#अफ़वाह
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Bihar: ओवैसी पर भड़के गिरिराज सिंह, कहा- हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलाइए
असदुद्दीन ओवैसी पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता गिरिराज सिंह भड़क गए हैं। उन्होंने ओवैसी पर पर हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलावे का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि ओवैसी जैसे लोग अफ़वाह और भ्रम फैलाते हैं कि मुसलमान आने वाले 80-90 सालों में भी हिंदुओं की बराबरी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने आगे कहा कि मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलाइए। 1951 में उनकी संख्या 2.5 से 2.8 करोड़ थी। आज…
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AHHH OKAYYY
PSYCHOLOGY
ETHICS
HOW DIFF THINGS LEAD TO ONE MEANING (IDK HOW TO EXPLAIN IT)
DEEPPPPPP THINKING
HOW POLITICS RUINS STUFF LMAO
ARRGHH CAN'T THINK OF MUCH BUT WHEN I START TALKING, I REMEMBER MORE AND MOREE
YEAH AND URDU AND HINDI POETRY
HERE'S MY FAV URDU ONE CUZ I LOVE YALL, IDK WHO SAID IT BUT "Rehne do mujhe andhero mei ae Ghalib....., Ujalon mei mujhe apno ke asli chehre nazar aate hai" IDK IF IT'S POETRY OR IDK "Woh meri rooh ki chadar mein aa ke chup gaya aise, ki rooh nikle tho woh nikle, jo woh nikle tho rooh nikle"
"ख़बर छुपाई गई अफ़वाह उड़ाई गई
कहानी कुछ और थी सुनाई कुछ और गई।"
HELP SORRY IF SOME OF Y'ALL CAN'T READ HINDI, I'LL TRANSLATE IF YOU ASK 😭(credits to the owners<33)
YOUR YAPAYAPA TOPICS????
What are 5 things you can start yapping about on the spot?
*insert audio* omg I love this questionnnn🩷🩷
1. Krishna💫💫
2. Krishna💫💫
3. Krishna💫💫
4. Krishna💫💫
5. Krishna💫💫
🥰🥰
Alrr, imma be fr😭
1. Krishna
2. Mahabharat
3. Books(heartstopper, agggtm in particular hahaha)
4. Space/astronomy
5. Philosophy
I WANNA THROW THIS QUESTION RIGHT BACK AT YOU😡💓
also mutuals who ask you random questions>>>>>
ALSO LOVE YOU HAVE A BOMBASTIC DAY😔🩷🩷👌🏻
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दिल्ली में कोरोना की अब धीमी रफ्तार, लेकिन ब्लैक फंगस इंजेक्शन की कमी से चिंता में HC और केजरीवाल सरकार
दिल्ली में कोरोना की अब धीमी रफ्तार, लेकिन ब्लैक फंगस इंजेक्शन की कमी से चिंता में HC और केजरीवाल सरकार
दिल्ली में कोरोना संक्रमण के मामलों की संख्या बढ़ रही है और बढ़ने की संख्या में वृद्धि हुई है। मौसम खराब होने के मौसम में खर्च करने की आदत है। केंद्र सरकार के हर राज्य में किस स्थिति में जांच की जाती है। दिल्ली ने कहा- ऐसी बैठकें दिल्ली ने इस घटना को अंजाम दिया। डील के साथ ही दिल्ली सरकार के लिए भी खतरनाक है। दिल्ली में लागू होने वाले फ़ंगस के स्प्रेड वाले संक्रमित व्यक्ति और इन्वेस्टिगेशन पर…
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#अफ़वाह फंगस इफ़ेशन#अरविंद केजरीवाल सरकार Kejriwal#काली फफूंदी#काले कवक संक्रमण#गलत फंगस समाधान#दिल्ली उच्च न्यायालय#दिल्ली सरकार#पता फंगस#सफेद कवक#सफेद कवक संक्रमण#हवाफंगस
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कृष्ण बिहारी 'नूर' :
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या जुर्म है पता ही नहीं,
अपने दिल की किसी हसरत का पता देते हैं . मेरे बारे में जो अफ़वाह उड़ा देते हैं
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं
कैसे अवतार कैसे पैग़मबर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं
ज़िंदगी ��ी तल्ख़ियाँ अब कौन स�� मंज़िला पाएं
इससे अंदाज़ा लगा लो ज़हर महँगा हो गया
ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं
सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे
झूठ की कोई इँतहा ही नहीं
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
शायर कृष्ण बिहारी नूर ने इस ग़ज़ल को मुशायरे में पेश किया, वीडियो देखें -
आईना झूठ बोलता ही नहीं
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं
- कृष्ण बिहारी 'नूर'
Amid the religious wars, strife, search for space and identity, murders and mayhem the young grow in innocence and observe, and with the world of opportunities branch out, but remain a confused lot.
All these very relevant, the poet seems to have put together very succinctly.
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कोरोना डायरी / अभिषेक श्रीवास्तव
22 मार्च, 2020
कम से कम छह किस्म की चिड़ियों की आवाज़ आ रही है।
कबूतर सांस ले रहे हैं, गोया हांफ रहे हों। तोते फर्र फुर्र करते हुए टें टें मचाये हुए हैं। एक झींगुरनुमा आवाज़ है, तो एक चुकचुकहवा जैसी। एक चिड़िया सीटी बजा रही है। दूसरी ट्वीट ट्वीट कर रही है। इसी कोरस में कहीं से चियांओ चियांओ, कभी कभी टिल्ल टिल्ल टाइप ध्वनि भी पकड़ में आती है। पूरा मोहल्ला अजायबघर हुआ पड़ा है।
अकेले कुत्ते हैं जो सदियों बाद धरती पर अपने सबसे अच्छे दोस्त मनुष्य की गैर-मौजूदगी से हैरान परेशान हैं। उनसे बोला भी नहीं जा रहा। वे आसमान की ओर देख कर कूंकते हैं, फिर कंक्रीट पर लोटते हुए चारों टांगें अंतरिक्ष में फेंक देते हैं। कुछ दूर दौड़ कर पार्क के गेट तक आते हैं। ताला बंद पाकर वापस गली में पहुंच जाते हैं। दाएं बाएं बा��कनियों को निहारते हैं। रेंगनियों पर केवल सूखते कपड़े नज़र आते हैं।
इंसान अपने पिंजरे में कैद है। जानवरों से दुनिया आबाद है। ये सन्नाटा नहीं, किसी अज़ाब के गिरने की आहट है।
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शाम से बिलकुल तस्कर टाइप फील हो रहा है।
दो दिन पहले रजनी तुलसी का स्टॉक भरने का ख़याल आया था। आश्वासन मिला कि ज़रूरत नहीं है, सब मिलेगा, यहीं मिलेगा। मैंने चेताया कि बॉस, कर्फ्यू है, घंटा मिलेगा। जवाब मिला, जनता का कर्फ्यू है, स्वेच्छा का मामला है, दिक्कत नहीं होगी। शाम को जब स्टॉक खत्म हुआ, तो दैनिक सहजता के साथ मैं चौराहे पर निकला। सब बंद था। केवल मदर डेयरी खुली थी। लगे हाथ दूध ले लिया। दूध को चबाया नहीं जा सकता यह मैं अच्छे से जानता हूं। संकट सघन था, अजब मन था। आदमी को काम पर लगाया गया। तम्बाकू की संभावना देख भीड़ जुट गयी। इसी बीच किसी ने मुखबिरी कर दी।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। आगे पीछे से हूटर बजाती पुलिस की जीपों और पुलिस मित्र जनता की निगहबानी के बीच एक डब्बा रजनी और दो ज़िपर तुलसी मैंने पार कर दी। इमरजेंसी के बीच गांजे का जुगाड़ करने मित्र के यहां गए कानपुर के उस नेता की याद बरबस हो आयी जो विजया भाव से लौटते वक्त बीच में धरा गये थे और आज तक आपातकाल के स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन समाजवादी पार्टी से पाते हैं।
तस्करी के माल का रस ले लेकर तब से सोच रहा हूं, काश यह संवैधानिक इमरजेंसी होती। मोदीजी भी न! राफेल से लेकर कर्फ्यू तक, हर काम off the shelf करते हैं!
