#आज की खबर कानपुर
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🎊कानपुर के लिए बढ़िया खबर। मोतीझील से नयागंज के बीच आज अंडरग्राउंड सेक्शन की अप-लाइन पर टेस्टिंग हुई। जल्द ट्रायल शुरू होने की उम्मीद🎆
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यूपी का मौसम: हवा से कुछ राहत, आज बारिश की उम्मीद, झांसी रहा सबसे गर्म जिला
लखनऊ: आस-पास के इलाकों में छाई बदली और हवाओं के रुख में बदलाव के कारण राजधानी वालों को गर्मी से कुछ राहत मिली। शनिवार को लखनऊ का अधिकतम तापमान 42.20 डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ जो एक दिन पहले के तापमान से 3.60 डिग्री कम है। यूपी की बात करें तो 46.9 डिग्री सेल्सियस के साथ झांसी सबसे गर्म रहा।मौसम वैज्ञानिक एम दानिश ने बताया कि लखनऊ में रविवार और और सोमवार को बारिश के कारण पारा गिरेगा पर उमस बढ़ेगी। उन्होंने बताया कि रविवार और सोमवार को 40-50 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से हवाएं भी चलेंगी। पश्चिमी विक्षोभ की वजह से यह राहत कुछ दिन कायम रह सकती है। बारिश के बावजूद गर्म रहा झांसी शनिवार को झांसी सबसे गर्म रहा हालांकि यहां पर दोपहर 03:50 बजे हल्की बारिश भी हुई। वहीं उरई में 45.80 और कानपुर में 45.40 डिग्री सेल्सियस तापमान रहा। छह लोगों की जान गई आसमान से बरस रही आग से बेहाल चार लोगों की शनिवार को 4 लोगों की जान चली गई। रमाबाई पार्क में पीएसी की गारद में एक जवान की मौत हो गई। वहीं, कैसरबाग, हजरतगंज और चिनहट में भी एक-एक मौतों की खबर मिली है। बाराबंकी में भी दो लोगों की जान चली गई, हालांकि मौत की असली वजह पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के बाद ही सामने आएगी। http://dlvr.it/T7jcnL
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यूपी के कानपुर में बिजनेसमैन के बेटे की किडनैपिंग के बाद हत्या कर दी गई यूपी के कानपुर में बिजनेसमैन के बेटे की किडनैपिंग के बाद हत्या कर दी गई. वह दसवीं में पढ़ता था. सोमवार शाम को कुशाग्र कोचिंग के लिए घर से निकला था लेकिन वापस नहीं लौटा. इस बीच घरवालों को 30 लाख की फिरौती वाला लेटर मिला तो हड़कंप मच गया. फौरन पुलिस को इसकी सूचना दी गई. लेकिन आज सुबह कुशाग्र का शव एक घर से बरामद हुआ. मामले में महिला टीचर सहित दो को हिरासत में ले लिया गया है. बताया जा रहा है कि 16 वर्षीय कुशाग्र का शव फजलगंज थाना क्षेत्र से बरामद हुआ है. अपहरणकर्ताओं ने कुशाग्र के घरवालों से 30 लाख रुपये फिरौती की मांग की थी. फिरौती न मिलने पर छात्र की बेरहमी से हत्या कर दी गई. अभी रस्सी से गला घोंटकर हत्या करने की बात सामने आ रही है. दरअसल, जैसे ही कल देर रात कानपुर पुलिस के पास कुशाग्र की किडनैपिंग की खबर आई तो महकमे में हड़कंप मच गया. फौरन मौके पर दोनों जॉइंट कमिश्नर समेत पूरी फोर्स पहुंच गई और छानबीन शुरू कर दी गई. मगर सुबह कुशाग्र की लाश मिली तो घर में कोहराम मच गया. बताया गया कि शहर के एक बड़े कपड़ा व्यापारी का बेटा कुशाग्र प्रतिष्ठित स्कूल में 10 कक्षा में पढ़ता था. घरवालों ने बताया कि उनका बेटा शाम को अपनी स्कूटी से कोचिंग गया था और उसके बाद लौट कर नहीं आया. इसी बीच उनके घर पर कोई व्यक्ति मुंह पर कपड़ा बांधे हुए स्कूटी से आया और एक लेटर दे गया, जिसमें लिखा था कि बच्चा चाहिए तो 30 लाख फिरौती देनी पड़ेगी. पहले तो पुलिस को यह फिरौती का मामला लगा लेकिन जब पुलिस ने जांच पड़ताल शुरू की तो केस कुछ और ही निकला. कुशाग्र की ट्यूशन टीचर और उसके बॉयफ्रेंड से पुलिस ने पूछताछ की. पहले तो उन्होंने गुमराह किया लेकिन बाद में पुलिस की सख्ती देख दोनों ने सारी बात कबूल कर ली. जिसके आधार पर पुलिस ट्यूशन टीचर रचिता के घर जा पहुंची, जहां स्टोर रूम में कुशाग्र की डेड बॉडी मिली. पुलिस के मुताबिक, कुशाग्र की मौत कल शाम करीब 5.30 बजे ही हो गई थी. फिरौती की मांग सिर्फ पुलिस को गुमराह करने के लिए की गई. सीसीटीवी चेक करने पर पता चला की कुशाग्र खुद अपनी मर्जी से टीचर के घर में गया था. सीसीटीवी में वह घर के अंदर जाता हुआ ��िख रहा है. फिर रचिता, उसका बॉयफ्रेंड प्रभात स्टोर रूम में जाते हुए दिख रहे ह��ं. करीब आधे घंटे बाद दोनों कमरे से बाहर निकलते हैं लेकिन कुशाग्र अंदर ही रहता है. आशंका है कि इसी समय उसकी हत्या कर दी गई थी. इसके बाद प्रभात सीसीटीवी में कुशाग्र की स्कूटी ले जाता हुआ दिख रहा है. फिर वह और उसका दोस्त आर्यन स्कूटी से फिरौती का लेटर लेकर कुशाग्र के घर पर फेंक कर आते हैं. इस दौरान उन्होंने स्कूटी का नंबर बदल दिया था. पुलिस ने फिलहाल ट्यूशन टीचर रचिता, उसके बॉयफ्रेंड प्रभात और दोस्त आर्यन को गिरफ्तार कर लिया है. उनसे पूछताछ कर रही है. जल्द ही हत्या का मोटिव क्लियर हो जाएगा.
