#पंजाब की कांग्रेस सरकार
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upkiran · 4 days ago
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पंजाब की नई आबकारी नीति 2025: शराब ठेकों की नीलामी प्रक्रिया और बड़े बदलाव
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Punjab New Excise Policy: पंजाब सरकार ने नई आबकारी नीति को मंजूरी दे दी है, जिससे राज्य के राजस्व में वृद्धि की उम्मीद है। इस नीति के तहत सरकार ने 11,200 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाने का लक्ष्य रखा है।
कैसे होगी शराब ठेकों की नीलामी?
इस बार शराब के ठेके ई-टेंडरिंग प्रक्रिया के माध्यम से आवंटित किए जाएंगे, जिससे पारदर्शिता बनी रहेगी। वित्त मंत्री हरपाल चीमा के अनुसार, 2022 में जब कांग्रेस सरकार सत्ता में थी, तब यह लक्ष्य 6,100 करोड़ रुपये था, जबकि 2024 में इसे बढ़ाकर 10,850 करोड़ रुपये किया गया। वर्तमान में सरकार ��ो 10,200 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ है, और इस बार 11,020 करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा गया है।
नई नीति में क्या बदलाव किए गए हैं?
✅ समूहों की संख्या: अब कुल 207 समूह होंगे। ✅ स्वदेशी कोटा वृद्धि: स्वदेशी शराब का कोटा 3% बढ़ा दिया गया है। ✅ फार्म हाउस शराब लाइसेंस: अब एक लाइसेंस के तहत 12 की बजाय 36 बोतल शराब स्टोर करने की अनुमति होगी। ✅ बॉटलिंग प्लांट: लंबे समय से लंबित अनुमति को अब मंजूरी दी गई है, जिससे नए बॉटलिंग प्लांट स्थापित किए जा सकेंगे। ✅ नई आबकारी पुलिस थाने: कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए नए आबकारी पुलिस थाने खोले जाएंगे और इसके लिए एक विशेष समिति गठित की जाएगी। ✅ आईएमएफएल (IMFL) कोटा: खुला कोटा लागू किया गया है।
बीयर की दुकानों के लिए राहत
बियर शॉप लाइसेंस की फीस में बड़ी कटौती की गई है। पहले जहां यह फीस 2 लाख रुपये थी, अब इसे घटाकर 25,000 रुपये प्रति लाइसेंस कर दिया गया है। इससे लाइसेंस धारकों को 1.75 लाख रुपये की बचत होगी, जिससे अधिक लोग इस क्षेत्र में व्यापार करने के लिए प्रेरित होंगे।
निष्कर्ष
पंजाब सरकार की नई आबकारी नीति 2025 से न केवल राज्य के राजस्व में वृद्धि होगी, बल्कि ठेकों की नीलामी प्रक्रिया में भी पारदर्शिता आएगी। नई नीतियों के तहत बॉटलिंग प्लांट खोलने की अनुमति, स्वदेशी कोटा बढ़ोतरी, और बीयर लाइसेंस फीस में कटौती जैसे फैसले शराब व्यापार से जुड़े कारोबारियों को राहत देंगे।
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newsliveindia45 · 4 days ago
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नेशनल एग्रिकल्चर पॉलिसी पर पंजाब विधानसभा में विरोध: AAP और कांग्रेस ने मिलकर पारित किया निंदा प्रस्ताव
पंजाब विधानसभा में केंद्र सरकार की नेशनल एग्रिकल्चर पॉलिसी के खिलाफ कड़ा विरोध देखने को मिला। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इस नीति को किसान विरोधी बताते हुए तीखा हमला बोला। इस मुद्दे पर आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस के विधायक एकजुट नजर आए और ध्वनिमत से निंदा प्रस्ताव पारित किया।
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kssingh · 7 days ago
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यदि 2025 के दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की हार की कल्पना की जाए, तो इसके पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
### 1. **शासन और प्रदर्शन से जुड़ी समस्याएं**     - **अधूरे वादे**: स्कूलों, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार या बिजली-पानी के सस्ते दाम जैसे वादों को पूरा न कर पाने से जनता का भरोसा टूट सकता है। वायु प्रदूषण, पानी की कमी, या झुग्गी बस्तियों जैसी समस्याएं बढ़ने से नाराज़गी बढ़ सकती है।     - **भ्रष्टाचार के आरोप**: मोहल्ला क्लीनिक या शिक्षा सुधार जैसी योजनाओं में वित्तीय अनियमितता के आरोपों से आप की "भ्रष्टाचार विरोधी" छवि धूमिल हो सकती है।     - **शहरी ढांचागत समस्याएं**: यातायात, सार्वजनिक परिवहन, या अवैध कॉलोनियों के मुद्दों पर नाकामी से मध्यम वर्ग और प्रवासी मतदाता नाराज़ हो सकते हैं। 
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### 2. **नेतृत्व संबंधी चुनौतियाँ**     - **कीर्तिविलासन की छवि को नुकसान**: अरविंद केजरीवाल का राष्ट्रीय राजनीति (जैसे पंजाब या गुजरात) पर ज़्यादा ध्यान या स्वास्थ्य समस्याओं के कारण स्थानीय जुड़ाव कमजोर हो सकता है। केंद्रीय एजेंसियों (ED/CBI) के साथ टकराव से उनकी छवि "विवादास्पद" बन सकती है।     - **दूसरी पंक्ति के नेताओं की कमी**: केजरीवाल पर अत्यधिक निर्भरता और स्थानीय नेतृत्व विकसित न कर पाने से जमीनी स्तर पर प्रभाव कमजोर हो सकता है। 
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### 3. **सत्ता के प्रति असंतोष (एंटी-इनकम्बेंसी)**     - **मतदाता थकान**: 2015 से लगातार सत्ता में रहने के बाद आप के प्रति मतदाताओं में उदासीनता आ सकती है, खासकर यदि उन्हें लगे कि पार्टी अपने वादों से भटक गई है। 
### 4. **विरोधी दलों की रणनीति**     - **भाजपा का जमीनी अभियान**: हिंदुत्व, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भाजपा का एकजुट अभियान, या पंजाबी और पूर्वांचली समुदाय के नेताओं को साथ लेकर हिंदू वोटों को एकजुट करना।     - **कांग्रेस का पुनरुत्थान**: अल्पसंख्यक और आप से निराश मतदाताओं को लुभाकर कांग्रेस का वोट बँटवारा।     - **गठबंधन की राजनीति**: विरोधी दलों का आप के खिलाफ एकजुट होना (हालांकि दिल्ली में यह संभावना कम है)। 
### 5. **सामाजिक-आर्थिक कारक**     - **आर्थिक संकट**: महंगाई, बेरोजगारी, या असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर प्रभाव से मतदाता विरोधी दलों के वादों की ओर मुड़ सकते हैं।     - **ध्रुवीकरण**: भाजपा द्वारा CAA, धार्मिक विवाद जैसे मुद्दों पर चुनावी एजेंडा बदलकर स्थानीय मुद्दों से ध्यान भटकाना। 
### 6. **चुनावी रणनीति में गलतियाँ**     - **संदेशवाहक की विफलता**: पुराने उपलब्धियों पर ज़ोर देने के बजाय युवाओं की बेरोजगारी जैसे मुद्दों को ��ज़रअंदाज करना।     - **डिजिटल मोर्चे पर पिछड़ना**: भाजपा की सोशल मीडिया मशीनरी के आगे आप का पिछड़ जाना, खासकर युवा मतदाताओं में। 
### 7. **बाहरी कारक**     - **केंद्र सरकार का दबाव**: एजेंसियों द्वारा आप नेताओं पर छापेमारी, या दिल्ली के प्रोजेक्ट्स (जैसे मेट्रो विस्तार) के लिए फंड रोककर सरकार को अस्थिर दिखाना।     - **राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभुत्व**: सीमा विवाद या आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चर्चा से स्थानीय शासन की बहस गौण हो सकती है।
### 8. **जनसांख्यिकीय बदलाव**     - **मतदाताओं का बदलता स्वरूप**: नए प्रवासी मतदाता, जो रोजगार या आवास जैसे मुद्दों को शिक्षा-स्वास्थ्य से ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं। 
### 9. **आंतरिक कलह**     - **पार्टी में फूट**: मनीष सिसोदिया या सतींद्र जैन जैसे नेताओं के बाहर होने या आंतरिक विवादों से संगठनात्मक कमजोरी। 
### निष्कर्ष  आप की संभावित हार का कारण मुख्य रूप से सत्ता के प्रति असंतोष, अधूरे वादे, भाजपा की ध्रुवीकरण रणनीति, और शहरी समस्याओं का निराकरण न कर पाना हो सकता है। भाजपा की राष्ट्रीय स्तर की ताकत और आप का नेतृत्व व जनसंपर्क में कमजोरियाँ निर्णायक साबित हो सकती हैं। भविष्य में पार्टी को स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने, नए नेतृत्व का विकास करने, और आर्थिक चुनौतियों का समाधान खोजने की आवश्यकता होगी।
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rajkumaraggarwal-blog1 · 29 days ago
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एसवाईएल नहर दिल्ली चुनाव में नहीं बन सकी चुनावी मुद्दा !
