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#अन्तिम अन्तिम सत्य
अन्तिम समय जब संसार की असारता कठोर सत्य बनकर आँखों के सामने खड़ी हो जाती है, तो जो कुछ न किया, उसका खेद और जो कुछ किया, उस पर पश्चात्ताप, मन को उदार और निष्कपट बना देता है।
- munshi premchand, mritak bhoj
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iskconchd · 1 year
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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप 2.39 https://srimadbhagavadgita.in/2/39 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ २.३९ ॥ TRANSLATION यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है । अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो! हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो । PURPORT वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है – विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है । और योग का अर्थ है – इन्द्रियों का निग्रह । अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था । वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् अपने बन्धु-बान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा । दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धान्त तो इन्द्रियतृप्ति था । उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक हैं, क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अन्त हो जाता है । अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा । उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सारे जीव शाश्र्वत प्राणी हैं, वे भूतकाल में प्राणी थे, वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सैम शाश्र्वत आत्मा हैं । हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र) बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक् सत्ता बनी रहती है । भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यन्त विशद् वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोश की शब्दावली में इस विशद् अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है । इस सांख्य का नास्तिक-कपिल के सांख्य-दर्शन से कोई सरोकार नहीं है । इस नास्तिक-कपिल के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति के समक्ष श्रीमद्भागवत में वास्तविक सांख्य-दर्शन पर प्रवचन किया था । उन्होंने स्पष्ट बताया है कि पुरुष या परमेश्र्वर क्रियाशील हैं और वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि कि उत्पत्ति करते हैं । इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है । वेदों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमें आणविक जीवात्माएँ प्रविष्ट कर दीं । ये सारे जीव भौतिक-जगत् में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते रहते हैं और माया के वशीभूत् होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं । इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है । यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अन्तिम पाश है और अनेकानेक जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानी वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है । अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है – शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम । फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है । यह बुद्धियोग अध्याय दस के दसवें श्लोक में वर्णित है जिससे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क बताया गया है जो सबके हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, किन्तु ऐसा सम्पर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है । अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या क��ष्णभावनामृत में स्थित होता है, वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है । अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भक्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं । इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं । इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक-कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहाँ पर उल्लिखित सांख्य-योग का अनीश्र्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है । न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था, और न कृष्ण ने ऐसी ईश्र्वरविहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिन्ता की । वास्तविक सांख्य-दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमद्भागवत में हुआ है, किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है । यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन । भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग या कर्मयोग तक लाने के लिए किया । अतः भगवान् कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही हैं । ये दोनों भक्तियोग हैं । अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य-योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं (सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः) । निस्सन्देह अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग का भक्तियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी बुद्धिहीन व्यक्तियों का दावा है कि भगवद्गीता में अनीश्र्वरवादी सांख्य का ही वर्णन हुआ है । अतः मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि बुद्धियोग का अर्थ कृष्णभावनामृत में, पूर्ण आनन्द तथा भक्ति के ज्ञान में कर्म करना है । जो व्यक्ति भगवान् की तुष्टि के लिए कर्म करता है, चाहे वह कर्म कितना भी कठिन क्यों न हो, वह बुद्धियोग के सिद्धान्त के अनुसार कार्य करता है और दिव्य आनन्द का अनुभव करता है । ऐसी दिव्य व्यस्तता के कारण उसे भगवत्कृपा से स्वतः सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम किये बिना ही उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाति है । कृष्णभावनामृत कर्म तथा फल प्राप्ति की इच्छा से किये गये कर्म में, विशेषतया पारिवारिक या भौतिक सुख प्राप्त करने की इन्द्रिय तृप्ति के लिए किये गये कर्म में, प्रचुर अन्तर होता है । अतः बुद्धियोग हमारे द्वारा सम्पन्न कार्य का दिव्य गुण है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.39 eṣā te ’bhihitā sāṅkhye buddhir yoge tv imāṁ śṛṇu buddhyā yukto yayā pārtha karma-bandhaṁ prahāsyasi TRANSLATION Thus far I have described this knowledge to you through analytical study. Now listen as I explain it in terms of working without fruitive results. O son of Pṛthā, when you act in such knowledge you can free yourself from the bondage of works. PURPORT According to the Nirukti, or the Vedic dictionary, saṅkhyā means that which describes things in detail, and sāṅkhya refers to that philosophy which describes the real nature of the soul. And yoga involves controlling the senses. Arjuna’s proposal not to fight was based on sense gratification. Forgetting his prime duty, he wanted to cease fighting, because he thought that by not killing his relatives and kinsmen he would be happier than by enjoying the kingdom after conquering his cousins and brothers, the sons of Dhṛtarāṣṭra. In both ways, the basic principles were for sense gratification. Happiness derived from conquering them and happiness derived by seeing kinsmen alive are both on the basis of personal sense gratification, even at a sacrifice of wisdom and duty. Kṛṣṇa, therefore, wanted to explain to Arjuna that by killing the body of his grandfather he would not be killing the soul proper, and He explained that all individual persons, including the Lord Himself, are eternal individuals; they were individuals in the past, they are individuals in the present, and they will continue to remain individuals in the future, because all of us are individual souls eternally. We simply change our bodily dress in different manners, but actually we keep our individuality even after liberation from the bondage of material dress. An analytical study of the soul and the body has been very graphically explained by Lord Kṛṣṇa. And this descriptive knowledge of the soul and the body from different angles of vision has been described here as Sāṅkhya, in terms of the Nirukti dictionary. This Sāṅkhya has nothing to do with the Sāṅkhya philosophy of the atheist Kapila. Long before the imposter Kapila’s Sāṅkhya, the Sāṅkhya philosophy was expounded in the Śrīmad-Bhāgavatam by the true Lord Kapila, the incarnation of Lord Kṛṣṇa, who explained it to His mother, Devahūti. It is clearly explained by Him that the puruṣa, or the Supreme Lord, is active and that He creates by looking over the prakṛti. This is accepted in the Vedas and in the Gītā. The description in the Vedas indicates that the Lord glanced over the prakṛti, or nature, and impregnated it with atomic individual souls. All these individuals are working in the material world for sense gratification, and under the spell of material energy they are thinking of being enjoyers. This mentality is dragged to the last point of liberation when the living entity wants to become one with the Lord. This is the last snare of māyā, or sense gratificatory illusion, and it is only after many, many births of such sense gratificatory activities that a great soul surrenders unto Vāsudeva, Lord Kṛṣṇa, thereby fulfilling the search after the ultimate truth. Arjuna has already accepted Kṛṣṇa as his spiritual master by surrendering himself unto Him: śiṣyas te ’haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam. Consequently, Kṛṣṇa will now tell him about the working process in buddhi-yoga, or karma-yoga, or in other words, the practice of devotional service only for the sense gratification of the Lord. This buddhi-yoga is clearly explained in Chapter Ten, verse ten, as being direct communion with the Lord, who is sitting as Paramātmā in everyone’s heart. But such communion does not take place without devotional service. One who is therefore situated in devotional or transcendental loving service to the Lord, or, in other words, in Kṛṣṇa consciousness, attains to this stage of buddhi-yoga by the special grace of the Lord. The Lord says, therefore, that only to those who are always engaged in devotional service out of transcendental love does He award the pure knowledge of devotion in love. In that way the devotee can reach Him easily in the ever-blissful kingdom of God. Thus the buddhi-yoga mentioned in this verse is the devotional service of the Lord, and the word Sāṅkhya mentioned herein has nothing to do with the atheistic sāṅkhya-yoga enunciated by the imposter Kapila. One should not, therefore, misunderstand that the sāṅkhya-yoga mentioned herein has any connection with the atheistic Sāṅkhya. Nor did that philosophy have any influence during that time; nor would Lord Kṛṣṇa care to mention such godless philosophical speculations. Real Sāṅkhya philosophy is described by Lord Kapila in the Śrīmad-Bhāgavatam, but even that Sāṅkhya has nothing to do with the current topics. Here, Sāṅkhya