#पुल पर चढ़ा पानी
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सड़क पर सैलाब: मूसलाधार बारिश से तबाही का मंजर, 48 घंटे से बिजली गुल, पुल के ऊपर से बह रही नदी
सड़क पर सैलाब: मूसलाधार बारिश से तबाही का मंजर, 48 घंटे से बिजली गुल, पुल के ऊपर से बह रही नदी
सुमन भट्टाचार्य जामताड़ा. झारखंड के जामताड़ा जिले में चक्रवाती तूफान गुलाब के कारण लगातार बारिश हो रही है. इसके कारण शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों का जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया है. आमलोगों का जीवन ठहर सा गया है. लगातार तेज बारिश के कारण लोग कहीं न तो जा पा रहे हैं और न ही दूसरी जगहों से लोग आ पा रहे हैं. बुधवार देर शाम से शुरू हुई बारिश लगातार जारी है. इसके कारण कई संपर्क मार्ग कट गए हैं.…
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बिहार: हायाघाट के पास रेल ब्रिज को छूने लगा बाढ़ का पानी, दरभंगा-समस्तीपुर रेल रूट तत्काल बंद
बिहार: हायाघाट के पास रेल ब्रिज को छूने लगा बाढ़ का पानी, दरभंगा-समस्तीपुर रेल रूट तत्काल बंद
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दरभंगा-समस्तीपुर रेल रुट पर हयाघाट के पास रेल पुल पर पानी चढ़ा. कमला नदी (Kamala River) उफान पर है, जिसके चलते हायाघाट और थलवारा के बीच रेल पुल (Rail bridge) पर पानी चढ़ गया है. रेलवे प्रशासन ने एहतियातन दरभंगा-समस्तीपुर के बीच रेल रूट बंद कर…
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यहां हर सामान कागज के लिफाफे में ही दिया जाता है। आइसक्रीम, चॉकलेट अगर आप वहीं खोलते हैं, तो दुकानदार खुद आपसे उसका रैपर लेकर कूड़ेदान में डाल देता है।
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सुदूर उत्तर पूर्व का सिक्किम राज्य अपने सौंदर्य ही नहीं, स्वच्छता के संस्कार और नागरिक जागरुकता में भी आकर्षित करता है। महात्मा गांधी रोड पर लगी गांधी जी की बड़ी सी प्रतिमा जैसे हर आने-जाने वाले को इन घुमावदार रास्तों को स्वच्छ बनाए रखने के संस्कार सौंप रही है...एक व्यस्त सड़क जिस पर सैकड़ों गाडि़यां आ जा रही हैं तभी सिग्नल लाल होता है और हर गाड़ी बिलकुल एक के पीछे एक खड़ी हो, बिना हॉर्न बजाये तो इसे देख कर कौन अभिभूत नहीं होगा?
जी हां, यह है सिक्किम की राजधानी गंगटोक। धूल धुंए रहित, बिना शोर-शराबे का एक शांत पहाड़ी शहर। यहां हिन्दू और बौद्ध लोग बहुतायत में हैं। मिलनसार स्थानीय लोगों से बात करके मालूम हुआ कि यहां पब्लिक प्लेस पर हॉर्न बजाना और सिगरेट पीना मना है। पर लिकर (शराब) कोई भी, कभी भी, कहीं भी पी सकता है। ज्यादातर लोग पर्यटन पर निर्भर हैं। सिक्किम के चार जिलों में से गंगटोक पूर्वी जिला है। माल रोड यानी एमजी रोड पर ��हात्मा गांधी की बड़ी सी प्रतिमा है। जिसके लिए पत्थरों को बड़ा सा चौक बनाया गया है। इस रोड के दोनों तरफ सुसज्जित दुकानें और कई नई-पुरानी जगमगाती इमारतें हैं। बीच में डिवाइडर पर हरियाली बैठने के लिये बैंच और हर पचास मीटर पर डस्टबिन रखे दिखते हैं।
