#कल्पित
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कलयुग की कल्पना
कनक कटाक्ष कंगन सी, कोमल सी तेरी काया,
कादम्बनी के कलम से कल्पित तेरी काया ।
कंकर कंकर डाल काग ने, शिक्षक का स्वांग रचाया,
काल का रहस्य जानकर, समय का चक्कर लगाया ।
कर्ण में माँ कुंती कण कण में थी,
किंतु कुरुक्षेत्र की कहानी में एक अनकही अनबन भी थी ||
कपीश किशन के कानुश अर्जुन ही थे,
किंतु कौरव के साथ खड़े इस कौनतय के लिए कानून कुछ अलग थे |।
कब, क्यों, कौन, कहा और कैसे हर कहानी किशन के कनवी में कंठित थी ||
कर्म की कुंजी हो या धर्म की पूंजी,
चंद्रमा के कुरपता का राज़ को या काले पथ पर बिछा कांच हो,
हर कथा उन कृष्ण नैनो में अंकित थी ||
काम की कामना, ख्याति की वासना,
किरण्या की काशविनी में नाचना, यही तो है, इस कलयुग की विडंबना |
नारी का तिरस्कार, पुरुषो के अधिकारों का बहिष्कार,
पूज्य है तो केवल अंधकार,
तू नग्नता जानता है, तो तू ��ै बहुत बड़ा कलाकार,
यह कलयुग है मेरे दोस्त,
निरर्थक – निराकार |
– अय्यारी
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#GodMorningFriday
🪴__ सत् भक्ति संदेश __ 🪴
परमेश्वर अपरमपार अथाह यानी समन्दर की तरह अमित शक्ति संपन्न है। तत्वज्ञान के अभाव से प्रत्येक ऋषि-देव अपने उर (हृदय) में किरतम यानी कृत्रिम (मन कल्पित) ख्याल (विचार) से मौला (परमात्मा) अलख अल्लाह (निराकार-दिखाई न देने वाला) मानते हैं।
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#मेरे_अज़ीज़_हिंदुओं_स्वयं_पढ़ो_अपने_ग्रंथ
#SantRampalJiMaharaj
कृपया हिन्दू भाई गीता जी स्वयं पढ़ें व विचार करें।
आज आपको छणिक सुख और मानसिक शांति के लिए गुरुओं और पंथों द्वारा ध्यान (मैडिटेशन) कराया जा रहा है जो शास्त्र विरुद्ध है आप स्वयं देखिए प्रमाण-
गीता अध्याय 17 श्लोक 5 - 6 में इस प्रकार कहा है:- जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित यानि शास्त्रविधि को त्यागकर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में प्राणियों व कमल चक्रों में विराजमान शक्तियों को तथा हृदय में स्थित मुझको भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव के जान।
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कृपया हिन्दू भाई गीता जी स्वयं पढ़ें व विचार करें।
आज आपको छणिक सुख और मानसिक शांति के लिए गुरुओं और पंथों द्वारा ध्यान (मैडिटेशन) कराया जा रहा है जो शास्त्र विरुद्ध है आप स्वयं देखिए प्रमाण-
गीता अध्याय 17 श्लोक 5 - 6 में इस प्रकार कहा है:- जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित यानि शास्त्रविधि को त्यागकर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में प्राणियों व कमल चक्रों में विराजमान शक्तियों को तथा हृदय में स्थित मुझको भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव के जान।
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#हे_मेरी_कौम_के_हिंदुओं
#SantRampalJiMaharaj
#हिन्दू_भाई_संभलो
���मारी भी तो सुनो, हे बुद्धिमान हिन्दुओं! और संभल जाओ।
आज आपको छणिक सुख और मानसिक शांति के लिए गुरुओं और पंथों द्वारा ध्यान (मैडिटेशन) कराया जा रहा है जो शास्त्र विरुद्ध है आप स्वयं देखिए प्रमाण-
गीता अध्याय 17 श्लोक 5 - 6 में इस प्रकार कहा है:- जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित यानि शास्त्रविधि को त्यागकर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में प्राणियों व कमल चक्रों में विराजमान शक्तियों को तथा हृदय में स्थित मुझको भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव के जान।
#HinduBhai_Dhokhe_Mein
#Hindu #Hinduism #HinduTemple #rammandir #Hindiquotes #Sanatani #SanatanDharma #ramayana
#SantRampalJiMaharaj
#BhagavadGita
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 2.55 https://srimadbhagavadgita.in/2/55 श्रीभगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ २.५५ ॥ TRANSLATION श्रीभगवान् ने कहा – हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है । PURPORT श्रीमद्भागवत में पुष्टि हुई है कि जो मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या भगवद्भक्त होता है उसमें महर्षियों के समस्त सद्गुण पाए जाते हैं, किन्तु जो व्यक्ति अध्यात्म में स्थित नहीं होता उसमें एक भी योग्यता नहीं होती क्योंकि वह अपने मनोधर्म पर ही आश्रित रहता है । फलतः यहाँ यह ठीक ही कहा गया है कि व्यक्ति को मनोधर्म द्वारा कल्पित सारी विषय-वासनाओं को त्यागना होता है । कृत्रिम साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं । किन्तु यदि कोई कृष्णभावनामृत में लगा हो तो सारी विषय-वासनाएँ स्वतः बिना किसी प्रयास के दब जाती हैं । अतः मनुष्य को बिना किसी झिझक के कृष्णभावनामृत में