#अपमृत्यु
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adityaastro · 2 months ago
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मृत्यु, अपमृत्यु व मृत्यु-तुल्य कष्ट !
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astrovastukosh · 2 months ago
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*🌞~ आज दिनांक - 19 सितम्बर 2024 का वैदिक हिन्दू पंचांग और पितृ-पक्ष कैलेंडर 2024 (तिथि अनुसार श्राद्ध) ~🌞*
*⛅दिनांक - 19 सितम्बर 2024*
*⛅दिन - गुरूवार*
*⛅विक्रम संवत् - 2081*
*⛅अयन - दक्षिणायन*
*⛅ऋतु - शरद*
*⛅मास - आश्विन*
*⛅पक्ष - कृष्ण*
*⛅तिथि - द्वितीया रात्रि 12:39 सितम्बर 20 तक तत्पश्चात तृतीया*
*⛅नक्षत्र - उत्तर भाद्रपद प्रातः 08:04 तक तत्पश्चात रेवती प्रातः 05:15 सितम्बर 20 तक तत्पश्चात अश्विनी*
*⛅योग - वृद्धि शाम 07:19 तक तत्पश्चात ध्रुव*
*⛅राहु काल - दोपहर 02:05 से दोपहर 03:36 तक*
*⛅सूर्योदय - 06:31*
*⛅सूर्यास्त - 06:36*
*⛅दिशा शूल - दक्षिण दिशा में*
*⛅ब्राह्ममुहूर्त - प्रातः 04:53 से 05:40 तक*
*⛅अभिजीत मुहूर्त - दोपहर 12:09 से दोपहर 12:57 तक*
*⛅निशिता मुहूर्त- रात्रि 12:10 सितम्बर 20 से रात्रि 12:57 सितम्बर 20 तक*
*व्रत पर्व विवरण - द्वितीया श्राद्ध, सर्वार्थ सिद्धि योग (प्रातः 08:04 से प्रातः 06:28 सितम्बर 20 तक)*
*⛅विशेष - द्वितीया को बृहती (छोटा बैगन या कटेहरी) खाना निषिद्ध है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)*
*🔹स्नान कैसे करना चाहिये ??🔹*
*🔸जहाँ से प्रवाह आता हो वहाँ पहले सिर की डुबकी मारें । घर में भी स्नान करे तो पहले जल सिर पर डालें.... पैरों पर पहले नहीं डालना चाहिए । शीतल जल सिर को लगने से सिर की गर्मी पैरों के तरफ जाती है ।*
*🔸और जहाँ जलाशय है, स्थिर जल है वहाँ सूर्य पूर्वमुखी होकर स्नान करें ।*
*🔸घर में स्नान करें तो उस बाल्टी के पानी में जौ और तिल अथवा थोड़ा गोमूत्र अथवा तिर्थोद्क पहले (गंगाजल आदि) डाल कर फिर बाल्टी भरें तो घर में भी तीर्थ स्नान माना जायेगा ।*
*🔹 गुरुवार विशेष 🔹*
*🔸 हर गुरुवार को तुलसी के पौधे में शुद्ध कच्चा दूध गाय का थोड़ा-सा ही डाले तो, उस घर में लक्ष्मी स्थायी होती है और गुरूवार को व्रत उपवास करके गुरु की पूजा करने वाले के दिल में गुरु की भक्ति स्थायी हो जाती है ।*
*🔸 गुरुवार के दिन देवगुरु बृहस्पति के प्रतीक आम के पेड़ की निम्न प्रकार से पूजा करें :*
*🔸 एक लोटा जल लेकर उसमें चने की दाल, गुड़, कुमकुम, हल्दी व चावल डालकर निम्नलिखित मंत्र बोलते हुए आम के पेड़ की जड़ में चढ़ाएं ।*
*ॐ ऐं क्लीं बृहस्पतये नमः ।*
*फिर उपरोक्त मंत्र बोलते हुए आम के वृक्ष की पांच परिक्रमा करें और गुरुभक्ति, गुरुप्रीति बढ़े ऐसी प्रार्थना करें । थोड़ा सा गुड़ या बेसन की मिठाई चींटियों को डाल दें ।*
*🌹पितृ-पक्ष कैलेंडर 2024 (तिथि अनुसार श्राद्ध)*
*(श्राद्ध पक्ष - 17 सितम्बर से 2 अक्टूबर 2024)*
🔸 *17 सितम्बर* 2024, मंगलवार- *पूर्णिमा* का श्राद्ध *महालय श्राद्धारम्भ*
🔸 *18 सितम्बर* 2024, बुधवार - *प्रतिपदा* का श्राद्ध
🔸 *19 सितम्बर* 2024, गुरुवार - *द्वितीया* का श्राद्ध
🔸 *20 सितम्बर* 2024, शुक्रवार - *तृतीया* का श्राद्ध
🔸 *21 सितम्बर* 2024, शनिवार - *चतुर्थी* का श्राद्ध
🔸 *22 सितम्बर* 2024, रविवार - *पंचमी* का श्राद्ध
🔸 *23 सितम्बर* 2024, सोमवार - *षष्ठी व सप्तमी* का श्राद्ध
🔸 *24 सितम्बर* 2024, मंगलवार - *अष्टमी* का श्राद्ध
🔸 *25 सितम्बर* 2024, बुधवार - *नवमी* का श्राद्ध
🔸 *26 सितम्बर* 2024, गुरुवार - *दशमी* का श्राद्ध
🔸 *27 सितम्बर* 2024, शुक्रवार - *एकादशी* का श्राद्ध
🔸 *29 सितम्बर* 2024, रविवार - *द्वादशी* का श्राद्ध
🔸 *30 सितम्बर* 2024, सोमवार - *त्रयोदशी* का श्राध्द
🔸 *1 अक्टूबर* 2024, मंगलवार- *चतुर्दर्शी* का श्राध्द *आग-दुर्घटना-अस्त्र-शस्त्र-* अपमृत्यु से मृतक का श्राद्ध
�� *2 अक्टूबर* 2024, बुधवार - *अमावश्या* का श्राध्द व *सर्वपित्री अमावस्या* (अज्ञात तिथीवालों का श्राध्द)
#akshayjamdagni #astrovastukosh #astroakshay #hindu
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astroclasses · 1 year ago
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karanaram · 3 years ago
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🚩जानिए दीपावली कब से शुरू हुई और उन दिनों में क्या करना चाहिए..? 02 नवंबर 2021
🚩दीपावली शब्द दीप एवं आवली की संधि से बना है । आवली अर्थात पंक्ति । इस प्रकार दीपावली का शाब्दिक अर्थ है, दीपों की पंक्ति । दीपावली के समय सर्वत्र दीप जलाए जाते हैं, इसलिए इस त्यौहार का नाम दीपावली है । भारतवर्ष में मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक एवं धार्मिक इन दोनों दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व है । इसे दीपोत्सव भी कहते हैं । ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।’ अर्थात अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है । अपने घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहे, ज्ञान का प्रकाश रहे, इसलिए सभी अत्यंत हर्षोउल्लास से दीपावली मनाते हैं । प्रभु श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर अयोध्या लौटे, उस समय प्रजा ने दीपोत्सव मनाया । तब से प्रारंभ हुई दीपावली ।
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🚩‘श्रीकृष्ण ने आसुरी वृत्ति के नरकासुर का वध कर जनता को भोगवृत्ति, लालसा, अनाचार एवं दुष्टप्रवृत्ति से मुक्त किया एवं प्रभुविचार (दैवी विचार) देकर सुखी किया, यह वही ‘दीपावली’ है । हम अनेक वर्षों से एक रूढ़ि के रूप में ही दीपावली मना रहे हैं । आज उसका गुह्यार्थ लुप्त हो गया है । इस गुह्यार्थ को ध्यान में रखते हुए, अस्मिता जागृत हो तो अज्ञानरूपी अंधकार के साथ ही साथ भोगवृत्ति, अनाचारी एवं आसुरी वृत्ति के लोगों की प्रबलता अल्प होगी एवं सज्जनों पर उनका वर्चस्व अल्प होगा ।
🚩दीपावली दृश्यपट (Deepavali Videos)
1. दीपावली का इतिहास:-
🚩बलिराजा अत्यंत दानवीर थे । द्वारपर पधारे अतिथि को उनसे मुंहमांगा दान मिलता था । दान देना गुण है; परंतु गुणों का अतिरेक दोष ही सिद्ध होता है । किसे क्या, कब और कहां दें, इसका निश्चित विचार शास्त्रों में एवं गीता में बताया गया है । सत्पात्र को दान देना चाहिए, अपात्र को नहीं । अपात्र मानवों के हाथ संपत्ति लगने पर वे मदोन्मत्त होकर मनमानी करने लगते हैं । बलि राजा से कोई, कभ��� भी, कुछ भी मांगता, उसे वह देते थे । तब भगवान श्रीविष्णु ने ब्रह्मचारी बालक का (वामन) अवतार लिया । ‘वामन’ अर्थात छोटा । ब्रह्मचारी बालक छोटा होता है और वह ‘ॐ भवति भिक्षां देही ।’ अर्थात ‘��िक्षा दो’ ऐसा कहता है । विष्णु ने वामन अवतार लिया एवं बलिराजा के पास जाकर भिक्षा मांगी । बलिराजा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए ?’’ तब वामन ने त्रिपाद भूमिदान मांगा । ‘वामन कौन है एवं इस दान से क्या होगा’, इसका ज्ञान न होने के कारण बलिराजा ने इस वामन को त्रिपाद भूमि दान कर दी । इसके साथ ही वामन ने विराट रूप धारण कर एक पैर से समस्त पृथ्वी नाप ली, दूसरे पैरसे अंतरिक्ष एवं फिर बलिराजा से पूछा ‘‘तीसरा पैर कहां रखूं ?’’ उसने उत्तर दिया ‘‘तीसरा पैर मेरे मस्तक पर रखें’’ । तब तीसरा पैर उसके मस्तक पर रख, उसे पाताल में भेजने का निश्चय कर वामन ने बलिराजासे कहा, ‘‘तुम्हें कोई वर मांगना हो, तो मांगो (वरं ब्रूहि) ।’’ बलिराजा ने वर मांगा कि ‘अब पृथ्वी पर मेरा समस्त राज्य समाप्त होनेको है एवं आप मुझे पाताल में भेजनेवाले हैं, ऐसे में तीन कदमों के इस प्रसंग के प्रतीकरूप पृथ्वी पर प्रतिवर्ष कम से कम तीन दिन मेरे राज्य के रूप में माने जाएं । प्रभु, यमप्रीत्यर्थ दीपदान करनेवालेको यमयातनाएं न हों । उसे अपमृत्यु न आए । उसके घर पर सदा लक्ष्मीका वास हो ।’ ये तीन दिन अर्थात कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, अमावस्या एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा । इसे ‘बलिराज्य’ कहा जाता है ।
🚩2. दीपावली कब मनाई जाती है ?