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बागेश्वर सरकार और करौली सरकार दोनों मे कौन है ज्यादा शक्तिशाली, जानिए यहाँ खबर
बागेश्वर सरकार और करौली सरकार दोनों मे कौन है ज्यादा शक्तिशाली, जानिए यहाँ खबर जैसा की दोस्तों हम सबको पता ही है की ��ज कल बागेश्वर सरकार पंडित धी��ेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी अपने चमत्कारो को लेकर कितने प्रसिद्ध हो रहे है। उनकी लोकप्रियता दिन प्रति दिन लगातार बढ़ती है जा रही है उनकी लोकप्रियता का बढ़ने के पीछे की मुख्य वजह यह बताई जाती है की वह पीड़ित व्यक्तियों की अर्जी स्वीकार करते है और उनके मन की बात मतलब की जो उस व्यक्ति की परेशानी होती है उनको एक पर्चे पर लिख देते है वह सिर्फ उन परेशानियों को लिखते बस नहीं है बल्कि उन परेशानियों को दूर भी करते है और उनके द्वारा इसके लिए किसी प्रकार की फीस या शुल्क नहीं लिया जाता है। लेकिन हम आपको बता दें की जब से बागेश्वर सरकार पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी का दिव्य दरबार लोगो के बीच मे एक चर्चा का विषय बना है उसके बाद से ही हमने यह देखा है की अनेक बाबा ऐसे आ रहे है जो इस प्रकार से दरबार लगाकर धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री के जैसे लोकप्रियता प्राप्त कर रहे है। जिनमे से एक है कानपुर के करौली बाबा करौली बाबा भी धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की तरह दरबार लगाते है और लोगो की समस्याओ को दूर करते है, तो चलिए सबसे पहले जान लेते है कौन करौली बाबा कानपुर के रहने वाले करौली बाबा एक कानपुर मे लोगो के बीच एक महान संत है उनका कानपुर मे लगभग 14 एकड़ से अधिक की जगह मे एक आश्रम है जहाँ वह हवन और पूजा पाठ भी करवाते है। करौली बाबा के नाम पहले से कई मामलो मे अपराधीक मुकदमे दर्ज है 1992 मे उनके ऊपर हत्या करने का आरोप भी लगाया गया था। उसके बाद वह एक किसान नेता भी बन गये और वर्तमान मे अभिषेक एक संत मे रूप मे लोगो के बिच बने हुए है।
बागेश्वर सरकार और करौली सरकार
बागेश्वर सरकार और करौली सरकार मे तुलना
बागेश्वर सरकार और करौली सरकार मे तुलना करना या फिर या बताना की दोनों मे से कौन ज्यादा शक्तिशाली है यह बता पाना इतना आसान नहीं है लेकिन हम आपको दोनों संतो के बारे मे कुछ बाते बता देते है जिससे आप स्वयं इस बात का आकलन लगा सकते है की दोनों संतो मे से कौन ज्यादा दयालु और ��क्तिशाली है चलिए जानते है। करौली सरकार बागेश्वर सरकार करौली सरकार के दरबार मे मुर्दो को जिन्दा करने दावा किया जाता है।जबकि बागेश्वर सरकार के दरबार मे इस प्रकार का कोई भी चमत्कार करने का दावा नहीं किया जाता।करौली सरकार के दरबार मे 3 इंच तक लम्बाई बढ़ाने के चमत्कार किये जाते है।जबकि बागेश्वर सरकार के दरबार मे ऐसा कोई चमत्कार नहीं होता है।करौली सरकार के दरबार मे 100 रूपये क रजिस्ट्रेशन चार्ज लिया जाता है।जबकि बागेश्वर सरकार का दरबार पूरी तरह से निशुल्क है।करौली सरकार के पुरे हवन और पूजा पाठ का खर्चा करीब 1 लाख 50 हजार है।जबकि बागेश्वर सरकार के धाम मे पूजा पाठ का कार्य पूरी तरह से निःशुक है करौली सरकार का दरबार अधिकतर कानपुर मे ही लगता है।जबकि बागेश्वर सरकार का दरबार देश मे कई जगह जहाँ पर भी कथा करने जाते है वह पर कम से कम 2 दिन का दरबार लगता है।बागेश्वर सरकार और करौली सरकार बागेश्वर धाम को कौन सी ट्रेन जाती है? Bageshwar dham katha fees|बागेश्वर धाम कथा की फीस कितनी लेते है Read the full article
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उत्तर प्रदेश: सैफई में मिनी ट्रक से कार की टक्कर में छह की मौत | कानपुर समाचार - टाइम्स ऑफ इंडिया
उत्तर प्रदेश: सैफई में मिनी ट्रक से कार की टक्कर में छह की मौत | कानपुर समाचार – टाइम्स ऑफ इंडिया
कानपुर : विपरीत दिशा से आ रहे एक मिनी ट्रक की टक्कर में छह लोगों की मौत हो गयी जबकि चार अन्य घायल हो गये. सैफई थाना क्षेत्र बुधवार दोपहर इटावा के हादसा सैफई के नगला राठौर इलाके के पास हुआ मैनपुरी-इटावा राजमार्ग. घायलों को सैफई आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया है जहां डॉक्टरों ने उनमें से एक की हालत नाजुक बताई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इटावा हादसे के पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त…
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उत्तर प्रदेश: सैफई में मिनी ट्रक से कार की टक्कर में छह की मौत | कानपुर समाचार - टाइम्स ऑफ इंडिया
उत्तर प्रदेश: सैफई में मिनी ट्रक से कार की टक्कर में छह की मौत | कानपुर समाचार – टाइम्स ऑफ इंडिया
कानपुर : विपरीत दिशा से आ रहे एक मिनी ट्रक की टक्कर में छह लोगों की मौत हो गयी जबकि चार अन्य घायल हो गये. सैफई थाना क्षेत्र बुधवार दोपहर इटावा के हादसा सैफई के नगला राठौर इलाके के पास हुआ मैनपुरी-इटावा राजमार्ग. घायलों को सैफई आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया है जहां डॉक्टरों ने उनमें से एक की हालत नाजुक बताई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इटावा हादसे के पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त…
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यूपी: समाजवादी पार्टी एमएलसी पुष्पराज जैन के परिसरों पर आयकर विभाग का छापा | कानपुर समाचार - टाइम्स ऑफ इंडिया
यूपी: समाजवादी पार्टी एमएलसी पुष्पराज जैन के परिसरों पर आयकर विभाग का छापा | कानपुर समाचार – टाइम्स ऑफ इंडिया
लखनऊ/कानपुर: आयकर विभाग ने कानपुर, कन्नौज, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और कुछ अन्य स्थानों पर लगभग 40 परिसरों की तलाशी ली, जिनमें से ज्यादातर इत्र निर्माताओं से जुड़े थे। शुक्रवार तड़के कन्नौज में समाजवादी परफ्यूम लॉन्च करने वाले एसपी एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पम्पी जैन समेत दो परफ्यूम कारोबारियों के प्रतिष्ठानों और आवासों पर आयकर विभाग ने छापेमारी की. इस बार भाजपा के अनुकूल अन्य पार्टी पार्टी…
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ऊर्जा बचाने के लिए कानपुर मेट्रो ट्रेनें | कानपुर समाचार
ऊर्जा बचाने के लिए कानपुर मेट्रो ट्रेनें | कानपुर समाचार
ऊर्जा बचाने के लिए कानपुर मेट्रो ट्रेनें | कानपुर समाचार कानपुर : ‘स्वच्छ मेट्रो, हरित मेट्रो’ की अवधारणा का पालन करते हुए और ऊर्जा संरक्षण के उद्देश्य को पूरा करने के लिए, उत्तर प्रदेश मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (UPMRC) ने इसे क्रियान्वित करते हुए एक और नवाचार का दावा किया है कानपुर मेट्रो रेल परियोजना। UPMRC ने दावा किया कि भारत में पहली बार उसने कानपुर मेट्रो रेल परियोजना में ट्रेन के…
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32 साल बाद सतीश महाना के रूप में फिर दोहराया गया इतिहास, यूपी विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर कानपुर को मिला सम्मान
32 साल बाद सतीश महाना के रूप में फिर दोहराया गया इतिहास, यूपी विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर कानपुर को मिला सम्मान
32 साल बाद सतीश महाना के रूप में फिर दोहराया गया इतिहास, यूपी विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर कानपुर को मिला सम्मान कानपुर। उत्तर प्रदेश के कानपुर को 32 साल की बाद एक बार फिर विधानसभा अध्यक्ष के रूप में विधानसभा में स्थान मिलने जा रहा है और जहां आज विधानसभा अध्यक्ष के रूप में सतीश महाना निर्विरोध निर्वाचित हो चुके और सिर्फ कार्यभार संभालना बाकी रह गया है। 32 साल पहले 1990 में कानपुर के हरिकिशन…
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कोरोना डायरी / अभिषेक श्रीवास्तव
22 मार्च, 2020
कम से कम छह किस्म की चिड़ियों की आवाज़ आ रही है।
कबूतर सांस ले रहे हैं, गोया हांफ रहे हों। तोते फर्र फुर्र करते हुए टें टें मचाये हुए हैं। एक झींगुरनुमा आवाज़ है, तो ए��� चुकचुकहवा जैसी। एक चिड़िया सीटी बजा रही है। दूसरी ट्वीट ट्वीट कर रही है। इसी कोरस में कहीं से चियांओ चियांओ, कभी कभी टिल्ल टिल्ल टाइप ध्वनि भी पकड़ में आती है। पूरा मोहल्ला अजायबघर हुआ पड़ा है।
अकेले कुत्ते हैं जो सदियों बाद धरती पर अपने सबसे अच्छे दोस्त मनुष्य की गैर-मौजूदगी से हैरान परेशान हैं। उनसे बोला भी नहीं जा रहा। वे आसमान की ओर देख कर कूंकते हैं, फिर कंक्रीट पर लोटते हुए चारों टांगें अंतरिक्ष में फेंक देते हैं। कुछ दूर दौड़ कर पार्क के गेट तक आते हैं। ताला बंद पाकर वापस गली में पहुंच जाते हैं। दाएं बाएं बालकनियों को निहारते हैं। रेंगनियों पर केवल सूखते कपड़े नज़र आते हैं।
इंसान अपने पिंजरे में कैद है। जानवरों से दुनिया आबाद है। ये ��न्नाटा नहीं, किसी अज़ाब के गिरने की आहट है।
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शाम से बिलकुल तस्कर टाइप फील हो रहा है।
दो दिन पहले रजनी तुलसी का स्टॉक भरने का ख़याल आया था। आश्वासन मिला कि ज़रूरत नहीं है, सब मिलेगा, यहीं मिलेगा। मैंने चेताया कि बॉस, कर्फ्यू है, घंटा मिलेगा। जवाब मिला, जनता का कर्फ्यू है, स्वेच्छा का मामला है, दिक्कत नहीं होगी। शाम को जब स्टॉक खत्म हुआ, तो दैनिक सहजता के साथ मैं चौराहे पर निकला। सब बंद था। केवल मदर डेयरी खुली थी। लगे हाथ दूध ले लिया। दूध को चबाया नहीं जा सकता यह मैं अच्छे से जानता हूं। संकट सघन था, अजब मन था। आदमी को काम पर लगाया गया। तम्बाकू की संभावना देख भीड़ जुट गयी। इसी बीच किसी ने मुखबिरी कर दी।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। आगे पीछे से हूटर बजाती पुलिस की जीपों और पुलिस मित्र जनता की निगहबानी के बीच एक डब्बा रजनी और दो ज़िपर तुलसी मैंने पार कर दी। इमरजेंसी के बीच गांजे का जुगाड़ करने मित्र के यहां गए कानपुर के उस नेता की याद बरबस हो आयी जो विजया भाव से लौटते वक्त बीच में धरा गये थे और आज तक आपातकाल के स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन समाजवादी पार्टी से पाते हैं।
तस्करी के माल का रस ले लेकर तब से सोच रहा हूं, काश यह संवैधानिक इमरजेंसी होती। मोदीजी भी न! राफेल से लेकर कर्फ्यू तक, हर काम off the shelf करते हैं!
