#क्या यह भी राष्ट्रद्रोह है?
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गुजराती लेखकों के विरोधी स्वरों की गूँज
गुजरात साहित्य अकादमी एक सरकारी संस्था है और गुजराती साहित्य परिषद गुजराती साहित्य के विकास और उन्नति के लिए सही अर्थों में साहित्य परिषद है, जिसकी स्थापना रणजीत राय मेहता (25.10.1881 - 04.06.1917) ने गुजराती समाज के सभी वर्गों के ��िए साहित्य सृजन और जन जन में साहित्य भावना उत्पन्न करने के लिए 1905 में की थी। अहमदाबाद के आश्रम मार्ग पर यह परिषद स्थित है। 1936 में महात्मा गांधी इस साहित्य परिषद के अध्यक्ष थे। कन्हैया लाल मुंशी 1955 में इसके अध्यक्ष बने थे। गुजराती साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष गोवर्धन राम माधवराव त्रिपाठी थे। परिषद का भवन ‘गोवर्धन भवन’ है। परिषद की अध्यक्ष नाम सूची से यह ज्ञात होगा कि यहां कितने बड़े और महत्वपूर्ण लेखक रहे हैं। बकुल त्रिपाठी, नारायण देसाई, भोला भाई पटेल, धीरू पारीक जैसे लेखक परिषद के अध्यक्ष थे। वर्तमान में 80 वर्षीय प्रकाश एन शाह परिषद के अध्यक्ष हैं। लेखक, पत्रकार, सम्पादक प्रकाश एन शाह के पहले प्रसिद्ध गुजराती कवि सीतांशु यशश्चन्द्र परिषद के अध्यक्ष थे। प्रकाश एन शाह का चयन 562 वोटों से हुआ था और दूसरे स्थान पर हर्षद त्रिवेदी थे, जिन्हें 533 वोट प्राप्त हुए थे। ‘निरीक्षक’ गुजराती साहित्य परिषद का पाक्षिक पत्र है। इसके सम्पादकीय में अभी प्रकाश एन शाह ने प्रसिद्ध डेनिस लेखक एच सी एण्डरसन (02.04.1805 – 04.08.1875) की प्रसिद्ध कहानी ‘ द एम्परर्स न्यू क्लास’ की समानता ‘नंगा राजा’ से की है। पारुल खक्कर ने ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता में ‘मेरा साहब नंगा’ लिखा है। एण्डरसन की कहानी 7 अप्रैल 1837 को ‘द लिटिल मरमेड’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी, जो दूसरे शीर्षक से इनके पहले संग्रह ‘फेयरी टेल्स टोल्ड फॉर चिल्ड्रन’ में है। इस कहानी का 100 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। ‘निरीक्षक’ पत्रिका के 16 जून 2021 के अंक में पारुल खक्कर की एक नयी कविता 'तारे बोलावन नहीं' (आपको बोलना नहीं चाहिए) प्रकाशित है। यह कविता इनकी पूर्व कविता ‘शव वाहिनी गंगा’ के विरोधी स्वरों के कारण लिखी गयी है। इस कविता का विरोध गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और वहां से प्रकाशित पत्रिका ‘शब्द सृष्टि’ के सम्पादक विष्णु पण्ड्या ने किया था। पण्ड्या ने अपने सम्पादकीय में कविता और कवयित्री का नामोल्लेख न कर ‘एक गुजराती कविता’ की बात कही थी और यह लिखा था कि कविता खराब है, यद्यपि कवि अच्छा है। गुजराती साहित्य परिषद की पत्रिका ‘निरीक्षक’ के ताजे अंक (16 जून) के लेखकों में से लगभग आधे (आठ) गुजरात साहित्य अकादमी के विरोध में है। इस प्रकार गुजरात साहित्य अकादमी और गुजराती साहित्य परिषद एवं दोनों संस्थाओं ��े अध्यक्ष के विचार एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । सलिल त्रिपाठी, रमेश सवानी, मनीषी जानी, योगेश जोशी, रवीना दादरी और अन्य कई लेखक पारुल के समर्थन में आ गये हैं। आरम्भ में गुजराती लेखकों के बीच शांति और चुप्पी सी थी, वह अब पूर्णतः समाप्त हो गयी है। गुजरात के बाहर इस घटनाक्रम को लाने में अँग्रेजी के दो समाचार पत्रों ‘द टेलीग्राफ’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की बड़ी भूमिका रही है। 19 जून (शनिवार) के टेलीग्राफ के पहले पृष्ठ की ‘लीड स्टोरी’ मेहुल देवकला की है – ‘हाउ टू आर्डर गंगा स्नान ऑफ पोएट्री’। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार (18 जून, ऋतु शर्मा, लिटरेचियर्श डिमाण्ड विथ्ड्रावल ऑफ गुजरात साहित्य अकादेमी एडिटोरियल ) गुजरात के 169 सुप्रसिद्ध साहित्यिक हस्तियों ने सम्पादक और सरकार से सम्पादकीय वापस लेने की मांग की है। यह भी पढ़ें - चित्रा मुद्गल और पारुल खक्कर बड़ी बात यह है कि इसमें केवल कवि, लेखक और साहित्यकार ही नहीं है। 84 वर्षीय अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार, लेखक, कला-समालोचक पदम भूषण से सम्मानित गुलाम मोहम्मद शेख, 68 वर्षीय सुप्रसिद्ध नृत्यांगना मल्लिका साराभाई (अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की पुत्री, पदम भूषण से सम्मानित), 82 वर्षीय सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री घनश्याम शाह, जो यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री इन्दिरा हीखे (सेन्टर फॉर डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स, अहमदाबाद में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर और निदेशक) और अन्तर्राष्ट्रीय गोल्डन फॉक्स अवार्ड 2020 से सम्मानित एवं ‘कौन से बाबू’ फिल्म के निर्देशक मेहुल देवकला भी हैं। इन सभी 169 व्यक्तियों के नाम और काम से हिन्दी संसार बहुत कम परिचित है। एक्टिविस्ट निर्झरी सिन्हा (प्रावदा मीडिया फाउण्डेशन की डायरेक्टर) भी हस्ताक्षर कर्ताओं में हैं , जिनके पति मुकुल सिन्हा ने ‘जन संघर्ष मंच’ का (स्वतंत्र नागरिक अधिकार संगठन) गठन किया था। भरत मेहता, अदिति देसाई, अनिल जोशी, इला जोशी, इलियास शेख, मीनाक्षी जोशी, प्रकाश एन शाह, सुधीर चंद्र, विजय मेहता आदि का नाम-यश बड़ा है। पारुल खक्कर की कविता के समर्थन में इतिहासकार, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, फिल्मकार, चित्रकार, सक्रियतावादी सब एक साथ हैं और सब ने मिलकर उस सम्पादकीय पर एक साथ प्रबल स्वरों में विरोध प्रकट किया है, जिसमें कविता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला किया गया था। यह भी पढ़ें- और अब लिटरेरी नक्सल गुजरात के लेखकों, बौद्धिकों, विविध क्षेत्रों में कार्यरत, विविध अनुशासनों के प्रमुख प्रतिष्ठित व्यक्तियों के एक बड़े समूह ने विष्णु पण्ड्या के सम्पादकीय के विरोध में एक वक्तव्य जारी किया है। इस वक्तव्य में सम्पादकीय की भर्त्सना है और ‘शब्द सृष्टि’ पत्रिका के पृष्ठ 89 पर लिखे इस कथन का विरोध है कि ‘यह कविता नहीं है, यह अराजकता के लिए एक कविता का दुरुपयोग है’। वक्तव्य में अपने सम्पादकीय में लेखक के नाम के ना होने को