दीपावली पर्व के अंतर्गत आनेवाले महत्त्वपूर्ण दिन हैं, कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये तीन दिन दीपावली के विशेष उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं । कुछ लोग त्रयोदशी को दीपावली में सम्मिलित न कर, शेष तीन दिनों की ही दीवाली मनाते हैं । वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी, धनत्रयोदशी अर्थात धनतेरस तथा भाईदूज अर्थात यमद्वितीया, ये दिन दीपावली के साथ ही आते हैं । इसलिए, भले ही ये त्यौहार भिन्न हों, फिर भी इनका समावेश दीपावली में ही किया जाता है । इन दिनों को दीपावली का एक अंग माना जाता है । कुछ प्रदेशों में वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी को ही दीपावली का आरंभदिन मानते है ।
🚩दीपावली आने से पूर्व ही लोग अपने घर-द्वार की स्वच्छता पर ध्यान देते हैं । घर का कूड़ा-करकट साफ करते हैं । घर में टूटी-फूटी वस्तुओं को ठीक करवाकर घर की रंगाई करवाते हैं । इससे उस स्थान की न केवल आयु बढ़ती है, वरन आकर्षण भी बढ़ जाता है । वर्षाऋतु में फैली अस्वच्छता का भी परिमार्जन हो जाता है । स्वच्छता के साथ ही घर के सभी सदस्य नए कपड़े सिलवाते हैं । विविध मिठाइयां भी बनायी जाती है । ब्रह्मपुराण में लिखा है कि दीपावली को श्री लक्ष्मी सदगृहस्थों के घर में विचरण करती हैं । घर को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध ��वं सुशोभित कर दीपावली मनानेसे श्री लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं तथा वहां स्थायीरूप से निवास करती हैं ।
🚩4. दीपावली में बनाई जानेवाली विशेष रंगोलियां:
दीपावली के पूर्वायोजन का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है, रंगोली । दीपावली के शुभ पर्व पर विशेष रूप से रंगोली बनाने की प्रथा है । रंगोली के दो उद्देश्य हैं – सौंदर्य का साक्षात्कार एवं मंगल की सिद्धि । रंगोली देवताओं के स्वागतका प्रतीक है । रंगोली से सजाए आंगन को देखकर देवता प्रसन्न होते हैं । इसी कारण दिवाली में प्रतिदिन देवताओं के तत्त्व आकर्षित करने वाली रंगोलियां बनानी चाहिए तथा उस माध्यम से देवतातत्त्व का लाभ प्राप्त करना चाहिए ।
🚩5. तेल के दीप जलाना:-
रंगोली बनाने के साथ ही दीपावली में प्रतिदिन किए जानेवाला यह एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है । दीपावली में प्रतिदिन सायंकाल में देवता एवं तुलसी के समक्ष, साथ ही द्वार पर एवं आंगन में विविध स्थानों पर तेल के दीप लगाए जाते हैं । यह भी देवता तथा अतिथियों का स्वागत करने का प्रतीक है । आजकल तेल के दीप के स्थान पर मोम के दीप लगाए जाते हैं अथवा कुछ स्थानों पर बिजली के दीप भी लगाते हैं । परंतु शास्त्र के अनुसार तेल के दीप लगाना ही उचित एवं लाभदायक है । तेल का दीप एक मीटर तक की सात्त्विक तरंगें खींच सकता है । इसके विपरीत मोम का दीप केवल रज-तमकणों का प्रक्षेपण करता है, जबकि बिजली का दीप वृत्ति को बहिर्मुख बनाता है । इसलिए दीपों की संख्या अल्प ही क्यों न हो, तो भी तेल के दीप की ही पंक्ति लगाएं ।
🚩6. आकाश दीप अथवा आकाश कंडील:-
विशिष्ट प्रकारके रंगीन कागज, थर्माकोल इत्यादिकी विविध कलाकृतियां बनाकर उनमें बिजली के दिये लगाए जाते हैं, उसे आकाशदीप अथवा आकाशकंदील कहते हैं । आकाशदीप सुशोभन का ही एक भाग है ।
🚩7. दीपावली पर्व पर बच्चों द्वारा बनाए जानेवाले घरौंदे एवं किले:-
दीपावली के अवसर पर उत्तर भारत के कुछ स्थानों पर बच्चे आंगन में मिट्टी का घरौंदा बनाते हैं, जिसे कहीं पर ‘हटरी’, तो कहीं पर ‘घरकुंडा’के नाम से जानते हैं । दीप से सजाकर, इसमें खीलें, बताशे, मिठाइयां एवं मिट्टी के खिलौने रखते हैं । महाराष्ट्र में बच्चे किला बनाते हैं तथा उसपर छत्रपति शिवाजी महाराज एवं उनके सैनिकों के चित्र रखते हैं । इस प्रकार त्यौहारों के माध्यमसे पराक्रम तथा धर्माभिमान की वृद्धि कर बच्चों में राष्ट्र एवं धर्म के प्रति कुछ नवनिर्माण की वृत्ति का पोषण किया जाता है ।
🚩8. दीपावली शुभसंदेश देनेवाले दीपावली के शुभेच्छापत्र:-
दीपावली के मंगल पर्व पर लोग अपने सगे-संबंधियों एवं शुभचिंतकों को, आनंदमय दीपावली की शुभकामनाएं देते हैं । इसके लिए वे शुभकामना पत्र भेजते हैं तथा कुछ लोग उपहार भी देते हैं । ये साधन जितने सात्त्विक होंगे, देनेवाले एवं प्राप्त करन���वाले को उतना ही अधिक लाभ होगा । शुभकामना पत्रों के संदेश एवं उपहार, यदि धर्मशिक्षा, धर्मजागृति एवं धर्माचरणसे संबंधित हों, तो प्राप्त करनेवाले को इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा भी मिलती है । हिंदू जनजागृति समिति एवं सनातन संस्था द्वारा इस प्रकार के शुभेच्छापत्र बनाए जाते हैं ।
🚩संदर्भ : सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनाने की उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’ एवं अन्य ग्रंथ
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bhaktigroupofficial · 3 years ago
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🌞 ~ *आज का हिन्दू पंचांग* ~ 🌞
⛅ *दिनांक 05 अक्टूबर 2021*
⛅ *दिन - मंगलवार*
⛅ *विक्रम संवत - 2078 (गुजरात - 2077)*
⛅ *शक संवत -1943*
⛅ *अयन - दक्षिणायन*
⛅ *ऋतु - शरद*
⛅ *��ास -अश्विन (गुजरात एवं महाराष्ट्र के अनुसार - भाद्रपद)*
⛅ *पक्ष - कृष्ण*
⛅ *तिथि - चतुर्दशी शाम 07:04 तक तत्पश्चात अमावस्या*
⛅ *नक्षत्र - उत्तराफाल्गुनी 06 अक्टूबर रात्रि 01:10 तक तत्पश्चात हस्त*
⛅ *योग - शुक्ल सुबह 11:35 तक तत्पश्चात ब्रह्म*
⛅ *राहुकाल - शाम 03:25 से शाम 04:54 तक*
⛅ *सूर्योदय - 06:32*
⛅ *सूर्यास्त - 18:21*
⛅ *दिशाशूल - उत्तर दिशा में*
⛅ *व्रत पर्व विवरण - आग- दुर्घटना- अस्त्र-शस्त्र- अपमृत्यु से मृतक का श्राद्ध*
💥 *विशेष - चतुर्दशी और अमावस्या तिथि, एवं श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल का तेल खाना और लगाना निषिद्ध है।(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)*
🌞 *~ हिन्दू पंचांग ~* 🌞
🌷 *सर्व पितृ अमावस्या* 🌷
🙏🏻 *श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या कहते हैं। मान्यता है कि इस दिन सभी ज्ञात-अज्ञात पितरों का श्राद्ध करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस बार 06 अक्टूबर, बुधवार को यह अमावस्या है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, श्राद्ध पक्ष की अमावस्या पर कुछ विशेष उपाय करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और पितृ दोष भी कम होता है। इसलिए इस दिन भी ये उपाय किए जा सकते हैं।*
🙏🏻 *पीपल में पितरों का वास माना गया है ।सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या पर पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाएं और गाय के शुद्ध घी का दीपक लगाएं ।*
🙏🏻 *सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या पर किसी ब्राह्मण को भोजन के लिए घर बुलाएं या भोजन सामग्री जिसमें आटा, फल, गुड़ आदि का दान करें ।*
🙏🏻 *इस अमावस्या पर किसी पवित्र नदी में काले तिल डालकर तर्पण करें ।इससे भी पितृगण प्रसन्न होते हैं ।*
🙏🏻 *सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या पर अपने पितरों को याद कर गाय को हरा चारा खिला दें ।इससे भी पितृ प्रसन्न व तृप्त हो जाते हैं ।*
🙏🏻 *इस अमावस्या पर चावल के आटे से 5 पिडं बनाएं व इसे लाल कपड़े में लपेटकर नदी में प्रवाहित कर दें ।*
🙏🏻 *अमावस्या पर गाय के गोबर से बने कंड़े को जलाकर उस पर घी-गुड़ की धूप दें और पितृ देवताभ्यो अर्पणमस्तु बोलें ।*
🙏🏻 *इस अमावस्या पर कच्चा दूध, जौ, तिल व चावल मिलाकर नदी में प्रवाहित करें ।ये उपाय सूर्योदय के समय करें तो अच्छा रहेगा ।*
🌞 *~ हिन्दू पंचांग ~* 🌞
🌷 *सर्व पितृ अमावस्या* 🌷
🙏🏻 *पितृ पक्ष का आखिरी दिन पितृ अमावस्या होती है। इस दिन कुल के सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। फिर चाहे उनकी मृत्यु तिथि पता न हो। तब भी आप पितृ अमावस्या पर उनका तर्पण कर सकते हैं।*
🙏🏻 *पितृ पक्ष की अमावस्या को सूर्यास्त से पहले ये उपाय करना है। इस उपाय में एक स्टील के लोटे में, दूध, पानी, काले व सफेद तिल और जौ मिला लें। इसके साथ कोई भी सफेद मिठाई, एक नारियल, कुछ सिक्के और एक जनेऊ पीपल के पेड़ के नीचे जाकर सबसे पहले ये सारा सामान पेड़ की जड़ में चढ़ा दें। इस दौरान सर्व पितृ देवभ्यो नम: का जप करते रहें।*
🙏🏻 *ये मंत्र बोलते हुए पीपल को जनेऊ भी चढ़ाएं। इस पूरी विधि क��� बाद मन में सात बार ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करें और भगवान विष्णु से कहें मेरे जो भी अतृप्त पितृ हों वो तृप्त हो जाए। इस उपाय को करने से पितृ तृप्त होते हैं पितृ दोष का प्रभाव खत्म होता है और उनका अशीर्वाद मिलने लगता है। हर तरह की आर्थिक और मानसिक समस्याएं दूर होती हैं।*
🚩🚩🚩📖 📒 🙏
🌞 ~ *हिन्दू पंचांग* ~ 🌞
🙏🏻🌷🌻🌹🍀🌺🌸🍁💐🙏🏻
🦚🌈[ श्री भक्ति ग्रुप मंदिर ]🦚🌈
🙏🌹🙏जय श्री राधे कृष्ण🙏🌹🙏
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vedicpanditji · 5 years ago
