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#जीवाणुओंकीआक्रामकशक्ति
allgyan · 3 years
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वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए -
वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए -
वैक्सीन क्या है ?
वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए जानने से पहले हमे ये पहले जानना होगा की वैक्सीन क्या होती है और ये कैसे हमारे शरीर में काम करती है।सरल भाषा में समझे तो ये कह सकते है की ये एक टिका होती है जो जीवों के शरीर का उपयोग करके बनाया गया द्रव्य है जिसके प्रयोग से शरीर में किसी रोग विशेष से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। शरीर की विभिन्न रक्षापंक्तियों को भेदकर परजीवी रोगकारी जीवाणु अथवा विषाणु शरीर में प्रवेश कर पनपते हैं और जीवविष (toxin) उत्पन्न कर अपने परपोषी के शरीर में रोग उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। इनके फलस्वरूप शरीर की कोशिकाएँ भी जीवविष तथा उसके उत्पादक सूक्ष्म कीटाणुओं की आक्रामक प्रगति के विरोध में स्वाभाविक प्रतिक्रिया द्वारा प्रतिजीवविष (antitoxin), प्रतिरक्षी (antibody) अथवा प्रतिरक्षित पिंड (immune tody) उत्पन्न करती हैं।
कीटाणुओं के जीवविषनाशक प्रतिरक्षी के विकास में कई दिन लग जाते हैं। यदि रोग से तुरंत मृत्यु नहीं होती और प्रतिरक्षी के निर्माण के लिए यथेष्ट अवसर मिल जाता है, तो रोगकारी जीवाणुओंकी आक्रामक शक्ति का ह्रास होने लगता है और रोग शमन होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। जिस जीवाणु के प्रतिरोध के लिए प्रतिरक्ष उत्पन्न होते हैं वे उसी जीवाणु पर अपना घातक प्रभाव डालते हैं। आंत्र ज्वर (typhoid fever) के जीवाणु के प्रतिरोधी प्रतिरक्षी प्रवाहिका (dysentery) अथवा विषूचिका (cholera) के जीवाणुओं के लिए घातक न होक केल आंत्र ज्वर के जीवाणु को नष्ट करने में समर्थ होते हैं। प्रतिरक्षी केवल अपने उत्पादक प्रतिजन (antigen) के लिए ही घातक होने के कारण जाति विशेष के कहलाते हैं।
टिका या वैक्सीन लगाने का अभिप्राय क्या है -
एक वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है। वैक्सीन में किसी जीव के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं। प्राकृतिक रूप से तो प्रतिरक्षी रोगाक्रमण की प्रतिक्रिया के कारण बनते हैं, परंतु टीके द्वारा एक प्रकार का शीतयुद्ध छेड़कर शरीर में प्रतिरक्षी का निर्माण कराया जाता है। रोग उत्पन्न करने में असमर्थ मृत जीवाणुओं का शरीर में प्रवेश होते ही प्रतिरक्षियों का उत्पादन होने लगता है।मृत जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं की आक्रामक शक्ति का निर्बल कर उन्हें पहले निस्तेज कर दिया जाता है जिससे उनमें रोगकारी क्षमता तो नहीं रहती, किंतु प्रतिरक्षी बनाने की शक्ति बनी रहती है।वैक्सीन लगने का नकारात्मक असर कम ही लोगों पर होता है, लेकिन कुछ लोगों को इसके साइड इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ सकता है।हल्का बुख़ार या ख़ारिश होना, इससे सामान्य दुष्प्रभाव हैं
वैक्सीन की खोज कब और कहा हुई ?