अनैतिक, आपराधिक और खतरनाक सरकारी प्रक्रिया के अनुसार कहा गया है। वक्तव्य में यह कहा गया है कि आलोचना, संवाद और विरोध एक शक्तिशाली लोकतन्त्र की शक्ति है। सम्पादकीय को ‘हथौड़े से कलम पर प्रहार’ कहा गया है। गुजरात के लेखकों, बुद्धिजीवियों के अनुसार यह एक खतरनाक और फासिस्ट प्रवृत्ति है। सम्पादकीय को परोक्ष रूप से गुजरात के लेखकों को दी गयी धमकी के रूप में देखा गया है। लेखक को कोई भी सम्पादक एक सत्तावादी अधिकारी स्वर में यह नहीं कह सकता कि उसे क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं लिखना चाहिए। गुजराती लेखकों ने हाल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये आदेश-निर्देश या मत का उल्लेख किया है कि सरकार की आलोचना राष्ट्रद्रोह नहीं है। लेखकों ने गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पण्ड्या और गुजरात सरकार दोनों से सम्पादकीय को गुजराती भाषा और गुजरात पर एक दाग/धब्बा कहकर इसे वापस लेने की मांग की है। केवल देश में ही नहीं, विदेश में भी पारुल खक्कर की कविता चर्चा में रही है। ‘द गार्जियन’ में इस पर लिखा गया और पिछले महीने जर्मनी के एक प्रमुख पत्र में नृतत्वविद शालिनी रंडेरिया और बल्गेरियाई जर्मन लेखक इलिजा द्रोजानो द्वारा ‘शव वाहिनी गंगा’ का अनुवाद प्रकाशित हुआ और कविता की व्याख्या भी की गयी। यह समय एकजुट होने का है और गुजरात के लेखक, बौद्धिक एकजुट हैं। उनके विरोधी स्वर हमें सुनने चाहिए और उन स्वरों में अपने स्वर भी मिलाने चाहिए। . 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राजस्थान सरकार बताए, किन-किन लोगों की निजता पर किया हमला :शेखावत Divya Sandesh
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राजस्थान सरकार बताए, किन-किन लोगों की निजता पर किया हमला :शेखावत
जोधपुर। केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने फोन टैपिंग मामले में कहा कि यह निजता पर हमला है। एफआईआर दर्ज कराने को लेकर उन्होंने विस्तार से बात रखी। मंत्री शेखावत ने खुद की नैतिकता और चरित्र हनन का कांग्रेस पर आरोप मढ़ते हुए कहा कि राजस्थान सरकार, उसके मुखिया, नेतागण और अधिकारी मिलकर राज्य में अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए टेलीफोन टैपिंग का षड्यंत्र करते हैं। राज्य की जनता को यह जानने का अधिकार है कि राजस्थान में किन-किन लोगों की निजता पर सरकार ने हमला किया है। इस बात का पर्दाफाश होना चाहिए, इसलिए मैंने यह एफआईआर दर्ज कराई है। एफआईआर पर जांच हो और जो दोषी पाए जाएँ ,उनके साथ देश के कानून के अनुरूप व्यवहार हो।
यह खबर भी पढ़ें: खरीफ की बुवाई ने पकड़ी रफ्तार, रबी के मोर्चे पर भी राहत
केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत जोधपुर संसदीय क्षेत्र के प्रवास के दौरान यहां मीडिया से रू-ब-रू हुए। शेखावत ने कहा कि एक तरफ तो पहले सरकार, उसके मुखिया, नेता और अधिकारी कहते हैं कि हम टेलीफोन टैप नहीं करते हैं। राजस्थान में इस तरह की परंपरा नहीं है, लेकिन फिर सरकार स्वीकारती कि हमने फोन टैप किए हैं। विधानसभा में संसदीय कार्यमंत्री शांति धारीवाल कहते हैं कि हमने लीगल तरीके से जो फोन टैपिंग किए हैं, अगर किसी एक रिकॉर्डिंग को मुख्यमंत्री के विशेषधिकारी ने मीडिया में प्रसारित किया है तो इसमें क्या दोष है, क्या अपराध किया है।
केंद्रीय मंत्री ने सवाल उठाया कि जब सरकार कह रही थी कि हमने किसी तरह की फोन टैपिंग नहीं की, तब मैंने इसको बहुत सहजता के साथ लिया था कि हो सकता है कि किसी ने छेड़छाड़ करके टैप बनाई होगी और मैंने इस विषय को समाप्त कर दिया था, लेकिन अब जबकि सरकार ने टैपिंग को स्वीकार किया और विधानसभा के पटल पर सरकार की तरफ़ से उत्तर देते हुए संसदीय कार्य मंत्री ने स्वीकार ही कर लिया की हमने इंटर्सेप्शन किए और मुख्यमंत्री के कार्यालय ने उसे प्रसारित भी किया तो मैंने दिल्ली के तुगलक रोड थाने में एक शिकायत भेजी। जाँच होनी चाहिए की किन किन के फ़ोन इंटर्सेप्ट किए गए , क्या उसके लिए वैधानिक प्रक्रिया पूरी की गयी और जो इंटर्सेप्शन थे उसे किस किस के साथ सा��ा किया गया या किन अधिकारियों ने उन्हें किस क़ानून के तहत सार्वजनिक किया की जाँच जनहित में होना आवश्यक है और राजस्थान की जनता को जानने का अधिकार है।
मेरे चरित्र हनन का प्रयास: राजस्थान के बजाय दिल्ली में रिपोर्ट दर्ज कराने के सवाल पर उन्होंने कहा कि जब इस टैप के माध्यम से मेरे चरित्रहनन और मानसिक शांति को भंग करने का प्रयास किया गया, तब मैं दिल्ली में निवास कर रहा था, इसलिए मैंने वहां रिपोर्ट दर्ज कराई। क्या जांच करने में सीबीआई ज्यादा सक्षम है, के सवाल पर उन्होंने कहा कि ये दिल्ली पुलिस का विषय है, वो खुद को सक्षम मानती है या सीबीआई या एनआईए को, यह वो तय करेगी।
जब पत्रकारों ने पूछा कि क्या ये एफआईआर संजीवनी प्रकरण को काउंटर करने के लिए की गई है तो केंद्रीय मंत्री ने कहा कि मेरी तीन पीढिय़ों का कोई भी रिश्तेदार न तो संजीवनी क्रेडिट कॉरपोरेटिव सोसायटी का प्राथमिक सदस्य है और ना ही किसी ने भी संजीवनी से ऋण लिया है और न ही कोई भी एक पैसा कोई डिपोजिट करवाया है। मैंने कानून के अनुसार काम किया है। अगर मैंने कोई अपराध किया होता तो राजस्थान सरकार ने मुझे कब का उठाकर सलाखों के पीछे बंद कर दिया होता। ये कमर के नीचे प्रहार करना और अपनी सरकार की नाकामयाबी को छिपाने का प्रयास भर है। केंद्रीय मंत्री ने एक बार फिर कहा कि जोधपुर की जनता तो जरूर मानती है कि जब से उनका बेटा हारा है, तब से वो मारवाड़ और जोधपुर के साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं।
दस दिनों म��ं केस वापस क्यों लिया? शेखावत ने कहा कि उस समय जो फोन टैप को लेकर मुकदमे दर्ज किए गए थे। राष्ट्रद्रोह की धारा में देश के कैबिनेट मंत्री के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था। ताबड़तोड़ गिरफ्तारी की गईं। मैं आज पूछना चाहता हूं कि दस दिन बाद में किसने आपको यह बुद्धि दी या आपकी बुद्धि का उदय हुआ या किस तरह की लीगल राय आपके पास आई कि दस दिन बाद में आपने वो केस वापस ले लिए।
मुख्यमंत्री के साथ कॉफी पीने वालों के वाइस सैंपल क्यों नहीं लेते?
