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नालंदा विश्वविद्यालय: 700 साल का ज्ञान और उसका विनाश
नालंदा विश्वविद्यालय, प्राचीन भारत का एक अद्वितीय शिक्षा का केंद्र, जिसने शिक्षा के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए थे। यह विश्वविद्यालय 5वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था और यह अपने समय का सबसे बड़ा और सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान था। इस विश्वविद्यालय ने लगभग 700 वर्षों तक ज्ञान का प्रसार किया और पूरे विश्व से छात्र यहां अध्ययन करने आते थे।
नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर बहुत विशाल थ���, जिसमें दस बड़े मठ और कई छोटे-छोटे मंदिर थे। यहां पर लाइब्रेरी भी थी, जिसे 'धर्मगंज' कहा जाता था, जिसमें हजारों पांडुलिपियाँ और ग्रंथ संग्रहीत थे। यह लाइब्रेरी तीन भवनों में विभाजित थी - रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। यह विश्वविद्यालय न केवल बौद्ध धर्म के अध्ययन का केंद्र था, बल्कि यहां अन्य विषयों जैसे गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, तर्कशास्त्र और कला का भी अध्ययन होता था।
नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना बहुत कठिन था। यहां के विद्वान शिक्षक अपने समय के सबसे ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्तित्व थे। ह्वेनसांग, जो एक चीनी तीर्थयात्री थे, उन्होंने नालंदा में 17 साल तक अध्ययन किया और अपनी यात्रा वृतांत में इस विश्वविद्यालय की महानता का विस्तार से वर्णन किया है।
12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया गया। कहा जाता है कि यहां की लाइब्रेरी में इतनी पुस्तकें थीं कि उन्हें जलने में कई महीने लगे। यह एक ऐसा आघात था जिससे भारतीय शिक्षा प्रणाली कभी उबर नहीं पाई।
नालंदा विश्वविद्यालय का विनाश भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक और शैक्षिक धरोहर पर एक गहरा आघात था। लेकिन इसके बावजूद, नालंदा का इतिहास आज भी हमें प्रेरित करता है और हमें यह याद दिलाता है कि भारत में शिक्षा और ज्ञान का कितना समृद्ध इतिहास रहा है।
आज नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष बिहार के नालंदा जिले में स्थित हैं, जो पर्यटकों और इतिहासकारों के लिए एक प्रमुख आकर्षण का केंद्र हैं। 2014 में, नालंदा विश्वविद्यालय को पुनःस्थापित किया गया और यह नए युग के छात्रों को शिक्षा का प्रकाश प्रदान कर रहा है।
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जैसे इधर मदारी का इशारा होता है और उधर जमूरे का काम शुरू होता है, ठीक उसी तरह इधर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने "अपने हिन्दुओं" के युद्धरत होने की बात कही और युद्धकाल में उनके द्वारा आँय-बाँय-साँय कुछ भी बोलने को जायज ठहराया, उधर उनकी पूरी भक्त पलटन ने युद्ध का नया मोर्चा खोल लिया। इस बार उन्हें बिहार के शिक्षामंत्री चंद्रशेखर सिंह का सिर - असल में जीभ - चाहिए। एक सुर में इस कुटुंब के हाहाकारी शोर के बीच इन्हीं के कुनबे के एक कथित संत, स्वयंभू जगद्गुरु परमहंस आचार्य ने बिहार के शिक्षा मंत्री की जीभ काटकर लाने वाले के लिए 10 करोड़ रुपयों का ���नाम भी घोषित कर मारा। बकौल इस गिरोह के, बिहार के शिक्षा मंत्री ने जो बोला है, वह "सनातनियों का अपमान है। " इसी को थीम बनाकर सिर्फ बिहार के ही नहीं, देश भर के भाजपा नेता टूट पड़े, आर्तनाद की लह���ों के ज्वार आ गए, भड़काऊ बयानों की झड़ी लग गयी। आखिर ऐसा क्या बोल दिया बिहार के शिक्षामंत्री ने कि देश में असमानता की भयानक सच्चाई सामने लाने वाली ऑक्सफैम की ताजी रिपोर्ट, विदेश नीति का बाजा बजने वाले चिंताजनक मुद्दों की बजाय यह एक बयान ही धरा के इधर वाले हिस्से के लिए सबसे जरूरी और संगीन हो गया? नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए बिहार के शिक्षा मंत्री ने कहा कि "नफरत देश को महान राष्ट्र नहीं बना सकती है। प्रेम से ही देश महान बनेगा।" इसके बाद उन्होंने अलग-अलग युग के नफरतियों की शिनाख्त करते हुए बताया कि "पहले युग में मनुस्मृति ने यह काम किया, दूसरे युग में रामचरितमानस ने और तीसरे युग में गोलवलकर के बंच ऑफ थाट्स ने नफरत फैलाने का काम किया।" देखा जाए तो चंद्रशेखर कोई नई बात नहीं कह रहे थे, यह बातें और भी ज्यादा तल्ख़ शब्दों में देश के अनेक विचारक, सामाजिक और राजनीतिक नेता कह चुके हैं। इनमें से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर भी हैं, जिनका इन मंत्री महोदय ने अपने भाषण में भी जिक्र किया और जिन्होंने बाकायदा अभियान चलाकर इस मनुस्मृति को जलाया भी था। उन्होंने कोई नई बात नहीं बोली थी। बाकियों का जिक्र छोड़ भी दें, तो जिस विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में वे बोल रहे थे, उसी नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे, भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र के संस्थापक आचार्य धम्मकीर्ति, सातवीं शताब्दी में ही, इससे भी ज्यादा दो टूक शब्दों में "त्रय वेदस्य कर्तारः, धूर्त, भंड, निशाचरः" कह चुके थे। मगर भक्तों को इस सबसे क्या! -- उन्हें मदारी ने जिधर छू किया, वे उधर की तरफ लपक लिए। लपकने में भी चुनिंदा होना मदारियों की चतुराई और अपढ़ भक्तों की विवशता है। अब संघी और भाजपाई इन शिक्षा मंत्री द्वारा गिनाई गयी तीन युगों की सभी तीनों किताबों की हिमायत में तो, फिलहाल, कूद नहीं सकते। उन्हें पता है कि मनुस्मृति का खुलेआम पक्ष लेना महँगा पड़ सकता है, सो उसके बारे में वे एक शब्द नहीं बोले। उनके आराध्य, जिन्हे वे परमपूज्य गुरु मानते हैं, उन गोलवलकर की "बंच ऑफ़ थॉट" तो इतनी ज्यादा नफरती और विषैली है कि खुद मौजूदा सरसंघचालक भागवत को भी -- भले फिलहाल के लिए ही -- उसके "कुछ अंशों से" पल्ला झाड़ने का एलान करने के लिए विवश होना पड़ा था। सो मंत्री द्वारा इस किताब का जिक्र करने पर भाजपा के बड़के नेताओं से लेकर छुटक�� मोदी, सुशील मोदी तक, किसी को भी उज्र नहीं है। उन्होंने सारी भद्रा 16वी शताब्दी में लिखी गयी तुलसी की रामचरितमानस पर केंद्रित करके निकाल दी। तुलसी होते तो बहुतई प्रमुदित होते। उन्हें मजेदार लगता कि जिन ब्राह्मणवादियों ने उनको ब्राह्मण न होने,अवधी और लोकभाषा में रामचरितमानस लिखने, यहां तक कि उसमें उर्दू के भी कुछ शब्द वापरने की वजह से अयोध्या के मंदिरों से बाहर खदेड़ दिया था, धर्मशालाओं तक में उनके रहने पर रोक लगवा दी थी, जिसके चलते खुद तुलसी को अपनी माँग के खाने, मस्जिद में रहकर रामकथा लिखने की व्यथा बयान करते हुए लिखना पड़ा था कि "तुलसी सरनाम, गुलाम है रामको, जाको चाहे सो कहे वोहू / मांग के खायिबो, महजिद में रहिबो, लेबै को एक न देबै को दोउ। " (मेरा नाम तुलसी है, मैं राम का गुलाम हूँ, जिसको जो मन कहे कहता हूँ, मांग के खाता हूँ, मस्जिद में रहता हूँ, न किसी से लेना, न किसी को देना), उन्हें अचरज हुआ होता कि आज वे ही "बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥" (खुद को राम का भक्त कहला कर लोगों को ठगने वाले, धन लोभ, क्रोध और काम के गुलाम, धींगाधींगी करने वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले) आज उनकी हिमायत में उछले उछले घूम रहे हैं। तुलसी को सचमुच का आश्चर्य मिश्रित कौतुक हुआ होता कि जिन स्त्री और शूद्रों के ऊपर कुछ तो भी लिख-लिखकर उन्होंने पूरी जिंदगी गुजार दी थी, ये
