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indlivebulletin · 1 month ago
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केंद्र सरकार को अड़ियल रवैया छोड़कर किसानों से बात करनी चाहिए: हुड्डा
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने बृहस्पतिवार को कहा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को अपना अड़ियल रवैया छोड़कर प्रदर्शनकारी किसानों से बात करनी चाहिए, क्योंकि आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। डल्लेवाल 26 नवंबर से पंजाब के खनौरी बॉर्डर पर अनशन पर बैठे हैं, ताकि केंद्र पर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य…
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livetimesnewschannel · 1 month ago
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Dr. Rajendra Prasad Biography
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Introduction
Rajendra Prasad Biography And Facts: देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद सही मायने में सादगी के प्रतीक थे. अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के लिए मशहूर राजेंद्र प्रसाद देश के एकमात्र राष्ट्रपति हैं, जिनका कार्यकाल एक बार से अधिक का रहा. 03 दिसंबर, 1884 को बिहार के सीवान जिले में जन्में राजेंद्र प्रसाद का जीवन बेहद सादगी भरा रहा. उन्होंने कठिन चुनौतियों के बीच पढ़ाई की. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अत्यंत प्रिय राजेंद्र प्रसाद को बिहार का गांधी भी कहा जाता था. उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन तो सादगी के साथ गुजारा ही, साथ ही अपने निजी जीवन में भी वह बेहद ईमानदार रहे. सही मायने में वह शुचिता, विद्वता और सरलता के साथ-साथ सादगी के भी प्रतीक थे. पढ़ाई के दौरान वह अत्यंत मेधावी थे. बड़े होने पर वह महान कानूनविद हुए. उन्होंने नैतिकता की उस ऊंचाई को छुआ जो आज के समय में तपस्या से कम नहीं है.
Table of Content
कांग्रेस कार्यालय को बनाया रहने का ठिकाना
सादगी से गुजारा जीवन
संविधान सभा का किया था नेतृत्व
कई भाषाओं के थे जानकार
गुरु के विचारों का था गहरा प्रभाव
3 साल जेल में बिताए
पत्नी के जेवरात किए राष्ट्र को समर्पित
बेमन से लड़े चुनाव
कांग्रेस कार्यालय को बनाया रहने का ठिकाना
कहा जाता है कि राजेंद्र प्रसाद इस कदर ईमानदार थे कि उन्होंने भाई-भतीजावाद को कभी तरजीह नहीं दी. नैतिकता, शुचिता और ईमानदारी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि राष्ट्रपति पद का कार्यकाल खत्म होने के बाद उनके पास रहने के लिए अपना कोई निजी आवास भी नहीं था. उन्होंने लोगों की सेवा को ही ध्येय बनाया था. यह भी बड़ी बात है कि पद से हटने के बाद राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार कांग्रेस कमेटी के कार्यालय सदाकत आश्रम को अपने रहने का ठिकाना बनाया. उनके कार्यकाल के दौरान जो भी व्यक्ति मदद के लिए आता वह सरलता से उसे संबल देते और हमेशा लोगों की मदद के लिए आगे रहते थे. वर्ष 1914 में बिहार और बंगाल में आई बाढ़ से प्रभावित लोगों की मदद के लिए उन्होंने हर मुमकिन कोशिश की. इस दौरान उन्होंने एक समाजसेवी के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई. इसके 20 साल बाद 15 जनवरी, 1934 को बिहार में भूकंप आया तो वह आजादी की लड़ाई के लिए जेल में थे. उस अवधि के दौरान राजेंद्र प्रसाद ने राहत कार्य को अपने निकट सहयोगी अनुग्रह नारायण सिन्हा को सौंप दिया, जिससे जरूरतमंद लोगों की मदद का सिलसिला नहीं थमे. इसी कड़ी में 31 मई, 1935 को क्वेटा भूकंप के बाद उन्होंने पंजाब में क्वेटा सेंट्रल रिलीफ़ कमेटी की स्थापना की.
सादगी से गुजारा जीवन
ईमानदारी की मिसाल राजेन्द्र प्रसाद देश के सर्वोच्च पद पर यानी राष्ट्रपति के पद पर कई सालों तक रहे. लेकिन इस दौरान भी उन्होंने अपनी सादगी नहीं छोड़ी. राष्ट्रपति भवन कमरों की भरमार है, लेकिन उन्होंने अपने इस्तेमाल के लिए केवल 2-3 कमरे ही रखे थ��. राष्ट्रपति भवन के एक कमरे में चटाई बिछी रहती थी, यहां पर वह महात्मा गांधी से प्रेरित होकर चरखा काता करते थे. यह डॉ. राजेंद्र प्रसाद की राजनीतिक शुचित ही थी कि राष्ट्रपति पद से हटने के साथ ही उन्होंने राजनीति से संन्यास भी ले लिया था. पटना के एक आश्रम में 28 फरवरी, 1963 को बीमारी के कारण उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली. यह भी सच है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद उन बिरले राजनेताओं में थे, जो राष्ट्रपति पद से हटने के बाद सीधे पटना के सदाकत आश्रम में रहे. इतना ही नहीं जब उनका समय निकट आया, तो वह अपने जर्जर घर में चले गए.
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संविधान सभा का किया था नेतृत्व
राजेंद्र प्रसाद ने एक दशक से भी अधिक समय तक बतौर राष्ट्रपति अपनी सेवाएं दीं. वह 1950-62 के बीच राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे. वर्ष 1962 में राजेंद्र प्रसाद को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. उन्होंने संविधान सभा का भी नेतृत्व किया था. राजेंद्र प्रसाद उस दौर के सबसे बेहतरीन नेता और महान समाजसेवी महात्मा गांधी के बेहद करीबी सहयोगी थे. ��जादी के बाद वह भारत के पहले राष्ट्रपति बने. महात्मा गांधी के करीबी होने के चलते ही राजेंद्र प्रसाद को ‘नमक सत्याग्रह’ और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जेल तक जाना पड़ा. डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना वकालत का करियर छोड़कर देश सेवा को तरजीह दी. वह एक आदर्श शिक्षक होने का साथ-साथ सफल वकील और प्रभावशाली लेखक भी थे. यह भी कम बड़ी बात नहीं कि उन्होंने अपने जीवन का हर पल देश की सेवा में बिताया. उनकी खूबियों के चलते ही 26 जनवरी, 1950 को उन्हें भारत का पहला राष्ट्रपति चुना गया. वह लगभग 12 वर्षों तक इस पद पर आसीन रहे. वह देश के इकलौते ऐसे नेता हैं, जो इतने लंबे समय तक राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे.