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माल रोड के शुरुआत में ही टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर है जहां से घूमने के लिए जानकारी जुटाई जा सकती है। इसी रोड पर दो वेज रेस्टॉरेंट हैं जो शाकाहारी लोगो के लिए बड़ी राहत हैं। एमजी रोड के लगभग आखिर में थोड़ा नीचे उतर कर लाल बाजार है। जगह की कमी के बावजूद दुकानें और उनके आगे के फुटपाथ सामानों से भरे दिखते हैं। यहां पॉलीथिन बैग पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। यहां हर सामान कागज के लिफाफे में ही दिया जाता है। आइसक्रीम, चॉकलेट अगर आप वहीं खोलते हैं, तो दुकानदार खुद आपसे उसका रैपर लेकर कूड़ेदान में डाल देता है। सिक्किम में हर नागरिक अपने शहर, अपने राच्य की साफ-सफाई के लिये खुद को जिम्मेदार मानता है यह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। रात के आठ बजते-बजते यह साफ-सुथरा बाजार बंद होने लगता है।
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जागरुक नागरिकों की राजधानी गंगटोक में एक दिन के स्थानीय टूर में सात या ग्यारह प्वाइंट घुमाये जाते हैं। इनमें व्यू प्वाइंट गणेश टोंक मंदिर और कुछ वाटर फॉल हैं। एमजी रोड के आसपास होटल काफी महंगे हैं पर जैसे-जैसे शहर से दूर होते जाएंगे, कम किराये में भी ठहरने की अच्छी जगह मिल जाएगी। टैक्सी हालांकि थोड़ी महंगी लगती हैं पर जिस तरह की चढ़ाई और घुमावदार सड़कों पर चलती हैं उतना पैदल चलना भी आसान नहीं है। नाथुला पास भारत चाइना बॉर्डर पूर्व सिक्किम गंगटोक जिले में गंगटोक से 80 किलो मीटर दूर लगभग 14740 फीट की ऊंचाई पर है। यहां जाने के लिये शेयर्ड और प्राइवेट दोनों तरह की टैक्सी मिलती है। लगभग हर होटल में मौजूद टूरिस्ट एजेंसी के एजेंट इन्हें बुक करते हैं। नाथुला पास जाने के लिए पहले परमिट बनवाना पड़ता है। इसके लिए बुकिंग के साथ ही दो फोटो और पहचान पत्र की एक कॉपी देना होती है।
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पहाड़ों और खाइयों का सफर शहरी सीमा पार करते ही गाड़ी खुले पहाड़ी रास्ते पर बढ़ चलती है। एक ओर आसमान में फक्र से सिर उठाये ऊंचे पहाड़, तो दूसरी ओर अपनी विनम्रता की मिसाल देती गहरी खाईयां। ऊंचाई से गिरते पहाड़ी झरने अपनी ओर ललचाते हैं। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते हैं पानी की बोतल और खाने-पीने का सामान महंगा होता जाता है। सड़क किनारे जो झरने बहुत पास दिखते हैं उन तक पहुंचना आसान नहीं है। स्थानीय लोग इन झरनों के आसपास सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं क्योंकि यही उनके लिए पानी का स्त्रोत हैं। पूरे सिक्किम में पेड टॉयलेट हर जगह हैं। उसके अलावा कहीं गाड़ी रोकने से ड्राइवर मना कर देते हैं। अपने टूरिस्ट की बात के ऊपर अपने प्रदेश की साफ-सफाई को तरजीह देना बहुत बड़ी बात हैं।
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वैसे अपवाद सभी जगह देखने को मिलते हैं वही आदत से लाचार लोग। जवानों की सुरक्षा में साफ-सुथरी सड़कें, नीला आसमान, मिलिट्री एरिया की सुरक्षा मन मचल ही जाता है पैदल चलने को। रास्ते में कई जगह सेना के कैंप हैं जहां फोटोग्राफी निषिद्ध है। परमिट चेक करने के लिए गाडिय़ों को थोड़ी ज्यादा देर रुकना पड़ता है। पहाड़ों के बीच जहां भी थोड़ी जगह थी वहां टीन के शेड और बैरक बने थे। गाडिय़ां हथियार से लैस। कई जगह रास्ते में बोर्ड लगे थे चीनी निगरानी क्षेत्र। गलबंद गरम कपड़ों से लैस जवान मुस्तैदी से अपने काम में जुटे थे। लगातार ठंडी हवाओं ने चेहरे की त्वचा को झुलसा कर काला कर दिया था, लेकिन ड्यूटी के आगे इसकी चिंता किसे है?
