। "सुंदरता या सत्य श्रेष्ठ है?" उठने लगा द्वन्द्व पग-पग पर। सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है, प्रेम-नदी मोहक, मतवाली। कर्म-कुसुम के बिना किन्तु, क्या भर सकती जीवन की डाली? सत्य सोंचता हमें स्वेद से, सुन्दरता मधु-स्वप्न-लहर से। कला-तीर्थ को मैं जाता था एकाकी कर्त्तव्य-नगर से। कुछ क्षण बाद मिला फिर पथ में गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर। हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों, सघन रत्न-भूषित नीलाम्बर। दूबों की नन्हीं फुनगी पर जगमग ओस बने आभा-कण; कुसुम आँकते उनमें निज छवि, जुगनू बना रहे निज दर्पण। राशि-राशि वन-फूल खिले थे, पुलकस्पन्दित वन-हृत्‌-शतदल; दूर-दूर तक फहर रहा था श्यामल शैलतटी का अंचल। एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो आकर दो प्रतिकूल विजन से; संगम पर था भवन कला का सुन्दर घनीभूत गायन-से। अमित प्रभा फैला जलता था महाज्ञान-आलोक चिरन्तन, दीवारों पर स्वर्णांकित था, "सत्य भ्रमर, सुन्दरता गुंजन। प्रखर अजस्त्र कर्मधारा के अन्तराल में छिप कम्पन-सी सुन्दरता गुंजार कर रही भावों के अंतर्गायन-सी। प्रेम सत्य की प्रथ प्रभा है, जिधर अमर छवि लहराती है; उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन बेसुध - सी दौड़ी जाती है। प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट हो जाता सुन्दरता में लय, दर्शन देता उसे स्वयं तब सुन्दर बनकर सत्य निरामय।" *** *** *** देखा, कवि का स्वप्न मधुर था, उमड़ी अमिय धार जीव��� में; पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे ‘शिव-सुन्दर’ ‘आनन्द’-गगन में। मानवता देवत्व हुई थी, मिले प्राण आनन्द अमर से। कला-तीर्थ में आज मिला था महा सत्य भावुक सुन्दर से। * फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना, गुण न वह इस बाँसुरी की तान में। जो चकित करके कँपा डाले हृदय, वह कला पाई न मैंने गान में। जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह, ओस के आँसू बहाकर फूल में, ढूँढती उसकी दवा मेरी कला विश्व-वैभव की चिता की धूल में। कूकती असहाय मेरी कल्पना कब्र में सोये हुओं के ध्यान में, खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ विरहिणी कविता सदा सुनसान में। देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे, व्यापिनी निस्सारता संसार की, एक पल ठहरे जहाँ जग ही अभय, खोज करता हूँ उसी आधार की।      https://ghazals.co/poets-hindi-ramdhari-singh-dinkar https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar-bhoditsav https://ghazals.co/poems-hindi-ramdhari-singh-dinkar-geetvasini prem ka sauda for government jobs please visit www.sarkarinaukri.ws   Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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बोधिसत्व
बोधिसत्व 
बोधिसत्व 
  सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में, देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में । काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? चले ममता का बंधन तोड़  विश्व की महामुक्ति की ओर ।   तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया , विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया । वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है , स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है ।   वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें , बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें । शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें , प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें ।   आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा ! धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा ! स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा ! दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा !   आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं , देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ? धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई , दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई ।   धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं , मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं । शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं , मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं ।   पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ? बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ? मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ; कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए ।   अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं , जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं । जागो विप्लव के वाक्‌ ! दम्भियों के इन अत्याचारों से , जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से ।   जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से , * जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से । जागो, गौतम ! जागो, महान ! जागो, अतीत के क्रांति-गान ! जागो, जगती के धर्म-तत्त्व ! जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व !   रामधारी सिंह “दिनकर” read about Read the full article
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whyspeakin · 5 years
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प्रेम का सौदा
प्रेम का सौदा
  प्रेम का सौदा
  सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो, एक पथ, बलि के लिए तैयार हो ।   फूँक दे सोचे बिना संसार को, तोड़ दे मँझधार जा पतवार को ।   कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे, कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।   हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए, रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए ।   बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं, कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं ।   प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे ! निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे !    मिल गया तो प्राण में रस घोल रे ! पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे !     प्रेम का भी क्या मनोरम देश है ! जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है ।     जल गए जो-जो लिपट अंगार से, चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से ।     प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी, चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।     हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है, भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ?     है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ? साथ जलने का लिया सामान भी ?   बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने, एक पद रखना कठिन है सामने ।   प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा, मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा ।   मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है। बेखुदी इस देश में त्योहार है ।   खोजते -ही-खोजते जो खो गया, चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।   जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ? दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं ।   ‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो, भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो ।   हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले, वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।   एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो, नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो ।   पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो, जान लो, आराध्य के तुम पास हो।   आग से मालिन्य जब धुल जायगा, एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।   आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है, प्रेम को समझे हुए आसान है ।   फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में, ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।   बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या? कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?   प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं । प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?   मिल सके निज को मिटा जो राख में, वीर ऐसा एक कोई लाख में।   भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ? प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ?   चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी, प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।  
रामधारी सिंह
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