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#धनतेरस_के_दिन_यमदीपदान 25 अक्टूबर 2019 शुक्रवार को धनतेरस है । इस दिन यम-दीपदान जरूर करना चाहिए। ऐसा करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है। पूरे वर्ष में एक मात्र यही वह दिन है, जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा सिर्फ दीपदान करके की जाती है। कुछ लोग नरक चतुर्दशी के दिन भी दीपदान करते हैं। #स्कंदपुराण_में_लिखा_है कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनिश्यति ।। अर्थात कार्तिक मासके कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के दिन सायंकाल में घर के बाहर यमदेव के उद्देश्य से दीप रखने से अपमृत्यु का निवारण होता है । #पद्मपुराण_में_लिखा_है कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां तु पावके। यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति।। कार्तिक कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को घर से बाहर यमराज के लिए दीप देना चाहिए इससे दुरमृत्यु का नाश होता है। #सरल_विधि यमदीपदान प्रदोषकाल में करना चाहिए । इसके लिए आटे का एक बड़ा दीपक लें। गेहूं के आटे से बने दीप में तमोगुणी ऊर्जा तरंगे एवं आपतत्त्वात्मक तमोगुणी तरंगे (अपमृत्यु के लिए ये तरंगे कारणभूत होती हैं) को शांत करने की क्षमता रहती है । तदुपरान्त स्वच्छ रुई लेकर दो लम्बी बत्तियॉं बना लें । उन्हें दीपक में एक -दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुँह दिखाई दें । अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें । प्रदोषकाल में इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली , अक्षत एवं पुष्प से पूजन करें । उसके पश्चात् घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी -सी खील अथवा गेहूँ से ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना है । दीपक को रखने से पहले प्रज्वलित कर लें और दक्षिण दिशा (दक्षिण दिशा यम तरंगों के लिए पोषक होती है अर्थात दक्षिण दिशा से यमतरंगें अधिक मात्रा में आकृष्ट एवं प्रक्षेपित होती हैं) की ओर देखते हुए चार मुँह के दीपक को खील आदि की ढेरी के ऊपर रख दें । ‘ॐ यमदेवाय नमः ’ कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करें । #दीपदान_का_मन्त्र : मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह | त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम || #इसका अर्थ है, धनत्रयोदशीपर यह दीप मैं सूर्यपुत्रको अर्थात् यमदेवताको अर्पित करता हूं । मृत्युके पाशसे वे मुझे मुक्त करें और मेरा कल्याण करें । (at New Delhi) https://www.instagram.com/p/B38iktYDKa2/?igshid=1jpmonkli4li6
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onlinekhabarapp · 6 years ago
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श्रद्धा किन गरिन्छ ? यस्तो छ घतलाग्दो पक्ष
शास्त्रहरूमा बताइए अनुसार अहिले चलिरहेको पितृपक्ष एक प्रकारले पितृहरूको सामूहिक मेला हो । यो पक्षमा सबै पितृहरू पृथ्वीलोकमा बस्ने आफ्ना सन्तानहरूकहाँ बिना आहृवान नै आउँछन् अनि उनीहरूले अर्पण गरेका गरेका तर्पण, पिण्ड आदि प्रसादबाट तृप्त भएर उनीहरूलाई अनेकानेक शुभाशीर्वाद प्रदान गर्दछन् । फलस्वरूप श्राद्धकर्ताले अनेक प्रकारका सुख प्राप्त गर्दछ ।
यसकारण श्राद्ध पक्षमा आफ्ना  पितृका सन्तुष्टि त��ा अनन्त एवं अक्षय तृप्तिका साथै उनीहरूको  शुभाशीर्वाद प्राप्त गर्ने उद्देश्यले हरेक मानिसले आ आफ्ना पितृहरूको श्राद्ध अनिवार्य रूपमा गर्नुपर्छ । जो मानिस आफ्ना  पूर्वजहरूको सम्पत्ति उपभोग गर्छ तर उनीहरूको श्राद्ध गर्दैन त्यस्ता मानिसले आफ्ना पितृहरूद्वारा अभिशप्त भई अनेकौं प्रकारका शारीरिक एवं मानसिक कष्टको सामना गर्नुपर्ने हुन्छ । उनीहरू जीवनभर शान्त भएर बस्न सक्दैनन् ।
कुनै आमाबाबुको  एकभन्दा धेरै छोरा छन् र उनीहरूबीच धनसम्पत्ति वा अंशबण्डा  भएको छैन भने सबैले संयुक्त रूपमा एकै ठाउँमा जम्मा भएर श्राद्ध गर्नुपर्छ । यस्तो स्थितिमा जेठो छोरोले नै श्राद्ध आदि पितृकर्म गर्नुपर्छ । सबै भाइले अलग-अलग गर्नु हुँदैन ।
अंशबण्डा भएर भिन्दाभिन्दै बसेका भए सबै छोराले अलग-अलग श्राद्ध गर्नुपर्छ । प्रत्येक सनातनधर्मीले आफूअघिका तीन पुस्ता बाबु, हजुरबुबा र बूढो हजुरबुबाको श्राद्ध गर्नैपर्छ । तर्पण दिँदा तथा पितृपक्षको महालय श्राद्धमा बाबुतर्फका तीन पुस्ता बाहेक आमातर्फका तीन पुस्ता अर्थात् मामाघरको हजरबुबा, बूढो हजुरबुबा तथा कुप्रा हजुरबुबाको श्राद्ध गर्नुपर्छ ।
यसका अतिरिक्त आवश्यक परेमा उपाध्याय, गुरु, ससुरा, ठूलोबा, काका, मामा, भाइ, ज्वाइँ, भतीजा, शिष्य, भानिज,  फुपू, सानिमा, ठूल्यामा, पुत्र, मित्र, विमाताका पिता तथा उनका पत्नीको पनि श्राद्ध गर्नुपर्छ भन्ने शास्त्रीय निर्देश पाइन्छ  ।
यी सबै दिवंगत व्यक्तिहरूको श्राद्ध उनीहरूको पुण्यतिथि अर्थात् मृत्यु भएको तिथि पारेर हरेक वर्ष श्राद्ध गर्नुपर्छ । पितृपक्षको महालय श्राद्ध भने सामान्यत बाबुको तिथि पारेर गर्ने चलन छ । बाबुको नभए हजुरबाबुको तिथि पारेर गर्न पनि सकिन्छ । महालय श्राद्ध मध्यन्ह अर्थात् साढें  बार्‍हदेखि एक बजेसम्ममा सुरु गर्नुपर्छ । तिथि थाहा नभए सर्व पितृ अमावस्याका दिन श्राद्ध गर्न सकिन्छ ।
कुन तिथिमा कस्ता पितृको श्राद्ध ?
-जसको मृत्यु सामान्य एवं स्वाभाविक चतुर्दशी तिथिमा भएको छ, उनीहरूको श्राद्ध चतुर्दशी तिथिमा  कदापि गर्नुहुँदैन, बरु पितृपक्षको त्रयोदशी अथवा अमावस्याका दिन गर्नुपर्छ ।
-जसको अपमृत्यु अर्थात् कुनै दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्त्रप्रहा���, हत्या, आत्महत्या वा अन्य कुनै तरिकाको अस्वाभाविक मृत्यु भएको छ उनीहरूको श्राद्ध मृत्यु तिथिका दिन कदापि गर्नु हुँदैन । त्यसरी अपमृत्यु हुनेहरूको श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथिका दिन गर्नुपर्छ ।
-सौभाग्यवती महिला अर्थात् पति जीवित छँदै मरेका महिलाको श्राद्ध पनि केवल पितृपक्षको नवमी तिथिमा  गर्नु भन्ने विधान छ ।
-संन्यासीहरूको श्राद्ध केवल पितृपक्षको द्वादशीमै गर्नुपर्छ ।
-मामाघरको हजुरबा तथा हजुरआमाको श्राद्ध केवल अश्विन शुक्ल प्रतिपदामै गर्नुपर्छ ।
-स्वाभाविक रूपले वा कालगतिले मरेकाहरूको श्राद्ध भाऽपद शुक्ल पूणिर्मा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्याका दिन गर्नुपर्छ ।
श्राद्ध गर्ने सही समय कुतप काल
पितृ पक्षका १६ दिन पितृ स्मरणको दिन हुन् । तसर्थ यी १६ दिन नै पितृगणको तृप्तिका लागि तर्पण, दान, ब्राहृमण भोजन इत्यादि गराइन्छ । हुन त श्राद्ध एवं तर्पण दैनिक रूपले पनि गर्न सकिन्छ तर यी १६ दिनमा गरेका श्राद्धको फल अनन्त गुना प्राप्त हुन्छ भने पितृगण सन्तुष्ट भिएर आशिष समेत प्रदान गर्छन् । यी दिनमा पनि कुतपकालमा गरिएको श्राद्ध कर्म विशेष फलदायी हुन्छ ।
श्राद्ध पक्षका १६ दिन नै कुतप बेला पर्खेर श्राद्ध संपन्न गर्नु राम्रो हुन्छ । दिनको आठौँ मुहूर्तलाई कुतप काल भनिन्छ । अपरान्ह ११ः३६ देखि १२ः२४ सम्मको समय श्राद्ध कर्म गर्नु विशेष शुभदायी हुन्छ । यो समयलाई कुतप काल भनिन्छ ।
गजच्छाया योग पनि अति उत्तम
शास्त्रहरूमा गजच्छाया योगमा श्राद्ध कर्म गर्दा अनन्त गुना फल प्राप्त हुने कुरा बताइएको छ । गजच्छाया योग धेरै वर्षमा एकपटक पर्छ, यो योगमा गरिएको श्राद्धको फल अक्षय हुने बताइएको छ । सूर्य हस्ता नक्षत्रमा छ र त्रयोदशीका दिन मघा नक्षत्र छ भने गजच्छाया योग निर्माण हुन्छ । यस्तो योग महालय -श्राद्धपक्ष) का दि नबनेमा अत्यन्त शुभ मानिन्छ ।
श्राद्ध विषयक केही कुरा 
श्राद्ध कर्मको शास्त्रीय विधि जानकारी छैन वा त्यसरी गर्ने सामथ्र्य छैन भने केही सरल विधि छन् तिनको  पालन गर्नुपर्छ ः-बिहान उठेर स्नान गरी देव स्थान वा पितृ स्थानमा गाईको गोबरले लिपेर , गंगाजल छर्केर पवित्र पार्ने ।
-महिलाहरूले शुद्ध भएर पितृका लागि भोजन बनाउने ।
-श्राद्ध गराउन योग्य वा श्रेष्ठ ब्राहृमण, ज्वाइँ, भान्जा आदिलाई निम्ता गर्ने ।
-पितृका निमित्त अग्निमा गाईको दूध, दही, घिउ एवं खीर अर्पित गर्ने ।
-गाई, कुकुर, काग एवं अतिथिका लागि चार गाँस भोजन छुट्याउने ।
-ब्राहृमणलाई आदरपूर्वक भोजन, वस्त्र, दक्षिणा आदिले सम्मान गर्ने।
-घरमा गरिएको श्राद्धको पुण्य तीर्थस्थलमा गरिएको श्राद्धभन्दा आठ गुना अधिक फलदायी हुन्छ ।
-आर्थिक कारण या अन्य कारणले ठूलो श्राद्ध गर्न सकिँदैन तर पितृको शान्तिका लागि केहीँ गर्ने इच्छा दृढ छ भने पूर्ण श्रद्धा भावले  आफ्नो  सामर्थ्य अनुसार उपलब्ध अन्न, सागपात, फलफूल तथा जति सकिन्छ त्यति दक्षिणा आदर भावले कुनै ब्राहृमणलाई दिने ।
-परिस्थितिवश यति पनि गर्न नसके  ७, ८ मुरी  तिल, जलसहित कुनै योग्य ब्राहृमणलाई दान दिने । यसबाट पनि श्राद्धको पुण्य प्राप्त हुन्छ ।
-यति पनि गर्न नसके गाईलाई भरपेट घाँस खुवाउने, पितृ प्रसन्न हुन्छन् ।
-माथि उल्लेखित कुनै पनि कार्य गर्न सम्भव ��भए कुनै एकान्त स्थानमा गएर मध्याहृन समयमा सूर्यतर्फ फर्केर दुवै हात उठाएर आफ्ना पूर्वज तथा सूर्य देवको प्रार्थना गर्ने ।
-प्रार्थना गर्दा ‘हे प्रभु ! मैले तपाईंका सामु आफ्ना दुवै हात फैलाइदिएको छु, म आफ्ना पितृहरूको मुक्तिका लागि तपाईंसँग प्रार्थना गर्छु, मेरा पितृहरू मेरो श्रद्धा भक्तिबाट सन्तुष्ट होऊन्’ भन्ने । यति गरे पितृ ऋणबाट मुक्ति पाइन्छ ।