लगना होगा क्योंकि यह भक्ति उसे दिव्य चेतना प्राप्त करने में सहायक होगी । अत्यधिक उन्नत जीवात्मा (महात्मा) अपने आपको परमेश्र्वर का शाश्र्वत दास मानकर आत्मतुष्ट रहता है । ऐसे आध्यात्मिक पुरुष के पास भौतिकता से उत्पन्न भी विषय-वासना फटक नहीं पाती । वह अपने को निरन्तर भगवान् का सेवक मानते हुए सहज रूप में सदैव प्रसन्न रहता है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.55 śrī-bhagavān uvāca prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha mano-gatān ātmany evātmanā tuṣṭaḥ sthita-prajñas tadocyate TRANSLATION The Supreme Personality of Godhead said: O Pārtha, when a man gives up all varieties of desire for sense gratification, which arise from mental concoction, and when his mind, thus purified, finds satisfaction in the self alone, then he is said to be in pure transcendental consciousness. PURPORT The Bhāgavatam affirms that any person who is fully in Kṛṣṇa consciousness, or devotional service of the Lord, has all the good qualities of the great sages, whereas a person who is not so transcendentally situated has no good qualifications, because he is sure to be taking refuge in his own mental concoctions. Consequently, it is rightly said herein that one has to give up all kinds of sense desire manufactured by mental concoction. Artificially, such sense desires cannot be stopped. But if one is engaged in Kṛṣṇa consciousness, then, automatically, sense desires subside without extraneous efforts. Therefore, one has to engage himself in Kṛṣṇa consciousness without hesitation, for this devotional service will instantly help one onto the platform of transcendental consciousness. The highly developed soul always remains satisfied in himself by realizing himself as the eternal servitor of the Supreme Lord. Such a transcendentally situated person has no sense desires resulting from petty materialism; rather, he remains always happy in his natural position of eternally serving the Supreme Lord. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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#WednesdayMotivation
कबीर साहब जी कहते है कि आज या कल मे 5 बरस मे या पांच युगो मे जब भी कभी भी इस संसार सागर से साधु ही पार उतारेंगे बाकी सब कल्पित मान्यताएं एवं मिथ्या प्रपंच है अर्थात जीवन उद्धार का एकमात्र उपाय केवल साधु संत ही है
अधिक जानकारी के लिए पढ़े पवित्र पुस्तक ज्ञान गंगा
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कबीर, आज काल दिन पांच में, बरस पांच जुग पंच।
जब तब साधु तारसी, और सकल परपंच ।।
#GodMorningSunday
कबीर साहेब जी कहते हैं कि आज या कल में, पांच बरस में या पांच युगों में जब भी - कभी भी इस संसार-सागर से साधु ही पार उतारेंगे। बाकी सब कल्पित मान्यताएं एवं मिथ्या प्रपंच हैं, अर्थात जीवन उद्धार का एकमात्र उपाय केवल साधु-संत ही हैं।
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कबीर, आज काल दिन पांच में, बरस पांच जुग पंच।
जब तब साधु तारसी, और सकल परपंच।।
कबीर साहेब जी कहते हैं कि आज या कल में, पांच बरस में या पांच युगों में जब भी - कभी भी इस संसार-सागर से साधु ही पार उतारेंगे। बाकी सब कल्पित मान्यताएं एवं मिथ्या प्रपंच हैं, अर्थात जीवन उद्धार का एकमात्र उपाय केवल साधु-संत ही हैं।
#SatlokAshramMundka
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कनक कटाक्ष कंगन सी,
कोमल सी तेरी काया,
किंतु
कादम्बनी के कलम से कल्पित तेरी काया ।
कंकर कंकर डाल काग ने,
शिक्षक का स्वांग रचाया,
काल का रहस्य जानकर,
समय का चक्कर लगाया ।
कर्ण में माँ कुंती कण कण में थी,
किंतु कुरुक्षेत्र की कहानी में एक अनकही अनबन भी थी ||
कपीश किशन के कानुश अर्जुन ही थे,
किंतु कौरव के साथ खड़े ,
इस कौनतय के लिए कानून कुछ अलग थे |।
कब, क्यों, कौन, कहा और कैसे
हर कहानी किशन के कनवी में कंठित थी ||
कर्म की कुंजी हो या धर्म की पूंजी,
चंद्रमा के कुरपता का राज़ को या
काले पथ पर बिछा कांच हो,
हर कथा उन कृष्ण नैनो में अंकित थी ||
काम की कामना, ख्याति की वासना,
किरण्या की काशविनी में नाचना,
यही तो है, इस कलयुग की विडंबना |
नारी का तिरस्कार, पुरुषो के अधिकारों का बहिष्कार,
पूज्य है तो केवल अंधकार,
तू नग्नता जानता है, तो तू है बहुत बड़ा कलाकार,
यह कलयुग है मेरे दोस्त,
निरर्थक – निराकार |
– अय्यारी
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175 आत्मज्ञान