means analytical description of the body and the soul. Lord Kṛṣṇa made an analytical description of the soul just to bring Arjuna to the point of buddhi-yoga, or bhakti-yoga. Therefore, Lord Kṛṣṇa’s Sāṅkhya and Lord Kapila’s Sāṅkhya, as described in the Bhāgavatam, are one and the same. They are all bhakti-yoga. Lord Kṛṣṇa said, therefore, that only the less intelligent class of men make a distinction between sāṅkhya-yoga and bhakti-yoga (sāṅkhya-yogau pṛthag bālāḥ pravadanti na paṇḍitāḥ). Of course, atheistic sāṅkhya-yoga has nothing to do with bhakti-yoga, yet the unintelligent claim that the atheistic sāṅkhya-yoga is referred to in the Bhagavad-gītā. One should therefore understand that buddhi-yoga means to work in Kṛṣṇa consciousness, in the full bliss and knowledge of devotional service. One who works for the satisfaction of the Lord only, however difficult such work may be, is working under the principles of buddhi-yoga and finds himself always in transcendental bliss. By such transcendental engagement, one achieves all transcendental understanding automatically, by the grace of the Lord, and thus his liberation is complete in itself, without his making extraneous endeavors to acquire knowledge. There is much difference between work in Kṛṣṇa consciousness and work for fruitive results, especially in the matter of sense gratification for achieving results in terms of family or material happiness. Buddhi-yoga is therefore the transcendental quality of the work that we perform. ----- #krishna #iskconphotos #motivation #success #love #bhagavatamin #india #creativity #inspiration #life #spdailyquotes #devotion
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subeshivrain · 8 days
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart91 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart92
"अन्य वाणी सतग्रन्थ से"
तेतीस कोटि यज्ञ में आए सहंस अठासी सारे। द्वादश कोटि वेद के वक्ता, सुपच का शंख बज्या रे ।।
"अर्जुन सहित पाण्डवों को युद्ध में की गई हिंसा के पाप लगे"
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पाण्डवों को युद्ध की हत्याओं का पाप लगा। आगे सुन और सुनाता हूँ :-
दुर्वासा ऋषि के शाप वश यादव कुल आपस में लड़कर प्रभास क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे नष्ट हो गया। श्री कृष्ण जी भगवान को एक शिकारी ने पैर में विषाक्त तीर मार कर घायल कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने उस शिकारी को बताया कि आप त्रेता युग में सुग्रीव के बड़े भाई बाली थे तथा मैं रामचन्द्र था। आप को मैंने धोखा करके वृक्ष की ओट लेकर मारा था। आज आपने वह बदला (प्रतिशोध) चुकाया है। पाँचों पाण्डवों को पता चला कि यादव आपस में लड़ मरे हैं वे द्वारिका पहुँचे। वहाँ गए जहाँ पर श्री कृष्ण जी तीर से घायल तड़फ रहे थे। पाँचों पाण्डवों के धार्मिक गुरू श्री कृष्ण जी थे। श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों से कहा! आप मेरे अतिप्रिय हो। मेरा अन्त समय आ चुका है। मैं कुछ ही समय का मेहमान हूँ। मैं आपको अन्तिम उपदेश देना चाहता हूँ कृप्या ध्यान पूर्वक सुनों। यह कह कर श्री कृष्ण जी ने कहा (1) आप द्वारिका की स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ ले जाना। यहाँ कोई नर यादव शेष नहीं बचा है (2) आप अति शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय चले जाओ वहाँ अपने शरीर के नष्ट होने तक तपस्या करते रहो। इस प्रकार हिमालय की बर्फ में गल कर नष्ट हो जाओ। युधिष्ठर ने पूछा हे भगवन्! हे गुरूदेव श्री कृष्ण ! क्या हम हिमालय में गल कर मरने का कारण जान सकते हैं? यदि आप उचित समझें तो बताने की कृपा करें। श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठर! आप ने युद्ध में जो प्राणियों की हिंसा करके पाप किया है। उस पाप का प्रायश्चित् करने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इस प्रकार तपस्या करके प्राण त्यागने से आप के महाभारत युद्ध में किए पाप नष्ट हो जाएँगे।
कबीर जी बोले हे धर्मदास ! श्री कृष्ण जी के श्री मुख से उपरोक्त वचन सुन कर अर्जुन आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा श्री कृष्ण जी आज फिर कह रहे हैं कि युद्ध में किए पाप नष्ट इस विधि से होगें। अर्जुन अपने आपको नहीं रोक सका। उसने श्री कृष्ण जी से कहा हे भगवन्! क्या मैं आप से अपनी शंका का समाधान करा सकता हूँ। वैसे तो गुरूदेव! यह मेरी गुस्ताखी है, क्षमा करना क्योंकि आप ऐसी स्थिति में हैं कि आप से ऐसी-वैसी बातें करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि प्रभु ! मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो यह शंका रूपी कांटा आयु पर्यन्त खटकता रहेगा। मैं चैन से जी नहीं सकूंगा। श्री कृष्ण ने कहा हे अर्जुन ! तू जो पूछना चाहता है निःसंकोच होकर पूछ। मैं अन्तिम स्वांस गिन रहा हूँ जो कहूंगा सत्य कहूंगा। अर्जुन बोला हे श्री कृष्ण! आपने श्री मद्भगवत् गीता का ज्ञान देते समय कहा था कि अर्जुन ! तू युद्ध कर तुझे युद्ध में मारे जाने वालों का पाप नहीं लगेगा तू केवल निमित्त मात्र बन जा ये सर्व योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं (प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 32-33) आपने यह भी कहा कि अर्जुन युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को चला जाएगा, यदि युद्ध जीत गया तो पृथ्वी के राज्य का सुख भोगेगा। तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। (प्रमाण श्री मदभगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 37) तू युद्ध के लिए खड़ा हो जो जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर युद्ध कर इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 38) जिस समय बड़े भईया को बुरे 2 स्वपन आने लगे हम आप के पास कष्ट निवारण के लिए विधि जानने गए तो आपने बताया कि जो युद्ध में बन्धुघात अर्थात् अपने नातियों (राजाओं, सैनिकों, चाचा, भतीजा आदि) की हत्या का पाप दुःखी कर रहा है। मैं (अर्जुन) उस समय भी आश्चर्य में पड़ गया था कि भगवन् गीता ज्ञान में कह रहे थे कि तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा युद्ध करो। आज कह रहे है कि युद्ध में की गई हिंसा का पाप दुःखी कर रहा है। आपने पाप नाश होने का समाधान बताया "अश्वमेघ यज्ञ" करना जिसमें करोड़ों रूपये का खर्च हुआ। उस समय मैं अपने मन को मार कर यह सोच कर चुप रहा कि यदि मैं आप (श्री कृष्ण जी) से वाद-विवाद करूँगा कि आप तो कह रहे थे तुम्हें युद्ध में होने वाली हत्याओं का कोई पाप नहीं लगेगा। आज कह रहे हो तुम्हें महाभारत युद्ध में की हत्याओं का पाप दुःख दे रहा है। कहाँ गया आप का वह गीता वाला ज्ञान। किसलिए हमारे साथ धोखा किया, गुरू होकर विश्वासघात किया। तो बड़े भईया (युधिष्ठर जी) यह न सोच लें कि मेरी चिकित्सा में धन लगना है। इस कारण अर्जुन वाद-विवाद कर रहा है। यह (अर्जुन) मेरे कष्ट निवारण में होने वाले खर्च के कारण विवाद कर रहा है यह नहीं चाहता कि मैं (युधिष्ठर) कष्ट मुक्त हो जाऊं। अर्जुन को भाई के जीवन से धन अधिक प्रिय है। उपरोक्त विचारों को ध्यान में रखकर मैंने सोचा था कि यदि युधिष्ठर भईया को थोड़ा सा भी यह आभास हो गया कि अर्जुन ! इस दृष्टि कोण से विवाद कर रहा है तो भईया ! अपना समाधान नहीं कराएगा। आजीवन कष्ट को गले लगाए रहेगा। हे कृष्ण! आप के कहे अनुसार हमने यज्ञ किया। आज फिर आप कह रहे हो कि तुम्हें युद्ध की हत्याओं का पाप लगा है उसे नष्ट करने के लिए शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय में तपस्या करके गल मरो। आपने हमारे साथ यह विश्वास घात किसलिए किया? यदि आप जैसे सम्बन्धी व गुरू हों तो शत्रुओं की आवश्यकता ही नहीं। हे कृष्ण हमारे हाथ में तो एक भी लड्डू नहीं रहा न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग गए न पृथ्वी के राज्य का सुख भोग सके। क्योंकि आप कह रहे हो कि राज्य त्याग कर हिमालय में गल मरो।
आँसू टपकाते हुए अर्जुन के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर युधिष्ठर बोला, अर्जुन ! जिस परिस्थिति में भगवान है। इस समय ये शब्द बोलना शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी बोले हे अर्जुन ! सुन मैं आप को सत्य-2 बताता हूँ। गीता के ज्ञान में मैंने क्या कहा था मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। यह जो कुछ भी हुआ है यह होना था इसे टालना मेरे वश नहीं था। कोई अन्य शक्ति है जो आप और हम को कठपुतली की तरह नचा रही है। वह तेरे वश न मेरे वश। परन्तु जो मैं आपको हिमालय में तपस्या करके शरीर अन्त करने की राय दे रहा हूँ। यह आप को लाभदायक है। आप मेरे इस वचन का पालन अवश्य करना। यह कह कर श्री कृष्ण जी शरीर त्याग गए। जहाँ पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया। उस स्थान पर यादगार रूप में श्री कृष्ण जी के नाम पर द्वारिका में द्वारिकाधीश मन्दिर बना है।
श्री कृष्ण ने पाण्डवों से कहा था कि मेरे शरीर का संस्कार करके राख तथा अधजली अस्थियों को एक काष्ठ के संदूक (Box) में डालकर उसको पूरी तरह से बंद करके यमुना में प्रवाह कर देना। पाण्डवों ने वैसा ही किया। वह संदूक बहता हुआ समुद्र में उस स्थान पर चला गया जिस स्थान पर उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ का मंदिर बना है। एक समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था जो श्री कृष्ण जी का परम भक्त था। स्वपन में श्री कृष्ण जी ने बताया कि एक काष्ठ के संदूक में मेरे कृष्ण वाले शरीर की अस्थियाँ हैं। उस स्थान पर वह संदूक बहकर आ चुका है। उसी स्थान पर उनको जमीन में दबाकर एक मंदिर बनवा दें। राजा ने स्वपन अपनी धार्मिक पत्नी तथा मंत्रियों के साथ साझा किया और उस स्थान पर गए तो वास्तव में एक लकड़ी का संदूक मिला। उसको जमीन में दबाकर जगन्नाथ नाम से मंदिर बनवाया। संपूर्ण जानकारी पढ़ें इसी पुस्तक "हिन्दू साहेबान ! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण" में पृष्ठ 56 पर।
धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर जी ने बताया। हे धर्मदास ! सर्व (छप्पन करोड़) यादव का जो आपस में लड़कर मर गए थे, अन्तिम संस्कार करके अर्जुन को द्वारिका में छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ चले गए। अकेला अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों तथा श्री कृष्ण जी की गोपियों को लेकर आ रहे थे। रास्ते में जंगली लोगों ने अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के पास अपना गांडीव धनुष भी था जिस से महाभारत का युद्ध जीता था। परन्तु उस समय अर्जुन से वही धनुष नहीं चला। अपने आप को शक्तिहीन जानकर अर्जुन कायरों की तरह सब देखता रहा। वे जंगली व्यक्ति स्त्रियों के गहने लूट ले गए तथा कुछ स्त्रियों को भी अपने साथ ले गए। शेष स्त्रियों को साथ लेकर अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान किया तथा मन में विचार किया कि श्री कृष्ण जी महाधोखेबाज (विश्वासघाती) था। जिस समय मेरे से युद्ध कराना था तो शक्ति प्रदान कर दी। उसी धनुष से मैंने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। आज मेरा बल छीन लिया, मैं कायरों की तरह पिटता रहा मेरे से वही धनुष नहीं चला। कबीर परमेश्वर जी ने बताया धर्मदास ! श्री कृष्ण जी छलिया नहीं था। वह सर्व कपट काल ब्रह्म ने किया है जो ब्रह्मा-विष्णु व शिव का पिता है। जिसके समक्ष श्री विष्णु (कृष्ण) तथा श्री शिव आदि की कुछ पेश नहीं चलती।
उपरोक्त कथा सुनकर धर्मदास जी ने प्रश्न किया धर्मदास ने कहा हे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी! आप ने तो मेरी आँखे खोल दी हे प्रभु! हिमालय में तपस्या कर युधिष्ठर का तो केवल एक पैर का पंजा ही बर्फ से नष्ट हुआ तथा अन्य के शरीर गल गए थे। सुना है वे सर्व पापमुक्त होकर स्वर्ग चले गए?