वैक्सीन का एक प्रारंभिक रूप चीन के वैज्ञानिकों ने 10वीं शताब्दी में खोज लिया था।लेकिन 1796 में एडवर्ड जेनर ने पाया कि चेचक के हल्के संक्रमण की एक डोज़ चेचक के गंभीर संक्रमण से सुरक्षा दे रही है। चेचक (smallpox) के विषाणु को वैरियोला (Variola) कहते हैं। विषाणु के लिए इस टिके का उपयोग प्राचीन काल से होता आया है। यह विषाणु चेचक उत्पन्न कर सकता है, इस कारण निर्दोष नहीं है। अत: गत 150 वर्षों से वैरियोला के स्थान पर गोमसूरी (cowpox) के वैक्सीनिया (Vaccnia) नामक विषाणु का उपयोग किया जा रहा है। वैरियोला का उपयोग सभी देशों में वर्जित है। गोमसूरी का वैक्सीनिया नामक विषाणु मनुष्य में चेचक रोग उत्पन्न नहीं कर पाता परंतु उसे प्रतिरक्षी चेचक निरोधक होते हैं। गोमसूरी के विषाणु बछड़े, पड़वे या भेड़ की त्वचा में संवर्धन करते हैं। त्वचा का जल और साबुन से धो पोंछकर उसमें हलका सा खरोंच कर दिया जाता है जिसपर वैक्सीनिया का विलयन रगड़ दिया जाता है।
लगभग 120 घंटे में पशु की त्वचा पर मसूरिका (pox) के दाने उठ आते हैं। अधिकतर दाने पिटका के रूप में होते हैं जिनमें से कुछ जल अथवा पूययुक्त होते हैं जिन्हें क्रमश: जलस्फोटिका और पूयस्फोटिका कहते हैं। इन दानों को खरोंचकर खुरचन एकत्र कर लेते हैं। खरोंचने का कार्य हलके हलके किया जाता है जिससे केवल त्वचा की खुरचन ही प्राप्त हो, उसके साथ रुधिर न आ पाए। इस खुरचन को ग्लिसरीन के विलयन के साथ यंत्रों द्वारा पीस लेते हैं।उन्होंने इस पर और अध्ययन किया. उन्होंने अपने इस सिद्धांत का परीक्षण भी किया और उनके निष्कर्षों को दो साल बाद प्रकाशित किया गया। तभी 'वैक्सीन' शब्द की उत्पत्ति हुई।वैक्सीन को लैटिन भाषा के 'Vacca' से गढ़ा गया जिसका अर्थ गाय होता है। वैक्सीन को आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धियों में से एक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वैक्सीन की वजह से हर साल क़रीब बीस से तीस लाख लोगों की जान बच पाती है।
वैक्सीन आम इंसानो तक पहुंचने तक कहा -कहा से गुज़रना पड़ता है -
बाज़ार में लाये जाने से पहले वैक्सीन की गंभीरता से जाँच की जाती है. पहले प्रयोगशालाओं में और फिर जानवरों पर इनका परीक्षण किया जाता है।उसके बाद ही मनुष्यों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है।अधिकांश देशों में स्थानीय दवा नियामकों से अनुमति मिलने के बाद ही लोगों को वैक्सीन लगाई जाती हैं। कोरोना की वैक्सीन कैसे बनी पूरी प्रक्रिया बताते है। सबसे पहले वैज्ञानिक मास्टर सेल बैंक से डीएनए की एक शीशी निकालता है. हर कोविड-19 वैक्सीन में यह डीएनए होता है।इन शीशियों को माइनस 150 डिग्री से भी कम तापमान पर सुरक्षित रखा जाता है और इसमें प्लाजमिड्स (Plasmids) नाम के डीएनए की छोटी रिंग होती है हर प्लाजमिड में कोरोनावायरस का जीन होता है।  इसमें एक तरह से कोरोनावायरस प्रोटीन बनाने को इंसानी सेल के लिए निर्देश होते हैं। इसके बाद वैज्ञानिक प्लाजमिड को पिघलाकर और ई कोली बैक्टीरिया को संशोधित कर उसमें प्लाजमिड को डाला जाता है।इस एक शीशी से 5 करोड़ वैक्सीन तैयार की जा सकती है।
