#लालू की तस्वीर
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nationalistbharat · 2 months ago
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राजद सुप्रीमो लालू यादव को भारत रत्न देने की मांग
Bihar News: बिहार में विधानसभा उपचुनाव के मद्देनजर राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। इसी बीच राजद (राष्ट्रीय जनता दल) ने केंद्र सरकार से एक बड़ी मांग कर दी है। राजद नेताओं ने पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद यादव को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग की है, और इसको लेकर पटना के प्रमुख चौराहों पर पोस्टर लगाए गए हैं। इन पोस्टरों में केंद्र सरकार से भारत रत्न के लिए अपील करते हुए लालू यादव की तस्वीर को…
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dainiksamachar · 9 months ago
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पप्पू यादव को लेकर 'इंडिया' में खेल शुरू, राजेश रंजन के नामांकन की डेट बढ़ाने में छिपा राज
पटना: बिहार की राजनीति में पप्पू याव के नाम से प्रसिद्ध राजेश रंजन ने अपनी जन अधिकार पार्टी (JAP) का हाल ही कांग्रेस में विलय कर दिया था। वे पूर्णिया सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं। चुनाव क�� तैयारी तो उन्होंने विलय के पहले से ही शुरू कर दी थी, लेकिन वे अपनी जीत सुनिश्चित करने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। यही वजह रही कि उन्होंने 'इंडिया' अलायंस का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के साथ जाना मुनासिब समझा। कांग्रेस नेतृत्व ने विलय की बातचीत में उनकी पूर्णिया से उम्मीदवारी का समर्थन भी किया। लालू ने डाला पप्पू की राह में अड़ंगा ! पप्पू यादव को आशंका थी कि कांग्रेस के टिकट पर वे पूर्णिया से चुनाव लड़ते हैं तो कहीं आरजेडी सुप्रीमो कोई व्यवधान न खड़ा कर दें। यही वजह रही कि JAP के कांग्रेस में विलय की पूर्व संध्या पर वे लालू और उनके बेटे तेजस्वी यादव से मिलने राबड़ी देवी के आवास पहुंच गए। जैसी तस्वीरें और बयान उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किए, उससे लगा कि सब कुछ सही दिशा में जा रहा है। तब तक उन्हें इसका तनिक आभास नहीं था कि लालू उनके साथ खेल की पहले से प्लानिंग कर चुके हैं। इसका तो रहस्य तब उजागर हुआ, जब जेडीयू छोड़ आरजेडी जॉइन करने वाली बीमा भारती ने सोशल मीडिया पर सिंबल लेते हुए तस्वीर पोस्ट की। पप्पू यादव ने लालू पर आरोप लगाया जब यह चर्चा आम हो गई कि आरजेडी ने बीमा भारती को पूर्णिया से ही चुनाव लड़ने का सिग्नल दिया है तो पप्पू यादव सामने आए। उन्होंने लालू यादव पर आरोप लगाया कि लालू की बात नहीं मानी, इसलिए ऐसा हुआ है। पप्पू की मानें तो लालू ने उनसे JAP का विलय आरजेडी में करने का प्रस्ताव दिया था। साथ ही पप्पू को पूर्णिया के बजाय मधेपुरा से चुनाव लड़ने की सलाह दी थी। यानी लालू का प्रस्ताव अस्वीकार करने की वजह से ही पूर्णिया सीट कांग्रेस के खाते में नहीं गई। पप्पू की पूर्णिया से ही लड़ने की जिद उसके बाद कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर तो कभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पप्पू ने यह संदेश देना शुरू किया कि कुछ भी हो जाए, वे पूर्णिया से ही चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने तो भारी मन से भावुक होकर यहां तक कह दिया कि मर जाना पसंद करेंगे, पर पूर्णिया नहीं छोड़ेंगे। हां, वे यह भी दोहराते रहे कि कांग्रेस का झंडा लेकर ही वे चुनाव मैदान में उतरेंगे। हालांकि यह तभी संभव है, जब कांग्रेस से बगावत कर वे चुनाव लड़ें। फिर वे कांग्रेस का झंडा लेकर मैदान में उतरने की बात कैसे और क्यों कह रहे हैं! यह तभी संभव है, जब फ्रेंडली फाइट की कांग्रेस हरी झंडी दिखाए। पप्पू ने नोमिनेशन की तय तारीख बढ़ाई पप्पू यादव ने नामांकन का पर्चा दाखिल करने की तारीख भी दो अप्रैल घोषित कर दी। हालांकि अब उन्होंने 'X' पर जानकारी दी है कि उनके चहेते देश के कई हिस्सों में हैं। वे नामांकन के दिन मौजूद रहना चाहते हैं। इसलिए वे अब दो के बजाय चार अप्रैल को नामांकन दाखिल करेंगे। साथ ही उन्होंने पलटी मारते हुए लालू को अभिभावक बताया है। उनसे पूर्णिया पर फैसला बदलने का अनुरोध भी किया है। नामांकन टालने में छिपा है असली 'राज' पप्पू ने जितनी सहजता से नामांकन की तारीख टालने की बात बताई है, वह पूरा सच नहीं है। सच यह है कि अब भी उन्हें आरजेडी का फैसला बदलने की उम्मीद है। कांग्रेस में वे गए ही इस भरोसे पर थे कि उन्हें पूर्णिया से चुनाव लड़ने के लिए पार्टी उन्हें सिंबल देगी। कहा जाता है कि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी ने इसके लिए पप्पू को आश्वस्त किया था। उन्हीं दोनों की सलाह पर वे लालू और तेजस्वी से मिलने भी गए थे। टिकट बंटवारे में लालू ने जिस तरह मनमानी की है, उससे कांग्रेस नेतृत्व नाराज है। इसकी झलक दिल्ली के रामलीला मैदान में इंडी अलायंस की रैली में भी दिखी। 'भारत जोड़ो न्याय' यात्रा में राहुल और तेजस्वी के बीच जो गर्मजोशी दिखी थी, वह रैली के मंच पर नजर नहीं आई। राहुल का बाडी लांग्वैज तेजस्वी को भी जरूर खटका होगा। संभव है, दोनों की बाद में बात-मुलाकात भी हुई हो। सोमवार की सुबह पप्पू यादव का नामांकन की तारीख बढ़ाने का जिस तरह का पोस्ट वायरल हुआ, उससे यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने लालू-तेजस्वी को पूर्णिया पर अपनी नाराज़गी का इजहार कर दिया है। संभव है कि फैसले के लिए कांग्रेस ने दो दिन की मोहलत दी हो। खैर, 4 अप्रैल तक इंतजार बेहतर होगा। http://dlvr.it/T4w7y7
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digimakacademy · 4 years ago
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जेल में लालू की मोबाइल पर बात करनेवाली तस्वीर वायरल, बीजेपी ने बोला झारखंड सरकार पर हमला चारा घोटाले में सजायाफ्ता और RJD सुप्रीमो लालू यादव (lalu yadav riims) पर जेल मैन्युअल के उल्लंघन का आरोप लगा है। रांची के रिम्स पेइंग वार्ड में रविवार को स्वास्��्य मंत्री बन्ना गुप्ता से लालू प्रसाद की हुई मुलाकात को लेकर सोशल मीडिया में एक तस्वीर वायरल हो रही है। इस तस्वीर में लालू मोबाइल पर बात करते भी नजर आ रहे हैं।
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bakaity-poetry · 5 years ago
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नए साल पर जलते-बंटते मुल्क में मीडिया-रुदन / अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले ही हफ्ते ओलिंपिक खेलों में प्रवेश के लिए मुक्केबाज़ी का ट्रायल हुआ था. मशहूर मुक्केबाज़ मेरी कॉम ने निख़त ज़रीन नाम की युवा मुक्केबाज़ को हरा दिया. इस घटना से पहले और बाद में क्या-क्या हुआ, वह दूर की बात है. मुक्केबाज़ी के इस मैच और उसके नतीजे की ख़बर ही अपने आप में जिस रूप में सामने आयी, वह मुझे काम की लगी. किसी ने ट्विटर पर किसी प्रकाशन में छपी ख़बर की हेडिंग का स्क्रीनशॉट लगाकर उस पर सवाल उठाया था. हेडिंग में लिखा थाः “इंडियाज़ मेरी कॉम बीट्स निखत...” ट्विटर यूज़र ने मेरी कॉम के नाम से पहले “इंडिया” लगाने पर आपत्ति जतायी थी और पूछा था कि इसके पीछे की मंशा क्या है.