बंचक भगत उस अरक्षणीय का भी रक्षण करने पर आमादा है । उन्हें अचरज होता कि आज के स्वयंभू सनातनिये उनके तबके लिखे को "मानवता की स्थापना करने वाला ग्रन्थ और भारतीय संस्कृति का स्वरूप" बताकर अपना असली रूप उजागर कर रहे हैं। तुलसी का अचरज लाजिमी है। ये वही थे, जिन्होंने न केवल "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी" लिखा बल्कि कोई कसर न रह जाए, इसलिए खुद शबरी के मुंह से स्वयं राम के समक्ष भी कहलवाया कि "केहि बिधि अस्तुति करूँ तुम्हारी| अधम जाती मैं जड़मति भारी/ अधम ते अधम अधम अति नारी| तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारि ||" (जाति से भी नीच हूँ, और नीच जाति की स्त्री की होने की वजह से मंदबुध्दि और नीच से भी ज्यादा नीच हूँ, ऐसी स्त्री आपकी स्तुति किस तरह कर सकती है।) यही तुलसी अपनी कुंठा का परिचय देते हुए लिखते हैं "महावृष्टि चली फूट किआरी / जिमि सु��ंत्र भये बिगड़ें नारी।" (बहुत तेज हुयी बारिश से क्यारियाँ फूट गई हैं और उनमें से इस तरह पानी बह रहा है जैसे स्वतंत्रता मिलने से नारियाँ बिगड़ जाती हैं। तुलसी ने किष्किंधाकाण्ड में सीता वियोग में प्रकृति वर्णन करते हुए खुद राम के मुंह से कहलवाया है।) तुलसी की रामचरित मानस, जिसे "भारतीय संस्कृति का स्वरुप और मानवता की स्थापना करने वाला ग्रन्थ" बताने का तूमार खड़ा किये हुए हैं, वह ऐसी ही आपराधिक और अपमानजनक उक्तियों से भरा हुई है। इसी में लिखा है कि "अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए।" (जिस प्रकार से सांप को दूध पिलाने से वह और जहरीला हो जाता है, वैसे ही शूद्रों और नीच जाति वालों को शिक्षा देने से वे और खतरनाक हो जाते हैं।) यह भी कि "पूजहि विप्र सकल गुण हीना / शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा" (ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, शूद्र चाहे कितना भी गुण ज्ञान वाला हो, वेदों का जानकार हो, लेकिन कभी पूजनीय नही हो सकता।) यही तुलसीदास हैं जो लिखते हैं कि "शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ ब्राह्मण भी पूजनीय है।" स्त्रियों के बारे में वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि "नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं। साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।" इससे भी ज्यादा विद्रूप और विकृत वचन संघ के प.पू. गुरु गोलवलकर के बंच ऑफ़ थॉट में हैं। वे इतने घृणित हैं कि खुद मौजूदा सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को उनसे किनारा कर लेने का एलान करना पड़ा, इसलिए उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं। लिहाजा यह बात स्पष्ट है कि तुलसी की मानस तो बहाना है, असल में मनुस्मृति और बंच ऑफ़ थॉट की आपराधिकता को छुपाना है, उन्हें भी आलोचना से परे बताना है। असल में यही वे किताबें हैं, जिनमें आने वाले दिनों में भारत को ढालने और एक बार फिर से अँधेरे युग में धकेल देने का संघ परिवार और भाजपा का 'हिडन एजेंडा' छुपा हुआ है। नागार्जुन ने कहा था कि "रामचरितमानस में हमारी जनता के लिए क्या नहीं है? सभी कुछ है। दकियानूसी का दस्तावेज है…. नियतिवाद की नैया है …जातिवाद की जुगाली है। सामंतशाही की शहनाई है। ब्राह्मणवाद के लिए वातानुकूलित विश्रामागार…..पौराणिकता का पूजामंडप … वहां क्या नहीं है। वहां सब कुछ है, बहुत कुछ है। रामचरितमानस की बदौलत ही उत्तर भारत की लोकचेतना सही तौर पर स्पंदित नहीं होती। रामचरितमानस की महिमा ही जनसंघ (अब संघ-भाजपा) के लिए सबसे बड़ा भरोसा होती है।" यही इनका इस देश से उसके कुछ हजार वर्षों की प्रगति और आने वाली प्रगति की संभावनाओं को हमेशा के लिए छीन लेने का बीजक और नक्शा है। इसके लिए भले जिस हिन्दू धर्म की ये दुहाई देते हैं, उसे और उसके अब तक के स्वरुप को ही क्यों न मिटाना पड़े। मुस्लिम और ईसाईयों के अंध विरोध में वे यहां तक आ पहुंचे हैं कि वे व्यापक हिन्दू धार्मिक परम्परा को एक किताब पर आधारित सेमेटिक धर्मो - अब्राहमी धर्मों - में तब्दील कर देना चाहते हैं। भारतीय धार्मिक परम्परा में, यहां तक कि खुद हिन्दू धर्म की परम्परा में कोई एकमात्र सर्वोपरि किताब नहीं है। सबसे पुराने वेद हैं वे भी एक नहीं चार हैं, इनमें भी पूरा मतैक्य नहीं है। उनके बाद 108 उपनिषद् हैं, जिनमें से 18 तो ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करते ; पदार्थवादी हैं। एक किताब कौन सी होगी, उसे कौन तय करेगा? यह सवाल तो अभी हाल में 16वीं शताब्दी में सामने आया था, जब उपनिवेशवादी न्याय प्रणाली आयी और अदालतों में शपथपूर्वक बयान देने से पहले बाइबिल या कुरान पर हाथ रखकर कसम खाने के समांतर किसी हिन्दू ग्रन्थ की तलाश शुरू हुयी और गीता, जो खुद महाभारत का हिस्सा है, उसे कथित पवित्र ग्रंथ मानकर चुन लिया गया। सबसे मजेदार तर्क तो रामचरित मानस को सनातन धर्म का पवित्र ग्रन्थ बताने का है। जिस तुलसीकृत
मानस को महान और पवित्र सनातनी ग्रन्थ बताकर यह गिरोह उन्माद भड़काने में लगा है, वह तो बहुत आधुनिक है और इसे खुद तबके और बाद के भी सनातनियों ने कभी पवित्र तो दूर की बात है, उत्कृष्ट ग्रन्थ तक नहीं माना। यह महाकाव्य जिस रामकथा का बखान करता है वे रामायणें न जाने कितनी हैं। "हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता" की तरह रामायणें भी अनन्त हैं और उनकी कथाएं भी अनन्ता हैं। हरेक रामायण एक नया ही आख्यान और उसके मुख्य पात्रों के एकदम अलग-अलग यहां तक कि विपरीत रिश्ते भी प्रस्तुत करती है। संस्कृत भाषा में ही अभी तक 25 रामायणें खोजी जा चुकी हैं। फादर कामिल बुल्के ने 300 रामायणें बताई थीं। कुछ विद्वानों के अनुसार अकेले कन्नड़ और तेलगु भाषाओं में एक-एक हजार रामायण हैं। इनमें भी कमाल की विविधता हैं। वाल्मीकि की जिस रामायण को आरंभिक और प्रतिष्ठित माना जाता है, उसमे राम ईश्वर नहीं है, वे मानवीय रूप में हैं। जैन रामायणों में भी राम भगवान नहीं हैं, उन्नत जैन पुरुष हैं। बौद्ध जातक कथाओं में जितने रामायण हैं, उनमे भी वे एक अच्छे मनुष्य हैं। दुनिया की बीस से ���्यादा भाषाओं की रामायणों की कहानियां ही निराली हैं। राम के प्रति आस्था रखना एक बात है, लेकिन किसी एक विशेष रामायण को ही पवित्र और एकमात्र मानना अलग ही बात है। और फिर इसे तय कौन करेगा? इनमें से भक्त कौन-सी रामायण को पवित्र मानते हैं? बाकी सब को अपवित्र मानते हैं क्या? हिंदुत्ववादी गिरोह की समस्या इनकी अपढ़ता और भारत की धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं के प्रति इनका अज्ञान है। बिहार के इस प्रसंग के बाद झांसी में संघी हिन्दू संगठनों के एक प्रदर्शन में यह साफ़-साफ़ दिखा, जब पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर न वे