यात्रा का पहला पड़ाव था छंगू लेक (झील) जो 14310 फीट की ऊंचाई पर है। पहाड़ों से घिरी इस प्राकृतिक झील को जगह देने के लिए यहां पहाड़ भी पीछे खिसक गए हैं। इतनी ऊंचाई पर पहाड़ों पर वनस्पति कम होने लगी थी। झील में मछलियां हैं पर 51 फीट गहरी यह झील सर्दियों में पूरी तरह जम जाती है। यहां सजे-धजे याक लिये स्थानीय निवासी याक पर फोटो खिंचवाने का आग्रह करते हैं। आगे ऊपर बढ़ते हुए बार- बार झील दिखती है। साफ-सुथरे स्थिर पानी पर पहाड़ों का प्रतिबिम्ब मन मोह लेता है। पचास साठ फीट ऊपर से भी उथली सतह के पत्थर दिखते हैं। तब अनछुई प्रकृति की सुंदरता गहराई से महसूस होती है। दो देशों के दरमियान नाथुला पास करीब आ रहा था ठण्ड बढ़ने लगी थी गाड़ी में भी हाथ में मोबाइल और कैमरे की अनुमति नहीं थी। पास के करीब हर मोड़ पर चार बाय चार के केबिन के बाहर मुस्तैदी से मशीनगन थामे जवान खड़े थे। संभवत: लोगों को फोटो खींचने से रोकने के लिए यह तैनाती थी। यह इलाका चीनी निगरानी क्षेत्र में आता है, इसलिए यह सावधानी जरूरी है। पार्किंग से लगभग ढाई तीन सौ फीट चल कर बार्डर है। यहां ठंड बहुत ब��़ जाती है और हवा में ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है।
हमें अधिकतम एक घण्टे ही रुकने की अनुमति थी वरना तबियत खराब होने का डर था। कई महिलाएं और बच्चे हांफ रहे थे। कई अपर्याप्त गरम कपड़ों में थे, तो कइयों ने पर्याप्त कपड़ों के बावजूद उन्हें ठीक से नहीं पहना था। जैकेट की जिप खुली थी। सिर नहीं ढका था और मुंह पर स्कार्फ भी नहीं लपेटा था। सांस लेने में तकलीफ के बावजूद लोग बच्चों को चढ़ा रहे थे। जहां दोनो देशों के दरवाजे हैं उनके बीच महज पंद्रह-बीस फीट की दूरी है। इसे देखने के लिए खुली टैरेस जैसी जगह है। टैरेस पर दीवार ऐसी है जैसे दो छतों के बीच दीवार होती है। दो जवान दुश्मन देश पर ऩजर रखे थे, तो पांच-छह जवान भारतीय पर्यटकों पर ऩजर रखे थे। जिस ठण्ड में हम बमुश्किल घूम पा रहे थे और एक घंटे बाद वापस चले जाने वाले थे वहां उन जवानों की लोगों से बहस मशक्कत देख सिर शर्म से झुक गया। सिविलियन को सिविक सेन्स सीखने की बहुत जरूरत है। सिर्फ महंगे कपड़े, जूते गाडिय़ां इस्तेमाल करने से ही सभ्य नहीं कहलाया जा सकता। चाइना बॉर्डर में खामोशी छाई थी। उस तरफ कभी-कभी ही पर्यटक आते हैं। इस तरफ पर्यटकों की सुविधा के लिए सेना ने मेडिकल हेल्प और कैंटीन के दो टैंट बनाये हुए हैं। कैंटीन में गरमा गरम कॉफी समोसे और मोमोज का आनंद लिया जा सकता है।
इसके बाद अगला पड़ाव है बाबा मंदिर। बाबा हरभजन सेना में थे, जो रसद ले जाते हुए पहाड़ी झरने में बह गए थे और घटना स्थल से दो किलोमीटर दूर उनका शव मिला। कहते हैं उन्होंने अपने साथियों को सपने में दर्शन दे कर अपने शव ���ी स्थिति बताई थी। सेना ही मंदिर की व्यवस्था देखती है। यहां पास की एक पहाड़ी पर एक बड़ी सी शिव प्रतिमा स्थापित है जिसके पीछे बड़ा सा झरना बहता है। पहाड़ों में जो जगह बहुत पास दिखती हैं वह पहुँचने में बड़ी दूर होती हैं। मंत्रों की झंडियां पहाड़ों पर कई जगह रंगबिरंगी झंडियां दिखती हैं, जो बौद्ध मतावलंबी लगाते हैं। मंत्र लिखी ये झंडियां जब हवा में लहराती हैं, तो मान्यता है कि इन पर