संशोधित बैक्टीरिया को फ्लास्क में रखकर घुमाया जाता है और फिर से उसे गर्म वातावरण में रखा जाता है ताकि बैक्टीरिया मल्टीप्लाई हो सकें।पूरी रात बैक्टीरिया को बढ़ने देने के बाद उन्हें एक बड़े से फरमेंटर में डाला जाता है। इसमें 300 लीटर तक पोषक तरल पदार्थ होता है। चार दिन तक इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।ये बैक्टीरिया हर 20 मिनट में मल्टीप्लाई होते हैं। इस प्रक्रिया में अरबों प्लाजमिड डीएनए बन जाते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक खबर के अनुसार फरमेशन पूरा होने के बाद वैज्ञानिक केमिकल मिलाकर बैक्टीरिया को अलग करते हैं। इसके बाद प्लाजमिड को सेल्स से अलग किया जाता है. इसके बाद मिश्रण को छाना जाता है और बैक्टीरिया को हटा दिया जाता है. इसके बाद सिर्फ प्लाजमिड्स बचते हैं।फिर इनकी शुद्धता की जांच होती है और पिछले सैंपल से तुलना कर यह देखा जाता है कि कहीं इसके जीन सिक्वेंस में कोई बदलाव तो नहीं आ गया।प्लाजमिड की शुद्धता की जांच के बाद एनजाइम (Enzymes) नाम के प्रोटीन को इसमें मिलाया जाता है।  यह प्लाजमिड को काटकर कोरोनावायरस जीन को अलग कर देता है।इस प्रक्रिया में दो दिन लग जाते हैं।
बचे हुए बैक्टीरिया या प्लासमिड को अच्छे से फिल्टर कर लिया जाता है, जिससे एक लीटर बोतल शुद्ध डीएनए मिलता है।DNA के क्रम को फिर से जांचा जाता है और इसे एक टेम्पलेट के तौर पर अगली प्रक्रिया के लिए रखा जाता है। एक बोतल डीएनए से 15 लाख वैक्सीन तैयार होती हैं।डीएनए की प्रत्येक बोतल को फ्रीज और सील कर दिया जाता है। इसके बाद एक छोटे मॉनिटर के साथ इसे बॉक्स में बंद कर दिया जाता है. यह मॉनिटर रास्ते में इसका तापमान रिकॉर्ड करता है।एक कंटेटेनर में 48 बैग रखे जाते हैं और ढेर सारी ड्राई आइस से ढक दिया जाता है ताकि इसका तापमान माइनस 20 डिग्री तक बना रहे। इसलिए हम लोगों तक एक शीशी की वैक्सीन भी पहुंचने के पीछे वैज्ञानिकों की अथक प्रयास और बहुत सारी मेहनत लगती है। अगर आपको हमारे आर्टिकल पसंद आ रहे है तो हमे प्यार दे।
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allgyan · 3 years
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वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए -
वैक्सीन क्या है ?
वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए जानने से पहले हमे ये पहले जानना होगा की वैक्सीन क्या होती है और ये कैसे हमारे शरीर में काम करती है।सरल भाषा में समझे तो ये कह सकते है की ये एक टिका होती है जो जीवों के शरीर का उपयोग करके बनाया गया द्रव्य है जिसके प्रयोग से शरीर में किसी रोग विशेष से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। शरीर की विभिन्न रक्षापंक्तियों को भेदकर परजीवी रोगकारी जीवाणु अथवा विषाणु शरीर में प्रवेश कर पनपते हैं और जीवविष (toxin) उत्पन्न कर अपने परपोषी के शरीर में रोग उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। इनके फलस्वरूप शरीर की कोशिकाएँ भी जीवविष तथा उसके उत्पादक सूक्ष्म कीटाणुओं की आक्रामक प्रगति के विरोध में स्वाभाविक प्रतिक्रिया द्वारा प्रतिजीवविष (antitoxin), प्रतिरक्षी (antibody) अथवा प्रतिरक्षित पिंड (immune tody) उत्पन्न करती हैं।