उत्तर :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास ! हिमालय में जो तप पाण्डवों ने किया वह शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) होने के कारण व्यर्थ प्रयत्न था। (प्रमाण-गीता अध्याय 16 श्लोक 23 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल कल्पित घोर तप को तपते हैं वे शरीरस्थ परमात्मा को कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को नष्ट हुए जान।) क्योंकि जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह गीता जी व वेदों में वर्णित नहीं है अपितु ऐसे शरीर को पीड़ा देकर साधना करना व्यर्थ बताया है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है ओम् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-2 कर, विशेष कसक के साथ कर मनुष्य जन्म का मुख्य
कर्त्तव्य जान के कर। यही प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 7 व 13 में कहा है कि मेरा तो केवल ॐ नाम है इस का जाप अन्तिम सांस तक करने से लाभ होता है इसलिए अर्जुन ! तू युद्ध भी कर तथा स्मरण (भक्ति जाप) भी कर अतः हे धर्मदास ! जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह व्यर्थ सिद्ध हुई।
गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 में कहा है कि जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रयों को रोककर अर्थात् हठ योग द्वारा एक स्थान पर बैठ कर या खड़ा होकर साधना करता है। वह मन से इन्द्रियों का चिन्तन करता रहता है। जैसे सर्दी लगी तो ��रीर की चिन्ता, सर्दी का चिन्तन, भूख लगी तो भूख का चिन्तन आदि होता रहता है। वह हठ से तप करने वाला मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है। कार्य न करने अर्थात् एक स्थान पर बैठ या खड़ा होकर साधना करने की अपेक्षा कर्म करना तथा भक्ति भी करना श्रेष्ठ है। यदि कर्म नहीं करेगा तो तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
विशेष विचार :- श्री मद्भगवत गीता में ज्ञान दो प्रकार का है। एक तो वेदों वाला तथा दूसरा काल ब्रह्म द्वारा सुनाया लोक वेद वाला। यह ज्ञान (गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 वाला ज्ञान) वेदों वाला ज्ञान ब्रह्म काल ने बताया है। श्री कृष्ण जी द्वारा भी काल ब्रह्म ने पाण्डवों को लोक वेद सुनाया जिस से तप हो जाता है। तप से फिर कभी राजा बन जाता है कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।
हे धर्मदास ! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।
हे धर्मदास ! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर की आत्माएँ निकल चुकी हैं सूक्ष्म शरीर युक्त आकाश को जाने लगी। तब युधिष्ठर ने भी अपना शरीर त्याग दिया तथा सूक्ष्म शरीर युक्त युधिष्ठर कर्मों के संस्कार वश अपने पिता धर्मराज के लोक में गया। धर्मराज ने अपने पुत्र को बहुत प्यार किया तथा उसको रहने का मकान बताया। कुछ समय पश्चात् काल ब्रह्म ने युधिष्ठर में प्रेरणा की। उसे अपने भाईयों व पत्नी द्रोपदी तथा माता कुन्ती की याद सताने लगी। युधिष्ठर ने अपने पिता धर्मराज से कहा हे धर्मराज ! मुझे मेरे परिजनों से मिलाईए मुझे उनकी बहुत याद सता रही है। धर्मराज ने कहा युधिष्ठर ! वह तेरा परिवार नहीं था। तेरा परिवार तो यह है। तू मेरा पुत्र है। अर्जुन स्वर्ग के राजा इन्द्र का पुत्र है, भीम-पवन देव का पुत्र है, नकुल-नासत्य का पुत्र है तथा सहदेव-दस्र का पुत्र है। (नासत्य तथा दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार हैं जो अश्व रूप धारी सूर्य देव तथा अश्वी (घोड़ी) रूप धारी सूर्य की पत्नी संज्ञा के सम्भोग से उत्पन्न हुए थे। सूर्य को घोड़े रूप में न पहचान कर सूर्य पत्नी जो घोड़ी रूप धार कर जंगल में तप कर रही थी अपने धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूपधारी सूर्य को पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया वह उस घोड़े से अभिमुख रही। कामवासना वश घोड़ा रूपधारी सूर्य घोड़ी रूपधारी अपनी पत्नी (विश्वकर्मा की पुत्री) के मुख की ओर चढ़कर सम्भोग करने के कारण वीर्य का कुछ अंश घोड़ी रूपधारी सूर्य की पत्नी के पेट में मुख द्वारा प्रवेश कर गया जिससे दो लड़कों (नासत्य तथा दस्र) का जन्म घोड़ी रूपी सूर्य पत्नी के मुख से हुआ जिस कारण ये दोनों बच्चे अश्विनी कुमार कहलाए। यह पुराण कथा है।]
धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठर को बताया कि आप सब का वहाँ पृथ्वी लोक में इतना ही संयोग था। वह समाप्त हो चुका है। वे सर्व युद्ध में किए पाप कर्मों तथा अन्य जीवन में किए पाप कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में डाल रखे हैं। आप के पुण्य अधिक है इसलिए आप नरक में नहीं डाल रखे हैं। अतः आप उन से नहीं मिल सकते काल ब्रह्म कि प्रबल प्रेरणा वश होकर युधिष्ठर ने उन सर्व (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) को मिलने का हठ किया। धर्मराज ने एक यमदूत से कहा आप युधिष्ठर को इसके परिवार से मिला कर शीघ्र लौटा लाना। यमदूत युधिष्ठर को लेकर नरक में प्रवेश हुआ। वहाँ पर आत्माऐं हा-हाकार मचा रहे थे, कह रहे थे, हे युधिष्ठर हमें नरक से निकलवा दो। मैं अर्जुन हूँ, कोई कह रहा था, मैं भीम हूँ, मैं नकुल, मैं सहदेव हूँ, मैं कुन्ती, मैं द्रोपदी हूँ। इतने में यमदूत ने कहा हे युधिष्ठिर अब आप लौट चलिए। युधिष्ठर ने कहा मैं भी अपने परिवार जनों के साथ यहीं नरक में ही रहूँगा। तब धर्मराज ने आवाज लगाई युधिष्ठिर यहाँ आओ मैं तेरे को एक युक्ति बताता हूँ। यह आवाज सुन कर युधिष्ठिर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया। धर्मराज ने युधिष्ठिर को समझाया कि बेटा आपने एक झूठ बोला था कि अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या युधिष्ठिर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया। आपने एक झूठ बोला था कि
धर्मराज ने युधिष्ठिर को समझाया कि बेटा अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या हाथी। जबकि आप को पता था कि हाथी मरा है। उस झूठ बोलने के पाप का कर्मदण्ड देने के लिए आप को कुछ समय इसी बहाने नरक में रखना पड़ा नहीं तो वह युक्ति मैं पहले ही आप को बता देता। युधिष्ठर ने कहा कृप्या आप वह विधि बताईए जिस से मेरे परिजन नरक से निकल सकें। धर्मराज ने कहा उनको एक शर्त पर नरक से निकाला जा सकता है कि आप अपने कुछ पुण्य उनको संकल्प कर दो। युधिष्ठर ने कहा मुझे स्वीकार है। यह कह कर युधिष्ठर ने अपने आधे पुण्य उन छः के निमित्त संकल्प कर दिए। वे छःओं नरक से बाहर आकर धर्मराज के पास जहाँ युधिष्ठर खड़ा था, उपस्थित हो गए। उसी समय इन्द्र देव आया अपने पुत्र अर्जुन को साथ
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हिन्दू साहेबान ! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण
लेकर चला गया, पवन देवता आया अपने पुत्र भीम को साथ लेकर चला गया। इसी प्रकार अश्विनी कुमार (नासत्य, दस्र) आए नकुल व सहदेव को लेकर चले गए। कुन्ती स्वर्ग में चली गई तथा देखते-2 द्रोपदी ने दुर्गा रूप धारण किया तथा आकाश को उड़ चली कुछ ही समय में सर्व की आँखों से ओझल हो गई। वहाँ अकेला युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास रह गया। परमेश्वर कबीर जी ने अपने शिष्य धर्मदास जी को उपरोक्त कथा सुनाई तत्पश्चात् इस सर्व काल के जाल को समझाया।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया हे धर्मदास ! काल ब्रह्मकी प्रेरणा से इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी कर्म करते हैं। जैसा आपने सुना युधिष्ठर पुत्र धर्मराज, अर्जुन पुत्र इन्द्र, भीम पुत्र पवन देव, नकुल पुत्र नासत्य तथा सहदेव पुत्र दस्र थे। द्रोपदी शापवश दुर्गा की अवतार थी जो अपना कर्म भोगने आई थी तथा कुन्ती भी दुर्गा लोक की पुण्यात्मा थी। ये सर्व काल प्रेरणा से पृथ्वी पर एक फिल्म (चलचित्र) बनाने गए थे। जैसे एक करोड़पति का पुत्र किसी फिल्म में रिक्शा चालक का अभिनय करता है। फिल्म निर्माण के पश्चात् अपनी 20 लाख की कार गाडी में बैठ कर आनन्द करता है। भोले-भाले सिनेमा दर्शक उसे रिक्शा चालक मान कर उस पर दया करते हैं। उसके बनावटी अभिनय को देखने के लिए अपना बहुमूल्य समय तथा धन नष्ट करते हैं। ठीक इसी प्रकार उपरोक्त पात्रों (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) द्वारा बनाई फिल्म महाभारत के इतिहास को पढ़-पढ़कर पृथ्वी लोक के प्राणी अपना समय व्यर्थ करते हैं। तत्त्वज्ञान को न सुनकर मानव शरीर को व्यर्थ कर जाते हैं। काल ब्रह्म यही चाहता है कि मेरे अन्तर्गत जितने भी जीव हैं। वे तत्त्वज्ञान से अपरिचित रहे तथा मेरी प्रेरणा से मेरे द्वारा भेजे गुरुओं द्वारा शास्त्रविधि विरुद्ध साधना प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े रहे। काल ब्रह्म की प्रेरणा से तत्त्वज्ञान हीन सन्तजन व ऋषिजन कुछ वेद ज्ञान अधिक लोक वेद के आधार से ही सत्संग वचन श्रद्धालुओं को सुनाते हैं। जिस कारण से साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त न करके काल के जाल में ही रह जाते हैं।
हे धर्मदास ! मैं पूर्ण परमात्मा की आज्ञा लेकर तत्त्वज्ञान बताने के लिए काल लोक में कलयुग में आया हूँ।
धर्मदास जी ने बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी के चरण पकड़ कर कहा हे परमेश्वर ! आप स्वयं सत्यपुरूष हो धर्मदास जी ने अति विनम्र होकर आधीन भाव से प्रश्न किया।
"क्या पाण्डव सदा स्वर्ग में ही रहेंगे?
