#संस्कार ही व्यक्ति का सही मूल्यांकन करता है।
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kmsraj51 · 7 years ago
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Good manners - a happy, peaceful and successful basis in hindi
Good manners – a happy, peaceful and successful basis in hindi
Kmsraj51 की कलम से…..
ϒ अच्छे संस्कार – सुखी, शांतिमय व सफलता का आधार। ϒ
Good manners – a happy, peaceful and successful basis.
तेजी से बदलते सामाजिक एवं पारिवारिक ताना-बाना के बीच आज लोग व्याकुल हो रहे है। अपनी व्यस्तता के बीच एकल परिवारों में बच्चों में संस्कारों के बीज बोना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। इससे बचा जा सकता है, यदि बच्चों को बचपन से ही ईश्वर के मार्ग पर डाल दिया जाए।
संस्कारवान…
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kisansatta · 5 years ago
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भारत को विश्व के दिशादर्शक के रुप में खड़ा करने का संकल्प और आर्थिक पैकेज
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  प्रधानमंत्री के संबोधन तथा पांच भागों में जारी आर्थिक पैकेज का अर्थ है कि भारत कोरोना कोविड 19 के संकट को अवसर के रुप में परिणत करने का कदम उदा लिया है। इसके पीछे एक व्यापक सोच है तथा उसे पूरा करने की संकल्पबद्धता। हमारे देश के विश्लेषकों एवं बुद्धिजीवियों के एक तबके की समस्या है कि वो बने.बनाए ढांचे.खांचे और सिद्धांतों से बाहर निकलने की कोशिश नहीं करते। उसके अंदर जब आप मूल्यांकन करते हैं तो बदलाव की धारा समझ नहीं आती। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हुए कह दिया कि इसका विस्तृत विवरण वित्तमंत्री क्रमिक रुप से देश के सामने रखेंगी। बसए पूरा विश्लेषण इस पर आकर टिक गया है।
जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संबोधन देने आए तो किसी को कल्पना नहीं थी इस बीच सरकार ने एक राष्ट्र के रुप में भारत के अभ्युदय का न केवल सपना बुना है बल्कि उसे व्यावहारिक धरातल पर उतारने की रुपरेखा भी बना ली है। अपने संबोधन में उनहोंने बिना स्पष्ट बोले यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की कि विश्व में सिरमौर व मार्गदर्शक के रुप में वैचारिक.सांस्कृतिक.सभ्यतागत और आर्थिक रुप से एक सशक्त भारत के आविर्भाव का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।
पूरे पैकेज को सरसरी तौर पर देखें तो यह स्वीकार करना होगा कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार कोविड 19 आपदा से संघर्ष करते हुए इससे हो रही क्षति को रोकनेए जो हो चुकी उसकी भरपाई करनेए पूर्व से चली आ रही आर्थिक सुस्ती और कोविड की मार ���े उबारनेए अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को गति देकर पटरी पर सरपट दौड़ानेए जिस वर्ग पर सबसे अधिक मार पड़ी है उसके कल्याण के लिए व्यावहारिक योजनाएं बनानेए उत्पन्न हो रहीं सामाजिक.आर्थिक समस्याओं का समाधान निकालनेए बड़े और साहसिक आर्थिक सुधार साथ अपनी वैश्विक भूमिका पर दिन.रात काम किया है।