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कई भाषाओं के थे जानकार
देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार के सीवान में 3 दिसंबर, 1884 को हुआ था. पिता का नाम महादेव सहाय और माता का नाम कमलेश्वरी देवी था. वह पढ़ाई में बहुत अच्छे थे और उनकी शुरुआती शिक्षा बिहार के छपरा जिले के एक ग्रामीण स्कूल में हुई थी. डॉ राजेंद्र प्रसाद की हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली एवं फारसी भाषा पर अच्छी पकड़ थी. उन्होंने पटना से कानून में मास्टर की डिग्री ली. राजेंद्र प्रसाद अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे, इसलिए उन्हें दुलार भी खूब मिला. उनके एक बड़े भाई और 3 बड़ी बहनें थीं. उनकी मां की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई थी. ऐसे में राजेंद्र प्रसाद का पालन-पोषण और देखभाल उनकी बड़ी बहनों ने किया था. जून 1896 में 12 साल की कम उम्र में उनकी शादी राजवंशी देवी से हुई. राजेंद्र प्रसाद का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव था. मां कमलेश्वरी देवी ने अपने बेटे यानी राजेंद्र प्रसाद को रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर पाला था. दरअसल, मां ने बेटे में संस्कार कूटकट कर भरे थे.
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गुरु के विचारों का था गहरा प्रभाव
डॉ. राजेंद्र प्रसाद को प्यार से ‘राजेन बाबू’ के नाम से भी पुकारा जाता था. जानकारों का कहना है कि एक दशक तक भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेद्र प्रसाद के जीवन पर उनके गुरु गोपाल कष्ण गोखले के विचारों का गहरा प्रभाव था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था कि उन्होंने गोपाल कृष्ण से मुलाकात और उनके विचारों को जानने के बाद आजादी की लड़ाई में शामिल होने का फैसला किया था. बताया जाता है कि राजेंद्र प्रसाद के निर्मल स्वभाव और उनकी योग्यता को लेकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे महात्मा गांधी भी खूब खुश हुए थे. महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में बिहार में ब्रिटिश नील उत्पादकों द्वारा शोषित किसानों की दुर्दशा को सुधारने के उद्देश्य से एक अभियान के लिए उनका समर्थन हासिल किया था. वर्ष 1920 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपना कानूनी करियर तक छोड़ दिया था.
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3 साल तक बिताया जेल में
गुरु गोपाल कष्ण गोखले के विचारों और महात्मा गांधी से प्रभावित हो कर ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने आजादी के आंदोलन में शिरकत की. आजादी के आंदोलन में शामिल होने के चलते वह ब्रिटिश अधिकारियों की नजर में आए गए. इसकी वजह से उन्हें कई बार कारावास का सामना करना पड़ा. राजेद्र प्रसाद ने अगस्त, 1942 से जून, 1945 तक का समय जेल में बिताया. वह आधुनिक भारत के प्रमुख वास्तुकारों में से एक थे. इसके साथ ही उन्होंने संविधान समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
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पत्नी के जेवरात को किया राष्ट्र को समर्पित
चीन के युद्ध के समय डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पत्नी के जेवर राष्ट्र काे समर्पित कर दिया था. यह भी कड़वा सच है कि देश को उन्होंने बहुत कुछ दिया लेकिन लोगों ने उनके साथ न्याय नहीं किया. राजवंशी देवी (17 जुलाई 1886 – 9 सितंबर 1962) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं. उन्होंने भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की पत्नी और भारत की पहली प्रथम महिला के रूप में कार्य किया. उन्होंने पति राजेंद्र प्रसाद के आदर्शों को अपनाया. बहुत कम लोग जानते हैं कि राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति रहते हुए कभी धन नहीं जोड़ा. उन्होंने अंत समय तक कोई घर या अन्य संपत्ति नहीं बनाई. उन्हें राष्ट्रपति के रूप में जितना वेतन मिलता था, उसका आधा वो राष्ट्रीय कोष में दान कर देते थे.
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बेमन से लड़े चुनाव
राजेंद्र प्रसाद ने 1977 में आपातकाल के बाद घोषित चुनाव में जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ा. कहा जाता है कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे. यह भी सच है कि जयप्रकाश नारायण के अनुरोध पर चुनाव में खड़े हुए. उन्होंने जीत भी हासिल की लेकिन इसके बाद फिर कभी सियासत में सक्रिय नहीं रहे. सादगी पसंद राजेंद्र प्रसाद के परिवार तथा किसी भी रिश्तेदार ने उनके पद का लाभ नहीं उठाया. वह खुद नहीं चाहते थे कि उनका कोई नजदीकी रिश्तेदार राष्ट्रपति पद की गरिमा पर कोई आंच आने दे. यही वजह है कि राजेंद्र प्रसाद को लोग सम्मान के नजरिये से देखते हैं.
Conclusion
आजीवन सादा जीवन जीने वाले राजेंद्र प्रसाद ने कई मिसालें देश के सामने रखी हैं. बतौर राष्ट्रपति 10 साल से अधिक समय तक वह इस पद पर रहे, लेकिन इस दौरान उन्होंने कोशिश की कि उनका परिवार साधारण जिंदगी ही जिए. अपने पद का फायदा उन्होंने शायद ही कभी अपने परिवार को लेने दिया. यहां तक कि जरूरत पड़ने पर वह बिना स्वार्थ के हमेशा राष्ट्र की सेवा के लिए तत्पर रहते थे.
