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webmorch-blog · 29 days ago
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Chhattisgarh में एसआई भर्ती के लिए ऑनलाइन आवेदन प्रारंभ
रायपुर. Chhattisgarh पुलिस में एसआई, प्लाटून कमांडर की 341 पदों पर भर्ती होगी. यह पहली बार है जब एसआई की भर्ती CGPSC के माध्यम हो रही है. इसके लिए ऑनलाइन आवेदन 23 अक्टूबर से 21 नवंबर 2024 तक आवेदन मंगाए गए थे. कैबिनेट में फैसले के बाद अब ऊंचाई व सीने के माप को लेकर एसटी उम्मीदवारों को छूट दी गई है. इसके अनुसार फिर से आवेदन का अवसर दिया गया है. इसकी प्र​क्रिया शुरू हो गई है. 25 दिसंबर तक आवेदन किए…
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srbachchan · 4 years ago
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DAY 4804(i)
Jalsa, Mumbai                Apr 24, 2021               Sat 1:49 am
What could not be accommodated in the previous is here now  .. and may the Hindi geniuses in the Ef help and assist in its translate or at least the pertinent relevant points .. 
प्रार्थना का अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप
BY
BANDEY
SEPTEMBER 06, 2018
अनुक्रम
प्रार्थना की परिभाषा
प्रार्थना के स्वरूप
प्रार्थना का तात्त्विक विश्लेषण
प्रार्थना का प्रथम तत्त्व - विश्वास एवं श्रद्धा - ...  the first relevance belief and respect
प्रार्थना का द्वितीय तत्त्व - एकाग्रता  .. oneness
प्रार्थना का तृतीय तत्त्व - सृजनात्मक ध्यान contemplation
प्रार्थना का चतुर्थ तत्त्व - आत्म निवेदन  ... the offering respectful of the soul 
प्रार्थना मनुष्य की जन्मजात सहज प्रवृत्ति है। संस्कृत शब्द प्रार्थना तथा आंग्ल (इंग्लिश) भाषा के Prayer शब्द, इन दोनों में अर्थ का दृष्टि से पूरी तरह से समानता है - 1. संस्कृत में ‘‘प्रकर्षेण अर्धयते यस्यां सा प्रार्थना’’ अर्थात प्रकर्ष रूप से की जाने वाली अर्थना (चाहना अभ्यर्थना)  2. आंग्ल भाषा का Prayer यह शब्द Preier, precari, prex, prior इत्यादि धातुओं से बना है, जिनका अर्थ होता है चाहना या अभ्यर्थना।  इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म, भाषा, देश इत्यादि सीमाएँ प्रार्थना या Prayer के समान अर्थों को बदल नहीं पाई हैं। ‘‘प्रार्थना शब्द की रचना ‘अर्थ उपाया×आयाम’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग एवं ‘क्त’ प्रत्यय लगाकर शब्दशास्त्रीयों ने की है। इस अर्थ में अपने से विशिष्ट व्यक्ति से दीनतापूर्वक कुछ मांगने का नाम प्रार्थना है। वेदों में कहा गया है- ’’पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।’’त्रिपाद एवं एकपाद नाम से ब्रह्म के एश्वर्य का संकेत है। अत: जीव के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सबकी याचना परमात्मा से ही करनी चाहिए, अन्य से नहीं।
प्रार्थना का तात्पर्य यदि सामान्य शब्दों में बताया जाए तो कह सकते है। कि प्रार्थना मनुष्य के मन की समस्त विश्रृंखलित एवं अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की समग्र भावनाओं को मन के केन्द्र में एकत्र कर चित्त को दृढ़ करने की एक प्रणाली का नाम ‘प्रार्थना’ है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप अभीश्ट लक्ष्य प्राप्त कर लेने की क्षमता मनुष्य को (प्रकृति की ओर से ) प्राप्त है। भगवतगीता 17/3 के अनुसार - यच्छ्रद्ध: स एव स:
अर्थात- जिसकी जैसी श्रद्धा होती है ��ह वैसा ही बन जाता है। ईसाई धर्मग्रंथ बाईबिल में कहा गया है -
जो माँगोगे वह आपको दे दिया जाऐगा।
जो खोजोगे वह तुम्हें प्राप्त हो जाएगा।
खटखटाओगे तो आपके लिए द्वार खुल जाएगा।।
स्पष्ट है कि प्रार्थना के द्वारा जन्मजात प्रसुप्त आध्यत्मिक शक्तियाँ मुखर की जा सकती है। इन शक्तियों को यदि सदाचार तथा सद्विचार का आधार प्राप्त हो तब व्यक्ति संतवृत्ति (साधुवृत्ति) का बन जाता है। इसके विरूद्ध इन्हीं शक्तियों का दुरूपयोग कर व्यक्ति दुश्ट वृत्ति का बन सकता हैं। शैतान और भगवान की संकल्पना इसीलिए तो रूढ़ है। मनुष्य में इतनी शक्ति है कि स्वयं का उद्धार स्वयं का सकता है। गीता 6/5 में भी यही कहा गया है -
‘‘उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’’
इस प्रकार यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि प्रार्थना भिक्षा नहीं, बल्कि शक्ति अर्जन का माध्यम है, प्रार्थना करने के लिए सबल सक्षम होना महत्व रखता है। प्रार्थना परमात्मा के प्रति की गई एक आर्तपुकार है। जब यह पुकार द्रौपदी, मीरा, एवं प्रहलाद के समान हृदय से उठती है तो भावमय भगवान दौड़े चले आते हैं। जब भी हम प्रार्थना करते हैं तब हर बार हमें अमृत की एक बूंद प्राप्त होती है जो हमारी आत्मा को तृप्त करती है। गाँधी जी ने जीवन में प्रार्थना को अपरिहार्य मानते हुए इसे आत्मा का खुराक कहा है। प्रार्थना ऐसा कवच या दुर्ग है जो प्रत्येक भय से हमारी रक्षा करता है। यही वह दिव्य रथ है जो हमें सत्य, ज्योति और अमृत की प्राप्ति कराने में समर्थ है।
हमारा जीवन हमारे विश्वासों का बना हुआ है। यह समस्त संसार हमारे मन का ही खेल है- ‘‘जैसा मन वैसा जीवन’’। प्रार्थना एक महान ईच्छा, आशा और विश���वास है। यह शरीर, मन व वाणी तीनों का संगम है। तीनों अपने आराध्य देव की सेवा में एकरूप होते हैं, प्रार्थना करने वालों का रोम-रोम प्रेम से पुलकित हो उठता है।
प्रार्थना की परिभाषा
हितोपदेश :- ‘‘स्वयं के दुगुर्णों का चिंतन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही प्रार्थना है। सत्य क्षमा, संतोष, ज्ञानधारण, शुद्ध मन और मधुर वचन एक श्रेष्ठ प्रार्थना है।’’
पैगम्बर हजरत मुहम्मद - ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’
श्री माँ - ‘‘प्रार्थना से क्रमश: जीवन का क्षितिज सुस्पष्ट होने लगता है, जीवन पथ आलोकित होने लगता है और हम अपनी असीम संभावनाओं व उज्ज्वल नियति के प्रति अधिकाधिक आश्वस्त होत�� जाते हैं।’’
महात्मा गांधी - ‘‘प्रार्थना हमारी दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति ही नहीं, हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान भी है। यह नम्रता की पुकार है, आत्मशुद्धि एवं आत्मनिरीक्षण का आह्वाहन है।’’
श्री अरविंद घोष - ‘‘यह एक ऐसी महान क्रिया है जो मनुष्य का सम्बन्ध शक्ति के स्त्रोत पराचेतना से जोड़ती है और इस आधार पर चलित जीवन की समस्वरता, सफलता एवं उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है जिसे अलौकिक एवं दिव्य कहा जा सकता है।’’