प्रदर्शन की वजह बता पाये, न बिहार के शिक्षा मंत्री के कथित विवादित बयान में उल्लेखित किताबों का नाम ले पाये। अब इनसे यह उम्मीद करना इनकी बुद्धिहीनता के प्रति ज्यादती होगी कि इन्होने वाल्मीकि रामायण पढ़ी होगी या कम्ब रामायण का नाम तक सुना होगा। समस्या यह है कि यह गिरोह बाकी के पूरे देश को भी इसी तरह का अपढ़, अज्ञानी और उन्मादी बना देना चाहता है। उन्हें अज्ञानीकरण की अपनी इस तिकड़म की कामयाबी पर पूरा विश्वास है। वे तुलसी और राम की, अपने अनुकूल व्याख्या के शोर में मनुस्मृति और गोलवलकर को छुपाना चाहते हैं। तुलसी की कृति के बारे में एकबारगी यह माना भी जा सकता है कि वे जाने-अनजाने अपने कालखण्ड की विकृतियों को चंदन मानकर उसका लेप कर रहे थे। उन्हें उस समय के सामाजिक पूर्वाग्रहों से आसक्त व्यक्ति का उन्हें साहित्य में दर्ज करने वाला कवि माना जा सकता है। मगर मनुस्मृति तो साहित्यिक कृति नहीं है, वह स्पष्ट रूप से बर्बर शासन विधान और हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता का संविधान है। गोलवलकर की बंच ऑफ़ थॉट (विचार नवनीत) उससे भी आगे का मामला है, मुसोलिनी की "डॉक्ट्रिन ऑफ़ फासिज्म" और हिटलर की "मीन कॉम्फ" जैसी फासीवाद के भारतीय संस्करण का घोषणापत्र। इतना बर्बर की, जैसा कि ऊपर लिखा है, मौजूदा सरसंघचालक को भी उसके कई अंशों से पल्ला झाड़ना पड़ा है। कुल मिलाकर यह कि यह बिहार के शिक्षामंत्री पर नहीं, भारत की तार्किकता की समझ और विवेक पर हमला है। इसके प्रति ढुलमुल या निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता। इस मामले में जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध!! बादल सरोज - लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
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प्राचीन भारत का इतिहास प्रश्नोत्तरी
प्राचीन भारत का इतिहास प्रश्नोत्तरी
1.गुप्त काल के बारे में कौन सा कथन गलत है? [A] गुप्त काल विज्ञान ,तकनीकी ,अभियांत्रिकी, कला, साहित्य ,गणित ,तर्कशास्त्र, ज्योतिष आदि के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति के लिए जाना जाता है। [B] गुप्त काल ने हिंदू संस्कृति के तत्वों को श्रेष्ठ कर दिया। [C] सबसे ज्यादा सोने के सिक्के गुप्त काल में ढले। [D] गुप्त काल में सोने का भण्डार अन्य पूर्व वती कालों से अधिक था। Correct Answer: D [गुप्त काल में…
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विक्रमशिला विश्वविद्यालय
विक्रमशिला के महाविहार की स्थापना नरेश धर्मपाल (775-800ई.) ने करवायी थी। उसने यहां मंदिर तथा मठ बनवाये और उन्हें उदारतापूर्वक अनुदान दिया। एक मान्यता यह है कि महाविहार के संस्थापक राजा धर्मपाल को मिली उपाधि ‘विक्रमशील’ के कारण संभवतः इसका नाम विक्रमशिला पड़ा। बिहार प्रांत के भागपलुर जिले में स्थित विक्रमशिला नालंदा के ही समान एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का शिक्षा केन्द्र रहा है। इसकी स्थिति भागलपुर…
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भारतवर्ष के गुरुकुलों में क्या पढ़ाई होती थी, ये जान लेना आवश्यक है। इस शिक्षा को लेकर अपने विचारों में परिवर्तन लाएं और भ्रांतियां दूर करें!!! वामपंथी लंपट इसे जरूर पढें!
१. अग्नि विद्या ( Metallergy )
२. वायु विद्या ( Aviation )
३. जल विद्या ( Navigation )
४. अंतरिक्ष विद्या ( Space Science)
५. पृथ्वी विद्या ( Environment & Ecology)
६. सूर्य विद्या ( Solar System Studies )
७. चन्द्र व लोक विद्या ( Lunar Studies )
८. मेघ विद्या ( Weather Forecast )
९. पदार्थ विद्युत विद्या ( Battery )
१०. सौर ऊर्जा विद्या ( Solar Energy )
११. दिन रात्रि विद्या
१२. सृष्टि विद्या ( Space Research )
१३. खगोल विद्या ( Astronomy)
१४. भूगोल विद्या (Geography )
१५. काल विद्या ( Time )
१६. भूगर्भ विद्या (Geology and Mining )
१७. रत्न व धातु विद्या ( Gemology and Metals )
१८. आकर्षण विद्या ( Gravity )
१९. प्रकाश विद्या ( Optics)
२०. तार संचार विद्या ( Communication )
२१. विमान विद्या ( Aviation )
२२. जलयान विद्या ( Water , Hydraulics Vessels )
२३. अग्नेय अस्त्र विद्या ( Arms and Amunition )
२४. जीव जंतु विज्ञान विद्या ( Zoology Botany )
२५. यज्ञ विद्या ( Material Sc)
वैज्ञानिक विद्याओं की अब बात करते है व्यावसायिक और तकनीकी विद्या की
वाणिज्य ( Commerce )
भ���षज (Pharmacy)
शल्यकर्म व चिकित्सा (Diagnosis and Surgery)
कृषि (Agriculture )
पशुपालन ( Animal Husbandry )
पक्षिपलन ( Bird Keeping )
पशु प्रशिक्षण ( Animal Training )
यान यन्त्रकार ( Mechanics)
रथकार ( Vehicle Designing )
रतन्कार ( Gems )
सुवर्णकार ( Jewellery Designing )
वस्त्रकार ( Textile)
कुम्भकार ( Pottery)
लोहकार (Metallergy)
तक्षक (Toxicology)
रंगसाज (Dying)
रज्जुकर (Logistics)
वास्तुकार ( Architect)
पाकविद्या (Cooking)
सारथ्य (Driving)
नदी जल प्रबन्धक (Dater Management)
सुचिकार (Data Entry)
गोशाला प्रबन्धक (Animal Husbandry)
उद्यान पाल (Horticulture)
वन पाल (Forestry)
नापित (Paramedical)
अर्थशास्त्र (Economics)
तर्कशास्त्र (Logic)
न्यायशास्त्र (Law)
नौका शास्त्र (Ship Building)
रसायनशास्त्र (Chemical Science)
ब्रह्मविद्या (Cosmology)
न्यायवैद्यकशास्त्र (Medical Jurisprudence) - अथर्ववेद
क्रव्याद (Postmortem) --अथर्ववेद
आदि विद्याओ क़े तंत्रशिक्षा क़े वर्णन हमें वेद और उपनिषद में मिलते है ॥
यह सब विद्या गुरुकुल में सिखाई जाती थी पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो यह विद्या भी लुप्त होती गयी।
आज अंग्रेज मैकाले पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा तब ऐसे समय में गुरुकुल के पुनः उद्धार की आवश्यकता है।
कुछ_प्रसिद्ध_भारतीय_प्राचीन_ऋषि_मुनि_वैज्ञानिक_एवं_संशोधक
पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
अश्विनीकुमार: मान्यता है कि ये देवताओं के चिकित्सक थे। कहा जाता है कि इन्होंने उड़ने वाले रथ एवं नौकाओं का आविष्कार किया था।
धन्वंतरि: इन्हें आयुर्वेद का प्रथम आचार्य व प्रवर्तक माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम धन्वंतरि संहिता है। शल्य चिकित्सा शास्त्र के आदि प्रवर्तक सुश्रुत और नागार्जुन इन्हीं की परंपरा में हुए थे।
महर्षि_भारद्वाज: आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ही ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।
महर्षि_विश्वामित्र: ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।
महर्षि_गर्गमुनि: गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार।ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।
महर्षि_पतंजलि: आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।
महर्षि_कपिल_मुनि: सांख्य दर्शन के प्रवर्तक व सूत्रों के रचयिता थे महर्षि कपिल, जिन्होंने चेतना की शक्ति एवं त्रिगुणात्मक प्रकृति के विषय में महत्वपूर्ण सूत्र दिए थे।
