#उपनिषद्
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Brihad-aranyak-upanishad, Chapter 1: Brahman 2 (on creation), shloka 2
बृहदारण्यकोपनिषद्
आपो वा अर्कः; तद्यदपां शर आसीत्तत्समहन्यत । सा पृथिव्यभवत्, तस्यामश्राम्यत्; तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य तेजो रसो निरवर्तताग्निः
आप: वा अर्कः (water itself is fire??)
तद्यदपां (tat yat apaam -- that which, of the water)
शर आसीत् (was at the top)
तत्समहन्यत (tat samahanyat): that congealed
सा पृथिव्यभवत् (that became the earth)
तस्यामश्राम्यत् (after working on her)
तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य (of the heat of his tiredness)
तेजो रसो निरवर्तताग्निः (his essense came out, became fire)
The interpretation of the previous shloka induces me to understand that water is life and life is operated by arka/fire/warmth. Therefore, as the earth solidifies, the interaction of heat with water gives rise to life.
Doubts:
Why do Shankaracharya and Madhvacharya assume that Prajapati is being talked about here?
There seems to be recursive cause and effect relationship between fire and water, which induces me to think that the words representing them mean different things in different context. This is easier to glean out from the previous shoka but less so in this one.
Supposed context:
( I will revisit this after I internalize the idea of hiranygarbha, the cosmic embryo. Currently, I am jotting down a sort of modernist interpretation informed by scientific ideas. Superposing these onto hindu vangmay and reducing it to a collection of "facts" would be an injustice to the treasure trove that it is.)
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यज्ञोपवीत धारणा कैसे बदलें, मंत्र
उपनिषद एक महत्वपूर्ण संस्कार है, एक हिंदू का कर्तव्य है । तीन वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ने उनके लिए यह समारोह किया होगा । संस्कार पर मेरी पोस्ट पढ़ें। पवित्र धागे के पहनने से आंतरिक आंख खुल जाती है । एक द्विज बन जाता है, दूसरी बार पैदा होता है
उपनिषद एक महत्वपूर्ण संस्कार है, एक हिंदू का कर्तव्य है । तीन वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ने उनके लिए यह समारोह किया होगा । संस्कार पर मेरी पोस्ट पढ़ें।पवित्र धागे के पहनने से आंतरिक आंख खुल जाती है । एक द्विज बन जाता है, दूसरी बार पैदा होता है । उपवीडा साफ रहना चाहिए । इसे समय-समय पर बदलना होगा । इसे विवाह,होमास,पूजा,अपरा क्रिया जैसे विशेष अवसरों के लिए भी बदला जाता है । उपवेदा को बदलने का…
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वेद ज्ञान को तत्वज्ञान से समझे
विचार करें वेद पढ़ने वाले ऋषियों के अपने विचारों से रचे उपनिषद् एक दूसरे के विपरीत व्याख्या कर रहे हैं इसलिए वेद ज्ञान को तत्त्वज्ञान से ही समझा जा सकता है तत्त्वज्ञान (स्वसम वेद) पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ने स्वयं आकर बताया है तथा चारों वेदों का ज्ञान ब्रह्म द्वारा बताया गया है।
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 2.45 https://srimadbhagavadgita.in/2/45 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ २.४५ ॥ TRANSLATION वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है । हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो । समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो । PURPORT सारे भौतिक कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों की क्रियाएँ तथा प्रतिक्रियाएँ निहित होती हैं । इनका उद्देश्य कर्म-फल होता है जो भौतिक जगत् में बन्धन का कारण है । वेदों में मुख्यतया सकाम कर्मों का वर्णन है जिससे सामान्य जन क्रमशः इन्द्रियतृप्ति के क्षेत्र से उठकर अध्यात्मिक धरातल तक पहुँच सकें । कृष्ण अपने शिष्य तथा मित्र के रूप में अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह वेदान्त दर्शन के अध्यात्मिक पद तक ऊपर उठे जिसका प्रारम्भ ब्रह्म-जिज्ञासा अथवा परम अध्यात्मिकता पद पर प्रश्नों से होता है । इस भौतिक जगत् के सारे प्राणी अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते रहते हैं । उनके लिए भगवान् ने इस भौतिक जगत् की सृष्टि करने के पश्चात् वैदिक ज्ञान प्रदान किया जो जीवन-��ापन तथा भवबन्धन से छूटने का उपदेश देता है । जब इन्द्रियतृप्ति के कार्य यथा कर्मकाण्ड समाप्त हो जाते हैं तो उपनिषदों के रूप में भगवत् साक्षात्कार का अवसर प्रदान किया जाता है । ये उपनिषद् विभिन्न वेदों के अंश हैं उसी प्रकार जैसे भगवद्गीता पंचम वेद महाभारत का एक अंग है । उपनिषदों से अध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ होता है । जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है तब तक भौतिक गुणों की क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं । मनुष्य को चाहिए कि सुख-दुख या शीत-ग्रीष्म जैसी द्वैतताओं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हानि तथा लाभ की चिन्ता से मुक्त हो जाय । जब मनुष्य कृष्ण की इच्छा पर पूर्णतया आश्रित रहता है तो यह दिव्य अवस्था प्राप्त होती है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.45 trai-guṇya-viṣayā vedā nistrai-guṇyo bhavārjuna nirdvandvo nitya-sattva-stho niryoga-kṣema ātmavān TRANSLATION The Vedas deal mainly with the subject of the three modes of material nature. O Arjuna, become transcendental to these three modes. Be free from all dualities and from all anxieties for gain and safety, and be established in the self. PURPORT All material activities involve actions and reactions in the three modes of material nature. They are meant for fruitive results, which cause bondage in the material world. The Vedas deal mostly with fruitive activities to gradually elevate the general public from the field of sense gratification to a position on the transcendental plane. Arjuna, as a student and friend of Lord Kṛṣṇa, is advised to raise himself to the transcendental position of Vedānta philosophy where, in the beginning, there is brahma-jijñāsā, or questions on the supreme transcendence. All the living entities who are in the material world are struggling very hard for existence. For them the Lord, after creation of the material world, gave the Vedic wisdom advising how to live and get rid of the material entanglement. When the activities for sense gratification, namely the karma-kāṇḍa chapter, are finished, then the chance for spiritual realization is offered in the form of the Upaniṣads, which are part of different Vedas, as the Bhagavad-gītā is a part of the fifth Veda, namely the Mahābhārata. The Upaniṣads mark the beginning of transcendental life. As long as the material body exists, there are actions and reactions in the material modes. One has to learn tolerance in the face of dualities such as happiness and distress, or cold and warmth, and by tolerating such dualities become free from anxieties regarding gain and loss. This transcendental position is achieved in full Kṛṣṇa consciousness when one is fully dependent on the good will of Kṛṣṇa. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart70 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart71
"पवित्र वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण"
(पवित्र वेदों में प्रवेश से पहले) part -A