सोलहवीं शताब्दी के स्पेन के संत टेरेसा के अनुसार प्रार्थना -’’प्रार्थना सबसे प्रिय सत्य (ईश्वर) के साथ पुनर्पुन: प्रेम के संवाद तथा मैत्री के घनिश्ठ सम्बन्ध हैं।’’
सुप्रसिद्ध विश्वकोष Brittanica के अनुसार प्रार्थना की परिभाषा - सबसे पवित्र सत्य (ईष्वर) से सम्बन्ध बनाने की इच्छा से किया जाने वाला आध्यात्मिक प्रस्फूटन (या आध्यात्मिक पुकार) प्रार्थना कहलाता है।
अत: कहा जा सकता है कि हृदय की उदात्त भावनाएँ जो परमात्मा को समर्पित हैं, उन्हीं का नाम प्रार्थना है। अपने सुख-सुविधा-साधन आदि के लिये ईश्वर से मांग करना याचना है प्रार्थना नहीं। बिना विचारों की गहनता, बिना भावों की उदात्तता, बिना हृदय की विशालता व बिना पवित्रता एंव परमार्थ भाव वाली याचना प्रार्थना नहीं की जा सकती।
वर्तमान में प्रार्थना को गलत समझा जा रहा है। व्यक्ति अपनी भौतिक सुविधओं व स्वयं को विकृत मानसिकता के कारण उत्पन्न हुए उलझावों से बिना किसी आत्म सुधार व प्रयास के ईश्वर से अनुरोध करता है। इसी भाव को वह प्रार्थना समझता है जो कि एक छल है, भ्रम है अपने प्रति भी व परमात्म सत्ता के लिये भी। अत: स्वार्थ नहीं परमार्थ, समस्याओं से छुटकारा नहीं उनका सामना करने का सामथ्र्य, बुद्धि नहीं हृदय की पुकार, उथली नहीं गहन संवेदना के साथ जब उस परमपिता परमात्मा को उसका साथ पाने के लिए आवाज लगायी जाती है उस स्वर का नाम प्रार्थना है।
गांधी जी कहते थे -
‘‘हम प्रभु से प्रार्थना करें- करुणापूर्ण भावना के साथ और उसने एक ही याचना करें कि हमारी अन्तरात्मा में उस करुणा का एक छोटा सा झरना प्रस्फुटित करें जिसमें वे प्राणिमात्र को स्नान कराके उन्हें निरंतर सुखी, समृद्ध और सुविकसित बनाते रहते हैं।’’
प्रार्थना के स्वरूप
प्रार्थना ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्वव्यापी और परमदयालु है, उस हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। वह परमपिता और परमदयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा ��वश्यकता पूरी करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहता है। फिर परमपिता और परमदयालु होने पर वह क्यों हमारी आवश्यकता को जानेगा नहीं। वह कहने पर भी हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनाई को समझें, यह तो ईश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुई। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों का अयाचित आवश्यकता भी पूरी करता है। तब अपने परमप्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा ? वस्तुत: प्रार्थना का अर्थ याचना ही नहीं। याचना अपने आप में हेय है क्योंकि वही दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसमें जुड़ी हुई है जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही है।चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय या भगवान के सामने झोली फैलाई जाय, बात एक ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में की जाय, चाहे भगवान के घर मन्दिर में, बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिए शोभा नहीं देती।
वस्तुत: प्रार्थना का प्रयोजन आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझना है कि वह इसका पात्र बन कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुरूप ही मिल सकें। यह अपने मन की खुषामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है। आत्म-जागरण है आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, कि हे शक्ति-पुंज तू जागृत क्यों नहीं होता। अपने गुण कर्म स्वाभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता। तू संभल जाय तो सारी दुनिया संभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्बलता खिंचती हुई अपने पास चली जाए। अपनी सामथ्र्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाए, तो दीन-हीन, अभावग्रस्तों को पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहें।
प्रार्थना के माध्यम से हम विश्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिश्ठ सम्पर्क स्थापित करने हैं। आदर्षों को भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भाव-विव्हलता को सजग करते हैं। तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्म विस्मृति ने अपने स्वरूप एवं स्तर ही बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिए अपने प्रसुप्त अन्त:करण से प्रार्थना की जाय, कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय, और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार हो जाए। अन्त:ज्योति की एक किरण उग पड़े तो पग-पग पर कठोर लगने के ��िमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाए जिसने शोक-संताप की बिडम्बनाओं को सब ओर से आवृत्त कर रखा है।
परमेष्वर यों साक्षी, दृश्टा, नियामक, उत्पादक,संचालक सब कुछ है। पर उसक जिस अंश की हम उपासना प्रार्थना करते हैं वह सर्वात्मा एवं पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिए ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना, तृष्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते हैं। इस भव बन्धन से मोह, ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म स्तर से परमात्मा से यह प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करे जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार -दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।
लघुता को विशालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुष को पुरुशोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विषाल व्यापक बनकर परमात्म��� के रूप में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से नीचा उठकर, जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अपने को समर्पण करना ही हम ईश्वर के हमार प्रति समर्पित होने की विवशता का एक मात्र तरीका है। ‘शरणागति’ भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया है। गीता में भगवान ने आश्वासन दिया है कि जो सच्चे मन से मेरी शरणा में आता है, उनके योग क्षेम की सुख-शान्ति और प्र्रगति की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ। सच्चे मन और झूठे मन की शरणागति का अन्तर स्पष्ट है। प्रार्थना के समय तन-मन-धन सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने की लच्छेदार भाषा का उपयोग करना और जब वैसा करने का अवसर आवे तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाना झूठे मन की प्रार्थना है आज इसी का फैशन है।