विचार में लिपटी घटना
इधर बीच लंबे समय से एसा हो रहा है कि पहली बार जब कोई घटना नज़र के सामने आ रही है, चाहे किसी भी प्लेटफॉर्म पर, तो वह विशुद्ध घटना की तरह नहीं आ रही, एक ओपिनियन यानी टिप्पणी/राय के रूप में आ रही है. वास्तव में, मूल घटना ओपिनियन के साथ नत्थी मिलती है और ओपिनियन असल में एक पक्ष होता है, घटना के समर्थन में या विरोध में. ऐसे में मूल घटना को जानने के लिए काफी पीछे जाना पड़ता है. अगर आप दैनंदिन की घटनाओं से रीयल टाइम में अपडेट नहीं हैं, तो बहुत मुमकिन है कि सबसे पहले सूचना के रूप में उक्त घटना आपके पास न पहुंचे बल्कि आपके पास पहुंचने तक उक्त घटना पर समाज में खिंच चुके पालों के हिसाब से एक धारणा, एक ओपिनियन पहुंचे. जो धारणा/राय/नज़रिया/ओपिनियन आप तक पहुंचेगी, वह ज़ाहिर है आपकी सामाजिक अवस्थिति पर निर्भर करेगा.
मुक्केबाज़ी वाली ख़बर लिखते वक्त जिसने मेरी कॉम के नाम के आगे “इंडियाज़” लगाया होगा, उसके दिमाग में एक विभाजन काम कर रहा होगा. जिसने इसे पढ़ा और टिप्पणी की, उसके दिमाग में भी एक विभाजन काम कर रहा था, कि वह बाल की खाल को पकड़ सका. गौर से देखें तो हम आपस में रोजमर्रा जो बातचीत करते हैं, संवाद करते हैं, वाक्य बोलते हैं, लिखते हैं, सोचते हैं, सब कुछ सतह पर या सतह के नीचे विभाजनों के खांचे में ही शक्ल लेता है. हम अपने विभाजनों को सहज पकड़ नहीं पाते. दूसरे के विभाजन हमें साफ़ दिखते हैं. यह इस पर निर्भर करता है कि हमारा संदर्भ क्या है, सामाजिक स्थिति क्या है.
मसलन, आप शहर में हैं या गांव/कस्बे में, इससे आप तक पहुंचने वाली राय तय होगी. आप ��िस माध्यम से सूचना का उपभोग करते हैं, वह आप तक पहुंचने वाली राय को उतना तय नहीं करेगा बल्कि किन्हीं भी माध्यमों में आप कैसे समूहों से जुड़े हैं, यह आपकी खुराक़ को तय करेगा. आपकी पढ़ाई-लिखाई के स्तर से इसका खास लेना−देना नहीं है, हां आपकी जागरूकता और संपन्नता बेशक यह तय करेगी कि आपके पास जो सूचना विचारों में लिपट कर आ रही है उसे आप कैसे ग्रहण करते हैं.
नए-पुराने सामाजिक पाले
मोटे तौर पर अगर हमें अपने समाज के भीतर रेडीमेड पाले देखने हों, जो सूचना की प्राप्ति को प्रभावित करते हैं तो इन्हें गिनवाना बहुत मुश्किल नहीः
− सामाजिक तबका (उच्च तबका बनाम कामगार)
− जाति (उच्च बनाम निम्न)
− लैंगिकता (पुरुष वर्चस्व बनाम समान अधिकार)
− धर्म (हिंदू बनाम मुसलमान/अन्य)
− भाषा (हिंदी बनाम अन्य, अंग्रेज़ी के साथ)
− क्षेत्र (राज्य बनाम राज्य) 
ये सब पुराने विभाजन हैं. हमारे समाज में बरसों से कायम हैं. अंग्रेज़ी जानने वाले शहरी लोगों के जेहन में कुछ नए विभाजन भी काम करते हैं, मसलन विचार के इलाके में वाम बनाम दक्षिण, धार्मिकता के क्षेत्र में सेकुलर बनाम साम्प्रदायिक, आधुनिक बनाम पिछड़ा, इत्यादि. ज्यादा पढ़ा लिखा आदमी ज्यादा महीन खाता है, तो वह कहीं ज्यादा बारीक विभाजक कोटियां खोजेगा. ठीक वैसे ही जैसे आंख का डॉक्टर अगर और आधुनिक शिक्षा लेना चाहे, तो वह एक ही आंख का विशेषज्ञ बन सकेगा, दाईं या बाईं. आजकल तो चलने वाले, दौड़ने वाले, जॉग करने वाले, खेलने वाले और ट्रेकिंग करने वाले जूते भी अलग-अलग आते हैं. तर्ज़ ये कि चीज़ें जितना बढ़ती हैं, उतना ही बंटती जाती हैं.
समस्या तब पैदा होती है जब हम चीज़ों को केवल दो खांचे में बांट कर देखना शुरू करते हैं. या तो ये या फिर वो. दिस ऑर दैट. हम या वे. इसे संक्षिप्त में बाइनरी कहते हैं, मने आपके पास दो ही विकल्प हैं− हां कहिए या नहीं. जैसे आप टीवी स्टूडियो में अर्णब गोस्वामी के सामने बैठे हों और आपसे कहा जा रहा हो कि देश आज रात जानना चाहता है कि आप फलाने के साथ हैं या खिलाफ़. आपके पास तीसरा रास्ता नहीं है. बीच की ज़मीन छिन चुकी है.
तटस्थता के आपराधीकरण के नाम पर इस बाइनरी को पुष्ट करने का काम बहुत पहले से चला आ रहा है. आज, अपने देश में संचार और संवाद के इलाके में जब समूचा विमर्�� ही गोदी बनाम अगोदी, भक्त बनाम द्रोही की दुई में तौला जा रहा है तो जिंदगी का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है. यह समझ पाना उतना मुश्किल नहीं है कि इस विभाजन को सबसे पहले पैदा किसने किया- राजनीति ने, मीडिया ने या समाज ने. हम जानते हैं कि हमारे समाज में विभाजनकारी कोटियां पहले से थीं, इन्हें बस पर्याप्त हवा दी गयी है. समझने वाली बात ये है कि यह विभाजन अब ध्रुवीकरण की जिस सीमा तक पहुंच चुका है, वहां से आगे की तस्वीर क्या होनी है.
ध्रुवीकरण के अपराधी?