प्रभु जानकारी के लिए पवित्र चारों वेद प्रमाणित शास्त्र हैं। पवित्र वेदों की रचना उस समय ह��ई थी जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेदवाणी किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है, केवल आत्म कल्याण के लिए है। इनको जानने के लिए निम्न व्याख्या बहुत ध्यान तथा विवेक के साथ पढ़नी तथा विचारनी होगी।
प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र "श्री गीता जी व चारों वेदों तथा पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब (कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त" अन्य किसी ऋषि साधक की अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्र ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि। यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)
पवित्र वेद तथा गीता जी स्वयं काल प्रभु (ब्रह्म) दत्त हैं। जिन में भक्ति विधि तथा उपलब्धि दोनों सही तौर पर वर्णित हैं। इनके अतिरिक्त जो पूजा विधि तथा अनुभव हैं वह अधूरा समझें। यदि इन्हीं के अनुसार कोई साधक अनुभव बताए तो सत्य जानें। क्योंकि कोई भी प्राणी प्रभु से अधिक नहीं जान सकता।
वेदों के ज्ञान से पूर्वोक्त महात्माओं का विवरण सही मिलता है। इससे सिद्ध हुआ कि वे सर्व महात्मा पूर्ण थे। पूर्ण परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है तथा बताया है वह परमात्मा कबीर साहेब (कविर् देव) है।
वही ज्ञान चारों पवित्र वेद तथा पवित्र गीता जी भी बताते हैं।
कलियुगी ऋषियों ने वेदों का टीका (भाषा भाष्य) ऐसे कर दिया जैसे कहीं दूध की महिमा कही गई हो और जिसने कभी जीवन में दूध देखा ही न हो और वह अनुवाद कर रहा हो, वह ऐसे करता है :-
पोष्टिकाहार असि। पेय पदार्थ असि। श्वेदसि । अमृत उपमा सर्वा मनुषानाम पेय्याम् सः दूग्धः असिः ।
(पौष्टिकाहार असि) - कोई शरीर पुष्ट कर ने वाला आहार है (पेय पदार्थ) पीने का तरल पदार्थ (असि) है। (श्वेत्) सफेद (असि) है। (अमृत उपमा) अमृत सदृश है (सर्व) सब (मनुषानाम्) मनुष्यों के (पेय्याम्) पीने योग्य (सः) वह (दूग्धः) पौष्टिक तरल (असि) है।
भावार्थ किया :- कोई सफेद पीने का तरल पदार्थ है जो अमृत समान है, बहुत पौष्टिक है, सब मनुष्यों के पीने योग्य है, वह स्वयं तरल है। फिर कोई पूछे कि वह तरल पदार्थ कहाँ है? उत्तर मिले वह तो निराकार है। प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ पर दूग्धः को तरल पदार्थ लिख दिया जाए तो उस वस्तु "दूध" को कैसे पाया व जाना जाए जिसकी उपमा ऊपर की है? यहाँ पर (दूग्धः) को दूध लिखना था जिससे पता चले कि वह पौष्टिक आहार दूध है। फिर व्यक्ति दूध नाम से उसे प्राप्त कर सकता है।
विचार :- यदि कोई कहे दुग्धः को दूध कैसे लिख दिया? यह तो वाद-विवाद का प्रत्��क्ष प्रमाण ही हो सकता है। जैसे दुग्ध का दूध अर्थ गलत नहीं है। भाषा भिन्न होने से हिन्दी में दूध तथा क्षेत्रीय भाषा में दूधू लिखना भी संस्कृत भाषा में लिखे दुग्ध का ही बोध है। जैसे पलवल शहर के आसपास के ग्रामीण परवर कहते हैं। यदि कोई कहे कि परवर को पलवल कैसे सिद्ध कर दिया, मैं नहीं मानता। यह तो व्यर्थ का वाद विवाद है। ठीक इसी प्रकार कोई कहे कि कविर्देव को कबीर परमेश्वर कैसे सिद्ध कर दिया यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद ही है। जैसे "यजुर्वेद" है यह एक धार्मिक पवित्र पुस्तक है जिसमें प्रभु की यज्ञिय स्तुतियों की ऋचाएँ लिखी हैं तथा प्रभु कैसा है? कैसे पाया जाता है? सब विस्तृत वर्णन है।
अब पवित्र यजुर्वेद की महिमा कहें कि प्रभु की यज्ञीय स्तूतियों की ऋचाओं का भण्डार है। बहुत अच्छी विधि वर्णित है। एक अनमोल जानकारी है और यह लिखें नहीं कि वह "यजुर्वेद" है अपितु यजुर्वेद का अर्थ लिख दें कि यज्ञीय स्तुतियों का ज्ञान है। तो उस वस्तु (पवित्र पुस्तक) को कैसे पाया जा सके ? उसके लिए लिखना होगा कि वह पवित्र पुस्तक "यजुर्वेद" है जिसमें यज्ञीय ऋचाएं हैं। अब यजुर्वेद की सन्धिच्छेद करके लिखें। यजुर्वेद, भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। यजुः वेद भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। जिसमें यज्ञीय स्तुति की ऋचाएं हैं। उस धार्मिक पुस्तक को यजुर्वेद कहते हैं। ठीक इसी प्रकार चारों पवित्र वेदों में लिखा है कि वह कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है। जो सर्व शक्तिमान, जगत्पिता, सर्व सृष्टि रचनहार, कुल मालिक तथा पाप विनाशक व काल की कारागार से छुटवाने वाला अर्थात् बंदी छोड़ है।
वेद यजुर्वेद
इसको कविर्+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर का बोध है। कविः+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर अर्थात् कविर् प्रभु का ही बोध है।
इसलिए कविर्देव उसी कबीर साहेब का ही बोध करवाता है:- सर्व शक्तिमान, अजर-अमर, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार कुल मालिक है क्योंकि पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त सन्तों ने अपनी-अपनी मातृभाषा में 'कविर्' को 'कबीर' बोला है तथा 'वेद' को 'बेद' बोला है। इसलिए 'व' और 'ब' के अंतर हो जाने पर भी पवित्र शास्त्र वेद का ही बोध है।
विचार:- जैसे कोई अंग्रेजी भाषा में लिखें कि God (Kavir) Kaveer is all mighty इसका हिन्दी अनुवाद करके लिखें कविर या कवीर परमेश्वर सर्व शक्तिमान है। अब अंग्रेजी भाषा में तो हलन्त () की व्यवस्था ही नहीं है। फिर मात्र भाषा में इसी को कबीर कहने तथा लिखने लगे।
यही परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तीन युगों में नामान्तर करके आते हैं जिनमें इनके नाम रहते हैं सतयुग में सत सुकृत, त्रेतायुग में मुनिन्द्र, द्वापरयुग में करुणामय तथा कलयुग में कबीर देव (कविर्देव)। वास्तविक नाम उस पूर्ण ब्रह्म का कविर् देव ही है। जो सृष्टि रचना से पहले भी अनामी लोक में विद्यमान थे। इन्हीं के उपमात्मक नाम सतपुरुष, अकाल मूर्त, पूर्ण ब्रह्म, अलख पुरुष, अगम पुरुष, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं। उसी परमात्मा को चारों पवित्र वेदों में "कविरमितौजा", "कविरघा��रि", "कविरग्नि" तथा "कविर्देव", कहा है तथा सर्वशक्तिमान, सर्व सृष्टि रचनहार बताया है। पवित्र कुरान शरीफ में सुरत फुर्कानी नं. 25 आयत नं. 19,21,52,58,59 में भी प्रमाण है। कई एक का विरोध है कि जो शब्द कविर्देव' है इसको सन्धिच्छेद करने से कविः देवः बन जाता है यह कबिर् परमेश्वर या कबीर साहेब कैसे सिद्ध किया? व को ब तथा छोटी इ (f) की मात्रा को बड़ी ई (१) की मात्रा करना बेसमझी है।
विचार: एक ग्रामीण लड़के की सरकारी नौकरी लगी। जिसका नाम कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर सरकारी कागजों में तथा करमबिर पुत्र श्री धरमबिर पुत्र परताप गाँव के चौकीदार की डायरी में जन्म के समय का लिखा था। सरकार की तरफ से नौकरी लगने के बाद जाँच पड़ताल कराई जाती है। एक सरकारी कर्मचारी जाँच के लिए आया। उसने पूछा कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर का मकान कौन-सा है, उसकी अमूक विभाग में नौकरी लगी है। गाँव में कर्मवीर को कर्मा तथा उसके पिता जी को धर्मा तथा दादा जी को प्रता आदि उर्फ नामों से जानते थे। व्यक्तियों ने कहा इस नाम का लड़का इस गाँव में नहीं है। काफी पूछताछ के बाद एक लड़का जो कर्मवीर का सहपाठी था, उसने बताया यह कर्मा की नौकरी के बारे में है। तब उस बच्चे ने बताया यही कर्मबीर उर्फ कर्मा तथा धर्मबीर उर्फ धर्मा ही है। फिर उस कर्मचारी को शंका उत्पन्न हुई कि कर्मबीर नहीं कर्मवीर है। उसने कहा चौकीदार की डायरी लाओ, उसमें भी लिखा था "करमबिर पुत्र धरमबिर पुत्र परताप" पूरा "र" "व" के स्थान पर "ब" तथा छोटी "" की मात्रा लगी थी। तो भी वही बच्चा कर्मवीर ही सिद्ध हुआ, क्योंकि गाँव के नम्बरदारों तथा प्रधानों ने भी गवाही दी कि बेशक मात्रा छोटी बड़ी या "र" आधा या पूरा है, लड़का सही इसी गाँव का है। सरकारी कर्मचारी ने कहा नम्बरदार अपने हाथ से लिख दे। नम्बरदार ने लिख दिया मैं करमविर पूतर धरमविर को जानता हूँ जो इस गाम का बासी है और हस्ताक्षर कर दिए। बेशक नम्बरदार ने विर में छोटी ई (f) की मात्रा का तथा करम में बड़े "र" का प्रयोग किया है, परन्तु हस्ताक्षर करने वाला गाँव का गणमान्य व्यक्ति है। किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नाम की स्पेलिंग गलत नहीं होती। ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का नाम सरकारी दस्तावेज (वेदों) में कविर्देव है, परन्तु गाँव (पृथ्वी) पर अपनी-2 मातृ भाषा में कबीर, कबिर, कबीरा, कबीरन् आदि नामों से जाना जाता है। इसी को नम्बरदारों (आँखों देखा विवरण अपनी पवित्र वाणी में ठोक कर गवाही देते हुए आदरणीय पूर्वोक्त सन्तों) ने कविर्देव को हक्का कबीर, सत् कबीर, कबीरा, कबीरन्, खबीरा, खबीरन् आदि लिख कर हस्ताक्षर कर रखे हैं।