-जसले श्रद्धापूर्वक श्राद्ध गर्छ, उसको बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, धारणाशक्ति, पुत्रपौत्रादि एवं ऐश्वर्यको  वृद्धि हुन्छ । आनन्दपूर्वक सांसारिक सुखभोग गर्न पाउँछ ।
जीवनसँग श्राद्घको सम्बन्ध
श्राद्धका विषयमा शास्त्रकारहरूले पाण्डित्य र मनोविज्ञानको सविस्तार वर्णन गरेका छन् । उनीहरूले यसको विषयमा चित्तबुझ्दो मान्यता अघि सारेका छन् । जब घरमा कुनै समृद्धि सूचक वस्तु आउँछ वा मांगलिक उत्सव हुन्छ त्यतिबेला आप\mना स्वर्गीय मानिसहरूलाई याद गरिन्छ । किनभने उनीहरू कुनै समय हाम्रा सुखदुःखमा सम्मिलत हुन्थे, उनीहरूको स्मृति कहिल्यै मेटिँदैन ।
तसर्थ अज्ञात लोकवासी पितृहरू पनि हाम्रा आनन्दोत्सवमा सम्मिलित होऊन्, शरीरले सम्भव नभए पनि आत्माले हामीसँग रहून्  भनेर उनीहरूप्रति श्रद्धावनत हुनु स्वाभाविक हो । यसरी पितृहरूलाई शास्त्रीय मन्त्रहरूद्वारा मानसिक आवाहन एवं पूजन गर्नु नै श्राद्ध हो, उनीहरूप्रतिको श्रद्धा एवं समर्पण भाव हो । मनको भावना प्रबल हुन्छ भन्ने सत्यलाई इन्कार गर्न सकिँदैन । श्रद्धाभिभूत मनका अगाडि स्वर्गीय आत्मा सजीव एवं साकार भएर उपस्थित हुन्छन् ।
श्राद्धमा मातापिता एवं अन्य पितृका रूपको ध्यान गर्नु आवश्यक कर्तव्य बताइएको छ । यसरी आफ्ना  पितृहरूसँग भावनात्मक निकटता गाँस्ने मनोविज्ञान श्राद्धसँग जोडिएको छ ।
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mohnish15 · 7 years ago
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शनि मृत्युंजय स्तोत्र
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किसी प्राणी का अमर होना तो असंभव है, किंतु मृत्युंजय स्तोत्र में किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु, अपमृत्यु पर विजय प्रधान करने की एक अलौकिक क्षमता मौजूद है। शारीरिक, मानसिक कष्टों के शमन का सर्वाधिकार प्राप���त कारक शनिदेव हैं। भक्तों के कल्याणार्थ मातेश्वरी पार्वती के आग्रह पर आशुतोष शिव जी ने इस स्तोत्र को सुनाया और कहा कि, इस शनि मृत्युंजय स्तोत्र के श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नियमानुसार पाठ करने से अनुष्ठान कर्ता शनिदेव का कृपा पात्र बनकर सभी आधि-व्याधियों से मुक्त हो जाता है। ‘मृ त्युंजय’ शब्द का सामान्य अर्थ मृत्यु पर विजय प्राप्त करना होता है। किसी प्राणी का अमर होना तो असंभव है, किंतु मृत्युंजय स्तोत्र में किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु, अपमृत्यु पर विजय प्रधान करने की एक अलौकिक क्षमता मौजूद है। शारीरिक, मानसिक कष्टों के शमन का सर्वाधिकार प्राप्त कारक शनिदेव हैं। भक्तों के कल्याणार्थ मातेश्वरी पार्वती के आग्रह पर आशुतोष शिव जी ने इस स्तोत्र को सुनाया और कहा कि, इस शनि मृत्युंजय स्तोत्र के श्रद्धा-भक्ति पूर्वक नियमानुसार पाठ करने से अनुष्ठान कर्ता शनिदेव का कृपा पात्र बनकर सभी आधि-व्याधियों से मुक्त हो जाता है। वह सुख सम्पति, सन्तान सुख प्राप्त कर अकाल व अपमृत्यु से निर्भय रहता हुआ निष्पाप हो जाता है। अन्त में वह शनिदेव की कृपा से मोक्ष मार्ग का अनुगामी बन जाता है। आशा है, पीडि��त व्यक्ति इससे लाभ उठाने का सत्प्रयास करेंगे। ú महाकाल शनैश्चराय नम: नीलाद्रि शोभाञ्चित दिव्य मूर्ति: खड्गी त्रिदण्डी शरचाप  हस्त:। शम्भूर्महाकाल   शनि  पुरारिर्जयत्यशेषासुर  नाशकारी ।।१।। नीले पर्वत जैसी शोभा वाले दिव्य मूर्ति, खड्गधरी, त्रिदंडी, धनुषवाण वाले साक्षात शम्भु, महाकाल, शनि, पुरारी अशेष तथा समस्त असुरों का नाश करने वाले वे देव (शिव) सद विजयी होते हैं। मेरुपृष्ठे समासीनं सामरस्ये स्थितं शिवम्। प्रणम्य शिरसा गौरी पृच्छतिस्म जगद्धितम् ।।२।। सुमेर पर्वत के पृष्ठ में समासीन सामरस्य में स्थित जगत का हित करने वाले भगवान शिव को सिर झुकाकर प्रणाम करती हुई माता पार्वती ने पूछा। पार्वत्युवाच भगवन! देवदेवेश! भक्तानुग्रहकारक! अल्पमृत्युविनाशाय यत्त्वया पूर्व सूचितम् ।।३।। तदेव त्वं महाबाहो ! लोकानां हितकारकम्। तव मूर्ति प्रभेदस्य महाकालस्य साम्प्रतम् ।।४।। पार्वती ने कहा - हे भगवन्! देवाधिदेव! भक्तों पर अनुग्रह करने वाले! अल्प मृत्यु के शमन के लिए आपने जो पहले सूचित किया है, हे महाबाहो! वही लोकहित का कारक है। महाकाल की मूर्ति भेद ही प्रेरक है। शनेर्मृत्र्युञ्ञय-स्तोत्रं बू्रहि मे नेत्रजन्मन:। अकाल मृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम्।।५।। हे त्रिनेत्र! मुझे नेत्र से उत्पन्न शनि का मृत्युंजय स्तोत्र सुनाएं जो अकाल मृत्यु का हरण करता है तथा अपमृत्यु का निवारण करता है। शनिमन्त्रप्रभेदा ये तैर्युक्तं यत्स्तवं शुभम्। प्रतिनाम चतुथ्र्यन्तं नमोऽस्तु मनुनायुतम्।।६।। शनि के मन्त्रों के जो भेद हैं, उनसे युक्त जो स्तव है, उस शुभदयक प्रत्येक (मनुयुक्त) नाम को चतुर्थी पर्यन्त मेरा नमस्कार है। श्रीश्वर उवाच नित्ये प्रियतमे गौरि सर्वलोकोपकारकम्। गुह्याद्गुह्यतमं दिव्यं सर्वलोकहितेरते।।७।। श्री महेश्वर बोले - समस्त लोक के कल्याण में परायण रहने वाली हे प्रिये! गौरि! यह शनि मृत्युंजय स्तोत्र अत्यधिक दिव्य और सब जनों का उपकार करने वाला है। शनि मृत्युञ्ञयस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तवाऽधुना। सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वशत्रु विमर्दनम्।।८।। मैं तुमसे शनि मृत्युंजय स्तोत्र को अब कहता हूँ। वह स्तोत्र  सब मंगलों को करने वाला और सब शत्रुओं का दमन करने वाला है। सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम्। शरीरारोग्यकरणमायुर्वृद्धिकरं नृणाम्।।९।। यह स्तोत्र सब मनुष्य���ं के रोगों का शमन करने वाला, आपत्तियों का निवारण करने वाला, शरीर को आरोग्य देने वाला और आयुवृृद्धि करने वाला है। यदि भक्तासि मे गौरी गोपनीयं प्रयत्नत:। गोपितं सर्वतन्त्रेषु तच्छृणुष्व महेश्वरी।।१०।। हे गौरि! यदि मेरी भक्त हो तो हे शिवे ! सब तन्त्रों में गुप्त और प्रयत्न पूर्वक गोपनीय रखे जाने वाले उस स्तोत्र को सुनो। विनियोग: ú अस्य श्रीमहाकालशनिमृत्युञ्ञयस्तोत्रमन्त्रस्य पिप्पलादऋषिरनुष्टुप् छन्दे महाकालशनिर्देवता श: बीजमायसी शक्ति कालपुरुषायेति कीलकं ममाकालाय मृत्युनिवारणार्थे पाठे विनियोग:।।     ‘‘ú अस्य............... पाठे विनियोग’ मंत्र से दायें हाथ में जल लेकर उक्त मन्त्र पढक़र जल नीचे छोड़ें। ‘ऋषिन्यासं करन्यासं देहन्यासं समाचरेत्। महोगं मूधिर्न विन्यस्य मुखे वैवस्वतं न्यसेत् ।।११।। तब ‘षिन्यास, करन्यास, देहन्यास की क्रियायें करें। सिर पर महो’ का न्यास करके मुख में वैवस्वत का न्यास करें। हृदि न्यसेत्तमहाकालं गुह्ये कृशतनुं न्यसेत्। जान्वोस्तूडुचरं न्यस्य पादयोस्तु शनैश्चरम् ।।१२।। हृदय में महाकाल का न्यास करें, गुह्य इन्द्रिय में कृशतनु का न्यास करें। जाँघों में नक्षत्रचारी और पैरों में शनैश्चर का न्यास करना चाहिये। गले तु विन्यसेन्मन्दं बाह्वोर्महाग्रहं न्यसेत्। एवं न्यासविधिं कृत्वा पश्चात कालात्मन: शने: ।।१३।। गले में मन्द का विन्यास करें व भुजाओं में महाग्रह का न्यास करें। इस प्रकार न्यास विधि सम्पन्न करने के बाद में कालात्मा शनि का (ध्यान करें)। न्यास ध्यानं प्रवक्ष्यामि तनौ ध्यात्वा महेश्वरम्। कल्पादियुगभेदांश्च कराङ्गन्यासरूपिण: ।।१४।। शरीर में (हृदय में) महेश्वर का ध्यान कर न्यासध्यान को बताता हूं। करांगन्यास रूप से उसके भी कल्पादि के अनुसार भेद हैं। कालात्मनो न्येसद् गात्रे मृत्युञ्ञय! नमोऽस्तु ते। मन्वन्तराणि सर्वांगे महाकालस्वरूपिण:।।१५।। मृत्युंजय नाम से नमस्कार करते हुए कालात्मा शनि का शरीर में ध्यान करना चाहिए। वह महाकाल रूपी शनि सब मन्वंतरों में व्याप्त सर्वांग में न्यास करें। भावयेत्प्रीति प्रत्यंङ्गे महाकालाय ते नम:। भावयेत्प्रभवाद्याब्दान् शीर्षे कालजिते नम:।।१६।। अत: महाकाल शनि की ही प्रीतिपूर्वक प्रत्येक अंग में भावना करनी चाहिए तथा प्रभवादि वर्षों की भावना शिर में करता हुआ उन कालजित को नमन करें। नमस्ते नित्यसेव्याय विन्यसेदयने भ्रुवो:। सौरये च नमस्तेतु गण्डस्थलयोर्विन्यसेत् ।।१७।। भ्रुवों में नित्यसेवनीय देव रूप उन देव को नमस्कार है, इस प्रकार न्यास करें। हे सौरि! आपको नमस्कार है, इस प्रकार गन्डस्थलों (कपोलों) में न्यास करें। नमो वै दुर्निशच्र्याय चाश्विनं विन्यसेन्मुखे। नमो नील��यूखाय ग्रीवायां कार्तिकं न्यसेत् ।।१८।। क्रूर स्वामी रूपी (शनि) को नमस्कार है - इस प्रकार मुख में आश्विन का न्यास करें। नीले किरणों वाले आपको नमस्कार है - इस प्रकार ग्रीवा (कण्ठ) में कार्तिक का विन्यास करना चाहिए। मार्गशीर्ष न्यसेद्बाह्वोर्महारौद्राय ते मन:। उध्र्वलोकनिवासाय पौषं तु हृदये न्यसेत् ।।१९।। हे महारौद्र, आपको नमस्कार है - इस प्रकार भुजाओं में मार्गशीर्ष का विन्यास करें। उध्र्वलोकवासी (आपको नमस्कार है) - इस प्रकार हृदय में पौष को धारण करें। नम: कालप्रबोधाय माघं वै चोदरेन्यसेत्। मन्दगाय नमो मेढ्रे न्यसेद्वै फाल्गुनं तथा ।।२०।। ‘श्री कालबोधय नम:’ कहकर उदर में माघ को न्यास करें। ‘श्री मन्दगाय नम:’ कहकर लिंग में फाल्गुन का विन्यास करें। ऊर्वोन्र्यसेगौत्रमासं नम: शिवोऋताय च। वैशाखं विन्यसेज्जान्वोर्नम: संवत्र्तकाय च ।।