महर्षि_कणाद: ये वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक हैं। ये अणु विज्ञान के प्रणेता रहे हैं। इनके समय अणु विज्ञान दर्शन का विषय था, जो बाद में भौतिक विज्ञान में आया।
महर्षि_सुश्रुत: ये शल्य चिकित्सा पद्धति के प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे। इन्होंने सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ में शल्य क्रिया का वर्णन किया है। सुश्रुत ने ही त्वचारोपण (प्लास्टिक सर्जरी) और मोतियाबिंद की शल्य क्रिया का विकास किया था। पार्क डेविस ने सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्यचिकित्सक कहा है।
जीवक: सम्राट बिंबसार के एकमात्र वैद्य। उज्जयिनी सम्राट चंडप्रद्योत की शल्य चिकित्सा इन्होंने ही की थी। कुछ लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध की चिकित्सा भी इन्होंने की थी।
महर्षि_बौधायन: बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुलयशास्त्र के रचयिता थे। आज दुनिया भर में ��ूनानी उकेलेडियन ज्योमेट्री पढाई जाती है मगर इस ज्योमेट्री से पहले भारत के कई गणितज्ञ ज्योमेट्री के नियमों की खोज कर चुके थे। उन गणितज्ञ में बौधायन का नाम सबसे ऊपर है, उस समय ज्योमेट्री या एलजेब्रा को भारत में शुल्वशास्त्र कहा जाता था।
महर्षि_भास्कराचार्य: आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।
महर्षि_चरक: चरक औषधि के प्राचीन भारतीय विज्ञान के पिता के रूप में माने जातें हैं। वे कनिष्क के दरबार में राज वैद्य (शाही चिकित्सक) थे, उनकी चरक संहिता चिकित्सा पर एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें रोगों की एक बड़ी संख्या का विवरण दिया गया है और उनके कारणों की पहचान करने के तरीकों और उनके उपचार की पद्धति भी प्रदान करती है। वे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा के बारे में बताते थे और इसलिए चिकित्सा विज्ञान चरक संहिता में, बीमारी का इलाज करने के बजाय रोग के कारण को हटाने के लिए अधिक ध्यान रखा गया है। चरक आनुवांशिकी (अपंगता) के मूल सिद्धांतों को भी जानते थे।
ब्रह्मगुप्त: 7 वीं शताब्दी में, ब्रह्मगुप्त ने गणित को दूसरों से परे ऊंचाइयों तक ले गये। गुणन के अपने तरीकों में, उन्होंने लगभग उसी तरह स्थान मूल्य का उपयोग किया था, जैसा कि आज भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने गणित में शून्य पर नकारात्मक संख्याएं और संचालन शुरू किया। उन्होंने ब्रह्म मुक्त सिध्दांतिका को लिखा, जिसके माध्यम से अरब देश के लोगों ने हमारे गणितीय प्रणाली को जाना।
महर्षि_अग्निवेश: ये शरीर विज्ञान के रचयिता थे।
महर्षि_शालिहोत्र: इन्होंने पशु चिकित्सा पर आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की।
व्याडि: ये रसायनशास्त्री थे। इन्होंने भैषज (औषधि) रसायन का प्रणयन किया। अलबरूनी के अनुसार, व्याडि ने एक ऐसा लेप बनाया था, जिसे शरीर पर मलकर वायु में उड़ा जा सकता था।
आर्यभट्ट: इनका जन्म 476 ई. में कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र ) पटना में हुआ था | ये महान खगोलशास्त्र और व गणितज्ञ थे | इन्होने ही सबसे पहले सूर्ये और चन्द्र ग्रहण की वियाख्या की थी | और सबसे पहले इन्होने ही बताया था की धरती अपनी ही धुरी पर धूमती है| और इसे सिद्ध भी किया था | और यही नही इन्होने हे सबसे पहले पाई के मान को निरुपित किया।
महर्षि_वराहमिहिर: इनका जन्म 499 ई . में कपित्थ (उज्जेन ) में हुआ था | ये महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्र थे | इन्होने पंचसिद्धान्तका नाम की किताब लिखी थी जिसमे इन्होने बताया था की , अयनांश , का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर होता होता है | और इन्होने शून्य और ऋणात्मक संख्याओ के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया |
हलायुध: इनका जन्म 1000 ई . में काशी में हुआ था | ये ज्योतिषविद , और गणितज्ञ व महान वैज्ञानिक भी थे | इन्होने अभिधानरत्नमाला या मृतसंजीवनी नमक ग्रन्थ की रचना की | इसमें इन्होने या की पास्कल त्रिभुज ( मेरु प्रस्तार ) का स्पष्ट वर्णन किया है।पुरातन ग्रंथों के अनुसार, प्राचीन ऋषि-मुनि एवं दार्शनिक हमारे आदि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अनेक आविष्कार किए और विज्ञान को भी ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
5000 साल पहले ब्राह्मणों_ने_हमारा_बहुत_शोषण किया ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने से रोका,यह बात बताने वाले महान इतिहासकार यह नहीं बताते कि 500 साल पहले मुगलों ने हमारे साथ क्या किया 100 साल पहले अंग्रेजो ने हमारे साथ क्या किया?
हमारे देश में शिक्षा नहीं थी लेकिन 1897 में शिवकर_बापूजी_तलपडे_ने_हवाई_जहाज बनाकर उड़ाया था मुंबई में जिसको देखने के लिए उस टाइम के हाई कोर्ट के जज महा गोविंद रानाडे और मुंबई के एक राजा महाराज गायकवाड के साथ-साथ हजारों लोग मौजूद थे जहाज देखने के लिए
उसके बाद एक डेली_ब्रदर_नाम_की_इंग्लैंड की कंपनी ने शिवकर_बापूजी_तलपडे के साथ समझौता किया और बाद में बापू जी की मृत्यु हो गई यह मृत्यु भी एक षड्यंत्र है हत्या कर दी गई और फिर बाद में 1903 में राइट बंधु ने जहाज बनाया।
आप लोगों को बताते चलें कि आज से हजारों साल पहले की किताब है महर्षि_भारद्वाज_की_विमान_शास्त्र जिसमें 500 जहाज 500 प्रकार से बनाने की विधि है उसी को पढ़कर शिवकर बापूजी तलपडे ने जहाज बनाई थी।
लेकिन यह तथाकथित नास्तिक_लंपट_ईसाइयों के दलाल जो है तो हम सबके ही बीच से लेकिन हमें बताते हैं कि भारत में तो कोई शिक्षा ही नहीं था कोई रोजगार नहीं था।
अमेरिका_के_प्रथम_राष्ट्रपति_जॉर्ज_वाशिंगटन 14 दिसंबर 1799 को मरे थे सर्दी और बुखार की वजह से उनके पास बुखार की दवा नहीं थी उस टाइम भारत_में_प्लास्टिक_सर्जरी_होती_थी और अंग्रेज प्लास्टिक सर्जरी सीख रहे थे हमारे गुरुकुल में अब कुछ वामपंथी लंपट बोलेंगे यह सरासर झूठ है।
तो वामपंथी लंपट गिरोह कर सकते है
ऑस्ट्रेलियन_कॉलेज_ऑफ_सर्जन_मेलबर्न में ऋषि_सुश्रुत_ऋषि की प्रतिमा "फादर ऑफ सर्जरी" टाइटल के साथ स्थापित है।
15 साल साल पहले का 2000 साल पहले का मंदिर मिलते हैं जिसको आज के वैज्ञानिक_और_इंजीनियर देखकर हैरान में हो जाते हैं कि मंदिर बना कैसे होगा अब हमें_इन_वामपंथी_लंपट लोगो से हमें पूछना चाहिए कि मंदिर बनाया किसने
ब्राह्मणों_ने_हमें पढ़ने नहीं दिया यह बात बताने वाले महान इतिहासकार हमें यह नहीं बताते कि सन 1835 तक भारत में 700000 गुरुकुल थे इसका पूरा डॉक्यूमेंट Indian house में मिलेगा ।
भारत गरीब देश था चाहे है तो फिर दुनिया के तमाम आक्रमणकारी भारत ही क्यों आए हमें अमीर बनाने के लिए!
भारत में कोई रोजगार नहीं था।
भारत में पिछड़े दलितों को गुलाम बनाकर रखा जाता था लेकिन वामपंथी लंपट आपसे यह नहीं बताएंगे कि हम 1750 में पूरे दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा 24 परसेंट था
और सन उन्नीस सौ में एक परसेंट पर आ गया आखिर कारण क्या था?
अगर हमारे देश में उतना ही छुआछूत थे हमारे देश में रोजगार नहीं था तो फिर पूरे दुनिया के व्यापार में हमारा 24 परसेंट का व्यापार कैसे था?