केंद्रीय मंत्री ने कहा कि सरकार के चीफ व्हीप महेश जोशी, मंत्री प्रताप सिंह, शांति धारीवाल, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा कि गजेंद्र सिंह अपना वाइस सैंपल क्यों नहीं देते? मैं पूछना चाहता हूं और जनता को बताना चाहता हूं कि कौन से मुकदमे में आप मेरे वाइस सैंपल मांग रहे हैं? आपने जिस मुकदमे में मेरे वाइस सैंपल की मांग भेजी थी, उस को आपने आठवें दिन वापस ले लिया, जब वो मुकदमा खत्म हो गया है तो किसमें मेरा वाइस सैंपल मांग रहे हैं। उन्होंने तंज कसा कि टैप में विश्वेंद्र सिंह और भंवर लाल शर्मा की आवाज होने का दावा किया जा रहा है, वो मुख्यमंत्री के साथ बैठकर कॉफी पी रहे हैं, पहले आप उनकी वाइस रिकॉर्ड क्यों नहीं करते हो।
सरकार ने किए अपने ही जन प्रतिनिधियों के फोन टैप केंद्रीय मंत्री शेखावत ने कहा कि मुझे ऐसा बताया गया है कि (मैं अधिकारिक रूप से टिप्पणी नहीं कर रहा हूं) पर राजस्थान सरकार ने अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए अपने जनप्रतिनिधियों के फोन टैपकर रखे हैं। मुझे ऐसा पुलिस के अधिकारियों ने व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत में बताया है। जनप्रतिनिधि होने के नाते मैंने अपने धर्म का पालन किया है। इस व्यवस्था की जांच हो और इसे रोका जाए।
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पिछले साल केंद्र सरकार ने संविधान के आर्टिकल 370 और 35A को रद्द किया और जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाया। तब से कश्मीर में अलगाववादियों के साथ-साथ फारुख अब्दुल्ला-महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं की फजीहत हो गई है। अब तक केंद्र से जम्मू-कश्मीर को मिलने वाले फंड से उन्होंने अपनी जेबें भरी और देश के विरोध में बयान देकर कश्मीरी अवाम को भड़काया। अब भी ये नेता तिरंगे और देश का अपमान करने वाले बयान दे रहे हैं।
पिछले साल केंद्र ने ऐतिहासिक कदम उठाने के बाद कश्मीर के नेताओं को नजरबंद किया। तब तो वे कुछ बोल ही नहीं पाए थे, लेकिन बाहर आते ही आर्टिकल 370 को फिर से लागू करने की लड़ाई को तेज करने का फैसला किया है। गुपकार डिक्लेरेशन को लागू करने पीपुल्स अलायंस बनाया। फारुख अब्दुल्ला अध्यक्ष बने और महबूबा मुफ्ती को उपाध्यक्ष बनाया।
इन नेताओं ने एक बार फिर कश्मीर की जनता को भड़काने की कोशिशें तेज कर दी हैं। फारुख अब्दुल्ला ने कहा कि चीन की मदद से ही आर्टिकल 370 लागू हो सकता है। कश्मीरी खुद को भारतीय नहीं मानते और भारतीय बनना भी नहीं चाहते। ज्यादातर कश्मीरी चाहते हैं कि चीन आए और शासन करें।
दूसरी ओर, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने कहा कि जब तक जम्मू-कश्मीर का झंडा नहीं मिलता, तब तक तिरंगा नहीं फहराएंगे। ऐसे बयानों से पूरे दे�� में आक्रोश है। क्या यह बयान राष्ट्रद्रोह नहीं है, क्या उन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिए, यह प्रश्न उठ रहे हैं।
गुपकार डिक्लेरेशन में शामिल रहे कश्मीरी नेता पीपुल्स अलायंस बनाने की घोषणा करते हुए।
जम्मू-कश्मीर का इतिहास
इन प्रश्नों के जवाब देने से पहले कश्मीर का इतिहास जानना जरूरी है। जम्म���-कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य था, जबकि वहां के राजा हरि सिंह हिंदू थे। आजादी के बाद उन्हें स्वतंत्र रहना था, लेकिन पाकिस्तान ने कबाइलियों की मदद से हमला कर दिया। तब हरि सिंह ने भारत से मदद की याचना की। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सैन्य कार्रवाई की और कबाइलियों को खदेड़ा।
भारत की शर्त थी कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करना होगा। हरि सिंह राजी हो गए थे, लेकिन शर्त के साथ। शर्त पूरी करने ही आर्टिकल 370 बना था। इसके बाद 70 साल तक केंद्र ने राज्य के विकास में हजारों करोड़ रुपए खर्च किए। सुविधाएं दीं। लेकिन, वहां के नेताओं की भाषा में अपनापन नहीं आया। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और अलगाववादी धड़ों ने हमेशा भारत विरोधी बयान दिए।
फारुख अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती भी पीछे नहीं थे। इन नेताओं ने भारत विरोधी बयान देकर पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते बनाए। शेख अब्दुल्ला ने तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भारत में स्वतंत्र गणतंत्र के तौर पर कश्मीर का उल्लेख किया था। कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था। इन नेताओं के बच्चे विदेशों में पढ़े। केंद्र से आए पैसे पर लग्जरियस जीवन जीया। फिर भी भारत पर टीका-टिप्पणी करना, इनकी आदत हो गई है।
फारुख, मेहबूबा के बिगड़े बोल
पिछले साल हालात बदले और केंद्र ने आर्टिकल 370 व आर्टिकल 35A रद्द कर दिया। केंद्र के फंड से तिजोरी भरने वाले नेताओं की आर्थिक गतिविधियों की जांच शुरू हुई। उन्हें मिलने वाले पैसों के स्रोत पर लगाम कस गई। ��ारुख अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती नजरबंद हुए।
दूसरी ओर, सेना ने घाटी में कई आतंकियों को मार गिराया। जम्मू-कश्मीर में विकास को गति दी। बरसों से लंबित प्रोजेक्ट पूरे किए। जब यह हो रहा था, तब फारुख अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती जैसे नेता तिरंगे के खिलाफ और चीन के समर्थन की बातें कह रहे थे। कश्मीरियों को भड़का रहे थे।
भारत के कानून को देखें तो प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट्स टू नेशनल ऑनर एक्ट 1971 के सेक्शन 2 में स्पष्ट है कि तिरंगे पर आपत्तिजनक बयान या तिरंगे का अपमान तीन साल के लिए जेल भेज सकता है। संविधान के आर्टिकल 19 (1A) के मुताबिक तिरंगा फहराना हर भारतीय का मौलिक अधिकार है। कश्मीर में रहने वाली भारतीय जनता को तिरंगे के खिलाफ भड़काना क्या राष्ट्रद्रोह नहीं है?
