#झुग्गी बस्तियां
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janchowk · 4 years ago
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जीने के अधिकार के खिलाफ है दिल्ली में झुग्गियों को उजाड़ने का फैसला: सीपीआई-एमएल
जीने के अधिकार के खिलाफ है दिल्ली में झुग्गियों को उजाड़ने का फैसला: सीपीआई-एमएल
दिल्ली में रेलवे लाइन के पास बसी सभी झुग्गी बस्तियों को तीन महीने के भीतर उजाड़ने के आदेश से सीपीआई एमएल लिब्रेशन ने असहमति जताई है। CPI-ML का मानना है कि जस्टिस मिश्रा की बेंच द्वारा पारित ये आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंर्तगत मिले जीवन के अधिकार का खुलेआम उल्लंघन है। पार्टी ने जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के इस फैसले को असंवेदनशील फैसला बताया है।
पार…
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dainiksamachar · 2 years ago
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भारत नेपाल सीमा की नो मेंस लैंड पर खड़े हो गए कई अवैध मदरसे, बस गईं नई बस्तियां, देखिए ये खास रिपोर्ट
श्रावस्ती: यूपी में मदरसों के सर्वे के बीच श्रावस्ती से चौकाने वाली खबर सामने आयी है। भारत-नेपाल की खुली सीमा से श्रावस्ती जिले का 62 किलोमीटर लंबा क्षेत्रफल सटा हुआ है। सीमा के दोनों ओर बीते पांच सालों में मस्जिद, मदरसे और बस्तियों की बाढ़ सी आ गई है। इस सीमा पर नो मेंस लैंड पर भी बस्तियां बस चुकी हैं। यहां के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र भरथा, रोशन गढ़, ककरदरी जैसे कई गांव हैं, जहां नो मेंस लैंड पर मदरसे संचालित हैं। इन मदरसों के गेट तो भारत में खुलते है, लेकिन खिड़कियां भारत-नेपाल के नो मेंस लैंड में खुलती हैं। यहां पर कुछ ऐसे मदरसे भी हैं, जहां कुछ बच्चे नेपाल से भी आकर दीनी तालीम लेते हैं। क्योंकि यहां पर किसी प्रकार की कोई रोक-टोक नहीं है। ऐसे में यहां एक कदम में भारत तो एक कदम में नेपाल में बड़ी आसानी से आ जा सकते हैं। अगर देखा जाए तो यहां के ज्यादातर मदरसे गैर मान्यता प्राप्त हैं। यहां के मुस्लिम समुदाय के लोग खुद पैसे जमा करके मौलवियों को तनखा देते हैं, और अपने बच्चों को दीनी तालीम दिलवाते हैं। नो मेंस लैंड में खुले हैं कई मदरसे इसी सिलसिले में आज नवभारत टाइम्स की टीम पर बसे गांव ककरदरी पहुंची। ककरदरी गांव पहुंचकर हम यहां के मदरसा दारुल उलूम गुलशने रजा पहुचें जो नो मेंस लैंड से सटा हुआ मदरसा है। इसका मेन गेट नो मेंस लैंड के पिलर नंबर 12/640 में खुलता है। यहां पर 80 से ज्यादा बच्चे दीनी तालीम हासिल करते हैं। इन बच्चों को कुरान, अरबी, उर्दू तालीम दी जाती है। लेकिन यहां के मौलवी नफीस बताते हैं कि हम बच्चों को हिंदी इंग्लिश की भी तालीम देते हैं। जबकि एक मौलवी 80 बच्चों को हर सब्जेक्ट की तालीम कैसे दे सकता है। ऐसे में जब हमने बच्चों से बात की तो उनके पास ना हिंदी की किताब नजर आई ना अंग्रेजी की, सिर्फ दीनी तालीम देने वाली उर्दू और अरबी की किताबें दिखाई दीं। नेपाल के मदरसों में भी तालीम ले रहे यहां के बच्चे लोगों से बात करते हुए जानकारी हुई कि यहां के कुछ बच्चे नेपाल के मदरसों में जाकर भी शिक्षा ले रहे हैं। मदरसा दारुल उलूम गुलशने रजा में कुछ दिन पहले तक नेपाल के एक मौलवी के द्वारा संचालन किया जा रहा था। अब वह मौलवी फिर नेपाल में जाकर लोगों को दीनी तालीम दे रहा है। गांव के ही लोग मौलवी को अपने पास से तनख्वाह देते हैं। यहां पर कोई सरकारी मदद नहीं है। मौलवी नफीस बताते हैं कि 20 साल पहले ही इस मदरसे का रजिस्ट्रेशन कराया गया था। जब कागज मांगा गया तो वह रजिस्ट्रेशन का कोई कागजात न दिखा सके। यहां तक कि मौलवी साहब को यह भी नहीं पता कि मान्यता कहां से कराई जाती है। अब बड़�� सवाल ये है कि आखिर मदरसों में पढ़ने वाले इन बच्चों का मुस्तकबिल क्या होगा। गायब कर दिए शिलापट ककरदरी, रोशनगढ़, तुरम्मा, असनहरिया और कुंडवा जैसे कई गांव में नो मेंस लैंड पर बस्ती बनने का नजारा साफ नजर आता है। जैसे-जैसे बस्तियां बंटती जा रही हैं, दोनों देशों को अलग करने वाले शिलापट भी गायब होते जा रहे हैं। सिर्फ दो साल में ही चार फुट ऊंचा शिलापट महज नौ इंच बचा है। पूरे इलाके को पाटकर सघन आबादी बस गई है। वर्ष 2020 तक यहां झुग्गी झोपड़ियां थीं, आज पक्के मकान बन गए हैं। यहां मस्जिद के साथ-साथ 22 से अधिक मदरसे बन चुके हैं। एक मदरसे की मान्यता का भी दावा किया जा रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय के इन लोगों के पास नेपाल की नागरिकता है तो भारत का आधार कार्ड भी ये दोनों देशों में बेखौफ घूमते हैं। क्या बोले अधिकारी इस मामले पर जब हमने जिला अल्पसंख्यक अधिकारी देवेंद्र राम से बात की तो उन्होंने कहा कि श्रावस्ती के अलावा प्रदेश भर में मदरसों की जांच कराई गई है। सब की रिपोर्ट शासन को भेज दी गई है, जो भी कार्रवाई होगी शासन के द्वारा तय की जाएगी। रिपोर्ट-आलोक मिश्रा http://dlvr.it/Sc5vm9