यह वामपंथी लंपट यह नहीं बताएंगे कि कैसे अंग्रेजों के नीतियों के कारण भारत में लोग एक ही साथ 3000000 लोग भूख से मर गए कुछ दिन के अंतराल में ।
एक बेहद खास बात वामपंथी लंपट या अंग्रेज दलाल कहते हैं इतना ही भारत समप्रीत था इतना ही सनातन संस्कृति समृद्ध थी तो सभी अविष्कार अंग्रेजों ने ही क्यों किए हैं भारत के लोगों ने कोई भी अविष्कार क्यों नहीं किया?
उन वामपंथी लंपट लोगों को बताते चलें कि किया तो सब आविष्कार भारत में ही लेकिन उन लोगों ने चुरा करके अपने नाम से पेटेंट कराया नहीं तो एक बात बताओ भारत आने से पहले अंग्रेजों ने कोई एक अविष्कार किया हो तो उसका नाम बताओ एवर थोड़ा अपना दिमाग लगाओ कि भारत आने के बाद ही यह लोग आविष्कार कैसे करने लगे, उससे पहले क्यों नहीं करते थे।
हरे कृष्णा🙏🙏🙏
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उद्योजकतेचे धडे सर्वात अनपेक्षित स्त्रोतांकडून येऊ शकतात. आणि गणेश चतुर्थीला 'अडथळे दूर' करणार्या म्हणून ओळखल्या जाणार्या गणपती बाप्पाकडून उद्योजकतेचे धडे आठवणे महत्वाचे आहे. जेव्हा कार्तिक आणि गणेश यांनी जगाला फेरा मारत वेगाने धावण्याचा निर्णय घेतला तेव्हा सर्वात वेगवान कोण आहे हे समजण्यापूर्वी, कार्तिकस्वामी पारंपारिक दीर्घ मार्गाने मागे गेले परंतु गणेशाने सर्जनशील होण्याचा निर्णय घेतला आणि आईवडील हेच आपले जग असल्याचे सांगत आपल्या आई-वडिलांभोवती फेरी मारुन जगभ्रमण पूर्ण केले. आऊट ऑफ दी बॉक्स सोल्यूशनचा विचार करणं हा उद्योजकतेचा सर्वात महत्वाचा धडा आपण गणपती बाप्पाकडून शिकला पाहिजे. चतुर तर्कशास्त्र वापरुन एक चांगला श्रोता आणि उत्साही वाचक आणि समस्या सोडवणारा असा त्यांच्या वेगवान भावाविरूद्ध शर्यत जिंकण्यापासून, भगवान गणेश आपल्याला सर्व काही शिकवू शकतात ! ©उद्योजकमित्र #उद्योजकता #Entrepreneurship #Business_Lessons #गणेश_चतुर्थी
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कौन है हम ?? भाग -14
बैक्ट्रिया के यूनानी राज्य का अन्त शक जाति के आक्रमण द्वारा हुआ जो सीर नदी की घाटी में रहते थे , दूसरी सदी ई. पू. में उन पर उत्तर-पूर्व की ओर से 'युइशि जाति' ने आक्रमण किया जो तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकला-मकान की मरुभूमि के सीमान्त पर निवास करते थे , ये वीर और योद्धा जाति थी जिन्हे हूणों के आक्रमण के कारण अपने निवास को छोड़कर आगे बढ़ना पड़ा था | इस काल में हूण जाति उत्तरी चीन में निवास करती थी, और चीन के सभ्य राज्यों पर आक्रमण करती रहती थी। इन के हमलों से अपने देश की रक्षा करने के लिए चीन के सम्राट शी-हुआँग-ती (246-210 ई. पू.) ने उस विशाल दीवार का निर्माण कराया था, जो अब तक भी उत्तरी चीन में विद्यमान है। इस दीवार के कारण हूण लोगों के लिए चीन पर आक्रमण करना सम्भव नहीं रहा, और उन्होंने पश्चिम की ओर बढ़ना शुरू किया। हूण लोग असभ्य और बर्बर थे, और लूट-मार के द्वारा ही अपना निर्वाह करते थे। हूणों ने युइशियों को धकेला, और युइशियों ने शकों को। हूणों की बाढ़ ने युइशि जाति के प्रदेश को आक्रांत कर दिया, और शकों के प्रदेश पर युइशि छा गए। यही समय था जब शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया और वहाँ के यवन राजा हेलिओक्लीज़ को परास्त किया। शक लोगों की जिस शाखा ने बैक्ट्रिया पर विजय की थी, वह हिन्दुकुश पर्वत को पार कर भारत में प्रविष्ट नहीं हुई। इसीलिए हेलिओक्लीज़ का शासन उत्तर-पश्चिमी भारत में क़ायम रहा।बैक्ट्रिया को जीत कर शक लोग दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़े , वंक्षु नदी के पार उस समय पार्थिया का राज्य था।128 ई. पू. के लगभग पार्थियन राजा फ़्रावत द्वितीय ने शकों की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न किया पर वह सफल नहीं हो सका। शकों के साथ युद्ध करते हुए उसकी मृत्यु हुई। उसके उत्तराधिकारी आर्तेबानस के समय में शक लोग पार्थियन राज्य में घुस गए और उसे उन्होंने बुरी तरह से लूटा। आर्तेबानस भी शकों से लड़ते हुए मारा गया, आर्तेबानस के बाद मिथिदातस द्वितीय (123-88 ई. पू.) पार्थिया का राजा बना , उसने शकों के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने के लिए घोर प्रयत्न किया और उसे इस काम में सफलता भी प्राप्त हुई। मिथिदातस की शक्ति से विवश होकर शकों का प्रवाह पश्चिम की तरफ़ से हटकर दक्षिण-पूर्व की ओर हो गया और उन्होंने123 ई. पू. के लगभग भारत ��र आक्रमण किया।
सिंधु नदी के तट पर स्थित मीननगर को शको ने अपनी राजधानी बनाया ये भारत का यह पहला शक राज्य था यहीं से उन्होंने भारत के अन्य प्रदेशों में अपना प्रसार किया। एक जैन अनुश्रुति के अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय आचार्य कालक को है यह जैन आचार्य उज्जैन के निवासी थे जो वहाँ के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से तंग आकर सुदूर पश्चिम के पार्थियन राज्य में चले गए थे। जब पार्थिया के राजा मिथिदातस द्वितीय की शक्ति के कारण शक लोग परेशानी का अनुभव कर रहे थे, तो कालकाचार्य ने उन्हें भारत आने के लिए प्रेरित किया । कालक के साथ शक लोग सिन्ध में प्रविष्ट हुए, और वहाँ पर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने सौराष्ट्र को जीतकर उज्जैन पर भी आक्रमण किया, और वहाँ के राजा गर्दभिल्ल को परास्त किया। यद्यपि शकों की मुख्य राजधानी मीननगर थी, पर भारत के विविध प्रदेशों में उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए, जो सम्भवतः मीननगर के शकराज की अधीनता स्वीकार करते थे। मीननगर के शक महाराज की अधीनता में जो सबसे अधिक शक्तिशाली शक क्षत्रप थे उनका शासन काठियावाड़, गुजरात ,कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मालवा पर था | ये क्षहरात कहलाते थे जिनकी राजधानी सौराष्ट्र के भरुकच्छ में थी , पर इनके बहुत से उत्कीर्ण लेख महाराष्ट्र में भी मिले हैं | इस कुल का पहला क्षत्रप भूमक था जिसके अनेक सिक्के महाराष्ट्र और काठियावाड़ से मिले हैं। क्षहरात कुल का सबसे प्रसिद्ध क्षत्रप नहपान था ,इसके सात उत्कीर्ण लेख और हज़ारों सिक्के उपलब्ध हुए हैं। सम्भवतः यह भूमक का ही उत्तराधिकारी था, पर इसका भूमक के साथ क्या सम्बन्ध था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। नहपान का राज्य बहुत ही विस्तृत था। यह बात उसके जामाता उषावदात के एक लेख से ज्ञात होती है | नासिक के पास एक गुहा की दीवार पर उत्कीर्ण लेख में उषावदात ने लिखा कि "मैं पोक्षर को गया हूँ, और वहाँ पर मैंने अभिषेक (स्नान) किया, तीन हज़ार गौएँ और गाँव दिया।" नासिक गुहा के इन लेखों से क्षत्रप नहपान के राज्य की सीमा के सम्बन्ध में अच्छे निर्देश प्राप्त होते हैं। उषावदात ने पोक्षर (पुष्कर) में अभिषेक स्नान किया था। अतः सम्भवतः अजमेर के समीपवर्ती प्रदेश नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। इस लेख में उल्लिखित प्रभास (सोमनाथ पाटन) सौराष्ट्र (काठियावाड़) में है, भरुकच्छ की स्थिति भी इसी प्रदेश में है। गोवर्धन नासिक का नाम है , शोर्पारण (सोपारा) कोंकण में है। इस प्रकार इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि काठियावाड़, महाराष्ट्र और कोंकण अवश्य ही क्षत्रप नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। नासिक के लेख में जिन नदियों ��ा उल्लेख है, उनका सम्बन्ध गुजरात में है , अतः इस प्रदेश को भी नहपान के राज्य के अंतर्गत माना जाता है।