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24 मार्च, 2020
आधी रात जा चुकी। आधी बच रही है। घर में दो दिन बंद हुए भारी पड़ रहे हैं पड़ोसी को। इस वक़्त चिल्ला रहा है। बीवी को चुप करा रहा है। परसों मेरे ऊपर वाले फ्लैट में विदेश से कुछ लोग वापस लौटे और ट्रक में सामान लोड करवाने लगे। कल बचा हुआ सामान लेने आए थे, कि पुलिस बुला ली गई। खबर फैली कि लोग इटली से आए थे। असामाजिक सोसायटियों में नेतागिरी के नए ठौर RWA के सदस्यों को चिल्लाने का बहाना मिल गया। मीटिंग जमी। बगल वाली सोसायटी में कोई दुबई से आया था, वहां भी पुलिस अाई।
लोगों को अपनी पॉवर दिखाने का नया बहाना मिला है। जनता पहली बार जनता के लिए पुलिस बुलवा रही है। दिल्ली पुलिस बरसों से कह रही है, हमारे आंख कान बनो। मौका अब आया है। एक मित्र बता ��हे थे कि शहर से जो गांव जा रहा है, गांव वाले उसकी रिपोर्ट थाने में दे रहे हैं। मित्र नवीन के लिए पुलिस नहीं बुलवानी पड़ी, उन्हें रास्ते में ही पुलिसवालों ने पीट दिया। एक वायरस ने यहां पुलिस स्टेट को न सिर्फ और मजबूत बना दिया है, बल्कि स्वीकार्य भी। सड़क पर कोई कुचल जाता है तो लोग मुंह फेर कर निकल लेते हैं। अब कोई खांस दे रहा है तो लोग सौ नंबर दबा दे रहे हैं।
समय बदल चुका है। यह बात झूठी है कि बाढ़ आती है तो सांप और नेवला एक पेड़ पर चढ़ जाते हैं। हर बाढ़ सांप को और ज़हरीला बनाती है, नेक्लों को और कटहा। अनुभव बताते हैं कि अकाल के दौर में मनुष्य नरभक्षी हुआ है। चिंपांज़ी पर पावलोव का प्रयोग सौ साल पहले यही सिखा गया है। जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की नींव कमजोर पड़ रही है, वे गलती पर हैं। यह नवउदारवाद का पोस्ट कैपिटलिस्ट यानी उत्तर पूंजीवादी संक्रमण है जहां पूंजीवाद और लोकतंत्र के बुनियादी आदर्श भी फेल हो जाने हैं। आदमी के आदमी बचने की गुंजाइश खत्म होती दिखती है गोकि आदमी की औकात एक अदद वायरस ने नाप दी है।
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25 मार्च, 2020
मेरा दोस्त मकनपुर रोड को खारदुंगला पास कहता है। आज प्रधान जी के ऐलान के बाद पहली बार उसके कहे का अहसास हुआ। पैदल तो पैदल, गाड़ीवाले भी भाक्काटे के मूड में लहरा रहे थे। पहला नज़ारा गली में पतंजलि और श्रीश्री की ज्वाइंट दुकान। बंटोरा बंटोरी चल रही थी। सामने परचून वाले के यहां जनता का शटर लगा हुआ था, कुछ नहीं दिख रहा था। मदर डेयरी के बाहर कोई तीसेक लोगों की कतार। सब्ज़ी वाला हलवाई बन चुका था, बचे खुचे प्याज और टमाटर गुलाबजामुन हो गए थे और इंसान मक्खी। प्याज पर जब हमला हुआ तो खुद दुकान के भीतर से एक आदमी आकर छिलके में से कुछ चुनने लगा। मैंने तरेरा, तो बोला - घरे भी ले जाना है न!
आज पहली बार पता चला कि केवल त्यागीजी की चक्की का आटा लोग यहां नहीं खाते। दो लोकप्रिय विकल्प और हैं। मैं दूसरी चक्की में नंबर लगवा के निकल लिया। लौटने के बाद भी आटा मिलने में पंद्रह मिनट लगा। चीनी गायब थी। नमक गायब। चावल लहरा चुका था। तेल फिसल गया था। एक जगह नमक मांगा। बोला पैंतीस वाला है। जब सत्ताईस का आटा अड़तीस में लिया, तो नमक से कैसी नमक हरामी। तु��ंत दबा लिया। एटीएम खाली हो चुका था, कैश क्रंच है। ग्रोफर वाले ने ऑर्डर डिलिवरी को मीयाद अब बढ़ा कर 6 अप्रैल कर दी है। सोचा लगे हाथ मैगी के पैकेट दबा दिए जाएं।
एक दुकान पर पूरी शेल्फ पीली नज़र आती थी। दशकों का अनुभव है, आंख से सूंघ लिया मैंने कि मैगी है। मैंने कहा - अंकल, दस पैकेट दस वाले। अंकल ने बारह वाले पांच पकड़ाए और बोले - बस! मैंने पांच और की ज़िच की। उन्होंने समझाया - बेटे, और लोग भी हैं, सब थोड़ा थोड़ा खाएं, क्या हर्ज़ है! अंकल लाहौर से आए थे आज़ादी के ज़माने में, शायद तकसीम का मंज़र उन्हें याद हो। वरना ऐसी बातें आजकल कहां सुनने को मिलती हैं। जिस बदहवासी में लोग सड़कों पर निकले थे, ऐसी बात कहने वाले का लिंच होना बदा था। क्या जाने हो ही जाए ऐसा कुछ, अभी तो पूरे इक्कीस दिन बाकी हैं।
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आज बहुत लोगों से फोन पर बात हुई। चौथा दिन है बंदी का, लग रहा है कि लोग हांफना शुरू कर चुके हैं। अचानक मिली छुट्टी वाला शुरुआती उत्साह छीज रहा है। चेहरे पर हवा उड़ने लगी है। कितना नेटफ्लिक्स देखें, कितना फेसबुक करें, कितना फोन पर एक ही चीज के बारे में बात करें, कितनी अफ़वाह फैलाएं वॉट्सएप से? कायदे से चार दिन एक जगह नहीं टिक पा रहे हैं लोग, चकरघिन्नी बने हुए हैं जैसे सबके पैर में चक्र हो। ये सब समाज में अस्वस्थता के लक्षण हैं। अस्वस्थ समाज लाला का जिन्न होता है, हुकुम के बगैर जी नहीं सकता।
स्वस्थ समाज, स्वस्थ आदमी, मने स्व में स्थित। स्व में जो स्थित है, उसे गति नहीं पकड़ती। गति को वह अपनी मर्ज़ी से पकड़ता है। गति में भी स्थिर रहता है। अब सारी अवस्थिति, सारी चेतना हमारी, बाहर की ओर लक्षित रही इतने साल। हमने शतरंज खेलना छोड़ दिया। हॉकी को कौन पूछे, खुद हॉकी वाले छोटे छोटे पास देने की पारंपरिक कला भूल गए। क्रिकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी का कब्ज़ा हो गया। घर में अंत्याक्षरी खेले कितनों को कितने बरस हुए? किताब पढ़ना भूल जाइए ट्विटर के दौर में, उतना श्रम पैसा मिलने पर भी लोग न करें। खाली बैठ कर सोचना भी एक काम है, लेकिन ऐसा कहने वाला आज पागल करार दिया जाएगा।
ये इक्कीस दिन आर्थिक और सामाजिक रूप से भले विनाशक साबित ह��ं, लेकिन सांस्कृतिक ��्तर पर इसका असर बुनियादी और दीर्घकालिक होगा। बीते पच्चीस साल में मनुष्य से कंज्यूमर बने लोगों की विकृत सांस्कृतिकता, आधुनिकता के कई अंधेरे पहलू सामने आएंगे। कुछ लोग शायद ठहर जाएं। अदृश्य गुलामियों को पहचान जाएं। रुक कर सोचें, क्या पाया, क्या खोया। बाकी ज़्यादातर मध्यवर्ग एक पक चुके नासूर की तरह फूटेगा क्योंकि संस्कृति के मोर्चे पर जिन्हें काम करना था, वे सब के सब राजनीतिक हो गए हैं। जो कुसंस्कृति के वाहक थे, वे संस्कार सिखा रहे हैं।
गाड़ी का स्टीयरिंग बहुत पहले दाहिने हाथ आ गया था, दिक्कत ये है कि चालक कच्चा है। उसने गाड़ी बैकगियर में लगा दी है और रियर व्यू मिरर फूटा हुआ है। सवारी बेसब्र है। उसे रोमांच चाहिए। इस गाड़ी का लड़ना तय है। तीन हफ्ते की नाकाबंदी में ऐक्सिडेंट होगा। सवारी के सिर से खून नहीं निकलेगा। मूर्खता, पाखंड, जड़ता का गाढ़ा मवाद निकलेगा। भेजा खुलकर बिखर जाएगा सरेराह। जिस दिन कर्फ्यू टूटेगा, स्वच्छता अभियान वाले उस सुबह मगज बंटोर के ले जाएंगे और रिप्रोग्राम कर देंगे। एक बार फिर हम गुलामियों को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित कर के रेत में सिर गड़ा लेंगे।