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hamarirai · 4 years ago
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रेलवे लाइन के किनारे से हटाई जाएंगी 48 हजार झुग्गी बस्तियां, सुप्रीम कोर्ट ने दिया आदेश देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में कहा है कि दिल्ली में 140 किलोमीटर रेलवे ट्रैक के किनारे बसी हुईं 48 हजार झुग्गी बस्तियों को हटाया जाए। खबर के मुताबिक कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि इस आर्डर पर देश की कोई भी अदालत स्टे ना लगाए। यह आदेश जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच ने दिए हैं।
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chaitanyabharatnews · 5 years ago
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रतन टाटा ने कोरोना वायरस फैलने के लिए बिल्डरों को ठहराया जिम्मेदार, कहा- झुग्गियों में कोरोना संकट, शर्म आनी चाहिए...
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चैतन्य भारत न्यूज नई दिल्ली. प्रख्यात उद्योगपति और टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा ने डेवलपरों और आर्किटेक्टों के शहरों में मौजूद स्लम यानी झुग्गी-झोपड़ियों को 'अवशेष' की तरह इस्तेमाल करने पर नाराजगी जाहिर की है। रतन टाटा ने देश में फैले कोरोना वायरस की एक बड़ी वजह इन झुग्गी झोपड़ी कॉलोनियों को भी बताया। बिल्डरों को शर्म आनी चाहिए: टाटा रतन टाटा ने यह बात ग्लोबल इनोवेशन प्लेटफॉर्म कॉर्पजिनी के ‘भविष्य के डिजाइन और निर्माण’ विषय पर वर्चुअल पैनल डिस्कशन में कही। टाटा का कहना है कि, शहरों में स्लम बस्तियां उभर आने के लिए बिल्डरों को शर्म आनी चाहिए। उन्होंने कहा कि, 'कोरोना वायरस के कहर ने शहर में आवास के संकट को उजागर किया है। मुंबई के लाखों लोग ताजी हवा और खुली जगह से महरूम हैं। बिल्डरों ने ऐसे स्लम बना दिए हैं, जहां सफाई का इंतजाम नहीं है। हमें शर्म आनी चाहिए क्योंकि एक तरफ तो हम अपनी अच्छी छवि दिखाना चाहते हैं दूसरी और एक हिस्सा ऐसा है जिसे हम छिपाना चाहते हैं।' बिल्डरों ने बना दिए वर्टिकल स्लम टाटा ने कहा कि, 'सस्ते आवास और झुग्गियों का उन्मूलन आश्चर्यजनक रूप से दो परस्पर विरोधी मुद्दे हैं। हम लोगों को अनुपयुक्त हालातों में रहने के लिए भेजकर झुग्गियों को हटाना चाहते हैं। यह जगह भी शहर से 20-30 मील दूर होती हैं और अपने स्थान से उखाड़ दिए गए उन लोगों के पास कोई काम भी नहीं होता है।' उन्होंने आगे कहा कि, 'जहां कभी स्लम बस्ती होती थी वहां जब ऊंची कीमत वाली हाउसिंग यूनिट बनती हैं तो स्लम एक तरह से विकास के अवशेष में तब्दील हो जाती हैं। बिल्डरों और आर्किटेक्टों ने एक तरह से वर्टिकल स्लम बना दिए हैं, जहां न तो साफ हवा है, न साफ-सफाई की व्यवस्था और �� ही खुला स्थान।' नाकामियों पर भी शर्मिदा भी होना चाहिए रतन टाटा ने कहा कि, 'इस महामारी ने स्लम बस्ती द्वारा हर किसी के लिए खड़ी की जाने वाली समस्या को रेखांकित कर दिया है। अगर हमें अपनी उपलब्धियों पर गर्व होता है तो अपनी नाकामियों पर शर्मिदा भी होना चाहिए।' बता दें देश में कोरोना वायरस का सबसे ज्यादा संक्रमण महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में फैल रहा है। मुंबई के केंद्र में बसा स्लम एरिया धारावी भी कोरोना संकट से जूझ रहा है। जानकारी के मुताबिक, धारावी में अब तक 150 से ज्यादा कोरोना के मामले सामने आ चुके हैं और यह संख्या बढ़ सकती है। रतन टाटा को इस बात का है मलाल टाटा ने यह भी बताया कि उन्हें एक आर्किटेक्ट के तौर पर अपना काम लंबे समय तक जारी न रख पाने का भी मलाल है। उन्होंने बताया कि, उनके पिता उन्हें इंजिनियर बनाना चाहते थे। टाटा ने कहा, 'मैं हमेशा से आर्किटेक्ट बनना चाहता था क्योंकि यह मानवता की गहरी भावना से जोड़ता है। मेरी उस क्षेत्र में बहुत रुचि थी क्योंकि वास्तुशिल्प से मुझे प्रेरणा मिलती है। लेकिन मेरे पिता मुझे एक इंजीनियर बनाना चाहते थे, इसलिए मैंने दो साल इंजीनियरिंग की। दो साल अमेरिका के लॉस एंजिल्स में इंजिनियरिंग की पढ़ाई के बावजूद मैं आर्किटेक्ट नहीं बन सका, इसका पछतावा है। मुझे आर्किटेक्ट नहीं बन पाने का दुख कभी नहीं रहा, मलाल तो इस बात का है कि मैं ज्यादा समय तक उस काम को जारी नहीं रख सका।' ये भी पढ़े... चर्चा में है रतन टाटा की जवानी की तस्वीर, 4 बार होते-होते रह गई थी उनकी शादी इंस्टाग्राम पर 10 लाख फॉलोअर्स होने पर महिला ने रतन टाटा को कहा बधाई हो छोटू, मिला यह शानदार जवाब वैलेंटाइन डे: रतन टाटा ने बताई अपनी प्रेम कहानी, अमेरिका में हुआ था प्यार, भारत-चीन युद्ध की वजह से नहीं हुई शादी Read the full article