IPC के सेक्शन 121 से 130 तक की व्याख्या महत्वपूर्ण
भारतीय दंड विधान यानी IPC के सेक्शन 121 से 130 तक में भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने, युद्ध का आह्वान करने और युद्ध के लिए हथियार जुटाने की व्याख्या है। सेक्शन 121 कहता है कि युद्ध छेड़ने का आह्वान, युद्ध का प्रयास या युद्ध के लिए उकसाना गैरकानूनी है। ब्रिटिशर्स ने यह कानून बनाया था, जो आज भी कायम है।
2008 में मुंबई पर आतंकी हमला करने वाले आतंकियों में शामिल अजमल कसाब पर भी हमने यह आरोप लगाए थे। कसाब और उसके साथियों ने होटल और रेलवे स्टेशन पर हमला किया था। सुप्रीम कोर्ट में प्रश्न उठा था कि क्या उन पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप सही है? हमने दलील दी कि कसाब और उसके साथियों ने हमले के लिए जिन जगहों को चुना, उसका उद्देश्य समझना जरूरी है।
रेलवे स्टेशन पर हमला कर वे लोगों में दहशत पैदा करना चाहते थे। होटल पर हमले में विदेशी नागरिकों की हत्या के जरिए भारत में विदेशी निवेश को नुकसान पहुंचाना चाहते थे। मुंबई और फाइव स्टार होटल को निशाना बनाने कारण साफ थे। हमने कहा कि यह एक तरह से युद्ध ही है और बाद में इसी आधार पर कसाब को सजा सुनाई गई।
यह प्रॉक्सी वॉर ही तो है
सेक्शन 124 कहता है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के विरोध में कोई भी लिखित या मौखिक शब्द, या चित्र या सांकेतिक चित्र, या किसी भी अन्य माध्यम से नफरत फैलाने की कोशिश, या सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने की कोशिश, या असंतोष भड़काएगा तो उसे उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।
बदली परिस्थितियों में दोनों सेक्शन का मतलब नए सिरे से निकालना चाहिए। कसाब प्रकरण में हमने सेक्शन 121 की व्याख्या में कहा था- आज युद्ध आमने-सामने नहीं होते। यह प्रॉक्सी वॉर का जमाना है। शत्रु कानून-व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने, अशांति बढ़ाने, असंतोष भड़काने की कोशिश करता है।
अलगाववादी नेताओं ने कश्मीरियों को भारत सरकार के खिलाफ भड़का��ा है। तिरंगा हमारे देश के सर्वोच्च सम्मान का प्रतीक है। उसका अपमान हो रहा है। यह देश के खिलाफ युद्ध की साजिश रचना, राष्ट्रद्रोह का ही एक प्रकार है। इन नेताओं पर नकेल कसना जरूरी है। इन नेताओं में कानून का डर होना चाहिए। सिर्फ हिरासत में लेने से काम नहीं चलेगा; उन पर मुकदमे चलना चाहिए और कानून के अनुसार सजा देना जरूरी है।
कानून का शासन स्थापित करना जरूरी
केंद्र सरकार ने हाल ही में निर्णय लिया कि जम्मू-कश्मीर में अब कोई भी भारतीय नागरिक जाकर जमीन की खरीद-फरोख्त कर सकेगा, लेकिन खेती की जमीन बाहरी लोग नहीं खरीद सकेंगे। साफ है कि केंद्र ने स्थानीय लोगों की आजीविका की चिंता की है।
कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और वहां का विकास भी आवश्यक है। लेकिन, अब वहां के नेता ऊलजलूल बयान दे रहे हैं। इनका आशय निश्चित ही घातक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनियंत्रित और स्वच्छंद नहीं हो सकती। इससे अराजकता ही फैलेगी।
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राष्ट्रद्राेह के कानून काे इतना सख्त बनाएंगे कि विद्राेह करने वालों की रूह भी कांप उठे : राजनाथ
भिवानी/गुड़गांव/राई/सफीदों. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि राष्ट्रद्रोह का कानून कहीं से कमजोर है ताे उसे इतना सख्त बनाएंगे कि विद्रोह करने वाले की रूह भी कांप उठेगी। वे बुधवार को भिवानी में धर्मबीर सिंह के समर्थन में विजय संकल्प रैली काे संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि ��ह चुनाव राष्ट्रवाद व आतंकवाद के बीच लड़ा जा रहा है। भाजपा जहां देश को मजबूत करने का काम कर रही है तो कांग्रेस देशद्रोह जैसे कानून को समाप्त करने की बात कह रही है। एयर स्ट्राइक कांग्रेस व अन्य विरोधी दलों ने सरकार से सवाल पूछे कि पाक के कितने सैनिक मारे गए। शर्म आती है कि देश के ऐसे मामले में देश एक नहीं है। हरियाणा की ब्रेकिंग न्यूज़ अब सबसे पहले आपके पास : डाउनलोड करें : DOWNLOAD ( 3MB ) एक वह समय था, जबकि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए थे तो उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वयं इंदिरा के सम्मान में मेज थपथपाई थी व इंदिरा को खूब वाह वाही मिली थी तो क्या एयर स्ट्राइक के मामले में पीएम को वाहवाही क्यों नहीं मिलनी चाहिए। सफीदों में कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गालियां देने वाले कांग्रेस नेताओं से बदला आप सब को लेना है। गुड़गांव में उन्होंने कहा की हमने पाकिस्तान को उसकी जमीन पर जाकर मारा। आजतक दुनिया में आतंकवादियों के खिलाफ इतना बड़ा ऑपरेशन नहीं हुआ है। हरियाणा की ब्रेकिंग न्यूज़ अब सबसे पहले आपके पास : डाउनलोड करें : DOWNLOAD ( 3MB ) चोर कहने वाले ने माफी मांगी नहीं, मांगनी पड़ी है : राई के गांव अटेरना में राजनाथ सिंह ने बिना नाम लिए राहुल गांधी पर तंज कसते हुए कहा कि एक उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को चोर कहने वाले ने माफी मांगी नहीं, बल्कि माफी मांगनी पड़ी है। एक राष्ट्रीय पार्टी का यह चरित्र देश की सभ्यता एवं संस्कृति को शर्मसार करने वाला है। यह लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। link Read the full article
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पीएम का दावा- फिर वापसी करेगी बीजेपी सरकार, कांग्रेस का घोषणापत्र, महागठबंधन, एयर स्ट्राइक जैसे कई मुद्दों पर की चर्चा