ऐसा नहीं होता तो हर क्षेत्र को समाहित करते हुए इतना लंबा.चौड़ा पैकेज नहीं आता। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण एवं वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर नेगकोज दिनों में कुल 53 घोषणाएं कीं। इसमें अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र की कठिनाइयों का गहराई से अध्ययन कर जितना संभव है उतना सहयोग करने की कोशिश की जा रही है ताकि वे सुस्ती या ठहराव से उठकर गतिमान हो सकें। उदाहरण के लिए 45 लाख एमएसएमई यानी लघुए सूक्षम एवं मध्यम ईकाइयों के लिए 3 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का ऐलान किया गया। इससे उद्योगों के प्रमोटरों को बैंक से कर्ज मिलेगा।
इसके दायरे में ऐसे उद्योग आएंगेए जो नॉन परफॉर्मिंग असेट्स हो चुके हैं या संकट में चल रहे हैं।छोटे उद्योगों के लिए 50 हजार करोड़ रुपए का फंड बना है। एमएसएमई की परिभाषा बदली गई है। इससे ज्यादा उद्योग एमएसएमई के दायरे में आ जाएंगे। इसी तरहसंकट में चल रहे छोटे उद्योगों के लिए 20 हजार करोड़ रुपए की राहत। सरकार और सरकारी उद्यम अगले 45 दिन में एमएसएमई के सभी बकाया का भुगतान कर देंगे।
लौकडाउन की मार से त्रस्त एमएसएमई को उबारने तथा उसे गतिशील बनाने के लिए वर्तमान वित्तीय स्थिति में इससे ज्यादा नहीं किया जा सकता। कर्ज देने वाली कंपनियों के लिए 30 हजार करोड़ रुपए की स्पेशल लिक्विडिटी स्कीम की शुरुआत होगी।इससे नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियांए हाउसिंग फाइनेंस कंपनियां और माइक्रो फाइनेंस इंस्टिट्यूशंस को लाभ मिलेगा जिन्हें बाजार से पैसा जुटाने में दिक्कत होती है। कर्ज देने वाली कंपनियों के लिए 45 हजार करोड़ रुपए की आंशिक गारंटी स्कीम लाई गई है। कर्ज देने पर अगर नुकसान होता है तो उसका 20 प्रतिशत भार सरकार उठाएगी। तो वे बिना भय के उद्वमियों को कर्ज दे सकें���े और अर्थव्यवस्था गति पकड़ेगी।
लौकडाउन में समाज के निचले तबके को सबसे ज्यादा मार ��ड़ी है। दूसरे राज्यों में रहने वाले बिना राशन कार्ड वाले 8 करोड़ मजदूरों को अगले दो महीने तक मुफ्त राशन के लिए3500 करोड़ रुपए जारी करनाए एक देश.एक राशन कार्ड की व्यवस्थाए श्रमिकों को कम किराए के मकान के लिए सरकार और निजी संयुक्त उद्यम में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कम किराए के मकान की योजना आदि इनके तात्कालिक एवं दूरगामी कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है। मनरेगा का विस्तार कर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से बाहर से आए श्रमिकों को इस योजना के तहत काम देने को कहा गया है।
इनकी बेकारी मे सरकार के पास यही विकल्प था। इसी तरह शहरों के रेहड़ीए पटरी ठेले वालों को 10 हजार की कर्ज के लिए 5000 करोड़ की व्यवस्था है। इनकी चर्चा इसलिए की गईए क्योंकि गांवों से शहरों तक गरीबों की आबादी के सामाजिक दृ आर्थिक विकास का पूरा ध्यान रखा गया है। इसके बगैर भारत आत्मनिर्भर सक्षम देश होने की कल्पना नहीं कर सकता। वैसे पैकेज में व्यापारी उदायोगपति किसान सेवा क्षेत्र ऊर्जा रियल्टी पर्यटन सबके लिए प्रावधान और आवंटन है। वास्तव में केन्द्र सरकार के पैकेज में समग्रता है तथा सभी क्षेत्रों व समाज के सभी श्रेणी के लोगों को लाभ पहुंचाकर देश को गतिमान बनाने का लक्ष्य रखा गया है।
प्रधानमंत्री के संबोधन और आर्थिक पैकेज को एक साथ मिलाकर विचार करें तभी पूरी बात समझ में आ सकती है। प्रधानमंत्री ने भारत के वर्तमान और भविष्य कीए बदलती हुई दुनिया की तो संभावित तस्वीर पेश की हीए उसके साथ भारत की उसमें भूमिका और इसे विश्व का सिरमौर और प्रभावी देश बनाने में समाज के हर श्रेणी और हर व्यक्ति की भूमिका होगी यह भी साफ किया है। उन्होंने कहा कि संकट अभूतपूर्व है लेकिन थकनाए हारनाए टूटना बिखरना मानव को मंजूर नहीं है। सतर्क रहते हुए ऐसी जंग के सभी नियमों का पालन करते हुए अब हमें बचना भी है और आगे बढ़ना भी है।