नासिक के इस गुहालेख के समीप ही उषावदात का एक अन्य लेख भी उपलब्ध हुआ है जिसमें दाहूनक नगर और कंकापुर के साथ उजेनि (उज्जैन) का भी उल्लेख है। इन नगरों में भी उषावदात ने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान-पुण्य किया था , इससे उज्जैन के नहपान के अंतर्गत होने की पुष्टि होती है । ये बात जैन और पौराणिक अनुश्रुतियों द्वारा भी पुष्ट होती है , जैन अनुश्रुति में उज्जयिनी के राजाओं का उल्लेख करते हुए गर्दभिल्ल के बाद नहवाण नाम दिया गया है , इसी प्रकार पुराणों में अन्तिम शुंग राजाओं के समकालीन विदिशा के राजा को नख़वानजः (नख़वान का पुत्र) कहा गया है। सम्भवतः ये नहवाण व नख़वान क्षहरात वंशी क्षत्रप नहपान के ही रूपान्तर हैं। इसमें सन्देह नहीं कि नहपान बहुत ही शक्तिशाली क्षत्रप था, और उसका राज्य काठियावाड़ से मालवा तक विस्तृत था। सम्भवतः नहपान ने अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए बहुत से युद्ध किए थे, और इन्हीं के कारण उसकी स्थिति 'क्षत्रप' से बढ़कर महाक्षत्रप की हो गई थी। उषावदात के नासिकवाले लेख में उसे केवल 'क्षत्रप' कहा गया है। पर पूना के समीप उपलब्ध हुए एक अन्य गुहालेख में उसके नाम के साथ 'महाक्षत्रप' विशेषण आता है। नहपान के उत���तराधिकारियों के सम्बन्ध में कुछ विशेष ज्ञान नहीं होता | सातवाहन वंश के प्रतापी राजा गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात कुल के द्वारा शासित प्रदेशों को शकों के शासन से स्वतंत्र किया था।
उज्जैन की विजय के बाद शकों ने मथुरा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया , मथुरा के शक क्षत्रप भी क्षहरात कुल के थे। इन क्षत्रपों के बहुत से सिक्के मथुरा व उसके समीपवर्ती प्रदेशों से उपलब्ध हुए हैं , मथुरा के प्रथम शक क्षत्रप हगमाश और हगान थ उनके बाद रञ्जुबुल और उसका पुत्र शोडास क्षत्रप बने , शोडास के बाद मेवकि मथुरा का महाक्षत्रप बना, मथुरा के शक क्षत्रपों ने पूर्वी पंजाब को जीतकर अपने अधीन किया था। वहाँ पर अनेक यवन राज्य विद्यमान थे, जिनकी स्वतंत्र सत्ता इन शकों के द्वारा नष्ट की गई , साथ ही कुणिन्द गण को भी इन्होंने विजय किया। गार्गीसंहिता से युग पुराण में शकों द्वारा कुणिन्द गण के विनाश का उल्लेख है। शोडास ने जो 'महाक्षत्रप' का पद ग्रहण किया था, वह सम्भवतः इन्हीं विजयों का परिणाम था। मथुरा के इन शक क्षत्रपों की बौद्ध-धर्म में बहुत भक्ति थी। मथुरा के एक मन्दिर की सीढ़ियों के नीच दबा हुआ, एक सिंहध्वज मिला है, जिसकी सिंहमूर्तियों के आगे-पीछे तथा नीचे ख़रोष्ठी लिपि में एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में महाक्षत्रप रञ्जुबुल या रजुल की अग्रमहिषी द्वारा शाक्य मुनि बुद्ध के शरीर-धातु को प्रतिष्ठापित करने और बौद्ध विहार को एक ज़ागीर दान देने का उल्लेख है। ��थुरा से प्राप्त हुए एक अन्य लेख में महाक्षत्रप शोडास के शासन काल में 'हारिती के पुत्र पाल की भार्या' मोहिनी द्वारा अर्हत् की पूजा के लिए एक मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि महाराष्ट्र के क्षहरात शक क्षत्रपों के समान मथुरा के शकों ने भी इस देश के धर्मों को अंगीकार कर लिया था। शक लोगों की शक्ति केवल काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, महाराष्ट्र, मालवा, मथुरा और पूर्वी पंजाब तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने गान्धार तथा पश्चिमी पंजाब पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इन प्रदेशों में शकों के बहुत से सिक्के उपलब्ध हुए हैं, और साथ ही अनेक उत्कीर्ण लेख भी। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लेख तक्षशिला से प्राप्त हुआ है, जो एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है। इस लेख के अनुसार महाराज महान् मोग के राज्य में क्षहरात चुक्ष के क्षत्रप लिअक कुसुलक के पुत्र पतिक ने तक्षशिला में भगवान शाक्य मुनि के अप्रतिष्ठापित शरीर धातु को प्रतिष्ठापित किया था। इस लेख से यह स्पष्ट है कि तक्षशिला के शक क्षत्रप भी क्षहरात वंश के थे, और उनके अन्यतम क्षत्रप का नाम 'लिअक कुसुलक' था, जिसके पुत्र पतिक ने शाक्य मुनि के शरीर धातु की प्रतिष्ठा करने की स्मृति में यह लेख उत्कीर्ण कराया था। तक्षशिला या गान्धार के क्षत्रप स्वतंत्र राजा नहीं थे, अपितु महाराज मोग की अधीनता स्वीकृत करते थे। क्षत्रप लिअक कुसुलक के अनेक सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं। उज्जैन का पहला स्वतंत्र शक शासक चष्टण था , इसने अपने अभिलेखों में शक संवत का प्रयोग किया है। इसके अनुसार इस वंश का राज्य 130 ई. से 388 ई. तक चला, जब सम्भवतः चन्द्रगुप्त ने इस कुल को समाप्त किया। ये शक 'कार्द्धमक क्षत्रप' कहलाते थे। उज्जैन के क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध रुद्रदामन (130 ई. से 150 ई.) था , इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी पश्चिमी मालवा, द्वारका के आसपास के प्रदेश, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु नदी का मुहाना, उत्तरी कोंकण, मारवाड़ आदि प्रदेश उनके राज्य में सम्मिलित थे। ये प्रदेश उसके पूर्वजो ने सातवाहनों से जीते थे, रुद्रदामन ने दुबारा अपने समकालीन शातवर्णी राजा को हराया परन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसे समाप्त नहीं किया यह शातकर्णी सम्भवतः वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि था। रुद्रदामन ने सिंधु घाटी कुषाणों से जीती थी। सुदर्शन झील जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी, रुद्रदामा के समय फिर टूट गई तब उसने निजी आय से इसकी मरम्मत कराई और प्रजा से इसके लिए कोई कर नहीं लिया | रुद्रदामन व्याकरण, राजनीति, संगीत एवं तर्कशास्त्र का पंडित था। जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है और इससे उस समय के संस्कृत के साहित्य के विकास का अनुमान होता है। यद्यपि शक साम्राज्य चौथी शताब्दी ईस्वी तक चलता रहा किन्तु रुद्रदामन के पश्चात् शक साम्राज्य की शक्ति क��� ह्रास प्रारम्भ हो गया था। इस वंश का अन्तिम राजा रुद्रसिंह तृत��य था , चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।
जारी है अतीत का ये सफर --- महेंद्र जैन 9 फरवरी 2019
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॥व्यक्तित्व विश्लेषण एवं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद॥
किसी शायर ने पूछा था कि “क्यूँ हमेशा इस उम्र में आ कर पता चलता है कि बंदा भी कुछ काम का था”? मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि शायद इस उम्र में प्रतिस्पर्धी कम हो जाते हैं, क्यूँ कि जो कभी लायक़ हुआ करते थे उनमें से ��़्यादातर नालायक़ हो चुकते हैं ! जो थोड़े कम लायक़ थे, वो शायद नालायक भी थोड़े कम ही होते होंगे ।तभी ये मंथर गति वाले कच्छप, छलाँगे मारनेवाले खरहे से, अंततोगत्वा आगे निकल ही जाते है।जैसा कि ग्रंथों में भी लिखा है कि “The meek shall inherit the Earth.”