कीटाणुओं के जीवविषनाशक प्रतिरक्षी के विकास में कई दिन लग जाते हैं। यदि रोग से तुरंत मृत्यु नहीं होती और प्रतिरक्षी के निर्माण के लिए यथेष्ट अवसर मिल जाता है, तो रोगकारी जीवाणुओंकी आक्रामक शक्ति का ह्रास होने लगता है और रोग शमन होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। जिस जीवाणु के प्रतिरोध के लिए प्रतिरक्ष उत्पन्न होते हैं वे उसी जीवाणु पर अपना घातक प्रभाव डालते हैं। आंत्र ज्वर (typhoid fever) के जीवाणु के प्रतिरोधी प्रतिरक्षी प्रवाहिका (dysentery) अथवा विषूचिका (cholera) के जीवाणुओं के लिए घातक न होक केल आंत्र ज्वर के जीवाणु को नष्ट करने में समर्थ होते हैं। प्रतिरक्षी केवल अपने उत्पादक प्रतिजन (antigen) के लिए ही घातक होने के कारण जाति विशेष के कहलाते हैं।
टिका या वैक्सीन लगाने का अभिप्राय क्या है -
एक वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है। वैक्सीन में किसी जीव के कुछ कमज़ोर या न���ष्क्रिय अंश होते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं। प्राकृतिक रूप से तो प्रतिरक्षी रोगाक्रमण की प्रतिक्रिया के कारण बनते हैं, परंतु टीके द्वारा एक प्रकार का शीतयुद्ध छेड़कर शरीर में प्रतिरक्षी का निर्माण कराया जाता है। रोग उत्पन्न करने में असमर्थ मृत जीवाणुओं का शरीर में प्रवेश होते ही प्रतिरक्षियों का उत्पादन होने लगता है।मृत जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं की आक्रामक शक्ति का निर्बल कर उन्हें पहले निस्तेज कर दिया जाता है जिससे उनमें रोगकारी क्षमता तो नहीं रहती, किंतु प्रतिरक्षी बनाने की शक्ति बनी रहती है।वैक्सीन लगने का नकारात्मक असर कम ही लोगों पर होता है, लेकिन कुछ लोगों को इसके साइड इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ सकता है।हल्का बुख़ार या ख़ारिश होना, इससे सामान्य दुष्प्रभाव हैं
वैक्सीन की खोज कब और कहा हुई ?
वैक्सीन का एक प्रारंभिक रूप चीन के वैज्ञानिकों ने 10वीं शताब्दी में खोज लिया था।लेकिन 1796 में एडवर्ड जेनर ने पाया कि चेचक के हल्के संक्रमण की एक डोज़ चेचक के गंभीर संक्रमण से सुरक्षा दे रही है। चेचक (smallpox) के विषाणु को वैरियोला (Variola) कहते हैं। विषाणु के लिए इस टिके का उपयोग प्राचीन काल से होता आया है। यह विषाणु चेचक उत्पन्न कर सकता है, इस कारण निर्दोष नहीं है। अत: गत 150 वर्षों से वैरियोला के स्थान पर गोमसूरी (cowpox) के वैक्सीनिया (Vaccnia) नामक विषाणु का उपयोग किया जा रहा है। वैरियोला का उपयोग सभी देशों में वर्जित है। गोमसूरी का वैक्सीनिया नामक विषाणु मनुष्य में चेचक रोग उत्पन्न नहीं कर पाता परंतु उसे प्रतिरक्षी चेचक निरोधक होते हैं। गोमसूरी के विषाणु बछड़े, पड़वे या भेड़ की त्वचा में संवर्धन करते हैं। त्वचा का जल और साबुन से धो पोंछकर उसमें हलका सा खरोंच कर दिया जाता है जिसपर वैक्सीनिया का विलयन रगड़ दिया जाता है।
लगभग 120 घंटे में पशु की त्वचा पर मसूरिका (pox) के दाने उठ आते हैं। अधिकतर दाने पिटका के रूप में होते हैं जिनमें से कुछ जल अथवा पूययुक्त होते हैं जिन्हें क्रमश: जलस्फोटिका और पूयस्फोटिका कहते हैं। इन दानों को खरोंचकर खुरचन एकत्र कर लेते हैं। खरोंचने का कार्य हलके हलके किया जाता है जिससे केवल त्वचा की खुरचन ही प्राप्त हो, उसके साथ रुधिर न आ पाए। इस खुरचन को ग्लिसरीन के विलयन के साथ यंत्रों द्वारा पीस लेते हैं।उन्होंने इस पर और अध्ययन किया. उन्होंने अपने इस सिद्धांत का परीक्षण भी किया और उनके निष्कर्षों को दो साल बाद प्रकाशित किया गया। तभी 'वैक्सीन' शब्द की उत्पत्ति हुई।वैक्सीन को लैटिन भाषा के 'Vacca' से गढ़ा गया जिसका अर्थ गाय होता है। वैक्सीन को आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धियों में से एक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वैक्सीन की वजह से हर साल क़रीब बीस से तीस लाख लोगों की जान बच पाती है।
