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पत्नी, संतान और माता-पिता के भरण-पोषण से सम्बन्धित प्रावधान - धारा 125 सीआरपीसी 1973
भरण-पोषण का अधिकार – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 पत्नी, सन्तान एवं माता-पिता के भरण-पोषण के अधिकार के बारे में प्रावधान करती है, इसके अनुसार यदि पर्याप्त साधनों (Sufficient means) वाला कोई व्यक्ति – (क) अपनी पत्नी का, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या (ख) अपनी धर्मज या अधर्मज (legitimate or illegitimate) अवयस्क सन्तान का चाहे विवाहित हो या ना हो, जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ है, या (ग) अपनी धर्मज या अधर्मज सन्तान का (जो विवाहित पुत्री नहीं हैं) जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है, जहाँ ऐसी सन्तान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या (घ) अपने पिता या माता का, जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हैं, का भरण-पोषण करने में उपेक्षा करता है या भरण-पोषण करने से इन्कार करता है, उस स्थिति में ऐसी पत्नी, सन्तान एवं माता-पिता अपने पति, पिता एवं पुत्र से प्रतिमाह भरण-पोषण की युक्तियुक्त एंव निर्धारित राशि प्राप्त करने के हक़दार होंगे। अवयस्क विवाहित पुत्री का भरण-पोषण का अधिकार - कई बार हमारे सामने यह प्रशन आता है कि, क्या अवयस्क विवाहित पुत्री भी अपने पिता से भरण- पोषण की माँग कर सकती है, यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संहिता की धारा 125 के अधीन ऐसी अवयस्क विवाहित पुत्री भी अपने पिता से भरण-पोषण पाने की मांग कर सकती है –(i) जिसके पति के पास भरण-पोषण के पर्याप्त साधन नहीं हो या (ii) जब तक वह वयस्क नहीं हो जाये। क्या अधर्मज सन्तान भरण-पोषण का अधिकारी है - संहिता की धारा 125 (1) ख एवं (ग) के अन्तर्गत अधर्मज सन्तान (illegitimate children) को भी अपने पिता से भरण-पोषण पाने का हक़दार माना गया है, यदि -(i) वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है; (ii) अवयस्क है; और (iii) यदि वयस्क है तो शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। श्रीमती यमुनाबाई अनन्तराव बनाम अनन्तराव शिवराम के मामले में - अधर्मज सन्तान को अपने पिता से भरण-पोषण पाने का हक़दार माना गया है। (ए. आई. आर. 1988, ए. सी. 644) माता-पिता भरण-पोषण के अधिकारी कब होते है - संहिता की धारा 125 (1) (घ) के अन्तर्गत माता-पिता भी अपने पुत्र से भरण-पोषण की मांग निम् स्थितियों में कर सकते है, यदि -(i) वे स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो, या (ii) पुत्र के पास भरण-पोषण के पर्याप्त साधन हों। Read More This Post – भरण पोषण से संबंधित कानून Sec. 125 CrPC Read the full article
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सेशन न्यायालय के समक्ष अपराधों के विचारण की प्रक्रिया को समझाइये | Sec. 225 to 237 CrPC
सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण - सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 225 से 237 तक में किया गया है। यह उल्लेखनीय है कि सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण हेतु कोई मामला सीधा नहीं आता है। ऐसा मामला विचारण हेतु दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 209 के अन्तर्गत सेशन न्यायालय को सुपुर्द (Commit) किया जाता है। सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण की प्रक्रिया (1) विचारण का संचालन - संहिता की धारा 225 के अनुसार - सेशन न्यायालय के समक्ष प्रत्येक विचारण में अभियोजन का संचालन लोक अभियोजक (Public Prosecutor) द्वारा किया जायेगा। लोक अभियोजक को ही अधिकार है कि वह अभियोजन के मामले का प्रारम्भ करे, साक्षियों की परीक्षा करे और मामले को वापस ले (राजकिशोर रविदास बनाम स्टेट, ए. आई. आर. 1969, कलकत्ता 328) (2) अभियोजन के मामले का कथन – जब कोई मामला धारा 209 के अन्तर्गत सेशन न्यायालय में कमिट किया जाता है और इस दौरान अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष लाया जाता है या वह न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है तब लोक अभियोजक द्वारा इस कथन के साथ मामले का प्रारम्भ किया जायेगा कि – (क) अभियुक्त के विरुद्ध क्या आरोप है तथा (ख) ऐसे आरोप या आरोपों को किस साक्ष्य द्वारा साबित किया जायेगा। (धारा 226) (3) उन्मोचन – जब सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण हेतु मामला आता है। तब सेशन न्यायालय द्वारा - (क) अभिलेख एवं उसके साथ संलग्न दस्तावेजों पर विचार किया जायेगा; तथा (ख) अभियोजन एवं अभियुक्त को सुना जायेगा (4) आरोप की विरचना – मामले पर विचार करने एवं दोनों पक्षों को सुन लेने के पश्चात् यदि न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त द्वारा अपराध कारित किये जाने की उपधारणा किये जाने के आधार है और मामला अनन्य रूप से (exclusively) सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो उसके द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध लिखित में आरोपों की विरचना की जायेगी, उन्हें अभियुक्त को पढ़कर सुनाया व समझाया जायेगा तथा उससे यह पूछा जायेगा कि वह अपना दोषी होना स्वीकार करता है या मामले का विचारण चाहता है।(5) दोषी होने का अभिवचन – संहिता की धारा 229 के अनुसार अभियुक्त को आरोप सुनाये व समझाये जाने के पश्चात् यदि वह अपने दोषी होने का कथन करता है तो ऐसे कथन को न्यायालय द्वारा लेखबद्ध किया जायेगा तथा अभियुक्त को स्वविवेकानुसार दोषसिद्ध किया जायेगा।(6) अभियोजन की साक्ष्य – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 230 के अनुसार जब अभियुक्त द्वारा दोषी होने का कथन नहीं किया जाता है अथवा वह विचारण का दावा करता है तब न्यायालय द्वारा अभियोजन की साक्ष्य के लिए तारीख नियत की जायेगी तथा साक्षियों की हाजिरी या दस्तावेजों के प्रस्तुतीकरण हेतु आदेशिका जारी की जायेगी। एंवसंहिता की धारा 231 के तहत नियत तिथि को न्यायालय द्वारा उपस्थित साक्षियों के कथन लेखबद्ध किये जायेंगे और न्यायालय द्वारा उचित समझे जाने पर किसी ��ाक्षी की प्रति परीक्षा को आस्थगित किया जा सकेगा या किसी साक्षी को अतिरिक्त परीक्षा के लिए पुनः बुलाया जा सकेगा। Read More This Post - सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण की क्या प्रक्रिया है? Read the full article
#CodeofCriminalProcedure#crime#CRPCinHindi#lawnotesinhindi#Sec.225to237CrPCinHindi#TrialbeforeCourtofSession#सेशनन्यायालय
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दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत अपराधों के शमन की अवधारणा
अपराधों का शमन - प्राय: शमन से तात्पर्य – किसी प्रकरण में समझौता अर्थात् राजीनामा है और अपराधों का शमन से तात्पर्य - पक्षकारों के बीच किसी आपराधिक मामले में समझौता अर्थात् राजीनामा हो जाना है। आपराधिक कानून में पीड़ित पक्षकार के पास अपराध को शमन करने की योग्��ता होती है| शमन का उद्देश्य आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करते हुए पक्षकारों के मध्य मधुर सम्बन्धों को बनाये रखना है। अपराधों का शमन कौन कर सकता है - शमन यानि राजीनामा सामान्यतः प्रकरण के पक्षकारों द्वारा किये जाते है, संहिता की धारा 320 की उपधारा (1) व (2) की सारणियों के तीसरे स्तम्भ में उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा राजीनामा किया जा सकता है। यदि राजीनामा करने वाला व्यक्ति - (i) अवयस्क, (ii) पागल, या (iii) जड़ है तो उसकी ओर से संविदा करने योग्य व्यक्ति माननीय न्यायालय की अनुज्ञा/इजाजत से राजीनामा कर सकता है। यदि राजीनामा करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो गई है तो उसका विधिक प्रतिनिधि राजीनामा कर सकता है।अपराधों का शमन योग्य होना - आपराधिक कार्यवाही में कुछ ऐसे अपराध होते है जिनमे पीड़ित पक्षकार स्वेच्छा एवं स्वतन्त्र सहमति से राजीनामा कर उन अपराधों का शमन कर सकते है लेकिन अनेक ऐसे अपराध होते है जिनमे पीड़ित पक्षकार को राजीनामा करने से पूर्व माननीय न्यायालय की इजाजत की आवश्यकता होती है यानि ऐसे अपराधों में राजीनामा करने से पूर्व न्यायालय की इजाजत लेनी होगी| सीआरपीसी की धारा 320 की उपधारा (1) में ऐसे अपराधों का उल्लेख किया गया है जिनमें मामले के पक्षकार स्वेच्छा एवं स्वतन्त्र सहमति से राजीनामा कर सकते है, एंव सीआरपीसी की धारा 320 की उपधारा (2) में ऐसे अपराधों का उल्लेख किया गया है जिनमें राजीनामा केवल न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा से ही किया जा सकता है दामन बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले अनुसार - धारा 320 के उपबन्ध आज्ञापक है, इनका कठोरता से पालन किया जाना चाहिए। (ए.आई. आर. 2014 एस.सी. 1437) सुधीर कुमार बनाम एम.एम. कुन्हीरमण के प्रकरण में निर्धारित किया गया है कि, चैक अनादरण के मामलों में राजीनामा किया जा सकता है और ऐसे राजीनामे का परिणाम अभियुक्त का दोषमुक्त होना है। (ए.आई.आर. 2008 एन.ओ.सी. 1005 केरल) अपराधों के शमन की सारणी जिसे दो भागों में विभाजित किया गया है - (i) शमन योग्य अपराध (न्यायालय की अनुमति के बिना), (ii) शमन योग्य अपराध (न्यायालय की अनुमति से) Read More This Post - Section 320 of CrPC Explain in Hindi Read the full article