लोग अक्सर ये मान लेते हैं कि जो बंदा इतने दिन टिक गया तो उसमें कोई बात तो होगी ही। जैसे कि निगमन तर्कशास्त्री मान लेते है कि जहां धुआँ है वहाँ आग तो होगी ही।पर किसी ने ये भी कहा है कि “ ये माना की हुज़ूर तक पहुँचती नहीं आँच हमारी, पर ऐसा भी नहीं है कि सुलगते नहीं हैं हम”। तब लोगों के लिए ये मान लेना भी ग़लत होता है, कि क्यूँ कि आँच उन तक नहीं पहुँची, तो ये बंदा तो सुलगता ही नहीं, जब कि कमी असल में लोगों के अपने तापमापक के सुग्राहकता में होती है !!
फिर बीच में “द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद” का “वाद, प्रतिवाद और संवाद“ का सिद्धांत भी घुस आता है!!
पहले वो निगमन तर्कशास्त्री, जिनको धुआँ नहीं दिखता, एक “वाद” बना चुके होते हैं।अब ये वाद तो अपूर्ण होता है और असत्य भी। तब फिर आगमन तर्कशास्त्र वाले बीच में कूद पड़ते हैं, और वो मान लेते हैं कि ये बंदा तो सालों से टिक�� हुआ है,और उसके साथ में Fire and Brimstone वाले बंदे भी टिके हैं, तो इसमें भी आँच होगी ही, और फलस्वरूप वो एक “प्रतिवाद” को जन्म दे देते हैं !!
अब बंदा तो बेचारा “वाद-प्रतिवाद” के चक्कर में एक विवादित ढाँचा बन कर रह जाता है।क्यूँ कि अब ये “प्रतिवाद” भी तो अर्द्ध सत्य ही होता है!!
तब फिर बड़ी मुश्किल से चमन में किसी “दीदावर” का आगमन होता है। अब दीदावर के द्वारा बीच बचाव कर “संवाद” की स्थिति पैदा की जाती है, “वाद और प्रतिवाद” के मध्य में।तब जा कर कहीं बंदे के व्यक्तित्व के बारे “द्वन्द्व” की स्थिति समाप्त हो पाती है!!
अंततः,तर्क शास्त्र के सिद्धांतों तथा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी फ़लसफ़े के अनुसार बंदे का चरित्र चित्रण “संवाद” की अंतिम स्थिति में पहुँचता है। अब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तो एक सतत गतिशील, चक्रीय फ़लसफ़ा है, अतः “संवाद” पुनः “वाद” की स्थिति में पहुँच जाता है, और बंदा बेचारा फिर से उसी चक्र में फँस जाता है !!
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Budh Gochar 2022: बुध ग्रह ६ मार्चला कुंभ राशीत करणार प्रवेश, ‘या’ चार राशींना मिळणार लाभ
Budh Gochar 2022: बुध ग्रह ६ मार्चला कुंभ राशीत करणार प्रवेश, ‘या’ चार राशींना मिळणार लाभ
Budh Gochar 2022: बुध ग्रह ६ मार्चला कुंभ राशीत करणार प्रवेश, ‘या’ चार राशींना मिळणार लाभ वैदिक ज्योतिषशास्त्रानुसार जेव्हा जेव्हा एखादा ग्रह राशी बदलतो तेव्हा त्याचा थेट परिणाम मानवी जीवनावर होतो. ६ मार्च रोजी बुध ग्रह शनीच्या कुंभ राशीत प्रवेश करणार आहे. बुध हा व्यक्तीच्या जीवनात संवाद, तर्कशास्त्र, गणित, हुशारी आणि बुद्धिमत्तेचा कारक मानला जातो. यासोबतच बुध हा दळणवळण आणि व्यापाराचा कारक देखील…
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#&8216;या&8217;#2022:#६#budh#gochar#करणार#कुंभ#ग्रह#चार#प्रवेश#बातम्या#बुध#मार्चला#मिळणार#राशीत#राशींना#लाभ
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रहीम दास का जीवन परिचय Biography of Abdurrahim Khankhana
��हीम दास का जीवन परिचय Biography of abdul rahim khan-i-khana
जो गरीब सों हित करें, धनि रहीम ये लोग। कहाँ सुदामा चापुरी, कृष्ण मिताई जोग ।। जो लोग गरीबों का भला करते हैं वास्तव में ये ही धन्य हैं। कहाँ द्वारिका के राजा कृष्ण और कहाँ गरीब ब्राह्मण सुदामा। दोनों के बीच अमीरी-गरीबी का बहुत बड़ा अंतर था, फिर भी श्री कृष्ण ने सुदामा से मित्रता की और उसका निर्वाह किया। उक्त पंक्तियों की रचना महान कवि रहीम ने की। रहीम ने कविताओं व दोहों में नीति और व्यवहार पर बल दिया और समाज को आदर्श मार्ग दिखाया। रहीम दास मुसलमान होते हुए भी भगवान श्री कृष्ण के भक्त थे। उन्होंने काव्य के द्वारा जिस सामाजिक मर्यादा को प्रस्तुत किया वह आज भी अनुकरणीय है। रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ (abdul rahim khan-i-khana) था। रहीम का जन्म लाहौर (जो अब पाकिस्तान में है) में 1556 ई0 में हुआ। इनके पिता बैरम खाँ हुमायूँ के अतिविश्वसनीय सरदारों में से एक थे।हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम खाँ ने तेरह वर्षीय अकबर का राज्याभिषेक करदिया तथा उनके संरक्षक बन गए। हज यात्रा के दौरान मुबारक लोहानी नामक एक अफगानी पठान ने बैरम खाँ की हत्या कर दी। रहीम उस समय मात्र पाँच वर्ष के थे। रहीम अपनी माँ के साथ अकबर के दरबार में पहुंचे। read also रहीम दास के दोहे
रहीम का जीवन परिचय (rahim biography in hindi) एक नज़र में
नाम अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ (abdul rahim khan-i-khana) उपनाम रहीम दास माता का नाम सुल्ताना बेगम पिता का नाम बैरम खां व्यक्तिगत जीवन जन्म की तारीख 17 दिसंबर 1556, जन्मस्थान लाहौर, मुगल साम्राज्य पत्नी का नाम माहबानो धर्म इस्लाम प्रतिभा कवि, सेनापति, प्रशासक, शरणार्थी, दार्शनिक, राजनयिक, परोपकारी और विद्वान पद अकबर के दरबार मीर अर्ज
रहीम की शिक्षा
अकबर ने रहीम के लालन-पालन की व्यवस्था राजकुमारों की तरह की। अकबर ने रहीम को 'मिर्जा की उपाधि भी प्रदान की जो केवल ��ाजकुमारों को दी जाती थी। उन्होंने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने मुल्ला अमीन से अरबी, फारसी, तुर्की, गणित, तर्कशास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त किया। अकबर ने रहीम के लिए संस्कृत अध्ययन की भी व्यवस्था की। बचपन से ही अकबर जैसे उदार व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त होने के कारण रहीम में उदारता और दानशीलता के गुण भर गए। रहीम को काव्य सृजन का गुण पैतृक परम्परा से प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता भी पैतृक रूप में मिली। मिर्जा खाँ रहीम की कार्य कुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उन्हें शासक वंश से जोड़ने का निश्चय किया। अकबर ने रहीम का विवाह माहमअनगा की बेटी तथा खाने जहाँ अजीज कोका की बहन से करा दिया। सन् 1573 ई0 में मिर्जा खाँ रहीम का राजनीतिक जीवन आरंभ हुआ। अकबर गुजरात के विद्रोह को शान्त करने के लिए अपने कुछ विश्वसनीय सरदारों को लेकर गए थे। उनमें सत्रह वर्षीय मिर्जा खाँ भी थे। 1576 ई0 में अकबर ने उन्हें गुजरात का सूबेदार बनाया। 