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shaileshg · 4 years ago
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दिल्ली के किदवई नगर इलाके के पूर्वी छोर से एक बड़ा नाला गुजरता है। इसे कुशक नाला भी कहते हैं। 28 साल के अरुण इसी नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में पैदा हुए थे। अरुण जब छोटे थे तो इस इलाके में उनकी झुग्गी के इर्द-गिर्द ज़्यादा कुछ नहीं था।
यहां बना आयुष भवन हो, केंद्रीय सतर्कता आयोग का ऑफ़िस हो या एनबीसीसी की बहुमंजिला इमारतें, सब उनके देखते-देखते ही बने। बारापुला फ्लाइओवर को बने तो अभी कुछ ही साल हुए हैं जो उनकी झुग्गी बस्ती के ठीक ऊपर कि��ी सीमेंट के इंद्रधनुष की तरह उग आया है।
अरुण जैसे-जैसे बड़े हुए, उनके आस-पास का हरा-भरा इलाका कंक्रीट के जंगल में बदलता गया और उनकी झुग्गी बस्ती लगातार इसके बीच सिमटती चली गई। बचपन में वे झुग्गी के पास के जिन खाली मैदानों और पार्कों में खेला करते थे, वहां अब आलीशान कॉलोनियां बन चुकी हैं। इनमें हर समय निजी सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं और निगरानी रखते हैं कि झुग्गी के बच्चे कॉलोनी के पार्क में खेलने न चले आएं।
इस झुग्गी बस्ती के अधिकतर लोग मजदूर हैं, मिस्त्री हैं या पुताई का काम करते हैं। आस-पास बनी तमाम बड़ी-बड़ी इमारतों को इन्हीं लोगों ने अपनी मेहनत और पसीने से सींच कर खड़ा किया है। लेकिन जैसे-जैसे ये सुंदर इमारतें बनती गई, इन लोगों के लिए अपनी झुग्गी बचाए रखना भी मुश्किल होता गया। शहर के सौंदर्यीकरण में इनकी झुग्गियां बट्टा लगाती थी लिहाज़ा इन्हें हटा लेने का दबाव लगातार बढ़ने लगा।
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से ज्यादा है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं।
21वीं सदी शुरू होते-होते ये दबाव बेहद बढ़ गया। भारत को राष्ट्रमंडल खेलों का मेज़बान बनना था और इसके लिए दिल्ली को दुल्हन की सजाना शुरू हुआ। इस सजावट में झुग्गियां बड़ा रोड़ा बन रही थी लिहाज़ा एक-एक कर कई झुग्गियां गिराई जाने लगी।
अरुण बताते हैं, ‘कुछ झुग्गी वालों का पुनर्वास हुआ और बाकी सबको बिना किसी पुनर्वास के ही उजाड़ दिया गया। हमें भी कह दिया गया था कि दिल्ली छोड़ कर चले जाओ।’
इसी झुग्गी के रहने वाले 60 वर्षीय महेंद्र दास याद करते हैं, ‘उस वक्त शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हुआ करती थी। हम उसके पैरों में गिर गए थे और बहुत गिड़गिड़ाए थे कि हमारे घर मत उजाड़ो। लेकिन, उसने हमारी एक न सुनी और पूरी बस्ती पर बुलडोजर चढ़ा दिया। कई साल से जोड़-जोड़ जो बनाया था वो एक ही बार में रौंद दिया गया। कई रात हम अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर सोए।’
वक्त बीता तो महेंद्र दास और उनकी झुग्गी वालों के घाव भी धीर���-धीरे भरने लगे। इन लोगों ने उसी नाले के किनारे एक बार फिर अपना आशियाना बसा लिया, जहां से इन्हें उखाड़ दिया गया था।
महेंद्र की पत्नी गीता दास कहती हैं, ‘झुग्गी में कौन रहना चाहता है? यहां बहुत दिक्कत होती है। बरसात में नाले का सारा गंदा पानी ��मारे घरों में भर जाता है। जब से ये बारापुला बना है, दिक्कत और भी बढ़ गई है। रात में कई बार शराबी इस पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं और कूड़ा-कचरा-बियर की बोतलें हमारे ऊपर फेंकते हैं। लेकिन, यहां कम से कम हमारे सर पर छत है इसलिए झुग्गी में रहते हैं।’
ऐसी नारकीय स्थिति में जीने को मजबूर इन झुग्गी वालों के लिए बीता साल कुछ खुशियां लेकर आया। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी डूसिब ने तय किया कि इन लोगों का पुनर्वास होगा और इन्हें झुग्गी के बदले फ्लैट आवंटित किए जाएंगे। इसके लिए झुग्गियों का सर्वे किया गया और लोगों से पुनर्वास की रक़म भी जमा करवाई गई। अनुसूचित जाति के लिए 31 हजार रुपए और सामान्य वर्ग के लिए एक लाख 42 हजार की रक़म तय की गई।