मनु जोसेफ ने बीते लोकसभा चुनावों के बीच द मिन्ट में एक पीस लिखकर समझाने की कोशिश की थी कि ध्रुवीकरण (पोलराइज़ेशन) उतनी बुरी चीज़ नहीं है. इस पीस को स्वराज मैगज़ीन के संपादक आर. जगन्नाथन ने बड़े उत्साह से ट्वीट करते हुए कहा था, “मनु का हर लेख शाश्वत मूल्य वाला है.” लेख को समझने के लिए बहुत नीचे जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि इस ट्वीटर के थ्रेड को आप देखें. मधुमिता मजूमदार प्रतिक्रिया में लिखती हैं, “मनु यह मानकर लिखते हैं कि वे हर मुद्दे पर सही हैं. ध्रुवीकरण पर यह लेख अतिसरलीकृत है. और जग्गी को इसमें मूल्य दिख रहा है, यही अपने आप में मेरे बिंदु की पुष्टि करता है.”
ध्रुवीकरण बुरा नहीं है, मनु जोसेफ ने यह लिखकर अपने पाठकों में ध्रुवीकरण पैदा कर दिया. इनकी दलीलों पर बेशक बात हो सकती है, लेकिन समूचे लेख में हमारे तात्कालिक काम का एक वाक्य है जिसे मैं बेशक उद्धृत करना चाहूंगा. मनु लिखते है- “राजनीति हमें यह सबक सिखलाती है कि व्यवस्था में जब कोई ध्रुवीकरण नहीं होता, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्य जीत गया है, इसका मतलब बस इतना होता है कि एक वर्ग की जीत हुई है.”
सामाजिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण के संदर्भ में भारतीय मीडिया की भावी भूमिका पर आने के लिए इसे थोड़ा समझना ज़रूरी है. 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. बीस फीसद मुसलमानों की आबादी वाले इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित जनादेश मिला, बावजूद इसके कि उसने एक भी मुसलमान उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. जब बहस मुख्यमंत्री के चेहरे पर आयी, तो योगी आदित्यनाथ के नाम पर दो खेमे बन गए. काफी खींचतान के बाद मुख्यमंत्री योगी ही बने, जिसके परिणाम आज हम साफ़ देख पा रहे हैं. इसी बीच बहस में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने इंडिया टुडे से बातचीत में योगी की (कम्यूनल) भाषा का बचा�� करते हुए एक बात कही थी-
"अस्सी के दशक से जमीनी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से ऐसे लोगों का उभार हुआ जो अतीत के उन अंग्रेजी शिक्षित राजनेताओं की अभिजात्य व सूक्ष्म शैली से मेल नहीं खाते थे जिन्हें वास्तविकता से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हुआ करती थी. नए दौर के नेता समुदाय से निकले विमर्श को आगे बढ़ाते हैं इसलिए उनकी भाषा को प्रत्यक्षतः नहीं लिया जाना चाहिए. इसे समझे बगैर आप न योगी को समझ पाएंगे, न लालू (प्रसाद यादव) को और न ही ममता (बनर्जी) को."
राकेश सिन्हा और मनु जोसेफ क्या एक ही बात कह रहे हैं? मनु ध्रुवीकरण की गैर−मौजूदगी वाली स्थिति में जिस वर्ग की जीत बता रहे हैं, क्या यह वही वर्ग है जो राकेश सिन्हा के यहां अंग्रेजी शिक्षित राजनेताओं के रूप में आता है, जिसे वास्तविकता से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हुआ करती थी?
उसी लेख से मनु जोसेफ का एक शुरुआती वाक्य देखे-
“वास्तव में, यह तथ्य कि एक समाज ध्रुवीकृत है, इस बात का संकेत है कि एक वर्ग के लोगों का मुख्यधारा के विमर्शों पर एकाधिकार नहीं रह गया है. ध्रुवीकरण को बदनाम करने का काम वे लोग करते हैं जिनका विचारों के प्रसार से नियंत्रण खत्म हो चुका है.”
राकेश सिन्हा “समुदाय से निकले विमर्श को आगे” बढाने वाले जिन “नए दौर के नेताओं” का ज़िक्र कर रहे हैं, मनु जोसेफ के मुताबिक क्या इन्होंने ही “मुख्यधारा के विमर्शों पर एकाधिकार” को तोड़ने का काम किया है? इस तराजू में ममता बनर्जी, योगी और लालू प्रसाद यादव को यदि एक साथ सिन्हा की तरह हम तौल दें तो फिर साम्प्रदायिकता के मसले पर ठीक उलटे ध्रुव पर खड़े लालू प्रसाद यादव और योगी को कैसे अलगाएंगे? फिर तो हमें काफी पीछे जाकर नए सिरे से यह तय करना होगा कि ध्रुवीकरण की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से हुई थी या लालू प्रसाद यादव द्वारा उसे रोके जाने के कृत्य से? 
फिर तो हमें आशुतोष वार्ष्णेय की इस थियरी पर भी ध्यान देना होगा कि अर्थव्यवस्था को निजीकरण और उदारीकरण के लिए खोले जाने पर नरसिंहराव के दौर में संसद में चली शुरुआती बहसों में भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों का पक्ष एक था और कांग्��ेस अल्पमत में थी, इसके बावजूद कम्युनिस्ट पार्टियों ने साम्प्रदायिकता के मुद्दे को आर्थिक मुद्दे पर तरजीह देते हुए मनमोहन सिंह के प्रोजेक्ट को चुपचाप हामी दे दी. यह तो बहुत बाद में जाकर लोगों ने समझा कि उदारवाद और साम्प्रदायिकता एक ही झोले में साथ आए थे, वामपंथियों को ही साम्प्रदायिकता का मोतियाबिंद हुआ पड़ा था.
फिर क्या बुरा है कि सईद नकवी की पुस्तक (बींग दि अदर) को ही प्रस्थान बिंदु मानकर कांग्रेस को ध्रुवीकरण का शुरुआती अपराधी मान ��िया जाए? (आखिर वे भी तो इतना मानते ही हैं कि भारत को दो ��सी अतियों में तब्दील कर दिया गया है जो परस्पर द्वंद्व में हैं!) और इसके बरअक्स भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम क्षेत्रीय दलों, उनसे जुड़े हित समूहों, जाति समूहों, समुदायों, पिछड़ी चेतनाओं और “समुदायों से निकले विमर्श को आगे बढ़ाने वाले नए दौर के नेताओं” (राकेश सिन्हा) को द्वंद्व का दूसरा सिरा मानते हुए इन्हें अपने अंतर्विरोधों के भरोसे छोड़ दिया जाए? ब्राह्मण पहले तय करे कि वह हिंदू है या ब्राह्मण. पिछड़ा, दलित और आदिवासी खुद तय करे कि उसे अपनी पहचान के साथ जीने में फायदा है या हिंदू पहचान के साथ. विभाजन के बाद भारत में रह गए मुसलमानों को चूंकि यह अहसास होने में बहुत वक्त नहीं लगा था कि यहां उनके साथ दोयम दरजे का बरताव हो रहा है (नक़वी, बींग दि अदर), लिहाजा उन्हें तब तक कुछ नहीं तय करने की ज़रूरत है जब तक कि उन्हें जबरन हिंदू न बनाया जाए.