175 आत्मज्ञानपरमात्मा प्राप्ति माने क्या?बहुत ध्यान से समझें। परमात्मा, आत्मस्वरूप, अपनाआपा, ज्ञान, स्वयंप्रकाश, ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। परमात्मा तो अपनाआपा है, वह कहीं खोया नहीं, खो सकता ही नहीं, वह तो विस्मृत हो गया है, तो उसे “पाना” कोरा विचार ही है, असल में उसका याद आ जाना ही उसे पा जाना है।अब वह जिस रास्ते से भूला है, उसी रास्ते को पलटकर याद आ जाएगा। तो अपनाआपा में कल्पित जगत में, सत्य…
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart23 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart24
"देवताओं की पूजा का लाभ"
* पढ़ते हैं पवित्र श्रीमद्भगवत गीता से अध्याय 17 श्लोक 1-6 :-
श्लोक 1 :- इस श्लोक में अर्जुन ने गीता ज्ञान देने वाले प्रभु से प्रश्न किया कि :-
> हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्विक है अथवा राजसी या तामसी ? (गीता अध्याय 17 श्लोक 1)
इसका उत्तर श्लोक 2-6 तक दिया है। गीता ज्ञान दाता प्रभु का उत्तर :-
> संक्षिप्त में इस प्रकार है: मनुष्यों की श्रद्धा उनके पूर्व जन्म के संस्कार अनुसार सात्विक, राजसी तथा तामसी होती है। (गीता अध्या��� 17 श्लोक 2) > हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह स्वयं भी वही है यानि वैसे ही स्वभाव का है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 3) > शास्त्र विरूद्ध साधना करने वाले सात्विक पुरूष देवों को पूजते हैं। राजस पुरूष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। (गीता अध्याय 17 श्लोक 4) > हे अर्जुन! जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित (केवल मनमाना / मन कल्पित) घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। (गीता अध्याय 17 श्लोक 5) > तथा जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को तथा अंतःकरण में स्थित मुझ को (गीता ज्ञान दाता प्रभु को) भी कृश करने वाले हैं यानि कष्ट पहुँचाते हैं। उन अज्ञानियों को तू असुर स्वभाव वाले जान। (गीता अध्याय 17 श्लोक 6)
यही प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 में भी है। कहा है कि :-
> श्लोक 17 :- वे अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरूष धन और मान के म�� से युक्त केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित यजन (पूजन) करते हैं। (गीता 16 श्लोक 17)
> श्लोक 18 :- अहंकार, बल, घमण्ड, क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरूष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ से (गीता ज्ञान दाता से) द्वेष करने वाले होते हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 18)
> श्लोक 19:- उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी, नराधमों को (नीच मनुष्यों को) मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ। (गीता अध्याय 16 श्लोक 19)
> श्लोक 20:- हे अर्जुन! वे मूढ़ (मूर्ख) मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं। फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं यानि घोर नरक में गिरते हैं।
* उपरोक्त श्रीमद्भगवत गीता के श्लोकों का निष्कर्ष :-
गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा है कि हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं। वे स्वभाव से कैसे होते हैं? अर्जुन ने गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 में पहले सुना था कि तीनों गुणों यानि त्रिगुणमयी माया अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी आदि देवताओं को पूजने वाले उन्हीं तक सीमित हैं। उनकी बुद्धि उनसे ऊपर मुझ गीता ज्ञान दाता की भक्ति तक नहीं जाती। जिनका ज्ञान इस त्रिगुणमयी माया द्वारा हरा जा चुका है, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मेरी भक्ति नहीं करते।
* गीता अध्याय 7 श्लोक 20-23 में इस प्रकार कहा है :- इनमें श्लोक 12-15 को फिर दोहराया है। कहा है कि उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है। वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके यानि लोकवेद, दंत कथाओं के आधार से अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं। जो गीता में निषेध है कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी व अन्य देवी-देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। वे लोक वेद के आधार से किसी से सुनकर देवताओं को भजते हैं। वे देवताओं की पूजा शास्त्रविधि रहित यानि मनमाना आचरण करते हैं जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ साधना बताया है। उसी के विषय में गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि हे कृष्ण! जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से अन्य देवताओं का पूजन करते हैं। उनकी निष्ठा कैसी है यानि उनकी स्थिति राजसी है या सात्विक है या तामसी है?