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दोहरे दंड से क्या अभिप्राय है | Double Jeopardy in hindi और इसके प्रमुख अपवाद
दोहरे खतरे से संरक्षण (Double Jeopardy) - भारतीय दाण्डिक विधि का यह महत्वपूर्ण सिद्वान्त है कि, किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दुबारा जोखिम में नहीं डाला जा सकता। (A person can not be put into peril twice the same offence) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) में यह प्रावधान किया गया है कि - "किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा।" इसे 'दोहरे दण्ड से संरक्षण' अथवा 'दोहरे खतरे से संरक्षण' (Double Jeopardy) का सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है| यह सिद्धान्त Nemo debet lis vexare procodem सूत्र पर आधारित है इसे दुसरे शब्दों में Nemo debet vis vexari भी कहा गया है यानि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार न तो अभियोजित किया जा सकता है और न ही दण्डित। दोहरे खतरे से संरक्षण धारा 300 में अन्तर्निहित सिद्धान्त – संहिता की धारा 300 में कहा गया है कि - "एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किये गये व्यक्ति का उसी अपराध के लिए दुबारा विचारण नहीं किया जायेगा।" संहिता की धारा 300 की उपधारा (1) का मूल सार यह है कि – जिस व्यक्ति का किसी अपराध के लिए सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा एक बार विचारण किया जा च��का है और जो ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किय��� जा चुका है, वह जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त रहती है, तब तक न तो उसी अपराध के लिए विचारण का भागी होगा और न उन्हीं तथ्यों पर किसी ऐसे अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा जिसके लिए उसके विरुद्ध लगवाये गये आरोप से भिन्न आरोप धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाया जा सकता था और जिसके लिए वह उसकी उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था। उदाहरण - ख के आपराधिक मानव वध के लिए क पर सेशन न्यायालय के समक्ष आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है। यहाँ ख की हत्या के लिए क का उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् विचारण नहीं किया जा सकता है। दोहरे खतरे से संरक्षण की आवश्यक शर्तें – संहिता की धारा 300 के प्रावधानों का लाभ लेने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना जरुरी है - (1) अभियुक्त किसी अपराध के लिए विचारित किया जाकर एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका हो, (2) उस अपराध के लिए जिसके लिए उसके विरुद्ध लगाये गये आरोप से भिन्न आरोप धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाया जा सकता था और जिसके लिए वह उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था, उसी अपराध के लिए नया विचारण आरम्भ किया गया हो; (गवर्नमेन्ट ऑफ बम्बई बनाम अब्दुल वहाब, ए. आई. आर. 1946 बम्बई 38 ) एंव (3) प्रथम विचारण किसी सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया हो। (बी. एम. रतनवेलू बनाम के. एस. अय्यर, ए. आई. आर. 1933, मद्रास 765) दोहरे खतरे से संरक्षण के अपवाद – धारा 300 में प्रतिपादित सिद्धान्त निरपेक्ष सिद्धान्त नहीं है। इसके कुछ अपवाद भी हैं अर्थात् कतिपय परिस्थितियों में किसी व्यक्ति का उन्हीं तथ्यों पर दुबारा विचारण किया जा सकता है। यह अपवाद निम्नलिखित है - (i) राज्य सरकार की सहमति से पुनः विचार - उपधारा (2) में यह कहा गया है कि किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किये गये व्यक्ति का, उस भिन्न अपराध के लिए, जिस पर धारा 220 (1) के अन्तर्गत प्रथम विचारण के समय ही पृथक् आरोप लगाया जा सकता था, बाद में राज्य सरकार की सहमति से विचारण किया जा सकेगा। (ii) भिन्न परिणाम पैदा होने पर विचारण – उपधारा (3) में यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसा कोई अपराध करता है जो कि अनेक कार्यों से निर्मित हुआ है और उसको किसी एक कार्य के लिए दोषसिद्ध या दोषा त किया जा चुका है, तो बाद में यदि उस कार्य के परिणाम से कोई भिन्न अपराध गठित होता है तो उस भिन्न अपराध के लिए उसका विचारण किया जा सकेगा।(iii) पूर्व न्यायालय के सक्षम नहीं होने पर विचारण – उपधारा (4) में यह उपबंधित किया गया है कि-यदि किसी व्यक्ति को किन्हीं कार्यों से गठित किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया गया है, फिर भी उस पर उन्हीं कार्यों से गठित किसी अन्य अपराध के लिए आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा, बशर्ते कि वह न्यायालय जिसके द्वारा प्रथम विचारण किया गया था, बाद वाले आरोप को सुनने के लिए सक्षम नहीं रहा हो।Read More This Post - दोहरे दंड से क्या अभिप्राय है | Double Jeopardy in hindi Read the full article
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वारन्ट केस क्या है, मजिस्ट्रेट द्वारा इसका विचारण कैसे किया जाता है
जैसा की हम जानते है कि प्रकृति एवं प्रक्रिया की दृष्टि से आपराधिक मामलें दो तरह के होते है - (क) समन केस (Summons Case) (ख) वारन्ट केस (Warrant Case) वारन्ट केस क्या है What is Warrant Case - वारन्ट केस की परिभाषा संहिता की धारा 2 (भ) में दी गई है। इसके अनुसार - वारन्ट मामले से तात्पर्य ऐसे मामलों से है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से सम्बन्धित होते है| सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि ऐसे अपराधों से संबंधित समस्त मामले, जो 2 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय है ,वारंट मामले होते हैं। वारन्ट केस के विचारण की प्रक्रिया – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 238 से 250 तक में वारन्ट केस (Warrant Case) के विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया, विचारण की प्रक्रिया की दृष्टि से वारन्ट मामलों के विचारण की प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित किया गया है - (क) पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित ��ामले, (ख) पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित मामले(क) पुलिस रिपोर्ट पर सस्थित वारन्ट केस में प्रक्रिया दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 238 से 243 तक में पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामलों में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इनके अनुसार विचारण की प्रक्रिया निम्नानुसार है - (1) अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट तथा अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दिया जाना - संहिता की धारा 238 के तहत जब पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित किसी वारन्ट मामले में अभियुक्त को विचारण के प्रारम्भ में मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है या वह हाजिर होता है तब सर्वप्रथम उसे पुलिस रिपोर्ट की एवं अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दी जायेगी और मजिस्ट्रेट द्वारा इस बात का समाधान कर लिया जायेगा कि अभियुक्त को ऐसी प्रतिलिपियाँ दे दी गई है। आम भाषा में इसे 'चालान' अथवा 'चार्जशीट' (आरोप-पत्र) की नकल कहा जाता है। (2) आरोप निराधार होने पर अभियुक्त को उन्मोचित किया जाना – अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट तथा दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दे देने के पश्चात् मजिस्ट्रेट द्वारा -(i) ऐसी रिपोर्ट पर विचार किया जायेगा (ii) आवश्यक होने पर अभियुक्त की परीक्षा की जा सकेगी (iii) अभियुक्त व अभियोजन को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जायेगा। इसे प्रचलित भा���ा में 'बहस चार्ज' कहा जाता है। (3) आरोप की विरचना – लेकिन यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध यह उपधारणा किये जाने के आधार है कि -(i) उसके द्वारा कोई अपराध कारित किया गया है (ii) ऐसे अपराध का विचारण करने के लिए वह सक्षम है (iii) उसकी राय में अभियुक्त को पर्याप्त रूप से दण्डित किया जा सकता है, तब अभियुक्त के विरुद्ध आरोप की लिखित में विरचना की जायेगी तथा ऐसा आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया व समझाया जायेगा। अभियुक्त से यह भी पूछा जायेगा कि वह अपने आरोप को स्वीकार करता है या उसका विचारण चाहता है। (धारा 240) (कर्नल एस. कश्यप बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, ए.