वैक्सीन आम इंसानो तक पहुंचने तक कहा -कहा से गुज़रना पड़ता है -
बाज़ार में लाये जाने से पहले वैक्सीन की गंभीरता से जाँच की जाती है. पहले प्रयोगशालाओं में और फिर जानवरों पर इनका परीक्षण किया जाता है।उसके बाद ही मनुष्यों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है।अधिकांश देशों में स्थानीय दवा नियामकों से अनुमति मिलने के बाद ही लोगों को वैक्सीन लगाई जाती हैं। कोरोना की वैक्सीन कैसे बनी पूरी प्रक्रिया बताते है। सबसे पहले वैज्ञानिक मास्टर सेल बैंक से डीएनए की एक शीशी निकालता है. हर कोविड-19 वैक्सीन में यह डीएनए होता है।इन शीशियों को माइनस 150 डिग्री से भी कम तापमान पर सुरक्षित रखा जाता है और इसमें प्लाजमिड्स (Plasmids) नाम के डीएनए की छोटी रिंग होती है हर प्लाजमिड में कोरोनावायरस का जीन होता है।  इसमें एक तरह से कोरोनावायरस प्रोटीन बनाने को इंसानी सेल के लिए निर्देश होते हैं। इसके बाद वैज्ञानिक प्लाजमिड को पिघलाकर और ई कोली बैक्टीरिया को संशोधित कर उसमें प्लाजमिड को डाला जाता है।इस एक शीशी से 5 करोड़ वैक्सीन तैयार की जा सकती है।
संशोधित बैक्टीरिया को फ्लास्क में रखकर घुमाया जाता है और फिर से उसे गर्म वातावरण में रखा जाता है ताकि बैक्टीरिया मल्टीप्लाई हो सकें।पूरी रात बैक्टीरिया को बढ़ने देने के बाद उन्हें एक बड़े से फरमेंटर में डाला जाता है। इसमें 300 लीटर तक पोषक तरल पदार्थ होता है। चार दिन तक इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।ये बैक्टीरिया हर 20 मिनट में मल्टीप्लाई होते हैं। इस प्रक्रिया में अरबों प्लाजमिड डीएनए बन जाते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक खबर के अनुसार फरमेशन पूरा होने के बाद वैज्ञानिक केमिकल मिलाकर बैक्टीरिया को अलग करते हैं। इसके बाद प्लाजमिड को सेल्स से अलग किया जाता है. इसके बाद मिश्रण को छाना जाता है और बैक्टीरिया को हटा दिया जाता है. इसके बाद सिर्फ प्लाजमिड्स बचते हैं।फिर इनकी शुद्धता की जांच होती है और पिछले सैंपल से तुलना कर यह देखा जाता है कि कहीं इसके जीन सिक्वेंस में कोई बदलाव तो नहीं आ गया।प्लाजमिड की शुद्धता की जांच के बाद एनजाइम (Enzymes) नाम के प्रोटीन को इसमें मिलाया जाता है।  यह प्लाजमिड को काटकर कोरोनावायरस जीन को अलग कर देता है।इस प्रक्रिया में दो दिन लग जाते हैं।
बचे हुए बैक्टीरिया या प्लासमिड को अच्छे से फिल्टर कर लिया जाता है, जिससे एक लीटर बोतल शुद्ध डीएनए मिलता है।DNA के क्रम को फिर से जांचा जाता है और इसे एक टेम्पलेट के तौर पर अगली प्रक्रिया के लिए रखा जाता है। एक बोतल डीएनए से 15 लाख वैक्सीन तैयार होती हैं।डीएनए की प्रत्येक बोतल को फ्रीज और सील कर दिया जाता है। इसके बाद एक छोटे मॉनिटर के साथ इसे बॉक्स में बंद कर दिया जाता है. यह मॉनिटर रास्ते में इसका तापमान रिकॉर्ड करता है।एक कंटेटेनर में 48 बैग रखे जाते हैं और ढेर सारी ड्राई आइस से ढक दिया जाता है ताकि इसका तापमान माइनस 20 डिग्री तक बना रहे। इसलिए हम लोगों तक एक शीशी की वैक्सीन भी पहुंचने के पीछे वैज्ञानिकों की अथक प्रयास और बहुत सारी मेहनत लगती है। अगर आपको हमारे आर्टिकल पसंद आ रहे है तो हमे प्यार दे।