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा एसवाईएल नहर दिल्ली चुनाव में नहीं बन सकी चुनावी मुद्दा ! यमुना और उसके पानी को लेकर भाजपा, आप और कांग्रेस में घमासान भाजपा की केंद्र और हरियाणा को मिलाकर डबल इंजन वाली सरकार आप की भी दिल्ली और पंजाब को मिलाकर डबल पावर वाली  सरकार अपनी अपनी पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार को पहुंचे हरियाणा-पंजाब से नेता फतह सिंह उजाला गुरुग्राम। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ! यह गाना…
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oyspa · 2 months ago
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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का स्मारक बनाए जाने को लेकर विवाद तूल पकड़ता जा रहा है
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की ओर से चिट्ठी लिखे जाने पर केंद्रीय गृह मंत्रलाय ने कहा है कि स्मारक स्थल का आवंटन किया जाएगा. लेकिन मनमोहन सिंह के स्मारक की मांग को लेकर कांग्रेस नेता जयराम रमेश के बाद पंजाब के कांग्रेस चीफ़ अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग का बयान आया है. पंजाब कांग्रेस चीफ़ ने कहा, “हम मांग कर रहे हैं कि सरकार को स्मारक के लिए जगह मुहैया करनी चाहिए. अगर अटल बिहारी वाजपेयी ��ो…
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manvadhikarabhivyakti · 5 months ago
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कंगना पर राहुल ने किया पलटवार, कहा- कौन सरकार की नीति तय कर रहा, एक भाजपा सांसद या प्रधानमंत्री मोदी?
भाजपा सांसद कंगना रनौत पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने करारा हमला बोला है। कंगना के वापस लिए जा चुके कृषि कानूनों की वापसी की वकालत करने वाले बयान पर राहुल ने कहा कि सरकार की नीति कौन तय कर रहा है? एक भाजपा सांसद या प्रधानमंत्री मोदी? 700 से ज्यादा किसानों, खास कर हरियाणा और पंजाब के किसानों की शहादत ले कर भी भाजपा वालों का मन नहीं भरा। हमारा गठबंधन ‘INDIA’ हमारे अन्नदाताओं के विरुद्ध…
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dainiksamachar · 9 months ago
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बीजेपी के विजय पथ पर क्षेत्रीय दलों का रोड़ा? एग्जिट पोल सही हुए तो यह धारणा भी हवा-हवाई!
नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव-2024 के लिए एग्जिट पोल सामने आ चुके हैं। ज्यादातर एग्जिट पोल में तीसरी बार मोदी सरकार बनती दिख रही है। कुछ एग्जिट पोल ने तो बीजेपी के 400 पार के नारे पर भी मुहर लगा दी। दूसरी ओर INDI गठबंधन के सभी दावे फेल होते दिख रहे हैं। इन एग्जिट पोल में सबसे गौर करने वाली बात ये है कि बीजेपी न केवल कांग्रेस का पत्ता साफ करती दिख रही है बल्कि क्षेत्रीय दलों की जमीन पर भी परचम लहरा रही है। ऐसा माना जाता था कि बीजेपी कांग्रेस को तो पछाड़ने में कामयाब हो सकती है, लेकिन क्षेत्रीय दल उसके विजय रथ को रोक देंगे। अगर एग्जिट पोल सही साबित होते हैं तो बीजेपी इस मिथक को तोड़ देगी। क्योंकि एग्जिट पोल में बीजेपी ओडिशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों को पीछे छोड़ती दिख रही है।हैरान कर रहे पश्चिम बंगाल के एग्जिट पोलसबसे ज्यादा हैरान पश्चिम बंगाल के एग्जिट पोल कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल को टीएमसी का गढ़ माना जाता है। वहां राज्य में तो टीएमसी सरकार है ही, साथ ही लोकसभा चुनावों में भी टीएमसी का दबदबा रहता है। लेकिन इस बार के एग्जिट पोल में कहानी उलटती दिख रही है। बीजेपी बंगाल में शानदार प्रदर्शन कर सकती है। एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के अनुसार पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में से बीजेपी 32 सीटें जीत सकती है। वहीं टीएमसी 14 सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है। कांग्रेस और ले��्ट 2 सीटें जीतती दिख रही है। वहीं इंडिया न्यूज के एग्जिट पोल में बीजेपी को 21 और तृणमूल को 19 सीटें मिल सकती हैं। रिपब्लिक भारत के एग्जिट पोल में बीजेपी को 21 से 25 सीटें दी हैं। आर बंगला के एग्जिट पोल के अनुसार भाजपा 22 और TMC 20 सीटें जीत सकती है। यानी ज्यादातर एग्जिट पोल बंगाल में चुनावी हवा बदलने का संकेत दे रहे हैं, जोकि बीजेपी के लिए शुभ संकेत है।ओडिशा में भी क्षेत्रीय दलों से बीजेपी आगेबंगाल के अलावा ओडिशा में भी क्षेत्रीय पार्टी का ही दबदबा है। ओडिशा में कई दशकों से बीजेडी की सरकार है। विधानसभा के साथ लोकसभा चुनावों में भी बीजेडी आगे रहती थी। लेकिन इस बार के लोकसभा चुनावों के एग्जिट पोल में बीजेपी ओडिशा में बेहतरीन प्रदर्शन करती दिख रही है। एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल में ओडिशा की 21 सीटों में से बीजेपी को 18-20 सीटें मिलती दिख रही हैं। वहीं बीजेडी महज 0-2 सीटों पर सिमटती दिख रही है। इसके अलावा कांग्रेस का यहां खाता भी खुलना मुश्किल लग रहा है। इंडिया टीवी-सी��नएक्स के एग्जिट पोल के मुताबिक, ओडिशा में बीजेपी को 15-17 सीटें, इंडिया गठबंधन को 1 और बीजेडी को 4-6 सीटें मिल सकती हैं। न्यूज 24-टुडेज चाणक्य के एग्जिट पोल में बीजेपी को 16, इंडिया अलायंस को 1 और बीजेडी को 4 सीटें मिलने की संभावना है।दिल्ली में बीजेपी फिर कर रही क्लीव स्वीपराजधानी दिल्ली की सातों सीटों पर बीजेपी फिर से क्लीन स्वीप कर सकती है। कई एग्जिट पोल में बीजेपी के खाते में दिल्ली की सातों सीट आती दिख रही है। वहीं आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन यहां फेल होता दिख रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और आप ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया था। इसके बाद भी वो बीजेपी को टक्कर नहीं दे सकी। दिल्ली में पिछले दस साल से विधानसभा में आप बेहतरीन प्रदर्शन कर रही है, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी को टक्कर देने में नाकामयाब दिख रही है। दिल्ली में न तो केजरीवाल के जेल जाने का इमोशनल कार्ड असर कर पाया, न हीं कांग्रेस का साथ। एक्सिस माय इंडिया के मुताबिक, दिल्ली में बीजेपी को 7 सीटें जीत सकती है। वहीं News 24-टुडेज चाणक्या के एग्जिट पोल में बीजेपी 6 और कांग्रेस 1 सीट जीत सकती है वहां आप का खाता भी नहीं खुल पा रहा है।पंजाब में भी नहीं चल पाया आप का झाड़ूपंजाब की 13 लोकसभा सीटों के एग्जिट पोल में भी आम आदमी पार्टी को झटका लगा है। यहां विधानसभा में भले ही आम आदमी पार्टी की सरकार है, लेकिन लोकसभा में झाड़ू का जादू नहीं चल पाया। दिल्ली में जहां आप और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़ी थीं, वहीं पंजाब में दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल में बीजेपी को 2-4, आप को 0-2 वहीं कांग्रेस को 7-9 सीटें मिलती दिख रही हैं। आंध्रा में नहीं खुल पाया INDI गठबंधन का खाताउत्तर भारत के राज्यों के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी भगवा रंग चढ़ता दिख रहा है। सबसे ज्यादा आंध्र प्रदेश के एग्जिट पोल चौंका रहे हैं। कई एग्जिट पोल में आंध्रा की 23 में 23 सीटों पर एनडीए गठबंधन जीत सकता है। यहां बीजेपी ने टीडीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इंडिया टीवी CNX के मुताबिक, एनडीए को19 से लेकर 23 सीटें मिल रही है। वहीं, YSRCP को 3-5 सीट मिलने की उम्मीद है, जबकि INDI गठबंधन के हाथ खाली लग रहे हैं। एबीपी-सी वोटर के सर्वे के मुताबिक, आंध्रा में एनडीए को 21-24 सीटें मिलने की उम्मीद… http://dlvr.it/T7jp2D
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prabudhajanata · 1 year ago