वर्तमान (सन् 2006) से लगभग 600 वर्ष पूर्व जब परमात्मा कबीर जी (कविर्देव जी) स्व��ं प्रकट हुए थे उस समय सर्व सद्ग्रन्थों का वास्तविक ज्ञान लोकोक्तियों (दोहों, चोपाईयों, शब्दों अर्थात् कविताओं) के माध्यम से साधारण भाषा में जन साधारण को बताया था। उस तत्त्व ज्ञान को उस समय के संस्कृत भाषा व हिन्दी भाषा के ज्ञाताओं ने यह कह कर ठुकरा दिया कि कबीर जी तो अशिक्षित है। इस के द्वारा कहा गया ज्ञान व उस में उपयोग की गई भाषा व्याकरण दृष्टिकोण से ठीक नहीं है।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart70 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart71
"पवित्र वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण"
(पवित्र वेदों में प्रवेश से पहले) part -A
प्रभु जानकारी के लिए पवित्र चारों वेद प्रमाणित शास्त्र हैं। पवित्र वेदों की रचना उस समय हुई थी जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेदवाणी किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है, केवल आत्म कल्याण के लिए है। इनको जानने के लिए निम्न व्याख्या बहुत ध्यान तथा विवेक के साथ पढ़नी तथा विचारनी होगी।
प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र "श्री गीता जी व चारों वेदों तथा पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब (कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त" अन्य किसी ऋषि साधक की अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्र ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि। यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)
पवित्र वेद तथा गीता जी स्वयं काल प्रभु (ब्रह्म) दत्त हैं। जिन में भक्ति विधि तथा उपलब्धि दोनों सही तौर पर वर्णित हैं। इनके अतिरिक्त जो पूजा विधि तथा अनुभव हैं वह अधूरा समझें। यदि इन्हीं के अनुसार कोई साधक अनुभव बताए तो सत्य जानें। क्योंकि कोई भी प्राणी प्रभु से अधिक नहीं जान सकता।
वेदों के ज्ञान से पूर्वोक्त महात्माओं का विवरण सही मिलता है। इससे सिद्ध हुआ कि वे सर्व महात्मा पूर्ण थे। पूर्ण परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है तथा बताया है वह परमात्मा कबीर साहेब (कविर् देव) है।
वही ज्ञान चारों पवित्र वेद तथा पवित्र गीता जी भी बताते हैं।
कलियुगी ऋषियों ने वेदों का टीका (भाषा भाष्य) ऐसे कर दिया जैसे कहीं दूध की महिमा कही गई हो और जिसने कभी जीवन में दूध देखा ही न हो और वह अनुवाद कर रहा हो, वह ऐसे करता है :-
पोष्टिकाहार असि। पेय पदार्थ असि। श्वेदसि । अमृत उपमा सर्वा मनुषानाम पेय्याम् सः दूग्धः असिः ।
(पौष्टिकाहार असि) - कोई शरीर पुष्ट कर ने वाला आहार है (पेय पदार्थ) पीने का तरल पदार्थ (असि) है। (श्वेत्) सफेद (असि) है। (अमृत उपमा) अमृत सदृश है (सर्व) सब (मनुषानाम्) मनुष्यों के (पेय्याम्) पीने योग्य (सः) वह (दूग्धः) पौष्टिक तरल (असि) है।
भावार्थ किया :- कोई सफेद पीने का तरल पदार्थ है जो अमृत समान है, बहुत पौष्टिक है, सब मनुष्यों के पीने योग्य है, वह स्वयं तरल है। फिर कोई पूछे कि वह तरल पदार्थ कहाँ है? उत्तर मिले वह तो निराकार है। प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ पर दूग्धः को तरल पदार्थ लिख दिया जाए तो उस वस्तु "दूध" को कैसे पाया व जाना जाए जिसकी उपमा ऊपर की है? यहाँ पर (दूग्धः) को दूध लिखना था जिससे पता चले कि वह पौष्टिक आहार दूध है। फिर व्यक्ति दूध नाम से उसे प्राप्त कर सकता है।
विचार :- यदि कोई कहे दुग्धः को दूध कैसे लिख दिया? यह तो वाद-विवाद का प्रत्यक्ष प्रमाण ही हो सकता है। जैसे दुग्ध का दूध अर्थ गलत नहीं है। भाषा भिन्न होने से हिन्दी में दूध तथा क्षेत्रीय भाषा में दूधू लिखना भी संस्कृत भाषा में लिखे दुग्ध का ही बोध है। जैसे पलवल शहर के आसपास के ग्रामीण परवर कहते हैं। यदि कोई कहे कि परवर को पलवल कैसे सिद्ध कर दिया, मैं नहीं मानता। यह तो व्यर्थ का वाद विवाद है। ठीक इसी प्रकार कोई कहे कि कविर्देव को कबीर परमेश्वर कैसे सिद्ध कर दिया यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद ही है। जैसे "यजुर्वेद" है यह एक धार्मिक पवित्र पुस्तक है जिसमें प्रभु की यज्ञिय स्तुतियों की ऋचाएँ लिखी हैं तथा प्रभु कैसा है? कैसे पाया जाता है? सब विस्तृत वर्णन है।
अब पवित्र यजुर्वेद की महिमा कहें कि प्रभु की यज्ञीय स्तूतियों की ऋचाओं का भण्डार है। बहुत अच्छी विधि ���र्णित है। एक अनमोल जानकारी है और यह लिखें नहीं कि वह "यजुर्वेद" है अपितु यजुर्वेद का अर्थ लिख दें कि यज्ञीय स्तुतियों का ज्ञान है। तो उस वस्तु (पवित्र पुस्तक) को कैसे पाया जा सके ? उसके लिए लिखना होगा कि वह पवित्र पुस्तक "यजुर्वेद" है जिसमें यज्ञीय ऋचाएं हैं। अब यजुर्वेद की सन्धिच्छेद करके लिखें। यजुर्वेद, भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। यजुः वेद भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। जिसमें यज्ञीय स्तुति की ऋचाएं हैं। उस धार्मिक पुस्तक को यजुर्वेद कहते हैं। ठीक इसी प्रकार चारों पवित्र वेदों में लिखा है कि वह कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है। जो सर्व शक्तिमान, जगत्पिता, सर्व सृष्टि रचनहार, कुल मालिक तथा पाप विनाशक व काल की कारागार से छुटवाने वाला अर्थात् बंदी छोड़ है।
वेद यजुर्वेद
इसको कविर्+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर का बोध है। कविः+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर अर्थात् कविर् प्रभु का ही बोध है।
इसलिए कविर्देव उसी कबीर साहेब का ही बोध करवाता है:- सर्व शक्तिमान, अजर-अमर, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार कुल मालिक है क्योंकि पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त सन्तों ने अपनी-अपनी मातृभाषा में 'कविर्' को 'कबीर' बोला है तथा 'वेद' को 'बेद' बोला है। इसलिए 'व' और 'ब' के अंतर हो जाने पर भी पवित्र शास्त्र वेद का ही बोध है।
विचार:- जैसे कोई अंग्रेजी भाषा में लिखें कि God (Kavir) Kaveer is all mighty इसका हिन्दी अनुवाद करके लिखें कविर या कवीर परमेश्वर सर्व शक्तिमान है। अब अंग्रेजी भाषा में तो हलन्त () की व्यवस्था ही नहीं है। फिर मात्र भाषा में इसी को कबीर कहने तथा लिखने लगे।
यही परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तीन युगों में नामान्तर करके आते हैं जिनमें इनके नाम रहते हैं सतयुग में सत सुकृत, त्रेतायुग में मुनिन्द्र, द्वापरयुग में करुणामय तथा कलयुग में कबीर देव (कविर्देव)। वास्तविक नाम उस पूर्ण ब्रह्म का कविर् देव ही है। जो सृष्टि रचना से पहले भी अनामी लोक में विद्यमान थे। इन्हीं के उपमात्मक नाम सतपुरुष, अकाल मूर्त, पूर्ण ब्रह्म, अलख पुरुष, अगम पुरुष, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं। उसी परमात्मा को चारों पवित्र वेदों में "कविरमितौजा", "कविरघांरि", "कविरग्नि" तथा "कविर्देव", कहा है तथा सर्वशक्तिमान, सर्व सृष्टि रचनहार बताया है। पवित्र कुरान शरीफ में सुरत फुर्कानी नं. 25 आयत नं. 19,21,52,58,59 में भी प्रमाण है। कई एक का विरोध है कि जो शब्द कविर्देव' है इसको सन्धिच्छेद करने से कविः देवः बन जाता है यह कबिर् परमेश्वर या कबीर साहेब कैसे सिद्ध किया? व को ब तथा छोटी इ (f) की मात्रा को बड़ी ई (१) की मात्रा करना बेसमझी है।