इस झुग्गी के लगभग सभी लोग यह रक़म जमा कर चुके हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी जब आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इन लोगों मन में कई सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल इसलिए भी मज़बूत होते हैं क्योंकि दिल्ली में हजारों लोग ऐसे भी हैं जो बीते 12-13 साल से पुनर्वास की राह देख रहे हैं और जिनका पुनर्वास अदालत की फाइलों में कहीं उलझ कर रह गया है। राजेंद्र पासवान ऐसे ही एक व्यक्ति हैं।
राजेंद्र राजघाट के पीछे यमुना किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहा करते थे। साल 2007 में जब यह झुग्गी बस्ती गिराई गई तो इन लोगों से पुनर्वास का वादा किया गया। इसके लिए राजेंद्र पासवान ने उस दौर में 14 हजार रुपए का भुगतान भी किया और जमीन आवंटित होने का इंतजार करने लगे। उनका ये इंतजार आज तक ख़त्म नहीं हुआ है। उनके साथ ही उस बस्ती के क़रीब नौ सौ अन्य परिवार भी इसी इंतजार में बीते 13 सालों से आस लगाए बैठे हैं।
झुग्गी के लोग शहर में ही मजदूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
डूसिब के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कुल 45,857 ऐसे फ्लैट या तो बन चुके हैं या दिसम्बर 2021 तक बनकर तैयार हो जाएंगे, जिनमें झुग्गी बस्ती के लोगों को बसाया जाना है। इनमें से अधिकतर फ्लैट राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ही बनाए गए थे जब तेजी से दिल्ली की झुग्गियां गिराई जा रही थी। लेकिन, इतने फ्लैट होने के बावजूद भी राजेंद्र पासवान जैसे लोगों को पुनर्वास के लिए सालों-साल इंतजार क्यों पड़ रहा है?
इस सवाल के जवाब में डूसिब के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास में कई अलग-अलग विभागों की भूमिका होती है। डूसिब भले ही पुनर्वास के लिए नोडल एजेंसी है लेकिन इसके अलावा रेलवे, डीडीए और दिल्ली कैंटोनमेंट बोर्ड जैसी केंद्रीय एजेंसियों की भी अहम भूमिका होती है। नियम ये है कि जिसकी जमीन पर झुग्गियां हैं उसी एजेंसी को पुनर्वास के लिए भुगतान करना होता है।’
ये अधिकारी आगे कहते हैं, ‘प्रत्येक झुग्गी के ��ुनर्वास में साढ़े सात लाख से लेकर साढ़े 11 लाख रुपए तक का खर्च होता है। फ्लैट तो बने हैं लेकिन जब तक कोई एजेंसी ये रक़म नहीं चुकाती, फ्लैट आवंटित नहीं हो सकते। इसीलिए कई मामलों में सालों-साल तक यह प्रक्रिया लटकी ही रह जाती है।’
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से अधिक बताई जाती है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं। मसलन रेलवे, रक्षा मंत्रालय और डीडीए की जमीनों पर। इनके अलावा 25 % झुग्गियां दिल्ली सरकार की जमीनों पर हैं।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के पुनर्वास की 75% जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है जिनकी जमीनों पर 75% झुग्गियां हैं। डूसिब के अधिकारी दावा करते हैं कि बीते पांच सालों में उन्होंने 15 झुग्गी बस्तियों का पुनर्वास सफलता से कर दिया है। लेकिन झुग्गियों के पुनर्वास के ये कथित सफल प्रयोग दिल्ली में खोजने से भी नहीं मिलते।
सामाजिक कार्यकर्ता और झुग्गी बस्ती वालों के लिए मज़बूती से आवाज़ उठाने वाले दुनू रॉय बताते हैं, ‘सरकार की पुनर्वास नीति में बहुत ज़्यादा खामियां हैं इसलिए ये पुनर्वास कभी सफल नहीं हो पाता।’ वे कहते हैं, ‘झुग्गी के लोगों के लिए अपनी झुग्गी सिर्फ़ रहने का ही नहीं बल्कि काम का भी ठिकाना होती है। झुग्गी बस्ती में लोग अपनी दहलीज़ और गलियों में ही छोटे-छोटे कई काम करते हैं।
लेकिन फ्लैट में न तो दहलीज़ का इस्तेमाल हो सकता है और न गलियारों का। ऊपर से ये फ्लैट इतने छोटे होते हैं कि इनमें किसी का भी गुज़ारा नहीं हो सकता। ये फ्लैट बनाए भी शहर से दूर गए हैं इसलिए भी यहां लोग रहना पसंद नहीं करते क्योंकि वहां उनके लिए खाने-कमाने के कोई साधन ही नहीं है।’
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया है।
दुनू रॉय सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि सरकारें भी नहीं चाहती कि ये झुग्गी वाले ठीक से बस जाएं। क्योंकि, अगर ये अच्छे से बस गए तो सस्ता श्रम जो इनसे मिलता है, वो कहां से आएगा। झुग्गी के लोग शहर में ही मज़दूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