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24 मार्च, 2020
आधी रात जा चुकी। आधी बच रही है। घर में दो दिन बंद हुए भारी पड़ रहे हैं पड़ोसी को। इस वक़्त चिल्ला रहा है। बीवी को चुप करा रहा है। परसों मेरे ऊपर वाले फ्लैट में विदेश से कुछ लोग वापस लौटे और ट्रक में सामान लोड करवाने लगे। कल बचा हुआ सामान लेने आए थे, कि पुलिस बुला ली गई। खबर फैली कि लोग इटली से आए थे। असामाजिक सोसायटियों में नेतागिरी के नए ठौर RWA के सदस्यों को चिल्लाने का बहाना मिल गया। मीटिंग जमी। बगल वाली सोसायटी में कोई दुबई से आया था, वहां भी पुलिस अाई।
लोगों को अपनी पॉवर दिखाने का नया बहाना मिला है। जनता पहली बार जनता के ल��ए पुलिस बुलवा रही है। दिल्ली पुलिस बरसों से कह रही है, हमारे आंख कान बनो। मौका अब आया है। एक मित्र बता रहे थे कि शहर से जो गांव जा रहा है, गांव वाले उसकी रिपोर्ट थाने में दे रहे हैं। मित्र नवीन के लिए पुलिस नहीं बुलवानी पड़ी, उन्हें रास्ते में ही पुलिसवालों ने पीट दिया। एक वायरस ने यहां पुलिस स्टेट को न सिर्फ और मजबूत बना दिया है, बल्कि स्वीकार्य भी। सड़क पर कोई कुचल जाता है तो लोग मुंह फेर कर निकल लेते हैं। अब कोई खांस दे रहा है तो लोग सौ नंबर दबा दे रहे हैं।
समय बदल चुका है। यह बात झूठी है कि बाढ़ आती है तो सांप और नेवला एक पेड़ पर चढ़ जाते हैं। हर बाढ़ सांप को और ज़हरीला बनाती है, नेक्लों को और कटहा। अनुभव बताते हैं कि अकाल के दौर में मनुष्य नरभक्षी हुआ है। चिंपांज़ी पर पावलोव का प्रयोग सौ साल पहले यही सिखा गया है। जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की नींव कमजोर पड़ रही है, वे गलती पर हैं। यह नवउदारवाद का पोस्ट कैपिटलिस्ट यानी उत्तर पूंजीवादी संक्रमण है जहां पूंजीवाद और लोकतंत्र के बुनियादी आदर्श भी फेल हो जाने हैं। आदमी के आदमी बचने की गुंजाइश खत्म होती दिखती है गोकि आदमी की औकात एक अदद वायरस ने नाप दी है।
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25 मार्च, 2020
मेरा दोस्त मकनपुर रोड को खारदुंगला पास कहता है। आज प्रधान जी के ऐलान के बाद पहली बार उसके कहे का अहसास हुआ। पैदल तो पैदल, गाड़ीवाले भी भाक्काटे के मूड में लहरा रहे थे। पहला नज़ारा गली में पतंजलि और श्रीश्री की ज्वाइंट दुकान। बंटोरा बंटोरी चल रही थी। सामने परचून वाले के यहां जनता का शटर लगा हुआ था, कुछ नहीं दिख रहा था। मदर डेयरी के बाहर कोई तीसेक लोगों की कतार। सब्ज़ी वाला हलवाई बन चुका था, बचे खुचे प्याज और टमाटर गुलाबजामुन हो गए थे और इंसान मक्खी। प्याज पर जब हमला हुआ तो खुद दुकान के भीतर से एक आदमी आकर छिलके में से कुछ चुनने लगा। मैंने तरेरा, तो बोला - घरे भी ले जाना है न!
आज पहली बार पता चला कि केवल त्यागीजी की चक्की का आटा लोग यहां नहीं खाते। दो लोकप्रिय विकल्प और हैं। मैं दूसरी चक्की में नंबर लगवा के निकल लिया। लौटने के बाद भी आटा मिलने में पंद्रह मिनट लगा। चीनी गायब थी। नमक गायब। चावल लहरा चुका था। तेल फिसल गया था। एक जगह नमक मांगा। बोला पैंतीस वाला है। जब सत्ताईस का आटा अड़तीस में लिया, तो नमक से कैसी नमक हरामी। तुरंत दबा लिया। एटीएम खाली हो चुका था, कैश क्रंच है। ग्रोफर वाले ने ऑर्डर डिलिवरी को मीयाद अब बढ़ा कर 6 अप्रैल कर दी है। सोचा लगे हाथ मैगी के पैकेट दबा दिए जाएं।
एक दुकान पर पूरी शेल्फ पीली नज़र आती थी। दशकों का अनुभव है, आंख से सूंघ लिया मैंने कि मैगी है। मैंने कहा - अंकल, दस पैकेट दस वाले। अंकल ने बारह वाले पांच पकड़ाए और बोले - बस! मैंने पांच और की ज़िच की। उन्होंने समझाया - बेटे, और लोग भी हैं, सब थोड़ा थोड़ा खाएं, क्या हर्ज़ है! अंकल लाहौर से आए थे आज़ादी के ज़माने में, शायद तकसीम का मंज़र उन्हें याद हो। वरना ऐसी बातें आजकल कहां सुनने को मिलती हैं। जिस बदहवासी में लोग सड़कों पर निकले थे, ऐसी बात कहने वाले का लिंच होना बदा था। क्या जाने हो ही जाए ऐसा कुछ, अभी तो पूरे इक्कीस दिन बाकी हैं।
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आज बहुत लोगों से फोन पर बात हुई। चौथा दिन है बंदी का, लग रहा है कि लोग हांफना शुरू कर चुके हैं। अचानक मिली छुट्टी वाला शुरुआती उत्साह छीज रहा है। चेहरे पर हवा उड़ने लगी है। कितना नेटफ्लिक्स देखें, कितना फेसबुक करें, कितना फोन पर एक ही चीज के बारे में बात करें, कितनी अफ़वाह फैलाएं वॉट्सएप से? कायदे से चार दिन एक जगह नहीं टिक पा रहे हैं लोग, चकरघिन्नी बने हुए हैं जैसे सबके पैर में चक्र हो। ये सब समाज में अस्वस्थता के लक्षण हैं। अस्वस्थ समाज लाला का जिन्न होता है, हुकुम के बगैर जी नहीं सकता।
स्वस्थ समाज, स्वस्थ आदमी, मने स्व में स्थित। स्व में जो स्थित है, उसे गति नहीं पकड़ती। गति को वह अपनी मर्ज़ी से पकड़ता है। गति में भी स्थिर रहता है। अब सारी अवस्थिति, सारी चेतना हमारी, बाहर की ओर लक्षित रही इतने साल। हमने शतरंज खेलना छोड़ दिया। हॉकी को कौन पूछे, खुद हॉकी वाले छोटे छोटे पास देने की पारंपरिक कला भूल गए। क्रिकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी का कब्ज़ा हो गया। घर में अंत्याक्षरी खेले कितनों को कितने बरस हुए? किताब पढ़ना भूल जाइए ट्विटर के दौर में, उतना श्रम पैसा मिलने पर भी लोग न करें। खाली बैठ कर सोचना भी एक काम है, लेकिन ऐसा कहने वाला आज पागल करार दिया जाएगा।
ये इक्कीस दिन आर्थिक और सामाजिक रूप से भले विनाशक साबित हों, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर इसका असर बुनियादी और दीर्��कालिक होगा। बीते पच्चीस साल में मनुष्य से कंज्यूमर बने लोगों की विकृत सांस्कृतिकता, आधुनिकता के कई अंधेरे पहलू सामने आएंगे। कुछ लोग शायद ठहर जाएं। अदृश्य गुलामियों को पहचान जाएं। रुक कर सोचें, क्या पाया, क्या खोया। बाकी ज़्यादातर मध्यवर्ग एक पक चुके नासूर की तरह फूटेगा क्योंकि संस्कृति के मोर्चे पर जिन्हें काम करना था, वे सब के सब राजनीतिक हो गए हैं। जो कुसंस्कृति के वाहक थे, वे संस्कार सिखा रहे हैं।
गाड़ी का स्टीयरिंग बहुत पहले दाहिने हाथ आ गया था, दिक्कत ये है कि चालक कच्चा है। उसने गाड़ी बैकगियर में लगा दी है और रियर व्यू मिरर फूटा हुआ है। सवारी बेसब्र है। उसे रोमांच चाहिए। इस गाड़ी का लड़ना तय है। तीन हफ्ते की नाकाबंदी में ऐक्सिडेंट होगा। सवारी के सिर से खून नहीं निकलेगा। मूर्खता, पाखंड, जड़ता का गाढ़ा मवाद निकलेगा। भेजा खुलकर बिखर जाएगा सरेराह। जिस दिन कर्फ्यू टूटेगा, स्वच्छता अभियान वाले उस सुबह मगज बंटोर के ले जाएंगे और रिप्रोग्राम कर देंगे। एक बार फिर हम गुलामियों को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित कर के रेत में सिर गड़ा लेंगे।
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27 मार्च, 2020
एक राज्य के फलाने के माध्यम से दूसरे राज्य से ढेकाने का फोन आया: "भाई साहब, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी, मुझे किसी तरह यहां से निकालो। फंसा हुआ हूं, पहुंचना ज़रूरी है। मेरे लोग परेशान हैं।" अकेले निकालना होता तो मैं सोचता। साथ में एक झंडी लगी बड़ी सी गाड़ी भी थी जो देखते ही पुलिस की निगाह में गड़ जाती। वैसे सज्जन पुरुष थे। नेता थे। दो बार के विधायकी के असफल प्रत्याशी। समस्या एक नहीं, दो राज्यों की सीमा पार करवाने की थी। उनकी समस्या घर पहुंचने की नहीं क्योंकि वे घर में ही थे। समस्या अपने क्षेत्र और लोगों के बीच पहुंचने की थी। ज़ाहिर है, इन्हें गाड़ी से ही जाना था।