महात्मा गाँधी ने अपने एक मित्र को लिखा था -’’राम नाम मेरे लिए जीवन अवलम्बन है जो हर विपत्ति से पार करता है।’’ जब तुम्हारी वासनाएँ तुम पर सवार हो रही हों तो नम्रतापूर्वक भगवान को सहायता के लिए पुकारो, तुम्हें सहायता मिलेगी।
भगवान को आत्मसमर्पण करने की स्थिति में जीव कहता है- तस्यैवाहम् (मैं उसी का हूँ) तवैवाहम् (मैं तो तेरा ही हूँ) यह कहने पर उसी में इतना तन्मय हो जाता है - इतना घू��-मिल जाता है कि अपने आपको विसर्जन, विस्मरण ही कर बैठता है औ अपने को परमात्मा का स्वरूप ही समझने लगता है। त बवह कहता है - त्वमेवाहम् (मैं ही तू हूँ) षिवोहम् (मैं ही शिव हूँ) ब्रह्माऽस्मि (मैं ही ब्रह्मा हूँ)।
भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाया होने की अनुभूति की, जब इतनी प्रबलता उत्पन्न हो जाए कि उसे कार्य रूप में परिणित किए बिना रहा ही न जा सके तो समझना चाहिए कि समर्पण का भाव सचमुच सजग हो उठा। ऐसे शरणागति व्यक्ति को प्रार्थना द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती हैै और यह गतिषीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता समेत भक्त के चरणों में शरणागत होना पड़ता है। यों बड़ा तो भगवान ही है पर जहाँ प्रार्थना, समर्पण और शरणागति की साधनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध है, इस क्षेत्र में भक्त को बड़ा और भगवान को छोटा माना जायगा क्योंकि अक्सर भक्त के संकेतों पर भगवान को चलते हुए देखा गया है। हमें सदैव पुरुषार्थ और सफलता के विचार करने चाहिए, समृद्धि और दयालुता का आदर्श अपने सम्म्मुख रखना चाहिये। किसी भी रूप में प्रार्थना का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है। जो कार्य शरीर और मस्तिष्क के करने के हैं उनको पूरे उत्साह और पूरी शक्ति के साथ करना चाहिये। ईश्वर आटा गूंथने, न आयेगा पर हम प्रार्थना करेंगे तो वह हमारी उस योग्यता को जागृत कर देगा। वस्तुत: प्रार्थना का प्रयोजन आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझना है। इसे ‘आत्म साक्षात्कार’ भी कह सकते है। लघुता को विशालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। मनोविज्ञानवेत्ता डॉ. एमेली केडी ने लिखा है- ‘अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है।’
अंग्रेज कवि टैनीसन ने कहा है कि ‘‘बिना प्रार्थना मनुष्य का जीवन पशु-पक्षियों जैसा निर्बोध है। प्रार्थना जैसी महाशक्ति जैसी महाशक्ति से कार्य न लेकर और अपनी थोथी शान में रहकर सचमुच हम बड़ी मूर्खता करते हैं। यही हमारी अंधता है।’’
प्रभु के द्वार में की गई आन्तरिक प्रार्थना तत्काल फलवती होती है। महात्मा तुकाराम, स्वामी रामदास, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास आदि भक्त संतों एवं महांत्माओं की प्रार्थनाएँ जगत्प्रसिद्ध हैं। इन महात्माओं की आत्माएँ उस परम तत्व में विलीन होकर उस देवी अवस्था में पहुँच जाती थीं जिसे ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका कहते हैं। उनका मन उस पराशक्ति से तदाकार हो जाता था। जो समस्त सिद्धियों एवं चमत्कारों का भण्डार है। उस दैवी जगत में प्रवेश कर आत्म श्रद्धा द्वारा वे मनोनीत तत्व आकर्शित कर लेते थे। चेतन तत्व से तादात्म्य स्थापित कर लेने के ही कारण वे प्रार्थना द्वारा समस्त रोग, शोक, भय व्याधियाँ दूर कर लिया करते थे। भगवत् चिन्तन में एक मात्र सहायक हृदय से उद्वेलित सच्च�� प्रार्थना ही है। हृदय में जब परम प्रभु का पवित्र प्रेम भर जाता है, तो मानव-जीवन के समस्त व्यापार, कार्य-चिन्तन इत्यादि प्रार्थनामय हो जाता है। सच्ची प्रार्थना में मानव हृदय का संभाशण दैवी आत्मा से होता है। प्रार्थना श्रद्धा, शरणागति तथा आत्म समर्पण का ही रूपान्तर है।
यह परमेश्वर से वार्तालाप करने की एक आध्यात्मिक प्रणाली है। जिसमें हृदय बोलता व विश्व हृदय सुनता है। यह वह अस्त्र है जिसके बल का कोई पारावार नहीं है। जिस महाशक्ति से यह अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न लालित-पालित हो रहा है, उससे संबंध स्थापित करने का एक रूप हमारी प्रार्थना ही है। प्रार्थना करन जिसे आता है उसे बिना जप, तप, मन्त्रजप आदि साधन किए ही पराशक्ति से तदाकार हो सकता है। अपने कर्तव्य को पूरा करना प्रार्थना की पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी जो विपत्तियाँ सामने आएँ उनसे कायरों की भांति न तो डरें, न घबराएँ वरन् प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें सबका सामना करने का साहस व धैर्य दें। तीसरा दर्जा प्रेम का है। जैसे-जैसे आत्मा प्रेमपूर्वक भावों द्वारा परमात्मा के निकट पहुँच जाती है वैसे ही वैसे आनंद का अविरल स्त्रोत प्राप्त होता है। प्रेम में समर्पण व विनम्रता निहित हैं। राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त कहते हैं-
‘‘हृदय नम्र होता है नहीं जिस नमाज के साथ।
ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ।।’’
गीता का महा-गीत, वह सर्वश्रेष्ठ गीत प्रार्थना भक्ति का ही संगीत है। भक्त परमानन्द स्वरूप परमात्मा से प्रार्थना के सुकोमल तारों से ही संबंध जोड़ता है। इन संतों की प्रार्थनाओं में भक्ति का ही संगीत है। जरा महाप्रभु चैतन्य के हृदय को टटोलो, मीराबाई अपने हृदयाधार श्रीकृष्ण के नामोच्चारण से ही अश्रु धारा बहा देते थे, प्रार्थना से मनुष्य ईश्वर के निकट से निकटतम पहुँच जाता है। संसार की अतुलित सम्पत्ति में भी वह आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चे भावुक प्रार्थी को, जब वह अपना अस्तित्व विस्मृत कर केवल आत्मस्वरूप में ही लीन हो जाता है, उस क्षण जो आनन्द आता है उसका अस्तित्व एक भुक्तभोगी को ही हो सकता है।
प्रार्थना विश्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा निशान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएँ लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं, और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं। विश्वास जितना उत्कृष्ट होगा परिणाम भी उतने ही प्रभावषाली होंगे। प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक भूख है। शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है। उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत् साधना परमात्मा की ध्यान-आराधना ही है। इससे अपनी आत्मा में परमात्मा का सूक्ष्�� दिव्यत्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति का सदुपयोग आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कर सकते हैं। निष्ठापूर्वक की गई प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती।