ये लोग शहर से दूर कैसे रह सकते हैं। इसलिए जिन्हें फ्लैट मिलते भी हैं वो इसे बेचने को मजबूर हो जाते हैं। बिल्डर इन झुग्गी वालों से सस्ते दामों पर ये फ्लैट ख़रीद लेते हैं और फिर तीन-चार फ्लैट को मिलाकर एक रहने लायक़ फ्लैट तैयार करके उसे महंगे दामों पर बेच देते हैं।
दिल्ली में क़रीब 45 हजार फ्लैट बन जाने के बाद भी उनमें झुग्गी वालों को नहीं बसाया जा सका है। उसका एक बड़ा कारण इनकी शहर से दूरी भी है। इसे ही देखते हुए साल 2015 में दिल्ली सरकार ने पुनर्वास नीति में बदलाव किया था। इस नीति में तय हुआ है कि अब झुग्गी वालों का पुनर्वास झुग्गी के पांच किलोमीटर के दायरे में ही किया जाएगा।
इस नियम को काफ़ी प्रभावशाली तो माना जा रहा है लेकिन ये धरातल पर उतर पाएगा, इसका यक़ीन फ़िलहाल कम ही लोगों को है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया था।
लेकिन, सोम���ार को एक प्रेस नोट जारी करते हुए उत्तर रेलवे ने कहा है कि उनके अधिकारी लगातार दिल्ली और केंद्र सरकार के संबंधित विभागों से चर्चा कर रहे हैं और जब तक कोई ठोस फैसला नहीं ले लिए जाता तब तक ये झुग्गियां नहीं तोड़ी जाएँगी। ये सूचना रेलवे लाइन के पास बसे 48 हजार झुग्गी वालों के लिए थोड़ी राहत लेकर आई है।
लेकिन, इसके बावजूद भी झुग्गी वालों के पिछले अनुभव उन्हें परेशान होने के कई कारण दे देते हैं। महेंद्र दास जैसे सैकड़ों लोग बिना किसी पुनर्वास के झुग्गी टूटने का दर्द पहले भी झेल चुके हैं और राजेंद्र पासवान जैसे सैकड़ों अन्य लोग झुग्गी टूटने के 13 साल बाद भी पुनर्वास की बाट जोहते जिंदगी बिता रहे हैं। ऐसे में इन लोगों में स्वाभाविक डर है कि जब 12-13 साल पहले अपनी झुग्गियां खाली कर चुके लोगों का ही पुनर्वास अ�� तक पूरा नहीं हुआ तो इनका पुनर्वास कैसे और कब तक हो सकेगा।
यह भी पढ़ें :
1. दिल्ली का सबसे बड़ा वोट बैंक, ये झुग्गियां / यहां के लोग कहते हैं, मोदी जी को हमारी झुग्गी टूटने की फिक्र नहीं, लेकिन कंगना के घर में तोड़फोड़ पर पूरा देश परेशान है
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People say, standing on the drunken bridge in the night, making indecent gestures to girls, urinating on our slums.
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smarthulchal · 4 years ago
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दिल्ली में झुग्गी बस्तियां नहीं तोड़ने देगी केजरीवाल सरकार
दिल्ली में झुग्गी बस्तियां नहीं तोड़ने देगी केजरीवाल सरकार
नई दिल्ली । दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार झुग्गी झोपड़ियों को तोड़े जाने का विरोध कर रही है। गुरुवार को आम आदमी पार्टी ने दो टूक शब्दों में कहा कि दिल्ली में झुग्गी झोपड़ी नहीं तोड़ने दी जाएगी। इससे पहले दिल्ली एनसीआर में रेलवे की जमीन पर बनी करीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया गया था। गुरुवार को आम आदमी पार्टी के विधायक राघव चड्ढा ने इन झुग्गियों को तोड़े जाने के लिए जारी किए गए…
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aapnugujarat1 · 5 years ago
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मध्य प्रदेश में नदियां उफान पर, भारी बारिश से बिगड़े हालात
मध्य प्रदेश के कई इलाकों में पिछले कुछ दिनों से हो रही लगातार बारिश से हाहाकार मचा है । इन इलाकों में बाढ़ की स्थितियां बन गई हैं । घर पानी में डूब गए हैं तो लोगों को रेस्क्यू कराने का काम तेजी से चल रहा है । करीब ११ जिलों में मूसलाधार बारिश और बाढ़ का ज्यादा असर है, वहीं ३२ जिलों में अलर्ट जारी किया गया है । बारिश की स्थिति को देखते हुए भोपाल, मंडला, सिवनी जिलों के स्कूलों की छुट्टी कर दी गई है । प्रशासन ने जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा सहित अन्य इलाकों में अलर्ट जारी किया है । भोपाल में रविवार को एक डेढ़ साल के बच्चे समेत दो लोगों की मौत हो गई । लगातार भारी बारिश के कारण जिला कलेक्टर भोपाल तरुण पिथोडे ने सभी स्कूलों को बंद रखने के निर्देश दिए हैं । डीएम ने कहा कि सभी सरकारी, निजी, सीबीएसई और आईसीएसई स्कूल सोमवार को बंद रहेंगे । इसके अलावा अन्य जिलों में भी अलर्ट जारी किया गया है । स्थानीय पुलिस ने बताया कि रविवार को प्रेमपुरा घाट के पास एक युवक ऊपरी झील में बह गया । पानी में तेज बहाव और अंधेरे के कारण युवक ��ो नहीं खोजा जा सका । वहीं एक बच्ची अनुष्का का शव पानी में बरामद किया गया । एसएचओ खजुरी एलडी मिश्रा ने कहा कि चाय की दुकान चलाने वाले प्रकाश की बेटी