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रायपुर: (INDIA Allaince) बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए एकजुट हुए विपक्षी दल, एक-एक कर बिखरते जा रहे हैं। कुछ बीजेपी की ही गोद में जाकर बैठ गए तो कुछ ‘एकला चलो रे’ की राह पर आगे बढ़ रहे है तो सवाल ये है कि जब कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव होने हैं..क्या तब तक बचा हुआ विपक्ष एकजुट रह पाएगा l INDIA Allaince आज पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को मोदी सरकार ने भारत रत्न देने का ऐलान किया और इसके साथ ही ये अटकलें भी तेज हो गई कि जयंत चौधरी की RLD अब विपक्षी गठबंधन INDIA का साथ छोड़कर NDA में शामिल हो सकती हैं। जाट वोटर्स को अपने पाले में लाकर बीजेपी न सिर्फ पश्चिमी उत्तरप्रदेश की 27 सीटें बल्कि पंजाब और हरियाणा के जाट वोटर्स को प्रभावित कर सकती है l लेकिन जयंत चौधरी के किस मुंह से मना करूं वाले बयान के बाद अब उनके पुराने बयान भी सोशल मीडिया में वायरल हो रहे हैं। 2024 में प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी को हराने के लिए विपक्षी दल जून के महीने में बिहार के पटना में एकजुट हुए थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आमंत्रण पर 28 विपक्षी दल के नेता ��क साथ बैठे और एक साथ चुनाव लड़ने का प्लान बनाया, लेकिन जून 2023 से फरवरी 2024 तक यानी 8 महीने में इस विपक्षी गठबंधन के कई धागे खुलते जा रहे हैं। हर राज्य के चक्कर लगाकर विपक्षी दल के नेताओं को एकजुट करने वाले JDU के नीतीश कुमार अब खुद पाला बदलकर बीजेपी के साथ बिहार में सरकार चला रहे हैं। बंगाल में सीट बंटवारे को लेकर विवाद के बाद ममता बनर्जी की TMC अलग चुनाव लड़ने जा रही है। इधर बंगाल में CPI(M) भी अलग चुनाव लड़ने के मूड में है l इंडिया गठबंधन का हाल पश्चिम बंगाल सरीखा होता दिख रहा है। भाजपा और जयंत चौधरी की पार्टी RLD के बीच खिचड़ी पक रही है। गठबंधन के तहत सात लोकसभा सीटें मिलने के बावजूद सत्ता के समीकरण के लिए RLD पलटी मार सकता है। क्योंकि साल 2014 और साल 2019 में RJD एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। हालांकि यूपी में अखिलेश यादव ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने की सूचना देकर यूपी में कांग्रेस को थोड़ी राहत दी है। बात करें दिल्ली और पंजाब की तो वहां आम आदमी पार्टी अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी में है। महाराष्ट्र में उद्धव गुट के हाथों से शिवसेना और शरद पवार के हाथों से NCP जा चुकी है। जिसका नुकसान चुनाव में विपक्षी गठबंधन को हो सकता है। यानी बंगाल की 42 सीट पश्चिम यूपी की 27 सीट, दिल्ली और पंजाब को मिलाकर 19 सीट और बिहार की 40 सीट यानी इन 128 सीटों पर विपक्ष का नुकसान तय माना जा रहा है। तो कुल मिलाकर जिस 24 की तैयारी के लिए 23 में 28 दल एकजुट हुए थे। उसकी एक-एक कड़ी धीरे धीरे बिखरती जा रही है l
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countryinsidenews · 1 year ago
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पंजाब के भुलथ से कांग्रेस विधायक सुखपाल सिंह खेहरा को गुरुवार सुबह जलालाबाद पुलिस ने गिरफ्तार किया, पुलिस बयान जारी कर सकती है
निखिल दुबे की रिपोर्ट /पंजाब के भुलथ से कांग्रेस विधायक सुखपाल सिंह खेहरा को गुरुवार सुबह जलालाबाद पुलिस ने गिरफ्तार किया है. खुद सुखपाल खैरा ने इसकी जानकारी अपने फेसबुक लाइव में दी. उन्हें हिरासत में लिए जाने का वीडियो भी सामने आया है जिसमें वह ‘पंजाब सरकार मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे हैं. बताया गया है कि NDPS ऐक्ट के तहत दर्ज एक पुराने मामले में यह कार्यवाही की गई है. सुखपाल सिंह खैरा पहले भी कई…
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lawspark · 2 years ago
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अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन – शक्ति का दुरुपयोग करने के लिए एक संवैधानिक साधन
परिचय  
भारत का संविधान एक ऐसा उपकरण (इंस्ट्रूमेंट) है जो देश में एक संघीय (फ़ेडरल) व्यवस्था प्रदान करता है और केंद्र और राज्य सरकार के लिए निश्चित कार्यों को भी बताता है। कानून बनाने की प्रक्रिया के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार क्ष��त्र (ज्यूरिस्डिक्शन) का संविधान की अनुसूची (शेड���यूल) 7 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। हालांकि, कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके माध्यम से केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर सकती है और राष्ट्रपति के द्वारा आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा उनमें से एक है।भारत के राष्ट्रपति “संवैधानिक तंत्र (कंस्टीट्यूशनल मशीनरी) की विफलता” के मामले में किसी भी राज्य में आपातकाल लगाकर, उस राज्य की विधि के अनुसार और कार्य करने कि शक्ति से आगे निकल सकते हैं। अनुच्छेद (आर्टिकल) 356 में कहा गया है कि “यदि राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल (गवर्नर) से रिपोर्ट प्राप्त होने पर या अन्यथा, संतुष्ट हो जाते हैं कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार इस संविधान के प्रावधानों (प्रोविजन) के अनुसार नहीं चल सकती है, तब राष्ट्रपति किसी राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।” एक राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा के साथ, निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया जाता है और विधान सभा को निलंबित (ससपेंड) कर दिया जाता है और राज्य का प्रशासन सीधे राष्ट्रपति द्वारा अपने प्रतिनिधि राज्यपाल के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है।अपनी स्थापना के बाद से, अनुच्छेद 356 बहस और चर्चा का विषय रहा है क्योंकि राष्ट्रपति शासन से राष्ट्र के संघीय ढांचे में बाधा उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अनुच्छेद 356 की उत्पत्ति को भारत सरकार अधिनियम की धारा 93 में वापस खोजा जा सकता है, जिसमें राज्यपाल द्वारा आपातकाल लगाने का समान प्रावधान प्रदान किया गया है, यदि राज्य को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। इस खंड को भारतीय संविधान में ‘राष्ट्रपति’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ को शामिल किया गया था। हालांकि, संविधान सभा के विभिन्न सदस्यों ने एक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के इस प्राव��ान का विरोध किया था क्योंकि अनुच्छेद 356 के परिणामस्वरूप ‘अन्यथा’ शब्द की अस्पष्ट और व्यक्तिपरक प्रकृति (सब्जेक्टिव नेचर) के कारण राज्य पर संघ का प्रभुत्व (डॉमिनेंस) हो सकता है।लेकिन, ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बी.आर. अम्बेडकर का विचार था कि संविधान या कानून के किसी भी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है, लेकिन किसी कानून को शामिल ही ना करने के कारण के रूप में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। संविधान सभा की बहस में, उन्होंने कहा कि “वास्तव में, मैं अपने माननीय मित्र श्री गुप्ते द्वारा कल व्यक्त की गई भावनाओं को साझा (शेयर) करता हूं कि हमें यह उम्मीद करनी चाह��ए कि ऐसे धाराओं को कभी भी संचालन में नहीं बुलाया जाएगा और वे अयोग्य (इनएप्लीकेबल) ही रहते हैं। यदि उन्हें लागू किया जाता है, तो मुझे आशा है कि राष्ट्रपति, जो इन शक्तियों से संपन्न हैं, राज्यों के प्रशासन को वास्तव में निलंबित करने से पहले उचित सावधानी बरतेंगे।”मूल रूप से, अम्बेडकर यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल दुर्लभ से दुर्लभ मामलों में किया जा सकता है न कि तुच्छ मुद्दों पर गलत रूप से। संविधान के संस्थापकों (फॉउन्डिंग फादर्स) ने माना है कि देश भर में सामाजिक-राजनीतिक विविधताओं (सोसिओ-पोलिटिकल डाइवर्सिटीज) में कठिन परिस्थितियों को आकर्षित करने की संभावना है क्योंकि लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) की राह इतनी आसान नहीं है और इसलिए, राष्ट्रपति को राज्य को बचाने के लिए ऐसी शक्ति दी जानी चाहिए ताकि वह कानून और व्यवस्था के टूटने और राज्य में शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने की स्थिति बना सके।