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dainiksamachar · 9 months ago
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हम एकजुट हैं... इस्तीफों के बीच गठबंधन को लेकर कांग्रेस-AAP का क्लीयर मैसेज, जानिए पूरा मामला
नई दिल्ली : लोकसभा चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने दिल्ली में गठबंधन किया है। हालांकि, कांग्रेस में इस फैसले को लेकर घमासान थमता नहीं दिख रहा। ने गठबंधन का विरोध दर्ज कराते हुए दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद दिल्ली कांग्रेस के दो और नेताओं ने पार्टी छोड़ दी। बावजूद इसके कांग्रेस नेतृत्व एकजुट नजर आ रहा। ऐसा माना जा रहा कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर दिल्ली कांग्रेस नेताओं की शंकाएं दूर हो गई हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों पार्टियों ने मंगलवार को 'संयुक्त चुनाव अभियान' की समीक्षा के लिए अहम बैठक की। इस दौरान उन्होंने ये साफ संदेश देने की कोशिश की कि हम एकजुट हैं। दिल्ली में मिले दोनों पार्टियों के नेता सूत्रों ने बताया कि दोनों पार्टियों की दिल्ली और हरियाणा यूनिट्स के नेता बैठक में मौजूद थे। यह बैठक अरविंदर सिंह लवली के दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के कुछ दिनों बाद हुई है। कांग्रेस की ओर से इस बैठक में पार्टी प्रभारी दीपक बाबरिया, अंतरिम प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव और दिल्ली-हरियाणा के अन्य नेता मौजूद थे। आप का प्रतिनिधित्व महासचिव संदीप पाठक, पार्टी विधायक और पीएसी सदस्य दुर्गेश पाठक और दिल्ली प्रदेश उपाध्यक्ष राजेश गुप्ता ने किया। इस्त��फों के बीच एकजुटता दिखाने की कवायद बैठक के बाद संदीप पाठक ने कहा कि दोनों दल देश को बीजेपी सरकार की तानाशाही से बचाने के लिए एकजुट हैं। दोनों पार्टियां जमीनी स्तर पर चुनाव प्रचार पूरे समन्वय से शुरू करेंगे। हमने एक प्रणाली बनाई है, जिसमें हम एक-दूसरे के लिए प्रचार में सहयोग करेंगे और साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। इसे पहले लोकसभा स्तर पर लागू किया जाएगा, फिर विधानसभा स्तर पर समन��वय किया जाएगा। लवली ने क्यों छोड़ा दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष का पद इससे पहले अरविंदर सिंह लवली ने आरोप लगाते हुए कहा था कि दिल्ली में कांग्रेस के लिए संयुक्त अभियान कारगर नहीं हो रहा। गठबंधन के कारण पार्टी को अपनी जमीन गंवानी पड़ रही है। दिल्ली की सातों सीटों में से किसी पर भी कांग्रेस नेताओं के पोस्टर नहीं लगे हैं। आम आदमी पार्टी, दिल्ली की जिन सीटों से चुनाव लड़ रही, वहां कांग्रेस का एक भी पोस्टर नहीं लगा रही। राष्ट्रीय राजधानी की सातों लोकसभा सीटों AAP-कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ रही। दिल्ली में आप चार सीटों पर और कांग्रेस तीन सीटों पर दावेदारी कर रही। हालांकि, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की ये एकता दिल्ली और पड़ोसी राज्य हरियाणा के बॉर्डर पर ही रूक जाता है। पंजाब में दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए हैं। http://dlvr.it/T6H8Xw
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todaybreakingnews24 · 11 months ago
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Breaking News: Rahul Gandhi होंगे किसान आंदोलन मे शामिल
Rahul Gandhi will join the Kisan movement Rahul Gandhi is also expected to address a rally, the date and venue of which is being finalised विकास से परिचित लोगों ने कहा कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पिछले सप्ताह संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों को लेकर सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों के समर्थन में इस सप्ताह पंजाब में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर सकते हैं। एक कांग्रेस नेता ने कहा कि…
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lawspark · 1 year ago
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अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन – शक्ति का दुरुपयोग करने के लिए एक संवैधानिक साधन
परिचय  
भारत का संविधान एक ऐसा उपकरण (इंस्ट्रूमेंट) है जो देश में एक संघीय (फ़ेडरल) व्यवस्था प्रदान करता है और केंद्र और राज्य सरकार के लिए निश्चित कार्यों को भी बताता है। कानून बनाने की प्रक्रिया के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) का संविधान की अनुसूची (शेड्यूल) 7 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। हालांकि, कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके माध्यम से केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर सकती है और राष्ट्रपति के द्वारा आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा उनमें से एक है।भारत के राष्ट्रपति “संवैधानिक तंत्र (कंस्टीट्यूशनल मशीनरी) की विफलता” के मामले में किसी भी राज्य में आपातकाल लगाकर, उस राज्य की विधि के अनुसार और कार्य करने कि शक्ति से आगे निकल सकते हैं। अनुच्छेद (आर्टिकल) 356 में कहा गया है कि “यदि राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल (��वर्नर) से रिपोर्ट प्राप्त होने पर या अन्यथा, संतुष्ट हो जाते हैं कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार इस संविधान के प्रावधानों (प्रोविजन) के अनुसार नहीं चल सकती है, तब राष्ट्रपति किसी राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।” एक राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा के साथ, निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया जाता है और विधान सभा को निलंबित (ससपेंड) कर दिया जाता है और राज्य का प्रशासन सीधे राष्ट्रपति द्वा���ा अपने प्रतिनिधि राज्यपाल के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है।अपनी स्थापना के बाद से, अनुच्छेद 356 बहस और चर्चा का विषय रहा है क्योंकि राष्ट्रपति शासन से राष्ट्र के संघीय ढांचे में बाधा उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अनुच्छेद 356 की उत्पत्ति को भारत सरकार अधिनियम की धारा 93 में वापस खोजा जा सकता है, जिसमें राज्यपाल द्वारा आपातकाल लगाने का समान प्रावधान प्रदान किया गया है, यदि राज्य को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। इस खंड को भारतीय संविधान में ‘राष्ट्रपति’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ को शामिल किया गया था। हालांकि, संविधान सभा के विभिन्न सदस्यों ने एक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के इस प्रावधान का विरोध किया था क्योंकि अनुच्छेद 356 के परिणामस्वरूप ‘अन्यथा’ शब्द की अस्पष्ट और व्यक्तिपरक प्रकृति (सब्जेक्टिव नेचर) के कारण राज्य पर संघ का प्रभुत्व (डॉमिनेंस) हो सकता है।लेकिन, ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बी.आर. अम्बेडकर का विचार था कि संविधान या कानून के किसी भी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है, लेकिन किसी कानून को शामिल ही ना करने के कारण के रूप में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। संविधान सभा की बहस में, उन्होंने कहा कि “वास्तव में, मैं अपने माननीय मित्र श्री गुप्ते द्वारा कल व्यक्त की गई भावनाओं को साझा (शेयर) करता हूं कि हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे धाराओं को कभी भी संचालन में नहीं बुलाया जाएगा और वे अयोग्य (इनएप्लीकेबल) ही रहते हैं। यदि उन्हें लागू किया जाता है, तो मुझे आशा है कि राष्ट्रपति, जो इन शक्तियों से संपन्न हैं, राज्यों के प्रशासन को वास्तव में निलंबित करने से पहले उचित सावधानी बरतेंगे।”