अनुष्का फंदा इलाके में रहती थी । वह अपनी बड़ी बहन पूजा (१०) के साथ एक किनारे पर खड़ी थी, तभी उसका पैर फिसल गया और वह बहाव में बह गई । इटारसी के राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) के हवालात में बंद पांच आरोपियों को रविवार को बारिश के पानी में डूबने के बाद थाने की पहली मंजिल पर ले जाना पड़ा । एसएचओ बीएस चौहान ने कहा कि दो आरोपियों को मोबाइल फोन चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, जबकि बाकी आरोपियों पर गाड़ियों में चोरी का आरोप है । रविवार को उन्हें अदालत में पेश किया जाना था । हवालात में बारिश का पानी घुटने तक भर गया । कोलार क्षेत्र में लगभग २० परिवारों को स्थानांतरित किया गया है । कलियासोत बांध के चार स्लूस गेटों को सुबह खोले जाने के बाद धाम खेड़ा क्षेत्र में बाढ़ आ गई । रविवार शाम को छह फाटक और खोले गए । भोपाल महापालिका के फायर ब्रिगेड प्रभारी पंकज खरे ने बताया कि शुरुआत में निचले इलाकों में छह घरों को खाली करवाया गया । कोलांस नदी अपने सामान्य निशान से दस फीट ऊपर बह रही है । निचले इलाकों में के सारे घरों को खाली करने का आदेश जारी किया गया है । उन्होंने कहा कि प्रभावित इलाके के सरकारी प्राथमिक स्कूल को भी स्थानांतरित कर दिया गया है । किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए क्षेत्र में चार टीमों को तैनात किया गया है । कई इलाकों में जलभराव के कारण शहर में लगातार बारिश ने जीवन से बाहर कर दिया । राजीव नगर की बस्तियां भी जलमग्न हो गईं । स्थानीय विधायक और कानून मंत्री पीसी शर्मा ने स्थिति का जायजा लेने के लिए इलाके का दौरा किया । क्षेत्र के कुछ निवासियों को तत्काल स्थानांतरित करने के लिए जिला कलेक्टर को निर्देश दिए गए थे । स्थानीय लोगों ने कहा कि इलाके में नालियों को चौड़ा नहीं किए जाने के कारण बाढ़ आई है । मंत्री ने कलेक्टर को झुग्गी क्षेत्रों में भोजन और राशन प्रदान करने का निर्देश दिया । हरदा जिले की जेल में सोमवार को बारिश का पानी भर गया । यहां के दो बैरक में घुटने तक पानी भरने के बाद दोनों बैरकों के कैदियों को सुरक्षित जगह शिफ्ट किया गया । नर्मदा नदी के पास स्थित शहरों में रहने वाले लोगों को जल निकायों से दूर रहने के लिए कहा गया है । बरगी का पानी सोमवार को होशंगाबाद पहुंच गया । तवा नदी का पानी नर्मदा में बहना शुरू हो चुका है । मंडला में नर्मदा खतरे के निशान से चार फीट ऊपर बह रही है । डाउनस्ट्रीम बरगी का विशाल जलाशय है जहां ऊपर भारी वर्षा के बाद जल स्तर तेजी से बढ़ता है । प्रशासन ने जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा सहित अन्य इलाकों में अलर्ट जारी किया है । Read the full article
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shaileshg · 4 years ago
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दोपहर के एक बजे हैं। कीर्ति नगर में चूना भट्टी के पास बसी एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली विजेता राजभर अभी-अभी नोएडा से वापस लौटी हैं। आज दिल्ली यूनिवर्सिटी में पीएचडी की प्रवेश परीक्षा थी। इसी परीक्षा में शामिल होने विजेता नोएडा गई थी।
कीर्ति नगर के आस-पास बसी झुग्गियों में 25 हजार से भी ज़्यादा परिवार रहते हैं। लेकिन, लाखों की इस आबादी में शायद विजेता अकेली ऐसी लड़की हैं जो पीएचडी करने के सपने के इतना क़रीब पहुंच सकी हैं। जिस झुग्गी बस्ती में वे रहती हैं, वहां ऐसे लोगों की संख्या मुट्ठी भर से ज़्यादा नहीं जो ग्रेजुएट हों। पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाले तो उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
विजेता अगर यह प्रवेश परीक्षा पास कर लेती हैं तो कीर्ति नगर की झुग्गी से निकल कर यह कीर्तिमान रचने वाली वे पहली लड़की होंगी। इस परीक्षा की लिए विजेता ने काफी मेहनत भी की है। लेकिन, परीक्षा से ठीक एक हफ्ता पहले, जब वो अपना सारा ध्यान सिर्फ़ परीक्षा की तैयारी में लगा देना चाहती थी, तभी उन्हें खबर मिली कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में 48 हजार झुग्गियों को तोड़ डालने का आदेश दिया है जिनमें उनकी झुग्गी भी शामिल हो सकती है।
कीर्ति नगर के आस-पास बसी इन झुग्गियों में 25 हजार से भी ज़्यादा परिवार रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में 48 हजार झुग्गियों को तोड़ डालने का आदेश दिया है, जिससे यहां रहने वाले सहमे हुए हैं।