विचार: एक ग्रामीण लड़के की सरकारी नौकरी लगी। जिसका नाम कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर सरकारी कागजों में तथा करमबिर पुत्र श्री धरमबिर पुत्र परताप गाँव के चौकीदार की डायरी में जन्म के समय का लिखा था। सरकार की तरफ से नौकरी लगने के बाद जाँच पड़ताल कराई जाती है। एक सरकारी कर्मचारी जाँच के लिए आया। उसने पूछा कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर का मकान कौन-सा है, उसकी अमूक विभाग में नौकरी लगी है। गाँव में कर्मवीर को कर्मा तथा उसके पिता जी को धर्मा तथा दादा जी को प्रता आदि उर्फ नामों से जानते थे। व्यक्तियों ने कहा इस नाम का लड़का इस गाँव में नहीं है। काफी पूछताछ के बाद एक लड़का जो कर्मवीर का सहपाठी था, उसने बताया यह कर्मा की नौकरी के बारे में है। तब उस बच्चे ने बताया यही कर्मबीर उर्फ कर्मा तथा धर्मबीर उर्फ धर्मा ही है। फिर उस कर्मचारी को शंका उत्पन्न हुई कि कर्मबीर नहीं कर्मवीर है। उसने कहा चौकीदार की डायरी लाओ, उसमें भी लिखा था "करमबिर पुत्र धरमबिर पुत्र परताप" पूरा "र" "व" के स्थान पर "ब" तथा छोटी "" की मात्रा लगी थी। तो भी वही बच्चा कर्मवीर ही सिद्ध हुआ, क्योंकि गाँव के नम्बरदारों तथा प्रधानों ने भी गवाही दी कि बेशक मात्रा छोटी बड़ी या "र" आधा या पूरा है, लड़का सही इसी गाँव का है। सरकारी कर्मचारी ने कहा नम्बरदार अपने हाथ से लिख दे। नम्बरदार ने लिख दिया मैं करमविर पूतर धरमविर को जानता हूँ जो इस गाम का बासी है और हस्ताक्षर कर दिए। बेशक नम्बरदार ने विर में छोटी ई (f) की मात्रा का तथा करम में बड़े "र" का प्रयोग किया है, परन्तु हस्ताक्षर करने वाला गाँव का गणमान्य व्यक्ति है। किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नाम की स्पेलिंग गलत नहीं होती। ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का नाम सरकारी दस्तावेज (वेदों) में कविर्देव है, परन्तु गाँव (पृथ्वी) पर अपनी-2 मातृ भाषा में कबीर, कबिर, कबीरा, कबीरन् आदि नामों से जाना जाता है। इसी को नम्बरदारों (आँखों देखा विवरण अपनी पवित्र वाणी में ठोक कर गवाही देते हुए आदरणीय पूर्वोक्त सन्तों) ने कविर्देव को हक्का कबीर, सत् कबीर, कबीरा, कबीरन्, खबीरा, खबीरन् आदि लिख कर हस्ताक्षर कर रखे हैं।
वर्तमान (सन् 2006) से लगभग 600 वर्ष पूर्व जब परमात्मा कबीर जी (कविर्देव जी) स्वयं प्रकट हुए थे उस समय सर्व सद्ग्रन्थों का वास्तविक ज्ञान लोकोक्तियों (दोहों, चोपाईयों, शब्दों अर्थात् कविताओं) के माध्यम से साधारण भाषा में जन साधारण को बताया था। उस तत्त्व ज्ञान को उस समय के संस्कृत भाषा व हिन्दी भाषा के ज्ञाताओं ने यह कह कर ठुकरा दिया कि कबीर जी तो अशिक्षित है। इस के द्वारा कहा गया ज्ञान व उस में उपयोग की गई भाषा व्याकरण दृष्टिकोण से ठीक नहीं है।
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🥁सनातन धर्म का पुनरुत्थान करने वाली पवित्र पुस्तक
हिंदू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण🥁
जगतगुरू तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज का नारा है-
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा ।।
संत रामपाल जी महाराज आध्यात्म ज्ञान-विज्ञान से सिद्ध करते हैं कि विश्व के प्राणी एक परमात्मा के बच्चे हैं जो अपने उस पिता के पास जाने के लिए इच्छुक हैं। उसी के पास जाने के लिए भिन्न-भिन्न भक्ति के उपाय कर रहे हैं।
आज तक सर्व भक्त समाज शास्त्र विधि को छोड़कर मनमाना आचरण करता आया है। तत्वदर्शी संत के अभाव में मानव समाज मनमाना आचरण करके अपना मानव जीवन नष्ट कर रहा है।
सर्वप्रथम संत रामपाल जी महाराज ने शास्त्रों को अच्छी तरह पढ़ा व समझा है। उसके पश्चात् शास्त्रोक्त साधना प्रारंभ की है जो सर्व शास्त्रों से प्रमाणित है।
गीता अध्याय 4 श्लोक 34 को भी पढ़ें जिसमें कहा है कि उस ज्ञान को (सूक्ष्मवेद वाले ज्ञान को) तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर प्राप्त कर।
विचारणीय विषय यह है कि तत्त्वज्ञान गीता में नहीं है। यदि होता तो गीता ज्ञान देने वाला यह नहीं कहता कि तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संतों से जान। जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला तत्वदर्शी संत मिल जाता है, वह सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान बताता है जिसको सुन-समझकर बुद्धिमान अपनी साधना शास्त्रों के अनुसार करता है। जीवन धन्य कर लेता है। एक धर्म (मानव धर्म) बन जाता है।
संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र श्री गीता जी व चारों वेदों तथा प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब (कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त" अन्य किसी ऋषि साधक का बताया ज्ञान उनकी अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्र ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि । यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)
संत रामपाल जी ने वेदों से प्रमाणित किया कि पूर्ण परमात्मा कौन है?
चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) हिन्दू धर्म की रीढ़ माने जाते हैं। इन्हीं का सारांश श्रीमद्भगवत गीता है। चारों वेद परमात्मा की जानकारी रखते हैं। उसके लक्षण बताते हैं। परमात्मा कौन है? कैसा है? निराकार है या साकार है? कैसी लीला करता है? निवास स्थान कहाँ है? जिस किसी की लीलाएँ वेदों के अनुसार हैं, वह परमात्मा है।
वेदों का ज्ञान कबीर जी पर खरा उतरता है :-
हिन्दू धर्म के व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) के ज्ञान को सत्य मानते हैं। वेदों में परमेश्वर की महिमा बताई है। परमेश्वर की पहचान भी बताई है। बताया है कि सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला परम���श्वर साकार यानि नराकार है
विचार करो :- पुराण तो मनमाना आचरण करने वालों का अपना अनुभव है जो वेदों गीता तथा सूक्ष्मवेद से मेल नहीं करता। इसलिए ये साधना व्यर्थ ��ै। तत्त्वदर्शी संत बताएगा कि परमात्मा कौन है? सत्य साधना कौन-सी है, गलत कौन सी है? गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान भी पूर्ण नहीं है, परंतु गलत भी नहीं। इसलिए तत्त्वदर्शी संत से जानने को कहा है। तत्त्वदर्शी संत बताएगा।
संपूर्ण आध्यात्म ज्ञान तथा हिंदू धर्म की संपूर्ण भक्ति विधि व सनातन धर्म की यथार्थ जानकारी के लिए पढ़िए पवित्र पुस्तक हिंदू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण
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हिन्दू धर्म के व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) के ज्ञान को सत्य मानते हैं। वेदों में परमेश्वर की महिमा बताई है। परमेश्वर की पहचान भी बताई है। बताया है कि सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर साकार यानि नराकार है
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Brihad-aranyak-upanishad, Chapter 1: Brahman 2 (on creation), shloka 1
बृहदारण्यकोपनिषद्
नैवेह किंचनाग्र आसीत्, मृत्युनैवेदमावृतमासीदशनायया, अशनाया हि मृत्युः; तन्मनोऽकुरुत, आत्मन्वी स्यामिति । सोऽर्चन्नचरत्, तस्यार्चत आपोऽजायन्त; अर्चते वै मे कमभूदिति, तदेवार्क्यस्यार्कत्वम्; कं ह वा अस्मै भवति य एवमेतदर्क्यस्यार्कत्वं वेद ॥ १ ॥
न एव इह (not here even) किंचनाग्र (a fraction of something) आसीत् (was).
मृत्यून् एव इदं आवृतं आसीत् (it was covered with death only) अशनायया (with hunger)
अशनाया हि मृत्युः (as hunger is death)
तत् मनः अकुरुत (it/he begot a mind) आत्मन्वी (in possession of self/having a soul) स्याम् इति (wish to be, so)
सः अर्चत् चरत् (he went about shining, burning) तस्यार्चत आप: अजायन्त (his burning begot water)
{to self}
अर्चते वै मे (indeed, due to my burning) कम् भूत् इति (water/life came into being) {to self}
तत् एव अर्क्यस्य अर्कत्वं -- that is the warmth of fire/sun-begotten
कं ह वा - or water/life/happiness अस्मै भवति is for it
य एवम एतद अर्क्यस्य अर्कत्वं वेद -- who knows the warmth of that begotten by fire/sun
In the beginning, there was nothing but death/nothingness. That nothing begot a mind, a self -- by wishing for it to be so. It went about burning, like a fire. From its burning, arose life. To know the warmth that gives rise to life is to live.