एक और फोन आया किसी के माध्यम से किसी का। यहां घर पहुंचने की ऐसी अदम्य बेचैनी थी कि आदमी पैदल ही निकल चुका था अपने जैसों के साथ। तीन राज्य पार घर के लिए। ये भी सज्जन था। इसे बस घरवालों की चिंता थी। वो पहुंचता, तब जाकर राशन का इंतजाम होता उसकी दो महीने की पगार से। ऐसा ही फंसा हुआ एक तीसरा मामला अपना करीबी निकला, पारिवारिक। सरकारी नौकरी में लगे दंपत्ति दो अलग शहरों में फंस गए थे, एक ही राज्य में। लोग हज़ार किलोमीटर पैदल निकलने का साहस कर ले रहे हैं। यहां ऐसा करना तसव्वुर ��ें भी नहीं रहा जबकि फासला सौ किलोमीटर से ज़्यादा नहीं है। वे न मिलें तो भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उन्हें चूल्हे चौकी की चिंता नहीं। बस प्रेम है, जो खींच रहा था।
पहला केस सेवाभाव वाला है। एक भला नेता अपने लोगों के बीच जल्द से जल्द पहुंचना चाह रहा है। दूसरा केस आजीविका और ज़िन्दगी का है। यह भला आदमी नहीं पहुंचा तो परिवार भुखमरी का शिकार हो जाएगा। तीसरा केस अपना है, विशुद्ध मध्यमवर्गीय और भला। यहां केवल पहुंचना है, उसके पीछे कोई ठोस उद्देश्य नहीं है, सिवाय एक नाज़ुक धागे के, जिसे प्रेम कहते हैं। पहुंचने की बेसब्री और तीव्रता के मामले में तीनों अलग केस हैं। पहला घर से समाज में जाना चाहता है, लेकिन पैदल नहीं जा सकता। बाकी दो घर जाना चाहते हैं, लेकिन पैदल वही निकलता है जिसकी ज़िन्दगी दांव पर लगी है। समाज के ये तीन संस्तर भी हैं। तीन वर्ग कह लीजिए।
मुश्किल वक्त में चीजें ब्लैक एंड व्हाइट हो जाती हैं। प्राथमिकताएं साफ़। वर्गों की पहचान संकटग्रस्त समाज में ही हो पाती है। अगर मेरे पास किसी को कहीं से कहीं पहुंचवाने का सामर्थ्य होता तो सबसे पहले मैं पैदल मजदूर को उठाता। उससे फारिग होने के बाद भले नेता को। अंत में मध्यमवर्गीय दंपत्ति को। इस हिसाब से संकट के प्रसार की दिशा को समझिए। सबसे पहले गरीब मरेगा। उसके बाद गरीबों के बारे में सोचने वाले। सबसे अंत में मरेंगे वे, जिन्हें अपने कम्फर्ट से मतलब है। ये शायद न भी मरें, बचे रह जाएं।
सबसे अंतिम कड़ी की सामाजिक उदासीनता ही बाकी सभी संकटों को परिभाषित करती है - जिसे हम महान मिडिल क्लास कहते हैं। ये वर्ग अपने आप में समस्या है। दुनिया को ये कभी नहीं बचाएगा। कफ़न ओढ़ कर अपना मज़ार देखने का ये आदी हो चुका है। दुनिया बचेगी तो गरीब के जीवट से और एलीट की करुणा से। क्लास स्ट्रगल की थिअरी में इसे कैसे आर्टिकुलेट किया जाए, ये भी अपने आप में विचित्र भारतीय समस्या है।
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28 मार्च, 2020
बलिया के मनियर निवासी 14 प्रवासी मजदूरों के फरीदाबाद में अटके होने की शाम को सूचना मिली। इनमें दो बच्चे भी थे, चार और छह साल के। मित्रों को फोन घुमाया गया। एक पुलिस अधिकारी के माध्यम से प्रवासियों तक भोजन पहुंचवाने की अनौपचारिक गुंजाइश बन गई। फिर भी सौ नंबर पर फोन कर के ऑफिशली कॉल रजिस्टर करवाने की सलाह उन्हें दी गई। वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। सबने समझाया, लेकिन तैयार ही नहीं हुए। बोले, पुलिस आएगी तो मारेगी। उल्टे भाई लोगों ने कैमरे में एक वीडियो रिकॉर्ड कर के भि��वा दिया, सरकार से मदद मांगते हुए कि भोजन वोजन नहीं, हमें गांव पहुंचाया जाए। बस, पुलिस न आवे।
इस घटना ने नोटबंदी के एक वाकये की याद दिला दी। नोटबंदी की घोषणा के बाद चौराहे से चाय वाला अचानक गायब हो गया था। बहुत दिन बाद मैंने ऐसे ही उसकी याद में उसका ज़िक्र करते हुए जनश्रुति के आधार पर एक पोस्ट लिखी। उसे अगले दिन नवभारत टाइम्स ने छाप दिया। शाम को मैं चौराहे पर निकला। पहले सब्ज़ी वाले ने पूछा। फिर रिक्शे वाले ने। फिर एक और रिक्शे वाले ने। फिर नाई ने पूछा। सबने एक ही सवाल अलग अलग ढंग से पूछा- "क्यों गरीब आदमी को मरवाना चाहते हो, पत्रकार साहब? आपने लिख दिया कि वो महीने भर से गायब है, अब कहीं पुलिस उसे पकड़ न ले!" एक सहज सी पोस्ट और उसके अख़बार में आ जाने के चलते मैं उस चायवाले के सारे हितैषियों की निगाह में संदिग्ध हो गया। यह मेरी समझ से बाहर था। अप्रत्याशित।
प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी श्रमिकों, गरीबों, मजलूमों पर लिखना एक बात है। मध्यमवर्गीय पत्रकार के दिल को संतोष मिलता है कि चलो, एक भला काम किया। आप नहीं जानते कि आपके लिखे को आपके किरदार ने लिया कैसे है। हो सकता है अख़बार में अपने नाम को देख कर, अपनी कहानी सुन कर, वह डर जाए। आपको पुलिस का आदमी मान बैठे। फिर जब आप प्रोएक्टिव भूमिका में लिखने से आगे बढ़ते हैं, तो उनसे डील करने में समस्या आती है। आपके फ्रेम और उनके फ्रेम में फर्क है। मैं इस बात को जानता हूं कि कमिश्नर को कह दिया तो मदद हो ही जाएगी, लेकिन उसको तो पुलिस के नाम से ही डर लगता है। वो आपको पुलिस का एजेंट समझ सकता है। आपके सदिच्छा, सरोकार, उसके लिए साजिश हो सकते हैं।
वर्ग केवल इकोनोमिक कैटेगरी नहीं है। उसका सांस्कृतिक आयाम भी होता है। यही आयाम स्टेट सहित दूसरी ताकतों और अन्य वर्गों के प्रति एक मनुष्य के सोच को बनाता है। इस सोच का फ़र्क दो वर्गों के परस्पर संवाद, संपर्क और संलग्नता से मालूम पड़ता है। अगर आप एक इंसान की तरफ हाथ बढ़ाते वक़्त उसके वर्ग निर्मित सांस्कृतिक मानस के प्रति सेंसिटिव और अलर्ट नहीं हैं, तो आपको उसकी एक अदद हरकत या प्रतिक्रिया ही मानवरोधी बना सकती है। गरीब, वंचित, पीड़ित का संकट यदि हमारा स्वानुभूत नहीं है तो कोई बात नहीं, सहानुभूत तो होना ही चाहिए, कम से कम! इससे कम पर केवल कविता होगी, जो फटी बिवाइयां भरने में किसी काम नहीं आती।
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29 मार्च, 2020
माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और ��हां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदम��� के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?
वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी - आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?
भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?
आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि वे उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली देकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?
सोचिए, और उनके बार��� में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!
मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है...।
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30 मार्च, 2020
आज हम लोग ऐसे ही चर्चा कर रहे थे कि जो लोग घर में बंद हैं, उनमें सबसे ज़्यादा दुखी कौन होगा। पहले ही जवाब पर सहमति बन गई - प्रेमी युगल। फिर 'रजनीगंधा' फिल्म का अचानक संदर्भ आया, कि दो व्यक्तियों के बीच भौतिक दूरी होने से प्रेम क्या वाकई छीज जाता होगा? हो सकता है। नहीं भी। कोई नियम नहीं है इसका। निर्भर इस बात पर करता है कि दूरी की वजह क्या है।
इस धरती के समाज को जितना हम जानते हैं, दो व्यक्तियों के बीच कोई बीमारी या बीमारी की आशंका तो हमेशा से निकटता की ही वजह रही है। घर, परिवार, समाज, ऐसे ही अब तक टिके रहे हैं। ये समाज तो बलैया लेने वाला रहा है। बचपन से ही घर की औरतों ने हमें बुरी नज़र से बचाया है, अपने ऊपर सारी बलाएं ले ली है। यहीं हसरत जयपुरी लिखते हैं, "तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय।" बाबर ने ऐसे ही तो हुमायूं की जान बचाई थी। उसके पलंग की परिक्रमा कर के अपनी उम्र बेटे को दे दी थी!
बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत प्रेम कथाओं में किशोर कुमार और मधुबाला का रिश्ता गिना जाता है। मधुबाला को कैंसर था, किशोर जानते थे फिर भी उनसे शादी रचाई। डॉक्टर कहते रह गए उनसे, कि पत्नी से दूर रहो। वे दूर नहीं हुए। जब खुद मधुबाला ने उनसे मिन्नत की, तब जाकर माने। अपने यहां एक बाबा आमटे हुए हैं। बाबा चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे लेकिन बारिश में भीगते एक कोढ़ी को टांगकर घर ले आए थे। बाद में उन्होंने पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों को समर्पित कर दिया। ऐसे उदाहरणों से इस देश का इतिहास भरा पड़ा है। सोचिए, बाबा ने कुष्ठ लग जाने के डर से उस आदमी को नहीं छुआ होता तो?
मेरे दिमाग में कुछ फिल्मी ��ृश्य स्थायी हो चुके हैं। उनमें एक है फिल्म शोले का दृश्य, जिसमें अपनी बहू राधा के जय के साथ दोबारा विवाह के लिए ठाकुर रिश्ता लेकर राधा के पिता के यहां जाते हैं। प्रस्ताव सुनकर राधा के पिता कह उठते हैं, "ये कैसे हो सकता है ठाकुर साब? समाज और बिरादरी वाले क्या कहेंगे?" यहां सलीम जावेद ने अपनी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा डायलॉग संजीव कुमार से कहलवाया है, "समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं, नर्मदा जी। किसी को अकेला रखने के लिए नहीं।"
यही समझ रही है हमारे समाज की। हम यहां तक अकेले नहीं पहुंचे हैं। साथ पहुंचे हैं। ज़ाहिर है, जब संकट साझा है, तो मौत भी साझा होगी और ज़िन्दगी भी। बाजारों में दुकानों के बाहर एक-एक ग्राहक के लिए अलग अलग ग्रह की तरह बने गोले; मुल्क के फ़कीर के झोले से सवा अरब आबादी को दी गई सोशल डिस्टेंसिंग नाम की गोली; फिर शहर और गांव के बीच अचानक तेज हुआ कंट्रास्ट; कुछ विद्वानों द्वारा यह कहा जाना कि अपने यहां तो हमेशा से ही सोशल डिस्टेंसिंग रही है जाति व्यवस्था के रूप में; इन सब से मिलकर जो महीन मनोवैज्ञानिक असर समाज के अवचेतन में पैठ रहा है, पता नहीं वो आगे क्या रंग दिखाएगा। मुझे डर है।
बाबा आमटे के आश्रम का स्लोगन था, "श्रम ही हमारा श्रीराम है।" उस आश्रम को समाज बनना था। नहीं बन सका। श्रम अलग हो गया, श्रीराम अलग। ये संयोग नहीं है कि आज श्रीराम वाले श्रमिकों के खिलाफ खड़े दिखते हैं। अनुपम मिश्र की आजकल बहुत याद आती है, जो लिख गए कि साद, तालाब में नहीं समाज के दिमाग में जमी हुई है। आज वे होते तो शायद यही कहते कि वायरस दरअसल इस समाज के दिमाग में घुस चुका है। कहीं और घुसता तो समाज फिर भी बच जाता। दिमाग का मरना ही आदमी के मर जाने का पहला और सबसे प्रामाणिक लक्षण है।
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3 अप्रैल, 2020
इंसान के मनोभावों में भय सबसे आदिम प्रवृत्ति है। इसी भय ने हमें गढ़ा है। सदियों के विकासक्रम में इकलौता भय ही है, जो अब तक बना हुआ है। मन के गहरे तहखानों में, दीवारों से चिपटा। काई की तरह, हरा, ताज़ा, लेकिन आदिम। जब मनुष्य अपने विकासक्रम में छोटा हुआ करता था, उसे तमाम भय थे। जानवरों का भय प्राथमिक था। कोई भी आकर खा सकता था। सब बड़े-बड़े जंगली पशु होते थे। जो जितना बड़ा, छोटे को उतना भय। हर बड़ा अपने से छोटे को खाता था। यह जंगल का समाज था। शुरुआत में तो इसका इलाज यह निकाला गया कि जिससे ख़तरा हो उसके सामने ही न पड़ो। मचान प�� पड़े रहो। पेड़ से लटके रहो। अपने घर के भीतर ��ुबके रहो। आखिर कोई कितना खुद को रोके लेकिन?
फिर मनुष्य ने भाषा विकसित की। हो हो, हुर्र हुर्र, गो गो जैसी आवाज़ें निकाली जाने लगीं जानलेवा पशु को भगाने के लिए। खतरा लगता, तो हम गो गो करने लग जाते। इसकी भी सीमा थी। पांच किलोमीटर दूर बैठे अपने भाई तक आवाज़ कैसे पहुंचाते? उसे सतर्क कैसे करते? फिर बजाने की कला आयी। खतरे का संकेत देने और भाइयों को सतर्क करने के लिए हमने ईंट बजायी, लकड़ी पीटी, दो पत्थरों को आपस में टकराया। तेज़ आवाज़ निकली, तो शिकार पर निकला प्रीडेटर मांद में छुप गया। फिर धीरे-धीरे उसे आवाज़ की आदत पड़ गयी। हम थाली पीटते, वह एकबारगी ठिठकता, फिर आखेट पर निकल जाता। समस्या वैसी ही रही।
एक दिन भय के मारे पत्थर से पत्थर को टकराते हुए अचानक चिंगारी निकल आयी। संयोग से वह चकमक पत्थर था। मनुष्य ने जाना कि पत्थर रगड़ने से आग निकलती है। ये सही था। अब पेड़ से नीचे उतर के, अपने घरों से बाहर आ के, अलाव जला के टाइट रहा जा सकता था। आग से जंगली पशु तो क्या, भूत तक भाग जाते हैं। रूहें भी पास आने से डरती हैं। मानव विकास की यात्रा में हम यहां तक पहुंच गए, कि जब डर लगे बत्ती सुलगा लो। भाषा, ध्वनि, प्रकाश के संयोजन ने समाज को आगे बढ़ाने का काम किया। आग में गलाकर नुकीले हथियार बनाए गए। मनुष्य अब खुद शिकार करने लगा। पशुओं को मारकर खाने लगा। समाज गुणात्मक रूप से बदल गया। आदम का राज तो स्थापित हो गया, लेकिन कुदरत जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा बड़ी चीज़ है। उसने सूक्ष्म रूप में हमले शुरू कर दिए। डर, जो दिमाग के भीतरी तहखानों में विलुप्ति के कगार पर जा चुका था, फिर से चमक उठा।
इस आदिम डर का क्या करें? विकसित समाज के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था। राजा नृतत्वशास्त्री था। वह मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को पहचानता था। दरअसल, इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को संकट की घड़ी में खोपड़ी के भीतर से मय भेजा बाहर खींच निकाल लाना और सामने रख देना उसकी ट्रेनिंग का अनिवार्य हिस्सा था। उसका वजूद मस्तिष्क के तहखानों में चिपटी काई और फफूंद पर टिका हुआ था। चिंतित और संकटग्रस्त समाज को देखकर उसने कहा- "पीछे लौटो, आदम की औलाद बनो"। राजाज्ञा पर सब ने पहले कहा गो गो गो। काम नहीं बना। फिर समवेत् स्वर में बरतनों, डब्बों, लोहे-लक्कड़ और थाली से आवाज़ निकाली, गरीबों ने ताली पीटी। अबकी फिर काम नहीं बना। राजा ज्ञानी था, उसने कहा- "प्रकाश हो"!
अब प्र��ा बत्ती बनाएगी, माचिस सुलगाएगी। उससे आग का जो पुनराविष्कार होगा, उसमें अस्त्र-संपन्न लोग अपने भाले तराशेंगे, ढोल की खाल गरमाएंगे। फिर एक दिन आदम की औलाद आग, ध्वनि और भाषा की नेमतें लिए सामूहिक आखेट पर निकलेगी। इस तरह यह समाज एक बार फिर गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाएगा। पिछली बार प्रकृति के स्थूल तत्वों पर विजय प्राप्त की गयी थी। अबकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों को निपटा दिया जाएगा।
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7 अप्रैल, 2020
मनुष्य की मनुष्यता सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में कसौटी पर चढ़ती है। आपकी गर्दन पर गड़ासा लटका हो, उस वक़्त आपके मन में जो खयाल आए, समझिए वही आपकी मूल प्रवृत्ति है। आम तौर से ज़्यादातर लोगों को जान जाने की स्थिति में भगवान याद आता है। कुछ को शैतान। भगवान और शैतान सबके एक नहीं होते। भूखे के लिए रोटी भगवान है। भरे पेट वाले के लिए धंधा भगवान है। भरी अंटी वाले के लिए बंदूक भगवान है। जिसके हाथ में बंदूक हो और सर पर भी तमंचा तना हो, उसके लिए? ये स्थिति ऊहापोह की है। आप एक ही वक़्त में जान ले भी सकते हैं और गंवा भी सकते हैं। जान लेने के चक्कर में जान जा सकती है। सामने वाले को अभयदान दे दिया तब भी जान जाएगी। क्या करेंगे?