1580 तक मिर्जा खाँ ने राजा भगवानदास और कुँवर मानसिंह जैसे योग्य सेनापतियों की संगति में रहकर अपने अन्दर एक अच्छे सेनापति के गुणों को विकसितकर लिया। प्रधान सेनापति के रूप में उन्होंने बहुत लडाइयाँ जीती। अकबर ने उन्हें वकील की पदवी से सम्मानित किया। उनके पहले यह सम्मान केवल उनके पिता बैरम खां को था । उच्च कोटि के सेनापति और राजनीतिज्ञ होने के साथ ही रहीम श्रेष्ठ कोटि के कवि भी थे। अकबर का शासन काल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है। इसी समय रहीम ने ब्रजभाषा, अवधी तथा खडी बोली में रचनाएँ की। उनकी प्रमुख रचनाएं रहीम सतसई. बरवै नायिका भेद, रास पंचाध्यायी, शृंगार सोरहा रहीम समाज की कुरीतियों, आडम्बरों के भी आलोचक थे। वे मानवता के रचनाकार थे। उन्होंने एक सम्प्रदाय से दूर रह कर राम रहीम को एक माना। रहीम ने राम, सरस्वती, गणेश, कृष्ण, सूर्य, शिव-पार्वती हनुमान और गंगा की स्तुति की है। भाषा, धर्म-सम्प्रदाय में न उलझकर उन्होंने मानवधर्म को परम धर्म माना। राजद्रोह के अभियोग में उन्हें कैद करवा लिया। उनकी सारी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया। जहाँगीर से रहीम की नहीं बनी। वह दुःखी होकर चित्रकूट चले आए। उन्होंने लिखा चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस। जा पर विपदा पड़त है, वहि आवत यहि देस।। रहीम के अंतिम दिन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहे ! वह बीमार पड़ गए। उन्हें दिल्ली लाया गया जहाँ 1628 में उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें हुमायूँ के मकबरे के सामने अपने ही द्वारा बनवाए गए अधूरे मकबरा में दफनाया गया। अब्दुर्रहीम खानखाना अपनी रचनाओं के कारण आज भी जीवित हैं। अकबर के नवरत्नों में वे अकेले ऐसे रत्न थे जिनका कलम और तलवार पर समान अधिकार था। उन्होंने समाज के सामने 'सर्वधर्म समभाव' का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया जो मानव मात्र के लिए ग्रहणीय है। Read Also: रहीम के दोहे अर्थ सहित रहीमदास का साहित्यिक परिचय रहीम का हिंदी साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है उनकी गिनती भक्ति काल के श्रेष्ठ कवि जैसे तुलसीदास , कबीरदास , सूरदास ,मीराबाई आदि में की जाती है रहीम दास को संस्कृत, अरबी, हिंदी, फ़ारसी जैसी कई भाषाओं का ज्ञान था। उनके दोहे आम जन के दिलो को छू लेते है। रहीम दास की रचनाओं में भक्ति–प्रेम, नीति और श्रृंगार रस का भरपूर आनंद मिलता है ।
रहीम की भाषा शैली
रहीम दास जी ने अवधी और ब्रज भाषा दोनों में कविता लिखी है उनकी कविता में रचित, शांत और हास्य रस पाए जाते हैं।उनकी भाषा बहुत सरल हैउनकी कविता में भक्ति, नैतिकता, प्रेम और श्रंगार का सुंदर समावेश है। दोहा, सोरठा, बरवै, कवित्त और सवैया उनके प्रिय छंद हैं। रहीम की रचनाएँ रहीम दोहावली, बरवै, नायिका भेद, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, नगर शोभा आदि रहीम का पूरा नाम क्या है ? रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ था। रहीम किस काल के कवि हैं ? रहीम भक्ति काल के कवि हैं। रहीम का जन्म कहां हुआ था ? रहीम का जन्म लाहौर (जो अब पाकिस्तान में है) में 1556 ई0 में था। रहीम के पिता कौन थे ? रहीम के पिता का नाम बैरम खां था । रहीम की मृत्यु कब हुई ? रहीम के अंतिम दिन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहे 1628 में उनकी मृत्यु हो गई अन्य पढ़े Read the full article
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शक्य असेल तर "या'' गोष्टी टाळा ! जाणून घ्या आजचे राशिभविष्य
शक्य असेल तर “या” गोष्टी टाळा ! जाणून घ्या आजचे राशिभविष्य
मेष राशी भविष्य (Sunday, October 24, 2021) आरोग्याच्या तक्रारीमुळे एका महत्त्वाच्या असाईनमेंटवर तुम्हाला जाता न आल्यामुळे तुम्हाला माघार घ्यावी लागेल, पण तुमचे तर्कशास्त्र वापरून पुढे जात राहा. जे लोक लघु उद्योग करतात त्यांना आजच्या दिवशी आपल्या कुठल्या ही जवळच्या लोकांचा सल्ला मिळू शकतो. ज्यामुळे आर्थिक लाभ ही मिळण्याची शक्यता आहे. मुलांच्या यशस्वी होण्यामुळे तुम्हाला अभिमान वाटेल. तुम्हाला…
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1.गणितीय आगमन (Mathematical Induction), गणितीय आगमन सिद्धान्त (Principle of Mathematical Induction)-
Mathematical Induction
गणितीय आगमन (Mathematical Induction) को समझने के लिए हमें आगमन और निगमन को समझना होगा।
(1.)आगमन (Induction)-
आगणन सामान्यतः अनुमान की वह विधि है जिसके द्वारा विज्ञानों में पाए जाने वाले सामान्य वाक्यों (Universal or General prepositions) की स्थापना होती है।
ऐसे वाक्यों की स्थापना कुछ उदाहरणों के वास्तविक निरीक्षण के आधार पर होती है।हम वास्तव में एक-एक कर कुछ उदाहरणों का निरीक्षण करते हैं और उन सभी में एक ही तरह की बात पाए जाने के आधार पर सामान्य रूप से कोई एक निष्कर्ष निकाल लेते हैं।आगमन के द्वारा स्थापित ये ही व्यापक वाक्य विभिन्न विज्ञानों के सामान्य नियम है।
एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट होगी।हम वास्तव में इस बात का अनुभव करते हैं,निरीक्षण करते हैं कि एक-एक मनुष्य-राम,श्याम,मोहन इत्यादि मरणशील है और इन कुछेक वास्तविक उदाहरणों के अनुभव के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि “सभी मनुष्य मरणशील हैं ” जो एक सामान्य वाक्य है।
यह वाक्य सिर्फ खास मनुष्यों पर लागू नहीं बल्कि भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी मनुष्यों पर लागू होता है।
इस एक-एक मनुष्य की मरणशीलता के विषय में सामान्य वाक्य स्थापित करने की सम्पूर्ण क्रिया को आगमन कहा जाता है।विशेषों के ऐसे ही वास्तविक निरीक्षण के आधार पर सामान्य वाक्यों को स्थापना करने की क्रिया को आगमन की संज्ञा दी जाती है।
(2.) आगमन सिद्धान्त (Induction Principle)-
यदि कोई कथन या साध्य किसी विशिष्ट स्थितियों में सत्य होने पर व्यापक स्थिति में सत्य हो तो वह आगमन सिद्धान्त कहलाता है।
(3.)निगमन (Deduction)-
तर्कशास्त्र का मुख्य विषय अनुमान (Inference) के द्वारा हम कुछ आधार वाक्यों के बल पर एक निष्कर्ष पर आते हैं। हमारे निष्कर्ष की सत्यता के लिए हमारे आधार वाक्य प्रमाण या आधार का काम करते हैं।
परन्तु प्रश्न उठता है कि इन आधार वाक्यों को हम कहां से प्राप्त करते हैं,उनकी सत्यता कारण ज्ञान हमें कहां से होता है।
निगमन में अनुमान की एक विधि है,इन आधार वाक्यों को सत्य मान लिया जाता है,उन्हें कहीं से ले लिया जाता है। चूंकि उनके साथ इस तरह का कोई प्रश्न नहीं जुटा रहता है कि वे वास्तविक दृष्टि से सत्य हैं या नहीं।
निगमन में आधार-वाक्यों की सत्यता को स्वीकार कर सिर्फ यह देखना हमारा काम होता है कि उनसे अनिवार्यतः क्या निष्कर्ष निकलता है।
दूसरे शब्दों में निगमन में हमारा संबंध सिर्फ इस बात से रहता है कि यदि आधार वाक्यों को सत्य मान लिया जाए तो उनसे किस वाक्य की सत्यता अनिवार्यतः निकलती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि निगम की आधार वाक्यों अथवा निष्कर्ष की वास्तविक सत्यता (Material Truth) से कोई मतलब नहीं होता।उसका लक्ष्य सिर्फ आकारिक सत्यता (Formal Truth) प्राप्त करना होता है।
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यूपी बीएड प्रवेश परीक्षा: हिंदी और रीजनिंग के सवालों में उलझे परीक्षार्थी, जीके ने भी टफ रही उत्तर प्रदेश संयुक्त बीएड प्रवेश परीक्षा में प्रश्नपत्रों को लेकर अभ्यर्थियों ने सवाल उठाए हैं। तर्कशास्त्र (रीजनिंग) के सवालों ने भी अभ्यर्थियों को बहुत उलझाया। बीएड प्रवेश परीक्षा में प्रथम पाली में ...। Source link
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