हालांकि, संविधान के निर्माता भारतीय राजनीति की प्रकृति और उदाहरणों की भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं थे जब संविधान को केवल एक विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधित (अमेंड) किया गया था। विडंबना (आईरोनिक) यह है कि संविधान लागू होने के एक साल बाद यानी 1951 में, अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया गया था, जब नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव को बर्खास्त कर दिया था, वो भी जब उनके पास राज्य में बहुमत थी और उनकी विफलता की कोई स्थिति नहीं थी। फिर से, 1954 में, आंध्र प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका गया था क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य पर एक कम्युनिस्ट शासन की संभावना की आशंका थी।तब से, ऐसे कई उदाहरण सामने आ चुके हैं जहां अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल केंद्र सरकार द्वारा अपने राजनीतिक लाभ को प्राप्त करने के लिए और राज्य सरकार से आगे निकलने के लिए, एक उपकरण के रूप में किया गया था। यह भारतीय लोकतंत्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है और अंततः एक विशेष राजनीतिक दल से संबंधित मंत्रि परिषद (काउंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स) की सहायता और सलाह के तहत काम करता है। इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केंद्र सरकार इस प्रावधान का उपयोग किसी राज्य में विपक्षी दल को पछाड़ने के लिए एक उपकरण के रूप में कर सकती है।इसलिए, राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) शक्ति के प्रयोग की वैधता संदिग्ध है क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि किसी राज्य में आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की राय केंद्र में एक राजनीतिक दल क�� विचारधाराओं से प्रभावित हो। इस लेख में लेखक ने बोम्मई मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले पर विशेष जोर देते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण किया है। इसके अलावा, पेपर ने समय की अवधि यानी 2014 से 2020 तक लागू राष्ट्रपति शासन के उदाहरणों, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार इसके कारण और वैधता, और संबंधित प्रावधान में संशोधन की आवश्यकता की जांच की है।
अनुच्छेद 356- इसकी प्रकृति और कार्यक्षेत्र (आर्टिकल 365- इट्स नेचर एंड स्कोप)
अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण करने से पहले, भारतीय राजनीतिक संरचना (स्ट्रक्चर) की प्रकृति को समझना आवश्यक है। भारतीय लोकतंत्र सुशासन के लिए संघ और राज्य सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए ‘सहकारी संघवाद (कॉपरेटिव फेडरलिज्म)’ की अवधारणा पर काम करता है। केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल के मामले के अनुसार, यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप (सब-कांटिनेंट) की संघीय संरचना संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है।भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 भारत को “राज्यों के संघ (यूनियन ऑफ़ स्टेट्स)” के रूप में बताता है, लेकिन संविधान के निर्माताओं का इरादा राज्यों पर संघ का वर्चस्व (सुप्रीमेसी) प्रदान करने का नहीं था। वास्तव में, विभिन्न मामलों में केंद्र सरकार का राज्य सरकार पर प्रभुत्व (डोमिनेंस) है, लेकिन यह लोगों की अधिक भलाई के लिए किया गया था न कि राज्य सरकार की शक्ति को पार करने के लिए। यह संविधान सभा में अम्बेडकर के शब्दों के माध्यम से परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) हो सकता है। उन्होंने कहा कि “यह देखा जाएगा कि समिति ने ‘फेडरेशन’ के बजाय ‘संघ’ शब्द का इस्तेमाल किया है। नाम पर ज्यादा कुछ नहीं बदलता है, लेकिन समिति ने ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम (ब्रिटिश नार्थ अमेरिका एक्ट), 1867 की भाषा का पालन करना पसंद किया है, और माना है कि भारत को एक संघ के रूप में वर्णित करने में फायदे हैं, हालांकि यह संविधान संरचना में संघीय हो सकता है”।भारत की संवैधानिक व्यवस्था में, एक विशेष संस्था या राजनीतिक विंग दूसरों पर श्रेष्ठता का दावा नहीं कर सकता है। महासंघ (फेडरेशन) के रूप में शक्ति, शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने के लिए कई अंगों और संस्थानों के बीच वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) की जाती है। केंद्र सरकार को कुछ प्रकार का प्रभुत्व प्रदान किया गया है, लेकिन प्रभुत्व को मनमाने कारणों से उपयोग करने के बजाय इच्छित उद्देश्य को पूरा करने की आवश्यकता है।अनुच्छेद 356 को भारतीय संविधान में शामिल किया गया था ताकि केंद्र सरकार संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी जैसी गंभीर परिस्थितियों से राज्यों की रक्षा कर सके क्योंकि भारत जैसे बड़े देश में ऐसी स्थिति के बढ़ने की संभावना हमेशा बनी रहती है। अनुच्छेद 356 के आधार पर दी गई असाधारण शक्ति राज्यों को उनकी चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें बचाने के लिए थी। जैसा कि ऊपर कहा गया है, संघीय ढांचा भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और राज्य सरकार को फेंकने और विधानसभा को निलंबित करने का कोई भी अनुचित या मनमाना कार्य संविधान की मूल संरचना और दिए गए अधिनियम में बाधा उत्पन्न करेगा और इस तरह के कार्य को अमान्य (नल एंड वॉइड) माना जाना चाहिए।अब अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे में आते हुए, यह देखा गया है कि अनुच्छेद 356 के दो आवश्यक घटक (कंपोनेंट्स) हैं। सबसे पहले, राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। इसे अन्य परिस्थितियों में भी लगाया जा सकता है जो राज्य की रक्षा के लिए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति को सही लगता है। अनुच्छेद 356 में ‘अन्यथा’ शब्द के प्रयोग में भी यही दिख सकता है। दूसरा, राष्ट्रपति शासन उस राज्य में तब लागू किया जा सकता है जब संवैधानिक तंत्र की विफलता हो। संवैधानिक तंत्र की विफलता उस स्थिति को संदर्भित करती है जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करते हुए अपने कार्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है।अनुच्छेद 356 के तहत, राज्यपाल के पास एक रिपोर्ट तैयार करने और राष्ट्रपति को भेजने की शक्ति है, यदि उसके राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता, या राजनीतिक संकट जैसे हाउस राइडिंग की स्थिति आ जाती है तो। हालांकि, राष्ट्रपति के पास राज्यपाल की रिपोर्ट के अलावा अन्य स्रोतों (सोर्सेस) से प्राप्त जानकारी के आधार पर किसी राज्य में आपातकाल लगाने की शक्ति भी होती है। अब तक, ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ और ‘अन्यथा’ के दायरे और प्रकृति को विधायिका द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है और यह एक व्यापक (वाइड) और व्यक्तिपरक मुद्दा (सब्जेक्टिव इश्यू) बना हुआ है, यानि कि यह मामले पर निर्भर करता है। लेकिन, राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय वस्तु जो राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए संभावित आधार हो सकती है, को न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे में लाया गया है।न्यायालय राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय-वस्तु की जांच कर सकती हैं जिसने ‘राष्ट्रपति की संतुष्टि’ को आकर्षित किया है। राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा के अधीन कार्य करता है और राष्ट्रपति केंद्र में रह रहे दल से संबंधित मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है। इसलिए, राज्यपाल की रिपोर्ट के केंद्र में रह रहे दल के हितों और एजेंडे से प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना है और इसे कई बार देखा भी गया है। उदाहरण के लिए, पीएम के रूप में इंदिरा गांधी के पास सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाने का रिकॉर्ड है और 90% परिस्थितियों में, यह उन राज्यों में लगाया गया था जो विपक्षी दलों द्वारा शासित थे या उन राज्यों में जो उनकी पार्टी के हितों के अनुसार नहीं चले थे। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में कहा कि न्यायालय को राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता की जांच करने का ��धिकार है।