एक ही वक़्त में सबसे कमज़ोर होना लेकिन सबसे ताकतवर महसूस करना, ये हमारी दुनिया की मौजूदा स्थिति है। हाथ में तलवार है लेकिन गर्दन पर तलवार लटकी हुई है। समझ ही नहीं आ रहा कौन ले रहा है और कौन दे रहा है, जान। ये स्थिति मोरलिटी यानी नैतिकता के लिए सबसे ज़्यादा फिसलन भरी होती है। यहां ब्लैक एंड व्हाइट का फर्क मिट जाता है। कायदे से, ये युद्ध का वक़्त है जिसमें युद्ध की नैतिकता ही चलेगी। जो युद्ध में हैं, जिनके हाथ में तलवार है, वे इसमें पार हो सकते हैं। संकट उनके यहां है जिनकी गर्दन फंसी हुई है और हाथ खाली है।
जिनके हाथ खाली हैं, उनमें ज़्यादातर ऐसे हैं जिन्होंने युद्ध के बजाय अमन की तैयारी की थी। उनकी कोई योजना नहीं थी भविष्य के लिए। वे खाली हाथ रह गए हैं। अब जान फंसी है, तो पलट के मार भी नहीं सकते। सीखा ही नहीं मारना। इसके अलावा, इस खेल के नियम उन्हीं को आते हैं जिन्होंने गुप्त कमरों में किताब पढ़ने के नाम पर षड्यंत्रों का अभ्यास किया था; जिन्होंने दफ्तरों में नौकरी की और दफ्तर के बाहर इन्कलाब; जिन्होंने मास्क लूटे और पब्लिक हेल्थ की बात भी करते रहे। अब संकट आया है तो उनके शोरूम और गोदाम दोनों तैयार हैं। जो लोग दुनिया को दुनिया की तरह देखते रहे- शतरंज की तरह नहीं- वे खेत रहेंगे इस बार भी। इस तरह लॉकडाउन के बाद की सुबह आएगी।
कैसी होगी व�� सुबह? जो ज़िंदा बच��गा, उसके प्रशस्ति गान लिखे जाएंगे। वे ही इस महामारी का इतिहास भी लिखेंगे और ये भी लिखेंगे कि कैसे मनु बनकर वे इस झंझावात से अपनी नाव निकाल ले आए थे। जो निपट जाएंगे, वे प्लेग में छटपटा कर भागते, खून छोड़ते, मोटे, सूजे और अचानक बीच सड़क पलट गए चूहों की तरह ड्रम में भरकर कहीं फेंक दिए जाएंगे। उन्हें दुनिया की अर्थव्यवस्था को, आर्थिक वृद्धि को बरबाद करने वाले ज़हरीले प्राणियों में गिना जाएगा। हर बार जब जब महामारी अाई है, एक नई और कुछ ज़्यादा बुरी दुनिया छोड़ गई है। हर महामारी भले लोगों को मारती है, चाहे कुदरती हो या हमारी बनाई हुई। भले आदमी की दिक्कत ये भी है कि वो महामारी आने पर चिल्ला नहीं पाता। सबसे तेज़ चिल्लाना सबसे बुरे आदमी की निशानी है।
होता ये है कि जब बुरा आदमी चिल्लाता है तो भला आदमी डर के मारे भागने लगता है। भागते भागते वह हांफने लगता है और मर जाता है। बुरा आदमी जानता है कि दुनिया भले लोगों के कारण ही बची हुई थी। इसलिए वह दुनिया के डूबने का इल्ज़ाम भले लोगों पर लगा देता है। जैसे महामारी के बाद प्लेग का कारण चूहों को बता दिया जाता है, जबकि प्लेग के हालात तो बुरे लोगों के पैदा किए हुए थे! चूहे तो चूहे हैं। मरने से बचते हैं तो कहीं खोह बनाकर छुप जाते हैं। कौन मरने निकले बाहर?
आदमी और चूहे की नैतिकता में फर्क होता है। घिरा हुआ आदमी मरते वक़्त अपने मरने का दोष कंधे पर डालने के लिए किसी चूहे की तलाश करता है। चूहे मरते वक़्त आदमी को नहीं, सहोदर को खोजते हैं। इस तरह इक्का दुक्का आदमी की मौत पर चूहों की सामूहिक मौत होती है। दुनिया ऐसे ही चलती है। हर महामारी के बाद आदमी भी ज़हरीला होता जाता है, चूहा भी। फिर एक दिन समझ ही नहीं आता कि प्लेग कौन फैला रहा है - आदमी या चूहा, लेकिन कटे कबंध हाथ भांजते चूहों को हथियारबंद मनुष्य का प्राथमिक दुश्मन ठहरा दिया जाता है। इस तरह हर बार ये दुनिया बदलती है। इस तरह ये दुनिया हर बदलाव के बाद जैसी की तैसी बनी रहती है।
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8 अप्रैल, 2020
बर्नी सांडर्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है। बर्नी ने जो ट्वीट किया है उसे देखा जाना चाहिए: "मेरा कैंपेन भले समाप्त हो गया, लेकिन इंसाफ के लिए संघर्ष ���ारी रहना चाहिए।" आज ही यूरोपियन यूनियन के शीर्ष वैज्ञानिक और यूरोपीय रिसर्च काउंसिल के अध्यक्ष प्रोफेसर मौरो फरारी ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस्तीफा देते वक़्त क्या कहा, इसे भी देखें: "कोविड 19 पर यूरोपीय प्रतिक्रिया से मैं बेहद निराश हूं। कोविड 19 के संकट ने मेरे नज़रिए को बदल दिया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय सहयोग के आदर्शों को मैं पूरे उत्साह के साथ समर्थन देता रहूंगा।"
जर्मनी के उस मंत्री को याद करिए जिसने रेलवे की पटरी पर लेट कर अपनी जान दे दी थी। थॉमस शेफर जर्मनी के हेसे प्रांत के आर्थिक विभाग के मुखिया थे। कोरोना संकट के दौर में वे दिन रात मेहनत कर के यह सुनिश्चित करने में लगे हुए थे कि महामारी के आर्थिक प्रभाव से मजदूरों और कंपनियों को कैसे बचाया जाए। वे ज़िंदा रहते तो अपने प्रांत के प्रमुख बन जाते, लेकिन उनसे यह दौर बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने ट्रेन के नीचे आकर अपनी जान दे दी।
दो व्याख्याएं हो सकती हैं बर्नी, फरारी और शेफर के फैसलों की: एक, वे जिस तंत्र में बदलाव की प्रक्रिया से जुड़े थे उस तंत्र ने इन्हें नाकाम कर दिया और इन्होंने पैर पीछे खींच लिए; दूसरे, संकट में फंसी दुनिया को बीच मझधार में इन्होंने गैर ज़िम्मेदार तरीके से छोड़ दिया। कुछ इंकलाबी मनई अतिउत्साह में कह सकते हैं कि बर्नी ने अमेरिकी जनवादी राजनीति के साथ, फरारी ने विज्ञान के साथ और शेफर ने जर्मनी की जनता के साथ सेबोटेज किया है। व्याख्या चाहे जो भी हो, अप्रत्याशित स्थितियां अप्रत्याशित फैसलों की मांग करती हैं। इन्होंने ऐसे ही फैसले लिए।
शेफर तो रहे नहीं, लेकिन फरारी और बर्नी सांडर्स के संदेश को देखिए तो असल बात पकड़ में आएगी। वो ये है, कि संघर्ष जारी रखने के दोनों हामी हैं और दोनों ने ही भविष्य के प्रति संघर्ष में अपनी प्रतिबद्धता जताई है। यही मूल बात है। एक चीज है अवस्थिति, दूसरी चीज है प्रक्रिया। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की प्रक्रिया किसी अवस्थिति पर जाकर रुक जाए। ज़रूरी नहीं कि बदलाव की भावना से काम कर रहा व्यक्ति किसी संस्था या देश या किसी इकाई के प्रति समर्पित हो। समर्पण विचार के प्रति होता है, अपने लोगों के प्रति होता है। जो यह सूत्र समझता है, वह प्रक्रिया चलाता है, कहीं ठहरता नहीं, बंधता नहीं।
समस्या उनके साथ है जिन्होंने एक सच्चे परिवर्तनकामी से कहीं बंध जाने की अपेक्षा की थी। जब वह बंधन तोड़ता है, तो उसे विघ्नसंतोषी, विनाशक, अराजक और हंता कह दिया जाता है। ऐसे विश्लेषण न सिर्फ अवैज्ञानिक होते हैं, बल्कि प्रतिगामी राजनीति के वाहक भी होते हैं। नलके के मुंह पर हाथ लगा कर आप तेज़ी से आ रही जल को धार को कैसे रोक पाएंगे और कितनी देर तक? दुनिया जैसी है, उससे सुंदर चाहिए तो ऐसे बेचैन लोगों का सम्मान किया जाना होगा जिन्हें तंत्र ने नाकाम कर देने की कसम खाई है। तंत्र को तोड़ना, उससे बाहर निकलना, बदलाव की प्रक्रिया को जारी रखना ही सच्ची लड़ाई है। जो नलके के मुंह पर कपड़ा बांधते हैं, इतिहास उन्हें कचरे में फेंक देता है।