मूल रूप से, अम्बेडकर यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल दुर्लभ से दुर्लभ मामलों में किया जा सकता है न कि तुच्छ मुद्दों पर गलत रूप से। संविधान के संस्थापकों (फॉउन्डिंग फादर्स) ने माना है कि देश भर में सामाजिक-राजनीतिक विविधताओं (सोसिओ-पोलिटिकल डाइवर्सिटीज) में कठिन परिस्थितियों को आकर्षित करने क�� संभावना है क्योंकि लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) की राह इतनी आसान नहीं है और इसलिए, राष्ट्रपति को राज्य को बचाने के लिए ऐसी शक्ति दी जानी चाहिए ताकि वह कानून और व्यवस्था के टूटने और राज्य में शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने की स्थिति बना सके।हालांकि, संविधान के निर्माता भारतीय राजनीति की प्रकृति और उदाहरणों की भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं थे जब संविधान को केवल एक विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधित (अमेंड) किया गया था। विडंबना (आईरोनिक) यह है कि संविधान लागू होने के एक साल बाद यानी 1951 में, अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया गया था, जब नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव को बर्खास्त कर दिया था, वो भी जब उनके पास राज्य में बहुमत थी और उनकी विफलता की कोई स्थिति नहीं थी। फिर से, 1954 में, आंध्र प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका गया था क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य पर एक कम्युनिस्ट शासन की संभावना की आशंका थी।तब से, ऐसे कई उदाहरण सामने आ चुके हैं जहां अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल केंद्र सरकार द्वारा अपने राजनीतिक लाभ को प्राप्त करने के लिए और राज्य सरकार से आगे निकलने के लिए, एक उपकरण के रूप में किया गया था। यह भारतीय लोकतंत्र का एक स्थापित सिद्धांत है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है और अंततः एक विशेष राजनीतिक दल से संबंधित मंत्रि परिषद (काउंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स) की सहायता और सलाह के तहत काम करता है। इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केंद्र सरकार इस प्रावधान का उपयोग किसी राज्य में विपक्षी दल को पछाड़ने के लिए एक उपकरण के रूप में कर सकती है।इसलिए, राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) शक्ति के प्रयोग की वैधता संदिग्ध है क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि किसी राज्य में आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की राय केंद्र में एक राजनीतिक दल की विचारधाराओं से प्रभावित हो। इस लेख में लेखक ने बोम्मई मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले पर विशेष जोर देते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण किया है। इसके अलावा, पेपर ने समय की अवधि यानी 2014 से 2020 तक लागू राष्ट्रपति शासन के उदाहरणों, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार इसके कारण और वैधता, और संबंधित प्रावधान में संशोधन की आवश्यकता की जांच की है।
अनुच्छेद 356- इसकी प्रकृति और कार्यक्षेत्र (आर्टिकल 365- इट्स नेचर एंड स्कोप)
अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण करने से पहले, भारतीय राजनीतिक संरचना (स्ट्रक्चर) की प्रकृति को समझना आवश्यक है। भारतीय लोकतंत्र सुशासन के लिए संघ और राज्य सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए ‘��हकारी संघवाद (कॉपरेटिव फेडरलिज्म)’ की अवधारणा पर काम करता है। केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल के मामले के अनुसार, यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप (सब-कांटिनेंट) की संघीय संरचना संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है।भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 भारत को “राज्यों के संघ (यूनियन ऑफ़ स्टेट्स)” के रूप में बताता है, लेकिन संविधान के निर्माताओं का इरादा राज्यों पर संघ का वर्चस्व (सुप्रीमेसी) प्रदान करने का नहीं था। वास्तव में, विभिन्न मामलों में केंद्र सरकार का राज्य सरकार पर प्रभुत्व (डोमिनेंस) है, लेकिन यह लोगों की अधिक भलाई के लिए किया गया था न कि राज्य सरकार की शक्ति को पार करने के लिए। यह संविधान सभा में अम्बेडकर के शब्दों के माध्यम से परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) हो सकता है। उन्होंने कहा कि “यह देखा जाएगा कि समिति ने ‘फेडरेशन’ के बजाय ‘संघ’ शब्द का इस्तेमाल किया है। नाम पर ज्यादा कुछ नहीं बदलता है, लेकिन समिति ने ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम (ब्रिटिश नार्थ अमेरिका एक्ट), 1867 की भाषा का पालन करना पसंद किया है, और माना है कि भारत को एक संघ के रूप में वर्णित करने में फायदे हैं, हालांकि यह संविधान संरचना में संघीय हो सकता है”।भारत की संवैधानिक व्यवस्था में, एक विशेष संस्था या राजनीतिक विंग दूसरों पर श्रेष्ठता का दावा नहीं कर सकता है। महासंघ (फेडरेशन) के रूप में शक्ति, शांति और सद्भाव (हार्मनी) बनाए रखने के लिए कई अंगों और संस्थानों के बीच वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) की जाती है। केंद्र सरकार को कुछ प्रकार का प्रभुत्व प्रदान किया गया है, लेकिन प्रभुत्व को मनमाने कारणों से उपयोग करने के बजाय इच्छित उद्देश्य को पूरा करने की आवश्यकता है।अनुच्छेद 356 को भारतीय संविधान में शामिल किया गया था ताकि केंद्र सरकार संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी जैसी गंभीर परिस्थितियों से राज्यों की रक्षा कर सके क्योंकि भारत जैसे बड़े देश में ऐसी स्थिति के बढ़ने की संभावना हमेशा बनी रहती है। अनुच्छेद 356 के आधार पर दी गई असाधारण शक्ति राज्यों को उनकी चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें बचाने के लिए थी। जैसा कि ऊपर कहा गया है, संघीय ढांचा भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और राज्य सरकार को फेंकने और विधानसभा को निलंबित करने का कोई भी अनुचित या मनमाना कार्य संविधान की मूल संरचना और दिए गए अधिनियम में बाधा उत्पन्न करेगा और इस तरह के कार्य को अमान्य (नल एंड वॉइड) माना जाना चाहिए।अब अनुच्छेद 356 की प्रकृति और दायरे में आते हुए, यह देखा गया है कि अनुच्छेद 356 के दो आवश्यक घटक (कंपोनेंट्स) हैं। सबसे पहले, राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। इसे अन्य परिस्थितियों में भी लगाया जा सकता है जो राज्य की रक्षा के लिए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति को सही लगता है। अनुच्छेद 356 में ‘अन्यथा’ शब्द के प्रयोग में भी यही दिख सकता है। दूसरा, राष्ट्रपति शासन उस राज्य में तब लागू किया जा सकता है जब संवैधानिक तंत्र की विफलता हो। संवैधानिक तंत्र की विफलता उस स्थिति को संदर्भित करती है जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करते हुए अपने कार्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है।अनुच्छेद 356 के तहत, राज्यपाल के पास एक रिपोर्ट तैयार करने और राष्ट्रपति को भेजने की शक्ति है, यदि उसके राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता, या राजनीतिक संकट जैसे हाउस राइडिंग की स्थिति आ जाती है तो। हालांकि, राष्ट्रपति के पास राज्यपाल की रिपोर्ट के अलावा अन्य स्रोतों (सोर्सेस) से प्राप्त जानकारी के आधार पर किसी राज्य में आपातकाल लगाने की शक्ति भी होती है। अब तक, ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ और ‘अन्यथा’ के दायरे और प्रकृति को विधायिका द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है और यह एक व्यापक (वाइड) और व्यक्तिपरक मुद्दा (सब्जेक्टिव इश्यू) बना हुआ है, यानि कि यह मामले पर निर्भर करता है। लेकिन, राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय वस्तु जो राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए संभावित आधार हो सकती है, को न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे में लाया गया है।न्यायालय राज्यपाल की रिपोर्ट की विषय-वस्तु की जांच कर सकती हैं जिसने ‘राष्ट्रपति की संतुष्टि’ को आकर्षित किया है। राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा के अधीन कार्य करता है और राष्ट्रपति केंद्र में रह रहे दल से संबंधित मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है। इसलिए, राज्यपाल की रिपोर्ट के केंद्र में रह रहे दल के हितों और एजेंडे से प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना है और इसे कई बार देखा भी गया है। उदाहरण के लिए, पीएम के रूप में इंदिरा गांधी के पास सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाने का रिकॉर्ड है और 90% परिस्थितियों में, यह उन राज्यों में लगाया गया था जो विपक्षी दलों द्वारा शासित थे या उन राज्यों में जो उनकी पार्टी के हितों के अनुसार नहीं चले थे। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में कहा कि न्यायालय को राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता की जांच करने का अधिकार है।