प्रार्थना प्रयत्न और ईश्वरत्व का सुन्दर समन्वय है। मानवीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं क्योंकि पुरुशार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग सिद्ध न हुए तो कामनाएँ अपूर्ण ही रहती है। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करे तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाषील भी रहें और दैवी विधान से सुसम्बद्ध रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा हो तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही इसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूँजी लगाना, स्वामिभक्त और ईमानदार, नौकर, कारोबार की सफलता के लिए चाहिए ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलम्बित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहाँ मिलाप हुआ वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी।
आत्मा-शुद्धि का आवाहन भी प्रार्थना ही है। इससे मनुष्य के अन्त:करण में देवत्व का विकास होता है। विनम्रता आती है और सद्गुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। ऐसा महसूस होने लगता है, जैसे कोई असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है। हम जब उससे अपनी रक्षा की याचना, दु:खों से परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिए अपनी विनय प्रकट करते हैं तो सद्व प्रभाव दिखलाई देता है और आत्म-संतोष का भाव पैदा होता है।
असंतोष और दु:ख का भाव जीव को तब परेषान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता में ग्रस्त है। मतभेदों की नीति ही सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेषानियों से बचने की रामबाण औषधि है। भगवान की प्रार्थना में सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृष्टि के सारे जीवों के प्रति ममता आती है इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते है और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दुर्गुणों का चिन्तन और परमात्मा के उपकारों का स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है। महात्मा गाँधी कहा करते थे - मैं कोई काम बिना प्रार्थना के नहीं करता। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिए भोजन। प्रार्थना एक उच्चस्तरीय आध्यात्मिक क्रिया है जिसमें सही भाव के साथ क्रम होना चाहिए। इसे पाँच चरणों में समझा जा सकता है-
विनम्रता
आत्मसजगता
कल्पना का उपयोग
परमार्थ का भाव
उत्साह एवं आनंद।
स्वामी रामतीर्थ के अनुसार प्रतिदिन प्रार्थना करने से अंत:करण पवित्र बनता है। ��्वभाव में परिवर्तन आता है। हताशा व निराशा समाप्त हो उत्साह ��र जाता है और जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। प्रार्थना आत्मविश्वास को जगाने का अचूक उपाय है।
अंत: की अकुलाहट को विश्वव्यापी सत्ता के समक्ष प्रकट कर देना ही तो प्रार्थना है। शब्दों की इस बाह्य स्थूल जगत में आवश्यकता होती है, परमात्मा से जुड़ना हो तो भाव चाहिये। प्रार्थना में हृदय बोलता है, शब्दो की महत्ता गौंण है। इसी कारण लूथर ने कहा था- ‘‘जिस प्रार्थना में बहुत अल्प शब्दा हों, वही सर्वोत्तम प्रार्थना है।’’
प्रार्थना उस व्यक्ति की ही फलित होती है जिसका अंत:करण शुद्ध है और जो सदाचारी है। इसी कारण संत मैकेरियस ने ठीक ही कहा है- ‘‘जिसकी आत्मा शुद्ध व पवित्र है, वही प्रार्थना कर सकता है क्योंकि अशु़़़द्ध हृदय से वह पुकार ही नहीं उठेगी जो परमात्मा तक पहुँच सके। ऐसे में केवल जिह्वा बोलती है और हृदय कुछ कह ही नहीं पाता।’’ जब एक साधारण व्यक्ति नाम मात्र की भिक्षा देते हुए, भिक्षापात्र की सफाई देख लेता है तो वह ईश्वर तो दिव्य अनुदान देने वाला है। वह भी देखेगा कि याचक उसके आदर्शों पर चलने वाला है या नहीं। सुप्रसिद्ध कवि होमर के शब्दों में - ‘‘जो ईश्वर की बात मानता है, ईश्वर भी उनकी ही सुनता है।’’
अत: प्रार्थना में एकाग्रता, निर्मलता, शांत मन:स्थिति, श्रद्धा-विश्वास और समर्पण का भाव होना चाहिये। यह परमात्म सत्ता से जुड़ने का एक भावनात्मक माध्यम है। पैगम्बर हजरत मुहम्मद के अनुसार- ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’
प्रार्थना का तात्त्विक विश्लेषण
प्रार्थना का निर्माण करने वाले कौन-कौन पृथक्-पृथक् तत्व हैं ? किन-किन वस्तुओं से प्रार्थना विनिर्मित होती है ? यह प्रश्न अनायास ही मन में उत्पन्न होता है।
प्रार्थना का प्रथम तत्त्व - विश्वास एवं श्रद्धा -प्रार्थना की आत्मा उच्चतर सत्ता में अखण्ड विश्वास है। छान्दोग्योपनिशद् में निर्देश किया गया है श्यदैक श्रद्धयाजुहोति तदेव वीर्यवत्तरं भवेति, अर्थात् श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही फलवती होती है। प्रार्थना में साधक का जीता-जागता विश्वास होना अनिवार्य है। ‘‘सारा संसार ब्रह्ममय है तथा उस ब्रह्म का केन्द्र मेरे मन अन्त:करण में वर्तमान् है। मैं विश्वव्याप्त परमात्मा में सम्बन्ध रखता हूँ और प्रार्थना द्वारा उस संबंध को अधिक चमका देता हूँ’’ - ऐसा विश्वास रखकर हमें प्रार्थना में प्रवृत्ति करनी चाहिए। प्रार्थना स्वत: कोई शक्ति नहीं होती किन्तु विश्वास में वह महान शक्तिशालिनी मनोनीति फल प्रदान करने वाली बनती है। पहले अदृश्य शक्ति, परमात्मा की अपार शक्ति में भरोसा करो, पूर्ण विश्वास करो तब प्रार्थना फलीभूत होती है। प्रार्थना की शक्ति विश्वास से उत्तेजित हो उठती है। मन, वचन तथा कर्म तीनों ही आत्मश्रद्धा से परिपूर्ण हो उठें, प्रत्येक अणु-अणु साधक के विश्वास से रंजित हो उठें, तब ही उसे अभीश्ठ फल की प्राप्ति होती है।
प्रार्थना का मर्म है - विश्वास, जीता-जागता विश्वास, प्रार्थना में श्रद्धा सबसे मूल्यवान तथ्य है। श्रद्धा की अखण्ड धारा रोम-रोम में, कण-कण में, अणु-अणु में भ लो, तब प्रार्थना आरम्भ करो। श्रद्धा प्रत्येक वस्तु को असीम, आंतरिक शक्ति प्रचुरता से अनुप्राणित करती हुई अग्रसर होती है। श्रद्धाभाव के बिना समस्त वस्तुएँ प्राणहीन, जीवनहीन, निरर्थक एवं व्यर्थ हैं। श्रद्धा से युक्त प्रार्थना बुद्धि को प्रधानता नहीं देती प्रत्युति इसे उच्चतर धारणा शक्ति की ओर बढ़ाती है जिससे हमारा मनोराज्य विचार और प्राण के अनन्त साम्राज्य के साथ एकाकार हो जाता है। इस गुण से प्रत्येक प्रार्थी की बुद्धि में अभिनव शक्ति एवं सौन्दर्य आ जाते हैं तथा उसकी चेतना उस अनन्त ऐश्वर्य की ओर उन्मुक्त हो जाती है, जो वान्छां कल्पतरु’ है तथा जिसके बल पर मनुष्य मनोवांछित फल पा सकता है। स्वास्थ्य, सुख, उन्नति, आयु जो कुछ भी हम प्राप्त करना चाहे वह श्रद्धा के द्वारा ही मिल सकते हैं। श्रद्धा उस अलौकिक साम्राज्य का राजमार्ग है। श्रद्धा से ही प्रार्थना में उत्पादक शक्ति, रचनात्मक बल का संचार होता है।