२१।। ‘ú शिवोऋताय नम:’ मन्त्र से जंघाओं के ऊपरी भाग में चैत्रमास का न्यास करें। ‘संवर्तकाय नम:’ मन्त्र से वैशाख का घुटनों में विन्यास करना चाहिए। जंघयोभावयेज्ज्येष्ठं भैरवाय नमस्तथा। आषाढ़ं पाद्योश्चैव शनये च नमस्तथा ।।२२।। ‘भैरवाय नम:’ मं��्र से जाँघों में ज्येष्ठ का न्यास करें तथा ‘शनये नम:’ से पैरों में आषाढ़ का न्यास करना चाहिये। कृष्णपक्षं च क्रूराय नम: आपादमस्तके। न्यसेदाशीर्ष पादान्ते शुक्लपक्षं ग्रहाय च ।।२३।। ‘क्रूराय नम:’ मंत्र से पैरों से लेकर मस्तक में कृष्ण पक्ष और ‘ग्रहाय नम:’ से मस्तक से लेकर पैरो तक शुक्ल पक्ष का न्यास करें। न्यसेन्मूलं पादयोश्च ग्रहाय शनये नम:। नम: सर्वजिते चैव तोयं सर्वाङ्गुलौ न्यसेत् ।।२४।। पुन: ‘शनये नम:’ से पैरों में मूल का न्यास करें तथा ‘सर्वजिते नम:’ मन्त्र से अँगुलियों में जल का न्यास करना चाहिए। न्यसेद्गुल्फद्वये विश्वं नम: शुष्कतराय च। विष्णुं भावयेज्जंघोभये शिष्टतमाय ते ।।२५।। ‘शुष्कतराय नम:’ द्वारा दोनों गुल्फों में सम्पूर्ण विश्व का न्यास तथा पुन: दोनों जंघाओं में अत्यन्तशिष्ट विष्णु की भावना करें। जानुद्वये धनिष्ठां च न्यसेत् कृष्णारूचे नम:। पूर्वभाद्रपदां चैव करालाय नमस्तथा ।।२६।। उसी प्रकार पुन: दोनों घुटनों में ‘कृष्णारुचे नम:’ मन्त्र से धनिष्ठा का न्यास करना चाहिये तथा ‘करालाय नम:’ मन्त्र द्वारा पूर्वा भाद्रपद का न्यास करना चाहिये। उरूद्वये वारूणंच न्यसेत्कालभृते नम:। पृष्ठेउत्तरभाद्रपदां च करालाय नमस्तथा ।।२७।। फिर देनों जांघों के ऊपर भाग में ‘कालभृते नम:’ मंत्र से शतभिषा का न्यास करना चाहिए और ‘करालाय नम:’ मंत्र से पीठ पर उत्तर भाद्रपद का न्यास करना चाहिए। रेवतीं च न्यसेन्नाभौ नमो मन्दचराय च। गर्भदेशे न्येसेन्नाभो नमो श्यामतराय च ।।२८।। ‘मन्दचराय नम:’ से रेवती का नाभि में न्यास तथा ‘श्यामतराय नम:’ मन्त्र से गर्भ देश (स्थान) में अश्विनी का न्यास करें।।२८।। नमो भोगिस्रजे नित्यं यमं स्तनयुगे न्यसेत्। न्यसेत्कृतिका हृदये नमस्तैल प्रियाय च ।।२९।। ‘भोगिस्रजे नम:’ - इस मन्त्र से स्तनद्वय में यम (भरणी) को तथा हृदय में ‘तैलप्रियाय नम:’ से कृतिका का विन्यास करें। रोहिणीं भावयेद्धस्ते नमस्ते खड्गधारिणे। ��ृगं न्यसेद्वामहस्ते त्रिदण्डोल्लासिताय च ।।३०।। ‘खड्गधारिणे नम:’ से हाथ में रोहिणी की तथा ‘त्रिदण्डोल्लासिताय नम:’ मन्त्र से वामहस्त में मृगशिरा (मृग) की धारणा करें। दक्षोद्ध्र्व े भावयेद्रार्दं नमो वै बाणधारिणे। पुनर्वसुमूधर्ववामे नमो वै बाणधारिणे ।।३१।। पुन: ‘बाणधारिणे नम:’ मन्त्र से दक्षिण स्कन्ध पर आद्र्रा नक्षत्र की धारणा तथा इसी से पुन: पुनर्वसु की धरणा करनी चाहिए। पुष्यं चं न्यसेद्वाहौ नमस्ते हर मन्यवे। सार्पं न्यसेद्वामबाहौ चोग्रचापाय ते नम: ।।३२।। ‘हर मन्यवे नम:’ कहकर बाहु में पुष्य की धरणा करें तथा वाम बाहु में आश्लेषा (सार्पं) का ‘उग्रचापाय नम:’ से न्यास करें। मघां विभावयेत्कण्ठे नमस्ते भस्मधारिणे। मुखे न्यसेद्भगर्चं नम: क्रूरग्रहाय च ।।३३।। कण्ठ में ‘भस्मधरिणें नम:’ से मघा नक्षत्र की भावना करें तथा मुख में ‘क्रूरग्रहाय नम:’ से भगर्च (पूर्वाफाल्गुनी) का न्यास करें। भावयेद्दक्षनासायामर्यमाणश्व योगिने। भावयेद्वामनासायां हस्तज्ञ धारिणे नम: ।।३४।। ‘योगिने नम:’ से दक्षिण नासिका में उत्तराफाल्गुनी का न्यास करें तथा वाम नासिका में ‘धारिणे नम:’ मन्त्र से हस्त नक्षत्र का न्यास करें। त्वाष्ट्रं न्यसेद्दक्षकर्णे नमो ब्रह्मणाय ते। विशाखां च दक्षनेत्रे नमस्ते ज्ञानदृष्टये ।।३५।। ‘ब्रह्मणाय नम:’ मंत्र से चित्रा का दक्षकर्ण में न्यास करें तथा दक्षनेत्र में ‘ज्ञान दृष्टये नम:’ मन्त्र से विशाखा का न्यास करना चाहिये। विष्कुम्भं भावयेच्छीर्षसन्धौ कालाय ते नम:। प्रीतियोगं भ्रुवो: सन्धौ महामन्द ! नमोस्तुते ।।३६।। ‘कालाय नम:’ मंत्र से शीर्ष सन्धि में विष्कुंभ का न्यास और भ्रुवों की संधि में प्रीतियो’ का ‘महामन्दय नम:’ से न्यास करें। नेत्रयो: सन्धावायुष्मानयोगं भीष्माय ते नम:। सौभाग्यं भावयेन्नासासन्धौ फलाशनाय च ।।३७।। नेत्रों की संधि में ‘भीष्माय नम:’ मंत्र से आयुष्मान् योग की तथा ‘फलाशनाय नम:’ से नासिका की संधि में सौभाग्य की धारणा करें। शोभनं भावयेत्कर्णो सन्धौ पुण्यात्मने नम:। नम: कृष्णायातिगण्डं हनुसन्धौ विभावयेत् ।।३८।। कर्ण सन्धि में शोभन का ‘पुण्यात्मने नम:’ मन्त्र से भावना करें और ठोडी की संधि में ‘ú कृष्णाय नम:’ से अतिगण्ड योग की धारणा करें। नमो निर्मांसदेहाय सुकर्माणं शिरोधिरे। धृतिं न्यसेद्वातौ पृष्ठे छायासुताय च ।।३९।। ‘निर्मांस देहाय नम:’ मन्त्र से सुकर्म यो’ की सिर में धारणा करें और ‘छायासुताय नम:’ मन्त्र से दोनों पीठ भागों में धृति का न्यास करना चािहये। तन्मूलसन्धौ शूलं च न्यसेद्दग्राय ते नम:। तत्कूर्प:न्यसेद्गण्डं नित्याननाय ते नम: ।।४०।। ‘ú अग्राय नम:’ से मूल सन्धि में शूल योग का न्यास करें तथा भौंहों के बीच वाले स्थान में ‘नित्याननाय नम:’ मन्त्र से गण्ड योग का न्यास करना चाहिये। हर्षण तन्मूलसन्धौ भूतसन्तापिने नम:। तत्कूर्पर न्यसेद्वज्र: सानन्दय नमोस्तुते ।।४१।। ‘भूत सन्तापिने नम:’ मंत्र से मूलसन्धि में ही हर्षण योग का तथा ‘आनन्दय नम:’ से कुहनियों में वज्र योग का न्यास करें। सिद्धिं तन्मणिबन्धे च न्यसेत् कालाग्नये नम:। व्यतिपातं कराग्रेषु न्यसेत्कालकृते नम: ।।४२।। ‘कालाग्नये नम:’ कहकर मणिबन्ध में सिद्धि योग तथा कराग्र में व्यतिपात योग की ‘कालकृते नम:’ से भावना करें। वरीया��सं दक्षपाश्र्वसन्धौ कालात्मने नम:। परिघं भावयेद्वामपाश्र्वसन्धौ नमोस्तु ते ।।४३।। ‘कालात्मने नम:’ मन्त्र से दक्षपाश्र्व सन्धि स्थान में वरीयान् योग की तथा वामपाश्र्वसन्धि में उसी मन्त्र से परिघ योग का न्यास करें। न्यसेद्दक्षोरसन्धौ च शिवं वै कालसाक्षिणे। तज्जानौ भावयेत्सिद्धिं महादेहाय ते नम: ।।४४।। आंखों की संधि में शिव योग को ‘कालसाक्षिणे नम:’ म़न्त्र से तथा ‘महादेहाय नम:’ से घुटनों में सिद्धि योग की भावना करें। साध्यं न्यसेच्च तद्गुल्फसन्धौ घोराय ते नम:। न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ शुभं रौद्राय ते नम: ।।४५।। गुल्फ सन्धि में ‘घोराय नम:’ से साध्य की तथा अँगुलियों की सन्धि में शुभ योग की ‘रौद्राय नम:’ मंत्र से धारणा करें। न्यसेद्वामोरुसन्धौ च शुक्लकालविदे नम:। ब्रह्मयोगं च तज्जानौ न्यसेत्सुयोगिने नम: ।।४६।। बायीं जांघ के जोड़ों में शुक्ल योग की ‘कालविदे नम:’ मन्त्र से तथा घुटनों में ‘सुयोगिने नम:’ मंत्र से ब्रह्म योग की धारणा करें। ऐन्द्रं तदगुल्फसन्धौ च योगाधीशाय ते नम:। न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ नमो: भव्याय वैधृतिम् ।।४७।। उसी प्रकार गुल्फ सन्धि में ‘योगाधीशाय नम:’ मन्त्र से ऐन्द्र योग की तथा अंगुलियों की संन्धि में ही वैधृति का ‘भव्याय नम:’ मन्त्र से न्यास करें। चर्मणे बवकरणं च भावयेद्यज्वते नम:। वालवं भावयेद्रकते नाभौ भव्याय वैधृति ।।४८।। गयज्वते नम:’ मन्त्र से चर्म में बव करण की भावना करें तथा ‘भव्याय नम:’ से रक्त में वालव योग और नाभि में वैधृति योग की धरणा करें। कौलवं भावयेदस्थिन नमस्ते सर्वभक्षिणे। तैतिलं भावयेन्मांसे आममांसिप्रियाय ते ।।४९।। ‘सर्वभक्षिणे नम:’ से अस्थियों में कौलव की धारणा करें। मांस में तैतिल की ‘आममांसिप्रियाय नम:’ से भावना करें। गर न्यसेद्वसायं च सर्वग्रासाय ते नम:। न्यसेद्वणिकू मज्जायां सर्वान्तक! नमोस्तुते ।।५०।। वसा में गर करण की ‘सर्वग्रासाय नम:’ से धारणा करें तथा मज्जा में वणिक् करण की ‘सर्वान्तकाय नम:’ मन्त्र से भावना करेेें। वीर्येभावयेद्विष्टि नमो मन्यूग्रतेजसे। रूद्रमित्रं पितृवसुवारीयैतांश्च पञ्च च ।।५१।। वीर्य में ‘मन्यूग्रतेजसे नम:’ मन्त्र से विष्टि योग की और रुद्र, सूर्य, पितर, वसु, और वारि इन पाँचों की भी भावना करनी चाहिये। मुहूर्ताश्च दक्षपादनखेषु भावयेन्नम:। पुरूहूताँश्च वामपादनखेषु भावयेन्नम:।।५२।। दक्षिण चरण नखों में मुहूर्तों की भावना करें तथा वाम चरण नखों में पुरुहूतों (देवों) की धारणा करें। सत्यव्रताय सत्याय नित्यसत्याय ते नम:। सिद्धेश्वर! नमस्तुभ्यं योगेश्वर ! नमोस्तुते ।।५३।। सत्यव्रत, सत्यस्वरूप, नित्यशाश्वत आपको नमस्कार है। हे सिद्धेश्वर! आपको नमस्कार है। हे योगेश! बार-बार नमस्कार है। वाह्निनक्तं चरांश्चैव वरुणोयमयोनिकान्। मूहुर्तांश्च दक्षहस्तनखेषु भावयेन्नम: ।।५४।। वह्निरूपचरों वायु, वरुण, यम तत्वों और काल की दक्षिण हाथ के नखों में भावना करनी चािहये। लग्नोदयाय दीर्घाय मार्गिणे दक्षदृष्टये। वक्राय चातिक्रूराय  नमस्ते वामदृष्टये ।।५५।। लग्नोदय, दीर्घ, मार्गी, दक्षदृष्टि, वक्र, अतिक्रूर, वामदृष्टि (आदि नामों से प्रसिद्ध) देव शनि को प्रणाम है। वामहस्तनखेष्वन्त: वर्णेशाय नमोऽस्तुते। गिरिशाहिर्बुधन्यप��षा पाद्दस्रांश्च भावयेत् ।।५६।। वामहस्त, नखेश, अन्त:वर्ण, ईश आपको प्रणाम है। गिरीश, अहिर्बुध्न्य, पूषा और अश्विनी के चरण की जप पूर्वक भावना करनी चाहिये। राशिभोक्ते राशिगाय राशिभ्रमणकारिणे। राशिनाथाय राशीनां फलदात्रे नमोस्तुते ।।५७।। राशिभुक्त, राशिग, राशिभ्रमणकारी और राशियों के नाथ और राशिफल दाता नामों वाले आपको नमस्कार है। यमाग्निचन्द्रादितिकविधतृश्च विभावयेत्। ऊध्र्वहस्तदक्षनखेष्वन्यत्कालाय ते नम: ।।