भावार्थ है कि जो श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण व अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। वह पूजा है तो शास्त्रविधि रहित, परंतु जो अन्य देवताओं की जो न करने योग्य (अकर्तव्य) पूजा करते हैं, वे स्वभाव से कैसे होते हैं?
* गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 17 श्लोक 2-6 में ऊपर स्पष्ट कर दिया है कि जो सात्विक श्रद्धा वाले यानि अच्छे इंसान हैं, वे तो केवल देवताओं की पूजा करते हैं। अन्य जो राजसी स्वभाव के हैं, वे राक्षसों व यक्षों की पूजा करते हैं। जो तामसी श्रद्धामय यानि स्वभाव के हैं, वे प्रेत और भूतों की पूजा करते हैं। ध्यान रहे कि श्राद्ध करना, पिंडदान करना, अस्थियों को गंगा में ��ंडित द्वारा जल प्रवाह करने की क्रिया, तेरहवीं क्रिया, वर्षी क्रिया, ये सब कर्मकांड कहलाता है जो गीता में निषेध बताया है। वेदों में इसे मूर्ख साधना कहा है। प्रमाण मार्कण्डेय पुराण में "रौच्य ऋषि की उत्पत्ति" अध्याय में रूचि ऋषि ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकांत में रहकर वेदों अनुसार भक्ति की। जब वे 40 वर्ष के हो गए तो उसके पूर्वज आकाश में दिखाई दिए। वे रूचि ऋषि से बोले (पिता जी, दादा जी, दूसरा दादा जी, तीसरा दादा जी जो ब्राह्मण यानि ऋषि थे। वे कर्मकांड किया करते थे। जिस कारण से उनकी गति नहीं हुई। वे प्रेत-पित्तर योनि में कष्ट उठा रहे थे। उन्होंने शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करके जीवन नष्ट किया था, महादुःखी थे। उन्होंने रूचि ऋषि से कहा) बेटा! तूने विवाह क्यों नहीं कराया। हमारे श्राद्ध आदि क्रिया यानि कर्मकांड क्यों नहीं किया? रूचि ऋषि ने उत्तर दिया कि हे पितामहो! वेदों में कर्मकांड को अविद्या (मूर्ख साधना) कहा है। फिर आप मुझे क्यों ऐसा करने को कह रहे हो। पित्तर बोले, बेटा रूचि ! यह सत्य है कि कर्मकांड को वेदों में अविद्या कहा है। आप जो साधना कर रहे हो। यह मोक्ष मार्ग है। हम महाकष्ट में हैं। हमारी गति कर यानि विवाह करवा। हमारे पिंडदान आदि कर्म करके भूत जूनी से पीछा छुड़ा। वे स्वयं तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करके कर्मकांड करके प्रेत बने थे। अपने बच्चे रूचि को (जो शास्त्रोक्त भक्ति कर रहा था) सत्य साधना छुड़वाकर नरक का भागी बना दिया। रूचि ऋषि ने विवाह कराया। फिर कर्मकांड किया। फिर वह भी भूत बना। पिंडदान करने से भूत जूनी छूट जाती है। उसके बाद जीव पशु-पक्षी आदि की योनि प्राप्त करता है। क्या खाक गति कराई?
सूक्ष्मवेद में कहा है कि :-
गरीब, भूत योनि छूटत है, पिंड प्रदान करत । गरीबदास जिंदा कह नहीं मिले भगवंत ।।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने सूक्ष्मवेद में बताया है कि पिंड दान करने से भूत योनि छूट जाती है। परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। भूत-पित्तर योनि छूट गई। फिर कुत्ता या गधा बन गया। क्या खाक गति हुई?