अनुच्छेद 356 की न्यायिक व्याख्या (ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशन ऑफ़ आर्टिकल 356)
बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे। इस मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का मौका देने से पहले बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में, राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि संदिग्ध नहीं होती है लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट की जांच राष्ट्रपति की संतुष्टि के आधार का पता लगाने के लिए की जा सकती है।न्यायालय ने कहा कि “राष्ट्रपति की संतुष्टि वस्तुनिष्ठ सामग्री (ऑब्जेक्टिव मेटेरियल) पर आधारित होनी चाहिए, वह सामग्री राज्यपाल द्वारा उन्हें भेजी गई रिपोर्ट में या दोनों रिपोर्ट और अन्य स्रोतों से उपलब्ध हो सकती है। इसके अलावा, इस प्रकार उपलब्ध वस्तुनिष्ठ सामग्री से यह संकेत मिलता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल रही है। इस प्रकार उद्देश्य सामग्री का अस्तित्व यह दर्शाता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल सकती है, जो कि राष्ट्रपति द्वारा उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) जारी करने से पहले कि एक शर्त है। ऐसी सामग्री के मौजूद होने के बाद, सामग्री के आधार पर राष्ट्रपति की संतुष्टि सवालों के घेरे में नहीं रहती है।”रामेश्वर प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में भी ऐसा ही किया गया था, जिसमें न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट की जांच के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा को अयोग्य (डिसक्वालीफाइड) घोषित कर दिया था। यह देखा गया कि रिपोर्ट में ऐसी कोई वस्तुनिष्ठ सामग्री नहीं थी जिससे राष्ट्रपति की संतुष्टि प्राप्त करने की संभावना हो। फिर, ऐसी परिस्थितियों में, जहां राज्यपाल शासन में उचित आधारों का अभाव है, न्यायालय राष्ट्रपति शासन लगाने के राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठा सकती है।यहां राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता का मतलब है कि संबंधित रिपोर्ट को उन परिस्थितियों की व्यापकता (स्कोप) को दिखाना चाहिए जो राज्य में संवैधानिक तंत्र को रोक रही हैं। स्थिति गंभीर होनी चाहिए क्योंकि संविधान के कुछ प्रावधानों के उल्लंघन को संवैधानिक तंत्र की विफलता नहीं कहा जा सकता है और यह दिखाया जाना चाहिए कि आपातकाल की घोषणा के बिना सरकार संविधान के अनुसार चल सकती है। न्यायालय का विचार था कि आपातकाल लगाना अंतिम उपाय होना चाहिए और राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की घोषणा से पहले अन्य सभी उपायों को चुनने की आवश्यकता है।इसके अतिरिक्त, बोम्मई के मामले का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि न्यायालय ने माना कि आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की शक्ति पूर्ण शक्ति नहीं है और यह संविधान के प्रावधानों के अधीन है। सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और इसलिए, राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार कार्य करना आवश्यक है।न्यायालय ने कहा कि “अनुच्छेद 356 द्वारा दी गयी शक्ति एक सशर्त शक्ति (कंडीशन्ड पावर) है; यह राष्ट्रपति के विवेक में प्रयोग की जाने वाली पूर्ण शक्ति नहीं है। स्थिति संतुष्टि का गठन है- व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव), इसमें कोई संदेह नहीं है कि खंड द्वारा विचारित प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई है। यह संतुष्टि राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या उसके द्वारा प्राप्त अन्य जानकारी के आधार पर या दोनों के आधार पर बनाई जा सकती है। प्रासंगिक (रिलेवेंट) ��ामग्री का अस्तित्व संतुष्टि के गठन के लिए एक पूर्व शर्त है। “मे” शब्द का प्रयोग न केवल विवेक का संकेत देता है बल्कि कार्रवाई की उपयुक्तता (एडमिसिबिलिटी) और आवश्यकता पर विचार करने का दायित्व (ऑब्लिगेशन) भी दर्शाता है।”अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके राज्य को गंभीर प्रकृति के संकट से बचाने के लिए आपातकाल लगाने की असाधारण शक्ति प्रदान की गई है। राज्यपाल की रिपोर्ट की न्यायिक समीक्षा की अनुमति के बावजूद, व्यापक दायरे के कारण अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग अभी भी जारी है। अनुच्छेद 356 के ‘अन्यथा’ और ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ शब्दों का क्या अर्थ है, इसकी कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है, जो अंत में केंद्र सरकार के हाथों में इसके दुरुपयोग की ओर ले जाती है।
2014 से राष्ट्रपति शासन लागू
यह अध्याय 2014 से पांच राज्यों में लागू राष्ट्रपति शासन और उसके कारणों से संबंधित है। इसके अलावा, शोधकर्ता (रिसर्चर) का उद्देश्य आपात स्थिति की प्रकृति को समझना है और क्या ऐसे कारण संवैधानिक तंत्र की विफलता के बराबर हैं।2016 में अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना: 2016 में, अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता (पॉलिटिकल इंस्टेबिलिटी) पैदा हुई जब कांग्रेस के 20 विधायकों ने भाजपा और दो निर्दलीय विधायकों (इंडिपेंडेंट एमएलए) के साथ हाथ मिलाया और मुख्यमंत्री नबाम तुकी के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इन विधायकों ने राज्यपाल के समक्ष राज्य में सरकार बनाने की अपनी इच्छा मुख्यमंत्री को बताए बिना विधानसभा सत्र (सेशन) को आगे बढ़ाया और विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की सूची दे दी। इसके बाद स्पीकर ने उन 20 विधायकों को दलबदल के आधार पर अयोग्य घोषित कर दिया। हालांकि, गुवाहाटी के उच्च न्यायलय ने इसे अयोग्य घोषित कर दिया था।इस बीच, राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार की और राष्ट्रपति को यह कहते हुए इसे भेजा कि एक राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिससे सरकार के लिए संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार अपने कार्यों को अंजाम देना असंभव हो गया है। राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेत��त्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया और विधानसभा को निलंबित कर दिया। उसके बाद कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने को चुनौती दी थी, लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार ने शपथ ले ली थी ।