विजेता कहती हैं, ‘बचपन से आज तक कभी हमारे पास पढ़ाई के लिए अलग कमरा नहीं रहा, इसलिए हमें बहुत सारे शोर में ही पढ़ाई करने की आदत पड़ गई। यहां पीछे ही रेलवे की पटरी है जहां से दिन भर में न जाने कितनी ट्रेन गुजरती हैं। इनके शोर ने भी कभी परेशान नहीं किया।
लेकिन जब से झुग्गियां टूटने की खबर मिली है, दिमाग़ में एक अलग ही तरह का शोर उठा हुआ है। कई सवाल मन में उठ रहे हैं। झुग्गियां भी नहीं रहेंगी तो हम कहां जाएंगे। इस मनोदशा में पढ़ाई भी नहीं हो रही।’
विजेता जैसी ही मनोदशा से दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोग इन दिनों गुजर रहे हैं। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) के अनुसार पूरी दिल्ली में करीब 700 सौ पंजीकृत झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें 4 लाख से ज्यादा झुग्गियां हैं। इनमें रहने वाले लोगों की संख्या 20लाख से भी अधिक बताई जाती है।
यदि इस आंकडे में गैर पंजीकृत झुग्गियों को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या और भी ज्यादा बढ़ जाती है। इनमें से हजारों झुग्गियां रेलवे लाइन के किनारे बसी हुई हैं जिनमें रहने वाले लाखों लोग अब अपने भविष्य को लेकर आशंकाओं से घिर गए हैं।
झुग्गियां तोड़ने का यह आदेश हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एमसी मेहता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस की सुनवाई करते हुए दिया है। इस आदेश में कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली में रेलवे की 140 किलोमीटर लम्बी लाइन के सेफ्टी ज़ोन में जितने भी अतिक्रमण हैं, उन्हें तीन महीने के अंदर ध्वस्त किया जाए।
इस सेफ्टी जोन में आने वाली 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश देते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा है कि इस आदेश पर कोई भी राजनीतिक हस्तक्षेप न किया जाए। साथ ही कोर्ट ने कहा है कि इस आदेश पर अगर कोई भी न्यायालय अंतरिम आदेश जारी करता है तो ऐसा आदेश मान्य नहीं होगा।
साल 2003-04 के दौरान रेलवे ने डूसिब को पुनर्वास के लिए 11.25 करोड़ रुपए दिए था। लेकिन 4410 झुग्गियों में से सिर्फ़ 257 का ही पुनर्वास किया गया।
इस आदेश ने सिर्फ़ झुग्गियों में ��हने वाले लाखों लोगों को ही नहीं बल्कि दिल्ली ��रकार के अधिकारियों को भी हैरत में डाल दिया है। डूसिब के एक अधिकारी कहते हैं, ‘मामला सुप्रीम कोर्ट का है इसलिए हम खुलकर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन यह फैसला बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है।
ऐसे रातों-रात लाखों लोगों के घर कैसे उजाड़े जा सकते हैं? इन लोगों के पुनर्वास का क्या होगा, इन्हें कहां बसाया जाएगा, इतनी जमीन कहां से आएगी जहां इनका पुनर्वास हो और पुनर्वास के लिए संसाधन और पैसा कौन जारी करेगा, ये सब बातें इतने कम समय में तय नहीं हो सकती।’
दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास का इतिहास देखें तो यह भी बेहद ख़राब रहा है। सलोनी सिंह मामले में फैसला देते हुए नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दर्ज किया है कि साल 2003-04 के दौरान रेलवे ने डूसिब को पुनर्वास के लिए 11.25 करोड़ रुपए दिए थे। लेकिन 4410 झुग्गियों में से सिर्फ़ 257 का ही पुनर्वास किया गया।
कीर्ति नगर में ही रेशमा कैंप नाम की एक झुग्गी बस्ती होती थी। साल 2002 के करीब इस बस्ती के लोगों को रोहिणी में बसाया गया और इस बस्ती को ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन आज उस जगह पर पहले से भी ज़्यादा झुग्गियां नजर आती हैं।
इसी झुग्गी में रहने वाले अजय चौधरी बताते हैं, ‘हम भी पहले रेशमा कैंप में ही रहते थे। लेकिन ह��ारे पास कागज पूरे नहीं थे इसलिए हमें पुनर्वास में शामिल नहीं किया गया और झुग्गियां तोड़ दी गई। हम जैसे कई लोग बेघर हो गए और कई महीनों तक फुटपाथ पर रहे। फिर दस हजार रुपए देकर दोबारा एक झुग्गी डाली। तब से यहीं रहते हैं।'
कीर्ति नगर में एशिया का सबसे बड़ा फर्नीचर मार्केट है। इस पूरे मार्केट की रीढ़ इसके इर्द-गिर्द बसी ये झुग्गी बस्तियां ही हैं। रेलवे लाइन के किनारे बनी इन्हीं छोटी-छोटी झुग्गियों में ये फर्नीचर तैयार होता है और झुग्गी के अधिकतर लोग इसी फर्नीचर मार्केट में कारीगर या लेबर का काम करते हैं।
कीर्ति नगर में एशिया का सबसे बड़ा फर्नीचर मार्केट है। यहां काम करने वाले राज मंगल विश्वकर्मा कहते हैं कि हम अपनी मेहनत से सारे अफसर, नेता और जज साहब का घर बसाते हैं लेकिन वो अपने फैसलों से हमारा ही घर उजाड़ देते हैं।