लिखे मंत्र हवाओं के साथ दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। एक पहाड़ पर एक कतार में सफ़ेद झंडे लगे थे। जब किसी की मृत्यु हो जाती है उसके नाम पर उसके परिवार वाले 108 सफेद झंडे लगाते हैं। इन पर लिखे मंत्र मृत आत्मा की शांति के लिये हैं। रंगीन झंडियां घर की शांति के लिए लगाई जाती हैं। बौद्ध धर्म में जीवन सरल है परंतु मरना बहुत मंहगा है। मरने के समय के अनुसार साइत देखी ��ाती है उसके अनुसार निर्णय होता है कि संस्कार कितने दिन बाद होगा। तीन, पांच, सात या ग्यारह दिन बाद या कभी-कभी तो महीने भर बाद। तब तक शव घर में रहता है बौद्ध भिक्षु को रोज बुलाकर मंत्र पाठ करवाया जाता है। दो से पांच सात भिक्षु रोज आते हैं। एक भिक्षु का एक दिन का खर्च दो से पांच हजार तक होता है। हां, शादी का खर्च च्यादा नहीं होता। शादी घर में या मोनेस्ट्री में हो जाती है। कोई जब तक साथ रहना चाहे ठीक है, नहीं तो अपना साथी बदल ले या अलग हो जाए।
दिसंबर में सिक्किम में बौद्ध उत्सव होता है जिसमे याक का गोश्त और वहाँ के अन्य व्यंजन बनते हैं। स्थानीय निवासी हिंदी, इंग्लिश, बंगाली और भूटिया भाषा बोलते और समझते हैं। रंगीन बिल्लियों का इलाकानार्थ सिक्किम के लिए पैकेज टूर तीन दिन और दो रातों का है। यहां भी परमिट बनवाकर प्राइवेट या शेयर्ड टैक्सी की सुविधा ली जा सकती है। जिसमें लाचेन और लाचुंग में रात्रि विश्राम है। यह बेहद खूबसूरत अनछुआ जिला है। विरल आबादी दूर-दूर बसे छोटे-छोटे गाँव, ऊंचे पहाड़ों के बीच से गुजरते रास्ते, घने जंगल और ढेर सारे झरने। हर मोड़ के बाद एक झरना, कांच सा स्वच्छ पानी और बस्तियों के पास के झरने के नीचे लगी पनचक्की जिससे बिजली बनती है। पहाड़ों पर पेड़ों के नीचे बमुश्किल साल के किसी दिन कुछ घंटों के लिए धूप पहुँचती होगी। जंगल में जानवर बहुत कम हैं। साँप नहीं हैं लेकिन बिल्लियां बहुत हैं। सड़कों के किनारे भूरी, सफेद, काली, पीली बिल्लियां दिख जाती हैं।
सड़कें ठीक हैं पर भूस्खलन के कारण लगातार काम चलता रहता है। कई जगह बड़े-बड़े पहाड़ ढहे मिले तो कहीं 2011 में आए भूकंप के निशान भी दिखे। पहाड़ों से गिरे पत्थरों को मजदूर महिलाएं हथौड़ी से तोड़ती दिखाई देती हैं। तीस्ता की लहरें लाचुंग से आगे युक्सूम में काफी दुकानें हैं, जहां बूट्स, दस्ताने किराये पर मिल जाते हैं। पैकेज टूर में शामिल चाय-नाश्ते के लिए हर गाड़ी की दुकान तय है। रास्ते से नीचे तीस्ता नदी बहती है। जैसे-जैसे ऊपर की और बढ़ते जाते हैं वनस्पति बदलती जाती है और फिर चारों तरफ सिर्फ क्रिसमस ट्री नजर आते हैं। भूकंप के कारण यहां सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। कई पहाड़ पूरी तरह धराशायी हो गये और तीस्ता नदी का रास्ता अवरुद्ध हो गया। जिससे उस पर एक झील बन गई। अब उस झील में बतखें आ गईं हैं जो पहले नहीं थीं। बत्तखों का आकर्षक समूह बताता है कि तबाही भी किसी ��े लिए आशियाना बना देती है।