किसी संकट में नेतृत्व को ही देशवासियों को दिशा देनी होती है। यह बात लंबे समय से सुनी जा रही है कि 21 वीं सदी एशिया की और उसमें भारत की सदी होगी।किंतु यह होगा कैसे प्रधानमंत्री ने कहा कि इसका मार्ग एक ही है आत्मनिर्भर भारत। अगर कोविड 19 आपदा संकट है तो इसमें अवसर भी निहित है।आत्मनिर्भरता के मायने क्याघ् आत्मनिर्भरता की जो अवधारणा चार दशक से पहले थी वो आज भूमंडलीकृत विश्व में प्रासंगिक नहीं है।
भूमंडलीकरण भी तीन दशक में ��दला है। अर्थकेन्द्रित की जगह मानव केन्द्रित की बात हो रही है। इसमें देश अपने को सिमटने में लगे हैंए संरक्षणवाद की ओर बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने यहीं पर स्पष्ट किया ही हमारी संस्कृति का जो संस्कार है उसमें आत्मनिर्भरता की आत्मा वसुधैव कुटुम्बकम है। हम आत्मकेन्द्रित नहीं हो सकते। यानी हमारी आत्मनिर्भरता विश्व के सभी मानवों से जुड़ी होंगी। हमारे यहां कोई संरक्षणवाद नहीं होगा।
जो लोग अभी स्वदेशी की बात करते हुए इसे सीमाओं के तहत बांध रहे हैं वह सही नही है। प्रधानमंत्री स्वयं मेक इन इंडिया की अपील कर चुके हैं। इसका अर्थ यही है कि कंपनियां हमारे यहां आकर उत्पादन करें जिनहें यहां बेचें और विश्व बाजार में भी। यह वर्तमान दौर की आत्मनिर्भरता का फलक है।
इसी तरह हमारे देश की कंपनियां भी अपना वैश्विक विस्तार कर सकतीं हैंए पर पहले वह देश के लिए वस्तुओं को निर्मित कर हमें आत्मनिर्भर बनाए। वे ऐसी सामग्री बनाएं जो विश्वस्तरीय हों।उन्होंने साफ कहा कि भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुखए सहयोग और शांति की चिंता सामाहित है। दुनिया का कोई देश नहीं है जो अपने यहां हर प्रकार के पैदावार और उत्पादन की कोशिश नहीं करता।
आवश्यकताओं के लिए जितना हम दुनिया पर निर्भर रहेंगे उतना ही हम अपनी राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभाने में दुर्बल होंगे। इसलिए आत्मनिर्भरता मूल मंत्र है उस भारत को फिर से सामने लाने के लिए जो था और सोने की चिड़ियां कहलाता था। हमारे मनीषियों ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ऐसे भारत का सपना देखा था जो अपनी आवश्यकताओं को लेकर आत्मनिर्भर होए जहां दुनिया के लिए सारी खिड़कियां दरवाजे बंद नहीं होए जिसे देखकर दुनिया सीखे कि एक राष्ट्र के रुप में किस तरह विश्व और प्रकृति हित से आबद्ध रहते हुए सशक्त हुआ जा सकता है। एक ऐसे भारत की कल्पना की गई थी जिसके पास ताकत हो लेकिन सारी दुनिया उससे प्रेम करेए उसका सम्मान करे डरे नहीं। एक ऐसा भारत जो दुनिया को रास्ता दिखाने का काम करे।
तो कुल मिलाकर प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत का अर्थ व्यापक है। इसमें सभ्यतागत एवं सांस्कृतिक उत्थान व पहचान की व्यापकता है तो पुनर्जागरण का जयघोष भी। इसमें अपने ह्दय को भारतीय चिंतन के अनुरुप सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण का विस्तार देना है तो साहसी और संकल्पवान देश के रुप में सिर उठाकर खड़ा होने की प्रेरणा भी। आर्थिक सशक्तता तो जुड़ा है ही। ऐसा देश ही कोविड 19 उपरांत आकार लेती विश्वव्यवस्था को दिशा देकर सर्वस्वीकृत दिशा दर्शक की भूमिका में आ सकता है।
https://is.gd/4hz1TD #ResolutionAndEconomicPackageToMakeIndiaAGuideToTheWorld Resolution and economic package to make India a guide to the world In Focus, State, Top #InFocus, #State, #Top KISAN SATTA - सच का ��ंकल्प