अनुच्छेद 356 की न्यायिक व्याख्या (ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशन ऑफ़ आर्टिकल 356)
बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे। इस मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का मौका देने से पहले बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में, राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि संदिग्ध नहीं होती है लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट की जांच राष्ट्रपति की संतुष्टि के आधार का पता लगाने के लिए की जा सकती है।न्यायालय ने कहा कि “राष्ट्रपति की संतुष्टि वस्तुनिष्ठ सामग्री (ऑब्जेक्टिव मेटेरियल) पर आधारित होनी चाहिए, वह सामग्री राज्यपाल द्वारा उन्हें भेजी गई रिपोर्ट में या दोनों रिपोर्ट और अन्य स्रोतों से उपलब्ध हो सकती है। इसके अलावा, इस प्रकार उपलब्ध वस्तुनिष्ठ सामग्री से यह संकेत मिलता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल रही है। इस प्रकार उद्देश्य सामग्री का अस्तित्व यह दर्शाता है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चल सकती है, जो कि राष्ट्रपति द्वारा उद्घोषणा (प्रोक्ले��ेशन) जारी करने से पहले कि एक शर्त है। ऐसी सामग्री के मौजूद होने के बाद, सामग्री के आधार पर राष्ट्रपति की संतुष्टि सवालों के घेरे में नहीं रहती है।”रामेश्वर प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में भी ऐसा ही किया गया था, जिसमें न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट की जांच के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा को अयोग्य (डिसक्वालीफाइड) घोषित कर दिया था। यह देखा गया कि रिपोर्ट में ऐसी कोई वस्तुनिष्ठ सामग्री नहीं थी जिससे राष्ट्रपति की संतुष्टि प्राप्त करने की संभावना हो। फिर, ऐसी परिस्थितियों में, जहां राज्यपाल शासन में उचित आधारों का अभाव है, न्यायालय राष्ट्रपति शासन लगाने के राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठा सकती है।यहां राज्यपाल की रिपोर्ट की निष्पक्षता का मतलब है कि संबंधित रिपोर्ट को उन परिस्थितियों की व्यापकता (स्कोप) को दिखाना चाहिए जो राज्य में संवैधानिक तंत्र को रोक रही हैं। स्थिति गंभीर होनी चाहिए क्योंकि संविधान के कुछ प्रावधानों के उल्लंघन को संवैधानिक तंत्र की विफलता नहीं कहा जा सकता है और यह दिखाया जाना चाहिए कि आपातकाल की घोषणा के बिना सरकार संविधान के अनुसार चल सकती है। न्यायालय का विचार था कि आपातकाल लगाना अंतिम उपाय होना चाहिए और राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की घोषणा से पहले अन्य सभी उपायों को चुनने की आवश्यकता है।इसके अतिरिक्त, बोम्मई के मामले का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि न्यायालय ने माना कि आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति की शक्ति पूर्ण शक्ति नहीं है और यह संविधान के प्रावधानों के अधीन है। सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और इसलिए, राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार कार्य करना आवश्यक है।न्यायालय ने कहा कि “अनुच्छेद 356 द्वारा दी गयी शक्ति एक सशर्त शक्ति (कंडीशन्ड पावर) है; यह राष्ट्रपति के विवेक में प्रयोग की जाने वाली पूर्ण शक्ति नहीं है। स्थिति संतुष्टि का गठन है- व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव), इसमें कोई संदेह नहीं है कि खंड द्वारा विचारित प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई है। यह संतुष्टि राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या उसके द्वारा प्राप्त अन्य जानकारी के आधार पर या दोनों के आधार पर बनाई जा सकती है। प्रासंगिक (रिलेवेंट) सामग्री का अस्तित्व संतुष्टि के गठन के लिए एक पूर्व शर्त है। “मे” शब्द का प्रयोग न केवल विवेक का संकेत देता है बल्कि कार्रवाई की उपयुक्तता (एडमिसिबिलिटी) और आवश्यकता पर विचार करने का दायित्व (ऑब्लिगेशन) भी दर्शाता है।”अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके राज्य को गंभीर प्रकृति के संकट से बचाने के लिए आपातकाल लगाने की असाधारण शक्ति प्रदान की गई है। राज्यपाल की रिपोर्ट की न्यायिक समीक्षा की अनुमति के बावजूद, व्यापक दायरे के कारण अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग अभी भी जारी है। अनुच्छेद 356 के ‘अन्यथा’ और ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ शब्दों का क्या अर्थ है, इसकी कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है, जो अंत में केंद्र सरकार के हाथों में इसके दुरुपयोग की ओर ले जाती है।
2014 से राष्ट्रपति शासन लागू
यह अध्याय 2014 से पांच राज्यों में लागू राष्ट्रपति शासन और उसके कारणों से संबंधित है। इसके अलावा, शोधकर्ता (रिसर्चर) का उद्देश्य आपात स्थिति की प्रकृति को समझना है और क्या ऐसे कारण संवैधानिक तंत्र की विफलता के बराबर हैं।2016 में अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करना: 2016 में, अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता (पॉलिटिकल इंस्टेबिलिटी) पैदा हुई जब कांग्रेस के 20 विधायकों ने भाजपा और दो निर्दलीय विधायकों (इंडिपेंडेंट एमएलए) के साथ हाथ मिलाया और मुख्यमंत्री ��बाम तुकी के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इन विधायकों ने राज्यपाल के समक्ष राज्य में सरकार बनाने की अपनी इच्छा मुख्यमंत्री को बताए बिना विधानसभा सत्र (सेशन) को आगे बढ़ाया और विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की सूची दे दी। इसके बाद स्पीकर ने उन 20 विधायकों को दलबदल के आधार पर अयोग्य घोषित कर दिया। हालांकि, गुवाहाटी के उच्च न्यायलय ने इसे अयोग्य घोषित कर दिया था।इस बीच, राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार की और राष्ट्रपति को यह कहते हुए इसे भेजा कि एक राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिससे सरकार के लिए संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार अपने कार्यों को अंजाम देना असंभव हो गया है। राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया और विधानसभा को निलंबित कर दिया। उसके बाद कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने को चुनौती दी थी, लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार ने शपथ ले ली थी ।यहां पहला सवाल यह उठता है कि क्या यह संवैधानिक तंत्र की विफलता है और अगर कोई विफलता है, तो क्या राज्यपाल राजखोवा ने एक रिपोर्ट तैयार करने से पहले सभी उपायों के विकल्प को देखा है जिसके परिणामस्वरूप आपात स्थिति हुई है। राज्यपाल की रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह देखा गया था कि संवैधानिक तंत्र की विफलता दिखाने के लिए जो प्रमुख कारण बताया गया था, वह गायों का वध है। विडंबना यह थी कि भारत जैसे देश में जहां पशु अधिकारों का उल्लंघन एक मामूली मुद्दा था, गाय के वध को राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए कानून और व्यवस्था के टूटने के रूप में पेश किया गया था। राज्य में गाय के वध पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था और इसलिए, रिपोर्ट में इस तरह के तुच्छ मुद्दों का उल्लेख करना अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का एक स्पष्ट उदाहरण था।