यहां पहला सवाल यह उठता है कि क्या यह संवैधानिक तंत्र की विफलता है और अगर कोई विफलता है, तो क्या राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार करने से पहले सभी उपायों के विकल्प को देखा है जिसके परिणामस्वरूप आपात स्थिति हुई है। राज्यपाल की रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह देखा गया था कि संवैधानिक तंत्र की विफलता दिखाने के लिए जो प्रमुख कारण बताया गया था, वह गायों का वध है। विडंबना यह थी कि भारत जैसे देश में जहां पशु अधिकारों का उल्लंघन एक मामूली मुद्दा था, गाय के वध को राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए कानून और व्यवस्था के टूटने के रूप में पेश ��िया गया था। राज्य में गाय के वध पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था और इसलिए, रिपोर्ट में इस तरह के तुच्छ मुद्दों का उल्लेख करना अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का एक स्पष्ट उदाहरण था।एक अन्य प्रमुख बात जो राज्यपाल ने की, वह यह थी कि 20 विधायकों के बागी (रिबेल) होने के कारण, कांग्रेस ने सदन में अपना बहुमत खो दिया था। इसे एक कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता था क्योंकि रिपोर्ट तैयार करने से पहले, राज्यपाल को सत्ताधारी सरकार को फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए था। जैसा कि बोम्मई के मामले में कहा गया था, राष्ट्रपति शासन लागू करना अंतिम उपाय होना चाहिए और सभी कदमों का सहारा लेने के बाद ही इसे लगाया जा सकता है। 20 विधायकों कि बागी, एक पार्टी के भीतर का मुद्दा था और यह दलबदल का मामला था न कि संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला।सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच ने राज्यपाल की कार्रवाई को असंवैधानिक माना क्योंकि ये कारण यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है और राज्यपाल की रिपोर्ट में कोई तर्क नहीं है, इसलिए संतुष्टि के लिए राष्ट्रपति से पूछताछ की जा सकती है। न्यायालय ने कहा कि “राजनीतिक दल के भीतर की गतिविधियां, जो उसके रैंकों के भीतर अशांति की पुष्टि करती हैं, राज्यपाल की चिंता से परे हैं”। इसलिए, भले ही यह अनुमान हो कि सत्ता वाली सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है, आपातकाल के उपाय को चुनने से पहले एक मंजिल की आवश्यकता होती है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए शीर्ष न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया था​​ और राज्य में तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को बहाल (रिस्टोर) कर दिया था।उत्तराखंड राजनीतिक संकट और राष्ट्रपति शासन: 2016 में, उत्तराखंड में सीएम हरीश रावत ने कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया था। राज्य में समस्या की शुरुआत विधानसभा में बजट को लेकर बहस के दौरान हुई जब 9 विधायकों ने पार्टी के खिलाफ बगावत कर दी और बीजेपी से हाथ मिला लिया। इसके चलते कांग्रेस के नेतृत्व वाले रावत के बहुमत को चुनौती दी गई और उसी के संबंध में राज्यपाल केके पॉल ने फ्लोर टेस्ट में सीएम रावत को बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित किया था। फ्लोर टेस्ट से पहले, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संवैधानिक तंत्र का कारण बताते हुए कैबिनेट की सलाह पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। विधिवत निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और विधानसभा को निलंबित कर दिया गया।यहां जो बड़ा सवाल उठता है, वह फ्लोर टेस्ट की प्रतीक्षा किए बिना आपातकाल लगाने के राष्ट्रपति के फैसले की संवैधानिकता के बारे में है। राजनीतिक अस्थिरता से संबंधित सभी प्रश्नों का एकमात्र उत्तर, फ्लोर टेस्ट के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है लेकिन राष्ट्रपति द्वारा इसे टाल दिया गया था। जब राष्ट्रपति शासन को उत्तराखंड के उच्च न्यायलय के समक्ष चुनौती दी गई, तो न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया और फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश का विचार था कि भले ही राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और राष्ट्रपति शासन लागू करना पूर्ण शक्ति नहीं है; ऐसा लग रहा था कि केंद्र एक ‘निजी पार्टी’ की तरह काम कर रहा है, यानी अपने राजनीतिक हितों के लिए काम कर रहा है। जैसा कि बार-बार कहा गया था कि राष्ट्रपति शासन अंतिम उपाय होना चाहिए, बिना ��्लोर टेस्ट के इसे लागू करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।राष्ट्रपति शासन की गंभीरता को समझने की जरूरत है; यह राज्य सरकार के दायरे में एक अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) की तरह है जिससे देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन होता है। इसके अतिरिक्त, शोधकर्ता ने पाया कि यह कहने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता है क्योंकि राज्यपाल की रिपोर्ट का कोई प्रचलन नहीं है और ऐसी घटनाएं जो संवैधानिक सिद्धांतों से परे हैं, और यह राजनीतिक संकट था, लेकिन विधानसभा को निलंबित करने से पहले इसे हल करने के लिए फ्लोर टेस्ट जैसे कोई कदम नहीं उठाए गए थे।मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति शासन: भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोकपाल बिल को सदन में पारित करने में उनकी सरकार की विफलता के कारण, केजरीवाल ने अपने मंत्रिपरिषद के साथ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। क्यूंकि सदन में आ.प. 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cdn24newsofficial · 2 years ago
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मुख्यमंत्री भगवंत मान की हरियाणा के मुख्यमंत्री को साफ इंकार; ‘‘पंजाब यूनिवर्सिटी में नहीं मिलेगी कोई हिस्सेदारी’’
यूनिवर्सिटी का दर्जा बदलने की कोशिशों को राज्य सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी अकाली दल को इस मुद्दे पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं क्योंकि उनके मुख्यमंत्री ने पी. यू. को केंद्रीय यूनिवर्सिटी में तबदील करने के लिए दी थी एन. ओ. सी. इस मुद्दे पर दोहरे मापदंड अपनाने के लिए कांग्रेस की आलोचना यूनिवर्सिटी के सुचारू कामकाज के लिए फंडों की कोई कमी नहीं चंडीगढ़, 5 जूनः पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ के राज्य की…
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easyhindiblogs · 2 years ago
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What is Khalistan
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Khalistan Kya Hai : खालिस्तान आंदोलन उन लोगों का एक समूह है जो खालिस्तान नामक अपना देश बनाना चाह��े हैं। उनका मानना ​​है कि सिखों, एक धार्मिक अल्पसंख्यक समूह, की अपनी मातृभूमि होनी चाहिए।
कब हुआ था पंजाबी सूबा आंदोलन और अकाली दल का जन्म?
कहानी 1929 से शुरू होती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हो रहा था। इसी बैठक में मोतीलाल नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज’ का घोषणापत्र तैयार किया। तीन समूहों ने इस विचार का विरोध किया: मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग, दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले भीमराव अम्बेडकर, और शिरोमणि अकाली दल (एमएडी)। यह एक अलग मातृभूमि के लिए सिख मांग की शुरुआत थी। 1947 में भारत के विभाजन के बाद पंजाब दो भागों में बंट गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अकाली गुट ने सिखों के लिए एक अलग प्रांत की मांग की। हालाँकि, राज्य संगठन आयोग ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। यह पहली बार था जब भाषा के आधार पर पंजाब को अलग करने का प्रयास किया गया था। इस आंदोलन के कारण अकाली दल को तेजी से लोकप्रियता मिली। अलग पंजाब की मांग को लेकर जबरदस्त प्रदर्शन शुरू हो गए।
तीन हिस्‍सों में बंट गया पंजाब
इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री के रूप में अपने पहले वर्ष के दौरान कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। जवाहरलाल नेहरू, भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री और इंदिरा के पिता, चीन के साथ युद्ध में देश की हार के बाद 1962 में मृत्यु हो गई। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। लेकिन, शास्त्री की अप्रत्याशित मृत्यु के 10 दिन बाद, पाकिस्तान के साथ युद्ध और ताशकंद समझौते के बाद, देश को इंदिरा गांधी के रूप में एक नया प्रधान मंत्री मिला। प्रधान मंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद इंदिरा गांधी को कई बाधाओं और समस्याओं का सामना करना पड़ा। पंजाब भाषाई आंदोलन का जन्मस्थान था। इंदिरा गांधी ने 1966 में पंजाब को तीन टुकड़ों में बांट दिया था।
पंजाब में सिखों की बहुलता थी, हरियाणा में हिंदी भाषियों की बहुलता थी, और चंडीगढ़ तीसरा भाग था।
पहला पंजाब जिंसमें सिखों की बहुलता थी, दूसरा हरियाणा जिसमें हिंदी भाषियों की बहुलता थी, और चंडीगढ़ तीसरा भाग था।
चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में नामित किया गया था। इसे दोनों नए क्षेत्रों की राजधानी के रूप में नामित किया गया था। इसके अलावा, पंजाब के कई पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल प्रदेश के साथ जोड़ा गया है। इस महत्वपूर्ण कदम के बावजूद बहुत से लोग विभाजन से असंतुष्ट थे। कुछ पंजाब को सौंपी गई भूमि से असंतुष्ट थे, जबकि अन्य एकल राजधानी की अवधारणा का विरोध कर रहे थे।
फिर भी, पंजाब की स्थापना के बाद भी, सिखों की आकांक्षाएँ पूरी नहीं हुईं। इसके बाद भी मामला अनसुलझा ही रहा। एक पक्ष पंजाब के  आवंटित क्षेत्र से नाराज था, जबकि दूसरे ने साझा राजधानी के फार्मूले पर आपत्ति जताई। इंदिरा गांधी की प्रतिज्ञा के बावजूद, उन्हें 1970 में चंडीगढ़ नहीं मिला।
कब दिया गया Khalistan नाम
1969 में पंजाब विधानसभा चुनाव हारने के दो साल बाद, जगजीत सिंह चौहान यूनाइटेड किंगडम चले गए। जगजीत सिंह ने 1971 में न्यूयॉर्क टाइम्स में एक अलग खालिस्तान का विज्ञापन किया। यह आंदोलन के वित्त के लिए था। जगजीत सिंह ने 1980 में ‘खालिस्तान नेशनल काउंसिल’ की स्थापन��� भी की थी। इस काउंसिल द्वारा खालिस्तान को एक अलग देश माना जाता था। ‘खालिस्तान नेशनल काउंसिल’ के पूर्व महासचिव बलबीर सिंह संधू ने पूरे समय उनका अनुसरण किया। चौहान 1977 में भारत लौटे और 1979 में लंदन में खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना की। उन्होंने ‘खालिस्तान हाउस’ की इमारत से अपना संचालन फिर से शुरू किया। इस अवधि में, उन्होंने सिख धार्मिक नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले के साथ संपर्क बनाए रखा।
निष्कर्ष
खालिस्तान आंदोलन में पंजाब के सिखों के समूह अपना एक अलग सिख राष्ट्र बनाने की मांग कर रहे है तथा इन मांगो को सरकार द्वारा बार बार ख़ारिज किया गया है
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newsliveindia45 · 5 days ago
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नेशनल एग्रिकल्चर पॉलिसी पर पंजाब विधानसभा में विरोध: AAP और कांग्रेस ने मिलकर पारित किया निंदा प्रस्ताव
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पंजाब विधानसभा में केंद्र सरकार की नेशनल एग्रिकल्चर पॉलिसी के खिलाफ कड़ा विरोध देखने को मिला। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इस नीति को किसान विरोधी बताते हुए तीखा हमला बोला। इस मुद्दे पर आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस के विधायक एकजुट नजर आए और ध्वनिमत से निंदा प्रस्ताव पारित किया।
AAP और कांग्रेस का केंद्र सरकार पर हमला
पंजाब में आमतौर पर AAP और कांग्रेस के बीच राजनीतिक मतभेद देखने को मिलते हैं, लेकिन इस बार दोनों दलों ने केंद्र सरकार की कृषि नीति के खिलाफ साझा मोर्चा बना लिया। वहीं, भाजपा के विधायक अश्वनी शर्मा और जंगीलाल महाजन इस महत्वपूर्ण बहस से अनुपस्थित रहे।
मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा कि कृषि विपणन (Agriculture Marketing) राज्य सूची का विषय है और केंद्र सरकार का इसमें दखल देना गलत है। उन्होंने आरोप लगाया कि यह नीति राज्य सरकार के अधिकारों का हनन करती है और इससे किसानों का नुकसान होगा।
कांग्रेस का समर्थन, निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने का आरोप
कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष प्रताप सिंह बाजवा समेत सभी कांग्रेस विधायकों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा कि कांग्रेस किसानों के हितों की रक्षा के लिए राज्य सरकार के साथ खड़ी है।
पंजाब के विधायकों ने केंद्र सरकार की नई कृषि नीति को निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला करार दिया। उन्होंने आशंका जताई कि यदि यह नीति लागू हुई तो कृषि उत्पादों की मार्केटिंग में निजी कंपनियों का दखल बढ़ेगा और राज्य स्तर पर एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC) अप्रासंगिक हो जाएगी।
पंजाब में फिर भड़का कृषि विरोध
गौरतलब है कि पंजाब में तीन कृषि कानूनों का सबसे ज्यादा विरोध हुआ था। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से अधिक समय तक आंदोलन किया था, जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन कानूनों को वापस लेना पड़ा था।
अब, नई नेशनल एग्रिकल्चर पॉलिसी पर भी पंजाब में जोरदार विरोध देखने को मिल रहा है, जिससे साफ संकेत मिलते हैं कि यह मुद्दा आने वाले समय में राजनीतिक रूप से और गरमाएगा।
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kssingh · 7 days ago
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यदि 2025 के दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) की हार की कल्पना की जाए, तो इसके पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
### 1. **शासन और प्रदर्शन से जुड़ी समस्याएं**     - **अधूरे वादे**: स्कूलों, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार या बिजली-पानी के सस्ते दाम जैसे वादों को पूरा न कर पाने से जनता का भरोसा टूट सकता है। वायु प्रदूषण, पानी की कमी, या झुग्गी बस्तियों जैसी समस्याएं बढ़ने से नाराज़गी बढ़ सकती है।     - **भ्रष्टाचार के आरोप**: मोहल्ला क्लीनिक या शिक्षा सुधार जैसी योजनाओं में वित्तीय अनियमितता के आरोपों से आप की "भ्रष्टाचार विरोधी" छवि धूमिल हो सकती है।     - **शहरी ढांचागत समस्याएं**: यातायात, सार्वजनिक परिवहन, या अवैध कॉलोनियों के मुद्दों पर नाकामी से मध्यम वर्ग और प्रवासी मतदाता नाराज़ हो सकते हैं। 
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### 2. **नेतृत्व संबंधी चुनौतियाँ**     - **कीर्तिविलासन की छवि को नुकसान**: अरविंद केजरीवाल का राष्ट्रीय राजनीति (जैसे पंजाब या गुजरात) पर ज़्यादा ध्यान या स्वास्थ्य समस्याओं के कारण स्थानीय जुड़ाव कमजोर हो सकता है। केंद्रीय एजेंसियों (ED/CBI) के साथ टकराव से उनकी छवि "विवादास्पद" बन सकती है।     - **दूसरी पंक्ति के नेताओं की कमी**: केजरीवाल पर अत्यधिक निर्भरता और स्थानीय नेतृत्व विकसित न कर पाने से जमीनी स्तर पर प्रभाव कमजोर हो सकता है। 
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### 3. **सत्ता के प्रति असंतोष (एंटी-इनकम्बेंसी)**     - **मतदाता थकान**: 2015 से लगातार सत्ता में रहने के बाद आप के प्रति मतदाताओं में उदासीनता आ सकती है, खासकर यदि उन्हें लगे कि पार्टी अपने वादों से भटक गई है। 