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में भी स्पष्ट है।
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 :- देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पित्तरों को पूजने वाले पित्तरों को प्राप्त होते हैं। भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं यानि भूत बनते हैं। मेरा (गीता ज्ञान दाता का) पूजन करने वाले मुझको प्राप्त होते हैं। इसलिए शास्त्र विधि अनुसार भक्ति करना लाभदायक है। ऐसा करो।}
* गीता अध्याय 17 के ही श्लोक 5-6 में स्पष्ट कर दिया है कि जो शास्त्रविधि से रहित मनमाना आचरण करते हुए घोर तप को तपते हैं। ये तथा उपरोक्त अन्य देवताओं यानि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने वाले भूत व प्रेत पूजा (श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड करना भूत व प्रेत पूजा है) करते हैं तथा जो यक्ष व राक्षसों की पूजा करते हैं। वे शरीर में स्थित भूतगणों (जो कमलों में विराजमान शक्तियाँ हैं, उनको) और अंतःकरण में स्थित मुझको (गीता ज्ञान दाता को) कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को असुर स्वभाव ��े जान। गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 में आप जी ने इसी विषय को पढ़ा। कहा है कि जो शास्त्रविधि रहित पूजन करते हैं, वे अपने शरीर में तथा दूसरों के शरीर में स्थित मुझ (गीता ज्ञान दाता) से द्वेष करने वाले हैं क्योंकि वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। (गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म की पूजा नहीं करते। इसलिए द्वेष करने वाले कहा है।) उन द्वेष करने वाले यानि श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण जो काल ब्रह्म की तीन प्रधान शक्तियाँ हैं तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने वाले पापाचारी, क्रूरकर्मी, नराधमों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में डालता हूँ। (गीता अध्याय 16 श्लोक 17-19)
* गीता अध्याय 16 श्लोक 20 में कहा है कि हे अर्जुन! वे मूढ़ (मूर्ख) मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं। फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं यानि घोर नरक में गिरते हैं। •
* विशेष :- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि रजगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति, सतगुण विष्णु जी से स्थिति तथा तमगुण शिव जी से संहार होता है। यह सब मेरे लिए है। मेरा आहार बनता रहे। गीता ज्ञान दाता काल है जो स्वयं गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में अपने को काल कहता है। यह श्रापवश एक लाख मानव को प्रतिदिन खाता है। इसलिए कहा है कि जो रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी से हो रहा है। उसका निमित मैं हूँ। परंतु मैं इनसे (ब्रह्मा, विष्णु, महेश से) भिन्न हूँ।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के ��ंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart-1
Part1 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart-2
"सनातनी पूजा का अंत"
गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 में स्पष्ट किया है कि हे अर्जुन! यह योग यानि गीता वाला अर्थात् चारों वेदों वाला ज्ञान मैंने सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा । मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकू को कहा। इसके पश्चात् यह ज्ञान कुछ राज ऋषियों ने समझा । उसके पश्चात यह ज्ञान (नष्टः) नष्ट हो गया यानि लुप्त हो गया ।
जैन संस्कृति कोष नामक पुस्तक में पृष्ठ 175-177 पर कहा है कि :- तीर्थंकर ऋषभदेव की जीवन घटनाएँ: तीर्थकर ऋषभदेव अंतिम कुलकर नाभिराज के पुत्र थे। उनकी माता मरूदेवी थी। वे इक्ष्वाकूवंशी नाभिराज अयोध्या के एक लोकप्रिय राजा थे। तरूण होने पर नाभिराज ने ऋषभदेव का विवाह सुनंदा और सुमंगला से कर दिया। सुनंदा ने तेजस्वी पुत्र बाहुबली और पुत्री सुंदरी को जन्म दिया और सुमंगला ने भरत सहित 99 पुत्र और ब्राह्मी पुत्री को जन्म दिया।
समय आने पर ऋषभदेव ने भरत को अयोध्या का बाहुबली को तक्षशिला का और शेष युवराजों को उनकी योग्यतानुसार राज्य सौंपकर संसार त्याग दिया और दीक्षा लेकर साधना में लीन हो गये। साधना काल में पाणि पात्री ऋषभदेव एक वर्ष तक निराहार रहे। बाद में बाहुबली के पौत्र श्रेयांस कुमार ने इक्षुरस देकर उनकी इस निराहार-वृत्ति को तोड़ा। लगातार एक हजार वर्ष तक तपस्या करने वाले मुनि ऋषभदेव ने अंत में केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्मदेशना प्रारंभ की। प्रथम धर्मदेशना भरत के पुत्र मरीचि को दी जो बाद में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर महावीर वर्धमान बने।