प्रार्थना का द्वितीय तत्त्व - एकाग्रताप्रार्थना एक प्रकार का मानसिक व्यायाम है। यह एकाग्रता तथा ध्यान के नियमों पर कार्य करता है। जितनी ही प्रार्थना में एकाग्रता होगी, निष्ठा होगी और जितन एक रसता से ध्यान लगाया जाएगा, उतनी ही लाभ की आशा करनी चाहिए। एकाग्रता पर ऐसी अद्भूत मौन-शक्ति है जो मन की समस्त शक्तियों को एक मध्यबिन्दु पर केन्द्रित कर देती है। सूर्य रश्मियाँ छिन्न-भिन्न रहकर कुछ गर्मी उत्पन्न नहीें करतीं किन्तु शीशे द्वारा उन रश्मियों को जब एक केन्द्र पर डाला जाता है, तो उनमें अद्भूत शक्ति का संचार होता है। इसी प्रकार एकाग्र प्रार्थना से मन की समस्त बिखरी हुर्इं शक्तियाँ एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होती है।
प्रार्थना का रहस्य मन की एकाग्रता पर है। प्रार्थना पर, प्रार्थना के लक्ष्य पर, मन की समस्त चित्तवृत्तियों को लगा देना, इधर-उधर विचलित न होने देना, निरन्तर उसी स्थान पर दृढतापूर्वक लगाये रखने की एकाग्रता है। जहाँ साधारण व्यक्ति किंकर्त्तव्यविमूढ़ से खड़े रह जाते हैं, वहाँ एकाग्रचित वाला साधक थोड़ी सी प्रार्थना के बल पर अद्भूत चमत्कारों का प्रदर्शन करता है।
प्रार्थना का तृतीय तत्त्व - सृजनात्मक ध्यानप्रार्थना का तृतीय तत्व सृजनात्मक ध्यान है। एकाग्रता में ध्यान शक्ति की अभिवृद्धि होती है। महान पुरुष का निश्चित लक्षण उत्तम साधन ही है। ध्यान वह तत्व है जिससे स्मृति का ताना-बाना विनिर्मित होता है। सर आइजक न्यूटन ने तो यहाँ तक निर्देश किया है यदि विज्ञान की उन्नति का कोई रहस्य है, तो वह गं��ीर ध्यान ही है। डॉ. लेटसन लिखते हैं कि ‘‘ध्यान ही एकाग्रता शक्ति की प्रधान कुंजी है। ध्यान के अभाव में प्रार्थना द्वारा कोई भी महान् कार्य सम्पादन नहीं किया जा सकता। अत्यन्त पूर्ण इन्द्रिय बोध, उत्तम धारणा शक्ति, सृजनात्मक कल्पना बिना गंभीर ध्यान के कुछ भी सम्पादन नहीें कर सकते।
ध्यान अन्त:करण की मानसिक क्रिया है। इसमें केवल मन:शान्ति की आवश्यकता है। यहाँ बाह्य मिथ्याडम्बरों की आवश्यकता नहीं। ध्यान तो अन्तर की वस्तु है-करने की चीज है, इसमें दिखावा कैसा ? चुपचाप ध्यान में संलग्न हो जाइए, दिन-रात परमप्रभु का आलिंगन करते रहो। भगवान के दिव्य मूर्ति को अन्त:करण के कमरे में बन्द कर लो, तथा बाह्य जगत को विस्मृत कर दो। वस्तुत: ऐसे दिव्य साक्षात्कार के समक्ष बाह्य जगत् की स्मृति आती ही किसे है ? ऐसा ध्यान अमर शान्ति प्रसार करने वाला है।
ध्यान करते समय नेत्र बन्द करना आवश्यक है। नेत्र मूँदने से यह प्रपंचमय विश्व अदृश्य हो जाता है। विश्व को दूर हटा देना और ध्येय पर सब मन:शक्तियों को केन्द्रित कर देना ही ध्याान का प्रधान उद्देश्य है, परन्तु केवल बाहर का दृश्य अदृश्य होने से पूर्ण नहीं होता जब तक हमारा मन भीतर नवीन दृश्य निर्माण करता रहे। अत: भीतर के नेत्र भी बन्द कीजिए। इस प्रकार जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों जगत् अदृश्य हो जाते हैं, तभी तत्काल और तत्क्षण एकाग्रता हो जाती हैै। ध्यान करने की विधि का उल्लेख सांख्य तथा येाग दोनों ने ही बताया है पर सांख्य का ‘ध्यानं निर्विशयं मन:’ अर्थात मन को निर्विशय बनाना, ब्लैंक बनाना महा कठिन है, परन्तु योग का ध्यान सबकी पहुँच के भीतर है। किसी वस्तु या मनुष्य का मानस-चित्र निर्माण कर उसके प्रति एकता, एकाग्रता करना व उसके साथ पूर्ण तदाकार हो जाना इसी का नाम योग शास्त्र का ध्यान है। ऐसे ही ध्यान के अभ्यास से प्रार्थना में शक्ति का संचार होता है।
प्रार्थना का चतुर्थ तत्त्व - आत्म निवेदनयह प्रार्थना का अंतिम तत्त्व है। अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक प्रेम से आप अपना निवेदन प्रभु के दरबार में कीजिए। आपकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी। जहाँ कहीं भक्तों ने दीनता से प्रार्थना की है उस समय उनका अन्त:करण उनका चित्त प्रभु प्रेम में सराबोर हो गया है, उस प्रशान्त स्थिति में गद्गद् होकर उन्हें आत्मसुख की उपलब्धि हुई है। एक भक्त का आत्म निवेदन देखिए। वह कहता है, हे दयामय प्रभु ! मैं संसार में अत्यन्त त्रसित हूँ, अत्यन्त भयाकुल हो रहा हूँ। आपकी अपार दया से ही मेरे विचार आपके चरणों में खिंचे हैं। मैं अत्यन्त निर्बल हूँ- आप मुझे सब प्रकार का बल दीजिए और भक्ति में लगा दीजिए। गिड़गिड़ा कर प्रभु के प्रेम के लिए, भक्ति के लिए आत्म-निवेदन करना सर्वोत्तम ��ै।
आपका आत्म-निवेदन आशा से भरा हो, उसमें उत्साह की उत्तेजना हो, आप यह समझे कि जो कुछ हम निवेदन कर रहे हैं वह हमें अवश्य प्राप्त होगा। आप जो कुछ निवेदन करें वह अत्यन्त प्रेमभाव से होना चाहिए। उत्तम तो यह है कि जो निवेदन किया गया हो वह सब प्राणियों के लिए हो, केवल अपने लिए नहीं।
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अमिताभ बच्चन 
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abhay121996-blog · 4 years ago
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मिस्र में लाश को ममी बनाने की डरावनी प्रक्रिया आई सामने, 3500 साल पुरानी किताब ने बताया सच Divya Sandesh
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मिस्र में लाश को ममी बनाने की डरावनी प्रक्रिया आई सामने, 3500 साल पुरानी किताब ने बताया सच