एक अन्य प्रमुख बात जो राज्यपाल ने की, वह यह थी कि 20 विधायकों के बागी (रिबेल) होने के कारण, कांग्रेस ने सदन में अपना बहुमत खो दिया था। इसे एक कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता था क्योंकि रिपोर्ट तैयार करने से पहले, राज्यपाल को सत्ताधारी सरकार को फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए था। जैसा कि बोम्मई के मामले में कहा गया था, राष्ट्रपति शासन लागू करना अंतिम उपाय होना चाहिए और सभी कदमों का सहारा लेने के बाद ही इसे लगाया जा सकता है। 20 विधायकों कि बागी, एक पार्टी के भीतर का मुद्दा था और यह दलबदल का मामला था न कि संवैधानिक तंत्र की विफलता का मामला।सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच ने राज्यपाल की कार्रवाई को असंवैधानिक माना क्योंकि ये कारण यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है और राज्यपाल की रिपोर्ट में कोई तर्क नहीं है, इसलिए संतुष्टि के लिए राष्ट्रपति से पूछताछ की ��ा सकती है। न्यायालय ने कहा कि “राजनीतिक दल के भीतर की गतिविधियां, जो उसके रैंकों के भीतर अशांति की पुष्टि करती हैं, राज्यपाल की चिंता से परे हैं”। इसलिए, भले ही यह अनुमान हो कि सत्ता वाली सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है, आपातकाल के उपाय को चुनने से पहले एक मंजिल की आवश्यकता होती है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए शीर्ष न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया था​​ और राज्य में तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को बहाल (रिस्टोर) कर दिया था।उत्तराखंड राजनीतिक संकट और राष्ट्रपति शासन: 2016 में, उत्तराखंड में सीएम हरीश रावत ने कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया था। राज्य में समस्या की शुरुआत विधानसभा में बजट को लेकर बहस के दौरान हुई जब 9 विधायकों ने पार्टी के खिलाफ बगावत कर दी और बीजेपी से हाथ मिला लिया। इसके चलते कांग्रेस के नेतृत्व वाले रावत के बहुमत को चुनौती दी गई और उसी के संबंध में राज्यपाल केके पॉल ने फ्लोर टेस्ट में सीएम रावत को बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित किया था। फ्लोर टेस्ट से पहले, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संवैधानिक तंत्र का कारण बताते हुए कैबिनेट की सलाह पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। विधिवत निर्वाचित (इलेक्टेड) सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और विधानसभा को निलंबित कर दिया गया।यहां जो बड़ा सवाल उठता है, वह फ्लोर टेस्ट की प्रतीक्षा किए बिना आपातकाल लगाने के राष्ट्रपति के फैसले की संवैधानिकता के बारे में है। राजनीतिक अस्थिरता से संबंधित सभी प्रश्नों का एकमात्र उत्तर, फ्लोर टेस्ट के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है लेकिन राष्ट्रपति द्वारा इसे टाल दिया गया था। जब राष्ट्रपति शासन को उत्तराखंड के उच्च न्यायलय के समक्ष चुनौती दी गई, तो न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया और फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश का विचार था कि भले ही राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और राष्ट्रपति शासन लागू करना पूर्ण शक्ति नहीं है; ऐसा लग रहा था कि केंद्र एक ‘निजी पार्टी’ की तरह काम कर रहा है, यानी अपने राजनीतिक हितों के लिए काम कर रहा है। जैसा कि बार-बार कहा गया था कि राष्ट्रपति शासन अंतिम उपाय होना चाहिए, बिना फ्लोर टेस्ट के इसे लागू करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।राष्ट्रपति शासन की गंभीरता को समझने की जरूरत है; यह राज्य सरकार के दायरे में एक अतिक्रमण (एन्क्रोचमेंट) की तरह है जिससे देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन होता है। इसके अतिरिक्त, शोधकर्ता ने पाया कि यह कहने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं कि राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता है क्योंकि राज्यपाल की रिपोर्ट का कोई प्रचलन नहीं है और ऐसी घटनाएं जो संवैधानिक सिद्धांतों से परे हैं, और यह राजनीतिक संकट था, लेकिन विधानसभा को निलंबित करने से पहले इसे हल करने के लिए फ्लोर टेस्ट जैसे कोई कदम नहीं उठाए गए थे।मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति शासन: भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोकपाल बिल को सदन में पारित करने में उनकी सरकार की विफलता के कारण, केजरीवाल ने अपने मंत्रिपरिषद के साथ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। क्यूंकि सदन में आ.प. 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loktantraudghosh · 2 years ago
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राहुल गांधी पहली बार "भारत जोड़ो यात्रा" में जैकट पहने आए नजर....
प्रदीप जैन ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नेतृत्व कर रहे कांग्रेस सांसद राहुल गांधी अपनी यात्रा के अंतिम चरण के लिए गुरुवार को पंजाब से जम्मू पहुंचे. राहुल गांधी अभी तक सिर्फ एक टी-शर्ट पहनकर भीषण सर्दी में उत्तर भारत में मार्च करते नजर आए ��े, लेकिन आज पहली बार वह जैकेट में दिखे. जम्मू के कई हिस्सों में सुबह से बूंदाबांदी हो रही है, यही वजह है कि राहुल गांधी ने आखिरकार गर्म कपड़े पहने. बाद में उन्हें…
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mrdevsu · 3 years ago
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पंजाब के बाद अब राजस्थान की गहलोत सरकार में भी होगा बदलाव? कांग्रेस नेता ने दिया ये जवाब
पंजाब के बाद अब राजस्थान की गहलोत सरकार में भी होगा बदलाव? कांग्रेस नेता ने दिया ये जवाब
नई दिल्ली: पंजाब सरकार में परिवर्तन के बाद अब राज्यपाल को सूचित करना होगा। इसी तरह के दलालों के पद के लिए दलालों ने दलालों की नियुक्ति की थी। अब राजस्थान के मंत्री हरीश चौधरी ने उत्तर दिया है। ️ राजस्थान️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️️ अपना चयन करने के लिए। पंजाब नेशनल में परिवर्तन पर कहा जाता है मंत्री हरीश चौधरी ने, ‘राजस्थान और पंजाब में अंतर है। राजस्थान के अधिक जनसंख्या वाले आंकड़े…
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indlivebulletin · 1 month ago
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केंद्र सरकार को अड़ियल रवैया छोड़कर किसानों से बात करनी चाहिए: हुड्डा
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने बृहस्पतिवार को कहा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को अपना अड़ियल रवैया छोड़कर प्रदर्शनकारी किसानों से बात करनी चाहिए, क्योंकि आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। डल्लेवाल 26 नवंबर से पंजाब के खनौरी बॉर्डर पर अनशन पर बैठे हैं, ताकि केंद्र पर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य…
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tezlivenews · 3 years ago
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Punjab Congress: धैर्य ना खोएं, मुझे पता है कब और क्या कहना है...पंजाब में सिद्धू के करीबी विधायक को हरीश रावत की दो टूक
Punjab Congress: धैर्य ना खोएं, मुझे पता है कब और क्या कहना है…पंजाब में सिद्धू के करीबी विधायक को हरीश रावत की दो टूक
चंडीगढ़पंजाब में कांग्रेस के प्रभारी और वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू में मचे घमासान के बीच विधायक परगट सिंह को दो टूक जवाब दिया है। सिद्धू के करीबी परगट ने कैप्टन अमरिंदर के नेतृत्व में चुनाव लड़े जाने संबंधी बयान को लेकर रावत पर सवाल उठाया था। उत्तराखंड के पूर्व सीएम और AICC महासचिव हरीश रावत ने कहा, ‘हमारी पार्टी में सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित…
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dainiksamachar · 1 year ago
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इधर सीट शेयरिंग पर फॉर्मूला रेडी, उधर कांग्रेस-AAP की जुबानी जंग... हो क्‍या रहा है?