Doubts:
Although the first words indicate that there was nothing, then mentioning the presence of hunger and death could indicate a flux, fluctuations -- something that does not lead to any being, as clusters appear and dissolve/die. And then out of one of these fluctuations, something is born out of nothing. So the upanishad ascribes a will to it.
archat means to worship, to shine, to alight. the sandhi should yield a single n but it somehow uses nn. I am not clear on that. Acc to laws of sandhi, t+n =nn, n+a = n. I have surmised but not concluded that it means "to go about shining".
ark, arkya, arkatvam have context specific meanings. Fire indicates the source -- which is the sun but also any other fire that could be. kam -- water, desire, copulation, life -- depends on arka. For life to be understood, the source of it needs to be understood.
Supposed context:
The vedas are supposed to be less organized collections of thought/ritual/tradition and observations therein. After having lived with the vedas for a long time, authors of different upanishads try to express different abstract aspects if that complex collection in a very coherent and concise manner. It is observed in smaller upanishads that a premise is laid out and some basic logic is built on it to arrive at a basic principle that should guide human action. This shloka at least sounds like a call to enrich knowledge, to investigate the source of being. I may change this view as I reread many of these texts now.
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🥁सनातन धर्म का पुनरुत्थान करने वाली पवित्र पुस्तक
हिंदू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण🥁
जगतगुरू तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज का नारा है-
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा ।।
संत रामपाल जी महाराज आध्यात्म ज्ञान-विज्ञान से सिद्ध करते हैं कि विश्व के प्राणी एक परमात्मा के बच्चे हैं जो अपने उस पिता के पास जाने के लिए इच्छुक हैं। उसी के पास जाने के लिए भिन्न-भिन्न भक्ति के उपाय कर रहे हैं।
आज तक सर्व भक्त समाज शास्त्र विधि को छोड़कर मनमाना आचरण करता आया है। तत्वदर्शी संत के अभाव में मानव समाज मनमाना आचरण करके अपना मानव जीवन नष्ट कर रहा है।
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गीता अध्याय 4 श्लोक 34 को भी पढ़ें जिसमें कहा है कि उस ज्ञान को (सूक्ष्मवेद वाले ज्ञान को) तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर प्राप्त कर।
विचारणीय विषय यह है कि तत्त्वज्ञान गीता में नहीं है। यदि होता तो गीता ज्ञान देने वाला यह नहीं कहता कि तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संतों से जान। जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला तत्वदर्शी संत मिल जाता है, वह सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान बताता है जिसको सुन-समझकर बुद्धिमान अपनी साधना शास्त्रों के अनुसार करता है। जीवन धन्य कर लेता है। एक धर्म (मानव धर्म) बन जाता है।
संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र श्री गीता जी व चारों वेदों तथा प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब (कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त" अन्य किसी ऋषि साधक का बताया ज्ञान उनकी अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्र ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि । यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)
संत रामपाल जी ने वेदों से प्रमाणित किया कि पूर्ण परमात्मा कौन है?
चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) हिन्दू धर्म की रीढ़ माने जाते हैं। इन्हीं का सारांश श्रीमद्भगवत गीता है। चारों वेद परमात्मा की जानकारी रखते हैं। उसके लक्षण बताते हैं। परमात्मा कौन है? कैसा है? निराकार है या साकार है? कैसी लीला करता है? निवास स्थान कहाँ है? जिस किसी की लीलाएँ वेदों के अनुसार हैं, वह परमात्मा है।
वेदों का ज्ञान कबीर जी पर खरा उतरता है :-
हिन्दू धर्म के व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) के ज्ञान को सत्य मानते हैं। वेदों में परमेश्वर की महिमा बताई है। परमेश्वर की पहचान भी बताई है। बताया है कि सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर साकार यानि नराकार है
विचार करो :- पुराण तो मनमाना आचरण करने वालों का अपना अनुभव है जो वेदों गीता तथा सूक्ष्मवेद से मेल नहीं करता। इसलिए ये साधना व्यर्थ है। तत्त्वदर्शी संत बताएगा कि परमात्मा कौन है? सत्य साधना कौन-सी है, गलत कौन सी है? गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान भी पूर्ण नहीं है, परंतु गलत भी नहीं। इसलिए तत्त्वदर्शी संत से जानने को कहा है। तत्त्वदर्शी संत बताएगा।
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Karva Chauth 2023: तिथि, शुभ मुहूर्त, चंद्रोदय का समय, विधि
Karva Chauth 2023 : करवा चौथ 2023: तिथि (puja time), शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और महत्व, कथा, सरगी, जानिए आपके शहर में चंद्रोदय का समय (moon time) ??
करवा चौथ(Karva Chauth 2023) हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण व्रत है, जो कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। यह एक प्रमुख पर्व है जो विवाहित महिलाएं अपने पति की लम्बी आयु और सुरक्षा की कामना करती हैं। इस व्रत में महिलाएं करवा चौथ की पूजा और उपवास करती हैं तथा चंद्रमा के दर्शन के बाद ही उपवास को खोलती हैं। यह पर्व हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों में धूमधाम से मनाया जाता है।
Karva Chauth 2023: करवा चौथ की पूजा के शुभ मुहूर्त
Karva Chauth 2023: करवा चौथ के उपवास के लाभ
करवा चौथ का व्रत रखने से महिलाओं को निम्नलिखित लाभ मिलते हैं:
Karva Chauth 2023: करवा चौथ की तिथि
हिंदू पंचांग के अनुसार, हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि (puja time) को करवा चौथ का व्रत रखा जाता है। इस बार करवा चौथ का व्रत 1 नवंबर 2023, बुधवार को रखा जाएगा।
Karva Chauth 2023: करवा चौथ पर चंद्रोदय का समय
करवा चौथ पर चंद्रोदय का समय स्थान के अनुसार अलग-अलग होता है। कुछ प्रमुख शहरों में चंद्रोदय का समय (moon time) निम्नलिखित है:
करवा चौथ की पूजा विधि
करवा चौथ की पूजा विधि निम्नलिखित है:
करवा चौथ का महत्व
करवा चौथ एक हिंदू त्योहार है जो विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी आयु और सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं सुबह से लेकर चंद्रोदय तक निर्जला व्रत रखती हैं। चंद्रोदय के बाद महिलाएं चंद्रमा को अर्घ्य देकर अपना व्रत खोलती हैं।
करवा चौथ के महत्व के बारे में कुछ विशेष बातें
करवा चौथ (Karva Chauth 2023) व्रत का हिन्दू संस्कृति में विशेष महत्त्व है। इस दिन पति की लम्बी उम्र के पत्नियां पूर्ण श्रद्धा से निर्जला व्रत रखती है। कार्तिक मास की चतुर्थी को करवा चौथ का त्योहार ��नाया जाता है । इस साल एक नवंबर को करवा चौथ का व्रत रखा जा रहा है । दरअसल, इस साल कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि 31 अक्टूबर मंगलवार रात 9 बजकर 30 मिनट से शुरू होकर एक नवंबर रात 9 बजकर 19 मिनट तक है । ऐसे में उदया तिथि के अनुसार, करवा चौथ का व्रत बुधवार यानि 1 नवंबर को रखा जायेगा।
1 नवंबर को चन्द्रमाम(MOON) अपनी उच्च राशि वृषभ में होंगे। इसी के साथ मंगल, बुध और सूर्य तुला राशि में हैं। सूर्य और बुध बुधादित्य योग बना रहे हैं तो मंगल और सूर्य मिलकर मंगलादित्य योग बना रहे हैं। शनि भी 30 साल बाद अपनी मूलत्रिकोण राशि कुंभ में योग बना रहे हैं। इस दिन शिवयोग मृगशिरा नक्षत्र और बुधादित्य योग का संगम रहेगा। शिव योग शिव को समर्पित, मृगशिरा नक्षत्र मंगल को समर्पित, बुधादित्य योग यश और ज्ञान का प्रतीक माना गया है। इन योगों से पर्व का महत्व हजारों गुना बढ़ गया है।
Karva Chauth 2023: करवा चौथ का महात्म्य
छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार चंद्रमा में पुरुष रूपी ब्रह्मा की उपासना करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इससे जीवन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। साथ ही साथ इससे लंबी और पूर्ण आयु की प्राप्ति होती है। करवा चौथ के व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश तथा चंद्रमा का पूजन करना चाहिए। चंद्रोदय के बाद चंद्रमा को अर्घ्य देकर पूजा होती है। पूजा के बाद मिट्टी के करवे में चावल,उड़द की दाल, सुहाग की सामग्री रखकर सास अथवा सास के समकक्ष किसी सुहागिन के पांव छूकर सुहाग सामग्री भेंट करनी चाहिए।