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वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए -
वैक्सीन क्या है ?
वैक्सीन कैसे हमारे तक आती है प्रयोग के लिए जानने से पहले हमे ये पहले जानना होगा की वैक्सीन क्या होती है और ये कैसे हमारे शरीर में काम करती है।सरल भाषा में समझे तो ये कह सकते है की ये एक टिका होती है जो जीवों के शरीर का उपयोग करके बनाया गया द्रव्य है जिसके प्रयोग से शरीर में किसी रोग विशेष से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। शरीर की विभिन्न रक्षापंक्तियों को भेदकर परजीवी रोगकारी जीवाणु अथवा विषाणु शरीर में प्रवेश कर पनपते हैं और जीवविष (toxin) उत्पन्न कर अपने परपोषी के शरीर में रोग उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। इनके फलस्वरूप शरीर की कोशिकाएँ भी जीवविष तथा उसके उत्पादक सूक्ष्म कीटाणुओं की आक्रामक प्रगति के विरोध में स्वाभाविक प्रतिक्रिया द्वारा प्रतिजीवविष (antitoxin), प्रतिरक्षी (antibody) अथवा प्रतिरक्षित पिंड (immune tody) उत्पन्न करती हैं।
कीटाणुओं के जीवविषनाशक प्रतिरक्षी के विकास में कई दिन लग जाते हैं। यदि रोग से तुरंत मृत्यु नहीं होती और प्रतिरक्षी के निर्माण के लिए यथेष्ट अवसर मिल जाता है, तो रोगकारी जीवाणुओंकी आक्रामक शक्ति का ह्रास होने लगता है और रोग शमन होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। जिस जीवाणु के प्रतिरोध के लिए प्रतिरक्ष उत्पन्न होते हैं वे उसी जीवाणु पर अपना घातक प्रभाव डालते हैं। आंत्र ज्वर (typhoid fever) के जीवाणु के प्रतिरोधी प्रतिरक्षी प्रवाहिका (dysentery) अथवा विषूचिका (cholera) के जीवाणुओं के लिए घातक न होक केल आंत्र ज्वर के जीवाणु को नष्ट करने में समर्थ होते हैं। प्रतिरक्षी केवल अपने उत्पादक प्रतिजन (antigen) के लिए ही घातक होने के कारण जाति विशेष के कहलाते हैं।
टिका या वैक्सीन लगाने का अभिप्राय क्या है -
एक वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है। वैक्सीन में किसी जीव के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं। प्राकृतिक रूप से तो प्रतिरक्षी रोगाक्रमण की प्रतिक्रिया के कारण बनते हैं, परंतु टीके द्वारा एक प्रकार का शीतयुद्ध छेड़कर शरीर में प्रतिरक्षी का निर्माण कराया जाता है। रोग उत्पन्न करने में असमर्थ मृत जीवाणुओं का शरीर में प्रवेश होते ही प्रतिरक्षियों का उत्पादन होने लगता है।मृत जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं का उपयोग आवश्यक होता है। ऐसी अवस्था में जीवित जीवाणुओं की आक्रामक शक्ति का निर्बल कर उन्हें पहले निस्तेज कर दिया जाता है जिससे उनमें रोगकारी क्षमता तो नहीं रहती, किंतु प्रतिरक्षी बनाने की शक्ति बनी रहती है।वैक्सीन लगने का नकारात्मक असर कम ही लोगों पर होता है, लेकिन कुछ लोगों को इसके साइड इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ सकता है।हल्का बुख़ार या ख़ारिश होना, इससे सामान्य दुष्प्रभाव हैं
वैक्सीन की खोज कब और कहा हुई ?