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27 मार्च, 2020
एक राज्य के फलाने के माध्यम से दूसरे राज्य से ढेकाने का फोन आया: "भाई साहब, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी, मुझे किसी तरह यहां से निकालो। फंसा हुआ हूं, पहुंचना ज़रूरी है। मेरे लोग परेशान हैं।" अकेले निकालना होता तो मैं सोचता। साथ में एक झंडी लगी बड़ी सी गाड़ी भी थी जो देखते ही पुलिस की निगाह में गड़ जाती। वैसे सज्जन पुरुष थे। नेता थे। दो बार के विधायकी के असफल प्रत्याशी। समस्या एक नहीं, दो राज्यों की सीमा पार करवाने की थी। उनकी समस्या घर पहुंचने की नहीं क्योंकि वे घर में ही थे। समस्या अपने क्षेत्र और लोगों के बीच पहुंचने की थी। ज़ाहिर है, इन्हें गाड़ी से ही जाना था।
एक और फोन आया किसी के माध्यम से किसी का। यहां घर पहुंचने की ऐसी अदम्य बेचैनी थी कि आदमी पैदल ही निकल चुका था अपने जैसों के साथ। तीन राज्य पार घर के लिए। ये भी सज्जन था। इसे बस घरवालों की चिंता थी। वो पहुंचता, तब जाकर राशन का इंतजाम होता उसकी दो महीने की पगार से। ऐसा ही फंसा हुआ एक तीसरा मामला अपना करीबी निकला, पारिवारिक। सरकारी नौकरी में लगे दंपत्ति दो अलग शहरों में फंस ग�� थे, एक ही राज्य में। लोग हज़ार किलोमीटर पैदल निकलने का साहस कर ले रहे हैं। यहां ऐसा करना तसव्वुर में भी नहीं रहा जबकि फासला सौ किलोमीटर से ज़्यादा नहीं है। वे न मिलें तो भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उन्हें चूल्हे चौकी की चिंता नहीं। बस प्रेम है, जो खींच रहा था।
पहला केस सेवाभाव वाला है। एक भला नेता अपने लोगों के बीच जल्द से जल्द पहुंचना चाह रहा है। दूसरा केस आजीविका और ज़िन्दगी का है। यह भला आदमी नहीं पहुंचा तो परिवार भुखमरी का शिकार हो जाएगा। तीसरा केस अपना है, विशुद्ध मध्यमवर्गीय और भला। यहां केवल पहुंचना है, उसके पीछे कोई ठोस उद्देश्य नहीं है, सिवाय एक नाज़ुक धागे के, जिसे प्रेम कहते हैं। पहुंचने की बेसब्री और तीव्रता के मामले में तीनों अलग केस हैं। पहला घर से समाज में जाना चाहता है, लेकिन पैदल नहीं जा सकता। बाकी दो घर जाना चाहते हैं, लेकिन पैदल वही निकलता है जिसकी ज़िन्दगी दांव पर लगी है। समाज के ये तीन संस्तर भी हैं। तीन वर्ग कह लीजिए।
मुश्किल वक्त में चीजें ब्लैक एंड व्हाइट हो जाती हैं। प्राथमिकताएं साफ़। वर्गों की पहचान संकटग्रस्त समाज में ही हो पाती है। अगर मेरे पास किसी को कहीं से कहीं पहुंचवाने का सामर्थ्य होता तो सबसे पहले मैं पैदल मजदूर को उठाता। उससे फारिग होने के बाद भले नेता को। अंत में मध्यमवर्गीय दंपत्ति को। इस हिसाब से संकट के प्रसार की दिशा को समझिए। सबसे पहले गरीब मरेगा। उसके बाद गरीबों के बारे में सोचने वाले। सबसे अंत में मरेंगे वे, जिन्हें अपने कम्फर्ट से मतलब है। ये शायद न भी मरें, बचे रह जाएं।
सबसे अंतिम कड़ी की सामाजिक उदासीनता ही बाकी सभी संकटों को परिभाषित करती है - जिसे हम महान मिडिल क्लास कहते हैं। ये वर्ग अपने आप में समस्या है। दुनिया को ये कभी नहीं बचाएगा। कफ़न ओढ़ कर अपना मज़ार देखने का ये आदी हो चुका है। दुनिया बचेगी तो गरीब के जीवट से और एलीट की करुणा से। क्लास स्ट्रगल की थिअरी में इसे कैसे आर्टिकुलेट किया जाए, ये भी अपने आप में विचित्र भारतीय समस्या है।
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28 मार्च, 2020
बलिया के मनियर निवासी 14 प्रवासी मजदूरों के फरीदाबाद में अटके होने की शाम को सूचना मिली। इनमें दो बच्चे भी थे, चार और छह साल के। मित्रों को फोन घुमाया गया। एक पुलिस अधिकारी के माध्यम से प्रवासियों तक भोजन पहुंचवाने की अनौपचारिक गुंजाइश बन गई। फिर भी सौ नंबर पर फोन कर के ऑफिशली कॉल रजिस्टर करवाने की सलाह उन्हें दी गई। वे इसके लिए तैयार नहीं ��ुए। सबने समझाया, लेकिन तैयार ही नहीं हुए। बोले, पुलिस आएगी तो मारेगी। उल्टे भाई लोगों ने कैमरे में एक वीडियो रिकॉर्ड कर के भिजवा दिया, सरकार से मदद मांगते हुए कि भोजन वोजन नहीं, हमें गांव पहुंचाया जाए। बस, पुलिस न आवे।
इस घटना ने नोटबंदी के एक वाकये की याद दिला दी। नोटबंदी की घोषणा के बाद चौराहे से चाय वाला अचानक गायब हो गया था। बहुत दिन बाद मैंने ऐसे ही उसकी याद में उसका ज़िक्र करते हुए जनश्रुति के आधार पर एक पोस्ट लिखी। उसे अगले दिन नवभारत टाइम्स ने छाप दिया। शाम को मैं चौराहे पर निकला। पहले सब्ज़ी वाले ने पूछा। फिर रिक्शे वाले ने। फिर एक और रिक्शे वाले ने। फिर नाई ने पूछा। सबने एक ही सवाल अलग अलग ढंग से पूछा- "क्यों गरीब आदमी को मरवाना चाहते हो, पत्रकार साहब? आपने लिख दिया कि वो महीने भर से गायब है, अब कहीं पुलिस उसे पकड़ न ले!" एक सहज सी पोस्ट और उसके अख़बार में आ जाने के चलते मैं उस चायवाले के सारे हितैषियों की निगाह में संदिग्ध हो गया। यह मेरी समझ से बाहर था। अप्रत्याशित।
प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी श्रमिकों, गरीबों, मजलूमों पर लिखना एक बात है। मध्यमवर्गीय पत्रकार के दिल को संतोष मिलता है कि चलो, एक भला काम किया। आप नहीं जानते कि आपके लिखे को आपके किरदार ने लिया कैसे है। हो सकता है अख़बार में अपने नाम को देख कर, अपनी कहानी सुन कर, वह डर जाए। आपको पुलिस का आदमी मान बैठे। फिर जब आप प्रोएक्टिव भूमिका में लिखने से आगे बढ़ते हैं, तो उनसे डील करने में समस्या आती है। आपके फ्रेम और उनके फ्रेम में फर्क है। मैं इस बात को जानता हूं कि कमिश्नर को कह दिया तो मदद हो ही जाएगी, लेकिन उसको तो पुलिस के नाम से ही डर लगता है। वो आपको पुलिस का एजेंट समझ सकता है। आपके सदिच्छा, सरोकार, उसके लिए साजिश हो सकते हैं।
वर्ग केवल इकोनोमिक कैटेगरी नहीं है। उसका सांस्कृतिक आयाम भी होता है। यही आयाम स्टेट सहित दूसरी ताकतों और अन्य वर्गों के प्रति एक मनुष्य के सोच को बनाता है। इस सोच का फ़र्क दो वर्गों के परस्पर संवाद, संपर्क और संलग्नता से मालूम पड़ता है। अगर आप एक इंसान की तरफ हाथ बढ़ाते वक़्त उसके वर्ग निर्मित सांस्कृतिक मानस के प्रति सेंसिटिव और अलर्ट नहीं हैं, तो आपको उसकी एक अदद हरकत या प्रतिक्रिया ही मानवरोधी बना सकती है। गरीब, वंचित, पीड़ित का संकट यदि हमारा स्वानुभूत नहीं है तो को�� बात नहीं, सहानुभूत तो होना ही चाहिए, कम से कम! इससे कम पर केवल कविता होगी, जो फटी बिवाइयां भरने में किसी काम नहीं आती।
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29 मार्च, 2020
माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और वहां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदमी के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?
वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी - आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?
भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?
आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि ��े उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली देकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?
सोचिए, और उनके बारे में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!
मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है...।
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30 मार्च, 2020
आज हम लोग ऐसे ही चर्चा कर रहे थे कि जो लोग घर में बंद हैं, उनमें सबसे ज़्यादा दुखी कौन होगा। पहले ही जवाब पर सहमति बन गई - प्रेमी युगल। फिर 'रजनीगंधा' फिल्म का अचानक संदर्भ आया, कि दो व्यक्तियों के बीच भौतिक दूरी होने से प्रेम क्या वाकई छीज जाता होगा? हो सकता है। नहीं भी। कोई नियम नहीं है इसका। निर्भर इस बात पर करता है कि दूरी की वजह क्या है।
इस धरती के समाज को जितना हम जानते हैं, दो व्यक्तियों के बीच कोई बीमारी या बीमारी की आशंका तो हमेशा से निकटता की ही वजह रही है। घर, परिवार, समाज, ऐसे ही अब तक टिके रहे हैं। ये समाज तो बलैया लेने वाला रहा है। बचपन से ही घर की औरतों ने हमें बुरी नज़र से बचाया है, अपने ऊपर सारी बलाएं ले ली है। यहीं हसरत जयपुरी लिखते हैं, "तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय।" बाबर ने ऐसे ही तो हुमायूं की जान बचाई थी। उसके पलंग की परिक्रमा कर के अपनी उम्र बेटे को दे दी थी!
बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत प्रेम कथाओं में किशोर कुमार और मधुबाला का रिश्ता गिना जाता है। मधुबाला को कैंसर था, किशोर जानते थे फिर भी उनसे शादी रचाई। डॉक्टर कहते रह गए उनसे, कि पत्नी से दूर रहो। वे दूर नहीं हुए। जब खुद मधुबाला ने उनसे मिन्नत की, तब जाकर माने। अपने यहां एक बाबा आमटे हुए हैं। बाबा चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे लेकिन बारिश में भीगते एक कोढ़ी को टांगकर घर ले आए थे। बाद में उन्होंने पूरा जीवन कुष्ठ रोग��यों को समर्पित कर दिया। ऐसे उदाहरणों से इस देश का इतिहास भरा पड़ा है। सोचिए, बाबा ने कुष्ठ लग जाने के डर से उस आदमी को नहीं छुआ होता तो?
मेरे दिमाग में कुछ फिल्मी दृश्य स्थायी हो चुके हैं। उनमें एक है फिल्म शोले का दृश्य, जिसमें अपनी बहू राधा के जय के साथ दोबारा विवाह के लिए ठाकुर रिश्ता लेकर राधा के पिता के यहां जाते हैं। प्रस्ताव सुनकर राधा के पिता कह उठते हैं, "ये कैसे हो सकता है ठाकुर साब? समाज और बिरादरी वाले क्या कहेंगे?" यहां सलीम जावेद ने अपनी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा डायलॉग संजीव कुमार से कहलवाया है, "समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं, नर्मदा जी। किसी को अकेला रखने के लिए नहीं।"
यही समझ रही है हमारे समाज की। हम यहां तक अकेले नहीं पहुंचे हैं। साथ पहुंचे हैं। ज़ाहिर है, जब संकट साझा है, तो मौत भी साझा होगी और ज़िन्दगी भी। बाजारों में दुकानों के बाहर एक-एक ग्राहक के लिए अलग अलग ग्रह की तरह बने गोले; मुल्क के फ़कीर के झोले से सवा अरब आबादी को दी गई सोशल डिस्टेंसिंग नाम की गोली; फिर शहर और गांव के बीच अचानक तेज हुआ कंट्रास्ट; कुछ विद्वानों द्वारा यह कहा जाना कि अपने यहां तो हमेशा से ही सोशल डिस्टेंसिंग रही है जाति व्यवस्था के रूप में; इन सब से मिलकर जो महीन मनोवैज्ञानिक असर समाज के अवचेतन में पैठ रहा है, पता नहीं वो आगे क्या रंग दिखाएगा। मुझे डर है।
बाबा आमटे के आश्रम का स्लोगन था, "श्रम ही हमारा श्रीराम है।" उस आश्रम को समाज बनना था। नहीं बन सका। श्रम अलग हो गया, श्रीराम अलग। ये संयोग नहीं है कि आज श्रीराम वाले श्रमिकों के खिलाफ खड़े दिखते हैं। अनुपम मिश्र की आजकल बहुत याद आती है, जो लिख गए कि साद, तालाब में नहीं समाज के दिमाग में जमी हुई है। आज वे होते तो शायद यही कहते कि वायरस दरअसल इस समाज के दिमाग में घुस चुका है। कहीं और घुसता तो समाज फिर भी बच जाता। दिमाग का मरना ही आदमी के मर जाने का पहला और सबसे प्रामाणिक लक्षण है।
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3 अप्रैल, 2020
इंसान के मनोभावों में भय सबसे आदिम प्रवृत्ति है। इसी भय ने हमें गढ़ा है। सदियों के विकासक्रम में इकलौता भय ही है, जो अब तक बना हुआ है। मन के गहरे तहखानों में, दीवारों से चिपटा। काई की तरह, हरा, ताज़ा, लेकिन आदिम। जब मनुष्य अपने विकासक्रम में छोटा हुआ करता था, उसे तमाम भय थे। जानवरों का भय प्राथमिक था। कोई भी आकर खा सकता था। सब बड़े-बड़े जंगली पश�� होते थे। जो जितना बड़ा, छोटे को उतना भय। हर बड़ा अपने से छोटे को ��ाता था। यह जंगल का समाज था। शुरुआत में तो इसका इलाज यह निकाला गया कि जिससे ख़तरा हो उसके सामने ही न पड़ो। मचान पर पड़े रहो। पेड़ से लटके रहो। अपने घर के भीतर दुबके रहो। आखिर कोई कितना खुद को रोके लेकिन?