* पवित्र गीता में क्या कहा है? कृपया पढ़ें व विचार करें।
गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में कहा है कि हे अर्जुन! यह योग यानि भक्ति / साधना न तो बिल्कुल न खाने वाले की सिद्ध होती है, न अधिक खाने वाले की, न अधिक सोने वाले की, न अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है।
ध्यान देने योग्य :- श्री ऋषभदेव जी ने गीता ज्ञान यानि वेदों, शास्त्रों में बताई साधना के विपरीत शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण अपनी इच्छा से किया जिससे कोई लाभ नहीं हुआ, न होना था ।
अन्य ��्रमाण :- गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में इस प्रकार कहा है : जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित यानि शास्त्रविधि को त्यागकर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में प्राणियों व कमल चक्रों में विराजमान शक्तियों को तथा हृदय में स्थित मुझको भी कश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव के जान ।
उपरोक्त गीता शास्त्र के उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि इक्ष्वाकू वंशी नाभि राज तक यानि सत्ययुग में लगभग एक लाख वर्ष तक वेदों यानि गीता वाले ज्ञानानुसार पूजा की जाती थी उसके पुत्र ऋषभदेव जी से शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण प्रारंभ हुआ। सनातनी पूजा का अंत हुआ। श्री ऋषभदेव जी की पूजा यानि घोर तप करना वेदोक्त साधना नहीं है। इसलिए ऋषभदेव जी की भक्ति शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण था जिससे उनका जीवन नष्ट हो गया था। मोक्ष नहीं हुआ। प्रमाण श्रीमद्भागवत सुधा सागर (सुख सागर) पुराण में इस प्रकार है :-
एक समय ऋषभदेव जी मुख में पत्थर का टुकड़ा लेकर नग्नावस्था में वन में घूम रहे थे। जंगल में आग लग गई। उस दावानल में ऋषभदेव जी जलकर मर गए। (यह पौराणिक कथा है।) क्या यह गति यानि मुक्ति हो गई? उसी समय से यह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण सब ऋषिजन करने लगे। प्रमाण के लिए किसी भी पुराण को पढ़ो। लिखा है कि उस ऋषि ने इतने वर्ष घोर तप किया, उसने इतने वर्ष तप किया आदि। फिर वे शास्त्रविधि विरुद्ध साधक ऋषिजन अपना-अपना अनुभव जो शास्त्र विरुद्ध साधना से हुआ, उसका कथन करने लगे। अन्य ऋषिजन एक-दूसरे की सुनकर आगे उन्हीं शास्त्रों के विपरीत ज्ञान को सुनाने लगे जिनसे अठारह पुराण बन गए। पुराण ऋषियों के अनुभव की देन हैं जिनमें सारा का सारा ज्��ान वेदों व गीता के विपरीत है। [श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी ने भी घोर तप किया जो गीता शास्त्र के विपरीत मनमानी साधना है । ]
वर्तमान में सनातन धर्म का नाम वैदिक धर्म तथा हिन्दू धर्म भी प्रसिद्ध है। आदि शंकराचार्य जी ने देवी-देवताओं की पूजा का विधान बताया और पुराणों के ज्ञान को सनातन धर्म यानि हिन्दू धर्म में दृढ़ता के साथ प्रवेश कर दिया।
गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 को फिर पढ़ते हैं जिनमें गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन से कहा है कि मैंने इस योग को यानि गीता वाले वेद ज्ञान को ( क्योंकि श्रीमद्भगवत गीता चारों वेदों का सार है यानि संक्षिप्त रूप है। इस तथ्य को पूरा हिन्दू समाज मानता है ।) सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत यानि मनु से कहा, और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकू से कहा । (गीता अध्याय 4 श्लोक 1 )
हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को यानि गीता उर्फ वेद ज्ञान को राज ऋषियों ने जाना। किंतु उसके बाद वह योग (वेद ज्ञान ) बहुत समय से इस पृथ्वी लोक में नष्ट हो गया यानि लुप्त हो गया । (गीता अध्याय 4 श्लोक 2)
[ ध्यान दें तो श्लोक 2 के मूल पाठ में "नष्टः " शब्द है जिसका अर्थ नष्ट हो गया सटीक अर्थ है ] राजा नाभी राज तक सत्ययुग लगभग एक लाख वर्ष व्यतीत हो गया था। गीता का ज्ञान द्वापर के अंत में यानि कलयुग से लगभग 100 वर्ष पहले बोला गया था। गणित की रीति से नाभी राज के बाद यह गीता का ज्ञान 37 लाख 87 हजार 900 वर्ष बाद बोला गया। इस दौरान सब ऋषियों ने वेदों के विपरीत साधना की, जिसका प्रमाण तथा परिणाम 18 पुराण है। पुराणों में कोई भी ��ाधना गीता यानि वेदों के अनुसार नहीं है। यहाँ केवल दो शब्द लिख रहा हूँ ताकि बुद्धिमान संकेत समझें । विस्तार से इस पुस्तक में आगे लिखा है।