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jyotis-things · 2 months
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart60 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart61
* अन्य उदाहरण:-
लेखक (रामपाल दास) द्वारा श्राद्ध भ्रम खण्डन" "
"सत्य कथा"
मेरे पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी गाँव-बड़ा पैतावास, तहसील-चरखी दादरी, जिला-भिवानी (प्रान्त-हरियाणा) के निवासी थे जो लगभग सोलह वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए अचानक घर त्याग कर निकल गए। प्रतिदिन पहनने वाले वस्त्रों को अपने ही खेतों के निकट घने जंगल में किसी मृत पशु की अस्थियों के पास डाल गए। शाम को घर न पहुँचने के कारण घर वालों ने जंगल में तलाश की। रात्रि का समय था। कपडे पहचान कर दुःखी मन से पशु की अस्थियों को बच्चे की अस्थियाँ जान कर उठा लाए तथा यह सोचा कि बच्चा जंगल में चला गया, किसी हिंसक जानवर ने खा लिया। अ���्तिम संस्कार कर दिया। सर्व क्रियाएँ की, तेरहवीं बरसौदी (वर्षी) आदि की तथा श्राद्ध भी निकालते रहे।
लगभग 104 वर्ष की आयु प्राप्त होने के उपरान्त स्वामी जी अचानक अपने गाँव बड़ा पैंतावास जिला भिवानी, तहसील-चरखी दादरी, हरियाणा में पहुँच गए। स्वामी जी का बचपन का नाम श्री हरिद्वारी जी था तथा पवित्र ब्राह्मण में जन्म था। मुझ दास को पता चला तो में भी दर्शनार्थ पहुँच गया। स्वामी जी की भाभी जी जो लगभग 92 वर्ष की आयु की थी। मैंने उस वृद्धा से पूछा कि हमारे गुरु जी के घर त्याग जाने के उपरान्त क्या जब कभी फसल अच्छी नहीं होती या कोई घर का सदस्य बीमार हो जाता तो अपने पुरोहित (गुरु जी) से कारण पूछते तो वह कहा करता कि हरद्वारी पित्तर बना है, वह तुम्हें दुःखी कर रहा है।
श्राद्धों के निकालने में कोई अशुद्धि रही है। अब की बार सर्व क्रिया मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा। पहले मुझे समय नहीं मिला था क्योंकि एक ही दिन में कई जगह श्राद्ध क्रियाएँ करने जाना पड़ा। इसलिए बच्चे को भेजा था। तब तक कुछ भेंट चढ़ाओ ताकि उसे शान्त किया जाए। तब उसे 21 या 51 रूपये जो भी कहता था, डरते भेंट करते थे। फिर श्राद्धों के समय गुरु जी स्वयं श्राद्ध करते थे। तब मैंने कहा माता जी अब तो छोड़ दो इस गीता जी विरुद्ध साधना को, नहीं तो आप भी प्रेत बनोगी।
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 सुनाया। तब वह वृद्धा कहने लगी गीता जी मैं भी पढती हूँ। दास ने कहा आपने पढ़ा है, समझा नहीं। आगे से तो बन्द कर दो इस साधना को। वृद्धा ने उत्तर दिया न भाई, कैसे छोड़ दें श्राद्ध निकालना, यह तो सदियों पुरानी (लाग) परम्परा है। हे पाठको! यह दोष भोली आत्माओं का नहीं है। यह दोष मूर्ख गुरुओं (नीम हकीमों) का है जिन्होंने अपने पवित्र शास्त्रों को समझे बिना मनमाना आचरण (पूजा का मार्ग) बता दिया। जिस कारण न तो कोई कार्य सिद्ध होता है, न परमगति तथा न कोई सुख ही प्राप्त होता है। (प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24) शंका
प्रश्न 44: यदि किसी के माता-पिता भूखे हों, वे दिखाई देकर कहें तो वह पुत्र नहीं जो उनकी इच्छा पूरी न करे। *
उत्तर शंका समाधान यदि किसी का बच्चा कुएं में गिरा हो वह तो चिल्लाएगा कि मुझे बचा लो। पिता जी आ जाओ। मैं मर रहा हूँ। वह पिता मूर्ख होगा जो भावुक होकर कूएं में छलाँग लगाकर बच्चे को बचाने की कोशिश करके स्वयं भी डूबकर मर जाएगा। बच्चे को भी नही बचा पाएगा। उसको चाहिए कि लम्बी रस्सी का प्रबन्ध करे। फिर उस कुएं में छोड़े। बच्चा उसे पकड़ ले। फिर बाहर खींचकर बच्चे को कुएं से निकाले।
इसी प्रकार पूर्वज तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) करके पित्तर बन चुके हैं। संतान को भी पित्तर बनाने के लिए पुकार रहे हैं। तत्वज्ञान को समझकर अपना कल्याण करवाएँ तथा मुझ दास (रामपाल दास) के पास परमेश्वर कबीर बंदी छोड़ जी की प्रदान की हुई वह विधि है जो साधक का तो कल्याण करेगी ही, उसके पित्तरों की भी पित्तर योनि छूटकर मानव जन्म प्राप्त होगा तथा भक्ति युग में जन्म होकर सत्य भक्ति करके एक या दो जन्म में पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगें।
* विचार करें: जैसा कि उपरोक्त रूची ऋषि की कथा में पित्तर डर रहे हैं कि यदि हमारे श्राद्ध नहीं किए गए तो हम पतन को प्राप्त होगें अर्थात् हमारा पतन (मृत्यु) हो जाएगा। अब उनको पित्तर योनि जो अत्यंत कष्टमय है, अच्छी लग रही है। उसे त्यागना नहीं चाह रहे।
यह तो वही कहानी वाली बात है कि "एक समय एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म का ज्ञान हुआ। उसने अपने पुत्रों को बताया कि मेरा अगला जन्म अमूक व्यक्ति के घर एक सूअरी से होगा। मैं सूअर का जन्म पाऊंगा। उस सूअरी के गले में गांठ है। यह उसकी पहचान है। उसके उदर से मेरा जन्म होगा। मेरी पहचान यह होगी कि मेरे सिर पर गांठ होगी जो दूर से दिखाई देगी। मेरे बच्चो ! उस व्यक्ति से मुझे मोल ले लेना तथा मुझे मार देना, मेरी गति कर देना।
बच्चों ने कहा बहुत अच्छा पिता जी। ऋषि ने फिर आँखों में पानी भरकर कहा कि बच्चो! कहीं लालचवश मुझे मोल न लो और मुझे तुम मारो नहीं, यह कार्य तुम अवश्य करना, नहीं तो मैं सूअर योनि में महाकष्ट उठाऊंगा। बच्चों ने पूर्ण विश्वास दिलाया।
उसके पश्चात् कुछ दिनों में उस ऋषि का देहांत हो गया। उसी व्यक्ति के घर पर उसी गले में गांठ वाली सूअरी के वहीं सिर पर गांठ वाला बच्चा भी अन्य बच्चों के साथ उत्पन्न हुआ। उस ऋषि के बच्चों ने वह सूअरी का बच्चा मोल ले लिया। तब उसे मारने लगे। उसी समय वह बच्चा बोला, बेटा! मुझे मत मारो। मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या मिलेगा?
