साखी-तीर्थ गए एक फल संत मिल फल चार।
सतगुरू मिले अनेक फल कहै कबीर विचार।।
संत मिले फल चार का भावार्थ है कि संत के दर्शन से परमात्मा की याद आती है। यह ध्यान यज्ञ है। संत से ज्ञान चर्चा करने से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है। यह दूसरा फल है। तीसरा फल जब संत घर पर आएगा तो भोजन की सेवा का फल मिलेगा तथा चौथा फल यदि संत नशा नहीं करता है तो उसको रूपया या कपड़ा वस्त्र दान अवश्य देता है। इस प्रकार संत मिले फल चार। जब सतगुरू मिल गए तो सर्व मिल गए, मोक्ष भी मिल गया।
कबीर, बिन माँगे मोती मिलें, माँगे मिले न भीख । माँगन से मरना भला, यह सतगुरू की सीख ।।
कबीर परमात्मा ने भी बताया है कि जो पूर्ण परमात्मा की सत्य साधना करता है, उसे माँगना नहीं चाहिए। माँगने से परमात्मा रूष्ट हो जाता है। उसको भिक्षा भी नहीं मिलती। वह साधक परमात्मा पर विश्वास रखकर नहीं माँगेगा तो परमात्मा उसकी इच्छा पूरी करेगा यानि मोती जैसी बहुमूल्य वस्तु भी दे देगा। पूर्ण सतगुरू यही शिक्षा देता है कि माँगने से तो व्यक्ति जीवित ही मर जाता है। माँगने से तो मरना भला है। भावार्थ आत्महत्या से नहीं है। यहाँ अपनी इच्छाओं का दमन करके मृतक बनकर रहने से है।
कबीर, बिन माँगे मोती मिलें, माँगे मिले न भीख । माँगन से मरना भला, यह सतगुरू की सीख ।।
कबीर परमात्मा ने भी बताया है कि जो पूर्ण परमात्मा की सत्य साधना करता है, उसे माँगना नहीं चाहिए। माँगने से परमात्मा रुष्ट हो जाता है। उसको भिक्षा भी नहीं मिलती। वह साधक परमात्मा पर विश्वास रखकर नहीं माँगेगा तो परमात्मा उसकी इच्छा पूरी करेगा यानि मोती जैसी बहुमूल्य वस्तु भी दे देगा। पूर्ण सतगुरू यही शिक्षा देता है कि माँगने से तो व्यक्ति जीवित ही मर जाता है। माँगने से तो मरना भला है। भावार्थ आत्महत्या से नहीं है। यहाँ अपनी इच्छाओं का दमन करके मंतक बनकर रहने से है। जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज
लंका फतह करने में बाधा बन रहे समुद्र के आगे असहाय हुए दशरथ पुत्र राम से भिन्न वह आदिराम/आदिपुरुष परमात्मा कौन है, जो त्रेतायुग में मुनींद्र ऋषि के रूप में उपस्थित थे एवं जिनकी कृपा से नल नील के हाथों समुद्र पर रखे गए पत्थर तैर पाए थे।
इस आध्यात्मिक रहस्य को जानने के लिए अवश्य देखें साधना चैनल शाम 7:30 बजे।
🔹त्रेतायुग में कबीर साहेब मुनींद्र ऋषि नाम से आये। तब रावण की पत्नी मंदोदरी, विभीषण, हनुमान जी, नल - निल, चंद्र विजय और उसके पूरे पर��वार को कबीर परमात्मा ने शरण में लिया जिससे उन पुण्यात्माओं का कल्याण हुआ।
🔹कबीर परमेश्वर जी ने काल ब्रह्म को दिये वचन अनुसार त्रेतायुग में राम सेतु अपनी कृपा से पत्थर हल्के करके बनवाया।
🔹त्रेतायुग में नल तथा नील दोनों ही कबीर परमेश्वर के शिष्य थे। कबीर परमेश्वर ने नल नील को आशीर्वाद दिया था कि उनके हाथों से कोई भी वस्तु चाहें वह किसी भी धातू से बनी हो,जल में डूबेगी नहीं। परंतु अभिमान होने के कारण नल नील के आशीर्वाद को कबीर परमेश्वर ने वापस ले लिया था। तब कबीर परमेश्वर ने एक पहाड़ी के चारों और रेखा खींचकर उसके पत्थरों को हल्का कर दिया था। वही पत्थर समुद्र पर तैरे थे।
🔹त्रेतायुग में कबीर साहेब ने मुनींद्र ऋषि रूप में एक पहाड़ी के आस-पास रेखा खींचकर सभी पत्थर हल्के कर दिये थे। फिर बाद में उन पत्थरों को तराशकर समुद्र पर रामसेतु पुल का निर्माण किया गया था।
इस पर धर्मदास जी ने कहा हैं :-