महाभारत से संबंधित पौराणिक कथा के अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं। दूसरी ओर बाकी पांडवों पर कई प्रकार के संकट आन पड़ते हैं। द्रौपदी भगवान श्रीकृष्ण से उपाय पूछती हैं। वह कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवाचौथ का व्रत करें तो इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है। द्रौपदी विधि विधान सहित करवाचौथ (Karva Chauth) का व्रत रखती है जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। इस प्रकार की कथाओं से करवा चौथ का महत्त्व हम सबके सामने आ जाता है।
सरगी का महत्त्व
करवा चौथ (Karva Chauth 2023) में सरगी का काफी महत्व है। सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाती है। इसका सेवन महिलाएं करवाचौथ के दिन सूर्य निकलने से पहले तारों की छांव में करती हैं। सरगी के रूप में सास अपनी बहू को विभिन्न खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र इत्यादि देती हैं। सरगी, सौभाग्य और समृद्धि का रूप होती है। सरगी के रूप में खाने की वस्तुओं को जैसे फल, मीठाई आदि को व्रती महिलाएं व्रत वाले दिन सूर्योदय से पूर्व प्रात: काल में तारों की छांव में ग्रहण करती हैं। तत्पश्चात व्रत आरंभ होता है। अपने व्रत को पूर्ण करती हैं।
महत्त्व के बाद बात आती है कि करवा चौथ की पूजा विधि क्या है? किसी भी व्रत में पूजन विधि का बहुत महत्त्व होता है। अगर सही विधि पूर्वक पूजा नहीं की जाती है तो इससे पूरा फल प्राप्त नहीं हो पाता है। वैसे अलग अलग क्षेत्र में ये पूजा अलग अलग विधि विधान से की जाती है । कहीं कहीं इसे गणेश चौथ के नाम से भी मनाया जाता है ।
करवा चौथ (Karva Chauth 2023) को लेकर कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं । आइए जानते कुछ प्रमुख कथाओं के बारे में –
प्रथम कथा
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ (Karva Chauth) का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।
सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो।
इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्य देकर खाना खाने बैठ जाती है।
वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।
उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ? करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।
सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा ��ास को वह एकत्रित करती जाती है।
एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन ��ता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।
इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।
अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।
Karva Chauth 2023: करवाचौथ की द्वितीय कथा
इस कथा का सार यह है कि शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।
परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।
Karva Chauth 2023: करवा चौथ की तृतीय कथा
एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।
उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपरा�� में आप अपने बल से नरक में ले जाओ।
यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
Karva Chauth 2023: करवाचौथ की चौथी कथा
एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रौपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था।
पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।
तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।
एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।
भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।
भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलि��� यह कष्ट मिला। अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए क��वा चौथ व्रत करती हैं। सायं काल में चंद्रमा के दर्शन करने के बाद ही पति द्वारा अन्न एवं जल ग्रहण करें। पति, सास-ससुर सब का आशीर्वाद लेकर व्रत को समाप्त करें।
पूजा एवं चन्द्र को अर्घ्य देने का मुहूर्त
कार्तिक कृष्ण चतुर्थी (Karva Chauth) 1 नवम्बर को करवा चौथ पूजा मुहूर्त- सायं 05:35 से 06:55 बजे तक।
चंद्रोदय- 20:06 मिनट पर।
चतुर्थी तिथि प्रारम्भ - 31 अक्टूबर को रात्रि 09:30 बजे से।
चतुर्थी तिथि समाप्त - 01 नवम्बर को रात्रि 09:19 बजे।
इस साल 13 घंटे 26 मिनट का समय व्रत के लिए है। ऐसे में महिलाओं को सुबह 6 बजकर 40 मिनट से शाम 08 बजकर 06 मिनट तक करवा चौथ का व्रत रखना होगा।
करवा चौथ के दिन चन्द्र को अर्घ्य देने का समय रात्रि 8:07 बजे से 8:55 तक है।
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार करवा चौथ के दिन शाम के समय चन्द्रमा को अर्घ्य देकर ही व्रत खोला जाता है।
चंद्रदेव को अर्घ्य देते समय इस मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए। अर्घ्य देते समय इस मंत्र के जप करने से घर में सुख व शांति आती है।
"गगनार्णवमाणिक्य चन्द्र दाक्षायणीपते।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गणेशप्रतिरूपक॥"
इसका अर्थ है कि सागर समान आकाश के माणिक्य, दक्षकन्या रोहिणी के प्रिय व श्री गणेश के प्रतिरूप चंद्रदेव मेरा अर्घ्य स्वीकार करें।
सुख सौभाग्य के लिये राशि अनुसार उपाय
मेष राशि- मेष राशि की महिलाएं करवा चौथ की पूजा अगर लाल और गोल्डन रंग के कपड़े पहनकर करती हैं तो आने वाला समय बेहद शुभ रहेगा।
वृषभ राशि - वृषभ राशि की महिलाओं को इस करवा चौथ सिल्वर और लाल रंग के कपड़े पहनकर पूजा करनी चाहिए। इस रंग के कपड़े पहनकर पूजा करने से आने वाले समय में पति-पत्नी के बीच प्यार में कभी कमी नहीं आएगी।
मिथुन राशि - इस राशि की महिलाओं के लिए हरा रंग इस करवा चौथ बेहद शुभ रहने वाला है। इस राशि की महिलाओं को करवा चौथ के दिन हरे रंग की साड़ी के साथ हरी और लाल रंग की चूड़ियां पहनकर चांद की पूजा करनी चाहिए। ऐसा करने से आपके पति की आयु निश्चित लंबी होगी।
कर्क राशि - कर्क राशि की महिलाओं को करवा चौथ की पूजा विशेषकर लाल-सफेद रंग के कॉम्बिनेशन वाली साड़ी के साथ रंग-बिरंगी चूडि़यां पहनकर पूजा करनी चाहिए। याद रखें इस राशि की महिलाओं को व्रत खोलते समय चांद को सफेद बर्फी का भोग लगाना चाहिए। ऐसा करने से आपके पति का प्यार आपके लिए कभी कम नहीं होगा।
सिंह राशि - करवा चौथ की साड़ी चुनने के लिए इस राशि की महिलाओं के पास कई विकल्प मौजूद हैं। इस राशि की महिलाएं लाल, संतरी, गुलाबी और गोल्डन रंग चुन सकती है। इस रंग के कपड़े पहनकर पूजा करने से शादीशुदा जोड़े के वैवाहिक जीवन में हमेशा प्यार बना रहता है।
कन्या राशि - कन्या राशि वाली महिलाओं को इस करवा चौथ लाल-हरी या फिर गोल्डन कलर की साड़ी पहनकर पूजा करने से लाभ मिलेगा। ऐसा करने से दोनों के वैवाहिक जीवन में मधुरता बढ़ जाएगी।
तुला राशि - इस राशि की महिलाओं को पूजा करते समय लाल- सिल्वर रंग के कपड़े पहनने ��ाहिए। इस रंग के कपड़े पहनने पर पति का साथ और प्यार दोनों हमेशा बना रहेगा।
वृश्चिक राशि - इस राशि की महिलाएं लाल, मैरून या गोल्डन रंग की साड़ी पहनकर पूजा करें तो पति-पत्नी के बीच प्यार बढ़ जाएगा।
धनु राशि - इस राशि की महिलाएं पीले या आसमानी रंग के कपड़े पहनकर पति की लंबी उम्र की कामना करें।
मकर राशि - मकर राशि की महिलाएं इलेक्ट्रिक ब्लू रंग करवा चौथ पर पहनने के लिए चुनें। ऐसा करने से आपके मन की हर इच्छा जल्द पूरी होगी।
कुंभ राशि - ऐसी महिलाओं को नेवी ब्लू या सिल्वर कलर के कपड़े पहनकर पूजा करनी चाहिए। ऐसा करने से गृहस्थ जीवन में सुख शांति बनी रहेगी।
मीन राशि - इस राशि की महिलाओं को करवा चौथ पर लाल या गोल्डन रंग के कपड़े पहनना शुभ होगा।
समापन
करवा चौथ का यह पर्व सामाजिक एकता और परंपरा का प्रतीक है। इस विशेष दिन पर, हम सभी महिलाएं अपने पति की खुशियों की कामना करती हैं और उनके साथ विशेष रूप से समय बिताती हैं। इसके अलावा, यह एक विशेष अवसर है जब हम समाज में एक साथ आकर्षित होते हैं और परंपरा का महत्व समझते हैं। इस करवा चौथ पर, हम सभी को खुशियों और समृद्धि की कामना है, और हम साथ हैं इस खास पर्व को और भी खास बनाने के लिए।
करवा चौथ (Karva Chauth 2023) की सभी महिलाओं को हार्दिक शुभकामनाएं। आप सभी के पति की लंबी आयु और सुख समृद्धि की कामना करता हूं।