तब उस ऋषि के पूर्व जन्म के बेटों ने कहा, पिता जी! आपने ही तो कहा था। तब वह सूअर के बच्चे रूप में ऋषि बोला कि मैं आपके सामने हाथ जोड़ता हूँ। मुझे मत मारो, मेरे भाईयों (अन्य सूअर के बच्चों) के साथ मेरा दिल लगा है। मुझे बख्श दो। बच्चों ने वह बच्चा छोड़ दिया, मारा नहीं।
इस प्रकार यह जीव जिस भी योनि में उत्पन्न हो जाता है, उसे त्यागना नहीं चाहता। जबकि यह शरीर एक दिन सर्व का जाएगा। इसलिए भावुकता में न बहकर विवेक से कार्य करना चाहिए। यह दास (रामपाल दास) जो साधना बताएगा, उससे आम के आम और गुठलियों के दाम भी मिलेगें।
इसी विष्णु पुराण में तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 पृष्ठ 213 पर लिखा है कि " (और्व ऋषि सगर राजा को बता रहा है)" हे राजन् श्राद्ध करने वाले पुरूष से पित्तरगण, विश्वदेव गण आदि सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल ! पित्तरगण का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग (शास्त्रअनुकूल भक्ति) है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्व ज्ञान अनुसार शास्त्रविधि अनुसार साधक जन) को अवश्य बुलाए यदि श्राद्ध में एक हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों उनके सामने एक योगी (शास्त्रअनुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा यजमान का भी उद्धार कर देता है। (पित्तरों का उद्धार का अर्थ है कि पित्तरों की योनि छूटकर मानव शरीर मिलेगा। यजमान तथा ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनको सत्य साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी बनाएगा) पेश है प्रमाण के लिए श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 की फोटोकॉपी :- अ० १५]
* तीसरा अंश १५३
हे भूपाल। पितृगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है, इसलिये श्राद्धमें योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है॥ ५५ ॥ हे राजन् । यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥ ५६ ॥
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pradeepdasblog · 2 months
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* अन्य उदाहरण:-
लेखक (रामपाल दास) द्वारा श्राद्ध भ्रम खण्डन" "
"सत्य कथा"
मेरे पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी गाँव-बड़ा पैतावास, तहसील-चरखी दादरी, जिला-भिवानी (प्रान्त-हरियाणा) के निवासी थे जो लगभग सोलह वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए अचानक घर त्याग कर निकल गए। प्रतिदिन पहनने वाले वस्त्रों को अपने ही खेतों के निकट घने जंगल में किसी मृत पशु की अस्थियों के पास डाल गए। शाम को घर न पहुँचने के कारण घर वालों ने जंगल में तलाश की। रात्रि का समय था। कपडे पहचान कर दुःखी मन से पशु की अस्थियों को बच्चे की अस्थियाँ जान कर उठा लाए तथा यह सोचा कि बच्चा जंगल में चला गया, किसी हिंसक जानवर ने खा लिया। अन्तिम संस्कार कर दिया। सर्व क्रियाएँ की, तेरहवीं बरसौदी (वर्षी) आदि की तथा श्राद्ध भी निकालते रहे।
लगभग 104 वर्ष की आयु प्राप्त होने के उपरान्त स्वामी जी अचानक अपने गाँव बड़ा पैंतावास जिला भिवानी, तहसील-चरखी दादरी, हरियाणा में पहुँच गए। स्वामी जी का बचपन का नाम श्री हरिद्वारी जी था तथा पवित्र ब्राह्मण में जन्म था। मुझ दास को पता चला तो में भी दर्शनार्थ पहुँच गया। स्वामी जी की भाभी जी जो लगभग 92 वर्ष की आयु की थी। मैंने उस वृद्धा से पूछा कि हमारे गुरु जी के घर त्याग जाने के उपरान्त क्या जब कभी फसल अच्छी नहीं होती या कोई घर का सदस्य बीमार हो जाता तो अपने पुरोहित (गुरु जी) से कारण पूछते तो वह कहा करता कि हरद्वारी पित्तर बना है, वह तुम्हें दुःखी कर रहा है।
श्राद्धों के निकालने में कोई अशुद्धि रही है। अब की बार सर्व क्रिया मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा। पहले मुझे समय नहीं मिला था क्योंकि एक ही दिन में कई जगह श्राद्ध क्रियाएँ करने जाना पड़ा। इसलिए बच्चे को भेजा था। तब तक कुछ भेंट चढ़ाओ ताकि उसे शान्त किया जाए। तब उसे 21 या 51 रूपये जो भी कहता था, डरते भेंट करते थे। फिर श्राद्धों के समय गुरु जी स्वयं श्राद्ध करते थे। तब मैंने कहा माता जी अब तो छोड़ दो इस गीता जी विरुद्ध साधना को, नहीं तो आप भी प्रेत बनोगी।
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 सुनाया। तब वह वृद्धा कहने लगी गीता जी मैं भी पढती हूँ। दास ने कहा आपने पढ़ा है, समझा नहीं। आगे से तो बन्द कर दो इस साधना को। वृद्धा ने उत्तर दिया न भाई, कैसे छोड़ दें श्राद्ध निकालना, यह तो सदियों पुरानी (लाग) परम्परा है। हे पाठको! यह दोष भोली आत्माओं का नहीं है। यह दोष मूर्ख गुरुओं (नीम हकीमों) का है जिन्होंने अपने पवित्र शास्त्रों को समझे बिना मनमाना आचरण (पूजा का मार्ग) बता दिया। जिस कारण न तो कोई कार्य सिद्ध होता है, न परमगति तथा न कोई सुख ही प्राप्त होता है। (प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24) शंका
प्रश्न 44: यदि किसी के माता-पिता भूखे हों, वे दिखाई देकर कहें तो वह पुत्र नहीं जो उनकी इच्छा पूरी न करे। *
उत्तर शंका समाधान यदि किसी का बच्चा कुएं में गिरा हो वह तो चिल्लाएगा कि मुझे बचा लो। पिता जी आ जाओ। मैं मर रहा हूँ। वह पिता मूर्ख होगा जो भावुक होकर कूएं में छलाँग लगाकर बच्चे को बचाने की कोशिश करके स्वयं भी डूबकर मर जाएगा। बच्चे को भी नही बचा पाएगा। उसको चाहिए कि लम्बी रस्सी का प्रबन्ध करे। फिर उस कुएं में छोड़े। बच्चा उसे पकड़ ले। फिर बाहर खींचकर बच्चे को कुएं से निकाले।
इसी प्रकार पूर्वज तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) करके पित्तर बन चुके हैं। संतान को भी पित्तर बनाने के लिए पुकार रहे हैं। तत्वज्ञान को समझकर अपना कल्याण करवाएँ तथा मुझ दास (रामपाल दास) के पास परमेश्वर कबीर बंदी छोड़ जी की प्रदान की हुई वह विधि है जो साधक का तो कल्याण करेगी ही, उसके पित्तरों की भी पित्तर योनि छूटकर मानव जन्म प्राप्त होगा तथा भक्ति युग में जन्म होकर सत्य भक्ति करके एक या दो जन्म में पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगें।
* विचार करें: जैसा कि उपरोक्त रूची ऋषि की कथा में पित्तर डर रहे हैं कि यदि हमारे श्राद्ध नहीं किए गए तो हम पतन को प्राप्त होगें अर्थात् हमारा पतन (मृत्यु) हो जाएगा। अब उनको पित्तर योनि जो अत्यंत कष्टमय है, अच्छी लग रही है। उसे त्यागना नहीं चाह रहे।
यह तो वही कहानी वाली बात है कि "एक समय एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म का ज्ञान हुआ। उसने अपने पुत्रों को बताया कि मेरा अगला जन्म अमूक व्यक्ति के घर एक सूअरी से होगा। मैं सूअर का जन्म पाऊंगा। उस सूअरी के गले में गांठ है। यह उसकी पहचान है। उसके उदर से मेरा जन्म होगा। मेरी पहचान यह होगी कि मेरे सिर पर गांठ होगी जो दूर से दिखाई देगी। मेरे बच्चो ! उस व्यक्ति से मुझे मोल ले लेना तथा मुझे मार देना, मेरी गति कर देना।
बच्चों ने कहा बहुत अच्छा पिता जी। ऋषि ने फिर आँखों में पानी भरकर कहा कि बच्चो! कहीं लालचवश मुझे मोल न लो और मुझे तुम मारो नहीं, यह कार्य तुम अवश्य करना, नहीं तो मैं सूअर योनि में महाकष्ट उठाऊंगा। बच्चों ने पूर्ण विश्वास दिलाया।
उसके पश्चात् कुछ दिनों में उस ऋषि का देहांत हो गया। उसी व्यक्ति के घर पर उसी गले में गांठ वाली सूअरी के वहीं सिर पर गांठ वाला बच्चा भी अन्य बच्चों के साथ उत्पन्न हुआ। उस ऋषि के बच्चों ने वह सूअरी का बच्चा मोल ले लिया। तब उसे मारने लगे। उसी समय वह बच्चा बोला, बेटा! मुझे मत मारो। मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या मिलेगा?
तब उस ऋषि के पूर्व जन्म के बेटों ने कहा, पिता जी! आपने ही तो कहा था। तब वह सूअर के बच्चे रूप में ऋषि बोला कि मैं आपके सामने हाथ जोड़ता हूँ। मुझे मत मारो, मेरे भाईयों (अन्य सूअर के बच्चों) के साथ मेरा दिल लगा है। मुझे बख्श दो। बच्चों ने वह बच्चा छोड़ दिया, मारा नहीं।
इस प्रकार यह जीव जिस भी योनि में उत्पन्न हो जाता है, उसे त्यागना नहीं चाहता। जबकि यह शरीर एक दिन सर्व का जाएगा। इसलिए भावुकता में न बहकर विवेक से कार्य करना चाहिए। यह दास (रामपाल दास) जो साधना बताएगा, उससे आम के आम और गुठलियों के दाम भी मिलेगें।
इसी विष्णु पुराण में तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 पृष्ठ 213 पर लिखा है कि " (और्व ऋषि सगर राजा को बता रहा है)" हे राजन् श्राद्ध करने वाले पुरूष से पित्तरगण, विश्वदेव गण आदि सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल ! पित्तरगण का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग (शास्त्रअनुकूल भक्ति) है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्व ज्ञान अनुसार शास्त्रविधि अनुसार साधक जन) को अवश्य बुलाए यदि श्राद्ध में एक हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों उनके सामने एक योगी (शास्त्रअनुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा यजमान का भी उद्धार कर देता है। (पित्तरों का उद्धार का अर्थ है कि पित्तरों की योनि छूटकर मानव शरीर मिलेगा। यजमान तथा ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनको सत्य साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी बनाएगा) पेश है प्रमाण के लिए श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 की फोटोकॉपी :- अ० १५]
* तीसरा अंश १५३
हे भूपाल। पितृगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है, इसलिये श्राद्धमें योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है॥ ५५ ॥ हे राजन् । यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥ ५६ ॥
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nandedlive · 1 year
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वैद्यकीय ईच्छापत्र अर्थात मृत्युपत्र