दुनियाभर के लिए रहस्‍य का विषय बने मिस्र के हजारों साल पुराने ममी को बनाने का सच सामने आ गया है। पुरातत्‍वविदों ने करीब 3500 साल पुरानी एक किताब से किसी लाश को ममी बनाने की सबसे पुरानी प्रक्रिया का पता लगा लिया है। बताया जाता है कि करीब 4 हजार साल पहले से ही प्राचीन मिस्र में इंसान के मरने के बाद उसे ममी बनाने की प्रक्रिया चल रही है। अब यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के शोधकर्ताओं को किताब से लाश को ममी बनाने की सबसे पुरानी प्रक्रिया का पता चला है। यह किताब एक भोजपत्र की शक्‍ल में है और उसे पेरिस में रखा गया है। इस किताब से कई डरावनी चीजें निकलकर सामने आई हैं। आइए जानते हैं प्राचीन मिस्र में कैसे लाशों को बनाया जाता था ममी….Egypt Mummification Manual: प्राचीन म‍िस्र में लाश को ममी बनाने की प्रक्रिया का खुलासा हो गया है। करीब 3500 साल पुराने भोजपत्र Papyrus Louvre-Carlsberg से पता चला है क‍ि प्राचीन म‍िस्र के लोग ममी बनाने से पहले इंसानी लाश से द‍िमाग को न‍िकाल लेते थे। आइए जानते हैं पूरी प्र‍क्रिया…..दुनियाभर के लिए रहस्‍य का विषय बने मिस्र के हजारों साल पुराने ममी को बनाने का सच सामने आ गया है। पुरातत्‍वविदों ने करीब 3500 साल पुरानी एक किताब से किसी लाश को ममी बनाने की सबसे पुरानी प्रक्रिया का पता लगा लिया है। बताया जाता है कि करीब 4 हजार साल पहले से ही प्राचीन मिस्र में इंसान के मरने के बाद उसे ममी बनाने की प्रक्रिया चल रही है। अब यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के शोधकर्ताओं को किताब से लाश को ममी बनाने की सबसे पुरानी प्रक्रिया का पता चला है। यह किताब एक भोजपत्र की शक्‍ल में है और उसे पेरिस में रखा गया है। इस किताब से कई डरावनी चीजें निकलकर सामने आई हैं। आइए जानते हैं प्राचीन मिस्र में कैसे लाशों को बनाया जाता था ममी….ममी बनाने से पहले शव पर लगाया जाता था खास लेपप्राचीन म‍िस्र में शव पर लेप को लगाने को एक बेहद पवित्र कला माना जाता था और इसकी जानकारी केवल कुछ ही लोगों तक सीमित थी। इस कला के बारे में ज्‍यादातर गुप्‍त बातें केवल कुछ ही लोगों तक सीमित थी। यह कला एक व्‍य���्ति से दूसरे व्‍यक्ति को ज्‍यादातर जुबानी तरीके से स‍िखाई जाती थी। मिस्र मामले के विशेषज्ञों का मानना है कि शव पर लेप लगाए जाने के बारे में लिख‍ित में साक्ष्‍य अतिदुर्लभ है। अब तक केवल दो ऐसी किताबें मिली हैं जिनमें मिस्र में शवों को लेप लगाकर ममी बनाने के बारे में जानकारी देने वाला माना जाता है। अब पुरातत्‍वविदों को भोजपत्र की शक्‍ल में मौजूद एक ऐसी मेडिकल बुक को पढ़ने में सफलता मिली है जिसमें ममी बनाने की पूरी प्रक्रिया को समझाया गया है। इस किताब में हर्बल मेडिसिन और त्‍वचा के सूजन के बारे में जानकारी दी गई है। इस किताब को हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन में मिस्र मामलों की विशेषज्ञ सोफी चिओड्ट ने संपादित किया है। यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन ने एक बयान जारी करके कहा कि इस भोजपत्र में सबसे पहले इस्‍तेमाल किए जाने वाले हर्बल इलाज के बारे में जानकारी है।मिस्र के लोग लाश को 70 द‍िन में इस तरह से बनाते थे ममीमिस्र मामलों की विशेषज्ञ सोफी ने कहा कि इस किताब को पढ़ने वाले के लिए यह जरूरी है कि वह विशेषज्ञ हो ताकि उसे इस प्रक्रिया का पूरा विवरण याद रह सके। इसमें मलहम का इस्‍तेमाल और विभिन्‍न तरह की पट्टियों को किस तरह से लगाना है, यह शामिल है। सोफी ने अभी अपनी पूरी स्क्रिप्‍ट को जारी नहीं किया है और इसे अगले साल जारी किया जाएगा। किताब में शव के ऊपर कैसे लेप लगाना है, इसकी पूरी जानकारी दी गई है। प्राचीन मिस्र के लोग मृतक व्‍यक्ति के सिर के ऊपर एक लाल कपड़ा लगाते थे। इस कपड़े पर कुछ प्‍लांट आधारित सॉल्‍यूशन लगा रहता था। इस सॉल्‍यूशन में सुगंधित पदार्थ और बाइंडर भी लगे रहते थे। इसका इस्‍तेमाल बैक्‍टीरिया और कीड़ों को मारने के लिए किया जाता था। इस किताब में एक और प्रक्रिया के बारे में बताया गया है जिसको पूरा करने में कुल 70 दिन लगते थे। शव के ऊपर लेप लगाए जाने का काम हर चार दिन पर किया जाता था। इस दौरान लाश को सुखाने और उसे बैक्‍टीरिया रोधी तरल पदार्थ में डाला जाता था। भोजपत्र में बताया दैवीय पौधे का महत्‍व, 4 नंबर सबसे अहमयूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन ने बताया कि भोजपत्र में घरों के इस्‍तेमाल, एक दैवीय पौधे के धार्मिक महत्‍व और उसके बीजों के बारे में जानकारी है। किताब के एक बड़े हिस्‍से में त्‍वचा के सूजन के इलाज को लेकर जानकारी दी गई है। प्राचीन मिस्र के लोगों का मानना है कि त्‍वचा की इस बीमारी को चंद्रमा देवता खोंसू ने दिया है। सोफी ने कहा कि इस किताब से पहले से मौजूद दो अन्‍य किताबों के तुलना का बेहतरीन मौका मिला है। उन्‍होंने कहा कि ममी बनाने की इस सबसे पुरानी प्रथा में से कई बातों को बाद में आई किताबों में जगह नहीं दी गई है। उन्‍होंने बताया कि ममी बनाने की प्रक्रिया को बहुत विस्‍तृत तरीके से समझाया गया है। इस किताब से पता चला है कि प्राचीन मिस्र के लोगों के लिए 4 नंबर बेहद अहम था। शव पर लेप लगाने की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए कब्र के पास एक वर्कशाप बनाया जाता था। इस दौरान 70 दिन की अवधि को दो भागों में बांटा जाता था। इसमें 35 दिनों तक शव को सुखाया जाता था और 35 दिन तक उसे लपेटा जाता था। लाश ��े न‍िकाला जाता था द‍िमाग, 68वें द‍िन तैयार होती थी ममीशव को लेप लगाए जाने के 4 दिन बाद उसके अंदर से शरीर के अंगों और दिमाग को निकाला जाता था। इसके बाद आंख भी नष्‍ट हो जाती थी। 70 दिन की पूरी प्रक्रिया में 68वें दिन ममी बनकर तैयार हो जाती थी और उसे ताबूत के अंदर रख दिया जाता था ताकि वह मरने के बाद अपनी जिंदगी को जी सके। सोफी ने बताया कि 70 दिनों के दौरान ममी के लिए एक यात्रा निकाली जाती थी और मरने वाले के शरीर के शुद्धता का जश्‍न मनाया जाता था। शव पर लेप लगाए जाने के दौरान कुल 17 बार जुलूस निकाला जाता था। हर 4 दिन के अंतराल पर शव को कपड़े से ढंका जाता था और सुगंधित पदार्थ के साथ तिनका डाला जाता था ताकि कीड़े और मुर्दाखोर दूर रहें। करीब 3500 साल पुराने इस भोजपत्र को Louvre-Carlsberg Papyrus कहा जाता है। यह प्राचीन मिस्र के समय बचाई गई दूसरी सबसे लंबी किताब है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह किताब कम से कम 6 मीटर लंबी है और यह करीब 1450 ईसापूर्व की है। इस किताब में ज्‍यादातर जानकारी हर्बल उपचार और त्‍वचा की बीमारी के बारे में है।
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jaswant29 · 6 years ago