यहां कई लोग अपने प्रोफेशनल कैमरे के साथ फोटो खींचते दिखे। यह क्षेत्र भारत तिब्बत पुलिस की निगरानी में है। जीरो प्वाइंट से आगे भी चाइना बॉर्डर है पर उससे काफी पहले ही लोगों को रोक दिया जाता है। एक मोड़ लेते ही बर्फ से ढंके पहाड़ दिखने लगते हैं। इतने नज़दीक इतने छोटे कि दौड़ कर ऊपर चढ़ने का मन होने लगे पर वे इतने छोटे भी नहीं थे। रात में गिरी धवल बर्फ सूरज की रोशनी के साथ एक अलौकिक नजारा पेश करती है। इसी के आगे तीस्ता नदी का उद्गम है। इसलिए यहां तीस्ता नदी छोटी पहाड़ी नदी जैसी थी लेकिन उसके प्रवाह के तेवर सचेत कर रहे थे। एक कच्चा पुल पार करके हम बर्फ पर पहुँच गये। साल भर बनी रहने वाली नमी के कारण जमीन मॉस (एक प्रकार की वनस्पति) से ढंकी रहती है जिसके कारण कीचड़ नहीं होता और इतनी आवाजाही के बावजूद भी बर्फ गंदी नहीं होती। जैसे जैसे बर्फ पर ऊपर चढ़ते जाते हैं ठंडी हवा तीखी होती जाती है उसके साथ ही आवाज़ की लहरें भी च्यादा सुनाई देने लगती हैं। जहां मन अटका रह जाता है दूसरे दिन ही रात तक लाचेन पहुंच जाते हैं। गुरुडोंगमर झील यहां का आकर्षण है, जहां पहुंचने के लिए डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है, जो रात तीन बजे शुरू होता है और दिन में ग्यारह बारह बजे तक वापसी।
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कड़ाके की सर्दी में रात का ये सफर कठिन जरूर है पर जब मंजिल पर पहुंचते हैं पहाड़ों के ऊपर नीले आसमान के प्रतिबिम्ब को समाहित किये इस अनूठे नज़ारे को देखते हैं, तो यात्रा का कष्ट छूमंतर हो जाता है। जो इतना कठिन सफर ना करना चाहे वह लाचेन में ही होटल में रुक सकता है। सुबह-सुबह गाँव लगभग खाली और शांत होता है। यहां किसी भी सड़क पर पैदल टहलना और मोनेस्ट्री में ��ांति से बैठना एक अद्भुत अनुभव है। नार्थ सिक्किम से वापसी एक उदासी से भर देती है। आप खुद तो लौट आते हैं पर आपका मन वहीं किसी झरने की फुहारों में भीगता किसी पहाड़ की चोटी पर अटका या किसी सड़क के मोड़ पर आपके फिर आने का इंतज़ार करता वहीं रह जाता है।
कैसे पहुंचे- करीबी एयरपोर्ट बगडोगरा अथावा रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी से प्राइवेट या शेयर्ड टैक्सी से गंगटोक पहुंचे।
दूरी- न्यू जलपाईगुड़ी से 120 किलोमीटर
समय- लगभग चार घंटे का रास्ता
ठहरने के लिए : शहर से दूर कम कीमत में कई होटल उपलब्ध।
खास बातें- पानी पीते रहें। नाश्ते में सत्तू, पॉपकॉर्न आदि हल्का भोजन लें। गरम कपड़े टोपा मफलर दस्ताने हमेशा साथ रखें। कपड़ों की कई लेयर पहनें। पहाड़ों पर रुकने वनस्पति छूने फूल तोड़ने के पहले ड्राइवर या स्थानीय लोगों से जानकारी जरूर लें, ये जहरीली या खतरनाक हो सकती हैं। मोनेस्ट्री, चर्च, मंदिर में शांति बनाये रखें।
कविता वर्मा
Posted By: Pratibha Kumari
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दिल्ली के किदवई नगर इलाके के पूर्वी छोर से एक बड़ा नाला गुजरता है। इसे कुशक नाला भी कहते हैं। 28 साल के अरुण इसी नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में पैदा हुए थे। अरुण जब छोटे थे तो इस इलाके में उनकी झुग्गी के इर्द-गिर्द ज़्यादा कुछ नहीं था।
यहां बना आयुष भवन हो, केंद्रीय सतर्कता आयोग का ऑफ़िस हो या एनबीसीसी की बहुमंजिला इमारतें, सब उनके देखते-देखते ही बने। बारापुला फ्लाइओवर को बने तो अभी कुछ ही साल हुए हैं जो उनकी झुग्गी बस्ती के ठीक ऊपर किसी सीमेंट के इंद्रधनुष की तरह उग आया है।