आई. आर. 1971, एस. सी. 1120) (4) दोषी होने के कथन पर दोषसिद्ध किया जाना – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 241 के अनुसार यदि आरोप सुनाये जाने के पश्चात् अभियुक्त अपने दोषी होने का अभिवाक करता है अर्थात् आरोप को स्वीकार करता है तो मजिस्ट्रेट ऐसी स्वीकारोक्ति को लेखबद्ध करते हुए उसके आधार पर स्वविवेकानुसार उसे दोषसिद्ध कर सकेगा।(5) अभियोजन की साक्ष्य लेना – जहाँ आरोप सुनाये जाने के पश्चात् अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक् नहीं करता है और विचारण चाहता है, वहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा अभियोजन पक्ष की साक्ष्य लेखबद्ध की जायेगी। (धारा 242) स्टेट बनाम सुवा के प्रकरण अनुसार - मजिस्ट्रेट द्वारा उस समस्त साक्ष्य को लेखबद्ध किया जायेगा जो अभियोजन के समर्थन में उसके समक्ष प्रस्तुत की जाये। (ए.आई. आर. 1962, राजस्थान 134 ) (6) प्रतिरक्षा की साक्ष्य लेना – अभियोजन की साक्ष्य पूर्ण हो जाने पर अभियुक्त की प्रतिरक्षा (defence) को साक्ष्य ली जायेगी और यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देना चाहे तो उसे अभिलेख पर फाइल किया जायेगा। अभियुक्त किसी साक्षी को न्यायालय की आदेशिका से हाजिर कराने की अपेक्षा कर सकेगा। ऐसे साक्षियों का व्यय अभियुक्त को वहन करना होगा। (धारा 243)(ख) पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थितं वारन्ट मामलों में विचारण की प्रक्रिया – दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 244 से 247 तक में पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारन्ट केस (Warrant Case) में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। वस्तुतः पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामलों तथा पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारन्ट मामलों में विचारण की प्रक्रिया लगभग एक समान ही है। ऐसे मामलों में भी अभियुक्त को मामले तथा उससे सम्बन्धित दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ देने से लेकर निर्णय तक उसी प्रक्रिया का अनुसरण क���या जाता है जिसका पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामलों में किया जाता है। अन्तर केवल यही है कि ऐसे मामलों में संहिता की धारा 244 के अन्तर्गत आरोप विरचित किये जाने से पूर्व अभियोजन पक्ष की साक्ष्य लेखबद्ध की जाती है। इसे 'आरोप पूर्व की साक्ष्य' (Evidence before charge) कहा जाता है। ऐसी साक्ष्य लेखबद्ध करने के पश्चात् ही आरोप विरचित किये जाने के प्रश्न पर विचार किया जाता है। Read More This Post - वारन्ट केस क्या है सी.आर.पी.सी. के अन्तर्गत वारन्ट मामलों का विचारण Read the full article
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सम्मन केस से आप क्या समझते है इसके विचारण की प्रक्रिया को समझाइये
प्रकृति एवं प्रक्रिया की दृष्टि से आपराधिक मामलों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है - (क) समन केस (Summons Case) (ख) वारन्ट केस (Warrant Case) समन केस की परिभाषा Definition Summons Case - समन केस की परिभाषा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (ब) में दी गई है। इसके अनुसार - "समन मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो किसी अपराध से सम्बन्धित है तथा जो वारन्ट मामला नहीं है।" वारंट मामलों के अंतर्गत मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास, या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय मामले आते है इस प्रकार वे मामले जो दो वर्ष तक की अवधि के कारावास अथवा अर्थदण्ड अथवा दोनों से दण्डनीय किसी अपराध से सम्बन्धित है समन केस के अधीन आते है। इस आलेख में मुख्य जोर समन केस की प्रक्रिया (the process of trial of summons case) पर दिया गया है। समन मामले में प्रक्रिया के सामान्य चरण अन्य विचारण के समान होते है, लेकिन यह विचारण त्वरित उपचार के लिए कम औपचारिक होता है। समन केस में विचारण की प्रक्रिया – समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख संहिता की धारा 251 से 259 में किया गया है। इनके अनुसार समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया इस प्रकार है - (1) अभियोग का सारांश सुनाया जाना - दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 251 जब किसी समन मामले में अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है या वह मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है तब सर्वप्रथम उसे उस अपराध की विशिष्टियाँ बताई जायेगी, जिसका उस पर अभियोग है और उससे यह पूछा जायेगा कि वह दोषी होने का अभिवाक् करता है अथवा प्रतिरक्षा करना चाहता है। (2) दोषी होने के कथन पर दोषसिद्ध किया जाना – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 252 के तहत अपराध की विशिष्टियाँ - सुनने के पश्चात् यदि अभियुक्त अपने दोषी होने का अभिवाक् अर्थात् कथन करता है। तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसके कथनों को उसी के शब्दों में लेखबद्ध किया जायेगा और उसे स्वविवेकानुसार दोषसिद्ध किया जायेगा(3) साक्ष्य लेखबद्ध किया जाना – जब अभियुक्त द्वारा अपने दोषी होने का कथन नहीं किया जाता है और वह विचारण चाहता है तब सर्वप्रथम अभियोजन की तथा तत्पश्चात् प्रतिरक्षा (defence) की साक्ष्य लेखबद्ध की जायेगी।(4) दोषसिद्धि या दोषमुक्ति का निर्णय – अभियोजन एवं अभियुक्त की साक्ष्य लेने के पश्चात् यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो उसे 'दोषमुक्त' (acquity) कर दिया जायेगा।संहिता की धारा 255 के तहत यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषो है तो उसे 'दोषसिद्ध' (convict) घोषित करते हुए दण्डादेश पारित कर सकेगा (5) परिवादी के हाजिर नहीं होने का प्रभाव – संहिता की धारा 256 में यह उपबंध किया गया है कि यदि सुनवाई के लिए नियत किसी दिन परिवादी न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसका परिवाद खारिज करते हुए अभियुक्त को दोषमुक्त घोषित किया जा सकेगा, बशर्ते कि ऐसे मामले की सुनवाई को अन्य किसी दिन के लिए स्थगित किया जाना वह उचित नहीं समझे।(6) परिवाद का वापस लिया जाना – दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 257 के अन्तर्गत परिवादी मामले में निर्णय सुनाये जाने से पूर्व कभी भी परिवाद को अभियुक्त के विरुद्ध और यदि एकाधिक अभियुक्त है तो उन सबके विरुद्ध या उनमें से किसी के विरुद्ध वापस ले सकेगा। परिवाद को ऐसे वापस लिये जाने का प्रभाव अभियुक्त को दोषमुक्ति होगा।Read More This Post - समन केस के विचारण की प्रक्रिया को समझाइये Read the full article
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संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया (Procedure for summary trials) ( SEC 260 से 265 )
संक्षिप्त विचारण का तात्पर्य | Summary Trial – दण्ड प्रक्रिया संहिता में शब्द संक्षिप्त विचारण की परिभाषा नहीं दी गई है परन्तु सामान्यतः शब्दों में संक्षिप्त विचारण का अर्थ “शीघ्र परीक्षण” से लिया जाता है। यह एक ऐसा परीक्षण अथवा विचारण है जिसमें मामले की प्रक्रिया तो समन एवं वारन्ट मामलों जैसी ही रहती है लेकिन इसमें नियमित एवं विस्तृत साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना तथा लम्बा निर्णय लिखा जाना आवश्यक नहीं होता है। वुडरोफ के अनुसार - संक्षिप्त विचारण से तात्पर्य कार्यवाहियों को संक्षिप्त में अभिलिखित किये जाने से है। इसमें विस्तृत साक्ष्य लिया जाना एवं लम्बे निर्णय लिखा जाना आवश्यक नहीं होता है। संक्षिप्त विचारण की शक्ति – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 260 के अन्तर्गत संक्षिप्त विचारण करने की शक्तियाँ निम्नांकित न्यायालयों को प्रदान की गई है - (क) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (ख) महानगर मजिस्ट्रेट (ग) उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट | किन अपराधों का संक्षिप्त विचारण किया जाता है – CrPC की धारा 260 के अन्तर्गत ऐसे अपराधों का उल्लेख किया गया है जिनका न्यायालय द्वारा संक्षिप्त विचारण किया जा सकता है - (क) ऐसे अपराध जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय नहीं है, (ख) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 