अब्दुल्ला दीवाने की चिंता
मीडिया इस समूचे रायते में दीवाने अब्दुल्ला की तरह होश खोया नज़र आता है. पत्रकारिता की बॉटमलाइन यह है कि मीडिया मालिकों को कुल मिलाकर अपनी दुकान बचाए रखने और मीडियाकर्मियों को अपना वेतन और नौकरी बचाए रखने की चिंता है. इसीलिए ध्रुवीकरण के अपराध का जो हिस्सा मीडिया और इसके कर्मियों के सिर आता है, मेरे खयाल में यह न केवल ध्रुवीकरण को समझने में आने वाली जटिलताओं से बचने के लिए किया जाने वाला सरलीकरण है बल्कि गलत लीक भी है जो हमें कहीं नहीं पहुंचाती.
यह सच है कि मीडिया बांटता है, इसके स्थापित चेहरे विभाजनकारी हैं, लेकिन ध्रुवीकरण अपनी पूरी जटिलता में सबसे आसान तरीके से मीडिया में ही पकड़ में आता है यह भी एक तथ्य है. जो दिखता है, वह साफ़ पकड़ा जाता है. जो नहीं दिखता, या कम दिखता है, वह ज़रूरी नहीं कि ज्यादा ख़तरनाक न हो. इंगलहार्ट और नोरिस ने 2016 के अपने एक शोध में बताया है कि वंचित तबकों के बीच बढ़ती आर्थिक असुरक्षा उनके भीतर जिस असंतोष को बढ़ाती है, उसी के चलते वे विभाजनकारी नेताओं के लोकरंजक मुहावरों में फंसते जाते हैं. मीडिया इसमें केवल मध्यस्थ का काम करता है.
एक ध्रुवीकृत समाज में मीडिया से कहीं ज्यादा यह प्रक्रिया आपसी संवादों संपर्कों से कारगर होती है. विभाजित समाज में एक व्यक्ति अपने जैसा सोचने वाला पार्टनर तलाश करता है. इससे उसके पहले से बने मूल्य और धारणाएं और मजबूत होती जाती हैं. पी. साईनाथ इस परिघटना को “पीएलयू” (पीपुल लाइक असद) का नाम देते हैं. इसी संदर्भ में एक शोध बताता है कि दूसरे खयालों के व्यक्तियों के साथ संवाद करने पर अपनी धारणा और दूसरे की धारणा के बीच दूरी और ज्यादा बन जाती है. यही वजह है कि ज़ी न्यूज़ देखने वाला दर्शक एनडीटीवी देखकर ज़ी न्यूज़ के प्रति और समर्पित हो जाता है और एनडीटीवी के दर्शक के साथ भी बिल्कुल यही होता है जब वह ज़ी न्यूज़ देखता है.
यह समस्या केवल मीडिया के दायरे में नहीं समझी जा सकती है. मीडिया का संकट अकेले मीडिया का नहीं, समाज और संस्कृति का संकट है बल्कि उससे कहीं ज्यादा इंसानी मनोविज्ञान का संकट है. इसे बहुत बेहतर तरीके से हूगो मर्सियर और डान स्पर्बर ने अपनी पुस्तक “दि एनिग्मा ऑफ रीज़न” में समझाया है. यह पुस्तक विमर्श के क्षेत्र में उतनी चर्चित नहीं हो सकी, लेकिन इंसानी नस्ल के सोचने समझने की क्षमता और सही या गलत के बीच फैसला करने की “रेशनलिटी” के संदर्भ में इस किताब ने बिलकुल नयी प्रस्थापना दी है जिस पर मुकम्मल बात होना बाकी है.
यदि हम लेखकद्वय को मानें, तो चार सौ पन्ने की किताब का कुल निचोड़ यह निकलता है कि मनुष्य की कुल तर्कक्षमता और विवेक का काम उसकी पूर्वधारणाओं को पुष्ट करना है. वे कहते हैं कि मनुष्य की रेशनलिटी सही या गलत का फैसला करने के लिए नहीं है बल्कि जिसे सही मानती है उसे सही ठहराने के लिए है. वे सवाल उठाते हैं कि यदि धरती पर मनुष्य ही सोचने समझने वाला तर्कशील प्राणी है तो फिर वह अतार्किक हरकतें और बातें क्यों करता है? इसके बाद की विवेचना को समझने के लिए यह किताब पढ़ी जानी चाहिए, लेकिन मूल बात वही है कि मीडिया का संकट दरअसल हमारी सांस्कृतिकता और मनुष्यता का संकट है जिसमें हमारा अतीत, हमारे सामुदायिक अहसास, पृष्ठभूमि, आर्थिक हालात, सब कुछ एक साथ काम करते हैं.
चूंकि मीडिया की गति खुद मीडिया नहीं तय करता, उसकी डोर अपने मालिकान से भी ज्यादा राजनीति और समाज के हाथों में है इसलिए आने वाले दिनों में यह मीडिया समाज की गति के हिसाब से ही अपनी भूमिका निभाएगा. जाहिर है यह भूमिका समुदायों से निकलने वाली आवाजें तय करेंगी. वे वास्तविक समुदाय हों या कल्पित. इसे ऐसे समझें कि अगर राजनीति समुदाय विशेष के किसी कल्पित भविष्य की बात करेगी तो मीडिया उससे अलग नहीं जाएगा. यदि हिंदू राष्ट्र एक कल्पना है तो मीडिया उस कल्पना को साकार करने तक की दूरी तय करेगा. यदि रामराज्य एक कल्पना है तो मीडिया रामराज्य लाने का काम करेगा भले ही खुद उस कल्पना में उसका विश्वास न हो. “कल्पित समुदायों” और “भूमियों” की अवधारणा ध्रुवीकृत समाज में बहुत तेज़ काम करती है. इसी तर्ज पर काल्पनिक दुश्मन गढ़े जाएंगे, काल्पनिक दोस्त बनाए जाएंगे, काल्पनिक अवतार गढ़े जाएंगे. यह सब कुछ मीडिया उतनी ही सहजता से करेगा जितनी सहजता से उसने आज से पंद्रह साल पहले भूत, प्रेत, चुड़��लों की कहानियां दिखायी थी.
ऐसा करते हुए मीडिया और उसमें काम करने वाले लोग इस बात से बेखबर होंगे कि वे किनके हाथों में खेल रहे हैं. एक अदृश्य गुलामी होगी जो कर्इ अदृश्य गुलामियों को पैदा करेगी. ठीक वैसे ही जैसे गूगल का सर्च इंजन काम करता है. मीडिया की भूमिका क्या और कैसी होगी, इसे केवल गूगल के इकलौते उदाहरण से समझा जा सकता है. अमेरिका में 2012 के चुनाव में गूगल और उसके आला अधिकारियों ने 8 लाख डॉलर से ज्‍यादा चंदा बराक ओबामा को दिया था जबकि केवल 37,000 डॉलर मिट रोमनी को. अपने शोध लेख में एप्‍सटीन और रॉबर्टसन ने गणना की है कि आज की तारीख में गूगल के पास इतनी ताकत है कि वह दुनिया में होने वाले 25 फीसदी चुनावों को प्रभावित कर सकता है. प्रयोक्‍ताओं की सूचनाएं इकट्ठा करने और उन्‍हें प्रभावित करने के मामले में फेसबुक आज भी गूगल के मुकाबले काफी पीछे है. जीमेल इस्‍तेमाल करने वाले लोगों को यह नहीं पता कि उनके लिखे हर मेल को गूगल सुरक्षित रखता है, संदेशों का विश्‍लेषण करता है, यहां तक कि न भेजे जाने वाले ड्राफ्ट को भी पढ़ता है और कहीं से भी आ रहे मेल को पढ़ता है. गूगल पर हमारी प्राइवेसी बिलकुल नहीं है लेकिन गूगल की अपनी प्राइवेसी सबसे पवित्र है.