अरुण जैसे-जैसे बड़े हुए, उनके आस-पास का हरा-भरा इलाका कंक्रीट के जंगल में बदलता गया और उनकी झुग्गी बस्ती लगातार इसके बीच सिमटती चली गई। बचपन में वे झुग्गी के पास के जिन खाली मैदानों और पार्कों में खेला करते थे, वहां अब आलीशान कॉलोनियां बन चुकी हैं। इनमें हर समय निजी सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं और निगरानी रखते हैं कि झुग्गी के बच्चे कॉलोनी के पार्क में खेलने न चले आएं।
इस झुग्गी बस्ती के अधिकतर लोग मजदूर हैं, मिस्त्री हैं या पुताई का काम करते हैं। आस-पास बनी तमाम बड़ी-बड़ी इमारतों को इन्हीं लोगों ने अपनी मेहनत और पसीने से सींच कर खड़ा किया है। लेकिन जैसे-जैसे ये सुंदर इमारतें बनती गई, इन लोगों के लिए अपनी झुग्गी बचाए रखना भी मुश्किल होता गया। शहर के सौंदर्यीकरण में इनकी झुग्गियां बट्टा लगाती थी लिहाज़ा इन्हें हटा लेने का दबाव लगातार बढ़ने लगा।
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं ��िनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से ज्यादा है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं।
21वीं सदी शुरू होते-होते ये दबाव बेहद बढ़ गया। भारत को राष्ट्रमंडल खेलों का मेज़बान बनना था और इसके लिए दिल्ली को दुल्हन की सजाना शुरू हुआ। इस सजावट में झुग्गियां बड़ा रोड़ा बन रही थी लिहाज़ा एक-एक कर कई झुग्गियां गिराई जाने लगी।
अरुण बताते हैं, ‘कुछ झुग्गी वालों का पुनर्वास हुआ और बाकी सबको बिना किसी पुनर्वास के ही उजाड़ दिया गया। हमें भी कह दिया गया था कि दिल्ली छोड़ कर चले जाओ।’
इसी झुग्गी के रहने वाले 60 वर्षीय महेंद्र दास याद करते हैं, ‘उस वक्त शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हुआ करती थी। हम उसके पैरों में गिर गए थे और बहुत गिड़गिड़ाए थे कि हमारे घर मत उजाड़ो। लेकिन, उसने हमारी एक न सुनी और पूरी बस्ती पर बुलडोजर चढ़ा दिया। कई साल से जोड़-जोड़ जो बनाया था वो एक ही बार में रौंद दिया गया। कई रात हम अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर सोए।’
वक्त बीता तो महेंद्र दास और उनकी झुग्गी वालों के घाव भी धीरे-धीरे भरने लगे। इन लोगों ने उसी नाले के किनारे एक बार फिर अपना आशियाना बसा लिया, जहां से इन्हें उखाड़ दिया गया था।
महेंद्र की पत्नी गीता दास कहती हैं, ‘झुग्गी में कौन रहना चाहता है? यहां बहुत दिक्कत होती है। बरसात में नाले का सारा गंदा पानी हमारे घरों में भर जाता है। जब से ये बारापुला बना है, दिक्कत और भी बढ़ गई है। रात में कई बार शराबी इस पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं और कूड़ा-कचरा-बियर की बोतलें हमारे ऊपर फेंकते हैं। लेकिन, यहां कम से कम हमारे सर पर छत है इसलिए झुग्गी में रहते हैं।’
ऐसी नारकीय स्थिति में जीने को मजबूर इन झुग्गी वालों के लिए बीता साल कुछ खुशियां लेकर आया। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी डूसिब ने तय किया कि इन लोगों का पुनर्वास होगा और इन्हें झुग्गी के बदले फ्लैट आवंटित किए जाएंगे। इसके लिए झुग्गियों का सर्वे किया गया और लोगों से पुनर्वास की रक़म भी जमा करवाई गई। अनुसूचित जाति के लिए 31 हजार रुपए और सामान्य वर्ग के लिए एक लाख 42 हजार की रक़म तय की गई।