फिर मनुष्य ने भाषा विकसित की। हो हो, हुर्र हुर्र, गो गो जैसी आवाज़ें निकाली जाने लगीं जानलेवा पशु को भगाने के लिए। खतरा लगता, तो हम गो गो करने लग जाते। इसकी भी सीमा थी। पांच किलोमीटर दूर बैठे अपने भाई तक आवाज़ कैसे पहुंचाते? उसे सतर्क कैसे करते? फिर बजाने की कला आयी। खतरे का संकेत देने और भाइयों को सतर्क करने के लिए हमने ईंट बजायी, लकड़ी पीटी, दो पत्थरों को आपस में टकराया। तेज़ आवाज़ निकली, तो शिकार पर निकला प्रीडेटर मांद में छुप गया। फिर धीरे-धीरे उसे आवाज़ की आदत पड़ गयी। हम थाली पीटते, वह एकबारगी ठिठकता, फिर आखेट पर निकल जाता। समस्या वैसी ही रही।
एक दिन भय के मारे पत्थर से पत्थर को टकराते हुए अचानक चिंगारी निकल आयी। संयोग से वह चकमक पत्थर था। मनुष्य ने जाना कि पत्थर रगड़ने से आग निकलती है। ये सही था। अब पेड़ से नीचे उतर के, अपने घरों से बाहर आ के, अलाव जला के टाइट रहा जा सकता था। आग से जंगली पशु तो क्या, भूत तक भाग जाते हैं। रूहें भी पास आने से डरती हैं। मानव विकास की यात्रा में हम यहां तक पहुंच गए, कि जब डर लगे बत्ती सुलगा लो। भाषा, ध्वनि, प्रकाश के संयोजन ने समाज को आगे बढ़ाने का काम किया। आग में गलाकर नुकीले हथियार बनाए गए। मनुष्य अब खुद शिकार करने लगा। पशुओं को मारकर खाने लगा। समाज गुणात्मक रूप से बदल गया। आदम का राज तो स्थापित हो गया, लेकिन कुदरत जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा बड़ी चीज़ है। उसने सूक्ष्म रूप में हमले शुरू कर दिए। डर, जो दिमाग के भीतरी तहखानों में विलुप्ति के कगार पर जा चुका था, फिर से चमक उठा।
इस आदिम डर का क्या करें? विकसित समाज के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था। राजा नृतत्वशास्त्री था। वह मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को पहचानता था। दरअसल, इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को संकट की घड़ी में खोपड़ी के भीतर से मय भेजा बाहर खींच निकाल लाना और सामने रख देना उसकी ट्रेनिंग का अनिवार्य हिस्सा था। उसका वजूद मस्तिष्क के तहखानों में चिपटी काई और फफूंद पर टिका हुआ था। चिंतित और संकटग्रस्त समाज को देखकर उसने कहा- "पीछे लौटो, आदम की औलाद बनो"। राजाज्ञा पर सब ने पहले कहा गो गो गो। काम नहीं बना। फिर स���वेत् स्वर में बरतनों, डब्बों, लोहे-लक्कड़ और थाली से आवाज़ निकाली, गरीबों ने ताली पीटी। अबकी फिर काम नहीं बना। राजा ज्ञानी था, उसने कहा- "प्रकाश हो"!
अब प्रजा बत्ती बनाएगी, माचिस सुलगाएगी। उससे आग का जो पुनराविष्कार होगा, उसमें अस्त्र-संपन्न लोग अपने भाले तराशेंगे, ढोल की खाल गरमाएंगे। फिर एक दिन आदम की औलाद आग, ध्वनि और भाषा की नेमतें लिए सामूहिक आखेट पर निकलेगी। इस तरह यह समाज एक बार फिर गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाएगा। पिछली बार प्रकृति के स्थूल तत्वों पर विजय प्राप्त की गयी थी। अबकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों को निपटा दिया जाएगा।
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7 अप्रैल, 2020
मनुष्य की मनुष्यता सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में कसौटी पर चढ़ती है। आपकी गर्दन पर गड़ासा लटका हो, उस वक़्त आपके मन में जो खयाल आए, समझिए वही आपकी मूल प्रवृत्ति है। आम तौर से ज़्यादातर लोगों को जान जाने की स्थिति में भगवान याद आता है। कुछ को शैतान। भगवान और शैतान सबके एक नहीं होते। भूखे के लिए रोटी भगवान है। भरे पेट वाले के लिए धंधा भगवान है। भरी अंटी वाले के लिए बंदूक भगवान है। जिसके हाथ में बंदूक हो और सर पर भी तमंचा तना हो, उसके लिए? ये स्थिति ऊहापोह की है। आप एक ही वक़्त में जान ले भी सकते हैं और गंवा भी सकते हैं। जान लेने के चक्कर में जान जा सकती है। सामने वाले को अभयदान दे दिया तब भी जान जाएगी। क्या करेंगे?
एक ही वक़्त में सबसे कमज़ोर होना लेकिन सबसे ताकतवर महसूस करना, ये हमारी दुनिया की मौजूदा स्थिति है। हाथ में तलवार है लेकिन गर्दन पर तलवार लटकी हुई है। समझ ही नहीं आ रहा कौन ले रहा है और कौन दे रहा है, जान। ये स्थिति मोरलिटी यानी नैतिकता के लिए सबसे ज़्यादा फिसलन भरी होती है। यहां ब्लैक एंड व्हाइट का फर्क मिट जाता है। कायदे से, ये युद्ध का वक़्त है जिसमें युद्ध की नैतिकता ही चलेगी। जो युद्ध में हैं, जिनके हाथ में तलवार है, वे इसमें पार हो सकते हैं। संकट उनके यहां है जिनकी गर्दन फंसी हुई है और हाथ खाली है।
जिनके हाथ खाली हैं, उनमें ज़्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने युद्ध के बजाय अमन की तैयारी की थी। उनकी कोई योजना नहीं थी भविष्य के लिए। वे खाली हाथ रह गए हैं। अब जान फंसी है, तो पलट के मार भी नहीं सकते। सीखा ही नहीं मारना। इसके अलावा, इस खेल के नियम उन्हीं को आते हैं जिन्होंने गुप्त कमरों में किताब पढ़ने के नाम पर षड्यंत्रों का अभ्यास किया था; जिन्होंने दफ्तरों में नौकरी की और दफ्तर के बाहर इन्कलाब; जिन्होंने मास्क लूटे और पब्लिक हेल्थ की बात भी करते रहे। अब संकट आया है तो उनके शोरूम और गोदाम दोनों तैयार हैं। जो लोग ��ुनिया को दुनिया की तरह देखते रहे- शतरंज की तरह नहीं- वे खेत रहेंगे इस बार भी। इस तरह लॉकडाउन के बाद की सुबह आएगी।
कैसी होगी वो सुबह? जो ज़िंदा बचेगा, उसके प्रशस्ति गान लिखे जाएंगे। वे ही इस महामारी का इतिहास भी लिखेंगे और ये भी लिखेंगे कि कैसे मनु बनकर वे इस झंझावात से अपनी नाव निकाल ले आए थे। जो निपट जाएंगे, वे प्लेग में छटपटा कर भागते, खून छोड़ते, मोटे, सूजे और अचानक बीच सड़क पलट गए चूहों की तरह ड्रम में भरकर कहीं फेंक दिए जाएंगे। उन्हें दुनिया की अर्थव्यवस्था को, आर्थिक वृद्धि को बरबाद करने वाले ज़हरीले प्राणियों में गिना जाएगा। हर बार जब जब महामारी अाई है, एक नई और कुछ ज़्यादा बुरी दुनिया छोड़ गई है। हर महामारी भले लोगों को मारती है, चाहे कुदरती हो या हमारी बनाई हुई। भले आदमी की दिक्कत ये भी है कि वो महामारी आने पर चिल्ला नहीं पाता। सबसे तेज़ चिल्लाना सबसे बुरे आदमी की निशानी है।
होता ये है कि जब बुरा आदमी चिल्लाता है तो भला आदमी डर के मारे भागने लगता है। भागते भागते वह हांफने लगता है और मर जाता है। बुरा आदमी जानता है कि दुनिया भले लोगों के कारण ही बची हुई थी। इसलिए वह दुनिया के डूबने का इल्ज़ाम भले लोगों पर लगा देता है। जैसे महामारी के बाद प्लेग का कारण चूहों को बता दिया जाता है, जबकि प्लेग के हालात तो बुरे लोगों के पैदा किए हुए थे! चूहे तो चूहे हैं। मरने से बचते हैं तो कहीं खोह बनाकर छुप जाते हैं। कौन मरने निकले बाहर?