जैसा कि एडवर्ड स्‍नोडेन के उद्घाटन बताते हैं, हम बहुत तेज़ी से एक ऐसी दुनिया बना रहे हैं जहां सरकारें और कॉरपोरेशन- जो अक्सर मिलकर काम करते हैं- हममें से हर एक के बारे में रोज़ाना ढेर सारा डेटा इकट्ठा कर रहे हैं और जहां इसके इस्‍तेमाल को लेकर कहीं कोई कानून नहीं है. जब आप डेटा संग्रहण के साथ नियंत्रित करने की इच्‍छा को मिला देते हैं तो सबसे खतरनाक सूरत पैदा होती है. वहां ऊपर से दिखने वाली लोकतांत्रिक सरकार के भीतर एक अदृश्‍य तानाशाही आपके ऊपर राज करती है.
आज एनपीआर, एनआरसी, सीएए पर जो बवाल मचा हुआ है उसके प्रति मुख्यधारा के मीडिया का भक्तिपूर्ण रवैया देखकर आप आसानी से स्नोडेन की बात को समझ सकते हैं.
सांस्कृतिक विकल्प का सवाल
मीडिया और तकनीक के रास्ते सत्‍ता में बैठी ताकतों की इंसानी दिमाग पर नियंत्रण कायम करने की इच्‍छा और उनकी निवेश क्षमता का क्‍या कोई काट है? भारत जैसे देश में, जो अब भी सांस्‍कृतिक रूप से एकाश्‍म नहीं है, किसी भी सत्ता के लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट संस्कृति ही होती है. मीडिया, संस्कृति का एक अहम अंग है. इसीलिए हम पाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के नारे राजनीतिक नहीं, सांस्‍कृतिक होते हैं, जो मीडिया को आकर्षित कर सकें. इन्‍हीं सांस्‍कृतिक नारों के हिसाब से प्रच्‍छन्‍न व संक्षिप्‍त संदेश तैयार करके फैलाये जाते हैं. क्‍या किसी और के पास भाजपा के बरअक्स कोई सांस्‍कृतिक योजना है?
पिछले कुछ वर्षों से भारत में भाजपा के राज के संदर्भ में विपक्षी विमर्श ने सबसे ज्‍यादा जिस शब्‍द का प्रयोग किया है वह है ''नैरेटिव''. नैरेटिव यानी वह केंद्रीय सूत्र जिस पर राजनीति की जानी है. हारा हुआ पक्ष हमेशा मानता है कि जीते हुए के पास एक मज़बूत नैरेटिव था. हां, यह शायद नहीं पूछा जाता कि विजेता के नैरेटिव के घटक क्‍या-क्‍या थे. आखिर उन घटकों को आपस में मिलाकर उसने एक ठोस नैरेटिव कैसे गढ़ा. सारे वाद्य मिलकर एक ऑर्केस्‍ट्रा में कैसे तब्‍दील हो गये.
ध्‍यान दीजिएगा कि भारत की किसी भी विपक्षी राजनीतिक पार्टी के पास सांस्‍कृतिक एजेंडा नहीं है. रणनीति तो दूर की बात रही. कुछ हद तक अस्मिताओं को ये दल समझते हैं, लेकिन सारा मामला सामाजिक न्‍याय के नाम पर आरक्षण तक जाकर सिमट जाता है. भाजपा के सांस्‍कृतिक नारे व संदेशों पर बाकी दलों ने अब तक केवल प्रतिक्रिया दी है. अपना सांस्‍कृतिक विमर्श नहीं गढ़ा. लिहाजा, वे जनता में जो संदेश पहुंचाते हैं उनका कोई सांस्‍कृतिक तर्क नहीं होता. कोई मुलम्‍मा नहीं होता. वे भाजपा की तरह प्रच्‍छन्‍न मैसेजिंग नहीं कर पाते. यह सहज बात कोई भी समझ सकता है कि आपके पास सारे हरबे हथियार हों तो क्‍या हुआ, युद्धकौशल का होना सबसे ज़रूरी है. जब संदेश ही नहीं है, तो माध्‍यम क्‍या कर लेगा? मीडिया क्या कर लेगा?
द इकनॉमिस्‍ट पत्रिका के मई 2019 अंक में यूरोप के बाहरी इलाकों की राजनीति पर एक कॉलम छपा था जिसमें एक बात कही गयी थी जो भारत पर भी लागू होती है- ''यूरोप की राजनीति पर सांस्‍कृतिक जंग ने कब्‍ज़ा कर लिया है और वाम बनाम दक्षिण के पुराने फ़र्क को पाट दिया है.'' भारत में भी सांस्‍कृतिक युद्ध ही चल रहा है लेकिन इसे कभी कहा नहीं गया. तमाम दलों ने 2019 के आम चुनाव में डेटा एजेंसियों, पोल प्रबंधकों, इमेज प्रबंधकों, पीआर कंपनियों, ईवेंट मैनेजरों का सहारा लिया लेकिन भाजपा के अलावा किसी को नहीं पता था कि सांस्‍कृतिक मोर्चे पर क्‍या लाइन लेनी है. राहुल गांधी ने राम के अलावा छोटे-छोटे भगवानों के मंदिरों में चक्‍कर लगाकर जनता से जुड़ने की कोशिश तो की, लेकिन किसी ठोस सांस्‍कृतिक रणनीति और नैरेटिव के अभाव में इसका लाभ भी पलट कर भाजपा को मिला.
जवाहरलाल नेहरू के जिंदा रहने तक कांग्रेस की राजनीति में ��क सांस्‍कृतिक आयाम हुआ करता था. महात्‍मा गांधी के ''रघुपति राघव राजा राम'' में प्रचुर सांस्‍कृतिक नैरेटिव था और नेहरू के साइंटिफिक टेम्‍पर का भी एक सांस्‍कृतिक आयाम था. इंदिरा गांधी के दौर से मामला विशुद्ध सत्‍ता का बन गया और कांग्रेस की राजनीति से संस्‍कृति का आयाम विलुप्‍त हो गया. इसका नतीजा हम आज बड़ी आसानी से देख पाते हैं.
भूखा मीडिया, नदारद नैरेटिव
मीडिया को आज की तारीख में नैरेटिव चाहिए. नारे चाहिए. संदेश चाहिए. उसकी खुराक उसे नहीं मिल रही है. एक बार को मीडिया के सामाजिक दायित्व की अवधारणा को किनारे रख दें, अपनी मासूमियत छोड़ दें. इसके बाद मीडिया से कोई सवाल पूछने से पहले खुद से हम क्या यह सवाल पूछ सकते हैं कि हमारे पास मीडिया को देने के लिए क्या है? 
कोई चारा? कोई चेहरा? कोई नारा? कोई गीत? कोई भाषण? याद करिए यह वही मीडिया है जिसने जेल से छूटने के बाद कन्हैया कुमार का भाषण दिखलाया था. उसके बाद क्या किसी ने उस दरजे का एक भी भाषण इस देश में दिया? यह मीडिया का बचाव नहीं है. यहां केवल इतना समझने वाली बात है कि मीडिया अपने आप नैरेटिव खोजने नहीं जाएगा. यह पीड़ितों की लड़ाई अपनी ओर से नहीं लड़ेगा.