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आज दिनांक 8मार्च 2017 रोजी मी माधव संताजी अटकोरे वय 72 वर्ष,राहणार तथागत नगर,तरोडा खुर्द,मालेगाव रोडवर नादेड माझे वैद्यकीय इच्छापत्र अर्थात म्रुत्युपत्र स्वखुशीने ,कोणताही दबाव अथवा नशापाणी न घेता लिहून देतो कि,मी जर कोणत्याही अपघाताने किवा शारीरिक व्याधीने मेन्दूम्रत झालो तर मला दुरूस्त करण्यासाठी,वाचविण्याच्या ईच्छेपोटी उपचारादरम्यान पैसे खर्च करू नका कारण मेन्दूम्रत व्यक्ती दुरूस्त होण्याची शक्यताच नसते . अशा जीवनाच्या अन्तिम प्रसंगी दुख अथवा विलाप न करता स्वताच्या मनावर ताबा ठेवा.आणि विनाकारण नातेवाईक आणि मित्राना बोलावून नाहक त्रास देऊ नका.कारण अशा अवस्थेत जगण्याची शक्यताच नसते हे समजून घेऊन येणार्या प्रसंगाचा सामना करण्याचे साहस दाखवा. मेन्दूम्रत अवस्थेत डॉक्टरांच्या सल्ल्यानुसार माझे अवयव काढून घेण्याची सुचना डॉक्टराना द्या ज्यामुळे कोणत्यातरी गरजू रुग्णाचा जीव वाचविण्याच्या उपयोगी पडतील. मेन्दूम्रत अथवा नैसर्गिक म्रुत्युनतर माझे अवयव दान करण्यासाठी मी हे वचनपत्र भरून देतील आहे त्याचा आपण आदर करून माझ्यावरील प्रेम दाखवावे. म्रुत्युनतर मला गरम पाण्याने आन्घोळ घालू नका ,स्मशानभूमीत नेण्यासाठी तिरडी सजवू नका ,नातेवाईकांना बोलावून त्रास देऊ नका.कोणताही विधी करू नका कारण तुम्ही काहीही केले तरी मी जीवन्त होणार नाही हे सत्य मनाला पटवून द्या. माझ्या म्रुत्युनतर संपत्तीचे वाटप हा मुद्दाच नाही कारण माझ्या नावाने संपत्ती जमा करण्यासाठी मी कधीच प्रयत्न केला नाही.खुप कष्ट केले .ईमान कधीच विकले नाही.पत्रकारीता करताना पैसे हडप करण्याचे अनेक प्रसंग आले परंतु कोणाला जाचक ठरून पैसे कमविणे मला कधीच पटले नाही म्हणून मी आज जरी कफल्लक असलो तरी मनाने पुर्ण पणे समाधानी आहे . जगताना कमी गरजा ठेवून समाधानाने जगलो.जीवनात लबाडी केलीच असेल तर ती फक्त उपाशीपोटी असतानाच केली . मुलांनाही असेच ईमानदारीने जगण्याचा सस्कार दिला .म्हणून माझी मुले आज अतिशय चांगल्या पध्दतीने जीवन जगत आहे त्याचेही समाधान आहे. मी जर वयाच्या 72 वर्षात मरण पावलो तर एकच काम करा माझ्या वया इतके वृक्षारोपण करून त्याची जोपासना करा.झाडे मोठी होतील. ती फुले ,फळे ,सावली देतील आणि पर्यावरणाला सहाय्यक बनतील .माझी पुण्य तिथी वगैरे करण्यासाठी पैसे खर्च करू नका त्यामूळे काहीही साध्य होणार नाही. मी हे वैद्यकीय इच्छापत्र पुर्ण समाधानाने लिहून देत आहे .यासाठी दोन साक्षीदार देत आहे .एक भिमराव ईरबाजी तरटे आणि दुसरे लक्ष्मण चोखाजी जाधव ….   Read the full article
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123soni · 1 year
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#GodMorningWednesday भक्त को चाहिए कि भक्ति-साधना तथा मर्यादा का पालन अन्तिम श्वांस तक करे।जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान में या तो मार देता है या स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाता है।सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए अवश्य पढ़ें आध्यात्मिक पुस्तक ज्ञान गंगा
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indrabalakhanna · 1 year
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Watch "सतभक्ति ना करने वालों के साथ धर्मराज के दरबार में क्या होता है? | Episode: 2641 | Sant Rampal Ji" on YouTube
#FridayMotivation
#FridayThoughts
#FridayFeeling
#KabirIsGod
#WorldSaviorSaintRampalJiMaharaj
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#SantRampalJiMaharaj
#सत्संग_से_ही_सुख_है
ऐसा सतगुरु हम मिल्या, तेजपुंज के अंग🥀 झिलमिल नूर जहूर है नर रूप श्वेत है रंग🥀🥀 संत रामपाल जी महाराज के रूप में स्वयं पूर्ण परमेश्वर कबीर धरती पर विश्व की सभी आत्माओं का उद्धार करने के लिए 🥀परमात्मा स्वयं सत्य तत्व ज्ञान रूपी अध्यात्म ज्ञान को हमें सत्संग के माध्यम से प्रदान कर रहे हैं 🙏
"सेवक होए के उतरे इस पृथ्वी के माहिं 🥀जीव उधारन जगतगुरु बार-बार बलि जाहिं"🥀🙏अति दास और अधिनि भक्ति भाव भक्ति मार्ग का प्रथम नियम और अन्तिम नियम है🥀🙏
अनंत कोटि ब्रह्मांड का एक रत्ती नहीं भार🥀सतगुरु पुरुष कबीर है कुल के सृजनहार🥀🥀
"गैबी ख्याल विशाल सतगुरु अचल दिगंबर थीर है🥀भक्ति हेत काया धर आये अविगत सत्य कबीर है🥀🥀 #सच्चा_सतगुरु_कौन
संत रामपाल जी महाराज ही एकमात्र सच्चे सतगुरु हैं जो शास्त्रों के बताए अनुसार तीन समय की भक्ति विधि एवं तीन प्रकार के मंत्र जाप अपने साधकों को देते हैं जिससे, दैहिक दैविक भौतिक तीनों प्रकार के पाप और ताप शांत हो होते हैं भक्ति करने के लिए उत्तम और उचित सुख की प्राप्ति होती है तथा साधक मोक्ष को प्राप्त होता है मर्यादा में रहकर सत भक्ति करने से ही सफलता प्राप्त होती है 🙏उदाहरण_ राजा राम की पत्नी सीता को मर्यादा का पालन ना करने के कारण कष्ट हुए🙏
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sujit-kumar · 1 year
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कबीर बड़ा या कृष्ण Part 99
‘‘अर्जुन सहित पाण्डवों को युद्ध में की गई हिंसा के पाप लगे’’
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पाण्डवों को युद्ध की हत्याओं का पाप लगा। आगे सुन और सुनाता हूँ:-
दुर्वासा ऋषि के शाप वश यादव कुल आपस में लड़कर प्रभास क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे नष्ट हो गया। श्री कृष्ण जी भगवान को एक शिकारी ने पैर में विषाक्त तीर मार कर घायल कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने उस शिकारी को बताया कि आप त्रेता युग में सुग्रीव के बड़े भाई बाली थे तथा मैं रामचन्द्र था। आप को मैंने धोखा करके वृक्ष की ओट लेकर मारा था। आज आपने वह बदला (प्रतिशोध) चुकाया है। पाँचों पाण्डवों को पता चला कि यादव आपस में लड़ मरे हैं वे द्वारिका पहुँचे। वहाँ गए जहाँ पर श्री कृष्ण जी तीर से घायल तड़फ रहे थे। पाँचों पाण्डवों के धार्मिक गुरू श्री कृष्ण जी थे। श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों से कहा! आप मेरे अतिप्रिय हो। मेरा अन्त समय आ चुका है। मैं कुछ ही समय का मेहमान हूँ। मैं आपको अन्तिम उपदेश देना चाहता हूँ कृप्या ध्यान पूर्वक सुनों। यह कह कर श्री कृष्ण जी ने कहा (1) आप द्वारिका की स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ ले जाना। यहाँ कोई नर यादव शेष नहीं बचा है (2) आप अति शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय चले जाओ वहाँ अपने शरीर के नष्ट होने तक तपस्या करते रहो। इस प्रकार हिमालय की बर्फ में गल कर नष्ट हो जाओ। युधिष्ठर ने पूछा हे भगवन्! हे गुरूदेव श्री कृष्ण! क्या हम हिमालय में गल कर मरने का कारण जान सकते हैं? यदि आप उचित समझें तो बताने की कृपा करें। श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठर! आप ने युद्ध में जो प्राणियों की हिंसा करके पाप किया है। उस पाप का प्रायश्चित् करने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इस प्रकार तपस्या करके प्राण त्यागने से आप के महाभारत युद्ध में किए पाप नष्ट हो जाएँगे।
कबीर जी बोले हे धर्मदास! श्री कृष्ण जी के श्री मुख से उपरोक्त वचन सुन कर अर्जुन आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा श्री कृष्ण जी आज फिर कह रहे हैं कि युद्ध में किए पाप नष्ट इस विधि से होगें। अर्जुन अपने आपको नहीं रोक सका। उसने श्री कृष्ण जी से कहा हे भगवन्! क्या मैं आप से अपनी शंका का समाधान करा सकता हूँ। वैसे तो गुरूदेव! यह मेरी गुस्ताखी है, क्षमा करना क्योंकि आप ऐसी स्थिति में हैं कि आप से ऐसी-वैसी बातें करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि प्रभु! मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो यह शंका रूपी कांटा आयु पर्यन्त खटकता रहेगा। मैं चैन से जी नहीं सकूंगा। श्री कुष्ण ने कहा हे अर्जून! तू जो पूछना चाहता है निःसंकोच होकर पूछ। मैं अन्तिम स्वांस गिन रहा हूँ जो कहूंगा सत्य कहूंगा। अर्जुन बोला हे श्री कृष्ण! आपने श्री मद्भगवत् गीता का ज्ञान देते समय कहा था कि अर्जुन! तू युद्ध कर तुझे युद्ध में मारे जाने वालों का पाप नहीं लगेगा तू केवल निमित्त मात्र बन जा ये सर्व योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं (प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 32-33) आपने यह भी कहा कि अर्जुन युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को चला जाएगा, यदि युद्ध जीत गया तो पृथ्वी के राज्य का सुख भोगेगा। तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। (प्रमाण श्री मदभगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 37) तू युद्ध के लिए खड़ा हो जो जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर युद्ध कर इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 38)
जिस समय बड़े भईया को बुरे-2 स्वपन आने लगे हम आप के पास कष्ट निवारण के लिए विधि जानने गए तो आपने बताया कि जो युद्ध में बन्धुघात अर्थात् अपने नातियों (राजाओं, सैनिकों, चाचा, भतीजा आदि) की हत्या का पाप दुःखी कर रहा है। मैं (अर्जुन) उस समय भी आश्चर्य में पड़ गया था कि भगवन् गीता ज्ञान में कह रहे थे कि तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा युद्ध करो। आज कह रहे है कि युद्ध में की गई हिंसा का पाप दुःखी कर रहा है। आपने पाप नाश होने का समाधान बताया ‘‘अश्वमेघ यज्ञ’’ करना जिसमें करोड़ों रूपये का खर्च हुआ। उस समय मैं अपने मन को मार कर यह सोच कर चुप रहा कि यदि मैं आप (श्री कृष्ण जी) से वाद-विवाद करूँगा कि आप तो कह रहे थे तुम्हें युद्ध में होने वाली हत्याओं का कोई पाप नहीं लगेगा। आज कह रहे हो तुम्हें महाभारत युद्ध में की हत्याओं का पाप दुःख दे रहा है। कहाँ गया आप का वह गीता वाला ज्ञान। किसलिए हमारे साथ धोखा किया, गुरू होकर विश्वासघात किया। तो बड़े भईया (युधिष्ठर जी) यह न सोच लें कि मेरी चिकित्सा में धन लगना है।