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swavyast · 7 years ago
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क्योंकि हुआ कुछ नहीं
बड़ी विडंबना है, एक समय अंग्रेजों के शासन से भारत की जनता को बस इसी बात का कष्ट था कि कुछ विदेशी लोग उनकी ही धरती पर आकर उन्हीं का खा पीकर उन्हें ही सता रहे थे और उन्हीं को लूट कर अपने घर भी भर रहे थे। उसके लिए तत्कालीन भारतीयों ने लोहा ले लिया, उन्हें खदेड़ कर बाहर का रास्ता दिखाया और खुद को आजाद समझ कर निश्चिन्त हो गए | लेकिन आज किसी को गुरेज नहीं है जबकि, अगर मैं गलत नहीं हूँ तो स्थिति आज भी कुछ खास नहीं बदली है |
                          कुछ विद्वानों के मतानुसार ‘भारत का संविधान’ 1935 का ‘भारत सरकार अधिनियम’ ही है, बस कुछ एक नियम घटा बढ़ा कर के उसी को आज भी चलाया जा रहा है | समझ में ये नहीं आता की भारतवासियों को अंग्रेजों से तकलीफ़ थी या उनके शासन से? उनके शासन के तौर तरीकों से? उनके बनाये नियम कानूनों से? क्योंकि ऐसे तमाम नियम और क़ानून जो तब शुरू किये गए थे, आज भी आजादी के 75-76 साल बाद भी प्रचलन में हैं, आज भी उन्ही नियमों पर इस देश की जनता को न्याय मिल रहा है | फिर आज क्यों लोगों को समस्या नहीं है, पिछले 75-76 सालों में किसी को समस्या क्यों नहीं हुई? आजादी के बाद लोगों ने इसको प्रतिस्थापित क्यों नहीं करवाया? क्या किसी के कह देने भर से ही हम आजाद हो गए हैं? क्या इसे आलस्य नहीं कहना चाहिए, कि हम आज तक उन नियमों को नहीं बदल पाए?
                          निस्संदेह ही ये आलस्य है, और इसी आलस्य की देन है कि आज हम अपनी संस्कृति को खोते जा रहे हैं | यही वजह है कि आज के युवा हिंदी के शब्दों पर हँसते हैं और अंग्रेजी बोलने में खुद को गर्वान्वित महशूस करते हैं | अंग्रेजी आधुनिकता का पर्याय बनती जा रही है और देशज भाषाएं रूढ़िवादिता का | और जिस तीव्रता के साथ देशज भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो रही हैं, जिस तीव्रता से हमारे संस्कार पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने में विलुप्त होते जा रहे हैं, जिस तीव्रता से ये भारत-भूमि अपनी विविधता को खोती जा रही है, डर लगता है संभलने में हमें देर न हो जाए, कहीं हमारा ये आलस्य भारत-भूमि पर ही हमें पाश्चात्य संस्कृति जीने पर मजबूर न कर दे, डर लगता है मैकाले का देखा सपना सच न हो जाय, डर लगता है ये दुनिया फिर से एक संस्कृति न खो बैठे, कहीं एक अनोखी संस्कृति फिर से हड़प्पा-मोहनजोदाड़ो न बन जाए। और ये सिर्फ भारतवर्ष के लिए ही चिंता का विषय नहीं है बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है | लेकिन तभी जब विश्व को इतिहास में एक और विलुप्त संस्कृति का विस्तृत अध्याय जोड़ने का शौक न हो | अगर शौक है तो फिर तो ठीक है, आशा करता हूँ निकट भविष्य में, बहुत जल्द ही ये ख्वाहिस पूरी हो जायेगी | क्योंकि इस देश के लगभग आधे या आधे से अधिक लोग मात्र 75 साल में ही पश्चिमीकरण का शिकार हो चुके हैं, और गतिकी के नियमों को नजर-अंदाज न करते हुए, इस बदलाव की तीव्रता को ध्यान में रखकर सोचें तो शेष 50 प्रतिशत को पश्चिमीकृत होने के लिए 50 साल बहुत हो जाएंगे |