379, 380 या 381 के अन्तर्गत चोरी, जहाँ चुराई हुई सम्पत्ति का मूल्य दो हजार रुपये से अधिक नहीं हो, (ग) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 411 के अन्तर्गत चोरी की सम्पत्ति को प्राप्त करना या रखना, जहाँ ऐसी सम्पत्ति का मूल्य दो हजार रुपये से अधिक नहीं हो, (घ) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 414 के अन्तर्गत चुराई हुई सम्पत्ति को छिपाने या उसका व्ययन करने में सहायता करना, जहाँ ऐसी सम्पत्ति का मूल्य 2,000 (दो हजार रुपये) से अधिक नहीं हो, (ङ) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 454 या धारा 456 के अन्तर्गत अपराध, (च) भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 504 के अन्तर्गत लोक शांति भंग करने को प्रकोपित करने के आशय से अपमान और धारा 506 के अन्तर्गत कारावास से या जुर्माने से या दोनों से दण्डनीय अपराध, (छ) पूर्ववर्ती अपराधों में से किसी का दुष्प्रेरण, (ज) पूर्ववर्ती अपराधों में से किसी को करने का प्रयत्न, जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो और (झ) ऐसे कार्य से होने वाला कोई अपराध, जिसकी बाबत पशु अतिचार अधिनियम, 1871 की धारा 20 के अन्तर्गत परिवाद किया जा सकता हो। सक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया | Procedure for summary trials – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 262 में संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया के सम्बन्ध में प्रावधान किये गए है। इस धारा के अनुसार - संक्षिप्त विचारण में उसी प्रक्रिया का अनुसरण किया जायेगा जो समन मामलों के विचारण के लिए विनिर्दिष्ट है तथा ऐसे विचारण में तीन मास से अधिक की अवधि के कारावास का दण्डादेश नहीं किया जा सकेगा। पब्��िक प्रोसिक्यूटर बनाम हिन्दुस्तान मोटर्स लि. के मामले में यह कहा गया है कि संक्षिप्त विचारण के लिए उसी प्रक्रिया का अनुसरण किया जायेगा जो समन मामलों के विचारण के लिए संहिता में विनिर्दिष्ट है। (ए. आई. आर. 1970 आन्ध्रप्रदेश 176) Read More - संक्षिप्त विचारण क्या है | What is summary trial Read the full article
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संज्ञेय अपराध में अन्वेषण की प्रक्रिया तथा पुलिस अधिकारी की शक्तिया एंव कर्त्तव्य
आपराधिक न्याय प्रशासन में प्रथम सूचना रिपोर्ट तथा अन्वेषण (अनुसंधान/जाँच) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जाँच/अनुसंधान की प्रक्रिया प्रथम सूचना रिपोर्ट के पश्चात् प्रारम्भ होता है और जिसके द्व��रा विचारण के लिए साक्ष्य एकत्रित की जाती है अर्थात् यह सुनिश्चित किया जाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है या नहीं। संज्ञेय अपराध में अन्वेषण की प्रक्रिया - जैसा की हम जानते है कि, प्रथम सूचना रिपोर्ट के साथ ही अनुसंधान/अन्वेषण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाता है और असंज्ञेय अपराध के सम्बन्ध में अनुसंधान प्रारम्भ करने से पूर्व मजिस्ट्रेट के आदेश की आवश्यकता होती है लेकिन संज्ञेय मामलों में अन्वेषण प्रारम्भ करने के लिए मजिस्ट्रेट के आदेश की आवश्यकता नहीं होती। पुलिस अधिकारी की शक्तियां एंव कर्तव्य / अन्वेषण की प्रक्रिया – संज्ञेय मामलों में जाँच/अन्वेषण की प्रक्रिया का वर्णन दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156 से 173 तक में किया गया है। संहिता की धारा 156 भारसाधक पुलिस अधिकारी को किसी संज्ञेय मामले का अन्वेषण मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किये जाने की शक्तियाँ प्रदान करती है। लेकिन फिर भी पुलिस अन्वेषण नहीं करती है तब मजिस्ट्रेट धारा 159 के तहत अन्वेषण के लिए आदेश कर सकता है। मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट की प्रति भेजना - ज्योंही पुलिस अधिकारी के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होती है, अविलम्ब उसकी एक प्रति विहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के माध्यम से संज्ञान लेने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट के पास भेजी जायेगी। (धारा 157 एवं 158) घटनास्थल के लिए प्रस्थान - प्रथम सूचना रिपोर्ट प्राप्त होने पर भारसाधक अधिकारी स्वयं या उसका कोई अधीनस्थ अधिकारी – (क) मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों का अन्वेषण करने, (ख) अपराधी का पता चलाने, (ग) उसकी गिरफ्तारी का उपाय करने के लिए घटनास्थल पर जायेगा। (धारा 157) साक्षियों की परीक्षा - संहिता की धारा 160 के अन्तर्गत अन्वेषण अधिकारी किसी व्यक्ति को साक्ष्य हेतु अपने समक्ष हाजिर होने की अपेक्षा कर सकेगा, लेकिन निम्नांकित साक्षियों को अपने समक्ष हाजिर होने का आदेश उनके निवास स्थान से भिन्न स्थान के लिए नहीं दिया जा सकेगा (क) यदि वह 15 वर्ष से कम आयु का पुरुष है, अथवा (ख) कोई स्त्री है, अथवा (ग) वह 65 वर्ष से अधिक आयु का है, अथवा (घ) वह किसी शारीरिक या मानसिक रूप से निःशक्त व्यक्ति है। "इस उपधारा के अधीन किया गया कथन श्रव्य-दृश्य इलैक्ट्रानिक साधनों द्वारा भी अभिलिखित किया जा सकेगा।" संस्वीकृतियों एवं कथनों को अभिलिखित करना – अन्वेषण की प्रक्रिया के दौरान यदि कोई अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष संस्वीकृति (confession) करना चाहे अथवा कोई साक्षी बयान (statement) देना चाहे तो अन्वेषण अधिकारी द्वारा विहित रीति से ऐसे अभियुक्त अथवा व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जायेगा और धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे कथनों को यथाविधि लेखबद्ध किया जायेगा। पुलिस अधिकारी द्वारा तलाशी - संहिता की धारा 165 के अधीन अन्वेषण के दौरान पुलिस अधिकारी द्वारा किसी ऐसे स्थान की तलाशी ली जा सकेगी जहाँ अपराध से सम्बन्धित किसी चीज के पाये जाने की सम्भावना है। ऐसी तलाशी के दौरान पाई जाने वाली चीजों (वस्तुओं) की सूचियाँ तैयार की जायेगी तथा उसकी एक प्रति उस व्यक्ति को दी जायेगी जिसके स्थान की तलाशी ली गई है। अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना - जब अन्वेषण की प्रक्रिया 24 घंटे में पूरा नहीं हो सकता हो, तब गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जायेगा और 24 घंटे के पश्चात ऐसे व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश से ही अभिरक्षा (Police Custody) में रखा जा सकेगा। इसे 'रिमाण्ड' भी कहा जाता है। अन्वेषण की रिपोर्ट - संहिता की धारा 168 के तहत - जब अन्वेषण पूरा हो जाता है तब अन्वेषण अधिकारी द्वारा उसकी रिपोर्ट पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को की जायेगी। अभियुक्त को छोड़ा जाना - अन्वेषण अधिकारी को प्रकरण के विचारण में अभियुक्त के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं मिलता है या अपर्याप्त साक्ष्य है या संदेह का उचित आधार नहीं है जिससे की अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाए उस दशा में ऐसा अधिकारी संहिता की धारा 169 के तहत अभियुक्त को समुचित बंध पत्र निष्पादित करने पर छोड़ देगा| आरोप-पत्र पेश करना – संहिता की धारा 173 के अन्तर्गत अन्वेषण पूरा हो जाने पर अभियुक्त के विरुद्ध न्यायालय में आरोप-पत्र पेश किया जाता है, इसे 'चालान' अथवा 'चार्ज शीट' भी कहा जाता है। इसमें निम्नांकित बातों का उल्लेख किया जायेगा - (क) पक्षकारों के नाम, (ख) इत्तिला का स्वरूप, (ग) मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम, (घ) क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और यदि किया गया प्रतीत होता है तो किसके द्वारा, (ङ) क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है, (च) क्या उसे प्रतिभूओं सहित या रहित बंधपत्र पर छोड़ दिया गया है, (छ) क्या वह धारा 170 के अन्तर्गत अभिरक्षा में भेज दिया गया है, आदि। (ज) जहाँ अन्वेषण भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376क, धारा 376कख, धारा 376ख, धारा 376ग या धारा 376घ, धारा 376घक, धारा 376घख के अधीन किसी अपराध के सम्बन्ध में है, वहाँ क्या स्त्री की चिकित्सा परीक्षा की रिपोर्ट संलग्न की गई है। (झ) बालिका के साथ बलात्संग के सम्बन्ध में अन्वेषण उस तारीख से जिसको पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा इत्तिला अभिलिखित की गई थी, तीन मास के भीतर, पूरा किया जाएगा।Read More This Post - संज्ञेय अपराध में पुलिस अधिकारी के कर्त्तव्य तथा उसकी जांच की प्रक्रिया का उल्लेख Read the full article
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आरोपों का संयोजन एंव इसके अपवाद | धारा 218 से 223 CrPC in Hindi