५८।। यम, अग्नि, चन्द्र, अदिति, कवि, धाता आदि की उध्र्व हस्त, दक्षिण नखों में ‘अन्यत् कालाय नम:’ मन्त्र से भी धारणा करनी चाहिये। तुलोच्चस्थाय सौम्याय नक्रकुम्भगृहाय च। समीरत्वष्ट्जीवांश विष्णु तिग्म धुतोन्यसेत् ।।५९।। तुला में उच्चस्थ और मकर-कुंभ राशियों में सौम्य रहने वाले समीर रूप, अष्ट जीवांश, विष्णु, तिर्यक् और उन्मत्त की भावना करनी चाहिये। ऊध्र्ववामहस्तेष्वन्यग्रह निवारिणे। तुष्टाय च वरिष्ठाय नमो राहुसखाय च ।।६०।। उध्र्व वाम हस्त में अन्य ग्रहों का स्वरूप निवारण करने वाले हेतु राहु के सखा, संतुष्ट, वरिष्ठ आपको नमस्कार है - मंत्र से नमन करें। रविवारं ललाटे च न्यसेद्भीमदृशे नम:। सोमवारं न्यसेच्छान्ते नमो जीवस्वरूपिणे ।।६१।। ललाट में ‘भीमदृशे नम:’ मंत्र से रविवार को और सोमवार में ‘जीवस्वरूपिणे शान्ति नम:’ मन्त्र से न्यास करें। भौमवारं गुरु न्यसेत्साच्छान्ते नमो मृतप्रियाय च। मैदे न्यसेत्सौम्यवारं नमो जीवस्वरूपिणे ।।६२।। भौमवार और महान शान्त रूप ‘मृतप्रियाय नम:’ मन्त्र से न्यास करना चाहिये तथा बुधवार को मेदा में स्थिति ‘जीवस्वरूपिणे नम:’ से न्यास करें। वृषणे गुरुवारं च नमो मन्त्रस्वरूपिणे। भृगुवारं मलद्वारे नम: प्रलयकारिणे ।।६३।। गुरुवार को वृषण स्थान में ‘मन्त्रस्वरूपिणे नम:’ से और भृगुवार को मलद्वार में ‘प्रलयकारिणे नम:’ मंत्र से न्यास करें। पादयो शनिवारं च निर्मांसाय नमोस्तुते। घटिकां न्यसेत्केशेषु नमस्ते सूक्ष्मरूपिणे ।।६४।। ‘निर्मांसाय नमो’ से पादें में शनिवार के दिन और  ‘सूक्ष्मरूपिणे नम:’ मन्त्र से केशों में घटिका का न्यास करना चाहिये। कालरूप! नमस्ते तु सर्वपापप्रणाशक। त्रिपुरस्य वधार्थाय शम्भू जाताय ते नम: ।।६५।। हे कालरूप! हे सर्वपापविनाशक! आपको नमस्कार है। त्रिपुर के वध के लिए शम्भू बनने वाले आपको नमस्कार है। नम: कालशरीराय काल पुत्राय ते नम:। कालहेतो! नमस्तुभ्यं कालनन्दाय ते नम: ।।६६।। साक्षात् काल शरीर आपको नमस्कार है। हे काल के हेतुभूत! आपको नमन है। कालपुत्र! आपको नमस्कार है। अखण्डदण्डमानाय त्वनाद्यन्ताय वै नम:। कालदेवाय कालाय कालकालाय ते नम: ।।६७।। हे अखण्डदण्डधारी, आदि-अन्त रूप आपको नमस्कार है। कालदेव, कालों के भी महाकाल आपको नमस्कार है। निमेषादिमहाकल्पकालरूपं च भैरवम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।६८।। जो निमेष, आदिमहाकल्प, कालरूप भैरव हैं, मृत्युंजय, महाकाल और शनैश्चर हैं, मैं प्रणाम करता हूँ। दातारं सर्व भ���्यानां भक्तानामभयकरम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।६९।। सब ऐश्वर्यो के दता, भक्तों के भय को नष्ट करने वाले या अभय करने वाले मत्युंजय, महाकाल, शनैश्चर को मैं प्रणाम करता हूँ। कत्र्तारं सर्वदु:खानां दुष्टानां भयवर्धनम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७०।। दुष्टों के लिए सब दु:खों के कर्ता और भयवर्धन करने वाले मृत्युंजय, महाकाल, शनैश्चर देव को मैं प्रणाम करता हूँ। इत्तरिं ग्रहजातानां फलानामधिकारिणाम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७१।। ग्रह जातकों के पाप फलों के अधिकारी, मृत्युंजय महाकाल, शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। सर्वेषामेव भूतानां सुखदं शान्तिभव्ययम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७२।। सब प्राणियों के लिए सुखदयक, शान्तिदयक भव्य मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। कारणं सुखदु:खानां भावाऽभावस्वरूपिणाम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७३।। भाव अभाव रूपी सुख दुखों के कारण, मृत्युंजय, महाकाल शनैश्चरदेव को मैं नमन करता हूँ। अकालमृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७४।। अकाल मृत्यु का हरण करने वाले, अपमृत्यु का निवारण करने वाले मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। कालरूपेण संसार भक्षयन्त महाग्रहम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्।।७५।। कालरूप से संसार का भक्षण करने वाले महाग्रह मृत्युंजय महाकाल, शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। दुर्निरीक्ष्यं स्थूलरोमं भीषणं दीर्घ लोचनम्। मृत्युंञ्जजय महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्।।७६।। देखने में भयंकर, बहुत लम्बे और मोटे रोम वाले भीषण, दीर्घ लोचन, मृत्युंजय, महाकाल शनिदेव को मैं प्रणाम करता हूॅँ। कालस्य वशभा: सर्वे न काल: कस्यचिद्वश:। तस्मात्त्वां कालपुरुषं प्रणतोऽस्मि शनैश्चरम् ।।७७।। काल के वश में सब जन हैं, काल किसी के वश में नहींं है। ऐसे उन कालपुरुष शनिदेव को मैं नमन करता हूँ। कालादेव जगस्सर्व काल एव विलीयते। कालरूप: स्वयं शम्भु कालात्मा ग्रह देवता ।।७८।। काल से ही सारा जग है और काल में ही विलीन हो जाता है। स्वयं शंकर भी काल रूप हैं। ग्रह देवता सब काल आत्मा हैं। चण्डीशो रूद्रडाकिन्याक्रान्त चण्डीश उच्यते। विद्युदाकलितो नद्यां समारूढ़ो रसाधिप: ।।७९।। चंडीश, रुद्र, डाकिनी से आक्रान्त होने पर चंडीश कहा जाता है। चण्डीश: शुकसंयुक्तो जिह्वया ललित पुन:। क्षतजस्तामसी शोभी स्थिरात्मा विद्युता युत:।।८०।। चंडीश शुक से संयुक्त होकर जिह्वा से सुन्दर हो जाता है। इन चंडीश के क्षतज, तामसी, शोभी, स्थिरात्मा, विद्युत युक्त आदि अनेक नाम हैं। नमोनन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकर: शिवे। आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुने जपेन्नर:।।८१।। हे शिवे, यह शनि सन्तुष्टिकारक है। आदि से अन्त तक एक सौ आठ नाम वाले इन मनु रूप शनि देव का निरन्तर जप करना चाहिये। य: पठेच्छृणुयाद्वापि ध्यात्वा सम्पूज्य भक्तित:। तस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये।।८२।। जो भक्ति पूर्वक ध्यान-पूजा करके इस स्तोत्र को पढ़ता है या सुनता है। हे प्रिये ! उसे यह मृत्युभय सौ वर्ष तक भी नहीं होता है। ज्वरा: सर्वे विनश्यंति दद्रु-विस्फोटकच्छुका। ��िवा सौरि स्मरेत् रात्रौ महाकालं यजन पठेत् ।।८३।। सब ज्वर, दर्द, फोड़े इससे विनष्ट हो जाते हैं। दिन में सौरि शनि का स्मरण करें और रात्रि में महाकाल का पूजन करें। जन्मांगे च यद सौरिर्जपेदेतत्सहस्रकम्। वेधगे वामवेधे वा जपेदद्र्धसहाकम्।।८४।। जब शनि जन्मांग में चलता है तो एक सहा, यदि वेध करता है या वामवेध में है तो आधा सह जप करते रहना चाहिये। द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टेऽपि वा। तत्तद्राशौ भवेद्यावत् पठेत्तावद्दिनावधि।।८५।। द्वितीय व द्वादश भावस्थ होने या मन्द होने पर या तनु (प्रथम) स्थान में या अष्टम भाव में होने पर यह जब तक उन राशियों में रहता है, उस अवधि तक यह पढ़ते रहना चाहिये। चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवमे तथा। गोचरे जन्मलग्नेशो दशास्वान्तर्दशाषु च ।।८६।। गुरूलाघवज्ञानेन पठेत्तावदिनावधि। शतमेकं त्रयं वाच शतयुग्मं कदाचन ।।८७।। चतुर्थ में, दशम में, सप्तम में नवम तथा गोचर में जन्म लग्नेश होने पर या अन्तर्दशा में हो, अधिक, कम ज्ञान से जैसे भी हो, उस अवधि के बीतने तक इस स्तोत्र को यथाशक्ति एक सौ, तीन सौ या दो सौ पाठ करना चाहिये। आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत। महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ।।८८।। पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे। नियमेवैकमत्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ।।८९।। श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम्। परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयांभिधम् ।।९०।। जो इस पाठ का जप करता है उसकी आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। पाप नष्ट हो जाते हैं और जय भी होती है। महाकाल के मन्दिर में सिद्ध पीठ में या जल तीर्थ सरोवर में, पुण्य स्थान में, अश्वत्थ मूल में, घर द्वार पर तेल का घड़ा रखकर गृह में नियम से, एकमन से, ब्रह्मचर्य पूर्वक मौन से साधकों को यह सुखकारक स्तोत्र सुनना और पढऩा चाहिए। परम कल्याणकारी यह स्तोत्र मृत्युंजय सूचक है। कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम्। प्रात:काले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ।।९१।। पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम्। नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ।।९२।। यह समयानुसार कहा गया, न्यासक्रम से समन्वित है। इसे प्रात:काल या सायंकाल पाठ करने से न अग्नि, न जल, न वायु, न देश और न विदेश में ही भय होता है। नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत्। आयुर्��र्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविन ।।९३।। न ही अकाल मरण और न अपमृत्यु ही उनकी होती है। वे जन सौ वर्ष की आयु वाले चिरंजीवी होते हैं। नात: परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत्। शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम् ।।९४।। इसके जैसा अन्य कोई स्तोत्र शनि को प्रसन्न करने वाला नहीं है। यह शान्तिदायक, शीघ्र फलदयक स्तोत्र मैंने कहा है। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छयात्मनो हितम्। कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित् ।।९५।। इस प्रकार सब प्रयत्न से यदि आत्म कल्याण चाहते हो, तो हे महादेवी ! यह किसी अभक्त से कथनीय नहीं है। इति मार्तण्डभैरवतन्त्रे महाकालशनिमृत्युञ्जय स्तोत्रं सम्पूर्णम्।