प्रमाण गीता के विपरीत साधना का :- गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में कहा है कि जो पित्तर पूजता है, पित्तरों को प्राप्त होगा यानि पित्तर बनेगा । भूत पूजने वाला भूतों को प्राप्त होगा यानि भूत बनेगा। देवताओं को पूजने वाला, देवताओं को प्राप्त होगा यानि देवताओं के पास जाएगा। मेरा भक्त मुझे प्राप्त होगा।
यदि पवित्र हिन्दू धर्म की पूजाओं पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि लगभग पूरा हिन्दू समाज पित्तर पूजा, भूत पूजा, देवी-देवताओं की पूजा करता है जो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण होने से गीता अध्याय 16 श्लोक 23 के अनुसार व्यर्थ प्रयत्न है।
सनातनी पूजा का पुनः उत्थान में (लेखक) तथा 90% मेरे अनुयाई हिन्दू हैं। हमने शास्त्रविधि रहित साधना त्याग दी है। शास्त्रों को अच्छी तरह पढ़ा व समझा है। उसके पश्चात् शास्त्रोक्त साधना प्रारंभ की है जो सर्व शास्त्रों से प्रमाणित है। वह इस प्रकार है :- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 को भी पढ़ें जिसमें कहा है कि उस ज्ञान को (सूक्ष्मवेद वाले ज्ञान को) तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर प्राप्त कर । विचारणीय विषय यह है कि तत्त्वज्ञान गीता में नहीं है। यदि होता तो गीता ज्ञान देने वाला यह नहीं कहता कि तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संतों से जान । तत्त्वदर्शी संत के अभाव में मानव समाज मनमाना आचरण करके अपना मानव जीवन नष्ट कर रहा है। जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला तत्त्वदर्शी संत मिल जाता है, वह सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान बताता है जिसको सुन-समझकर बुद्धिमान अपनी साधना शास्त्रों के अनुसार करता है जीवन धन्य कर लेता है। एक धर्म (मानव धर्म) बन जाता है।
संत गरीबदास जी {गाँव छुडानी, जिला झज्जर हरियाणा (भारत)} ने अपनी अमृतवाणी में कहा है कि :-
गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर । और ज्ञान मंडलीक है, चकवै ज्ञान कबीर ।।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने कहा है कि सच्चा नाम ऐसा कारगर है जो आत्मा को निर्मल कर देता है। अध्यात्म ज्ञान शरीर के कष्ट भी दूर करता है। कबीर साहेब का अध्यात्म ज्ञान (चकवै) चक्रवर्ती (All rounder) है। अन्य ज्ञान (मंडलीक) क्षेत्रीय यानि लोक वेद है।
संत गरीबदास जी को दस वर्ष की आयु में परमात्मा सर्वोपरि लोक सनातन परम धाम यानि सत्यलोक से आकर गाँव-छुडानी, जिला-झज्जर, हरियाणा में मिले थे। उनकी आत्मा को ऊपर ले गए जहाँ परमात्मा रहता है। प्रमाण :- ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 54 मंत्र 3 में कहा है कि परमेश्वर सबसे ऊपर के लोक में विराजमान है । :-
प्रमाण के लिए देखें यह फोटोकॉपी इस मंत्र की जिसका अनुवाद आर्यसमाज के अनुवादकों ने किया है। इसके प्रकाशक तिलकराज आर्य अध्यक्ष, आर्य प्रकाशन 04. कुण्डेवालान, अजमेरी गेट, दिल्ली हैं तथा मुद्रक अजय प्रिन्टर्स, शाहदरा दिल्ली है :- ( प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 स��क्त 54 मन्त्र 3)
अयं विनिविष्ठ॒ति पुनानोर्वोपरि
सोमों दुबो न सूर्यः ॥ ३॥
पदार्थ : - ( सूर्य न ) सूर्य के समान जगत्प्रेरक (अयम् ) यह परमात्मा ( सोमः देवः ) सौम्य स्वभाव वाला और जगत्प्रकाशक है और (विश्वानि, पुनानः ) सब लोकों को पवित्र करता हुआ ( भुवनोपरि तिष्ठति) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के ऊर्ध्वं भाव में भी वर्तमान है || ३ ||
विवेचन :- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 की फोटोकापी में आप देखें, इसका अनुवाद आर्यसमाज के विद्वानों ने किया है। उनके अनुवाद में भी स्पष्ट है कि वह परमात्मा (भुवनोपरि ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर ( तिष्ठति) विराजमान है, ऊपर बैठा है।
इसका यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है :-
(अयम्) यह (सोमः देव) चन्द्रमा जैसा शीतल अमर परमेश्वर (सूर्य) सूर्य के (न) समान (विश्वानि ) सर्व को ( पुनानः) पवित्र करता हुआ (भुवनोपरि) सर्व ब्रह्माण्डों के ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर ( तिष्ठति ) बैठा है।
भावार्थ:- जैसे सूर्य ऊपर है और अपना प्रकाश तथा उष्णता से सर्व को लाभ दे रहा है। इसी प्रकार यह अमर परमेश्वर जिसका ऊपर के मंत्र में वर्णन किया है, सर्व ब्रह्माण्डों के ऊपर बैठा है।