आरोपों का संयोजन | Joinder of charges वास्तविक रूप से आरोप से ही मुकदमे की कार्यवाही (विचारण) की शुरुआत होती है, संहिता की धारा की धारा 211 से 217 आरोपों को तैयार करने से सम्बंधित है और धारा 218 से धारा 223 आरोपों का संयोजन से सम्बंधित है, जिसमे यह बताया गया है कि, इस संहिता के अधीन अभियुक्त पक्षकार पर कब और कोनसे अपराधों के लिए एक साथ आरोप लगाये जा सकते है एंव उनका विचारण किया जा सकता है| सुभिन्न अपराधों के लिए पृथक आरोप - यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है कि, कब कई आरोपों का एक साथ विचारण किया जा सकता है, क्योंकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 218 में यह कहा गया है कि - "प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप का पृथकतः विचारण किया जायेगा”। उदाहरण के लिए - क पर एक स्थान पर चोरी करने एंव किसी दुसरे स्थान पर घोर उपहति कारित करने का अभियोग लगाया जाता है| यहाँ क पर चोरी व घोर उपहति कारित करने के लिए पृथक्-पृथक् आरोप लगा कर उनका अलग अलग विचारण करना होगा| धारा 218 आज्ञापक है और प्रत्येक भिन्न अपराध के लिए उन मामलों को छोड़कर जो संहिता में विनिर्दिष्ट किए गए हैं, अलग-अलग आरोप होना चाहिए। जहाँ एक ही रात मे दो घरों में दो डकैती हुई है। वहाँ दोनों डकैतियों को मिलाकर एक ही आरोप में दोनों को नहीं समेटना चाहिए। धारा 218 के अपवाद (आरोपों का संयोजन) - इस धारा के कुछ अपवाद है जिनमे मामलों अथवा परिस्थितियों के तहत अभियुक्त पर एक से अधिक अपराध का एक साथ आरोप लगाया जाकर उनका एक साथ ��िचारण किया सकता है, ऐसे मामले अथवा परिस्थितियाँ निम्नांकित है - एक ही वर्ष में एक ही किस्म के तीन अपराध - इस संहिता की धारा 219 के अनुसार एक ही वर्ष में एक ही किस्म के तीन अपराधों का एक साथ आरोप लगाया जा सकता है और उनका एक साथ विचारण किया जा सकता है। स्टेट बनाम मोतीसिंह के प्रकरण अनुसार तीन से अधिक अपराधों का न तो एक साथ आरोप लगाया जा सकेगा और न ही उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा। (ए. आई. आर. 1962, राजस्थान 35) एक ही संव्यवहार में किये गये एकाधिक अपराध - सर जेम्स स्टीफेन ने एक संव्यवहार को एक तथ्यों के समूह के रूप में परिभाषित किया है, जो इस तरह एक दुसरे से जुड़े होते है कि उन्हें एक नाम यथा अपराध, संविदा, दोष, खोज की विषय वस्तु जो प्रश्नगत है, से पुकारा जाता है|दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 220 (1) के अनुसार - यदि परस्पर सम्बद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही व्यक्ति द्वारा कारित किये गये हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाया जा सकेगा और उन सभी का एक साथ विचारण किया जा सकेगा। दुर्विनियोग एवं लेखाओं के मिथ्याकरण के लिए संयुक्त आरोप - सीआरपीसी की धारा 220 (2) के अनुसार - जहाँ किसी व्यक्ति पर आपराधिक न्यास भंग या सम्पत्ति के बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग के अपराधों को सुकर बनाने के लिए लेखाओं के मिथ्याकरण के एकाधिक अपराधों का अभियोग हो, वहाँ ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाते हुए उनका विचारण किया जा सकेगा।एकाधिक परिभाषाओं में आने वाले अपराध - सीआरपीसी की धारा 220 (3) के अनुसार - यदि अभिकथित कार्य किसी ऐसे अपराध का गठन करता है जो विधि की एकाधिक परिभाषाओं में आता हो तो अभियुक्त ऐसे अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोपित किया जा सकेगा।कई कार्यों से गठित भिन्न अपराध - सीआरपीसी की धारा 220 (4) के अनुसार - जब अनेक कार्यों की श्रृंखलाओं से मिलकर कोई अपराध गठित होता हो और ऐसे कार्यों में से प्रत्येक कार्य स्वयं सुस्पष्ट अपराध का गठन करता है या ऐसे कार्यों के समूह से अन्य दूसरे अपराधों का गठन होता है, तब ऐसे सभी अपराधों को एक साथ आरोपित करते हुए उनका विचारण किया जा सकेगा।इस प्रकार यह एक समर्थकारी व्यवस्था है जो न्यायालय को अनेक अपराधों का एक साथ विचारण करने की शक्तियाँ प्रदान करती है। (मोहिन्दर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए. आई. आर. 1999 एस. सी 211) और अधिक जाने - आरोप के संयोजन एवं आरोप की विरचना क्या है? जानिए इसके कानूनी प्रावधान Read the full article
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आरोप की परिभाषा एंव उसकी अन्तर्वस्तु का उल्लेख । संयुक्त आरोप किसे कहते है
आरोप सामान्य परिचय - आरोप (charge) एक सामान्य शब्द है जो हमारी दिन प्रतिदिन की आम भाषा में भी शामिल है, जब भी हमसे कोई विवादित कार्य अथवा बात होती है तब हम उस बात या कार्य का दोष किसी अन्य व्यक्ति पर मढ़ने लगते है, अथवा किसी व्यक्ति की शिकायत पुलिस या किसी अन्य से करते है, उस स्थिति में यह माना जाता है कि हमारे द्वारा उस व्यक्ति पर आरोप लगाया जा रहा है जबकि यह इसका वास्तविक रूप नहीं है| आरोप की परिभाषा क्या है | Definition of allegation दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(ख) में आरोप शब्द को परिभाषित किया गया है, लेकिन यह ना तो शाब्दिक परिभाषा है और ना ही अर्थबोधक है। इसके अनुसार - “आरोप के अन्तर्गत, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हों, आरोप का कोई भी शीर्ष है।" वस्तुतः आरोप से तात्पर्य ऐसे लिखित कथन से है, जिसे किसी अपराध के सम्बन्ध में अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध लगाया जाता है और उसे अ��राध की पूर्ण जानकारी देता है। आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, आरोप अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें आरोप के आधारों के साथ-साथ, समय, स्थान, व्यक्ति एवं वस्तु का उल्लेख भी रहता है जिसके बारे अपराध कारित किया गया है। आरोप की अन्तर्वस्तु - सीआरपीसी, 1973 की धारा 211 में आरोप की अन्तर्वस्तुओं (Contents) का वर्णन किया गया है, आरोप की अन्तर्वस्तु से तात्पर्य उन बातों से है, जिनका उल्लेख आरोप में किया जाना होता है। यानि आरोप में निम्नांकित मुख्य बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए - (क) प्रत्येक आरोप में उस अपराध का उल्लेख किया जाना आवश्यक है जिसका कि अभियुक्त पर आरोप है। (ख) यदि विधि के अन्तर्गत उस अपराध को कोई नाम दिया जा सकता है तो आरोप में उसका नाम दिया जायेगा, जैसे- चोरी, लूट, हत्या, बलात्संग आदि। (ग) यदि अपराध को विधि के अन्तर्गत कोई नाम नहीं दिया गया है तो आरोप में उस अपराध की ऐसी परिभाषा दी जायेगी जिससे अभियुक्त व्यक्ति को यह सूचना या जानकारी हो जाये कि उस पर क्या आरोप है। (घ) आरोप में उस विधि एवं धारा का उल्लेख भी किया जाना अपेक्षित है। जिसके अन्तर्गत वह अपराध आता है। जैसे- "भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 354 के अन्तर्गत ......।" (ङ) इस कथन का कि "आरोप लगा दिया गया है" यह तात्पर्य होगा कि, आरोपित अपराध को गठित करने के लिए विधि द्वारा अपेक्षित सभी शर्ते पूरी हो गई हैं। (च) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जायेगा। (छ) यदि पश्चात्वर्ती अपराध के लिए अभियुक्त की किसी पूर्व दोषसिद्धि का सहारा लिया जाना हो तो आरोप में ऐसी पूर्व दोषसिद्धि का तथ्य, तिथि और स्थान का उल्लेख किया जायेगा। चितरंजनदास बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि, आरोप में न तो अनावश्यक बातों को स्थान दिया जाना चाहिये और न ही न्यायालय को छोटी-छोटी तकनीकी बातों पर ध्यान देना चाहिये। (ए. आई. आर. 1963 एस. सी. 1696) त्रुटिपूर्ण आरोप का प्रभाव - सी आर पी सी, 1973 की धारा 215 में त्रुटिपूर्ण आरोप के प्रभाव का वर्णन किया गया है। इस धारा के अनुसार - "अपराध के या उन विशिष्टियों के, जिनका आरोप में कथन होना अपेक्षित है, कथन करने में किसी गलती को और उस अपराध या उन विशिष्टियों के कथन करने में किसी लोप को मामले के किसी प्रक्रम में तब ही तात्विक माना जायेगा जब ऐसी गलती या लोप से अभियुक्त वास्तव में भुलावे में पड़ गया है और उसके कारण न्याय नहीं हो पाया है, अन्यथा नहीं।" इससे यह स्पष्ट है कि यदि, त्रुटिपूर्ण आरोप यदि तात्विक है और उससे (क) अभियुक्त भुलावे में पड़ जाता है, एवं (ख) उसके साथ न्याय नहीं हो पाता है, तब वह आरोप दूषित माना जायेगा और ऐसे आरोप के आधार पर किया गया विचारण भी दूषित होगा। संयुक्त आरोप किसे कहते है What Is Joint - CrPC की धारा 223 संयुक्त आरोप के सम्बन्ध में प्रावधान करती है, इसके अनुसार निम्नांकित व्यक्तियों पर एक साथ आरोप विरचित कर उनका एक साथ विचारण किया जा सकता है - (क) वे व्यक्ति जो एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किये गये एक ही अपराध के अभियुक्त हो। (ख) किसी अपराध को कारित करने के लिए दुष्प्रेरित करने वाले व्यक्तियों का विचारण एक साथ किया जा सकेगा। (ग) ऐसे व्यक्ति जो एक ही ��र्ष के अन्दर एक ही प्रकार के अनेक अपराधों के लिए अभियुक्त हो। (घ) ऐसे व्यक्ति जो एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किये गये विभिन्न अपराधों के अभियुक्त हों। (ङ) ऐसे व्यक्ति जो चोरी, अपकर्षण, छल या आपराधिक दुर्विनियोग का अपराध कारित करने के अभियुक्त हो और वे व्यक्ति जो ऐसी सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के अभियुक्त हो। इन सभी का एक साथ विचारण किया जा सकेगा। उदाहरण - तीन व्यक्तियों द्वारा मिलकर चोरी या सात व्यक्तियों द्वारा मिलकर बलवा अथवा डकैती का अपराध कारित किया जाता है। इन सभी व्यक्तियों का अपने- अपने अपराधों के लिए एक साथ विचारण किया जा सकेगा। Read More - आरोप किसे कहते है, आरोप की अंतर्वस्तु | CrPC Chapter 17 Sec. 211-217 Read the full article