आदमी और चूहे की नैतिकता में फर्क होता है। घिरा हुआ आदमी मरते वक़्त अपने मरने का दोष कंधे पर डालने के लिए किसी चूहे की तलाश करता है। चूहे मरते वक़्त आदमी को नहीं, सहोदर को खोजते हैं। इस तरह इक्का दुक्का आदमी की मौत पर चूहों की सामूहिक मौत होती है। दुनिया ऐसे ही चलती है। हर महामारी के बाद आदमी भी ज़हरीला होता जाता है, चूहा भी। फिर एक दिन समझ ही नहीं आता कि प्लेग कौन फैला रहा है - आदमी या चूहा, लेकिन कटे कबंध हाथ भांजते चूहों को हथियारबंद मनुष्य का प्राथमिक दुश्मन ठहरा दिया जाता है। इस तरह हर बार ये दुनिया बदलती है। इस तरह ये दुनिया हर बदलाव के बाद जैसी की तैसी बनी रहती है।
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8 अप्रैल, 2020
बर्नी सांडर्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है। बर्नी ने जो ट्वीट किया है उसे देखा जाना चाहिए: "मेरा कैंपेन भले समाप्त हो गया, लेकिन इंसाफ के लिए संघर्ष जारी रहना चाहिए।" आज ही यूरोपियन यूनियन के शीर्ष वैज्ञानिक और यूरोपीय रिसर्च काउंसिल के अध्यक्ष प्रोफेसर मौरो फरारी ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस्तीफा देते वक़्त क्या कहा, इसे भी देखें: "कोविड 19 पर यूरोपीय प्रतिक��रिया से मैं बेहद निराश हूं। कोविड 19 के संकट ने मेरे नज़रिए को बदल दिया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय सहयोग के आदर्शों को मैं पूरे उत्साह के साथ समर्थन देता रहूंगा।"
जर्मनी के उस मंत्री को याद करिए जिसने रेलवे की पटरी पर लेट कर अपनी जान दे दी थी। थॉमस शेफर जर्मनी के हेसे प्रांत के आर्थिक विभाग के मुखिया थे। कोरोना संकट के दौर में वे दिन रात मेहनत कर के यह सुनिश्चित करने में लगे हुए थे कि महामारी के आर्थिक प्रभाव से मजदूरों और कंपनियों को कैसे बचाया जाए। वे ज़िंदा रहते तो अपने प्रांत के प्रमुख बन जाते, लेकिन उनसे यह दौर बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने ट्रेन के नीचे आकर अपनी जान दे दी।
दो व्याख्याएं हो सकती हैं बर्नी, फरारी और शेफर के फैसलों की: एक, वे जिस तंत्र में बदलाव की प्रक्रिया से जुड़े थे उस तंत्र ने इन्हें नाकाम कर दिया और इन्होंने पैर पीछे खींच लिए; दूसरे, संकट में फंसी दुनिया को बीच मझधार में इन्होंने गैर ज़िम्मेदार तरीके से छोड़ दिया। कुछ इंकलाबी मनई अतिउत्साह में कह सकते हैं कि बर्नी ने अमेरिकी जनवादी राजनीति के साथ, फरारी ने विज्ञान के साथ और शेफर ने जर्मनी की जनता के साथ सेबोटेज किया है। व्याख्या चाहे जो भी हो, अप्रत्याशित स्थितियां अप्रत्याशित फैसलों की मांग करती हैं। इन्होंने ऐसे ही फैसले लिए।
शेफर तो रहे नहीं, लेकिन फरारी और बर्नी सांडर्स के संदेश को देखिए तो असल बात पकड़ में आएगी। वो ये है, कि संघर्ष जारी रखने के दोनों हामी हैं और दोनों ने ही भविष्य के प्रति संघर्ष में अपनी प्रतिबद्धता जताई है। यही मूल बात है। एक चीज है अवस्थिति, दूसरी चीज है प्रक्रिया। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की प्रक्रिया किसी अवस्थिति पर जाकर रुक जाए। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की भावना से काम कर रहा व्यक्ति किसी संस्था या देश या किसी इकाई के प्रति समर्पित हो। समर्पण विचार के प्रति होता है, अपने लोगों के प्रति होता है। जो यह सूत्र समझता है, वह प्रक्रिया चलाता है, कहीं ठहरता नहीं, बंधता नहीं।
समस्या उनके साथ है जिन्होंने एक सच्चे परिवर्तनकामी से कहीं बंध जाने की अपेक्षा की थी। जब वह बंधन तोड़ता है, तो उसे विघ्नसंतोषी, विनाशक, अराजक और हंता कह दिया जाता है। ऐसे विश्लेषण न सिर्फ अवैज्ञानिक होते हैं, बल्कि प्रतिगामी राजनीति के वाहक भी होते हैं। नलके के मुंह पर हाथ लगा कर आप तेज़ी से आ रही जल को धार को कैसे रोक पाएंगे और कितनी देर तक? दुनिया जैसी है, उससे सुंदर चाहिए तो ऐसे बेचैन लोगों का सम्मान किया जाना होगा जिन्हें तंत्र ने नाकाम कर देने की कसम खाई है। तंत्र को तोड़ना, उससे बाहर निकलना, बदलाव की प्रक्रिया को जारी रखना ही सच्ची लड़��ई है। जो नलके के मुंह पर कपड़ा बांधते हैं, इतिहास उन्हें कचरे में फेंक देता है।
बर्नी सांडर्स और फरारी को सलाम! शेफर को श्रद्धांजलि! गली मोहल्ले से लेकर उत्तरी ध्रुव तक मनुष्य के बनाए बेईमान तंत्रों के भीतर फंसे हुए दुनिया के तमाम अच्छे लोगों को शुभकामनाएं, कि वे अपने सपनों की दुनिया को पाने की दौड़ बेझिझक बरकरार रख सकें।
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9 अप्रैल, 2020
बात पांच साल पहले की है। वह फरवरी की एक गहराती शाम थी। हलकी ठंड। मद्धम हवा। वसंत दिल्ली की सड़कों पर उतर चुका था। शिवाजी स्टेडियम के डीटीसी डिपो पर मैगज़ीन की दुकान लगाने वाले जगतजी दुकान समेटने के मूड में थे, लेकिन एक बुजुर्ग शख्स किसी अख़बार के भीतरी पन्नों में मगन था। जगतजी उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। वे सीताराम बाज़ार के मूल निवासी रामगोपाल जी थे। थे इसलिए लिख रहा हूं कि पिछली बार जब फोन लगाया था दिल्ली चुनाव के दौरान, तो उनके बेटे ने उठाया था और बिना कुछ बोले काट दिया था। दोबारा मेरी हिम्मत नहीं बनी कॉल करने की।
रामगोपाल जी सन् चालीस की पैदाइश थे। पांचवीं पास थे। कनॉट प्लेस में एक साइकिल की दुकान हुआ करती थी तब, उसी के लालाजी के साथ टहला करते थे। एक बार लालाजी उन्हें एम्स लेकर गये थे। ढलती शाम में भुनती मूंगफली और रोस्ट होते अंडों की मिश्रित खुशबू में रामगोपालजी ने यह किस्सा सुनाया था मुझे। वे एम्स में भर्ती मरीज़ से मिलकर जब बाहर निकले, तो बड़े परेशान थे। उस मरीज़ ने उन्हें सैर करने को कहा था। तब रामगोपालजी की उम्र पंद्रह साल थी यानी सन् पचपन की बात रही होगी। हंसते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “पांचवीं पास बुद्धि कितना पकड़ेगी? मैंने तो बस सैर की... इतने महान आदमी थे वो... क्या तो नाम था, राहुल जी... हां... सांस्कृत्यायन जी...!"