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श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप 2.17 https://srimadbhagavadgita.in/2/17 अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ २.१७ ॥ TRANSLATION जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही अविनाशी समझो । उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है । PURPORT इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट वर्णन हुआ है । सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है । प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पुरे भाग में सुख-दुख का अनुभव होता है । किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी के शरीर तक ही सीमित रहती है । एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दुसरे शरीर को नहीं हो पाता । फलतः प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है । इस आत्मा को बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है । श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (५.९) इसकी पुष्टि हुई है – बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ “यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय और फिर इनमें ��े प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की माप आत्मा का परिमाप है ।” इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है – केशाग्रशतभागस्य शतांशः सादृशात्मकः । जीवः सूक्ष्मस्वरूपोSयं संख्यातीतो हि चित्कणः ॥ “आत्मा के परमाणुओं के अनन्त कण हैं जो माप में बाल के अगले भाग (नोक) के दस हजारवें भाग के बराबर हैं ।” इस प्रकार आत्मा का प्रत्येक कण भौतिक परमाणुओं से भी छोटा है और ऐसे असंख्य कण हैं । यह अत्यन्त लघु आत्म-संफुलिंग भौतिक शरीर का मूल आधार है और इस आत्म-संफुलिंग का प्रभाव सारे शरीर में उसी तरह व्याप्त है जिस प्रकार किसी औषधि का प्रभाव व्याप्त रहता है । आत्मा की यह धरा (विद्युतधारा) सारे शरीर में चेतना के रूप में अनुभव की जाती हैं और यही आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण है । सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह भौतिक संयोग के फलस्वरूप नहीं है, अपितु आत्मा के कारण है । मुण्डक उपनिषद् में (३.१.९) सूक्ष्म (परमाणविक) आत्मा की और अधिक विवेचना हुई है – एषोSणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश । प्राणैश्र्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ॥ “आत्मा आकार में अणु तुल्य है जिसे पूर्ण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है । यह अणु-आत्मा पाँच प्रकार के प्राणों में तैर रहा है (प्राण, अपान, व्यान, समान और उड़ान); यह हृदय के भीतर स्थित है और देहधारी जीव के पुरे शरीर में अपने प्रभाव का विस्तार करता है । जब आत्मा को पाँच वायुओं के कल्मष से शुद्ध कर लिया जाता है तो इसका आध्यात्मिक प्रभाव प्रकट होता है ।” हठ-योग का प्रयोजन विविध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों को नियन्त्रित करना है जो आत्मा की घेरे हुए हैं । यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं, अपितु भौतिक आकाश के बन्धन से अणु-आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है । इस प्रकार अणु-आत्मा को सारे वैदिक साहित्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है । केवल मुर्ख व्यक्ति ही इस अणु-आत्मा को सर्वव्यापी विष्णु-तत्त्व के रूप में सोच सकता है । अणु-आत्मा का प्रभाव पुरे शरीर में व्याप्त हो सकता है । मुण्डक उपनिषद् के अनुसार यह अणु-आत्मा प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और चूँकि भौतिक विज्ञानी इस अणु-आत्मा को माप सकने में असमर्थ हैं, उसे उनमें से कुछ यह अनुभव करते हैं कि आत्मा है ही नहीं । व्यष्टि आत्मा तो निस्सन्देह परमात्मा के साथ-साथ हृदय में हैं और इसीलिए शारीरिक गतियों की साड़ी शक्ति शरीर के इसी भाग से उद्भूत है । जो लाल रक्तगण फेफड़ों से आक्सीजन ले जाते हैं वे आत्मा से ही शक्ति प्राप्त करते हैं । अतः जब आत्मा ��स स्थान से निकल जाता है तो रक्तोपादक संलयन (फ्यूज़न) बंद हो जाता है । औषधि विज्ञान लाल रक्तकणों की महत्ता को स्वीकार करता है, किन्तु वह यह निश्चित नहीं कर पाता कि शक्ति का स्त्रोत आत्मा है । जो भी हो, औषधि विज्ञान यह स्वीकार करता है कि शरीर की सारी शक्ति का उद्गमस्थल हृदय है । पूर्ण आत्मा के ऐसे अनुकणों की तुलना सूर्य-प्रकाश के कणों से की जाती है । इस सूर्य-प्रकाश में असंख्य तेजोमय अणु होते हैं । इसी प्रकार परमेश्र्वर के अंश उनकी किरणों के परमाणु स्फुलिंग है और प्रभा या परा शक्ति कहलाते हैं । अतः चाहे कोई वैदिक ज्ञान का अनुगामी हो या आधुनिक विज्ञान का, वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता । भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता में आत्मा के इस विज्ञान का विशद वर्णन किया है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.17 avināśi tu tad viddhi yena sarvam idaṁ tatam vināśam avyayasyāsya na kaścit kartum arhati TRANSLATION That which pervades the entire body you should know to be indestructible. No one is able to destroy that imperishable soul. PURPORT This verse more clearly explains the real nature of the soul, which is spread all over the body. Anyone can understand what is spread all over the body: it is consciousness. Everyone is conscious of the pains and pleasures of the body in part or as a whole. This spreading of consciousness is limited within one’s own body. The pains and pleasures of one body are unknown to another. Therefore, each and every body is the embodiment of an individual soul, and the symptom of the soul’s presence is perceived as individual consciousness. This soul is described as one ten-thousandth part of the upper portion of the hair point in size. The Śvetāśvatara Upaniṣad (5.9) confirms this: bālāgra-śata-bhāgasya śatadhā kalpitasya ca bhāgo jīvaḥ sa vijñeyaḥ sa cānantyāya kalpate “When the upper point of a hair is divided into one hundred parts and again each of such parts is further divided into one hundred parts, each such part is the measurement of the dimension of the spirit soul.” Similarly the same version is stated: keśāgra-śata-bhāgasya śatāṁśaḥ sādṛśātmakaḥ jīvaḥ sūkṣma-svarūpo ’yaṁ saṅkhyātīto hi cit-kaṇaḥ “There are innumerable particles of spiritual atoms, which are measured as one ten-thousandth of the upper portion of the hair.” Therefore, the individual particle of spirit soul is a spiritual atom smaller than the material atoms, and such atoms are innumerable. This very small spiritual spark is the basic principle of the material body, and the influence of such a spiritual spark is spread all over the body as the influence of the active principle of some medicine spreads throughout the body. This current of the spirit soul is felt all over the body as consciousness, and that is the proof of the presence of the soul. Any layman can understand that the material body minus consciousness is a dead body, and this consciousness cannot be revived in the body by any means of material administration. Therefore, consciousness is not due to any amount of material combination, but to the spirit soul. In the Muṇḍaka Upaniṣad (3.1.9) the measurement of the atomic spirit soul is further explained: eṣo ’ṇur ātmā cetasā veditavyo yasmin prāṇaḥ pañcadhā saṁviveśa prāṇaiś cittaṁ sarvam otaṁ prajānāṁ yasmin viśuddhe vibhavaty eṣa ātmā “The soul is atomic in size and can be perceived by perfect intelligence. This atomic soul is floating in the five kinds of air (prāṇa, apāna, vyāna, samāna and udāna), is situated within the heart, and spreads its influence all over the body of the embodied living entities. When the soul is purified from the contamination of the five kinds of material air, its spiritual influence is exhibited.” The haṭha-yoga system is meant for controlling the five kinds of air encircling the pure soul by different kinds of sitting postures – not for any material profit, but for liberation of the minute soul from the entanglement of the material atmosphere. So the constitution of the atomic soul is admitted in all Vedic literatures, and it is also actually felt in the practical experience of any sane man. Only the insane man can think of this atomic soul as all-pervading viṣṇu-tattva. The influence of the atomic soul can be spread all over a particular body. According to the Muṇḍaka Upaniṣad, this atomic soul is situated in the heart of every living entity, and because the measurement of the atomic soul is beyond the power of appreciation of the material scientists, some of them assert foolishly that there is no soul. The individual atomic soul is definitely there in the heart along with the Supersoul, and thus all the energies of bodily movement are emanating from this part of the body. The corpuscles which carry the oxygen from the lungs gather energy from the soul. When the soul passes away from this position, the activity of the blood, generating fusion, ceases. Medical science accepts the importance of the red corpuscles, but it cannot ascertain that the source of the energy is the soul. Medical science, however, does admit that the heart is the seat of all energies of the body. Such atomic particles of the spirit whole are compared to the sunshine molecules. In the sunshine there are innumerable radiant molecules. Similarly, the fragmental parts of the Supreme Lord are atomic sparks of the rays of the Supreme Lord, called by the name prabhā, or superior energy. So whether one follows Vedic knowledge or modern science, one cannot deny the existence of the spirit soul in the body, and the science of the soul is explicitly described in the Bhagavad-gītā by the Personality of Godhead Himself. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart-5 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart-6