बर्नी सांडर्स और फरारी को सलाम! शेफर को श्रद्धांजलि! गली मोहल्ले से लेकर उत्��री ध्रुव तक मनुष्य के बनाए बेईमान तंत्रों के भीतर फंसे हुए दुनिया के तमाम अच्छे लोगों को शुभकामनाएं, कि वे अपने सपनों की दुनिया को पाने की दौड़ बेझिझक बरकरार रख सकें।
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9 अप्रैल, 2020
बात पांच साल पहले की है। वह फरवरी की एक गहराती शाम थी। हलकी ठंड। मद्धम हवा। वसंत दिल्ली की सड़कों पर उतर चुका था। शिवाजी स्टेडियम के डीटीसी डिपो पर मैगज़ीन की दुकान लगाने वाले जगतजी दुकान समेटने के मूड में थे, लेकिन एक बुजुर्ग शख्स किसी अख़बार के भीतरी पन्नों में मगन था। जगतजी उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। वे सीताराम बाज़ार के मूल निवासी रामगोपाल जी थे। थे इसलिए लिख रहा हूं कि पिछली बार जब फोन लगाया था दिल्ली चुनाव के दौरान, तो उनके बेटे ने उठाया था और बिना कुछ बोले काट दिया था। दोबारा मेरी हिम्मत नहीं बनी कॉल करने की।
रामगोपाल जी सन् चालीस की पैदाइश थे। पांचवीं पास थे। कनॉट प्लेस में एक साइकिल की दुकान हुआ करती थी तब, उसी के लालाजी के साथ टहला करते थे। एक बार लालाजी उन्हें एम्स लेकर गये थे। ढलती शाम में भुनती मूंगफली और रोस्ट होते अंडों की मिश्रित खुशबू में रामगोपालजी ने यह किस्सा सुनाया था मुझे। वे एम्स में भर्ती मरीज़ से मिलकर जब बाहर निकले, तो बड़े परेशान थे। उस मरीज़ ने उन्हें सैर करने को कहा था। तब रामगोपालजी की उम्र पंद्रह साल थी यानी सन् पचपन की बात रही होगी। हंसते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “पांचवीं पास बुद्धि कितना पकड़ेगी? मैंने तो बस सैर की... इतने महान आदमी थे वो... क्या तो नाम था, राहुल जी... हां... सांस्कृत्यायन जी...!"
राहुल सांकृत्यायन से एक अदद मुलाकात ने रामगोपाल की जिंदगी बदल दी। वे अगले साठ साल तक सैर ही करते रहे। रामगोपालजी को उनके लालाजी ने बाद में अज्ञेय से भी मिलवाया था। आज राहुल के बारे में दूसरों का लिखा देख अचानक रामगोपालजी की तस्वीर और दिल्ली की वो शाम मन में कौंध गयी। सोच रहा था कि क्या अब भी यह होता होगा कि एक लेखक की पहचान को जाने बगैर एक पंद्रह साल का लड़का उससे इत्तेफ़ाकन मिले और उसके कहे पर जिंदगी कुरबान कर दे? “सैर कर दुनिया की गाफ़िल...”, बस इतना ही तो कहा था राहुलजी ने रामगोपाल से! इसे रामगोपालजी ने अपनी जिंदगी का सूत्रवाक्य बना लिया! लगे हाथ मैं यह भी सोच रहा था कि आज राहुलजी होते तो लॉकडाउन में सैर करने के अपने फलसफ़े को कैसे बचाते? आज चाहकर भी आप या हम अपनी मर्जी से सैर नहीं कर सकते। ढे��ों पाबंदियां आयद हैं।
बहरहाल, कभी कनॉट प्लेस के इलाके में सैर करते हुए आप शाम छह बजे के बाद पहुंचें तो आंखें खुली रखिएगा। अज्ञेय कट दाढ़ी वाला, अज्ञेय के ही कद व डीलडौल वाला, मोटे सूत का फिरननुमा कुर्ता पहने, काली गांधी टोपी ओढ़े और पतले फ्रेम का चश्मा नाक पर टांगे एक बुजुर्ग यदि आपको दिख जाए, तो समझ लीजिएगा कि ये कहानी उन्हीं की है। रामगोपालजी अगर अब भी हर शाम सैर पर निकलते होंगे, तो शर्तिया उनके जैसा दिल्ली में आपको दूसरा न मिले। एक सहगल साहब हैं जो अकसर प्रेस क्लब में पाए जाते हैं लेकिन उनकी वैसी छब नहीं है। रामगोपालजी इस बात का सुबूत हैं कि एक ज़माना वह भी था जब सच्चे लेखकों ने सामान्य लोगों की जिंदगी को महज एक उद्गार से बदला। ज़माना बदला, तो रामगोपालजी जैसे लोग बनने बंद हो गये। लेखक भी सैर की जगह वैर करने लगे।
उस शाम बातचीत के दौरान पता चला कि पत्रिका वाले जगतजी से लेकर अंडे वाला और मूंगफली वाला सब उन्हें जानते हैं। अंडेवाले ने हमारी बातचीत के बीच में ही टोका था, “अरे, बहुत पहुंचे हुए हैं साहब, पूरी दिल्ली इन्होंने देखी है। क्यों साहबजी?" दिल्ली का ज़िक्र आते ही रामगोपालजी ने जो कहा था, वह मुझे आज भी याद हैः “ये दिल्ली एक धरमशाला होती थी। अब करमशाला बन गयी है। लाज, शरम, सम्मान, इज्ज़त, सब खतम हो गये। ये अंडे उठाकर बाहर फेंक दो नाली में, क्योंकि ये नयी तहज़ीब के अंडे हैं!" इतना कह कर रामगोपालजी आकाश में कहीं देखने लगे थे। अलबत्ता अंडे वाला थाेड़ा सहम गया था और अपने ठीहे पर उसने वापस ध्यान जमा लिया था। गोया नयी तहज़ीब के अंडे आंखाें से छांट रहा हो।
#CoronaDiaries
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कुछ मूर्खों ने अफ़वाह फ़ैला दी है कि राजू श्रीवास्तव नहीं रहे. अरे बिना सोचे-समझे, बिना सच्चाई जाने कुछ भी Forward करते रहते हो, ज़रा ये तो सोचो उनके परिवार पर क्या बीत रही होगी....
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Story telling or किस्सागोई is an integral part of our culture . It’s a fun way to carry forward traditions, oral history and pretty much everything else including अफ़वाह or gossip
Let me tell you a क़िस्सा today
There lived a religious scholar and a wealthy nobleman called Maulana Jalal ud din Mohammad in a town called Konya in Turkey . He was a man of theology, philosophy and jurisprudence with strict Koranic ties
A wandering दरवेश from Tabriz (Persia) called Shams crossed his path and completely turned his life on its head !
Call it love or destiny but the Maulana gave up theology and reverted to his pen name Rumi. He became a Sufi and began to explore God’s love in peace , liberation and inner fulfilment through poetry
Rumi and Shams (Persian for Sun) stayed together for a short time, about 2 years in total, but the impact of their meeting left an everlasting impression on Rumi and his work. It was Shams who introduced Rumi to the now famous whirling dance of the dervishes.
Their unique collaboration caused an uproar and eventually Shams was murdered (an honor killing) by Rumi’s followers led by his son.
Rumi fell into a deep state of grief and gradually out of that pain outpoured nearly 70,000 verses of poetry. These thousands of poems, are collected in two books called the Divan-e Shams-e Tabrizi and the Masnavi
Rumi lapsed into a self imposed exile and wrote
“ Silence is the language of the Gods.. all else is poor translation “
Exquisite & immortal Poetry was born that day!
Chanced upon this fabulous read during the Covid lockdown. ‘The Forty Rules of Love’ is recommended for those who want to know more about Rumi and his Shams .
It stirs , moves and layers the दास्ताँ of Sufism in a modern setting .