चैतन्य भारत न्यूज लोकसभा चुनाव 2019 के लिए इन दिनों सभी राजनीतिक दल तैयारियों में लगे हुए हैं। पीएम मोदी भी पार्टी के रोजाना अलग-अलग प्रदेशों में प्रचार कर रहे हैं। इसी बीच उन्होंने एक न्यूज चैनल को इंटरव्यू दिया जहां पीएम मोदी ने कई मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखी है। इस दौरान पीएम मोदी ने कांग्रेस का घोषणापत्र, महागठबंधन, एयर स्ट्राइक जैसे और भी कई मुद्दों पर पक्ष रखा है। साथ ही पीएम ने तो यह दावा भी किया कि, उनकी सरकार एक बार फिर वापसी कर रही है। 60 महीनों का क��मकाज पीएम मोदी ने इस बारे में कहा कि, ‘’मैंने जनता से 60 महीने मांगे थे और अगर आपको मेरे 60 महीनों के काम से जनता को संतोष है तो उसका श्रेय मुझे नहीं जनता को जाता है क्योंकि जनता ने ही मुझे अवसर दिया। 60 महीने में आप देखेंगे कि नई-नई आशा-आकांक्षा की बात आती है।’’ वाजपेयी और मोदी कांग्रेस गोत्र से नहीं पीएम मोदी ने कहा, ‘’देश की आजादी के बाद सिर्फ दो ही ऐसे प्रधानमंत्री बने हैं, जो कांग्रेस गोत्र के नहीं हैं। इन दो प्रधानमंत्रियों के अलावा बाकी जितने लोग पीएम बने है वह किसी और दल से बने होंगे लेकिन उनका सबका गोत्र कांग्रेस रहा है। यह दो पीएम है- अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद���र मोदी। यह दोनों ही पीएम ऐसे हैं जो कांग्रेस गोत्र से नहीं आए हैं और इसलिए पहली बार देश को कांग्रेसी सोच वाली सरकार और बिन कांग्रेसी सोच वाली सरकार क्या होती है ये पहली बार पता चला है।’’ पीएम ने बताई कांग्रेस के घोषणापत्र को ढकोसला कहने की वजह पीएम मोदी ने वजह बताते हुए कहा, ‘’कांग्रेस के घोषणापत्र ने बहुत निराशा पैदा की है। कांग्रेस के पास से एक मैच्योर घोषणापत्र जारी होने की अपेक्षा होना बहुत स्वाभाविक है। कांग्रेस बीजेपी से भी शानदार चीजें लेकर आती वह अच्छा होता लेकिन उन्होंने शॉर्टकट ढूंढा है। उन्होंने 2004 में किया? 2009 में किया? उनका ट्रैक रिकॉर्ड चुनावी वादों वाला है।’’ कांग्रेस ने की सेना को जलील की अपील पीएम मोदी ने कहा, ‘’कांग्रेस राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर अपने घोषणापत्र में ऐसी बात कर रही है कि- देश की सेना को इतना जलील करें, बलात्कार के आरोप वाली बातें करें, ऐसा शोभा देता है क्या? भारत की सेना का संयुक्त राष्ट्र के पीस कीपिंग फोर्स में और विश्व के अनेक देशों में ये पीस कीपिंग फोर्स के जवान होने के नाते जाकर काम करते हैं। कहीं-कहीं तो गरीब से गरीब देशों में जाते हैं। बड़े ही गर्व की बात है कि विश्वभर की सेना के अंदर जो लोग पीस कीपिंग फोर्स में आते हैं उन सबके बीच में भी भारत की फोर्स का अनुशासन, सैनिकों का व्यवहार, उनका आचार, दुनिया गर्व करती है।’’ राजद्रोह की प्रवृत्ति के लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा पीएम मोदी ने कहा, ‘’जितने भी लोग राष्ट्रद्रोह की प्रवृत्ति करते हैं उन सभी पर राजद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए। न्यायपालिका हमारी है और हमें उस पर भरोसा करना चाहिए, वो दूध का दूध और पानी का पानी कर सकते हैं। ये राजद्रोह को बदले की भावना से कर रहे हैं, हमारी न्यायपालिका व्यवस्थाएं हैं, अगर कानून ही नहीं होगा तो आप करेंगे क्या? ‘’ पीडीपी और बीजेपी के गठबंधन को पीएम ने कहा मिलावट पीएम मोदी ने इस बारे में कहा, ‘’एक प्रकार से मिलावट वाला ही कार्यक्रम था हमारा। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई स्थिति नहीं थी कि कोई सरकार बन पाए। मह��ूबा जी का एक अलग काम करने का तरीका था। हमारी कोशिश अच्छा करने की थी, कुछ कमी रह गई हम नहीं कर पाए। नहीं कर पाए तो हम जम्मू-कश्मीर की जनता पर बोझ नहीं बनना चाहते थे। इसलिए हमने तो नमस्ते कहकर कहा हमें जाने दीजिए।’’ पाकिस्तान को कौन चलाता है? पीएम मोदी ने कहा, ‘’दुनियाभर के लोगों की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि, पाकिस्तान में यह पता ही नहीं चलता है कि आखिर देश कौन चलाता है? चुनी हुई सरकार चलाती है या सेना चलाती है, या फिर आईएसआई चलाती है या जो लोग पाकिस्तान से भागकर विदेशों में बैठे हैं वो चला रहे हैं। हर किसी के लिए ये एक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है कि किससे बात करें।’’ चीन से है कई सारे सवाल पीएम मोदी ने कहा, ‘’चीन के साथ हमारे कई विवाद हैं। चीन से हमारे जमीन के प्रश्न हैं, सीमा के प्रश्न हैं और भी बहुत कुछ है लेकिन आना जाना होता है और ना ही मिलना होता है, मीटिगें होती हैं, निवेश होता है। चीन को लेकर हमने मन बना लिया है कि हम हमारे मतभेदों को विवादों में बदलने नहीं देंगे।’’ एयर स्ट्राइक पर पीएम का जवाब पीएम मोदी ने एयर स्ट्राइक पर कहा, ‘’सबसे बड़ा सबूत पाकिस्तान ने स्वयं ट्वीट के जरिए दुनिया को दिया। हमने तो कोई दावा नहीं किया था। हम तो सिर्फ अपना काम करके चुप बैठे थे। पाकिस्तान ने कहा कि- आए हमको मारा। फिर उन्हीं के लोगों ने वहां से बयान दिया। इस सारे में कितने लोग मरे। कितने लोग नहीं मरे। मरे कि नहीं मरे। ये जिसको विवाद करना है करते रहें। हमारी रणनीति यह थी कि, हम गैर सैनिक एक्टिविटी करेंगे और जनता का कोई नुकसान ना हो इसका ध्यान रखेंगे। एयरफोर्स ने जो करना था अपना बहुत सफलतापूर्वक काम किया।’’ पुलवामा हमले के समय शूटिंग को लेकर पीएम ने तोड़ी चुप्पी पीएम मोदी ने इस बारे में कहा, ''पुलवामा की घटना मुझे पहले से पता थी क्या? मेरा तो रूटीन कार्यक्रम था उत्तराखंड में। कुछ चीजें ऐसे होती हैं जिसका हैंडल करने का तरीका होता है।'' Read the full article
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2014... 2019 सोच
भारत का सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय एक दुविधा से आज आपादमस्तक ग्रस्त हो गया है।
केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी दल से उसका मोहभंग होता जा रहा है, किंतु उसकी दुविधा के आधार में यह नहीं है। उसकी दुविधा के आधार में यह है कि अगर उस दल को नहीं तो किसे? वह दलनायक नहीं तो कौन?
1960 के दशक में यह प्रश्न अकसर पूछा जाता था- "आफ़्टर नेहरू, हू?" नेहरू के बाद कौन? कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि नेहरू के सिवा कोई और भारत की कमान सम्भाल सकता हो।
नेहरू के बाद कौन? यह प्रश्न समस्त देशवासियों से हुआ करता था।
मोदी के बाद कौन? यह प्रश्न आज केवल सवर्ण बहुसंख्यकों के लिए दुविधा का विषय है।
भारतीय जनता पार्टी नहीं तो कौन? नरेंद्र मोदी नहीं तो किसे? वर्ष 2019 की महाभारत की तैयारी में जुटे सत्तारूढ़ दल के अंधसमर्थकों का कुलजमा यही तर्क है।
क्या यही तर्क वे 2014 में भी दे रहे थे?
जबकि तब तो पार्टी दस साल से सत्ता से बाहर थी। अब चार साल राज करने के बाद यह रक्षात्मक एजेंडा किसलिए?
भारत का सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय जिस दुविधा से आज आपादमस्तक ग्रस्त है, उसके मूल में यह है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाला कोई दूसरा दल है ��ी नहीं। उसके समक्ष कोई विकल्प नहीं रह गया है!