इसे मजबूर करना होगा, एजेंडा देना होगा जिसे यह फॉलो कर सके. यह एजेंडा और नैरेटिव मुहैया कराना विपक्ष का काम है, लड़ रही जनता का काम है. यह काम मुश्किल है, नामुमकिन नहीं. अगर आज यह नहीं किया गया तो मीडिया के पास सत्ता का एजेंडा पहले से रखा हुआ है. उसे न तो हिंदू राष्ट्र से कोई परहेज है, न आपके संविधान से कोई प्रेम. वह सब कुछ जलाकर खाक कर देगा. खुद को भी.
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trendingwatch · 2 years ago
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अपने बहनोई को आधिकारिक बैठक में ले जाने के बाद तेज प्रताप कोर्ट विवाद
अपने बहनोई को आधिकारिक बैठक में ले जाने के बाद तेज प्रताप कोर्ट विवाद
एक्सप्रेस समाचार सेवा पटना : राजद प्रमुख लालू प्रसाद के आवारा बेटे और बिहार के पर्यावरण एवं वन मंत्री तेज प्रताप यादव की एक आधिकारिक बैठक में उनके बहनोई शैलेश कुमार की एक तस्वीर सार्वजनि��� होने के बाद मुश्किल में पड़ गए हैं. शैलेश लालू की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती के पति हैं जो राज्यसभा सदस्य भी हैं। तेज प्रताप बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (बीएसपीसीबी) के अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे,…
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joinnoukri · 2 years ago
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Nitish Lalu Viral Pics: नीतीश कुमार ने 6 जुलाई को लालू यादव से बात दी थी 'मन की बात', तस्वीर वायरल - nitish kumar spoke to lalu yadav on july 6 mann ki baat see viral video
Nitish Lalu Viral Pics: नीतीश कुमार ने 6 जुलाई को लालू यादव से बात दी थी ‘मन की बात’, तस्वीर वायरल – nitish kumar spoke to lalu yadav on july 6 mann ki baat see viral video
नीतीश कुमार लालू यादव वायरल फोटो: पॅट के पारस पोस्ट में 6 जुलाई को कुमार और लालू प्रसाद यादव की तस्वीर बदल रही है। यादव को अपने मन की बातचीत करने वाले थे। 6 पद के लिए गुण्डे कुमार लालू यादव से पोस्ट में थे। पाटन: 2015 में मेन से नाता ब्रेककर लालू यादव से जोड़ा गया था तो उसे जोड़ा गया था। लालू अच्छी तरह से जाने वाले थे। 2022 में कुमार एक बार फिर से आहार से लालू यादव के परिवार से जड़ी-बूटियाँ।…
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rudrjobdesk · 2 years ago
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लालू यादव की एक मुस्कुराहट ने RJD में भरा जोश, कहा- दवाओं और दुआओं का असर हो रहा
लालू यादव की एक मुस्कुराहट ने RJD में भरा जोश, कहा- दवाओं और दुआओं का असर हो रहा
पटना. लालू प्रसाद यादव की तबीयत को लेकर देशभर में पूजा-अर्चना, चादरपोशी कर मन्नतें मांगी जा रही हैं. आरजेडी कार्यकर्ता और लालू के चाहनेवाले लालू की सलामती के लिए लगातार दुआ कर रहे हैं. आज लालू के बड़े लाल तेजप्रताप यादव के संगठन छात्र जनशक्ति परिषद के कार्यकर्ताओं ने पटना के महावीर मंदिर में पूजा अर्चना की और हवन किया. लालू की तस्वीर लिए छात्र जनशक्ति परिषद के कार्यकर्ताओं ने महावीर मंदिर में…
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mediawalablog · 3 years ago
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सत्ता की राजनीति में जातीय गणना के अंगारे
नीतीश कुमार, राहुल गाँधी, तेजस्वी लालू यादव, अखिलेश मुलायम यादव क्या महात्मा गाँधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम और आदर्शों की दुहाई नहीं देते? लगातार देते हैं, फिर बिहार उत्तर प्रदेश की सत्ता की राजनीति और विकास के रथ के आगे जातीय जन  गणना की मांग के अंगारे क्यों उछाल रहे हैं|
बिहार तो गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी के तीर्थ स्थानों का केंद्र शताब्दियों से है| जैन, बौद्ध और सिख  धर्म का आधार ही जाति व्यवस्था का उन्मूलन है| इसी तरह ईसाई धर्म में जाति का कोई प्रावधान नहीं है| भारत देश के मूल वैदिक ग्रंथों के श्लोकों में जातियों का उल्लेख नहीं मिलता|
वर्तमान दौर में हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के प्रबल समर्थक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक (वर्तमान और पूर्व भी)  जाति व्यवस्था के बजाय  सम्पूर्ण समाज (अल्पसंख्यक को भी) केवल हिंदू और भारतीय कहे जाने के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं|
जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के आदर्शों पर आंदोलन करने वाले नेता नीतीश, लालू, मुलायम आदि सत्ता में आने और रहने के लिए समय समय पर अपनी जाट बिरादरी के वोट बंटोरने के लिए जातीय सशक्तिकरण के मद्दे उठाने लगते हैं|
महात्मा गाँधी, नेहरू, इंदिरा गाँधी की तस्वीर और कांग्रेस के सिद्धांतों का दावा करने वाले कांग्रेसी भी गठबंधन से सत्ता सुख के लिए सारे आदर्श भुला जातीय दर्शन बखा�� करने लगते हैं|
आज़ादी के बाद जातीय आग को भड़काने में कांग्रेस की सीढ़ियों से चढ़े और भटके वी पी सिंह की भूमिका सबसे भयावह और शर्मनाक अध्याय के रूप में याद की जाती रहेगी|
अब बिहार में नीतीश कुमार और जद (यू) के पास पर्याप्त बहुमत नहीं हैं, लेकिन अधिसंख्य भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री पद मिला हुआ है|
अपनी राजनीतिक और सरकार की कमियों से आने वाले संकट से बचने के लिए नीतीश कुमार ने एक बार फिर जातीय जन गणना पर बैठकें बुलाकर मांग को तेज कर दिया है|
यह मांग कुछ अन्य राज्यों में पहले भी उठती रही है| इस कारण कांग्रेस की मनमोहन सोनिया नेतृत्व वाली सरकार ने सहयोगी दलों को खुश रखने के लिए 2011 की जन गणना जातीय आधार पर कराने की कोशिश की थी|
वैसे भी मनमोहन सरकार आधे मन से काम करती थी| इसलिए बाद में सरकार ने कह दिया कि जन गणना रिपोर्ट में कई गड़बड़ियां है और उसे प्रकाशित ही नहीं किया गया|
यह विवाद सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया| पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट कह दिया कि जातीय आधार पर जन गणना समभाव ही नहीं है|
लगभग 110 वर्ष पहले यानी 1931 में ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई जन गणना में करीब 4147 जातियों का उल्लेख था| लेकिन आज़ादी के बाद 2011 में हुई जन गणना में जातियों की संख्या कई गुना अधिक बताई गई| इसका कारण यह है कि विभिन्न प्रदेशों-क्षेत्रों में एक ही जाति के अलग अलग नाम से जाना जाता है|
यही नहीं अलग ढंग से बोला और लिखा जाता है| जाति-उप जाति के आधार पर पार्टी, नेता, चुनावी उम्मीदवार और घोषणा पत्र तथा उनके लिए अधपके वायदे होते हैं| जातीय सम्मेलनों में नेता पगड़ी, दुपट्टा, तलवार आदि से सम्मान करवाकर जयजयकार करवाते हैं|