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|| ब्रह्म (काल) की अव्यक्त रहने की प्रतिज्ञा || सुक्ष्म वेद से शेष सृष्टि रचना------- तीनों पुत्रों की उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्म ने अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) से कहा मैं प्रतिज्ञा करता हुँ कि भविष्य में मैं किसी को अपने वास्तविक रूप में दर्शन नहीं दूंगा। जिस कारण से मैं अव्यक्त माना जाऊँगा। दुर्गा से कहा कि आप मेरा भेद किसी कोमत देना। मैं गुप्त रहूँगा। दुर्गा ने पूछा कि क्या आप अपने पुत्रों को भी दर्शन नहीं दोगे? ब्रह्म ने कहा मैं अपने पुत्रों को तथा अन्य को किसी भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा, यह मेरा अटल नियम रहेगा। दुर्गा ने कहा यह तो आपका उत्तम नियम नहीं है जो आप अपनी संतान से भी छुपे रहोगे। तब काल ने कहा दुर्गा मेरी विवशता है। मुझे एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है। यदि मेरे पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को पता लग गया तो ये उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्य नहीं करेंगे। इसलिए यह मेरा अनुत्तम नियम सदा रहेगा। जब ये तीनों कुछ बड़े हो जाऐं तो इन्हें अचेत कर देना। मेरे विषय में नहीं बताना, नहीं तो मैं तुझे भी दण्ड दूंगा, दुर्गा इस डर के मारे वास्तविकता नहीं बताती। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में कहा है कि यह बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे अनुत्तम नियम से अपिरिचत हैं कि मैं कभी भी किसी के सामने प्रकट नहीं होता अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ। इसलिए मुझ अव्यक्त को मनुष्य रूप में आया हुआ अर्थात् कृष्�� मानते हैं। (अबुद्धयः) बुद्धि हीन (मम्) मेरे (अनुत्तमम्) अनुत्तम अर्थात् घटिया (अव्ययम्) अविनाशी (परम् भावम्) विशेष भाव को (अजानन्तः) न जानते हुए (माम् अव्यक्तम्) मुझ अव्यक्त को (व्यक्तिम्) मनुष्य रूप में (आपन्नम) आया (मन्यन्ते) मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 24) गीता अध्याय 11 श्लोक 47 तथा 48 में कहा है कि यह मेरा वास्तविक काल रूप है। इसके दर्शन अर्थात् ब्रह्म प्राप्ति न वेदों में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से तथा न किसी क्रिया से हो सकती है। जब तीनों बच्चे युवा हो गए तब माता भवानी (प्रकृति, अष्टंगी) ने कहा कि तुम सागर मन्थन करो। प्रथम बार सागर मन्थन किया तो (ज्योति निरंजन ने अपने श्वांसों द्वारा चार वेद उत्पन्न किए। उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी कि सागर में निवास करो) चारों वेद निकले वह ब्रह्मा ने लिए। वस्तु लेकर तीनों बच्चे माता के पास आए तब माता ने कहा कि चारों वेदों को ब्रह्मा रखे व पढे। नोट:- वास्तव में पूर्णब्रह्म ने, ब्रह्म अर्थात काल को पाँच वेद प्रदान किए थे। लेकिन ब्रह्म ने केवल चार वेदों को प्र (at India) https://www.instagram.com/p/BvWIm-yBqi7/?utm_source=ig_tumblr_share&igshid=gdbs6p7mlnnk
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uttranews · 5 years ago
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आरटीई में दाखिले के लिए अब करना होगा आनलाइन रजिट्रेशन, इस तिथि​ से शुरू होगी प्रवेश प्रक्रिया, जानकारी के लिए पढ़े पूरी खबर
आरटीई में दाखिले के लिए अब करना होगा आनलाइन रजिट्रेशन, इस तिथि​ से शुरू होगी प्रवेश प्रक्रिया, जानकारी के लिए पढ़े पूरी खबर
अल्मोड़ा। राइट-टू-एजुकेशन (आरटीई) के तहत निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटों पर मुफ्त दाखिले की प्रक्रिया 21 दिसंबर से शुरू होगी। इस बार प्रवेश प्र​क्रिया आनलाइन होगी। जिसमें निजी स्कूलों व छात्र—छात्राओं को आनलाइन पंजीकरण करना अनिवार्य होगा। इसके बाद निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रवेश प्रक्रिया चलेगी।
निजी विद्यालयों में पढ़ने के इच्छुक आर्थिक व कमजोर तबके के बच्चों के लिए शिक्षा का…
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bhaskarhindinews · 6 years ago
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Jaitley in US for cancer treatment, May Not be Back for Budget
कैंसर इलाज के लिए अमेरिका गए वित्त मंत्री जेटली, नहीं कर पाएंगे बजट पेश
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NEWS HIGHLIGHTS
1 फरवरी को अंतरिम बजट किया जाना है पेश
सॉफ्ट टिश्यू सरकोमा नामक कैंसर की जानकारी
हाल ही में मंत्री जेटली की किडनी ट्रांसप्लांट हुई थी
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कैंसर से पीड़ित हैं। इसके इलाज के लिए वे अमेरिका गए हैं। खुद वित्त मंत्री ने ही आधिकारिक तौर पर यह जानकारी दी है कि वह दो हफ्ते के लिए निजी छुट्टी पर न्यूयॉर्क जा रहे हैं। ऐसे में यह संभावना कम ही है कि वे अंतरिम बजट पेश होने तक लौट सकें। बता दें कि 1 फरवरी को अंतरिम बजट पेश किया जाना है। लोकसभा चुनाव से पहले पेश किए जाने वाला यह अंतरिम बजट सरकार के लिए काफी अहम माना जा रहा है। इसमें किसानों के लिए कई योजनाओं सहित म��त्वपूर्ण निर्णय लिए जा सकते हैं।
सूत्रों के अनुसार केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को सॉफ्ट टिश्यू सरकोमा नामक कैंसर होने की जानकारी का पता चला है। बताया जा रहा है कि वित्त मंत्री जेटली को जांघ में कैंसर वाला एक ट्यूमर है। जिसका इलाज जल्द से जल्द किया जाना जरूरी है। सूत्रों बताते हैं कि हाल ही में 66 वर्षीय जेटली की किडनी ट्रांसप्लांट की गई थी, ऐसे में यह सर्जरी काफी मुश्किल होगी। दरअसल कैंसर के इलाज के लिए होने वाली कीमोथीरैपी से किडनी पर जोर पड़ेगा। बताया जा रहा है कि इस प्र​क्रिया में काफी समय लगता है। जिसके चलते संभावना कम ही है कि वे अंतिम बजट के पेश होने तक भारत लौट सकें।
स्थिति साफ नहीं यहां बता दें कि पिछले साल जब वह किडनी ट्रांसप्लांट के लिए छुट्टी पर थे तब रेलवे और कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला था। फिलहाल यह स्थिति भी साफ नहीं हो सकी है कि जेटली की अनुपस्थिति में अंतरिम बजट कौन पेश करेगा। Source: Bhaskarhindi.com
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HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes
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HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes & GK Quesions, Study Material
HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes & GK Quesions, Study Material. Get HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes GK, Study Material from here. Click on given URL to download HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes & GK Quesions, Study Material. Get HTET-CTET-REET Child Development Psychology Notes GK.. किसको ‘बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है? – एडलर   शिक्षा का शाब्दिक अर्थ क्या है? – नेतृत्व देना   प्लेटो के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य किस तरह का विकास था? – व्यक्तित्व विकास   सतत् श्रेणी में आंकड़ों का व्यवस्थापन करने के लिए कौन-सा वर्गीकरण उपयोग में लाया जाता है? – संख्यात्मक   शिक्षण के क्रियात्मक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पाठ्यक्रम में किस पर जोर दिया जाता है? – क्रिया एवं प्रयोग   बालक की कमजोरी के क्षेत्रों का पता लगाने के लिए किसका प्रयोग किया जाता है? – निदानात्मक परीक्षण   मनोविज्ञान को आरम्भ में क्या कहा जाता था? – आत्मा का विज्ञान   थॉर्नडाइक ने अधिगम के कितने गौण नियम बताए हैं? – 5   किस नियम के अनुसार प्रतिभाशाली माता-पिता की सन्तान निम्न कोटि की होती है? – प्रत्यागमन का नियम   ‘बालकों के प्रयास की इच्छा जीवित रखिए।’ यह किसका कथन है? – जेम्स का
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बाल्यावस्था कौनसे वर्ष तक होती है? – 5-12 वर्ष तक   जीवन इतिहास विधि का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था? – टाइडमैन ने   शिक्षा क्या है? – जीवनपर्यन्त चलने वाली एक प्र​क्रिया   ‘Statistics’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से मानी जाती है? – लैटिन, जर्मन और इटैलियन   पाठ्यक्रम कैसा होना चाहिए? – शिक्षा-व्यवस्था, परीक्षा-प्रणाली और समाज एवं परिवेश के अनुरूप   संक्रिया-उत्पाद, त्रि-आयामी और प्रज्ञा-संरचना इनमें से गिलफार्ड ने कौन-सा बुद्धि सिद्धान्त किया? – उपरोक्त सभी   मनोविज्ञान के अन्तर्गत किसका अध्ययन किया जाता है? – अभिवृत्तियों, रुचियों और अभिक्षमताओं का   वुडवर्थ के अनुसार स्मृति के कितने अंग होते हैं? – 4   बालक के लिए खेल का महत्व क्या है? – शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास   ‘सीखना, विकास की प्रक्रिया है।’ यह किसका कथन है? – वुडवर्थ की
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किण्डरगार्टन शिक्षण पद्धति का विकास किसने किया? – फ्रोबेल ने   ‘शिक्षा’ और ‘मनोविज्ञान’ को जोड़ने वाली कड़ी कौन-सी है? – मानव व्यवहार   राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा का कार्य क्या है? – राष्ट्रीय एकता का विकास करना   ‘शिक्षा को मनुष्य और सम्पूर्ण समाज का निर्माण कर���ा चाहिए।’ यह किसका कथन है? – डॉ. राधाकृष्णन   बालकों के स्वभाव को समझने के लिए शिक्षकों को किसका अध्ययन करना चाहिए? – बाल मनोविज्ञान   बुद्धि-परीक्षणों का जनक किसको कहा जाता है? – बिने को   मनोविश्लेषण सम्प्रदाय की स्थापना करने का श्रेय किसका है? – सिगमण्ड फ्रॉयड   चिन्हों द्वारा सीखना सिद्धान्त किसके प्रतिपादक है? – टॉलमैन   खेल के पूर्व अभिनय सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया था? – मालब्रेन्स   गेस्टाल्टवादियों ने अधिगम का कौन-सा सिद्धान्त दिया? – अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त
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‘परिवर्तन की अवस्था’ किसको कहा गया है? – किशोरावस्था को मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला कब स्थापित हुई थी? – 1879-जर्मनी   ‘शिक्षा ही राष्ट्रीय एकता का आधार है’ यह कथन किसका है? – जवाहरलाल नेहरू   प्रतिभाशाली बालकों में किस अवस्था के लक्षण शीघ्र दृष्टिगोचर होते हैं? – ​किशोरावस्था के   बाल मनोविज्ञान में किसका अध्ययन किया जाता है? – बालक के जन्म के पूर्व गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक का   टर्मन के अनुसार सामान्य बुद्धि कितनी होती है? – 90-110   कार्ल सी. गैरीसन ने किस विधि का अध्ययन किया था? – लम्बात्मक विधि   ‘प्रेरणा’ शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ क्या है? – आन्तरिक उत्तेजना   ‘खेल-खेल’ में ज्ञान प्रदान करने की पद्धति कौन-सी है? – मॉण्टेसरी   ‘सीखने के सफल अनुभव अधिक सीखने की प्रेरणा देते हैं’ किसका कथन है? – फ्रैंडसन
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जीवन के किस काल को तूफान तथा संघर��ष की अवस्था कहा जाता है? – किशोरावस्था को   बुद्धि की अवधारणा को समझाने हेतु गिलफोर्ड ने किस अवधारणा का प्रयोग किया था? – कन्टेन्ट, प्रॉडक्ट और ऑपरेशन   राष्ट्रीय एकता का प्रमुख आधार क्या है? – शिक्षा   अन्धे बालक किस लिपि के द्वारा पढ़ सकते हैं? – ब्रेल लिपि   बालक के सामाजिकता का परीक्षण किस विधि द्वारा किया जाता है? – समाजमिति ​विधि   बुद्धि का द्वि-तत्व सिद्धान्त किसने दिया? – स्पीयरमैन   शिक्षक की सफलता का रहस्य क्या है? – मनोविज्ञान का ज्ञान   ‘बुद्धि, कार्य करने की एक विधि है।’ यह किसका कथन है? – वुडवर्थ   ‘खेल प्रणाली’ का जन्मदाता कौन है? – फ्रोबेल   ‘करके सीखना’ किस अवस्था के लिए उपयुक्त होता है? – शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था   जीवन की किस अवस्था को सुखद वर्षा तथा प्रकाश की अवस्था कहा जाता है? – किशोरावस्था को   Join Whats App Group
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thekitabwala-blog · 7 years ago
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आरएएस भर्ती 2016 : चयन प्र क्रिया निरस्त, प्री-एग्जाम का रिजल्ट दोबारा घोषित होगा
आरएएस भर्ती 2016 : चयन प्र क्रिया निरस्त, प्री-एग्जाम का रिजल्ट दोबारा घोषित होगा
आरएएस भर्ती 2016 : चयन प्र क्रिया निरस्त, प्री-एग्जाम का रिजल्ट दोबारा घोषित होगा  अमर उजाला
आरएएस-2016 मुख्य परीक्षा परिणाम रद्द, प्री का रिजल्ट पुन: जारी करने के निर्देश  Patrika
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uttranews · 5 years ago
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आरटीई में दाखिले के लिए अब करना होगा आनलाइन आवेदन, इस तिथि​ से शुरू होगी प्रवेश प्रक्रिया, जानकारी के लिए पढ़े पूरी खबर
आरटीई में दाखिले के लिए अब करना होगा आनलाइन आवेदन, इस तिथि​ से शुरू होगी प्रवेश प्रक्रिया, जानकारी के लिए पढ़े पूरी खबर
अल्मोड़ा। राइट-टू-एजुकेशन (आरटीई) के तहत निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटों पर मुफ्त दाखिले की प्रक्रिया 21 दिसंबर से शुरू होगी। इस बार प्रवेश प्र​क्रिया आनलाइन होगी। जिसमें निजी स्कूलों व छात्र—छात्राओं को आनलाइन पंजीकरण करना अनिवार्य होगा। जिसके बार निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रवेश प्रक्रिया चलेगी।
निजी विद्यालयों में पढ़ने के इच्छुक आर्थिक व कमजोर तबके के बच्चों के लिए शिक्षा का…
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