राजनीति लोकमत का दर्पण होती है। अगर आज राष्ट्रीय फलक पर राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली कोई पार्टी नहीं है तो यह सवाल बहुसंख्यक समुदाय को स्वयं से भी पूछना चाहिए। कि उसे चुनाव जिताने वाला फ़ैक्टर क्यों नहीं माना जाता? कि वह "वोटबैंक" क्यों नहीं है।
राजनीति का कोई चरित्र नहीं होता।
राजनीति गणिका है। राजनीति नगरवधू है।
केवल सत्ता ही राजनीति का अभीष्ट है।
जिस दिन सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय एक अटूट, अटल, अनुल्लंघ्य और अपरिहार्य वोटबैंक बन गया, जिसकी उपेक्षा करके कोई पार्टी चुनाव नहीं जीत सकती, उस दिन सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले तमाम नेता माथे पर त्रिपुंड लगाकर और शरीर पर रामनामी चादर ओढ़े घूमकर बरामद होंगे।
केंद्र सरकार के अंधसमर्थक राष्ट्रवादी मित्रगण अकसर कहते हैं कि सरकार शीघ्र ही कोई बड़ा क़दम ��ठाने जा रही है।
तो क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए "हिंदू अस्मिता" चुनाव जीतने का एक साधन, एक कार्ड भर है, जिसका इस्तेमाल वह चुनावों के दौरान ध्रुवीकरण के लिए करेगी?
1990 के दशक में जब उग्र हिंदू राजनीति का उदय हुआ तो एक नारा पूरे देश में गूंजा करता था- "जो हिंदूहित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा!"
मजाल है जो वो नारा आज भूले से भी सुनाई दे जाए, जबकि हिंदू राजनीति के मानसपुत्र दस साल केंद्र में राज कर चुके।
बीती सहस्राब्दी के अंतिम दशक में जब राष्ट्रवादी दल सत्ता में आया तो उग्र राजनीति के चेहरे लालकृष्ण आडवाणी के बजाय उदार राजधर्म के प्रणेता अटल बिहारी वाजपेयी को शासन सौंपा गया।
इसी के साथ राजनीतिक नैरेटिव से "हिंदू" शब्द को हटाकर "राष्ट्र" शब्द की प्रतिष्ठा कर दी गई और प्रधानमंत्री की वाकपटुता राष्ट्रीय गौरव के विवरणों से सज्जित हो गई।
बहुसंख्यक समुदाय के लिए वह भी दुविधा का विषय नहीं था, क्योंकि धर्म और राष्ट्र को वह पृथक रूप में नहीं देखता!
जिन बंकिम ने "आनंदमठ" रचा, उन्होंने ही "भारतमाता" के स्वरूप की परिकल्पना भी की। हिंदू लोकमत में धर्म और राष्ट्र परस्पर भिन्न विचार नहीं थे।
"हिंदू" और "राष्ट्र" के प्रति समर्पित विचारधारा का यह आंदोलन अब जाकर एक शब्द पर सिमट गया है- "विकास"।
विकास- एक अमूर्त, अस्पष्ट और उभयलिंगी अवधारणा!
विकास क्या होता है? नगर नियोजन? ग्राम संवर्धन? सड़क निर्माण? बिजली आपूर्ति? आर्थिक कार्यक्रम? पूंजी निर्माण? रोज़गार के अवस���?
ये एक शासनतंत्र के मूलभूत कर्तव्य हैं या उसकी लोकनीति है? क्योंकि यह सब तो किसी भी शासनतंत्र को यों भी करना ही है।
भारत का सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय जिस दुविधा से आज आपादमस्तक ग्रस्त हो गया है, उसके मूल में यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी दल एक आर्थिक कार्यक्रम को ही लोकनीति मनवाकर उसे जनमत के बीच ठेल रहा है।
लोकतंत्र राजसत्ता और लोकमानस के बीच परस्पर संवाद की प्रविधि है।
दिल्ली की हवाओं में जाने क्या चरस घुली है कि वहां पहुंचते ही लोकमानस से राजसत्ता का सम्पर्क विच्छिन्न हो जाता है।
अगर "शादिया सिद्दीक़ी" भारतीय जनता पार्टी की "शाह बानो" साबित हो जाए तो अचरज नहीं करना चाहिए।
केंद्रीय सत्ता को अनुमान नहीं है कि तुष्टीकरण के प्रति भारतीय लोकमानस में कितनी घृणा, उद्वेग और अरुचि है।
भारतीय जनता पार्टी यह भी भूल गई कि उग्र हिंदुत्व की पोषक पार्टी के रूप में उसका उदय जिन बिंदुओं पर हुआ, उसके मूल में राजीव गांधी सरकार के ही दो निर्णय थे- शाहबानो और अयोध्या।
क्रिया की प्रतिक्रिया हुई थी। शाहबानो मामले में निर्लज्ज तुष्टीकरण का प्रदर्शन करने के बाद बहुसंख्यकों की संवेदनाओं को पोषित करने के लिए राजीव गांधी ने रामजन्मभूमि के ताले खुलवा दिए थे।
शाहबानो ने समान नागरिक संहिता की उग्र मांग को जन्म दिया!
रामजन्मभूमि के खुले हुए तालों से कारसेवकों ने जयघोष करते हुए राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश किया!!
और कश्मीर की चुनावी धांधलियों ने धारा 370 को भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक एजेंडे का शुभंकर बना दिया।
1990 के दशक की उग्र हिंदुत्व की राजनीति के जनक लालकृष्ण आडवाणी नहीं राजीव गांधी थे, आडवाणी के रथ ने तो केवल उस लहर का दोहन किया था।
भारत-विभाजन के बाद भारत के बहुसंख्यक के साथ हुआ यह दूसरा सबसे बड़ा छल है कि हिंदूहित का जाप करते हुए सत्ता की अधिकारिणी बनी पार्टी अब स्वयं तुष्टीकरण में लिप्त होती जा रही है।
अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण करना राजसत्ता का धर्म है, यह ठीक है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि बहुसंख्यकों को पददलित समझ लिया जाएगा और अल्पसंख्यकों को नियम-क़ायदों से निर्लज्ज छूट दे दी जाएगी!
राजसत्ता से अनुरोध है कि कृपया यह राष्ट्रद्रोह न करे!
भारत का सवर्ण बहुसंख्यक समुदाय एक दुविधा से आज इसीलिए आपादमस्तक ग्रस्त हो गया है कि अपने ही देश में उसकी संवेदना का कोई "चुनावी मोल" नहीं समझा जा रहा है और वह स्वयं को छला हुआ अनुभव करता है।
हवा का रुख़ भांपकर जिस दिन किसी और राजनीतिक दल ने राष्ट्रवादी राजनीति को अपहृत कर लिया, उस दिन भारतीय जनता पार्टी "ना घर की रहेगी ना घाट की", इस बात का उसे अंद��ज़ा नहीं है।
2019 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र की विचारधारागत वैधता की अग्निपरीक्षा सिद्ध होने जा रहा है!