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hellodkdblog · 6 years ago
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कुण्डली में मारकेश का अध्ययन :-
कुण्डली में मारकेश का अध्ययन :- भाग-1
                                                                                                                              ज्योतिष में फलित करते समय ज्योतिषगण एक शब्द का बहुतायत से प्रयोग करते हैं और वह है मारकेश की दशा।                                                                                                                                   मारकेश ! वह ग्रह जो अपनी दशा-अन्तर्दशा में जातक को मरणतुल्यकष्ट या मृत्यु तक देने की सामर्थ्य अथवा अधिकार रखता हो उसे मारकेश कहा जाता है।                                                                                                                                 " मारकेश की दशा " का यह अभिप्राय कदापि नही की इस अवधि में जातक की मृत्यु निश्चित है। लेकिन यह भी सत्य है कि इस अवधि में जातक अमूलचूल रुप से हिल अवश्य ही जाता है।
                                                                                                                                 ऋषि पाराशर ने जिस प्रकार जातक की आयु को सात प्रकार की अवधि का माना है :-
" बालारिष्ट (8) योगारिष्ट (20) अल्प (32) मध्यंच (64) दीर्घकम (120)।
दिव्यं (अनंत) चैव अमितं (अमरता) चैवं,सप्त आयु प्रकीर्तितम्।।"
                                                                                                                                उसी प्रकार जातक की मृत्यु को भी आठ प्रकार से माना है जो मारकेश के कुप्रभाव से जातक भोग सकता है:-
" व्यथा-दुखं-भयं-लज्जा-रोग-शोक तथैव च । मरणं च अपमानं च मृत्युर्ष्ट विधा स्मृत:।।"
                                                                                                                                 इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है सकती है:-
1-व्यथा :- कोई ऐसी पीड़ा जो आपके हृदय में तो है किन्तु आप उसे व्यक्त नही कर सकते। उदाहरण: किसी परिजन का चरित्रहीन हो जाना।
2-दुखं:- धन,पद अथवा अधिकार खो देना।
3-भयं:- राजदण्ड अथवा गुण्डे- बदमाश का भय।
4-लज्जा:-स्वयं से ही कोई अपकृत्य हो जाने पर अपने ही परिजनों का सामना न कर पाना।
5-रोग:- कोई लम्बी अथवा खर्चीली बीमारी लग जाना।
6-शोक:- अपने किसी प्रियजन की मृत्यु आदि।
7-अपमान:-समाज,कार्यक्षेत्र अथवा परिवार में ही कोई अपमान हो जाना।
8-मरण:- और अन्त में जीवन ही समाप्त हो जाना।                                                                                                                                                                                                       क्रमस:.............
कुण्डली में मारकेश का अध्ययन :- भाग 2.
                                                                                                                                ज्योतिष में ऐसे अनेक विधि हैं जिनके द्वारा जातक की मृत्यु का समय, कारण, स्थान आदि का संकेत लगाया जा सकता है |                                                                                                                                  जातक को उसका प्रारब्ध भोगने के लिए एक दो ग्रहों द्वारा सुख-सोख्य प्रदान करने का और एक दो ग्रहो द्वारा दण्डात्मक कार्यवाही का विशेष उत्तरदायित्व होता है। जिन्हें हम क्रमस: राजयोगी और मारक ग्रह कहते हैं।
                                                                                                                                 लग्नकुंडली के अनुसार " मारक अधिपति " अलग-अलग ग���रह हो सकते हैं। जैस��:- 1-मेष लग्न के लिए शुक्र मारकेश का दायित्व लेते हैं। 2-वृषभ लग्न के लिये मंगल। 3-मिथुन लगन के लिए गुरु। 4-कर्क लग्न के लिए शनि । 5-सिंह लग्न के लिए शनि । 6-कन्या लग्न के लिए गुरु। 7-तुला लग्न के लिए मंगल। 8-वृश्चिक लग्न के लिए शुक्र। 9-धनु लग्न के लिए बुध। 10-मकर लग्न के लिए बृहस्पति। 11-कुंभ लग्न के लिए बृहस्पति। और  12-मीन लग्न के लिए बुध।
                                                                                                                                        सूर्य जगत की "आत्मा" है, चंद्रमा "अमृत कलश" हैं और लग्नेश स्वयं " कालपुरुष " है इसलिए इन तीनों को मारकेश होने का दोष नहीं लगता। जन्मकुंडली में यदि ये तीनों ग्रह बलवान ( एक रुपा बल से अधिक के) हों तो किसी अन्य राजयोग की अतिरिक्त आवश्यकता नही होती। सामान्य बली ( एक रुपा बल के आसपास के) होने पर ये तीनों ग्रह अपनी दशा-अंतर्दशा में जातक की संभावित अशुभता में कमी लाते हैं। एवं बलहीन ( 3/4 रुपा बल के समीप) होने पर ये जातक की कुंडली में उपस्थिति राजयोगों को पुर्णतया भंग कर देते हैं।
                                                                                                                                       ऋषि पाराशर के अनुसार जन्मकुंडली के तृतीय, षष्ठ, एकादश और अष्टम भाव और इनके स्वामीग्रह पाप फलदायक (मारक) होते हैं।
नवग्रहों में स्वभाववश शनि को दुख और मृत्यु का स्वरूप ग्रह माना गया है। इसलिए मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धनु एवं मीन इन आठ लग्नों में शनि को त्रिषडायाधीय या अष्टमेश होने के कारण द्विगुणित पापत्व आ जाता है। इस स्थिति में अन्य किसी बलहीन अथवा लग्नानुसार अशुभ ग्रह से संबंध होने से उसकी मारक शक्ति त्रिगुणित हो कर चरम बिंदु पर पहुंच जाती है।
                                                                                                                                           अब प्रश्न है कि यदि त्रिषडाय एवं अष्टम भाव के स्वामि निज भाव में ही हों तो क्या वे मारक होंगे?  शास्त्रों में केवल यह उत्तर है कि वे शुभत्व देंगे किन्तु यह आदेश नही है कि उनका मारकतत्व समाप्त हो गया। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि वर्तमान कष्ट को भविष्य शुभ या अशुभ कहा जाता है। यहां तक कि मृत्यु भी शुभमृत्यु अथवा अपमृत्यु कही जाती है।
ऋषि पाराशर के अनुसार जन्मकुंडली के त्रिषडाय एवं अष्टम भाव के स्वामियों को स्पष्ट मारक कहा है।इसके अतिरिक्त उनका आदेश है कि केन्द्रीय भावों के स्वामि बन कर नैसर्गिक शुभग्रह अपना शुभत्व नही दे पाते और इसी प्रकार नैसर्गिक क्रूरग्रह अपना पापत्व नही कर पाते पाते। लेकिन केन्द्रापतियों के संबन्ध में यह आदेश नही है कि वे पूर्णतया अशुभ अथवा पूर्णतया शुभफल दाई हो गये है।
                                                                                                                                        अत अब प्रश्न है कि अशुभ भावापति होने के कारण अथवा शुभत्व से हीन होने के कारण ग्रह के लिए कौन सा भाव या स्थान अभिष्ट है कि वह " प्रबल मारक" बन सके।
"भावातभावम्" के सिध्दान्त के अनुसार:- 1-कुण्डली के अष्टम भाव (आयु ) से द्वादस अर्थात आयु का व्यय अर्थात सातवा भाव। 2-अष्टम से अष्टम अर्थात तीसरा भाव। 3-लग्न का व्यय अर्थात बारहवा भाव । 4-अष्टम का व्यय अर्थात सप्तम से अष्टम अर्थात दूसरा भाव।
उपरोक्त चारों भाव अर्थात सातवां, तीसरा, बारहवां और दूसरे भाव में मारक या अकारक ग्रह का निवास करना मारकेश के लिए आदर्श स्थिति है।
                                                                                                                                               उपरोक्त से स्पष्ट है कि:- 1-त्रिषडाय के स्वामि यदि आठवे,बारहवे और दूसरे भावों में आते हैं तो वे परम मारक बन जाते है।
2-केन्द्राधिपति दोष से ग्रसित नैसर्गिक शुभग्रह यदि दूसरे,तीसरे,छठे आठवे और ग्यारहवे भाव में आते हैं तो वे परम मारक बन जाते है।
3-अष्टमेष यदि दूसरे या तीसरे या ग्यारहवे भावों में आते हैं तो वे परम मारक बन जाते है।
4-सप्तमेष यदि दूसरे भाव में आते हैं तो वे परम मारक बन जाते है।
उपरोक्त चर्चा से सपष्ट है कि:- 1-सूर्य और चंद्र और लग्नेष मारक की संज्ञा में नही आते। 2-द्वितियेष एवं द्वादशेष केवल उसी स्थति में मारकेश होंगे जब वे अपनी दूसरी राशि से त्रि-षड-आय या अष्टम भाव के स्वामि भी बने हो।                                                                                                                                                                                                                                       क्रमस:.............