राहुल सांकृत्यायन से एक अदद मुलाकात ने रामगोपाल की जिंदगी बदल दी। वे अगले साठ साल तक सैर ही करते रहे। रामगोपालजी को उनके लालाजी ने बाद में अज्ञेय से भी मिलवाया था। आज राहुल के बारे में दूसरों का लिखा देख अचानक रामगोपालजी की तस्वीर और दिल्ली की वो शाम मन में कौंध गयी। सोच रहा था कि क्या अब भी यह होता होगा कि एक लेखक की पहचान को जाने बगैर एक पंद्रह साल का लड़का उससे इत्तेफ़ाकन मिले और उसके कहे पर जिंदगी कुरबान कर दे? “सैर कर दुनिया की गाफ़िल...���, बस इतना ही तो कहा था राहुलजी ने रामगोपाल से! इसे रामगोपालजी ने अपनी जिंदगी का सूत्रवाक्य बना लिया! ल��े हाथ मैं यह भी सोच रहा था कि आज राहुलजी होते तो लॉकडाउन में सैर करने के अपने फलसफ़े को कैसे बचाते? आज चाहकर भी आप या हम अपनी मर्जी से सैर नहीं कर सकते। ढेरों पाबंदियां आयद हैं।
बहरहाल, कभी कनॉट प्लेस के इलाके में सैर करते हुए आप शाम छह बजे के बाद पहुंचें तो आंखें खुली रखिएगा। अज्ञेय कट दाढ़ी वाला, अज्ञेय के ही कद व डीलडौल वाला, मोटे सूत का फिरननुमा कुर्ता पहने, काली गांधी टोपी ओढ़े और पतले फ्रेम का चश्मा नाक पर टांगे एक बुजुर्ग यदि आपको दिख जाए, तो समझ लीजिएगा कि ये कहानी उन्हीं की है। रामगोपालजी अगर अब भी हर शाम सैर पर निकलते होंगे, तो शर्तिया उनके जैसा दिल्ली में आपको दूसरा न मिले। एक सहगल साहब हैं जो अकसर प्रेस क्लब में पाए जाते हैं लेकिन उनकी वैसी छब नहीं है। रामगोपालजी इस बात का सुबूत हैं कि एक ज़माना वह भी था जब सच्चे लेखकों ने सामान्य लोगों की जिंदगी को महज एक उद्गार से बदला। ज़माना बदला, तो रामगोपालजी जैसे लोग बनने बंद हो गये। लेखक भी सैर की जगह वैर करने लगे।
उस शाम बातचीत के दौरान पता चला कि पत्रिका वाले जगतजी से लेकर अंडे वाला और मूंगफली वाला सब उन्हें जानते हैं। अंडेवाले ने हमारी बातचीत के बीच में ही टोका था, “अरे, बहुत पहुंचे हुए हैं साहब, पूरी दिल्ली इन्होंने देखी है। क्यों साहबजी?" दिल्ली का ज़िक्र आते ही रामगोपालजी ने जो कहा था, वह मुझे आज भी याद हैः “ये दिल्ली एक धरमशाला होती थी। अब करमशाला बन गयी है। लाज, शरम, सम्मान, इज्ज़त, सब खतम हो गये। ये अंडे उठाकर बाहर फे���क दो नाली में, क्योंकि ये नयी तहज़ीब के अंडे हैं!" इतना कह कर रामगोपालजी आकाश में कहीं देखने लगे थे। अलबत्ता अंडे वाला थाेड़ा सहम गया था और अपने ठीहे पर उसने वापस ध्यान जमा लिया था। गोया नयी तहज़ीब के अंडे आंखाें से छांट रहा हो।
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कानपुर में हुए दुष्कर्म को लेकर आम आदमी पार्टी की उत्तर प्रदेश प्रवक्ता का धरना प्रदर्शन
कानपुर में हुए दुष्कर्म को लेकर आम आदमी पार्टी की उत्तर प्रदेश प्रवक्ता का धरना प्रदर्शन
कानपुर के राजकीय बालिका गृह में जो दुष्कर्म का मामला सामने आया है उसको देखते हुए आज आम आदमी पार्टी पूरे उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश प्रभारी संजय सिंह और प्रदेश अध्यक्ष सभाजीत सिंह के आव्हान पर धरना प्रदर्शन कर रही है।
प्रदेश प्रवक्ता तरुणिमा श्रीवास्तवका कहना है कि वैश्विक महामारी कोरोना से पूरा देश त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहा है। ऐसी विकट परिस्थितियों में कानपुर के राजकीय बालगृह से आयी खबर…
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IND vs NZ: भारतीय टीम को लगा तगड़ा झटका, मुंबई टेस्ट बाहर हुए ये खिलाड़ी
IND vs NZ: भारतीय टीम को लगा तगड़ा झटका, मुंबई टेस्ट बाहर हुए ये खिलाड़ी
भारत और न्यूजीलैंड के बीच कानपुर में खेला गया पहला टेस्ट मैच ड्रॉ रहा था। दूसरा टेस्ट मैच आज मुंबई के वानखेड़े मैदान में खेला जाएगा। इस मैच में कप्तान विराट कोहली की वापसी होगी। ऐसे में प्लेइंग 11 में बदलाव होना तय है। वानखेड़े मैदान में होने वाले दूसरे टेस्ट मैच से ठीक पहले भारतीय टीम के लिए बुरी खबर सामने आ रही है। ये खिलाड़ी हुए बाहर: मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक चोट के वजह से अजिंक्य रहाणे,…
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प्रदेश में कोविड वैक्सीनेशन का आंकड़ा 6 करोड़ 68 लाख के पार Divya Sandesh
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प्रदेश में कोविड वैक्सीनेशन का आंकड़ा 6 करोड़ 68 लाख के पार
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में कोविड वैक्सीनेशन का आंकड़ा 06 करोड़ 68 लाख 47 हजार के पार हो चुका है। विगत दिवस 7 लाख 41 हजार 523 लोगों ने टीका-कवर प्राप्त किया। अब तक 05 करोड़ 62 लाख से अधिक नागरिकों ने कोविड से बचाव के लिए टीके की कम से कम एक खुराक प्राप्त कर ली है। यह देश के किसी एक राज्य में हुआ सर्वाधिक टीकाकरण है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कोविड प्रबंधन में जुटे अधिकारियों ने शुक्रवार को बताया कि कोविड की ताजा स्थिति के मुताबिक प्रदेश के 18 जनपदों में एक्टिव केस शून्य हैं। जनपद अलीगढ़, बागपत, बांदा, बिजनौर, एटा, फर्रुखाबाद, फतेहपुर, गोंडा, हमीरपुर, हरदोई, कानपुर देहात, महोबा, मऊ, मुजफ्फनगर, रामपुर, संतकबीरनगर, शाहजहांपुर और उन्नाव में आज कोविड का एक भी मरीज शेष नहीं है। यह जनपद आज कोविड संक्रमण से मुक्त हैं।
यह खबर भी पढ़ें: इस मंदिर में लकवाग्रस्त मरीज 7 दिन में हो जाता हैं ठीक, जानिए कैसे?
बताया कि विगत 24 घंटे में हुई टेस्टिंग में 61 जिलों में संक्रमण का एक भी नया केस नहीं पाया गया, जबकि मात्र 14 जनपदों में इकाई अंक में मरीज पाए गए। वर्तमान में प्रदेश में कुल एक्टिव कोविड केस की संख्या 329 है। अब तक 07 करोड़ 15 लाख 21 हजार 631 कोविड सैम्पल की जांच की जा चुकी है।
अपर मुख्य सचिव ‘सूचना’ नवनीत सहगल ने बताया कि विगत 24 घंटे में 02 लाख 32 हजार 28 कोविड सैम्पल की जांच की गई और 21 नए मरीजों की पुष्टि हुई। इसी अवधि में 27 मरीज स्वस्थ होकर डिस्चार्ज हुए। अब तक 16 लाख 86 हजार 83 प्रदेशवासी कोरोना ��ंक्रमण से मुक्त होकर स्वस्थ हो चुके हैं। प्रदेश में कोरोना की रिकवरी दर 98.6 प्रतिशत है। विगत दिवस दैनिक पॉजिटिविटी दर 0.01 प्रतिशत रही।
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अमेरिका में आदमी अपने कानपुर स्थित घर में चोरी को लाइव देखता है, पुलिस को अलर्ट करता है | कानपुर समाचार - टाइम्स ऑफ इंडिया
अमेरिका में आदमी अपने कानपुर स्थित घर में चोरी को लाइव देखता है, पुलिस को अलर्ट करता है | कानपुर समाचार – टाइम्स ऑफ इंडिया
KANPUR: तकनीक ने एक घर को चोरी होने से बचाया जब कानपुर के रहने वाले एक ��्यू जर्सी, संयुक्त राज्य अमेरिका ने बदमाशों के उनके आवास में घुसने के सीसीटीवी फुटेज को लाइव देखने के बाद स्थानीय पुलिस को सूचित किया श्यामनगर सोमवार की रात शहर के क्षेत्र में कॉल का जवाब देते हुए, पुलिस घर पर पहुंच गई जब चोर अभी भी अंदर थे। पुलिस ने जैसे ही जीरो करने की कोशिश की, बदमाशों ने फायरिंग कर दी। पुलिस की जवाबी…
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आईआईटी कानपुर दीक्षांत समारोह: पीएम नरेंद्र मोदी ने आईआईटी कानपुर के दीक्षांत समारोह में ब्लॉकचेन-आधारित डिजिटल डिग्री लॉन्च की | कानपुर समाचार - टाइम्स ऑफ इंडिया
आईआईटी कानपुर दीक्षांत समारोह: पीएम नरेंद्र मोदी ने आईआईटी कानपुर के दीक्षांत समारोह में ब्लॉकचेन-आधारित डिजिटल डिग्री लॉन्च की | कानपुर समाचार – टाइम्स ऑफ इंडिया
कानपुर: प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) कानपुर में ब्लॉकचेन-आधारित डिजिटल डिग्री का शुभारंभ किया। समारोह में बोलते हुए, पीएम मोदी ने IIT स्नातकों को आराम से चुनौती चुनने के लिए कहा और उनसे आग्रह किया कि वे अगले 25 वर्षों में जिस तरह का भारत चाहते हैं, उसके लिए अभी काम करना शुरू करें। प्रधानमंत्री ने अफसोस जताया कि बहुत समय पहले ही बर्बाद हो चुका है।…
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