नई दिल्‍ली: विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A का अजब ही सीन है। एक तरफ पर फॉर्मूला रेडी हो जाने का दावा किया जा रहा है। वहीं, दूसरी तरफ अलायंस के घटक दल एक-दूसरे के साथ तीखी जुबानी जंग में उलझे हैं। यह हर किसी के मन में सवाल पैदा कर रहा है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्‍या इस तरह का बिखरा गठबंधन लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी को चुनौती दे पाएगा? यह चुनौती कितनी दमदार होगी? एक बार मान भी लिया जाए कि I.N.D.I.A अलायंस मिलकर बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए को धूल चटा देता है तो क्‍या गारंटी है कि ��िर फुटौव्‍वल के बगैर एक स्थिर सरकार देश को मिलेगी? इन सवालों का उठना बहुत लाजिमी है। खासतौर से कांग्रेस और (AAP) के बीच जारी तल्‍खी को देखते हुए। I.N.D.I.A अलायंस के ये दोनों दल एक-दूसरे पर जबर्दस्‍त तरीके से हमलावर हैं। इनका आपसी टकराव देखते हुए यह डर तक सता रहा है कि कहीं चुनाव से ऐन पहले कोई अलायंस के बिखराव का कारण न बन जाए। सीट शेयरिंग पर बन रही है बातसीट शेयरिंग पर विपक्षी गठबंधन की गाड़ी एक-एक कदम आगे बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों के सामने यह सबसे पेचीदा मुद्दा है। मीडिया में आ रही खबरों की मानें तो I.N.D.I.A अलायंस के लिए कांग्रेस ने सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तैयार कर लिया है। इसकी रिपोर्ट बुधवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को सौंपी जाएगी। माना जाता है कि कांग्रेस 9 राज्यों में गठबंधन करने वाली है। जिन राज्यों में कांग्रेस सहयोगी दलों से गठबंधन कर सकती है, उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, केरल और तमिलनाडु शामिल हैं। पंजाब में गठबंधन की संभावना बेहद कम है। दिल्‍ली और पंजाब में AAP की सरकार है। AAP और कांग्रेस में बढ़ती रारआम आदमी पार्टी के साथ पंजाब में गठबंधन न हो पाने की संभावना को भांप लेना बहुत मुश्किल भी नहीं है। जिस तरह पिछले कुछ दिनों से दोनों दलों के नेता एक-दू���रे के खिलाफ बयान दे रहे हैं, उससे अंदर के हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है। सोमवार को सीएम भगवंत मान ने पंजाब कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाते हुए निशाना साधा था। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस नेता गठबंधन के खिलाफ हैं। उन्‍हें अंदेशा है कि अगर ऐसे गठबंधन से पंजाब में चुनाव लड़ा गया तो कांग्रेस का पंजाब से सूपड़ा साफ हो जाएगा। मान बोले थे कि जल्द ही पंजाब और दिल्ली में माताएं अपने बच्चों को यह कहानी सुनाती दिखाई देंगी- 'एक थी कांग्रेस'।वार पर पलटवार कर रहे नेतासीएम मान के इस बयान पर अगले ही दिन कांग्रेस की तीखी प्रतिक्रिया आई। कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने मंगलवार को कहा कि बड़े गठबंधन में आने के जितने तौर-तरीके हैं, उसकी समझ AAP को नहीं है। आने वाले समय में माताएं ये भी कहेंगी कि एक पार्टी थी जो आज कल तिहाड़ जेल में मिलती है। संदीप दीक्षित ने सवाल करते हुए पूछा- ऐसी कौन सी पार्टी है जिसका 40 फीसदी नेतृत्व जेल में हो और बाकी जाने के लिए तैयार बैठा हो? संदीप दीक्षित ने कहा कि AAP की एक दिक्कत है। ��सके पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो सार्वजनिक पटल पर सि��ासी बातचीत सहजता से कर सके। AAP नेताओं में इसकी समझ नहीं है। इसमें उनकी भी गलती नहीं है। उनके पास ऐसी कोई विरासत नहीं है। http://dlvr.it/T0sk14
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karansinghji78 · 4 years ago
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सिंघु बॉर्डर पर SHO पर हमला करने वाला अरेस्ट, 26 जनवरी को लाल किले में तलवार घुमाते दिखा आरोपी भी पकड़ा गया
नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को बुधवार को 84 दिन हो गए हैं। ��िसान दिल्ली की सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच, सिंघु बॉर्डर पर प्रदर्शन में शामिल एक व्यक्ति ने मंगलवार रात पुलिस अधिकारी पर तलवार से हमला कर दिया। इसके बाद वह पुलिस अधिकारी की गाड़ी लेकर भाग गया। घायल SHO को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
पुलिस ने बुधवार को बताया कि आरोपी का नाम हरप्रीत सिंह है। उसने रात करीब 8 बजे सिंघु बॉर्डर पर यह वारदात की। पुलिस के जवानों ने PCR वैन से उसका पीछा किया। हरप्रीत ने मुकरबा चौक के पास फुटपाथ पर गाड़ी चढ़ा दी। इसके बाद वह एक व्यक्ति से बाइक छीनकर फरार हो गया। पुलिस ने करीब 8.30 बजे उसे पकड़ लिया।
सूत्रों का कहना है कि आरोपी की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। हालांकि, दिल्ली पुलिस ने इस दावे की पुष्टि नहीं की है। एक सीनियर पुलिस ऑफिसर ने बताया कि आरोपी पर कानूनी कार्रवाई चल रही है।
26 जनवरी हिंसा मामले में 1 और गिरफ्तारी 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान कथित तौर पर तलवार घुमाते दिखे मनिंदर सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया है। पुलिस ने बुधवार को बताया कि 30 साल का मनिंदर कार मैकेनिक है। उसे मंगलवार शाम करीब 7.45 बजे दिल्ली के पीथमपुरा से पकड़ा गया। उसके घर से 2 तलवारें भी बरामद हुई हैं।
DCP (स्पेशल सेल) प्रमोद सिंह कुशवाह ने बताया कि मनिंदर का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह दोनों हाथों से तलवार घुमाकर भीड़ को उकसा रहा था। मनिंदर स्वरूप नगर में अपने घर के पास खाली प्लॉट में तलवार चलाने की ट्रेनिंग देता है। सोशल मीडिया की पोस्ट से उसके कट्टरपंथी होने का खुलासा हुआ है। वह अक्सर सिंघु बॉर्डर पर आता था और वहां के नेताओं के भाषणों से प्रेरित था।