"रहे नल नील जतन कर हार, तब सतगुरू से करी पुकार।जा सत रेखा लिखी अपार, सिन्धु पर शिला तिराने वाले।धन-धन सतगुरु सत कबीर, भक्त की पीर मिटाने वाले।"
🔹कबीर साहेब जी ही त्रेतायुग में लंका के राजा रावण के छोटे भाई विभीषण जी को मुनीन्द्र रुप में मिले थे विभीषण जी ने उनसे तत्वज्ञान ग्रहण कर उपदेश प्राप्त किया और मुक्ति के अधिकारी हुए।
🔹त्रेतायुग में कबीर साहेब जी मुनीन्द्र ऋषि के रूप में प्रकट हुए, नल-नील को शरण में लिया और जब रामचन्द्र जी द्वारा सीता जी को रावण की कैद से छुड़वाने की बारी आई तो समुद्र में पुल भी ऋषि मुनीन्द्र रूप में परमात्मा कबीर जी ने बनवाया।
धन-धन सतगुरू सत कबीर भक्त की पीर मिटाने वाले।।
रहे नल-नील यत्न कर हार, तब सतगुरू से करी पुकार।
जा सत रेखा लिखी अपार, सिंधु पर शिला तिराने वाले।।
🔹त्रेतायुग में कबीर परमात्मा ऋषि मुनीन्द्र के नाम से प्रकट हुये थे। त्रेता युग में कबीर परमात्मा लंका में रहने वाले चंद्रविजय और उनकी पत्नी कर्मवती को भी मिले थे। और उस समय के राजा रावण की पत्नी मंदोदरी और भाई विभीषण को भी ज्ञान समझा कर अपनी शरण में लिया। यही कारण था कि रावण के राज्य में भी रहते हुए उन्होंने धर्म का पालन किया।
🔹कबीर परमात्मा जी द्वारा नल और नील के असाध्य रोग को ठीक करना
जब त्रेतायुग में परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) मुनींद्र ऋषि रूप में नल और नील के असाध्य रोग को अपने आशीर्वाद से ठीक किया तथा नल और नील को दिए आशीर्वाद से ही रामसेतु पुल की स्थापना हुई थी।
🔹द्वापर युग में कबीर परमेश्वर ने ही द्रौपदी का चीर बढ़ाया जिसे जन समाज मानता है कि वह भगवान कृष्ण ने बढ़ाया। कृष्ण भगवान तो उस वक्त अपनी पत्नी रुकमणी के साथ चौसर खेल रहे थे।
🔹द्वापर युग में कबीर परमेश्वर की दया से ही पांडवों का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुआ था। पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में अनेक ऋषि महर्षि मंडलेश्वर उपस्थित थे। यहां तक की भगवान कृष्ण भी उपस्थित थे। फिर भी उनका शंख नहीं बजा। कबीर परमेश्वर ने सुपच सुदर्शन वाल्मीकि के रुप में शंख बजाया और पांडवों का यज्ञ संपन्न किया था।
🔹परमेश्वर कबीर जी करुणामय नाम से जब द्वापरयुग में प्रकट थे तब काशी में रह रहे थे। सुदर्शन नाम का एक युवक उनकी वाणी से प्रभावित होकर उनका शिष्य बन गया। एक दिन सुदर्शन ने करुणामय जी से पूछा कि आप जो ज्ञान देते हैं उसका कोई ऋषि-मुनि समर्थन नहीं करता है, तो कैसे विश्वास करें? उन्होंने सुदर्शन की आत्मा को सत्यलोक का दर्शन करवाया। सुदर्शन का पंच भौतिक शरीर अचेत हो गया। उसके माता-पिता रोते हुए परमेश्वर करूणामय के घर आए और उन पर जादू-टोना करने का आरोप लगाया।
तीसरे दिन सुदर्शन होश में आया और कबीर जी को देखकर रोने लगा। उसने सबको बताया कि परमेश्वर करूणामय (कबीर साहेब जी) पूर्ण परमात्मा हैं और सृष्टि के रचनहार हैं।
🔹द्वापरयुग में एक राजा चन्द्रविजय था। उसकी पत्नी इन्द्रमति धार्मिक प्रवृत्ति की थी।
द्वापर युग में परमेश्वर कबीर करूणामय नाम से आये थे।करूणामय साहेब ने रानी से कहा कि जो साधना तेरे गुरुदेव ने दी है तेरे को जन्म-मृत्यु के कष्ट से नहीं बचा सकती। आज से तीसरे दिन तेरी मृत्यु हो जाएगी। न तेरा गुरु, न नकली साधना बचा सकेगी। अगर तू मेरे से उपदेश लेगी, पिछली पूजाएँ त्यागेगी, तब तेरी जान बचेगी। सर्प बनकर काल ने रानी को डस लिया। करूणामय (कबीर) साहेब वहाँ प्रकट हुए। दिखाने के लिए मंत्र बोला और (वे तो बिना मंत्र भी जीवित कर सकते हैं) इन्द्रमती को जीवित कर दिया।