Let me know what you think
#rumi #love #sufi #rumiquotes #sufism #quotes #spirituality #poetry #rumipoetry #meditation #peace #spiritualawakening #osho #islam #spiritual #sufipoetry #instagram #awakening #motivation #wisdom #sufi #sufism #love #rumi #allah #urdu #urdupoetry #sufipoetry #sufisme #qadri #poetry # #ishq #spirituality ##sufiquotes
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Bihar: ओवैसी पर भड़के गिरिराज सिंह, कहा- हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलाइए
असदुद्दीन ओवैसी पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता गिरिराज सिंह भड़क गए हैं। उन्होंने ओवैसी पर पर हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलावे का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि ओवैसी जैसे लोग अफ़वाह और भ्रम फैलाते हैं कि मुसलमान आने वाले 80-90 सालों में भी हिंदुओं की बराबरी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने आगे कहा कि मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि हिंदुओं में अफ़वाह मत फैलाइए। 1951 में उनकी संख्या 2.5 से 2.8 करोड़ थी। आज…
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बिग ब्रेकिंगः भूपेश ने बाेले- कानून व्यवस्था बनाने साेशल मीडिया पर फैल रही अफवाहाें पर विशेष ध्यान दें और करें कठोरता खंडन
बिग ब्रेकिंगः भूपेश ने बाेले- कानून व्यवस्था बनाने साेशल मीडिया पर फैल रही अफवाहाें पर विशेष ध्यान दें और करें कठोरता खंडन
रायपुर(realtimes) मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में आज यहां न्यू सर्किट हाउस के ऑडिटोरियम में कलेक्टर्स कॉन्फ्रेंस शुरू। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि – क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी जिला दंडाधिकारी की है। जिला दंडाधिकारी को टीम लीडर के रूप में कार्य करना है। उन्होंने कहा कि क़ानून व्यवस्था की निरंतर निगरानी सुनिश्चित करते हुए सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रहे अफ़वाह और दुष्प्रचार का…
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प्रशांत किशोर और काँग्रेस के बारे में अटकलबाज़ी पर एक नोट
प्रशांत किशोर के काँग्रेस में शामिल होने की चर्चा गर्म है। कोई नहीं जानता कि सचमुच ऐसा होगा। इस संशय के पीछे प्रशान्त किशोर का अपना इतिहास ही एक बड़ा कारण है। अब तक वे कई पार्टियों के चुनाव प्रबन्धक रह चुके है जिनमें बीजेपी का नाम भी शामिल है। काँग्रेस, सपा और जेडीयू के प्रबन्धक के रूप में उनकी भूमिका को तो सब जानते हैं। इसी वजह से उनकी वैचारिक निष्ठा के प्रति कोई निश्चित नहीं हो सकता है। इसीलिए तमाम चर्चाओं के बाद भी सबसे विश्वसनीय बात आज भी यही प्रतीत होती है कि वे किसी भी हालत में काँग्रेस की तरह के एक पुराने संगठन में शामिल नहीं होंगे। यदि इसके बावजूद यह असंभव ही संभव हो ���ाता है तब उस क्षण को हम प्रशांत किशोर के पूरे व्यक्तित्व के आकलन में एक बुनियादी परिवर्तन का क्षण मानेंगे। उसी क्षण से हमारी नज़र में वे महज़ एक पेशेवर चुनाव-प्रबन्धक नहीं, विचारवान गंभीर राजनीतिज्ञ हो जाएँगे। प्रशांत किशोर चुनाव-प्रबन्धन का काम बाकायदा एक कंपनी गठित करके चला रहे थे। अर्थात् यह उनका व्यवसाय था। इसकी जगह काँग्रेस में बाकायदा एक नेता के तौर पर ही शामिल होना, तत्त्वत: एक पूरी तरह से भिन्न काम को अपनाना कहलाएगा। आम समझ में राजनीति और व्यवसाय, इन दोनों क्षेत्रों के बीच एक गहरे सम्बन्ध की धारणा है। लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि इन दोनों के बीच सहज विचरण कभी भी संभव नहीं है। इनके बीच एक सम्बन्ध नज़र आने पर भी, इनकी निष्ठाएँ अलग-अलग हैं, इनके विश्वास भी अलग है। कोई भी इनमें से किसी एक क्षेत्र को ही ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपना सकता है। कम्युनिस्ट विचारक अंतोनिओ ग्राम्शी ने इसी विषय पर अपनी ‘प्रिजन नोटबुक’ में एक बहुत सारगर्भित टिप्पणी की है। इसमें एक अध्याय है ‘बुद्धिजीवी और शिक्षा’। इस अध्याय में वे बुद्धिजीवी से अपने तात्पर्य की व्याख्या करते हैं। वे बुद्धिजीवी की धारणा को लेखक-दार्शनिक-संस्कृतिकर्मी की सीमा से निकाल कर इतने बड़े परिसर में फैला देते हैं जिसमें जीवन के सभी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बौद्धिक स्तर पर काम करने वाले लोग शामिल हो जाते हैं। बुद्धिजीवी कौन है और क���न नहीं है, इसी सवाल की उधेड़बुन में पन्ना-दर-पन्ना रंगते हुए वे क्रमश: अपनी केंद्रीय चिन्ता का विषय ‘राजनीतिक पार्टी’ पर आते हैं और इस नतीजे तक पहुँचते हैं कि राजनीतिक पार्टी का हर सदस्य ही बुद्धिजीवी होता है, क्योंकि उनकी सामाजिक भूमिका समाज को संगठित करने, दिशा देने अर्थात् शिक्षित करने की होती है।
इसी सिलसिले में वे टिप्पणी करते हैं कि “एक व्यापारी किसी राजनीतिक पार्टी में व्यापार करने के लिए शामिल नहीं होता है, न उद्योगपति अपनी उत्पादन-लागत में कटौती के लिए उसमें शामिल होता है, न कोई किसान जुताई की नई विधियों को सीखने के लिए। यह दीगर है कि पार्टी में शामिल होकर उनकी ये ज़रूरतें भी अंशत: पूरी हो जाए।” इसके साथ ही वे यह विचारणीय बात कहते हैं कि यथार्थ में “राजनीति से जुड़ा हुआ व्यापारी, उद्योगपति या किसान अपने काम में लाभ के बजाय नुक़सान उठाता है, और वह अपने पेशे में बुरा साबित होता है। … राजनीतिक पार्टी में ये आर्थिक-सामाजिक समूह अपने पेशागत ऐतिहासिक विकास के क्षण से कट जाते हैं और राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय चरित्र की सामान्य गतिविधियों के माध्यम बन जाते हैं।” जब हम प्रशांत किशोर के काँग्रेस की तरह के एक स्थापित राजनीतिक संस्थान में शामिल होने की गंभीरता पर विचार करते हैं को हमारे ज़ेहन विचार का यही परिदृश्य होता है जिसमें राजनीति का पेशा दूसरे पेशों से पूरी तरह जुदा होता है और इनके बीच सहजता से परस्पर-विचरण असंभव होता है। अब यदि हम पूरे विषय को एक वैचारिक अमूर्त्तन से निकाल कर आज के राजनीतिक क्षेत्र के ठोस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो यह कहने में जरा भी अत्युक्ति नहीं होगी कि आज किसी का काँग्रेस में शामिल होने का राजनीतिक अर्थ है खुद को दृढ़ बीजेपी-विरोधी घोषित करना। चुनाव प्रबन्धन का ठेका लेने के बजाय काँग्रेस पार्टी का हिस्सा बनना भी इ��ीलिए स्वार्थपूर्ण नहीं कहला सकता है क्योंकि अभी काँग्रेस में शामिल होने से ही तत्काल कोई आर्थिक लाभ संभव नहीं है। प्रशांत किशोर अपने लिए पेशेवर चुनाव प्रबन्धक से बिल्कुल अलग जिस बृहत्तर भूमिका की बात कहते रहे हैं, उनका ऐसा फ़ैसला उनके इस आशय की गंभीरता को पुष्ट करेगा। यह उनके उस वैचारिक रुझान को भी संगति प्रदान करता है जिसके चलते उन्होंने नीतीश कुमार से अपने को अलग किया, पंजाब में काँग्रेस का साथ देने, उत्तर प्रदेश में सपा-काँग्रेस के लिए काम करने के अलावा बंगाल में तृणमूल के लिए काम करने का निर्णय लिया। इसके अलावा, उनका काँग्रेस जैसे विपक्ष के प्रमुख दल को चुनना भी उनके जैसे एक कुशल व्यक्ति के लिए निजी तौर पर उपयुक्त चुनौती भरा और संतोषजनक निर्णय भी हो सकता है। बहरहाल, अभी तो यह सब कोरा क़यास ही है। प्रशांत किशोर के लिए अपनी योग्यता और वैचारिकता के अनुसार काम करने के लिए