### 4. **विरोधी दलों की रणनीति**     - **भाजपा का जमीनी अभियान**: हिंदुत्व, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भाजपा का एकजुट अभियान, या पंजाबी और पूर्वांचली समुदाय के नेताओं को साथ लेकर हिंदू वोटों को एकजुट करना।     - **कांग्रेस का पुनरुत्थान**: अल्पसंख्यक और आप से निराश मतदाताओं को लुभाकर कांग्रेस का वोट बँटवारा।     - **गठबंधन की राजनीति**: विरोधी दलों का आप के खिलाफ एकजुट होना (हालांकि दिल्ली में यह संभावना कम है)। 
### 5. **सामाजिक-आर्थिक कारक**     - **आर्थिक संकट**: महंगाई, बेरोजगारी, या असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर प्रभाव से मतदाता विरोधी दलों के वादों की ओर मुड़ सकते हैं।     - **ध्रुवीकरण**: भाजपा द्वारा CAA, धार्मिक विवाद जैसे मुद्दों पर चुनावी एजेंडा बदलकर स्थानीय मुद्दों से ध्यान भटकाना। 
### 6. **चुनावी रणनीति में गलतियाँ**     - **संदेशवाहक की विफलता**: पुराने उपलब्धियों पर ज़ोर देने के बजाय युवाओं की बेरोजगारी जैसे मुद्दों को नज़रअंदाज करना।     - **डिजिटल मोर्चे पर पिछड़ना**: भाजपा की सोशल मीडिया मशीनरी के आगे आप का पिछड़ जाना, खासकर युवा मतदाताओं में। 
### 7. **बाहरी कारक**     - **केंद्र सरकार का दबाव**: एजेंसियों द्वारा आप नेताओं पर छापेमारी, या दिल्ली के प्रोजेक्ट्स (जैसे मेट्रो विस्तार) के लिए फंड रोककर सरकार को अस्थिर दिखाना।     - **राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभुत्व**: सीमा विवाद या आतंकवाद जैसे मुद्दों पर चर्चा से स्थानीय शासन की बहस गौण हो सकती है।
### 8. **जनसांख्यिकीय बदलाव**     - **मतदाताओं का बदलता स्वरूप**: नए प्रवासी मतदाता, जो रोजगार या आवास जैसे मुद्दों को शिक्षा-स्वास्थ्य से ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं। 
### 9. **आंतरिक कलह**     - **पार्टी में फूट**: मनीष सिसोदिया या सतींद्र जैन जैसे नेताओं के बाहर होने या आंतरिक विवादों से संगठनात्मक कमजोरी। 
### निष्कर्ष  आप की संभावित हार का कारण मुख्य रूप से सत्ता के प्रति असंतोष, अधूरे वादे, भाजपा की ध्रुवीकरण रणनीति, और शहरी समस्याओं का निराकरण न कर पाना हो सकता है। भाजपा की राष्ट्रीय स्तर की ताकत और आप का नेतृत्व व जनसंपर्क में कमजोरियाँ निर्णायक साबित हो सकती हैं। भविष्य में पार्टी को स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने, नए नेतृत्व का विकास करने, और आर्थिक चुनौतियों का समाधान खोजने की आवश्यकता होगी।
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sandhyabakshi · 5 years ago
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पंजाब सरकार ने 12 वीं कक्षा के छात्रों को स्मार्टफोन बांटे पंजाब की कांग्रेस सरकार ने चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वादे को पूरा करते हुए बुधवार को बहुप्रतीक्षित स्मार्टफोन योजना की शुरुआत की। सरकारी की ओर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 12 वीं कक्षा के कुछ ...। Source link
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dainiksamachar · 9 months ago
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एग्जिट पोल में फिर मोदी सरकार, यूपी-बंगाल में बीजेपी को 2019 से ज्यादा सीटें, साउथ में भी दिखा कमाल
नई दिल्ली: तमाम एग्जिट पोल के अनुसार, BJP की अगुआई में NDA पूर्ण बहुमत के साथ वापसी कर सकता है। हालांकि, असल परिणाम 4 जून को आएंगे। शनिवार को सातवें चरण के चुनाव की समाप्ति के बाद आए एग्जिट पोल के अनुसार BJP अपने दम पर लगातार तीसरी बार पूर्ण बहुमत हासिल करेगी।UP में पिछली बार से ज्यादा सीटें BJP कोयूपी की 80 सीटों पर ज्यादातर एग्जिट पोल BJP को पिछले बार के मुकाबले ज्यादा सीटें दे रहे हैं। उसे पिछले चुनाव में 62 सीटें मिली थी। इंडिया न्यूज का एग्जिट पोल NDA को 69, INDIA को 11 सीटें दे रहा है। जन की बात के मुताबिक, NDA को 68-74 और INDIA को 6-12 सीटें मिल सकती हैं। रिपब्लिक भारत के एग्जिट पोल के मुताबिक, एनडीए को 69-74 और इंडी गठबंधन को 6-11 सीटें मिल सकती हैं।बिहार में NDA को नुकसानउत्तराखंड में ज्यादातर एग्जिट पोल पिछले बार की तरह BJP को सभी पांच सीटें जीतने का अनुमान लगा रहे हैं। जन की बात, न्यूज नेशन, टाइम्स नाउ के मुताबिक BJP सभी सीटें जीत सकती है। बिहार में NDA को कुछ सीटों के नुकसान का अनुमान है। इंडिया टुडे एक्सिस माई इंडिया के मुताबिक ‌BJP 13-15, जेडीयू 9-11, एलजेपीआर 5, आरएलडी 6-7, कांग्रेस- 1-2 सीटें जीत सकती है। जन की बात ने एनडीए को 32-35 सीटों का और रिपब्लिक टीवी ने 32-37 सीटों का अनुमान लगाया है। गुजरात में फिर क्लीन स्वीपगुजरात में ज्यादातर एग्जिट पोल ने BJP को सभी 26 सीटें जीतने का अनुमान लगाया है। कुछ एग्जिट पोल में कांग्रेस के 1-2 सीटें जीतने का अनुमान है। हिमाचल प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में BJP सभी चार सीटें जीती थी। जन की बात ने वही रिपीट होने का अनुमान लगाया है। टाउम्स नाउ ने एक सीट कांग्रेस के जीतने का अनुमान लगाया है। महाराष्ट्र में जन की बात ने एनडीए को 34-41 सीट, I.N.D.I.A. को 16 सीट, रिपब्लिक टीवी ने NDA को 29, I.N.D.I.A. को 19 सीटों का अनुमान लगाया है। अलग-अलग एग्जिट पोल के मुताबिक NDA को 22 से लेकर 41 तक की सीटों का अनुमान है।राजस्थान में भी BJP को एक-दो सीटों का नुकसानराजस्थान में जन की बात ने बीजेपी को 21-23 सीट और I.N.D.I.A. को 2-4 सीट, टाइम्स नाउ ने BJP को 18, I.N.D.I.A. को 7 सीटों का अनुमान लगाया है। मध्य प्रदेश में BJP को पिछले बार की तरह ही लगभग सभी सीटें जीतने का अनुमान एग्जिट पोल लगा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में भी ज्यादातर एग्जिट पोल BJP को 10-11 सीटें दे रहे हैं। झारखंड में NDA को 11-13 सीटें मिलने का अनुमान है।पश्चिम बंगाल में बीजेपी को ज्यादा सीटें पश्चिम बंगाल में 42 लोकसभा सीटों को लेकर ‌BJP और TMC के बीच दोतरफा कड़ा मुकाबला अब ‌BJP के पक्ष में दिख रहा है। ज्यादातर सर्वे BJP को टीएमसी के मुकाबले ज्यादा सीटें मिलते दिखा रहे हैं। एबीपी सी-वोटर के एग्जिट पोल में BJP को 23-27 सीटें मिलने का अनुमान जताया जा रहा है, जबकि तृणमूल 13 से 17 सीटों पर सिमट सकती है, जबकि लेफ्ट कांग्रेस गठबंधन को महज 1-3 सीटें ही मिल सकती हैं। ऐसा ही कुछ दूसरे सर्वे भी दिखा रहे हैं, इंडिया न्यूज डायनैमिक्स BJP को 21 और टीएमसी को 17 सीटें तो इसी तरह का आकलन रिपब्लिक भारत Matrize का सर्वे दिखा रहा है। वहीं जन की बात के मुताबिक ‌BJP को 21-26 और TMC को 16-18 सीटें मिल सकती हैं। 2019 में TMC के खाते में 22 तो BJP के हाथ 18 सीटें आई थीं। नॉर्थ ईस्ट के आठ राज्यों (मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, असम, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर और सिक्किम ) की 25 सीटों को लेकर किए गए सर्वे में भी NDA का ही रुझान दिख रहा है। सी-वोटर के सर्वे के मुताबिक एनडीए को 16 से 21 सीटें मिलने का अनुमान है, विपक्षी गठबंधन को महज 3-7 सीटें, वहीं अन्य के खाते में 1-2 सीटें आ सकती हैं। इसमें असम की 14 सीटों में 10-12 सीटें BJP को जाने का अनुमान है। न्यूज 24, चाणक्य सर्वे का सर्वे भी असम में ‌BJP को 12 सीटें मिलती दिख रही हैं।हरियाणा में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतरदिल्ली में बीजेपी एक बार फिर से अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा सकती है। हरियाणा में इस बार कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहेगा। पंजाब में चौतरफा मुकाबला होगा लेकिन पंजाब में बीजेपी की कुछ सीटें जीतने का अनुमान लगाया गया है। एग्जिट पोल के ट्रेंड बताते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ आने का फायदा I.N.D.I.A. को होता नहीं दिख रहा है। हरियाणा में BJP का वोट शेयर घटने और पंजाब में बढ़ने की उम्मीद दिखाई गई है।न्यूज 24 टुडेज चाणक्या का एग्जिट पोल दिल्ली में BJP को 6 और कांग्रेस को 1 सीट दे रहा है। 2014 और 2019 में दिल्ली में BJP ने सातों की सातों सीटें जीती थी। वहीं हरियाणा में पिछली बार BJP ने सभी 10 सीटें जीती थी लेकिन इस बार BJP को 6 और कांग्रेस को 4 सीटें मिलने का अनुमान इस एग्जिट पोल में लगाया गया है। पंजाब में आप और कांग्रेस अलग-अलग लड़ रहीं और कांग्रेस को 4,… http://dlvr.it/T7jcnl
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