वैक्सीन का एक प्रारंभिक रूप चीन के वैज्ञानिकों ने 10वीं शताब्दी में खोज लिया था।लेकिन 1796 में एडवर्ड जेनर ने पाया कि चेचक के हल्के संक्रमण की एक डोज़ चेचक के गंभीर संक्रमण से सुरक्षा दे रही है। चेचक (smallpox) के विषाणु को वैरियोला (Variola) कहते हैं। विषाणु के लिए इस टिके का उपयोग प्राचीन काल से होता आया है। यह विषाणु चेचक उत्पन्न कर सकता है, इस कारण निर्दोष नहीं है। अत: गत 150 वर्षों से वैरियोला के स्थान पर गोमसूरी (cowpox) के वैक्सीनिया (Vaccnia) नामक विषाणु का उपयोग किया जा रहा है। वैरियोला का उपयोग सभी देशों में वर्जित है। गोमसूरी का वैक्सीनिया नामक विषाणु मनुष्य में चेचक रोग उत्पन्न नहीं कर पाता परंतु उसे प्रतिरक्षी चेचक निरोधक होते हैं। गोमसूरी के विषाणु बछड़े, पड़वे या भेड़ की त्वचा में संवर्धन करते हैं। त्वचा का जल और साबुन से धो पोंछकर उसमें हलका सा खरोंच कर दिया जाता है जिसपर वैक्सीनिया का विलयन रगड़ दिया जाता है।
लगभग 120 घंटे में पशु की त्वचा पर मसूरिका (pox) के दाने उठ आते हैं। अधिकतर दाने पिटका के रूप में होते हैं जिनमें से कुछ जल अथवा पूययुक्त होते हैं जिन्हें क्रमश: जलस्फोटिका और पूयस्फोटिका कहते हैं। इन दानों को खरोंचकर खुरचन एकत्र कर लेते हैं। खरोंचने का कार्य हलके हलके किया जाता है जिससे केवल त्वचा की खुरचन ही प्राप्त हो, उसके साथ रुधिर न आ पाए। इस खुरचन को ग्लिसरीन के विलयन के साथ यंत्रों द्वारा पीस लेते हैं।उन्होंने इस पर और अध्ययन किया. उन्होंने अपने इस सिद्धांत का परीक्षण भी किया और उनके निष्कर्षों को दो साल बाद प्रकाशित किया गया। तभी 'वैक्सीन' शब्द की उत्पत्ति हुई।वैक्सीन को लैटिन भाषा के 'Vacca' से गढ़ा गया जिसका अर्थ गाय होता है। वैक्सीन को आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धियों में से एक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वैक्सीन की वजह से हर साल क़रीब बीस से तीस लाख लोगों की जान बच पाती है।
वैक्सीन आम इंसानो तक पहुंचने तक कहा -कहा से गुज़रना पड़ता है -
बाज़ार में लाये जाने से पहले वैक्सीन की गंभीरता से जाँच की जाती है. पहले प्रयोगशालाओं में और फिर जानवरों पर इनका परीक्षण किया जाता है।उसके बाद ही मनुष्यों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है।अधिकांश देशों में स्थानीय दवा नियामकों से अनुमति मिलने के बाद ही लोगों को वैक्सीन लगाई जाती हैं। कोरोना की वैक्सीन कैसे बनी पूरी प्रक्रिया बताते है। सबसे पहले वैज्ञानिक मास्टर सेल बैंक से डीएनए की एक शीशी निकालता है. हर कोविड-19 वैक्सीन में यह डीएनए होता है।