इस झुग्गी के लगभग सभी लोग यह रक़म जमा कर चुके हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जब आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इन लोगों मन में कई सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल इसलिए भी मज़बूत होते हैं क्योंकि दिल्ली में हजारों लोग ऐसे भी हैं जो बीते 12-13 साल से पुनर्वास की राह द���ख रहे हैं और जिनका पुनर्वास अदालत की फाइलों में कहीं उलझ कर रह गया है। राजेंद्र पासवान ऐसे ही एक व्यक्ति हैं।
राजेंद्र राजघाट के पीछे यमुना किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहा करते थे। साल 2007 में जब यह झुग्गी बस्ती गिराई गई तो इन लोगों से पुनर्वास का वादा किया गया। इसके लिए राजेंद्र पासवान ने उस दौर में 14 हजार रुपए का भुगतान भी किया और जमीन आवंटित होने का इंतजार करने लगे। उनका ये इंतजार आज तक ख़त्म नहीं हुआ है। उनके साथ ही उस बस्ती के क़रीब नौ सौ अन्य परिवार भी इसी इंतजार में बीते 13 सालों से आस लगाए बैठे हैं।
झुग्गी के लोग शहर में ही मजदूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
डूसिब के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कुल 45,857 ऐसे फ्लैट या तो बन चुके हैं या दिसम्बर 2021 तक बनकर तैयार हो जाएंगे, जिनमें झुग्गी बस्ती के लोगों को बसाया जाना है। इनमें से अधिकतर फ्लैट राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ही बनाए गए थे जब तेजी से दिल्ली की झुग्गियां गिराई जा रही थी। लेकिन, इतने फ्लैट होने के बावजूद भी राजेंद्र पासवान जैसे लोगों को पुनर्वास के लिए सालों-साल इंतजार क्यों पड़ रहा है?
इस सवाल के जवाब में डूसिब के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास में कई अलग-अलग विभागों की भूमिका होती है। डूसिब भले ही पुनर्वास के लिए नोडल एजेंसी है लेकिन इसके अलावा रेलवे, डीडीए और दिल्ली कैंटोनमेंट बोर्ड जैसी केंद्रीय एजेंसियों की भी अहम भूमिका होती है। नियम ये है कि जिसकी जमीन पर झुग्गियां हैं उसी एजेंसी को पुनर्वास के लिए भुगतान करना होता है।’
ये अधिकारी आगे कहते हैं, ‘प्रत्येक झुग्गी के पुनर्वास में साढ़े सात लाख से लेकर साढ़े 11 लाख रुपए तक का खर्च होता है। फ्लैट तो बने हैं लेकिन जब तक कोई एजेंसी ये रक़म नहीं चुकाती, फ्लैट आवंटित नहीं हो सकते। इसीलिए कई मामलों में सालों-साल तक यह प्रक्रिया लटकी ही रह जाती है।’
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से अधिक बताई जाती है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं। मसलन रेलवे, रक्षा मंत्रालय और डीडीए की जमीनों पर। इनके अलावा 25 % झुग्गियां दिल्ली सरकार की जमीनों पर हैं।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के पुनर्वास की 75% जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है जिनकी जमीनों पर 75% झुग्गियां हैं। डूसिब के अधिकारी दावा करते हैं कि बीते पांच सालों में उन्होंने 15 झुग्गी बस्तियों का पुनर्वास सफलता से कर दिया है। लेकिन झुग्गियों के पुनर्वास के ये कथित सफल प्रयोग दिल्ली में खोजने से भी नहीं मिलते।