किसान आंदोलन के राजनीतिक नुकसान से भाजपा चिंतित किसान आंदोलन राजनीतिक रंग लेता जा रहा है, इससे भाजपा की चिंता बढ़ रही है। उसका मानना है कि इसका जल्द हल नहीं निकला तो उसे चुनावो में जाट बहुल इलाकों में बड़ा नुकसान हो सकता है, खासकर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में पार्टी की स्थिति कमजोर हो सकती है।
इन क्षेत्रों के सांसदों और विधायकों के फीडबैक के आधार पर पार्टी अब अपनी रणनीति बनाने में जुट गई है। शीर्ष नेतृत्व ने इसके लिए इन नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र खासतौर पर जाट किसानों से लगातार संपर्क में रहने को कहा है।
जाट वोट बैंक पर पकड़ बनाए रखने के लिए रणनीति बनाई किसान आंदोलन से राजनीतिक नुकसान की आशंका को देखते हुए दिल्ली में भाजपा क�� राष्ट्रीय मुख्यालय में मंगलवार को बैठक हुई। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और महासचिव (संगठन) बीएल संतोष शामिल हुए। इन नेताओं ने विधायकों और स्थानीय नेताओं से आग्रह किया कि वे इन क्षेत्रों में स्थानीय खापों, पंचायतों और सामुदायिक समूहों के साथ संपर्क करें ताकि पार्टी और सरकार की स्थिति को समझाया जा सके।
किसान आंदोलन के जारी रहने और पार्टी के जमीनी कैडर से मिले फीडबैक के बाद पार्टी नेतृत्व को यह बैठक करने के लिए मजबूर होना पड़ा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों ने 2014 से ही प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में एकतरफा मतदान किया है। अब विपक्षी पार्टियां खासकर कांग्रेस जाटों को लुभाने का प्रयास कर रही है। प्रियंका गांधी लगातार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान पंचायतों में शामिल हो रही हैं।
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trendingwatch · 2 years ago
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पंजाब से राजस्थान तक, राहुल गांधी का 'जादू की झप्पी' फिक्स असंतोष पर अंकुश लगाने में विफल रहा है। क्या कट्टा जिंक्स को तोड़ सकता है?
पंजाब से राजस्थान तक, राहुल गांधी का ‘जादू की झप्पी’ फिक्स असंतोष पर अंकुश लगाने में विफल रहा है। क्या कट्टा जिंक्स को तोड़ सकता है?
एक तस्वीर एक हजार शब्द कह सकती है, लेकिन कुछ मामलों में, यह असफल प्रयासों की एक गंभीर याद बन सकती है। कांग्रेस की वेबसाइट और सोशल मीडिया हैंडल पर सर्च करने पर दिलचस्प तस्वीरें सामने आती हैं। जैसे राजस्थान चुनाव के ठीक बाद जब सचिन पायलट और अशोक गहलोत खेमे के बीच प्रतिद्वंद्विता के बीच दोनों को साथ देखा जा सकता था. राहुल गांधी एकता के प्रदर्शन में। आज तक, राज्य नेतृत्व परिवर्तन के हालिया असफल…
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joinnoukri · 2 years ago
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Punjab AG’s brother is chairman of Congress’ legal cell
Punjab AG’s brother is chairman of Congress’ legal cell
भगवंत मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी सरकार ने मंगलवार को अनमोल रतन सिद्धू के स्थान पर विनोद घई को नया एजी नामित किया था, जिन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया था। वरिष्ठ अधिवक्ता विनोद घई के पंजाब के महाधिवक्ता के रूप में पदभार संभालने के एक दिन बाद, कांग्रेस ने रविवार को उनके बड़े भाई बिपन घई को अपनी राज्य इकाई के कानूनी प्रकोष्ठ का अध्यक्ष नियुक्त किया। पंजाब कांग्रेस के कानूनी, मानवाधिकार और…
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indianewsstream · 3 years ago
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पंजाब के पूर्व कांग्रेस मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार
चंडीगढ़, 7 जून (आईएएनएस)| विजिलेंस ब्यूरो ने मंगलवार को पूर्व मंत्री साधु सिंह धर्मसोत को भ्रष्टाचार निरोधक कानूून के तहत गिरफ्तार कर लिया है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली पिछली कांग्रेस सरकार में धर्मसोत वन मंत्री थे। इन पर 25,000 से ��धिक पेड़ों की अवैध कटाई में शामिल होने का आरोप है।
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nbs-hindi-news · 3 years ago
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पंजाब : पूर्व मंत्री साधु सिंह धर्मसोत भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार, भगवंत मान ने एक महीने पहले दी थी चेतावनी
पंजाब : पूर्व मंत्री साधु सिंह धर्मसोत भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार, भगवंत मान ने एक महीने पहले दी थी चेतावनी
चंडीगढ़: पंजाब सतर्कता जांच ब्यूरो ने मंगलवार तड़के राज्य के पूर्व मंत्री साधु सिंह धर्मसोत को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया है. आधिकारिक सूत्रों ने यह जानकारी दी. कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती सरकार में समाज कल्याण और वन मंत्री रहे धर्मसोत को अमलोह से गिरफ्तार किया गया है. ये कदम भ्रष्टाचार के एक मामले में जिला वन अधिकारी गुरमनप्रीत सिंह और एक ��ेकेदार हरमिंदर सिंह हम्मी की गिरफ्तारी…
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lok-shakti · 3 years ago
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कर्नाटक में कांग्रेस का कांग्रेस से मुकाबला
कर्नाटक में कांग्रेस का कांग्रेस से मुकाबला
कभी कई स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी अब मजाक का विषय बनती जा रही है। इसके अपने नेता लगातार एक-दूसरे के खिलाफ सियासी घमासान मचाते रहते हैं। घिनौने झगड़ों और अंदरूनी कलह के कारण, पार्टी को पंजाब में अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था। इसी तरह के कार्यक्रम कर्नाटक में हो रहे हैं जहां पार्टी के सदस्य वाकयुद्ध में लगे हुए हैं। कर्नाटक कांग्रेस इम्प्लोजन कर्नाटक में कांग्रेस कम…
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