इस कारण अर्जुन वाद-विवाद कर रहा है। यह (अर्जुन) मेरे कष्ट निवारण में होने वाले खर्च के कारण विवाद कर रहा है यह नहीं चाहता कि मैं (युधिष्ठर) कष्ट मुक्त हो जाऊं। अर्जुन को भाई के जीवन से धन अधिक प्रिय है। उपरोक्त विचारों को ध्यान में रखकर मैंने सोचा था कि यदि युधिष्ठर भईया को थोड़ा सा भी यह आभास हो गया कि अर्जुन! इस दृष्टि कोण से विवाद कर रहा है तो भईया! अपना समाधान नहीं कराएगा। आजीवन कष्ट को गले लगाए रहेगा। हे कृष्ण! आप के कहे अनुसार हमने यज्ञ किया। आज फिर आप कह रहे हो कि तुम्हें युद्ध की हत्याओं का पाप लगा है उसे नष्ट करने के लिए शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय में तपस्या करके गल मरो। आपने हमारे साथ यह विश्वास घात किसलिए किया? यदि आप जैसे सम्बन्धी व गुरू हों तो शत्रुओं की आवश्यकता ही नहीं। हे कृष्ण हमारे हाथ में तो एक भी लड्डू नहीं रहा न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग गए न पृथ्वी के राज्य का सुख भोग सके। क्योंकि आप कह रहे हो कि राज्य त्याग कर हिमालय में गल मरो।
आँसू टपकाते हुए अर्जुन के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर युधिष्ठर बोला, अर्जुन! जिस परिस्थिति में भगवान है। इस समय ये शब्द बोलना शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी बोले हे अर्जुन! सुन मैं आप को सत्य-2 बताता हूँ। गीता के ज्ञान में मैंने क्या कहा था मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। यह जो कुछ भी हुआ है यह होना था इसे टालना मेरे वश नहीं था। कोई अन्य शक्ति है जो आप और हम को कठपुतली की तरह नचा रही है। वह तेरे वश न मेरे वश। परन्तु जो मैं आपको हिमालय में तपस्या करके शरीर अन्त करने की राय दे रहा हूँ। यह आप को लाभदायक है। आप मेरे इस वचन का पालन अवश्य करना। यह कह कर श्री कृष्ण जी शरीर त्याग गए। जहाँ पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया। उस स्थान पर यादगार रूप में श्री कृष्ण जी के नाम पर द्वारिका में द्वारिकाधीश मन्दिर बना है।
श्री कृष्ण ने पाण्डवों से कहा था कि मेरे शरीर का संस्कार करके राख तथा अधजली अस्थियों को एक काष्ठ के संदूक (ठवग) में डालकर उसको पूरी तरह से बंद करके यमुना में प्रवाह कर देना। पाण्डवों ने वैसा ही किया। वह संदूक बहता हुआ समुद्र में उस स्थान पर चला गया जिस स्थान पर उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ का मंदिर बना है। एक समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था जो श्री कृष्ण जी का परम भक्त था। स्वपन में श्री कृष्ण जी ने बताया कि एक काष्ठ के संदूक में मेरे कृष्ण वाले शरीर की अस्थियाँ हैं। उस स्थान पर वह संदूक बहकर आ चुका है। उसी स्थान पर उनको जमीन में दबाकर एक मंदिर बनवा दें। राजा ने स्वपन अपनी धार्मिक पत्नी तथा मंत्रियों के साथ साझा किया और उस स्थान पर गए तो वास्तव में एक लकड़ी का संदूक मिला। उसको जमीन में दबाकर जगन्नाथ नाम से मंदिर बनवाया। संपूर्ण जा��कारी पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर बड़ा या कृष्ण’’ में पृष्ठ 389 पर।
धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर जी ने बताया। हे धर्मदास! सर्व (छप्पन करोड़) यादव का जो आपस में लड़कर मर गए थे, अन्तिम संस्कार करके अर्जुन को द्वारिका में छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ चले गए। अकेला अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों तथा श्री कृष्ण जी की गोपियों को लेकर आ रहे थे। रास्ते में जंगली लोगों ने अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के पास अपना गांडीव धनुष भी था जिस से महाभारत का युद्ध जीता था। परन्तु उस समय अर्जुन से वही धनुष नहीं चला। अपने आप को शक्तिहीन जानकर अर्जुन कायरों की तरह सब देखता रहा। वे जंगली व्यक्ति स्त्रियों के गहने लूट ले गए तथा कुछ स्त्रियों को भी अपने साथ ले गए। शेष स्त्रियों को साथ लेकर अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान किया तथा मन में विचार किया कि श्री कृष्ण जी महाधोखेबाज (विश्वासघाती) था। जिस समय मेरे से युद्ध कराना था तो शक्ति प्रदान कर दी। उसी धनुष से मैंने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। आज मेरा बल छीन लिया, मैं कायरों की तरह पिटता रहा मेरे से वही धनुष नहीं चला। कबीर परमेश्वर जी ने बताया धर्मदास! श्री कृष्ण जी छलिया नहीं था। वह सर्व कपट काल ब्रह्म ने किया है जो ब्रह्मा-विष्णु व शिव का पिता है। जिसके समक्ष श्री विष्णु (कृष्ण) तथा श्री शिव आदि की कुछ पेश नहीं चलती।
उपरोक्त कथा सुनकर धर्मदास जी ने प्रश्न किया:- धर्मदास ने कहा हे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी! आप ने तो मेरी आँखे खोल दी हे प्रभु! हिमालय में तपस्या कर युधिष्ठर का तो केवल एक पैर का पंजा ही बर्फ से नष्ट हुआ तथा अन्य के शरीर गल गए थे। सुना है वे सर्व पापमुक्त होकर स्वर्ग चले गए?
उत्तरः- परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! हिमालय में जो तप पाण्डवों ने किया वह शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) होने के कारण व्यर्थ प्रयत्न था। (प्रमाण-गीता अध्याय 16 श्लोक 23 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल कल्पित घोर तप को तपते हैं वे शरीरस्थ परमात्मा को कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को नष्ट हुए जान।) क्योंकि जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह गीता जी व वेदों में वर्णित नहीं है अपितु ऐसे शरीर को पीड़ा देकर साधना करना व्यर्थ बताया है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्रा 15 में कहा है ओम् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-2 कर, विशेष कसक के साथ कर मनुष्य जन्म का मुख्य कत्र्तव्य जान के कर। यही प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 7 व 13 में कहा है कि मेरा तो केवल ॐ नाम है इस का जाप अन्तिम सांस तक करने से लाभ होता है इसलिए अर्जुन! तू युद्ध भी कर तथा स्मरण (भक्ति जाप) भी कर अतः हे धर्मदास
जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह व्यर्थ सिद्ध हुई।
गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 में कहा है कि जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रयों को रोककर अर्थात् हठ योग द्वारा एक स्थान पर बैठ कर या खड़ा होकर साधना करता है। वह मन से इन्द्रियों का चिन्तन करता रहता है। जैसे सर्दी लगी तो शरीर की चिन्ता, सर्दी का चिन्तन, भूख लगी तो भूख का चिन्तन आदि होता रहता है। वह हठ से तप करने वाला मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है। कार्य न करने अर्थात् एक स्थान पर बैठ या खड़ा होकर साधना करने की अपेक्षा कर्म करना तथा भक्ति भी करना श्रेष्ठ है। यदि कर्म नहीं करेगा तो तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
विशेष विचार:- श्री मद्भगवत गीता में ज्ञान दो प्रकार का है। एक तो वेदों वाला तथा दूसरा काल ब्रह्म द्वारा सुनाया लोक वेद वाला। यह ज्ञान (गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 वाला ज्ञान) वेदों वाला ज्ञान ब्रह्म काल ने बताया है। श्री कृष्ण जी द्वारा भी काल ब्रह्म ने पाण्डवों को लोक वेद सुनाया जिस से तप हो जाता है। तप से फिर कभी राजा बन जाता है कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।
हे धर्मदास! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर की आत्माऐं निकल चुकी हैं सूक्ष्म शरीर युक्त आकाश को जाने लगी। तब युधिष्ठर ने भी अपना शरीर त्याग दिया तथा सूक्ष्म शरीर युक्त युधिष्ठर कर्मों के संस्कार वश अपने पिता धर्मराज के लोक में गया। धर्मराज ने अपने पुत्र को बहुत प्यार किया तथा उसको रहने का मकान बताया। कुछ समय पश्चात् काल ब्रह्म ने युधिष्ठर में प्रेरणा की। उसे अपने भाईयों व पत्नी द्रोपदी तथा माता कुन्ती की याद सताने लगी। युधिष्ठर ने अपने पिता धर्मराज से कहा हे धर्मराज! मुझे मेरे परिजनों से मिलाईए मुझे उनकी बहुत याद सता रही है। धर्मराज ने कहा युधिष्ठर! वह तेरा परिवार नहीं था। तेरा परिवार तो यह है। तू मेरा पुत्र है। अर्जुन-स्वर्ग के राजा इन्द्र का पुत्र है, भीम-पवन देव का पुत्र है, नकुल-नासत्य का पुत्र है तथा सहदेव-दस्र का पुत्र है। {नासत्य तथा दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार हैं जो अश्व रूप धारी सूर्य देव तथा अश्वी (घोड़ी) रूप धारी सूर्य की पत्नी संज्ञा के सम्भोग से उत्पन्न हुए थे। सूर्य
को पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया वह उस घोड़े से अभिमुख रही। कामवासना वश घोड़ा रूपधारी सूर्य घोड़ी रूपधारी अपनी पत्नी (विश्वकर्मा की पुत्री) के मुख की ओर चढ़कर सम्भोग करने के कारण वीर्य का कुछ अंश घोड़ी रूपधारी सूर्य की पत्नी के पेट में मुख द्वारा प्रवेश कर गया जिससे दो लड़कों (नासत्य तथा दस्र) का जन्म घोड़ी रूपी सूर्य पत्नी के मुख से हुआ जिस कारण ये दोनों बच्चे अश्विनी कुमार कहलाए। यह पुराण कथा है।}
धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठर को बताया कि आप सब का वहाँ पृथ्वी लोक में इतना ही संयोग था। वह समाप्त हो चुका है। वे सर्व युद्ध में किए पाप कर्मों तथा अन्य जीवन में किए पाप कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में डाल रखे हैं। आप के पुण्य अधिक है इसलिए आप नरक में नहीं डाल रखे हैं। अतः आप उन से नहीं मिल सकते काल ब्रह्म कि प्रबल प्रेरणा वश होकर युधिष्ठर ने उन सर्व (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) को मिलने का हठ किया। धर्मराज ने एक यमदूत से कहा आप युधिष्ठर को इसके परिवार से मिला कर शीघ्र लौटा लाना। यमदूत युधिष्ठर को लेकर नरक में प्रवेश हुआ। वहाँ पर आत्माऐं हा-हाकार मचा रहे थे, कह रहे थे, हे युधिष्ठर हमें नरक से निकलवा दो। मैं अर्जुन हूँ ,कोई कह रहा था, मैं भीम हूँ, मैं नकुल, मैं सहदेव हूँ, मैं कुन्ती, मैं द्रोपदी हूँ। इतने में यमदूत ने कहा हे युधिष्ठर अब आप लौट चलिए। युधिष्ठर ने कहा मैं भी अपने परिवार जनों के साथ यहीं नरक में ही रहूँगा। तब धर्मराज ने आवाज लगाई युधिष्ठर यहाँ आओ मैं तेरे को एक युक्ति बताता हूँ। यह आवाज सुन कर युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया।