लेकिन सत्ता में आने के बाद सबके कल्याण का संकल्प करते हैं| लेकिन सत्ता का समीकरण गड़बड़ाने पर नहीं जातीय फार्मूला याद आ जाता है|
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने नीतीश की कमजोर नस दबाने के लिए जातीय आधार पर जन गणना की मांग कर दी, तो बेबस नीतीश के जनता दल (यू) ने भी समर्थन कर दिया और किनारे बैठी राहुल गाँधी की कांग्रेस के नेता भी समर्थन में अपना कन्धा दे दिया|
अब इस पर बिहार सरकार औपचारिक बैठकें करती रहेगी| संभव है कि प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार और राष्ट्रपति को भेजा जाए|
इस राजनीतिक दांव पेंच का एक दिलचस्प पहलु भी है| केंद्र सरकार में जद (यू) के मंत्री हैं| जब केंद्र सरकार कोई पक्ष रखती है तो सामूहिक जिम्मेदारी के नाते वे मंत्री भी भागीदार होते हैं| इसी तरह बिहार सरकार ��ें भाजपा शामिल है|
नीतीश के फैसले में उसके मंत्री शामिल हैं| फिर जातीय जन गणना पर दोनों दलों के विरोधाभासी रुख सामने आ रहे हैं| यह साबित करता है कि इस मुद्दे पर केवल राजनीति हो रही है|
जनता को भ्रमित करने का खेल बिहार की समस्याओं के समाधान और प्रगति में रोड़े अटकाने वाला ही है| जहाँ तक भाजपा और राष्ट्रीय स्ववयं सेवक संघ की बात है, वह अपने घोषित हिंदुत्व के सिद्धांत और मुद्दे को नहीं बदल सकती है|
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जीवन का अधिक समय संघ के साथ रहकर बिताया है| संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट शब्दों में कह रखा है कि "जाति व्यवस्था पर विचार करने का कोई कारण नहीं है| वह जाने वाली है| उसे खत्म करने का प्रयास निरंतर करना होगा|"
संघ भाजपा और पहले कांग्रेस भी आरक्षण के मुद्दे पर क्षेत्रीय जातीय दलों से असहमत रही है| इसलिए जन गणना में जातीय आधार के बजाय नागरिकों-परिवारों की आमदनी का विवरण रखा जाना चाहिये| इससे सामाजिक आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए पर्याप्त तथ्य रहेंगे|
जैसे पिछड़े वर्ग में आरक्षण का लाभ कुछ प्रभावशाली जातियों के परिवारों को मिल जाता है तथा अन्य जातियों के लोग पीछे ही रह जाते हैं|
एक समय था जब राजीव गाँधी ने प्रधान मंत्री बनने के बाद मुझे एक इंटरव्यू (2 मार्च 1985) के दौरान आरक्षण के विरुद्ध तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था 'आरक्षण की पूरी नीति पर ही नए सिरे से विचार होना चाहिए|
सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए यह व्यवस्था की गई थी, लेकिन पिछले वर्षों के दौरान इसका राजनीतिकरण हो गया|
अब हमारा समाज बहुत बदला है और तरक्की हुई है| अब समय  आ गया  है जब हमें इस नीति और सुविधाओं पर विचार करना है|
हमें वास्तविक दबे कुचले पिछड़े गरीब लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था रखनी होगी, लेकिन यदि इसका विस्तार किया गया तो योग्य लोग कहीं नहीं आ पाएंगे|
हम अति सामान्य बुद्धू लोगों को बढ़ा रहे हो���गे और इससे पूरे देश को नुकसान होगा|" यह बात प्रमुखता से छपी, लेकिन कोई विरोध नहीं हुआ|
आज शायद किसी पार्टी का नेता ऐसी बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहेगा|
बाद में तो राजीव गाँधी मंत्रिमंडल के सहयोगी वी पी सिंह ने विद्रोह कर बोफोर्स तोप खरीदी के सौदे में कमीशन और भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ मंडल आयोग की सिफारिश और आरक्षण को लेकर सत्ता की राजनीति का लाभ दो वर्ष अवश्य उठाया, लेकिन फिर उनकी सरकार ही चली गई|
अब बिहार में तेजस्वी यादव का साथ लेने के लिए अग्रसर राहुल गाँधी के सहयोगी कांग्रेसी जातीय ज�� गणना और आरक्षण का समर्थन करने लगे हैं| इसलिए इस तरह के अनावश्यक मुद्दों पर भटकाने से क्या कुछ राजनीतिक दल व्यापक  जन समर्थन और चुनावी लाभ पा सकेंगे?
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sareideas · 3 years ago
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तेज प्रताप ने कुख्यात की पत्नी को बनाया विधायक प्रतिनिधि: सोशल मीडिया पर नियुक्ति पत्र देते हुए शेयर की तस्वीर, BJP बोली- डराना चाहते हैं - sarenews 2022
तेज प्रताप ने कुख्यात की पत्नी को बनाया विधायक प्रतिनिधि: सोशल मीडिया पर नियुक्ति पत्र देते हुए शेयर की तस्वीर, BJP बोली- डराना चाहते हैं – sarenews 2022
��मस्तीपुरएक घंटा पहले कॉपी लिंक अशोक यादव की पत्नी विभा देवी को नियुक्ति पत्र देते तेज प्रताप यादव। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे और हसनपुर से विधायक तेज प्रताप यादव अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। हाल ही में उन्होंने कुख्यात अशोक यादव की पत्नी विभा देवी को अपना विधायक प्रतिनिधि नियुक्त किया है। इसकी जानकारी उन्होंने ट्वीट कर दी। इसके बाद वो फिर सुर्खियों में हैं।…
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dainiksamachar · 10 months ago
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चुनाव लड़ने से किसे लग रहा डर? लालू-तेजस्वी का नाम लिए बिना पीएम मोदी ने सबकुछ कहा
औरंगाबाद: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालू और तेजस्वी यादव का नाम लिए बिना सबकुछ कहा। उन्होंने कहा कि वंशवादी शासन में शामिल और लोगों के मन में डर पैदा करने वालों को हाशिए पर धकेल दिया गया है। बिहार के औरंगाबाद की रैली में ने कहा कि ये सुनिश्चित करना उनकी गारंटी है कि बिहार में विकास हो, कानून का शासन हो और यहां की महिलाएं भय से मुक्त रहें और अपने तीसरे कार्यकाल में भी वो इस दिशा में काम करना जारी रखेंगे। मुख्यमंत्री की सराहना करते हुए मोदी ने कहा कि बिहार में अब फिर से डबल इंजन की सरकार है। राजग ने बिहार में राजनीतिक परिवारवाद को हाशिए पर धकेल दिया है। बिना नाम लिए लालू-तेजस्वी पर हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि आपके चेहरों का चमक बिहार के लूटने का सपना देखने वालों के चेहरे की हवाइयां उड़ा रही है। एनडीए की शक्ति बढ़ने के बाद बिहार में परिवारवादी राजनीति हासिए पर जाने लगी है। परिवारवादी राजनीति की एक और विडंबना है, मां-बाप के विरासत में पार्टी और कुर्सी तो मिल जाती है लेकिन मां-बाप के सरकारों के कामकाज एक बार भी जिक्र करने की हिम्मत नहीं होती है, ये है परिवारवादी पार्टियों की हालत।नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी पर परोक्ष रूप से कटाक्ष किया। उन्होंने कहा कि मैंने तो सुन�� है कि इनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता भी इस बार लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे। मैंने तो पार्लियामेंट में ही कहा था कि सब भाग रहे हैं। आपने देखा होगा लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाह रहे, राज्यसभा की सीटें खोज रहे। अपने भाषण में 'गारंटी' दुहराते रहे मोदी बिहार के विकास जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि एक दिन में इतने व्यापक स्तर पर विकास का ये आंदोलन ��सका गवाह है कि डबल इंजन सरकार में बदलाव कितनी तेजी से होता है। आज जो सड़क और हाईवे से जुड़े काम हुए है, उनसे बिहार के अनेक जिलों की तस्वीर बदलने वाली है। पटना, गया, जहानाबाद, वैशाली, समस्तीपुर, दरभंगा, नालंदा, औरंगाबाद को आधुनिक यातायात का अभूतपूर्व अनुभव मिलेगा।इसके बाद पीएम मोदी ने पिछली सरकारों पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि बिहार में जब पुराना दौर था, राज्य को अशांति, असुरक्षा और आतंक की आग में झोंक दिया गया था। बिहार के युवाओं को प्रदेश छोड़कर पलायन करना पड़ा। एक ओर आज का दौरा है जब हम युवाओं का स्कील डेवेलपमेंट करके उनका कौशल विकास कर रहे हैं। बिहार के हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए 200 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाले एकता मॉल की नींव रखी है। ये नए बिहार की नई दिशा है। ये बिहार की सकारात्मक सोच है। ये इस बात की गारंटी है कि हम वापस उस पुराने दौर में नहीं जाने देंगे। पीएम मोदी लगाते रहे मगही का छौंक बीच-बीच में पीएम मोदी मगही का छौंक लगाते रहे। उन्होंने कहा कि बिहार आगे बढ़ेगा, जब बिहार का गरीब आगे बढ़ेगा। बिहार, तब्बे आगे बढ़तै, जब बिहार के गरीब आगे बढ़तन। इसलिए हमारी सरकार देश के हर गरीब, आदिवासी, दलित, वंचित का समार्थ्य बढ़ाने में जुटी है। बिहार के लगभग 9 करोड़ लाभार्थियों को पीएम कल्याण योजना का लाभ मिल रहा है। बिहार में उज्ज्वला योजना के तहत एक करोड़ महिलाओं को गैस कनेक्शन दिया गया है। रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि बिहार का विकास मोदी की गारंटी है। कानून का शासन मोदी की गारंटी है। हमारी बेटियों और बहनों का सम्मान बरकरार रहे, यही मोदी की गारंटी है। हम अपने तीसरे कार्यकाल में भी इस दिशा में काम करना जारी रखेंगे। http://dlvr.it/T3WHTq
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realtimesmedia · 3 years ago
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Bihar : Tejashwi Yadav की अदा पर JDU के Lalan Singh ने ली चुटकी, कहा- मिली भी तो 'पोठिया मछली'
Bihar : Tejashwi Yadav की अदा पर JDU के Lalan Singh ने ली चुटकी, कहा- मिली भी तो ‘पोठिया मछली’
पटना (बिहार) : बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव तारापुर में कैंप कर राजद उम्मीदवार को जीत दिलाने के लिए तूफ़ानी प्रचार कर रहे हैं। इस दौरान उनकी एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमे वे मछली मारते दिखे। तेजस्वी की इस अदा पर चुटकी लेते हुए जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने हमला बोलते हुए कहा कि जब चुनाव में आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है तो मछली नही मारेंगे तो क्या करेंगे…
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tezlivenews · 3 years ago
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पिंक टीशर्ट, काला चश्मा...तेजप्रताप यादव ने ट्वीट किया लालू यादव के डिफरेंट लुक की फोटो, यूजर्स ने खूब लिए मजे
पिंक टीशर्ट, काला चश्मा…तेजप्रताप यादव ने ट्वीट किया लालू यादव के डिफरेंट लुक की फोटो, यूजर्स ने खूब लिए मजे
पटनाराष्ट्रीय जनता दल (RJD) को भारतीय राजनीति में अपने खांटी अंदाज के लिए जाने जाते हैं। मीडिया में उनकी जितनी भी तस्वीरें सामने आई हैं उसमें से ज्यादातर में वह बनियान और सफेद लूंगी पहने देखे जाते रहे हैं। उनके बड़े तेज प्रताप यादव ने लालू यादव की एक ऐसी तस्वीर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर पोस्ट की है जिसमें उनका लुक डिफरेंट दिख रहा है। इस तस्वीर में लालू यादव अपन�� खांटी अंदाज से उलट बिल्कुल…
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trendingwatch · 2 years ago
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"किंगमेकर" लालू यादव की बेटी ने "बिहार को क्या चाहिए" पर भोजपुरी गाना ट्वीट किया
“किंगमेकर” लालू यादव की बेटी ने “बिहार को क्या चाहिए” पर भोजपुरी गाना ट्वीट किया
पिता लालू प्रसाद यादव के साथ रोहिणी आचार्य, जून में साझा की गई एक तस्वीर में। नई दिल्ली: नीतीश कुमार के आज भाजपा के साथ ताजा ब्रेकअप के बाद, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटियों ने जश्न में ट्वीट करते हुए कहा कि वह बिहार में खेल में वापस आ गए हैं। श्री यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपने पिता को “किंगमेकर” कहा और एक भोजपुरी गीत ट्वीट किया, “लालू बिन चालू ई बिहार न होई (बिहार लालू के बिना…
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its-axplore · 3 years ago
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from बिहार | दैनिक भास्कर https://ift.tt/3t4Lzhl
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mrdevsu · 3 years ago
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बिहार: RJD के पोस्टर से तेजस्वी यादव ‘गायब’, लालू-राबड़ी के साथ तेजप्रताप यादव को मिली जगह
बिहार: RJD के पोस्टर से तेजस्वी यादव ‘गायब’, लालू-राबड़ी के साथ तेजप्रताप यादव को मिली जगह
पटनः बिहार की नीति में है। एक बार आज भी आर.जी. की मीटिंग होने वाली है में तेजाप यादव की . बैठक की बैठक के बाद ग्राहक की बैठक की बैठक की घोषणा की। दोपहर 12:30 बजे पार्टी के कार्यालय में मीटिंग होगी। विद्यार्थी आरजी के राज्य के राज्य और अध्यक्षों की बैठक प्रकोष्ठ के राज्य के अध्यक्ष यादव की में होगी। इस खिलाड़ी की तस्वीर नहीं है। इस मीटिंग में भी आप ऐसे व्यक्ति हैं जो आपकी रक्षा कर रहे हैं। एलर्जी…
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journalistcafe · 3 years ago
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लालू परिवार में वॉर ! : तेज प्रताप के पोस्टर से भाई तेजस्वी की तस्वीर गायब, राजनीतिक सरगर्मियां हुईं तेज
लालू परिवार में वॉर ! : तेज प्रताप के पोस्टर से भाई तेजस्वी की तस्वीर गायब, राजनीतिक सरगर्मियां हुईं तेज
बिहार में सियासी तौर पर सबसे ताकतवार लालू परिवार में शीत युद्ध देखने को मिल रहा है। सूबे में छात्र आरजेडी की तरफ से पटना की सड़कों पर पोस्टर्स लगाए गए है। इसमें लालू यादव के साथ साथ उनके बड़े बेटे तेजप्रताप और राबड़ी देवी की तस्वीर लगी है। लेकिन इसमें लालू के छोटे बेटे तेजस्वी की तस्वीर गायब है। ये पोस्टर्स सिर्फ सड़कों पर ही नहीं, बल्कि पटना में पार्टी दफ्तर पर भी लगाए गए हैं। बता दें कि आज…
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