कबीर परमेश्वर जी ने संत गरीबदास जी को उसी परमेश्वर ने ऊपर ले जाकर पुनः पृथ्वी पर छोड़ा था। उनको मृतक जानकर अंतिम संस्कार के लिए चिता पर रख दिया था। अचानक जीवित हो गया। फिर 51 वर्ष जीवित रहे (कुल 61 वर्ष जीवित रहे) उनको परमात्मा ने सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान (तत्त्वज्ञान यानि सूक्ष्मवेद) बताया। उनका ज्ञान योग खोल दिया। उसके पश्चात् संत गरीबदास जी ने बताया कि कुल का मालिक एक है। वह परम अक्षर ब्रह्म यानि सत्यपुरूष है। विश्व के सब प्राणी उसी के बच्चे हैं। वर्तमान के धर्मगुरूओं ने धर्म की दीवारें भ्रम के कारण खड़ी कर रखी हैं।
गरीब, वही मुहम्मद वही महादेव, वही आदम वहीं ब्रह्मा । गरीबदास दूसरा कोई नहीं, देख आपने घरमा ।।
अर्थात् संत गरीबदास जी ने कहा है कि हजरत मुहम्मद जी शिव लोक से आई आत्मा थे। इसलिए मुसलमान धर्म का प्रवर्तक भी परमात्मा शिव की खास आत्मा है। बाबा आदम के विषय में कहा जाता है कि ये ब्रह्मा जी के लोक से नीचे आए थे। इसलिए ब्रह्मा जी व आदम जी का मूल निवास स्थान एक ही है। यदि मेरी बात पर विश्वास नहीं होता है तो अपने घर यानि शरीर रूपी महल में मेरी बताई साधना करके देखो, आपकी दिव्य दृष्टि खुल जाएगी। फिर आपको विश्वास हो जाएगा कि विश्व के सर्व मानव एक परम पिता की संतान हैं।
विचार करो :- मुसलमान धर्म की शुरूआत (Starting) हजरत ईशा जी के जन्म से लगभग 450 वर्ष पश्च��त् हुई।
आदि शंकराचार्य जी का जन्म ईशा जी से 508 वर्ष पूर्व हुआ जिसने सनातन धर्म (पंथ) को हिन्दू नाम भी दिया मूर्ति पूजा, देवी-देवताओं की पूजा पर आधारित किया। सनातन धर्म सत्ययुग से चला आ रहा है। इस���िए हजरत ईशा जी, हजरत मूसा जी, हजरत आदम जी तथा हजरत मुहम्मद जी के जीव पहले सनातनी थे। इसलिए विश्व के सब प्राणी एक परमात्मा के बच्चे हैं। एक परमेश्वर के अंश है।
मेरा ( रामपाल दास का) विचार यह है कि :-
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म नहीं कोई न्यारा ।। अध्यात्म ज्ञान-विज्ञान से सिद्ध करता हूँ कि विश्व के प्राणी एक परमात्मा
के बच्चे हैं जो उस अपने पिता के पास जाने के लिए इच्छुक हैं। उसी के पास जाने के लिए भिन्न-भिन्न भक्ति के उपाय कर रहे हैं। अब संत
गरीबदास जी की वाणी के आधार से विश्व के मानव की एकता को जानते हैं संत गरीबदास जी की उपरोक्त वाणी का भावार्थ है कि विश्व के सब मानव (स्त्री-पुरूष) के शरीर की संरचना एक समान है। प्रत्येक मानव ( स्त्री-पुरूष) के शरीर में कमल दल यानि कमल चक्र बने हैं। मानव शरीर में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। मोक्ष प्राप्ति यानि उस लोक में जाने का एक ही मार्ग है, जिसमें परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) निवास करता है। वह स्थान वह परमपद है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णन है। कहा है कि :- तत्त्वज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् "परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूप वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिसने सृष्टि की उत्पत्ति की है। जो सबका धारण-पोषण करने वाला है, उसकी भक्ति करो।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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#GodMornimgSaturday
परमेश्वर अपरमपार अथाह यानी समन्दर की तरह अमित शक्ति संपन्न है। तत्वज्ञान के अभाव से प्रत्येक ऋषि-देव अपने उर (हृदय) में किरतम यानी कृत्रिम (मन कल्पित) ख्याल (विचार) से मौला (परमात्मा) अलख अल्लाह (निराकार-दिखाई न देने वाला) मानते हैं।
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गरीब, ऐसा राम अगाध है, अपरंपार अथाह । उरमें किरतम ख्याल है, मौले अलख अल्लाह ।।
परमेश्वर अपरमपार अथाह यानी समन्दर की तरह अमित शक्ति संपन्न है। तत्वज्ञान के अभाव से प्रत्येक ऋषि-देव अपने उर (हृदय) में किरतम यानी कृत्रिम (मन कल्पित) ख्याल (विचार) से मौला (परमात्मा) अलख अल्लाह (निराकार-दिखाई न देने वाला) मानते हैं।
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सांगा त्याने कधी सामोरे तरी यावे
स्वप्नात माझ्या ज्याने यावेयेऊन छळून त्याने जावेसांगा,त्याने कधी सामोरे तरी यावे कसा आहे,कोण आहे तो,जाणो कुठे आहे?ज्याला माझ्या ओठांवर होय आहेमाझा आहे की परकी तो आहेसत्यात आहे की कल्पित तो आहे पाही तो विस्मयीत होऊनअसाच तो जरा दूर राहूनसांगा, नको राहू माझी निद्रा चोरुन स्वप्नात माझ्या ज्याने यावेयेऊन छळून त्याने जावेसांगा,त्याने कधी सामोरे तरी यावे जादू करीत कुणी तरी जावेकाय करू माझे मन बेचैन…
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