काँग्रेस का मंच किसी भी अन्य व्यक्ति को कितना भी उपयुक्त क्यों न जान पड़े, ऐसे फ़ैसलों में व्यक्ति के अहम् और संगठनों की संरचना आदि से जुड़े दूसरे कई आत्मगत कारण है जो अंतिम तौर पर निर्णायक साबित होते हैं। मसलन, आज यदि हम दृढ़ बीजेपी-विरोध के मानदंड से विचार करें तो किसी के भी लिए काँग्रेस के अलावा दूसरा संभावनापूर्ण अखिल भारतीय मंच वामपंथी दलों का भी हो सकता है। लेकिन वामपंथी पार्टियों का अपना जो पारंपरिक सांगठनिक विन्यास और उसकी रीति-नीति है, उसमें ऐसे किसी बाहर के योग्य व्यक्ति की प्रभावी भूमिका की बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। वामपंथी पार्टियों के सांगठनिक ढाँचे की यह विडंबना ऐसी है कि इसमें जब बाहर के व्यक्ति के भूमिका असंभव है, तब बाहर के अन्य लोगों के लिए भी वामपंथी पार्टियों की ओर सहजता से झांकना संभव नहीं होता है। इसके लिए कथित संघर्ष की एक दीर्घ प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य होता है, भले वह संघर्ष पार्टी के अंदर का संघर्ष ही क्यों न हो। अर्थात् उसके लिए वामपंथी मित्रों के सहचर के रूप में एक लम्बा समय गुज़ारना ज़रूरी होता है। अनुभव साक्षी है कि यह अन्तरबाधा एक मूल वजह रही है जिसके चलते अनेक ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी वामपन्थ अपने व्यापक प्रसार के लिए उसका लाभ उठा पाने से चूक जाता है या अपनी भूमिका अदा करने के लिए ज़रूरी शक्ति का संयोजन नहीं कर पाता है। जब 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था तो कुछ ऐसी ही अपनी अन्तरबाधाओं की वजह से, जो सीपीएम के संविधान की एक धारा 112 के रूप में प्रकट हुई थी, व��मपन्थ अपनी भूमिका अदा करने में विफल हुआ। बहरहाल, यहाँ अभी विषय प्रशांत किशोर के अनुमानित निर्णय का है। हम पुन: यही कहेंगे कि अव्वल तो यह बात पूरी तरह से अफ़वाह साबित होगी। प्रोग्राम यह बात सच साबित होती है तो मानना पड़ेगा कि प्रशांत किशोर अपनी भिन्न और बृहत्तर सामाजिक भूमिका के बारे में सचमुच गंभीर और ईमानदार है। . Read the full article
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हैरी पॉटर स्टार एम्मा वॉटसन ने अभिनय से संन्यास ले लिया जब उनके प्रबंधक ने अफवाहों का जवाब दिया
हैरी पॉटर स्टार एम्मा वॉटसन ने अभिनय से संन्यास ले लिया जब उनके प्रबंधक ने अफवाहों का जवाब दिया
हाल ही में हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री एम्मा वॉटसन के बारे में कुछ खबरें सामने आई हैं कि वह मनोरंजन की दुनिया को अलविदा कहने वाली हैं। इस खबर के सामने आने के बाद, उनके प्रशंसक उदास हो गए और सोशल मीडिया #EmmaWatson पर ट्रेंड करने लगे। लेकिन अब इस पूरे मामले पर फैंस के लिए अच्छी खबर आई है। दरअसल, अब इन ख़बरों पर एमा के मैनेजर की प्रतिक्रिया आई है और उन्होंने इन सभी ख़बरों को महज़ अफ़वाह बताया है।…
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राजस्थान हाईकोर्ट के जज सतीश चंद्र शर्मा के रोस्टर बदलने की मांग पर 6 जजों की कमेटी करेगी जांच
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राजस्थान उच्च न्यायालय: जयपुर में होने वाली घटना में बदलाव होने की संभावना है। , मंगलवार को बैठक हुई और बैठक की शुरुआत की गई। . इस खेल के दौरान पूरी तरह से प्रक्षेपित होने के कारण सूर्य के पास एक विशेष स्थिति होगी। वकील चाहते थे कि जज सतीश चंद्र शर्मा का रोस्टर बदला जाए। आज के समय में चार्ज होने के मामले में चार्ज करने वाले अधिकारी ने चार्ज किया था। बाहरी के मामले पर अफ़वाह। अपने आप को स्थिर रखने…
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कुछ मूर्खों ने अफ़वाह फ़ैला दी है कि राजू श्रीवास्तव नहीं रहे. अरे बिना सोचे-समझे, बिना सच्चाई जाने कुछ भी Forward करते रहते हो, ज़रा ये तो सोचो उनके परिवार पर क्या बीत रही होगी....
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तारा सुतारिया एक बीगल घर लाती है, आधार जैन सुंदर पालतू बेली का नाम लेते हैं, चित्र देखें
तारा सुतारिया एक बीगल घर लाती है, आधार जैन सुंदर पालतू बेली का नाम लेते हैं, चित्र देखें
अभिनेता तारा सुतारिया उसके परिवार में नवीनतम जोड़ की तस्वीरें साझा की गईं – एक सुंदर पांच महीने की बीगल। जबकि उसकी जुड़वाँ बहन पिया और वह उसके बारे में बात करना बंद ��हीं कर सकती है, यह तारा का अफ़वाह प्रेमी अवध जैन है जिसने उसे एक नाम दिया।
इंस्टाग्राम पर लेते हुए, तारा ने लिखा: “घर में स्वागत है, बेबी बेली !!! @aadarjain @piasutaria। ” उन्हें बधाई देने वालों और कुत्ते पर प्यार बरसाने वालों में…
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सुप्रभात। समय बदलता रहता है उसी तरह हमें अपनी ज़रूरतों को भी बदलते रहना चाहिए। #गुज़ाराकरना #yqdidi #YourQuoteAndMine Collaborating with YourQuote Didiफ़किरा बौलता है - कम में चलना भी सीख लो ! ____________________________ ! ऐ झुग्गीयो में रहने वालो - K ' अब पढ़ना-लिखना सीख लो ! के देखो छत तुम्हारी टपक रही हैं - बीन बादल ऐ बरसात में ; बीन बजाये ऐ बारात में ! तुम्हारे ही ससुराल में ! जैसे काली अक्क्षर ; भैंस बराबर ! के आगे - फ़किरा ! सेह ऐ सेहनाई बजा रहा हैं - जीजा कोई ! और सुन के आवाज शालो का ; K' कुत्ते जैसा चीपक जाता है , ओर - कोई ! जैसे कोई एक फ़किरा को है जबरन आब - है उसकी ; औक़ात, है - दिखानी ! के सूनो तो जरा कान खौल कर - फ़रिश्तो ! औरत तेरी अब क्या f#@kira से कहती हैं ! बेवकूफ किसी बच्चे ऐ बहाने के सहारा - K प्यास खूद की कैसे बुझा रही हैं ! एक अनपढ अबला नारी - फ़किरा ! मम्महर में अपनी ; एक शौतेले दामद को - K मेहमान बना रही है ! मोहब्बत मजबुरी जानता है जहाँ - फ़किरा ! कहानी कहाँ की क्यों भला ; हैं कहाँ पे - है क्यो जा रही हैं ! क्यो भला एक घर- जवाई ; घर खुद का, है ,जीसका - फ़रिश्ता ! क्यों भला तब शराब पीता था ? के पिता बना जब से वह , कुवारा ! क्यो बाबा में गिना जा रहा था ! K निन्दा पड़ोसी अब क्यो हैं - करे ! एक ना मर्द जो कभी ; था कभी ही नहीं - f#@kira ! बस साक्क्षरता की कमी थी ; और कुछ दोस्तो का दोष था ! जो एक गवार भरतिया ऐ भतार - मोहब्बत से खूद की मिला रही हैं ! नाम जहा होना था - फ़रिश्ता ! के f#@kira कहानी रचा रही हैं ! के जिस्म का भूखा जो ; है सब लंगर ऐ लौग को लगे ! सूना ही नहीं जीसने खूद कभी ; अफ़वाह जीसने भी लगाई हैं - लगता है अपनो में से हैं जैसे - कोई ! नाँच न आता है जीसको ; फ़किरा ! इल्जाम आंगन पे , जो हमेसा - लगाता हैं ! K कहता है कम में चलाना ; सीख लो - फ़किरो ! तूफान कोई बड़ा बहुत ; है तेज आने वाला ! परेसानी और हैरानी के बाढ़ में - बाद में पड़ेगा, वरना - फ़किरा ! _______________बहुत ही - पछताना ! ऐ झुग्गीयो में रहने वालो - के अब काम चलाना सीख लो ; या तो फिर फ़किरो - तूम पढ़ना-लीखना सीख लो | " Read my thoughts on @YourQuoteApp #yourquote #quote #stories #qotd #quoteoftheday #wordporn #quotestagram #wordswag #wordsofwisdom #inspirationalquotes #writeaway #thoughts #poetry #instawriters #writersofinstagram #writersofig #writersofindia #igwriters #igwritersclub (at Know Smoking Zone) https://www.instagram.com/p/B_16-oPB8FF/?igshid=1xsm1xi358q12
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