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परिवाद पत्र में न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया | CrPC 1973, Sec. 200 to 203
परिवाद पत्र में न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया | सीपीसी, 1973 धारा 200 से धारा 203समाज में जब किसी व्यक्ति पर अपराध कारित होता है यानि विधि द्वारा दण्डनीय कोई कार्य किया जाता है तब पीड़ित व्यक्ति के पास उस अपराध करने वाले व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही चलाने के दो रास्ते (एफ.आई.आर. व परिवाद पत्र) है जिनसे पीड़ित व्यक्ति न्याय प्राप्त कर सकता है। जब पुलिस CrPC की धारा 154 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करती है, तब पीड़ित व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि, वह मजिस्ट्रेट को लिखित या मौखिक रूप से अपनी शिकायत पेश कर, आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही की मांग कर सकता है। यह भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट को प्राप्त एक अद्भुत शक्ति ही नहीं वरन पीड़ित व्यक्ति को प्राप्त एक अद्भुत अधिकार भी है जो न्याय का महत्वपूर्ण भाग है। परिवाद पत्र की प्रक्रिया क्या है? भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 से 203 में मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद पत्र पेश किये जाने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का चरण दर चरण उल्लेख किया गया है| यथा - (1) परिवादी की परीक्षा - CrPC की धारा 200 के अनुसार, जब भी मजिस्ट्रेट के समक्ष कोई परिवाद प्रस्तुत किया जाता है तब मजिस्ट्रेट द्वारा उस पर - (i) परिवादी एवं उसके साक्षियों की परीक्षा करेगा, (ii) ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध करेगा, तथा (iii) उस पर मजिस्ट्रेट अपने हस्ताक्षर करेगा। (2) संज्ञान के लिए सक्षम नहीं होने पर प्रक्रिया – पीड़ित पक्ष द्वारा यदि कोई परिवाद ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर दिया जाता है जो उसमें संज्ञान (cognizance) लेने के लिए सक्षम नहीं है अथवा अपनी अधिकारिता नहीं रखता है, तब वह मजिस्ट्रेट उस पर कोई कार्रवाई नहीं करेगा|CrPC की धारा 201 के तहत, ऐसा मजिस्ट्रेट यदि परिवाद लिखित में है तो उसे समुचित न्यायालय में पेश करने के लिए पृष्ठांकन सहित लौटा देगा और यदि परिवाद लिखित में नहीं है तो वह परिवादी को उचित न्यायालय में जाने का निर्देश देगा। इस सम्बन्ध में राजेन्द्र सिंह बनाम बिहार राज्य का प्रकरण प्रमुख है इसमें न्यायलय ने अभियुक्त को इस आधार पर दोषमुक्त किया कि उसे परिवाद का संज्ञान करने की अधिकारिता नहीं थी| इस प्रकरण में कहा गया कि, अभियुक्त को दोषमुक्त करने जी बजाए न्यायालय को परिवाद पत्र उचित न्यायालय में प्रेषित करने के लोटा देना था| (1989 क्रि. लॉ. ज. 2277 पटना) (3) आदेशिका मुल्तवी करना - CrPC की धारा 202 के तहत, जब मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसा कोई परिवाद पेश किया जाता है जिस पर संज्ञान लेने के लिए वह सक्षम है या धारा 192 के अन्तर्गत उसके हवाले किया जाता है, लेकिन अभियुक्त उसके न्याय क्षेत्र से बाहर निवास करता है, तब वह मजिस्ट्रेट अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करना मुल्तवी कर सकेगा और यह विनिश्चित करने के लिए कि ऐसे परिवाद में कार्रवाई किये जाने के पर्याप्त आधार है या नहीं, वह -(क) या तो स्वयं उस मामले की जाँच कर सकता है, या (ख) किसी पुलिस अधिकारी को या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को, जिसे वह ठीक समझे, उसमें अन्वेषण करने का निदेश दे सकेगा। (4) परिवाद पत्र का खारिज किया जाना - CrPC की धारा 203 के तहत, मजिस्ट्रेट यदि परिवादी एंव साक्षियों के शपथ पर किये गए कथन तथा धारा 202 के अधीन जाँच या अन्वेषण पर विचार करने के परिणाम पर विचार करने के पश्चात् यह पाता है कि उस परिवाद पर आगे कार्यवाई किये जाने का कोई पर्याप्त आधार नहीं है तब वह उस परिवाद को खारिज कर सकेगा।इस धारा के अधीन जहाँ किसी परिवाद को खारिज किया जाता है वहाँ ऐसे खारिज किये जाने वाले कारणों का उल्लेख किया जाना आवश्यक होगा। Read More - परिवाद पत्र की प्रक्रिया क्या है? what is the complaint procedure Read the full article
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CrPC Sec 6 दण्ड न्यायालयों के वर्ग | Class of criminal Courts and Their powers in hindi
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत दण्ड न्यायालयों का वर्गीकरण तथा हर एक न्यायालय द्वारा किस सीमा तक दण्डादेश पारित किया जा सकता की विस्तृत विवेचनादण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में संशोधन करके मजिस्ट्रेट न्यायालयों की अलग अलग नीतियों एंव कार्यों के अन्तर्गत न्यायालयों को मुख्यतया दो भागों में विभाजित किया गया है – (अ) न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय एवं (ब) कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय, इन न्यायालयों के भी अलग अलग वर्ग है। दण्ड न्यायालयों के वर्ग धारा 6 - CrPC की धारा 6 में प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालयों एंव विधि के अधीन गठित न्यायालयों के अलावा निम्नांकित दण्ड न्यायालय होगें -(क) सेशन न्यायालय (ख) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट और किसी महानगर क्षेत्र में महानगर मजिस्ट्रेट न्यायालय (ग) द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय (घ) कार्यपालक मजिस्ट्रेट न्यायालय । दण्ड न्यायालयों के वर्ग और उनकी शक्तियां – (i) सेशन न्यायालय - CrPC की धारा 9 में राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक सेशन खण्ड के लिए एक सेशन न्यायालय (Court of Sessions) के गठन का प्रावधान किया गया है जिसमें एक पीठासीन न्यायाधीश होगा जो सेशन (सत्र) न्याय���धीश के नाम से जाना जायेगा और जिसकी नियुक्ति उच्च न्यायालय द्वारा की जायेगी। CrPC की धारा 10 के अंतर्गत अपर सेशन न्यायाधीश एंव सहायक सेशन न्यायाधीश, सेशन न्यायाधीश के अधीन होंगे तथा सेशन न्यायाधीश द्वारा ऐसे सेशन न्यायाधीशों में कार्य के वितरण से सम्बन्धित नियम बनाये जा सकते है। इसी तरह CrPC की धारा 10 (3) के अनुसार, सेशन न्यायाधीश की अनुपस्थिति में या कार्य करने की असमर्थता में आवश्यक आवेदनों का निपटारा अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश द्वारा और यदि अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश उपस्थित ना हो तब ऐसे आवेदनों का निपटारा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किया जा सकेगा। दण्डादेश की शक्तिया - उच्च न्यायालय - CrPC की धारा 28 (1) के तहत विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दण्डादेश दे सकता है|सेशन या अपर सेशन न्यायाधीश - CrPC की धारा 28 (2) के अनुसार सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दण्डादेश दे सकता है यानि मृत्यु दण्ड, या 10 ��र्ष से अधिक कारावास या जुर्माना (जितना चाहे उतना लेकिन मनमा��ा नहीं) दे सकता है| लेकिन मृत्यु दण्डादेश देने से पूर्व धारा 366 के तहत उच्च न्यायालय से इजाजत ली जानी आवश्यक होगी, सहायक सेशन न्यायाधीश - CrPC की धारा 28 (3) मृत्यु या आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक की अवधि के लिए कारावास की सजा के अलावा, ऐसा कोई दण्डादेश दे सकता है जो विधि द्वारा प्राधिकृत है। (ii) न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय - CrPC की धारा 11 (1) के तहत - प्रत्येक जिले में (महानगर क्षेत्र के अलावा) राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद किसी विशेष मामले या विशेष वर्ग के मामलों का विचारण करने के लिए एक या एक से अधिक निम्नाकिंत वर्ग के विशेष न्यायालय स्थापित किये जा सकते है -(अ) प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट न्यायालय (judicial magistrate First class), (ब) द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट (judicial magistrate second class)दण्डादेश की शक्तियाँ - प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट न्यायालय - संहिता की धारा 29(2) के तहत यह न्यायालय अधिकतम तीन वर्ष के लिए कारावास या अधिकतम 10,000/- रूपये का जुर्माना या दोनों का दण्डादेश दे सकता है।