इन शीशियों को माइनस 150 डिग्री से भी कम तापमान पर सुरक्षित रखा जाता है और इसमें प्लाजमिड्स (Plasmids) नाम के डीएनए की छोटी रिंग होती है हर प्लाजमिड में कोरोनावायरस का जीन होता है।  इसमें एक तरह से कोरोनावायरस प्रोटीन बनाने को इंसानी सेल के लिए निर्देश होते हैं। इसके बाद वैज्ञानिक प्लाजमिड को पिघलाकर और ई कोली बैक्टीरिया को संशोधित कर उसमें प्लाजमिड को डाला जाता है।इस एक शीशी से 5 करोड़ वैक्सीन तैयार की जा सकती है।
संशोधित बैक्टीरिया को फ्लास्क में रखकर घुमाया जाता है और फिर से उसे गर्म वातावरण में रखा जाता है ताकि बैक्टीरिया मल्टीप्लाई हो सकें।पूरी रात बैक्टीरिया को बढ़ने देने के बाद उन्हें एक बड़े से फरमेंटर में डाला जाता है। इसमें 300 लीटर तक पोषक तरल पदार्थ होता है। चार दिन तक इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।ये बैक्टीरिया हर 20 मिनट में मल्टीप्लाई होते हैं। इस प्रक्रिया में अरबों प्लाजमिड डीएनए बन जाते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक खबर के अनुसार फरमेशन पूरा होने के बाद वैज्ञानिक केमिकल मिलाकर बैक्टीरिया को अलग करते हैं। इसके बाद प्लाजमिड को सेल्स से अलग किया जाता है. इसके बाद मिश्रण को छाना जाता है और बैक्टीरिया को हटा दिया जाता है. इसके बाद सिर्फ प्लाजमिड्स बचते हैं।फिर इनकी शुद्धता की जांच होती है और पिछले सैंपल से तुलना कर यह देखा जाता है कि कहीं इसके जीन सिक्वेंस में कोई बदलाव तो नहीं आ गया।प्लाजमिड की शुद्धता की जांच के बाद एनजाइम (Enzymes) नाम के प्रोटीन को इसमें मिलाया जाता है।  यह प्लाजमिड को काटकर कोरोनावायरस जीन को अलग कर देता है।इस प्रक्रिया में दो दिन लग जाते हैं।
बचे हुए बैक्टीरिया या प्लासमिड को अच्छे से फिल्टर कर लिया जाता है, जिससे एक लीटर बोतल शुद्ध डीएनए मिलता है।DNA के क्रम को फिर से जांचा जाता है और इसे एक टेम्पलेट के तौर पर अगली प्रक्रिया के लिए रखा जाता है। एक बोतल डीएनए से 15 लाख वैक्सीन तैयार होती हैं।डीएनए की प्रत्येक बोतल को फ्रीज और सील कर दिया जाता है। इसके बाद एक छोटे मॉनिटर के साथ इसे बॉक्स में बंद कर दिया जाता है. यह मॉनिटर रास्ते में इसका तापमान रिकॉर्ड करता है।एक कंटेटेनर में 48 बैग रखे जाते हैं और ढेर सारी ड्राई आइस से ढक दिया जाता है ताकि इसका तापमान माइनस 20 डिग्री तक बना रहे। इसलिए हम लोगों तक एक शीशी की वैक्सीन भी पहुंचने के पीछे वैज्ञानिकों की अथक प्रयास और बहुत सारी मेहनत लगती है। अगर आपको हमारे आर्टिकल पसंद आ रहे है तो हमे प्यार दे।
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