                         देश की आजादी के इतने साल बाद भी इस देश में 194.6 मिलियन लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं, गरीब आज भी परेशान है, किसान आज भी मर रहे हैं, महिलायें आज भी हैवानियत का शिकार हो रही हैं और इन्साफ के लिए आज भी एक आम-आदमी लालायित है, दंगे फसाद आज भी होते हैं, किये और कराये जाते हैं, किये जा रहे हैं और तमाम लोग बेमौत मर रहे हैं लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी ने बता दिया था कि हम 1947 में ही आज़ाद हो गए थे, और हमने समझ लिया था कि आजाद होने के बाद हमें कुछ करना शेष ही नहीं रहा, जो कुछ होगा वो सब हमारी खुद की सरकार कर देगी हमारे लिए।और सरकार क्या कर रही है?सरकार डट कर उसी अपनेपन का फायदा उठा रही है, सोशल इंजीनियरिंग और इमोशनल इंटेलिजेंस में रिसर्च कर करा कर जनता को बेवकूफ बना रही है, ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजी हुकूमत बनाती थी | और ये सब बस इसलिए हो रहा है और होता रहेगा कि हम स्वार्थी थे, स्वार्थी हैं और स्वार्थी ही बने रहना चाहते हैं | हमें बस इतनी ही बात से मतलब है कि हमारा पेट भरता है या नहीं, हमारी अय्यासी पूरी हो जाती है या नहीं | हमें फर्क ही नहीं पड़ता हमारे दरवाजे के सामने कौन रात की शर्दी में दम तोड़ता है, क्यों तोड़ता है और उसके दम तोड़ने के बाद कितने लोग उसके गम में दम तोड़ने को मजबूर हो जाते हैं |
दिन दहाड़े, पुलिस और तमाम राजनेताओं की आगोश में लिपटा रहने वाला कोई शख़्स जनता के करोड़ों-अरबों रूपये लेकर चम्पत हो जाता है, दिन दहाड़े कोई भी किसी को भी मार-काट देता है, और जनता को बेवकूफ समझने वाले ये लतखोर और बेहया किश्म के लोग इन सारे संगीन अपराधों को मामूली लतीफा बनाकर छोड़ देते हैं, तो क्यों ? क्योंकि इन्हे सिर्फ अपनी ऐयाशियों से मतलब है। इन्हे बहुत अच्छी तरह से पता है कि पैसा किसानों, मजदूरों और फैक्ट्रीज में काम करने वाले लोगों, भारत के उन आम लोगों के खून पसीने से आता है | इसीलिए ये डरपोक नहीं चाहते की आम जनता उतनी शिक्षित हो के ये सारा खेल समझ जाए और इनका पत्ता काट दे और इसीलिए ये लोग शिक्षित करना ही नहीं चाहते ।
और सबसे बड़ी विडम्बना तो ये है कि काग�� के एक टुकड़े को ही हम शिक्षित होने का सुबूत मानने लगे है | ये भी इसी बात का फायदा उठा कर ऐसे ही कागज़ बनाने के कारखाने खोलने लग गए हैं और यही कागजी आंकड़े शिक्षित और अशिक्षित का प्रतिशत तय करने लगे हैं और हमें सुनहले अक्षरों में घोल कर पिलाये जाने लगे हैं | कोई कहता है हमारी सरकार में देश ने शिक्षा के क्षेत्र में इतने प्रतिशत की वृद्धि की तो अगला उससे दो कदम बढ़ के बताता है, लेकिन हकीकत क्या है, ये देश के लगभग हर प्राथमिक विद्यालय में जाने और पूछताछ करने पर दिख जाता है, जब एक शिक्षक/शिक्षिका ही देश की राजधानी लखनऊ बताता/बताती है |
शिक्षा के नाम पर देश भर में तरह- तरह के कार्यक्रम और योजनाएँ चलाई गई और चलाई जा रही हैं लेकिन सब विफल हैं। परन्तु फिर भी सबका मूल्यांकन बन्दर-बाँट सिद्धांत के अनुसार कर के दो चार जगह अच्छी तसवीरें जड़वाकर देश को दिखा दिया जाता है, कि सरकार ने जैसे तीर ही मार लिया हो और गरीब भी ये सोच कर मौन रह जाता है के शायद मेरी कमाई से ऊपर की चीज रही हो।
गरीब को सरकारी मदद के नाम पर भीख दी जा रही है फिर उसमें भी पचहत्तर हवसी अपना-अपना हिस्सा लगाए बैठे हैं | अंततः जो सब खा-पचाकर अपशिष्ट छोड़ देते हैं, वही देश के गरीब के गले उतरता है | लेकिन इससे क्या, हम तो आजाद हैं…… 1947 में ही हो गए थे, अच्छे दिन तो अब बस आने ही को हैं, गाडी थोड़ी लेट हो गयी है जैसा कि अक्सर और लगभग सभी रेलवे स्टेशन पर होती ही रहती है |