@dn
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‘एर्दोआन से मुहब्बत और मोदी से नफरत, यह सुविधा का सेकुलरिज्म है’ तुर्की की एक कहावत है- जैसे ही कुल्हाड़ी जंगल में दाख़िल हुई, पेड़ों ने कहा, “देखो, ये हम में से एक है.” पिछले दिनों हिन्दुस्तान में कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला. जब तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन जिन पर अपने देश में तानाशाही शासन थोपने और उस बुनियाद को बदलने का आरोप है जिस पर आधुनिक तुर्की की स्थापना हुई थी, भारत की यात्रा पर थे. मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा सोशल मीडिया पर जिस तरह से उनके स्वागत के गीत गाये गए वो हैरान करने वाला था. जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय जिसे तुर्की में कैद किये गए प्रोफेसरों के प्रति एकजुटता दर्ज करना चाहिए था वहां एर्दोआन को “डिग्री ऑफ डॉ��्टर ऑफ लेटर्स” से सम्मानित किया गया. जैसे की भारत में यहाँ के नरमपंथी और अल्पसंख्यक नरेंद्र मोदी पर अधिनायकवादी तरीका अपनाने और छुपे हुए एजेंडे पर काम करने का आरोप लगाते हैं, कुछ उसी तरह का आरोप एर्दोआन पर भी है. मोदी को लेकर कहा जाता है कि वे नेहरु द्वारा गढे गए आधुनिक भारत पर हिन्दू राष्ट्र थोपना चाहते हैं तो वहीँ एर्दोआन पर कमाल अतातुर्क के आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष तुर्की को बदलकर आटोमन साम्राज्य के इस्लामी रास्ते पर ले जाने का आरोप है. ऐसे में यहाँ मोदी के बहुसंख्यकवादी राजनीति से शिकायत दर्ज कराने वाले मुसलामानों का एर्दोआन के प्रति आकर्षण सेकुलरिज्म के सुविधाजनक उपयोग को दर्शाता है. तुर्की अपनी धर्मनिरपेक्ष के लिए मशहूर रहा है. आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र की स्थापना के लिए सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सुधार किये थे, ��न्होंने धर्मनिरपेक्षता को बहुत कड़ाई से लागू किया था. स्कार्फ ओढ़ने, टोपी पहनने पर पाबंदी लगाने से लेकर तुर्की भाषा में अजान देने जैसे कदम उठाये गए थे. ज्यादा समय नहीं बिता हैं जब तुर्की को दूसरे मुस्लिम देशों के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता था लेकिन आज तुर्की बदलाव के दौर से गुज़र रहा है और इसके पीछे है रजब तैय्यब एर्दोआन, जो सेकुलर तुर्की को इस्लामिक मुल्क बनाने की राह पर हैं, वे पर्दा समर्थक हैं और महिलाओं को घर की चारदीवारी में वापस भेजने का हिमायत करते हैं. उनका कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को चाहिए क़ि वह तीन से अधिक बच्चे पैदा करें ताकि मुस्लिम आबादी बढ़े. बीते अप्रैल माह के मध्य में हुए जनमत संग्रह के बाद अब वे असीमित अधिकारों से लैस हो चुके हैं. तुर्की अब संसदीय लोकतंत्र से राष्ट्रपति की सत्ता वाली शासन प्रणाली की तरफ बढ़ चूका है, इन बदलाओं को देश को आंतरिक और बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए जरूरी बताकर लाया गया था . इस जनमत संग्रह में एर्दोआन मामूली लेकिन निर्णायक बढ़त के बाद अब तुर्की पहले जैसे नहीं रह जाएगा. एर्दोआन के रास्ते की सभी बाधाएं दूर हो गयी हैं. उनकी हैसियत ऐसी हो गयी है कि तुर्की के अन्दर कोई भी उनकी असीम महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने में रुकावट नहीं बन सकता है. राष्ट्रपति के तौर पर उन्हें व्यापक अधिकार मिल गए हैं, जिसके बाद अब सब कुछ वही तय करेंगें. देश कि सत्ता से लेकर पार्टी, नौकरशाही और न्यायपालिका पर उनका एकछत्र नियंत्रण होगा. राष्ट्रपति के तौर पर वे आपातकालीन की घोषणा,शीर्ष मंत्रियों और अधिकारियों की नियुक्ति और संसद को भंग करने जैसे अधिकारों से लैस हो चुके हैं. अब वे 2034 तक देश के मुखिया बने रह सकते हैं. एर्दोआन एकतरह से तुर्की का नया सुल्तान बनने के अपनी महत्वकांक्षा को हासिल कर चुके हैं. रजब तैय्यब एर्दोआन के हुकूमत में असहमति की आवाजों को दफ्न किया जा रहा है. एक लाख से अधिक लोगों को जेलों में ठूस दिया गया है जिनमें प्रोफेसर, साहित्यकार, पत्रकार, मानव अधिकार कार्यकर्त्ता, वकील, शिक्षक, छात्र शामिल हैं. इनमें से बहुतों के ऊपर राष्ट्रद्रोह और आतंकवाद जैसे आरोप लगाये गये हैं. करीब सवा लाख लोगों की नौकरियां छीन ली गई हैं, डेढ़ सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशन गृहों, समाचार एजेंसियों और रेडियो-टेलीविज़न चैनलों को बंद तक कर दिया गया है. सैकड़ों पत्रकार और प्रकाशक गिरफ्तार कर लिए गये हैं. अल्पसंख्यक कुर्द समुदाय का दमन में भी तेजी आई है. एर्दोआन ��र इस्लामिक स्टेट का मदद करने का भी आरोप है. तुर्की समाज में धार्मिक कट्टरता बहुत तेजी से बढ़ रही है. वहां धार्मिकता उभार पर है. बताया जाता है कि 2002 में तुर्की के मदरसों में तालिम लेने वाले छात्रों की संख्या जहां 65 हजार थी वही अब 10 लाख से अधिक हो गयी है. आज भारत और तुर्की ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहाँ दोनों में अदभुत समानता नजर आती है. दोनों प्राचीन सभ्यताएँ बदलाव के रास्ते पर हैं. मुस्तफा कमाल पाशा ने जिस तरह से तुर्की को आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर खड़ा किया था उसी तरह का काम भारत में नेहरु ने किया था.जिसके बाद तुर्की में धर्मनिरपेक्षता का अतिवाद और भारत में इसका अतिसरलीकृत संस्करण सामने आया. लेकिन आज दिल्ली और अंकारा के सत्ताकेन्द्रों में ऐसे लोग बैठ चुके हैं जो इस बुनियाद को बदल डालने के लिए प्रतिबद्ध हैं. जहाँ एक ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के छाया में काम करता है तो दूसरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन की विचारधारा से संचालित है. एक ओट्टोमन साम्राज्य के अतीत से भी अभिभूत हैं तो दूसरा प्राचीन हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा पर यकीन करता है, जहाँ जेनेटिक साइंस मौजूद था और प्लास्टिक सर्जरी होती थी. आज दोनों मुल्कों में सेक्युलर संविधान की अहमियत कम होती नज़र आती है और इसके बदले में भारत में हिंदुत्व और तुर्की में इस्लामी विचारधारा मजबूत हो रही है जिसे सत्ता में बैठे लोगों का संरक्षण हासिल है. दोनों नेताओं के लक्ष्य मिलते-जुलते नजर आते हैं बस एक के ध्वजा का रंग भगवा है तो दूसरे का हरा. आज दोनों मुल्कों में समाज विभाजित नज़र आ रहा है. दोनों नेताओं की पार्टियों का लक्ष्य मिलता-जुलता है और काम करने का तरीका भी. तुर्की में अगर आप तुर्क मुस्लिम भावनाओं का ख्याल नहीं रखते है और राष्ट्रपति एर्दोआन के ख़िलाफ़ हैं तो आप देशद्रोही घोषित किये जा सकते हैं, भारत में भी तथाकथित बहुसंख्यक हिन्दू भावनाओं के खिलाफ जाने और मोदी का विरोध करने से आप एंटी नेशनल घोषित किये जा सकते हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया जिसकी स्थापना आजादी के लड़ाई के गर्भ से हुई थी, के द्वारा एर्दोआन को मानद डिग्री दिए जाने का फैसला समझ से परे है. यह सम्मान उनके किस कारनामे के लिए दिया गया है, क्या लोकतंत्र को उखाड़ फेकने, अकादमीशियन के उत्पीड़न या इस्लाम की “सेवाओं” के लिए? डॉक्टरेट मिलने के बाद नये खलीफा बनने का सपना पाले एर्दोआन ने मुस्लिम देशों को आपसी गिले शिकवे दूर करके एकजुट होने का आह्वान भी किया. भारतीय मुसलामानों का कट्टरपंथी तत्व की एर्दोआन के प्रति आकर्षण भी देखते ही ��नती है. फेसबुक पर ऐसे ही एक यूजर ने लिखा कि ‘हिन्दुस्तान के सरजमीं पर शेरे इस्लाम मुजाहिद तुर्की के राष्ट्रपति तैयब एर्दोआन के कदम पड़ें तो भारत के मुसलमान उनका स्वागत इस तरह करें कि वो जिंदगी भर ना भूल पायें और उन्हें यह एहसास हो कि भारत का मुसलमान अपने वक्त के हालात की वजह से मजबूर जरूर है पर जुल्म के खिलाफ लड़ने वाले रहनुमा के साथ खड़ा है.’ एर्दोआन के एक दूसरे दीवाने ने लिखा कि ‘मुसलमानों को अमीरुल मोमिनीन (मुसलमानों के खलीफा) के जरूरत को समझना चाहिये,तुर्क (एर्दोआन) में यह क्षमता है.’ एर्दोआन की शान में कसीदे पढ़ने वाले वही लोग हैं जो अपने देश मे धर्मनिरपेक्षता खत्म होने असहिष्णुता बढ़ने की शिकायत करते हैं और मोदी-योगी मार्का नफरत और तानाशाही की राजनीति से आहत होते हैं. एर्दोआन से मुहब्बत और मोदी-योगी से नफरत यही इनकी धर्मनिरपेक्षता का सार है, यह सुविधा का सेकुलरिज्म है. आप एकसाथ दो नावों की सवारी नहीं कर सकते. असली धर्मनिरपेक्षता एर्दोआन और मोदी दोनों की राजनीति का विरोध करना है. तुर्की की एक और कहावत है “आप ज्वाला से आग नहीं बुझा सकते”. बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्रवाद का मुकाबला आप खलीफा एर्दोआन से नहीं कर सकते हैं. इसके मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति ही खड़ी हो सकती है वो भी बिना किसी सुविधायुक्त मक्कारी के. 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देशभक्ति का प्रमाण तो नहीं, वंदे मातरम कहना.. योगेश भट्ट शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने आजादी और व्यवस्था परिवर्तन के मायने स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा था, जिसका लब्बोलुआब यह था कि, आजादी और व्यवस्था परिवर्तन का कतई यह मतलब नहीं है कि देश की बागडोर अंग्रेजों के हाथों से छिटक कर भारतीय नेताओं के हाथों में आ जाए, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन से तात्पर्य समूची मानव जाति के उत्थान से है। शहीद भगत सिंह मानते थे कि देशवासियों की असली लड़ाई आजादी के बाद शुरू होगी, जब उन्हें देशहित के लिए अपनी सरकार से लड़ना होगा। उनका मानना था कि यही असल ‘देशभक्ति’ होगी। जब शहीदे आजम ने ये विचार रखे थे, तब उन्होंने शायद ही कल्पना की होगी कि आजादी के बाद देश में देशभक्ति के नाम पर किस-किस तरह के प्रपंच रचे जाएंगे। वर्तमान दौर की बात करें तो इन दिनों हमारे देश में नारों के जरिए राष्ट्रवाद को तौला जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर तरह-तरह के नारे गढ रहे लोगों के बीच खुद को महा देशभक्त साबित करने की होड़ मची है। इसके साथ ही इन नारों का अनुसरण न करने वालों को देशद्रोही करार दिए जाने का चलन भी जोरों पर है। राष्ट्रवाद ��र राष्ट्रद्रोह के नाम पर चल रहे इस ‘खेल’ से अभी तक अपना प्रदेश बाहर ही था, लेकिन पहली बार मंत्री बने धन सिंह रावत के एक बयान ने लगता है उत्तराखंड को भी इस खेल में झोंकने की तैयारी कर दी है। दो दिन पहले एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि, जो भी उत्तराखंड में रहेगा, उसे ‘वंदे मातरम’ कहना होगा। सवाल यह है कि आखिर वे इस बयान के जरिए क्या साबित करना चाहते हैं? क्या वे वंदे मातरम कहलवाकर उत्तराखंड वासियों की देशभक्ति की परीक्षा लेना चाहते है? क्या उन्हें इस प्रदेश की देशभक्ति पर शंका है? क्या वे नहीं जानते कि सैन्य बाहुल्य वाला उत्तराखंड आज से नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के दौर से ही अपनी देशभक्ति के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। क्या उन्हें वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के शौर्य और सिपाही गबर सिंह व दरबान सिंह के पराक्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं? और सवाल यह भी है कि क्या वंदे मातरम कहने भर से ही कोई भी व्यक्ति देशभक्त मान लिया जाना चाहिए, भले ही वह कितना ही बड़ा भ्रष्टाचारी क्यों न हो ? उत्तराखंड में रहने के लिए वंदे मातरम कहने की शर्त जारी करने के बजाय क्या यह अच्छा नहीं होता कि मंत्री जी यह कहते कि, जिसे उत्तराखंड में रहना है, उसे हर तरह का भ्रष्टाचार छोड़ना होगा, हर तरह की अराजकता त्यागनी होगी और पूरी सत्यनिष्ठा के साथ प्रदेश के विकास में अपना योगदान देना होगा। ऐसा नहीं है कि वंदे मातरम कहना कोई गलत बात है। निसंदेह वंदे मातरम की अपनी महत्ता है। गुलामी के दौर में आजादी के परवानों के लिए इस नारे के मायने बेहद पवित्र थे। तब इस नारे के नाद में इतनी ताकत होती थी कि देशभर में लोगों का हुजूम सड़क पर उतर जाता था। लेकिन आजादी के बाद हमारे राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, सामाजिक संगठनों तथा तमाम जिम्मेदार लोगों ने इस नारे की आड़ में देशहित के साथ कितना खिलवाड़ किया यह बताने की जरूरत नहीं है। आजादी के इतने सालों के बाद भी देश की व्यवस्था पटरी पर नहीं आ सकी है तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि जिम्मेदार लोग व्यवस्था परिवर्तन की पहल करने के बजाय खुद को देशभक्त दिखाने साबित करने के प्रपंच ही रचते रहे। बहरहाल उत्तराखंड की बात करें तो, आज जब प्रदेश में पहली बार किसी पार्टी को इतना बड़ा बहुमत मिला है तो उम्मीद की जा रही है कि सरकार बिना किसी डर और दबाव के राज्य हित में बड़े-बड़े फैसले लेगी। लेकिन अफसोस है कि यहां भी व्यवस्था परिवर्तन के बजाय देशभक्ति का प्रमाणपत्र जारी करने की परिपाटी शुरू होती दिख रही है।
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कन्हैया फिर कंस का वध न कर दें, मनुस्मृति इसीलिए बच्चों को जहर देने लगी है
कोई कन्हैया फिर कंस का वध न कर दें, मनुस्मृति इसीलिए बच्चों को जहर देने लगी है #shutdownjnu , #RIPDemocracy , #IStandWithKanhaiya ,
कोई कन्हैया फिर कंस का वध न कर दें, आशंका यही है, मनुस्मृति इसीलिए बच्चों को जहर देने लगी है
[button-red url=”#” target=”_self” position=”left”]पलाश विश्वास[/button-red]
अब इरोम को मार ही दें। ताकि मातृतांत्रिक मणिपुर के लिए किसी को नारे लगाने की जुर्रत न हो।
साफ कर दूं कि कोई इरोम शर्मिला मणिपुर में सशस्त्र सैन्य शासन के खिलाफ आजादी की मांग करती हुई पिछले चौदह साल से आमरण अनशन पर हैं और उन्हें…
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