द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट न्यायालय - धारा 29(3) के तहत यह न्यायालय अधिकतम एक वर्ष के लिए कारावास या अधिकतम 5,000/- रूपये का जुर्माना या दोनों का दण्डादेश दे सकता है। (iii) मुख्य और अपर न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय - CrPC की धारा 12 के अन्तर्गत - प्रत्येक जिले के लिए (जो महानगर क्षेत्र नहीं है) एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एवं आवश्यकतानुसार अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालयों की स्थापना की गई है और इन न्यायालयों में उच्च न्यायालय द्वारा किसी प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जा सकती है।दण्डादेश की शक्तिया - संहिता की धारा 29(1) के अनुसार - मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय मृत्यु या आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक अवधि के कारावास के अलावा ऐसा कोई दण्डादेश दे सकता है जो विधि द्वारा प्राधिकृत है।(iv) विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय - CrPC की धारा 13 के अन्तर्गत, किसी विशेष मामले या विशेष वर्ग के मामलों के विचारण के लिए विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (Special Judicial Magistrate) के न्यायालयों के गठन का प्रावधान किया गया है।दण्डादेश की शक्तिया - जैसा की धारा 29 (4) में बताया गया है कि, महानगर मजिस्ट्रेट (Metropolitan Magistrate) के न्यायालय की दण्डादेश शक्तियाँ वे ही होगी जो प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय की है।Read More - Sec 6 दण्ड न्यायालयों के वर्ग और उनकी शक्तियां Read the full article
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दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत अग्रिम जमानत (Section 438) के प्रावधान | CrPC 1973
अग्रिम जमानत एक परिचय Anticipatory Bail -
जमानत की कड़ियों में अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) का महत्त्वपूर्ण कड़ी है। वस्तुतः यह नई दण्ड प्रक्रिया संहिता की एक विशेष देन है, जिसका मुख्य उद्देश्य निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी से सुरक्षा करना है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 में अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) के बारे में प्रावधान किया गया है। Agrim Jamanat मिलने के बाद आरोपी व्यक्ति उक्त जमानत के आधार पर पुलिस अधिकारी (जांच अधिकारी) के निर्देशानुसार जमानत बंधपत्र पेश कर जमानत प्राप्त कर सकता है। यह जमानत माननीय न्यायालय द्वारा आरोपी व्यक्ति को मामले की प्रकृति को देखते हुए कुछ शर्तो के तहत दी जा सकती है| इस प्रकार अग्रिम जमानत मिलने के बाद आरोपी व्यक्ति को पुलिस द्वारा गिरफ्तार नहीं किया जाता और जमानत मुचलका पेश करने के बाद रिहा कर दिया जाता है। अग्रिम जमानत क्या है – दण्ड प्रक्रिया संहिता में शब्द अग्रिम जमानत की परिभाषा नहीं मिलती हैं, लेकिन इसका अर्थ है - किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी से पूर्व ही उसकी जमानत को स्वीकार कर लेना। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि - जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना हो, तब ऐसी गिरफ्तारी के समय ही उस व्यक्ति को जमानत पर छोड़ देना ही अग्रिम जमानत है| अग्रिम जमानत का उद्देश्य – जैसा कि हम जानते है कि अग्रिम जमानत का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की गिरफ्तारी से सुरक्षा करना है। विधि आयोग ने अपनी 41वीं रिपोर्ट में यह कहा है कि जिस व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए वारन्ट जारी किया गया हो, उसे पहले गिरफ्तार किया जाये, कुछ दिन अभिरक्षा में रखा जाये और फिर उसे जमानत पर छोड़ा जाये, यह न्यायोचित नहीं है। आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ‘किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किये जाने का कोई औचित्य नहीं हो, वहाँ उसे गिरफ्त नहीं किया जाना चाहिये’। चूँकि अग्रिम जमानत का मुख्य उद्देश्य न्यायिक कार्यवाही के दुरूपयोग को रोकना है इसलिए यह ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करती है, जो - (i) निर्दोष ��ै तथा तुच्छ आरोप के दोषी ह���, (ii) समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति है,(iii) किसी रंजिश या प्रतिशोध से पीड़ित है. (iv) अपमानित किये जाने के षड्यंत्र का शिकार हुआ हो। अग्रिम जमानत कब स्वीकार की जाती है - सी आर पी सी की धारा 438 (7) में यह कहा गया है कि जब "किसी व्यक्ति को यह विश्वास करने का कारण है कि उसको किसी अजमानतीय अपराध के किये जाने के अभियोग में गिरफ्तार किया जा सकता है तो वह इस धारा के अधीन निर्देश के लिए उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय को आवेदन कर सकता है और यदि वह न्यायाल ठीक समझे तो यह निर्देश दे सकता है कि ऐसी गिरफ्तारी की स्थिति में उसको जमानत पर छोड़ दिया जाये।" अग्रिम जमानत किसके द्वारा ली जा सकेगी – संहिता की धारा 438 (1) के अनुसार अग्रिम जमानत के लिए केवल - (क) उच्च न्यायालय, अथवा (ख) सेशन न्यायालय, में आवेदन किया जा सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अग्रिम जमानत देने का अधिकार केवल उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय को ही है, यानि अग्रिम जमानत केवल उच्च न्यायालय अथवा सेशन न्यायालय में ही पेश की जा सकती है| Read More - दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत अग्रिम जमानत (Section 438) के प्रावधान Read the full article
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दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत अभियुक्त के अधिकार (Rights of the Accused) की विवेचना
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत अभियुक्त के अधिकार (Rights of the Accused) की विवेचना।भारत के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को कुछ मूल अधिकार दिए गए है जिनमें स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, गरिमा युक्त जीवन जीने का अधिकार आदि शामिल है। यानि सभी मनुष्य भारत के संविधान द्वारा दिए गए अपने अधिकारों के साथ पैदा होते है। संविधान के अनुच्छेद (आर्टिकल) 21 में नागरिकों को प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता का मूल अधिकार दिया है जिस के अनुसार किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की प्रक्रिया निष्पक्ष एंव स्पष्ट होनी चाहिए तथा यह प्रक्रिया मनमानी या अत्याचारी नहीं होनी चाहिए। देश ऐसे बहुत से प्रकरण सामने आये जिनमे एक अभियुक्त को नैसर्गिक अधिकार मिलने की आवश्यकता महसूस की गई | इसलिए कानून द्वारा अभियुक्त व्यक्ति को ऐसे अनेक अधिकार दिए गए हैं, जो अधिकार अभियुक्त को बचाने के लिए नहीं बल्कि शासन की शक्तियों पर अंकुश लगाने एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को बनाये रखने के लिए है, अभियुक्त के अधिकार | Rights of Accused जिनका क्रमवार उल्लेख किया गया है - (i) गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार - अभियुक्त व्यक्ति को अपने गिरफ्तार किये जाने के कारणों या आधारों को जानने का अधिकार है।स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम शोभाराम के प्रकरण में कहा गया है कि - अभियुक्त का यह अधिकार जमानत पर छूट जाने के बाद भी बना रहेगा (ए.आई. आर. 1966 एस.सी. 1910) (ii) अधिवक्ता से मिलने का अधिकार - CrPC की धारा 41घ के अनुसार - गिरफ्तार किये गये अभियुक्त को पूछताछ के दौरान अपने पसन्द के अधिवक्ता से मिलने एवं परामर्श करने का अधिकार होगा, लेकिन सम्पूर्ण पूछताछ के दौरान नहीं।(iii) नामित व्यक्ति को गिरफ्तारी की सूचना देने का अधिकार - CrPC की धारा 50क के अनुसार - गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि, वह ऐसी गिरफ्तारी की एवं उस स्थान की जहाँ उसे रखा गया है, सूचना अपने मित्रों, रिश्तेदारों, या किसी नामित व्यक्ति को दे। गिरफ्तार करने वाला पुलिस अधिकारी अभियुक्त द्वारा बताये व्यक्ति को सूचना देगा।(iv) जमानत के अधिकार की सूचना पाने का अधिकार - धारा 50 के अनुसार - यदि किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध से अलग किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाता है तो ऐसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी का यह कर्त्तव्य होगा कि वह गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को इस आशय की सूचना देगा कि वह जमानत पर छूटने का हकदार है।(v) मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने का अधिकार - धारा 57 के अनुसार - गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय से 24 घंटे के भीतर नजदीकी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना आवश्यक है। 24 घंटे की इस अवधि में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट तक पहुँचने में यात्रा में लगा समय सम्मिलित नहीं होगा।Read More - गिरफ्तार व्यक्ति के क्या अधिकार है Read the full article