आये दिन देश के किसी न किसी हिस्से में अनावश्यक रूप से किसी नागरिक की जान जाती है लेकिन जनता के ये नेता जिन्हें जनता ने जन-नेतृत्व की जिम्मेदारी दी है, वो क्या करते हैं? अपनी कुर्सी के मद में मदमस्त हैं. उन्हें अपनी पार्टी की सरकार चाहिए बस, चाहे जैसे भी, दंगा जरूरी होगा तो दंगा भी करवाएंगे क्योंकि जनता का खून तो अफरात है ही उनके समर्थन में, खून-पसीने की कमाई लूट कर खाते-खाते इतने बेहया हो गए हैं ये लोग की अब खून चूसने से भी परहेज़ नहीं रहा इन्हे। देश में हो रही हलचलों से इनके कानों पर एक जूँ तक ना रेंगे अगर इनका कोई खुद का राजनीतिक नफा-नुकसान न हो उसमे। लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता और बोलता भी है तो बस बोलता ही है करता कुछ नहीं, क्योंकि हुवा कुछ नहीं।
आये दिन घोटाले हो रहे हैं जांच के नाम पर तमाम प्रकार के प्रपंच दुनिया को दिखाने के लिए सुविकसित कर लिए गए हैं और उन्ही में देश के लोगों को उलझाए रखा जाता है, कोई किसी मामले को लेकर समझे, किसी निष्कर्�� तक पहुंचे तब तक एक नया मामला सामने आ जाता है और पीछे क्या हुआ उसको "बीत गयी सो बात गयी” के तर्ज़ पर भूलते हुए सब उस नए मामले में हो हल्ला करने में जुट जाते हैं।
जो थोड़ा बहुत न्याय हो जाता है वो सिर्फ इस वजह से की न्यायपालिका को अपनी स्वायत्तता, अपना वजूद बरकरार रखने के लिए ऐसा करना अपरिहार्य हो जाता है, वर्ना लूटेरों की कमी तो वहाँ भी नहीं है | सब जानते हैं कि उस पवित्र पुस्तक पर हाथ रखने वाले 75% झूठ बोलते हैं लेकिन फिर भी प्रतिदिन नियम से उसका अपमान किया जाता है और 75 साल में किसी को कोई गुरेज भी नहीं हुआ या हुआ तो भी कुछ कर नहीं पाया इस सम्बन्ध में, क्योंकि हुआ कुछ नहीं |
समितियां बन रही हैं, बिगड़ रही हैं, कुछ रिपोर्ट देती हैं, कुछ की रिपोर्ट्स सड़ रही हैं, किसी दफ्तर के किसी कोने में जहाँ बड़े साहब पान खाकर थूकते हैं और घोटाले अब भी हो रहे हैं। जो कुछ लोग सही सलामत बच जाते हैं, किसी तरह दो वक़्त की रोटी में अपने आप को बहलाये फुसलाये रहते हैं कि किसी झगड़े-झंझट में ना पड़ें, जो खुद को शरीफों में गिनने की व्यर्थ कोशिश करते हैं, वो इन राजनीतिक दरिंदों के रचे साम्प्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ जाते हैं, तो मैं समझता हूँ उन पर दुःख करना व्यर्थ है, वे उसी के लायक हैं क्योंकि उन ने भी अपनी उस माँ के साथ गद्दारी की है जिसकी गोंद में खेलकर वे बड़े हुवे, जिसका सीना चीरकर उगाया अन्न उन ने खाया-पचाया | वे भी उतने ही गुनेहगार हैं जितना बाकी के गुनेहार |
इसमें कोई संदेह नहीं है मुझे  कि आज हमारी खुद की सरकार जिसे हम ये सोचते हैं कि हमने आजादी के बाद खुद से चुना है, जो जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन यानि जनतंत्र है, वो भी तब की सरकार की तरह ही सब कुछ करने लग गयी गयी है | अब ये हमें तय करना है कि हमें इन लूटेरों से छुटकारा चाहिए, हमें तमाम उन ब्रिटिश नियमों से छुटकारा चाहिए जो देश को गुलामी में जकड़ने या जकड़े रखने के लिए बनाये गए थे या फिर इनके तलवे चाटते अपना जीवन बिता देना चाहिए।
मेरे विचार तो स्पष्ट हैं, आप भी अपने विचार स्पष्ट कर लें, उचित होगा, आपके लिए भी देश के लिए भी और सांस्कृतिक विरासत के लिए भी, जो शनैः-शनैः संस्कृति से सांस्कृतिक विरासत बनने की ओर अग्रसर है |
पूरा पढ़ने वालों को बहुत-बहुत धन्यवाद!
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