पिछले 22 साल से यहां फर्नीचर का काम कर रहे राज मंगल विश्वकर्मा कहते हैं, ‘हम जो फर्नीचर बनाते हैं वो पूरे देश में जाता है। दिल्ली के सभी सरकारी दफ्तरों से लेकर संसद और अदालतों तक में यहीं से बना फर्नीचर जाता है। ये सारे नेता, अफसर, जज सभी हमारे बनाए बेड पर सोते हैं और हमारी बनाई कुर्सियों पर बैठते हैं। हम तो अपनी मेहनत और कारीगरी से उनके घर बसाते हैं लेकिन वो अपने फैसलों से हमारे ही घर उजाड़ देते हैं। ‘
दिल्ली में झुग्गी वालों की संख्या इतनी ज्यादा है कि ये इन्हें दिल्ली का सबसे बड़ा वोट बैंक भी कहा जा सकता है। इसलिए इन पर राजनीति भी ख़ूब होती है। चुनावों से पहले जहां आम आदमी पार्टी ने बाकायदा अपने घोषणा पत्र में सभी झुग्गी वालों को पक्के मकान देने का वादा किया था वहीं भाजपा ने ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ जैसे जुमले दिए थे।
लेकिन चुनावों के बाद न तो आम आदमी पार्टी ने इनके लिए कुछ खास किया जिनकी दिल्ली में सरकार है और जिनके अ��तर्गत डूसिब जैसे विभाग आते हैं और न ही भाजपा ने कुछ खास किया जिसकी केंद्र में सरकार है और जिसके अंतर्गत रेलवे जैसे मंत्रालय हैं, जिनकी जमीनों पर सबसे ज्यादा झुग्गियां बसी हुई हैं।
कमला नेहरू कैम्प की झुग्गी में रहने वाली नीतू देवी हाथ में एक लिफाफा थामे हुए हमसे मिलती हैं। इस लिफाफे पर ऊपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी है और बड़े- बड़े अक्षरों में लिखा है ‘जहां झुग्गी वहीं मकान।' यह लिफाफा हमारी ओर बढ़ाते हुए नीतू देवी पूरी मासूमियत से कहती हैं, ‘ये देखिए। मोदी जी तो देश के प्रधानमंत्री हैं। वो ही वादा किए थे कि जहां हमारी झुग्गी है, वहीं मकान होगा। फिर क्यों झुग्गी तोड़ने की बात कही जा रही है? क्या सच में हमारी झुग्गी तोड़ दी जाएगी?’
नीतू देवी के इस सवाल पर सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट से जुड़े सुनील कुमार अलेडिया कहते हैं, ‘इन झुग्गियों को एक बार में ही तोड़ देना सरकार या अधिकारियों के लिए नामुमकिन नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हम लगातार देखते रहे हैं जब रातों-रात झुग्गियां गिराकर हजारों लोगों को एक झटके में बेघर किया गया। शालीमार बाघ का उदाहरण तो अभी ज़्यादा पुराना भी नहीं है। लेकिन कोरोना की महामारी के इस दौर में जब लोगों की आर्थिक स्थिति भी बेहद खराब है, अगर झुग्गी टूटती हैं तो ये लोग कहां जाएंगे और क्या खाएंगे?’
कमला नेहरू कैम्प की झुग्गी में रहने वाली नीतू देवी कहती हैं कि मोदी जी वादा किए थे कि जहां हमारी झुग्गी है, वहीं मकान होगा। फिर क्यों झुग्गी तोड़ने की बात कही जा रही है?
वैसे इस मामले में कुछ लोग पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की भी बात कर रहे हैं। अधिवक्ता कमलेश मिश्रा कहते हैं, ‘न्यायालय का ये फैसला तर्कसंगत नहीं है। इस मामले में झुग्गियों में रहने वाले उन लोगों का पक्ष तो सुना ही नहीं गया है जो इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होने जा रहे हैं। ये मामला रेलवे लाइन के आस-पास जमा होने वाले कचरे से संबंधित था।
सरकारी रिपोर्ट ही बताती है कि भारतीय रेलवे खुद सबसे ज्यादा कचरा पैदा करती है। लेकिन इस मामले में अपनी गर्दन बचाने के लिए रेलवे ने झुग्गी वालों पर बात डाल दी और कोर्ट ने झुग्गी वालों को सुने बिना ही हजारों झुग्गियां हटाने का आदेश दे दिया। हम लोग जल्द ही इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करेंगे।’
सम्भव है कि सुप्रीम कोर्ट इस पुनर्विचार याचिका का संज्ञान लेते हुए झुग्गियों को तोड़ने के आदेश पर फ़िलहाल रोक लगा दे या इसे कुछ समय के लिए टाल दे। लेकिन फिलहाल तो कोर्ट के आदेश के बाद झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
इसी झुग्गी में रहने वाले 26 साल के मिलन कुमार कहते हैं, ‘आज मुंबई में कंगना रनौत के घर का एक हिस्सा टूटा तो सारे देश में उसकी चर्चा है। सारा मीडिया वही खबर दिखा रहा है और कहा जा रहा है कि ये लोकतंत्र की हत्या है। इधर हम जैसे लाखों लोगों के घर उजड़ने को हैं और इस पर कहीं कोई चर्चा ही नहीं है। क्या हम लोग इस लोकतंत्र का हिस्सा ��हीं हैं?'
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Neetu, who lives here, says, 'Modi ji promised that where our slum is, there will be a house, then why are our slums breaking?
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