सामाजिक कार्यकर्ता और झुग्गी बस्ती वालों के लिए मज़बूती से आवाज़ उठाने वाले दुनू रॉय बताते हैं, ‘सरकार की पुनर्वास नीति में बहुत ज़्यादा खामियां हैं इसलिए ये पुनर्वास कभी सफल नहीं हो पाता।’ वे कहते हैं, ‘झुग्गी के लोगों के लिए अपनी झुग्गी सिर्फ़ रहने का ही नहीं बल्कि काम का भी ठिकाना होती है। झुग्गी बस्ती में लोग अपनी दहलीज़ और गलियों में ही छोटे-छोटे कई काम क��ते हैं।
लेकिन फ्लैट में न तो दहलीज़ का इस्तेमाल हो सकता है और न गलियारों का। ऊपर से ये फ्लैट इतने छोटे होते हैं कि इनमें किसी का भी गुज़ारा नहीं हो सकता। ये फ्लैट बनाए भी शहर से दूर गए हैं इसलिए भी यहां लोग रहना पसंद नहीं करते क्योंकि वहां उनके लिए खाने-कमाने के कोई साधन ही नहीं है।’
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया है।
दुनू रॉय सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि सरकारें भी नहीं चाहती कि ये झुग्गी वाले ठीक से बस जाएं। क्योंकि, अगर ये अच्छे से बस गए तो सस्ता श्रम जो इनसे मिलता है, वो कहां से आएगा। झुग्गी के लोग शहर में ही मज़दूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
ये लोग शहर से दूर कैसे रह सकते हैं। इसलिए जिन्हें फ्लैट मिलते भी हैं वो इसे बेचने को मजबूर हो जाते हैं। बिल्डर इन झुग्गी वालों से सस्ते दामों पर ये फ्लैट ख़रीद लेते हैं और फिर तीन-चार फ्लैट को मिलाकर एक रहने लायक़ फ्लैट तैयार करके उसे महंगे दामों पर बेच देते हैं।
दिल्ली में क़रीब 45 हजार फ्लैट बन जाने के बाद भी उनमें झुग्गी वालों को नहीं बसाया जा सका है। उसका एक बड़ा कारण इनकी शहर से दूरी भी है। इसे ही देखते हुए साल 2015 में दिल्ली सरकार ने पुनर्वास नीति में बदलाव किया था। इस नीति में तय हुआ है कि अब झुग्गी वालों का पुनर्वास झुग्गी के पांच किलोमीटर के दायरे में ही किया जाएगा।
इस नियम को काफ़ी प्रभावशाली तो माना जा रहा है लेकिन ये धरातल पर उतर पाएगा, इसका यक़ीन फ़िलहाल कम ही लोगों को है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया था।
लेकिन, सोमवार को एक प्रेस नोट जारी करते हुए उत्तर रेलवे ने कहा है कि उनके अधिकारी लगातार दिल्ली और केंद्र सरकार के संबंधित विभागों से चर्चा कर रहे हैं और जब तक कोई ठोस फैसला नहीं ले लिए जाता तब तक ये झुग्गियां नहीं तोड़ी जाएँगी। ये सूचना रेलवे लाइन के पास बसे 48 हजार झुग्गी वालों के लिए थोड़ी राहत लेकर आई है।
लेकिन, इसके बावजूद भी झुग्गी वालों के पिछले अनुभव उन्हें परेशान होने के कई कारण दे देते हैं। महेंद्र दास जैसे सैकड़ों लोग बिना किसी पुनर्वास के झुग्गी टूटने का दर्द पहले भी झेल चुके हैं और राजेंद्र पासवान जैसे सैकड़ों अन्य लोग झुग्गी टूटने के 13 साल बाद भी पुनर्वास की बाट जोहते जिंदगी बिता रहे हैं। ऐसे में इन लोगों में स्वाभाविक डर है कि जब 12-13 साल पहले अपनी झुग्गियां खाली कर चुके लोगों का ही पुनर्वास अब तक पूरा नहीं हुआ तो इनका पुनर्वास कैसे और कब तक हो सकेगा।
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People say, standing on the drunken bridge in the night, making indecent gestures to girls, urinating on our slums.
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