"दूसरा अध्याय"
"पवित्र हिन्दू शास्त्र V/S हिन्दू"
[हिन्दू धर्म को सनातन धर्म तथा वैदिक धर्म भी कहा जाता है।]
"पवित्र हिन्दू धर्म के मुख्य शास्त्र"
धर्मनिष्ठ हिन्दू समाज की धार्मिक पुस्तक इस प्रकार हैं पवित्र चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद), पवित्र श्रीमद्भगवत गीता, अठारह पुराण, महाभारत ग्रन्थ, श्रीमद्भागवत् (सुधा सागर) तथा ग्यारह उपनिषद् आदि-आदि। हिन्दुओं का मानना है कि इन सर्व पवित्र शास्त्रों में परमात्मा की जानकारी है, भक्ति की जानकारी है, ये सत्य ज्ञान युक्त हैं। इन्हीं को आधार मानकर अपने धार्मिक अनुष्ठान व भक्ति कर्म करता है। अधिक संख्या में हिन्दुओं का निवास स्थान होने के कारण महान भारत देश का नाम हिन्दुस्तान भी है।
"पवित्र हिन्दू (सनातन) धर्मग्रंथों की अच्छी बातें"
पवित्र गीता की अच्छी बातें :- 1. श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि :-
गीता अध्याय 16 श्लोक 23:- हे अर्जुन! जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है। उसको न सुख प्राप्त होता है, न
सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उसकी गति यानि मुक्ति (मोक्ष प्राप्ति) होती है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 24: इससे तेरे लिए अर्जुन! कर्तव्य (जो साधना करनी चाहिए) तथा अकर्तव्य (जो साधना नहीं करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। तू शास्त्रोक्त भक्ति कर।
* गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू
नहीं जानता, मैं जानता हूँ। तू, मैं और ये राजा लोग पहले भी जन्में थे और आगे भी जन्मेंगे। • मेरी उत्पत्ति को ऋषिजन व देवतागण नहीं जानते क्योंकि ये मेरे से
उत्पन्न हुए हैं। (स्पष्ट है गीता ज्ञान कहने वाला नाशवान है।) • गीता अध्याय 2 श्लोक 17, गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि हे अर्जुन! अविनाशी तो उसको जान जिसे मारने में कोई सक्षम नहीं है। जिससे सारा संसार व्याप्त है यानि जिसने संसार की उत्पत्ति की है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। परमात्मा कहा जाता है। अविनाशी परमेश्वर है। वह (उत्तम पुरुषः तू अन्य) पुरूषोत्तम यानि समर्थ श्रेष्ठ परमात्मा तो मेरे से अन्य ही है जो परमात्मा कहलाता है। वह अविनाशी परमेश्वर है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान देने वाले ने कहा है कि हे
भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जा, उसकी कृपा से परमशांति को तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम यानि अविनाशी लोक (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।
"जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है, उसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 1,3,8,9,10, 20-22, गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इस प्रकार कहा है" :- अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में प्रश्न किया कि आपने गीता अध्याय 7 श्लाक 29 में जिस तत् ब्रह्म के विषय में कहा है वह तत् ब्रह्म क्या है? गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि "वह परम अक्षर ब्रह्म है। उसी के विषय में श्लोक 89,10, 20-22 में कहा है कि जो तत् ब्रह्म" यानि परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करता है, वह उसी को प्राप्त होता है। वह (उत्तमः पुरुषः तू अन्यः) पुरुषोत्तम तो मेरे से अन्य है। वह परमात्मा कहा जाता है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। अविनाशी परमेश्वर है।
• अपने विषय में गीता ज्ञान दाता ने इस प्रकार कहा है : गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में कहा है कि जो मेरी भक्ति करेगा, वह मुझे प्राप्त होगा। युद्ध भी कर, मेरा स्मरण भी कर। गीता ज्ञान देने वाले ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में अपनी स्थिति बताई है कि तू, मैं और ये राजा लोग सब जन्म व मृत्यु को प्राप्त होते हैं। तेरे व मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं। (स्पष्ट है कि गीता ज्ञान कहने वाला नाशवान है।)
• गीता शास्त्र में पित्तर व भूत पूजा, देवताओं की पूजा निषेध कही है। व्रत करना व्यर्थ कहा है। कर्म सन्यास गलत कहा है। कर्म करते-करते भक्ति करना उत्तम बताया है।
प्रमाण :- गीता अध्याय 9 श्लोक 25, गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15, 20- 23, गीता अध्याय 6 श्लोक 16, गीता अध्याय 5 श्लोक 2-6, गीता अध्याय 3 श्लोक 49 में।
• पवित्र वेदों की अच्छी बातें : परमात्मा सबसे ऊपर के लोक में विराजमान (बैठा) है। वह राजा के समान दिखाई देता है यानि सिहांसन पर बैठा है। सिर के ऊपर मुकट है, सफेद छत्र है, नराकार है।
• परमात्मा ऊपर के लोक से गति करके (चलकर) पृथ्वी पर आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनके संकटों को समाप्त करता है।
• कवियों जैसा आचरण करता हुआ घूमता है। अपने मुख कमल से वार्�� बोलकर भक्ति करने के लिए प्रेरणा करता है। भक्ति के गुप्त नामों (मंत्रों) का आविष्कार करता है।
• परमात्मा तत्त्वज्ञान यानि सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान को (काव्येना) कवित्व से यानि दोहों, शब्दों, चौपाईयों के रूप में बोलता है। इस कारण से प्रसिद्ध कवियों में से एक कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है यानि उसी कारण से परमात्मा कवि भी कहलाता है।
* परमेश्वर तीन प्रकार की लीला करता है :-
1. प्रत्येक युग में अपने लोक से सशरीर आकर किसी सरोवर में कमल के फूल पर नवजात शिशु के रूप में विराजमान होता है। उस शिशु की परवरिश (पोषण) की लीला कंवारी गायों द्वारा होती है। बड़ा होकर तत्त्वज्ञान प्रचार करता है।
2. परमात्मा कभी भी किसी स्थान पर प्रकट होकर भक्तों को वेश बदलकर मिलता है। उनकी रक्षा करता है। भक्ति का सच्चा मार्ग बताता है। 3. वेश बदलकर किसी स्थान पर संत वेश में कुछ समय रहता है। वहाँ कुटिया या आश्रम बनाकर अच्छी आत्माओं को भक्ति की सच्ची विधि व तत्त्वज्ञान सुनाता है।
• पुराणों की अच्छी बातें: सब तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ चित्तशुद्धि तीर्थ है। उदाहरण दिया है कि "तीर्थों के जल में स्नान करने से शरीर का मैल तो धुल जाता है, परंतु मन का मैल नहीं धुलता। उसके लिए तत्त्वदर्शी संत का सत्संग सुनना चाहिए। सत्संग चित्तशुद्धि करता है। यह चित्तशुद्धि तीर्थ कहा जाता है। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में भी इसी कथन का समर्थन है। • एक समय ऋषि वशिष्ठ जी तथा ऋषि विश्वामित्र जी गंगा दरिया के किनारे आश्रमों में रहते थे। गंगा तीर्थ के जल में प्रतिदिन स्नान करते थे। उसी गंगा जल को पीते थे। एक बार किसी बात पर दोनों का क्लेश हो गया। दोनों ने शस्त्र निकाल लिए, एक-दूसरे को मारने को तैयार हो गए। उनका बीच-बचाव करवाकर युद्ध समाप्त करवाया।
• सूक्ष्मवेद में कहा है कि :- कबीर, गंगा कांडै घर करें, पीवै निर्मल नीर।
मुक्ति नहीं सत्यनाम बिन, कह सच्च कबीर ।। कबीर, तीर्थ कर-कर जग मुआ, ऊड़े पानी न्हाय । सत्यनाम जपा नहीं, काल घसीटें जाय ।।
अर्थात् गंगा नदी के किनारे निवास करें, मोक्षदायिनी मानकर तथा गंगा का निर्मल पानी पीते हैं, परंतु भक्ति के सत्य शास्त्र प्रमाणित नाम बिना मोक्ष संभव नहीं है।
कबीर परमेश्वर जी आगे बताते हैं कि भ्रमित ज्ञान के आधार से संसार के व्यक्ति तीर्थों पर जाते हैं। आजीवन यह साधना करते हैं। जब मृत्यु हो जाती है तो उनको राहत उस साधना से नहीं मिलती। काल के ��ूत उनको बलपूर्वक (घसीटकर) खींचकर ले जाते हैं, दंडित करते हैं।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज ��ी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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#आखिर_ऊंट_आ_ही_गया_पहाड़केनीचे
जिस समय गीता जी का ज्ञान बोला जा रहा था, उससे पहले न तो अठारह पुराण थे और न ही कोई ग्यारह उपनिषद् व छः शास्त्र ही थे। जो बाद में ऋषियों ने अपने-अपने अनुभवों की पुस्तकें रची हैं। उस समय केवल पवित्र चारों वेद ही शास्त्र रूप में प्रमाणित थे और उन्हीं पवित्र चारों वेदों का सारांश पवित्र गीता जी में वर्णित है।
Jawab To Dena Padega
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