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परिवाद क्या है | परिभाषा एंव इसके आवश्यक तत्व क्या है? Parivad Patr Explained in Hindi
परिवाद पत्र क्या है (Parivad Kya hai) – परिवाद को अंग्रेजी में Complaint कहा जाता है जिसे साधारण शब्दों में शिकायत कहा जाता है और उर्दू में इसे इस्तगासा कहा जाता है| गणेश बनाम शरणप्पा के प्रकरण अनुसार परिवाद से तात्पर्य – ऐसे मौखिक या लिखित दोषारोपण से है, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष ��ार्यवाही के लिए प्रस्तुत किया जाता है (ए.आई.आर. 2014 एस.सी. 1198) आपराधिक मामलों में न्यायिक कार्यवाही का आरम्भ दो तरह से होता है – (i) पीड़ित पक्ष द्वारा पुलिस थाना के भारसाधक अधिकारी के समक्ष प्रथम सूचना रिपोर्ट (F.I.R.) पेश करने से, जिस पर पुलिस अधिकारी अन्वेषण (Investigation) प्रारम्भ करता है, या फिर (ii) पीड़ित पक्ष द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद प्रस्तुत किया जाए जिस पर वह मजिस्ट्रेट अन्वेषण का आदेश देता है| परिवाद की परिभाषा | Definition of Complaint – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(घ) में शब्द 'परिवाद' की परिभाषा दी गई है इसके अनुसार – “परिवाद से इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से लिखित या मौखिक रूप में उससे किया गया वह कथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है, किन्तु इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है|” इस परिभाषा का स्पष्टीकरण – ऐसे किसी मामले में, जो अन्वेषण के पश्चात् किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है, पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट Parivad समझी जाएगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की गई है, परिवादी समझा जाएगा| Parivad के आवश्यक तत्व क्या है – (i) परिवाद लिखित या मौखिक किसी भी रूप में हो सकता है| (ii) किसी शिकायत (लिखित या मौखिक कथन) को तभी परिवाद माना जा सकता है, जब उससे कोई अपराध का किया जाना प्रकट होता हो| यदि कोई शिकायत/कथन विधि द्वारा दण्डनीय किसी अपराध की परिधि में नहीं आता है तो उसे परिवाद नहीं माना जायेगा। (iii) Parivad हमेशा मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है| (iv) Parivad का मुख्य उद्देश्य इस संहिता जे अधीन उस मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किया जाना है, जिसके समक्ष परिवाद पेश किया जाता है| (v) पुलिस रिपोर्ट, परिवाद में शामिल नहीं है, उसे परिवाद केवल तभी माना जा सकता है जब अन्वेषण के पश्चात असंज्ञेय अपराध कारित होना प्रकट होता है। परिवाद कौन पेश कर सकता है - परिवाद कोई भी व्यक्ति जिसे किसी अपराध के घटित होने की जानकारी है, चाहे यह उस अपराध के घटित होने से प्रभावित हुआ हो या नहीं, परिवाद प्रस्तुत कर सकता है, इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि परिवाद पीड़ित व्यक्ति के द्वारा ही प्रस्तुत किया जाए, वह किसी भी व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। Parivad किस न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है - परिवाद मजिस्ट्रेट को ही किया जा सकता है और किसी अन्य अधिकारी को नहीं, किन्तु यदि मानहानि के लिए अभियोजन भारत के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या किसी संघ राज्य क्षेत्र के प्रशासक या संघ या किसी राज्य के या किसी संघ राज्य क्षेत्र के मंत्री अथवा संघ या किसी राज्य के कार्यकलापों के संबंध में नियोजित अन्य लोक सेवक के विरुद्ध है, तब परिवाद भाग 199 (2) के अधीन सेशन न्यायालय में दायर किया जाएगा। लेकिन मजिस्ट्रेट ऐसा होना चाहिए, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 (1) (क) के अधीन अपराध का संज्ञान लेने के लिए विधि में सशक्त होना चाहिए। Read More - परिवाद से आप क्या समझते है ? इसके आवश्यक तत्व क्या है? Read the full article
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भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता का अर्थ व इसकी मुख्य विशेषताएं क्या है? CRPC in Hindi
भारतीय दण्ड संहिता क्या है? - दंड प्रक्रिया संहिता को संक्षिप्त रूप से 'CRPC' नाम से जाना जाता है। जब भी कोई अपराध किया जाता है तब हमेशा दो प्रक्रियाएं होती हैं, जिन्हें पुलिस अपराध की जांच करने में अपनाती है। एक प्रक्रिया पीड़ित के सम्बन्ध में और दूसरी प्रक्रिया आरोपी (अभियुक्त) के सम्बन्ध में होती है। दंड प्रक्रिया संहिता में इन प्रक्रियाओं का ब्योरा दिया गया है। दंड प्रक्रिया संहिता के द्वारा ही अपराधी को दण्ड दिया जाता है| भारतीय दण्ड संहिता कब लागू हुई? भारत में सर्वप्रथम सन् 1898 में दण्ड प्रक्रिया संहिता अधिनियमित की गई थी| बीसवीं शताब्दी के दौरान विज्ञान, उद्योग, संचार आदि में हुए विकास के कारण हमारे देश में अनेक परिवर्तन हुए ��िससे अपराध प्रशासन के क्षेत्र में भी नई समस्याएं उत्पन्न होने से उनके समाधान के लिए पुरानी संहिता में सन 1923 एंव सन 1955 में विस्तृत संशोधन किए गए| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उद्योग, संचार, नगरीकरण आदि क्षेत्रो में विस्तार होने के साथ साथ सामाजिक एंव आर्थिक समस्याए उत्पन्न हो गई जिस कारण समाज में नये नये अपराधों का जन्म हुआ| जिसके फलस्वरूप पुरानी दण्ड संहिता के स्थान पर सन् 1973 में नई दण्ड प्रक्रिया संहिता संसद द्वारा अधिनियमित की गई तथा यह दिनांक 01-04-1974 से लागु की गई। इस संहिता का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है पहले यह जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं थी, लेकिन जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की पाँचवीं अनुसूची की प्रविष्टि संख्या 9 द्वारा इसे सम्पूर्ण भारत पर लागू कर दिया गया है। भारतीय दण्ड संहिता की मुख्य विशेषताएं क्या है? (i) भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता में कुल 37 अध्याय एवं 484 धारायें हैं । (ii) इस संहिता की मुख्य विशेषता न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करना है। मजिस्ट्रेट के कार्यों को न्यायिक एवं कार्यपालिकीय मजिस्ट्रेट के बीच विभाजित कर दिया गया है (iii) आरोप पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किये जाने की समय सीमा 60 दिन एवं 90 दिन निर्धारित कर दी गई है। यदि इस अवधि में आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो अभियुक्त सांविधिक जमानत (Statutory bail) पर छूटने का हकदार हो जाता है। (iv) दण्डादेश की अव���ि में से अभिरक्षा में की अवधि को कम कर दिये जाने का प्रावधान किया गया है। (v) नई संहिता में गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारणों से तथा जमानतीय मामलों में जमानत पर छूटने के अधिकार से अवगत कराये जाने की व्यवस्था की गई है। (vi) साक्षियों के समन डाक द्वारा भेजे जाने की व्यवस्था की गई है। (vii) छोटे मामलों (Petty Cases) में अभियुक्त को डाक द्वारा अभिवचन प्रस्तुत करने तथा समन में विनिर्दिष्ट अर्थदण्ड की राशि जमा कराने की सुविधा प्रदान की गई है। ऐसे मामलों में उन्हें न्यायालय में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है। (viii) ऐसे व्यक्तियों से जिनकी आजीविका का कोई प्रत्यक्ष साधन नहीं है, अच्छे आचरण के लिए प्रतिभूति की माँग करने का प्रावधान हटा दिया गया है एवं नये प्रावधान को उन व्यक्तियों तक सीमित कर दिया गया है जो कोई संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) कारित करने के लिए अपने आपको छिपा रहा है। (ix) आदतन अपराधियों से प्रतिभूति की माँग किये जाने के प्रावधान को अब तस्करी, कालाबाजारी आदि समाज विरोधी अपराधों तक विस्तृत कर दिया गया है । (x) प्रतिभूतियों की कार्यवाहियों के लिए अब समय सीमा का निर्धारण कर दिया गया है। Read More - आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 का उद्देश्य क्या है? Read the full article
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