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schaporkar · 7 years ago
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आद्या सिंह अपमृत्यु केस:सुप्रीम कोर्ट हरक़त में। आद्या के पिता की अर्जी पर मांगा जवाब, केंद्र सरकार, मेडिकल काउंसिल एवं हरियाणा सरकार से।
आद्या सिंह अपमृत्यु केस:सुप्रीम कोर्ट हरक़त में। आद्या के पिता की अर्जी पर मांगा जवाब, केंद्र सरकार, मेडिकल काउंसिल एवं हरियाणा सरकार से।
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आद्या सिंह के अपमृत्यु केस में फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ आद्या के पिता की अर्जी पर गंभीरता दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आज केंद्र सरकार, मेडिकल काउंसिल, फोर्टिस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, फोर्टिस अस्पताल गुरुग्राम, National Pharmaceutical Pricing Authority (NPPA), डॉ विकास वर्मा, senior consultant department of paediatrics, FMRI एवं हरियाणा सरकार से पूरे मामले में जवाब तलब किया है।
आद्या सिंह की…
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asthaoradhyatm · 7 years ago
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महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र
महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र
     महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र
विनियोगः– ॐ अस्य श्री महाकाल शनि मृत्युञ्जय स्तोत्र मन्त्रस्य पिप्लाद ऋषिरनुष्टुप्छन्दो महाकाल शनिर्देवता शं बीजं मायसी शक्तिः काल पुरुषायेति कीलकं मम अकाल अपमृत्यु निवारणार्थे पाठे विनियोगः। श्री गणेशाय नमः।
ॐ महाकाल शनि मृत्युञ्जायाय नमः। नीलाद्रीशोभाञ्चितदिव्यमूर्तिः खड्गो त्रिदण्डी शरचापहस्तः। शम्भुर्महाकालशनिः पुरारिर्जयत्यशेषासुरनाश…
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astrovastukosh · 1 year ago
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🔹त्रिकाल संध्या : (भाग -1)🔹*
*त्रिकाल संध्या से होनेवाले लाभों को बताते हुए कहते हैं कि  “त्रिकाल संध्या माने हृदयरूपी घर में तीन बार साफ-सफाई । इससे बहुत फायदा होता है ।*
*🔹त्रिकाल संध्या करने से:–*
*👉 १] अपमृत्यु आदि से रक्षा होती है और कुल में दुष्ट आत्माएँ, माता-पिता को सतानेवाली आत्माएँ नहीं आतीं ।*
*👉 २] किसीके सामने हाथ फैलाने का दिन नहीं आता । रोजी – रोटी की चिंता नहीं सताती ।*
*👉 ३] व्यक्ति का चित्त शीघ्र निर्दोष एवं पवित्र हो जाता है । उसका तन तंदुरुस्त और मन प्रसन्न रहता है  तथा उसमें मंद व तीव्र प्रारब्ध को परिवर्तित करने का सामर्थ्य आ जाता है । वह तरतीव्र प्रारब्ध के उपभोग में सम एवं प्रसन्न रहता है । उसको दुःख, शोक, ‘हाय-हाय’ या चिंता अधिक नहीं दबा सकती ।*
*👉 ४] त्रिकाल संध्या करनेवाली पुण्यशीला बहनें और पुण्यात्मा भाई अपने कुटुम्बियों एवं बच्चों को भी तेजस्विता प्रदान कर सकते हैं ।*
*👉 ५] त्रिकाल संध्या करनेवाले माता – पिता के बच्चे दूसरे बच्चों की अपेक्षा कुछ विशेष योग्यतावाले होने की सम्भावना अधिक होती है ।*
*👉 ६] चित्त आसक्तियों में अधिक नहीं डूबता । उन भाग्यशालियों के संसार-बंधन ढीले पड़ने लगते हैं ।*
*👉 ७] ईश्वर – प्रसाद पचाने का सामर्थ्य आ जाता है ।*
*👉 ८] मन पापों की ओर उन्मुख नहीं होता तथा पुण्यपुंज बढ़ते ही जाते हैं ।*
*👉 ९] ह्रदय और फेफड़े स्वच्छ व शुद्ध होने लगते हैं ।*
*👉 १०] ह्रदय में भगवन्नाम, भगवदभाव अनन्य भाव से प्रकट होता है तथा वह साधक सुलभता से अपने परमेश्वर को, सोऽहम्  स्वभाव को, अपने आत्म-परमात्मरस  को यही अनुभव कर लेता है ।*
*🌹 शनिवार के दिन विशेष प्रयोग 🌹*
*🌹 शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का 108 बार जप करने से दुःख, कठिनाई एवं ग्रहदोषों का प्रभाव शांत हो जाता है । (ब्रह्म पुराण)*
*🌹 हर शनिवार को पीपल की जड़ में जल चढ़ाने और दीपक जलाने से अनेक प्रकार के कष्टों का निवारण होता है । (पद्म पुराण)*
*🔹आर्थिक कष्ट निवारण हेतु🔹*
*🔹एक लोटे में जल, दूध, गुड़ और काले तिल म��लाकर हर शनिवार को पीपल के मूल में चढ़ाने तथा ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र जपते हुए पीपल की ७ बार परिक्रमा करने से आर्थिक कष्ट दूर होता है ।*
*सनातन उत्थान समिति से जुड़े***********
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astroclasses · 3 years ago
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astroclasses · 3 years ago
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karanaram · 3 years ago
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🚩हिंदू पर्व मिटाने का षड्यंत्र: दीप अमावस्या को बना दिया गटारी अमावस्या - 06 अगस्त 2021
🚩हिन्दू पर्व अथवा त्यौहार मनाया जाता है तो उसके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण होता है। इससे जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है, जीवन उन्नत होता है लेकिन राष्ट्र विरोधी ताकतों की हमेशा एक साजिश रही है कि हिंदुओं के पवित्र त्यौहार को विकृत कर देते हैं अथवा उस दिन कोई दूसरा त्यौहार मनाने के लिए मीडिया, टीवी, अखबार आदि के माध्यम से प्रचार करके जनता को उसके प्रति प्रेरित करते हैं और कुछ राजनैतिक दल भी उनका साथ देते हैं। यह देशवासियों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
🚩आपको बता दें कि वैसे तो आषाढ़ी एकादशी के बाद से ही चातुर्मास प्रारम्भ होता है लेकिन इस महीने का आखरी ��िन है आषाढ़ी अमावस्या। इस वर्ष 8 अगस्त 2021 को आषाढी अमावस्या है। (गुजरात और महाराष्ट्र के पंचांग के अनुसार)
🚩आषाढी अमावस्या को हिंदी में "दीप पूजा" और मराठी में "दिवे धूनी अमावस्या" कहा जाता है।
इस दिन घर के सभी नए-पुराने दीयों को चमकाकर पूजा की जाती है और मिठाई आदि का भोग लगाया जाता है। खासकर के यह त्यौहार महाराष्ट्र में धूम धाम से मनाया जाता है।
चराचर में नारायण का अस्तित्व मानकर, श्रावण के एक दिन पहले दीप पूजा की जाती है, साल भर में एक बार तो दीए हमें आशीर्वाद देते हैं और हमारे घर अपमृत्यु नहीं होती, सुख समृद्धि बनी रहती है।
🚩लेकिन, आज समाज के कितने लोग इस त्यौहार को जानते और मनाते हैं??
ये वही अमावस्या है जिसे हम गटारी अमावस्या के नाम से जानते और धूमधाम से मनाते हैं।
अब कहाँ 'तमसो मा ज्योतिर्गमय...' की तरफ़ ले जाने वाला त्यौहार और कहाँ दूसरे दिन श्रावण है तो पहले दिन ठूंसठूंस कर मांस खाना, दारू पीना, टीवी चैनल आदि पर भी 'कितना मांस बेचा, कितने भाव बेचा' का गुणगान गाना और पवित्र त्यौहार को विकृत ढंग से मनाना... आखिर क्यों?
क्या ये सब करके भगवान शिव, श्री गणपतिजी, माता गौरी हम से संतुष्ट होंगे?
🚩याने श्रावण के पहले महीना भर या आखरी दिन तक पेट फूलने तक मांस खाओ, दारू पियो और दूसरे दिन से योगी...क्या हमारी संस्कृति का इतना विकृत रूप असल में है या कुछ सालों में बनाया गया?
🚩जरा सोचिए हिन्दुओं, कहीं ये हमें हमारे धर्म से दूर ले जाने वाले स्वार्थी राजनेताओं और विधर्मियों की चाल तो नहीं...??
🚩आज पूरा समाज इसी तरह से किसी न किसी विकृति से घिरा हुआ है, उसे जागने की जरूरत है।
देश और धर्म की उन्नति के लिए दीप पूजा मनाओ और आत्मशिव के आशीर्वाद पाओ।
🚩करोड़ों प्राणियों की हत्या करने पर कोई भगवान आशीर्वाद नहीं देंगे; ऐसे विधर्मियोंं से अपने त्यौहार और संस्कृति को लोप होने से बचाओ।
🚩सनातन धर्म में दीपक की रोशनी को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। ये अपने तेज प्रकाश से जीवन में रोशनी भर देता है। दीपक का प्रकाश जीवन में सुख समृद्धि भी प्रदान करता है।
दीपक जलाने का मतलब होता है- अपने जीवन से अंधकार हटाकर प्रकाश फैलाना। ऐसा करने से अग्नि देव प्रसन्न होते हैं और जीवन में आने वाली कई तरह की परेशानियों से बचाते हैं।
🚩इसबार और आगे भी 'गटारी अमावस्या' नहीं मनाकर भारतीय त्यौहार 'दीप अमावस्या' मनायें।
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vedicpanditji · 5 years ago
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27 सितम्बर 2019 शुक्रवार को आग - दुर्घटना - अस्त्र - शस्त्र - अपमृत्यु से मृतक का श्राद्ध #हिंदू धर्म के अनुसार, श्राद्ध पक्ष में परिजनों की मृत्यु तिथि के अनुसार ही श्राद्ध करने का विधान है । महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया है कि इस तिथि पर केवल उन परिजनों का ही श्राद्ध करना चाहिए, जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो। इस तिथि पर अकाल मृत्यु (हत्या, दुर्घटना, आत्महत्या आदि) से मरे पितरों का श्राद्ध करने का ही महत्व है। इस तिथ�� पर स्वाभाविक रूप से मृत परिजनों का श्राद्ध करने से श्राद्ध करने वाले को अनेक प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उन परिजनों का श्राद्ध सर्वपितृमोक्ष अमावस्या के दिन करना श्रेष्ठ रहता है। #महाभारत के अनुसार जिन पितरों की मृत्यु स्वाभाविक रुप से हुई हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि पर करने से श्राद्धकर्ता विवादों में घिर जाता हैं। उन्हें शीघ्र ही लड़ाई में जाना पड़ता है। जवानी में उनके घर के सदस्यों की मृत्यु हो सकती है। #श्राद्ध के संबंध में ऐसा वर्णन कूर्मपुराण में भी मिलता है कि चतुर्दशी को श्राद्ध करने से अयोग्य संतान होती है। #याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार, भी चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध नहीं करना चाहिए। इस दिन श्राद्ध करने वाला विवादों में फस सकता है। #चतुर्दशी तिथि पर अकाल (हत्या), आत्महत्या (दुर्घटना), रुप से मृत परिजनों का श्राद्ध करने का विधान है। #जिन पितरों की अकाल मृत्यु हुई हो व उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को करने से वे प्रसन्न होते हैं। (at New Delhi) https://www.instagram.com/p/B227ab-D52l/?igshid=1edq7xrdumihi
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