धर्मराज ने युधिष्ठर को समझाया कि बेटा आपने एक झूठ बोला था कि अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या हाथी। जबकि आप को पता था कि हाथी मरा है। उस झूठ बोलने के पाप का कर्मदण्ड देने के लिए आप को कुछ समय इसी बहाने नरक में रखना पड़ा नहीं तो वह युक्ति मैं पहले ही आप को बता देता। युधिष्ठर ने कहा कृप्या आप वह विधि ��ताईए जिस से मेरे परिजन नरक से निकल सकें। धर्मराज ने कहा उनको एक शर्त पर नरक से निकाला जा सकता है कि आप अपने कुछ पुण्य उनको संकल्प कर दो। युधिष्ठर ने कहा मुझे स्वीकार है। यह कह कर युधिष्ठर अपने आधे पुण्य उन छः के निमित्त संकल्प कर दिए। वे छःओं नरक से बाहर आकर धर्मराज के पास जहाँ युधिष्ठर खड़ा था उपस्थित हो गए। उसी समय इन्द्र देव आया अपने पुत्र अर्जुन को साथ लेकर चला गया, पवन देवता आया अपने पुत्र भीम को साथ लेकर चला गया। इसी प्रकार अश्विनी कुमार (नासत्य, दस्र) आए नकुल व सहदेव को लेकर चले गए। कुन्ती स्वर्ग में चली गई तथा देखते-2 द्रोपदी ने दुर्गा रूप धारण किया तथा आकाश को उड़ चली कुछ ही समय में सर्व की आँखों से ओझल हो गई। वहाँ अकेला युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास रह गया। परमेश्वर कबीर जी ने अपने शिष्य धर्मदास जी को उपरोक्त कथा सुनाई तत्पश्चात् इस सर्व काल के जाल को समझाया।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया हे धर्मदास! काल ब्रह्मकी प्रेरणा से इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी कर्म करते हैं। जैसा आपने सुना युधिष्ठर पुत्र धर्मराज, अर्जुन पुत्र इन्द्र, भीम पुत्र पवन देव, नकुल पुत्र नासत्य तथा सहदेव पुत्र दस्र थे। द्रोपदी शापवश दुर्गा की अवतार थी जो अपना कर्म भोगने आई थी तथा कुन्ती भी दुर्गा लोक की पुण्यात्मा थी। ये सर्व काल प्रेरणा से पृथ्वी पर एक फिल्म (चलचित्र) बनाने गए थे। जैसे एक करोड़पति का पुत्र किसी फिल्म में रिक्शा चालक का अभिनय करता है। फिल्म निर्माण के पश्चात् अपनी 20 लाख की कार गाड़ी में बैठ कर आनन्द करता है। भोले-भाले सिनेमा दर्शक उसे रिक्शा चालक मान कर उस पर दया करते हैं। उसके बनावटी अभिनय को देखने के लिए अपना बहुमूल्य समय तथा धन नष्ट करते हैं। ठीक इसी प्रकार उपरोक्त पात्रों (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) द्वारा बनाई फिल्म महाभारत के इतिहास को पढ़-2 कर पृथ्वी लोक के प्राणी अपना समय व्यर्थ करते हैं। तत्त्वज्ञान को न सुनकर मानव शरीर को व्यर्थ कर जाते हैं। काल ब्रह्म यही चाहता है कि मेरे अन्तर्गत जितने भी जीव हैं। वे तत्त्वज्ञान से अपरिचित रहे तथा मेरी प्रेरणा से मेरे द्वारा भेजे गुरूओं द्वारा शास्त्रविधि विस्द्ध साधना प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े रहे। काल ब्रह्म की प्रेरणा से तत्त्वज्ञान हीन सन्तजन व ऋषिजन कुछ वेद ज्ञान अधिक लोक वेद के आधार से ही सत्संग वचन श्रद्धालुओं को सुनाते हैं। जिस कारण से साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त न करके काल के जाल में ही रह जाते हैं।
हे धर्मदास! मैं पूर्ण परमात्मा की आज्ञा लेकर तत्त्वज्ञान बताने काल लोक में कलयुग में आया हूँ।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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महामना मदन मोहन मालवीय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता तो थे ही इस युग के आदर्श पुरुष भी थे। वे भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे , ऐसे महान आत्मा के जन्म दिवस पर इनके चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ, नमन - डॉ. चन्दन कुमार यादव (अधिवक्ता), प्रदेश सचिव - जनता दल यूनाइटेड, बिहार
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rabinkhatri · 2 years
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कहाँ साउथ? कहाँ बलिउड? साउथले 'जय भिम' बनाउँछ,बलिउडले 'सूर्यवंशी'। साउथ फिल्ममेकरहरुकाे जस्ताे क्रान्तिकारी चेतना बलिउड फिल्ममेकरहरुसँग कहाँ छ र? आदिवासी-द्रविडहरुकाे भूमि हाे साउथ। पेरियरकाे भूमि हाे। जातिवादविराेधी आत्मसम्मान आन्दाेलनकाे जननी हाे साउथ। याे क्रान्तिकारी चेतनाकाे मूल त्यही आत्मसम्मान आन्दोलन नै त हाे।साउथ फिल्म ईन्डष्ट्री 'जय भिम' जस्ताे समाज, सिस्टम र मानिसहरुकाे अन्तर्मनलाई झकझक्याउने सिनेमा बनाउँछ। बलिउड 'सूर्यवंशी' जस्ताे हावादारी, वकवास र वाहियात सिनेमा बनाउँछ। तर पनि अत्याधिक भारतीयहरु 'सूर्यवंशी'नै हेर्न मन पराउँछन्। जुन दिन अत्याधिक भारतीयहरु 'सूर्यवंशी'लाई छाडेर…जय भिम' हेर्न थाल्छन् र सरहना गर्न थाल्छन्, कस्सम, त्याे दिन भारत बदलिन्छ। राज्यआँतक र पुलिसकाे अन्याय, अत्याचार, क्रुरता र दमनका विरुद्ध सत्य, न्याय, ईमान र मानवताका लागि ढृढ सँघर्ष गर्नुपर्ने सन्देश बाेकेकाे 'जय भिम' याे बर्ष प्रदर्शित फिल्महरुमध्ये मैले हेरेकाे सबैभन्दा उत्कृष्ट फिल्म हाे। अनि समाज/मानिसहरुले आदिवासी-दलितहरुकाे मानवअधिकारकाे सवाललाई लिएर किन जाग्नुपर्ने आवश्यकता छ? फिल्मले यी सबै प्रश्नहरुकाे जवाफ दिन्छ। यस फिल्मले समाज, सिस्टम र मानिसहरुलाई दह्राेसँग झक्झक्याउँछ। पीडितलाई नझुकीकन न्यायका लागि अन्तिम साससम्म लड्ने साहस, हाैसला र अठाेट प्रदान गर्छ।'जय भीम' (2021):- याे फिल्म सत्य घटनामा आधारित छ। यसले भारतका आदिवासी-दलितहरुमाथि गाउँका ठूलाठालु र पुलिसहरुले साँठगाँठ गरेर निर्मम अत्याचार र दमन गर्ने गरेकाे, उनीहरुलाई अमानवीय यातना दिएर उनीहरुले नगरेकाे अपराध कबाेल गर्न लगाई झुठा केसहरुमा फसाएर पुलिसहरुले उनीहरुकाे अपराधिकरण... (at Kathmandu, Nepal) https://www.instagram.com/p/Clty0wSyHCO/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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iskconchd · 2 years
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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप 2.39 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ २.३९ ॥ TRANSLATION यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है । अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो! हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो । PURPORT वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है – विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है । और योग का अर्थ है – इन्द्रियों का निग्रह । अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था । वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् अपने बन्धु-बान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा । दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धान्त तो इन्द्रियतृप्ति था । उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक हैं, क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अन्त हो जाता है । अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा । उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सारे जीव शाश्र्वत प्राणी हैं, वे भूतकाल में प्राणी थे, वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सैम शाश्र्वत आत्मा हैं । हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र) बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक् सत्ता बनी रहती है । भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यन्त विशद् वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोश की शब्दावली में इस विशद् अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है । इस सांख्य का नास्तिक-कपिल के सांख्य-दर्शन से कोई सरोकार नहीं है । इस नास्तिक-कपिल के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति के समक्ष श्रीमद्भागवत में वास्तविक सांख्य-दर्शन पर प्रवचन किया था । उन्होंने स्पष्ट बताया है कि पुरुष या परमेश्र्वर क्रियाशील हैं और वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि कि उत्पत्ति करते हैं । इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है । वेदों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमें आणविक जीवात्माएँ प्रविष्ट कर दीं । ये सारे जीव भौतिक-जगत् में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते रहते हैं और माया के वशीभूत् होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं । इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है । यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अन्तिम पाश है और अनेकानेक जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानी वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है । अर्जुन ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया है – शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम । फलस्वरूप कृष्ण अब उसे बुद्धियोग या कर्मयोग की कार्यविधि बताएँगे जो कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया भक्तियोग है । यह बुद्धियोग अध्याय दस के दसवें श्लोक में वर्णित है जिससे इसे उन भगवान् के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क बताया गया है जो सबके हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, किन्तु ऐसा सम्पर्क भक्ति के बिना सम्भव नहीं है । अतः जो भगवान् की भक्ति या दिव्य प्रेमाभक्ति में या कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, वही भगवान् की विशिष्ट कृपा से बुद्धियोग की यह अवस्था प्राप्त कर पाता है । अतः भगवान् कहते हैं कि जो लोग दिव्य प्रेमवश भक्ति में निर���्तर लगे रहते हैं उन्हें ही वे भ��्ति का विशुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं । इस प्रकार भक्त सरलता से उनके चिदानन्दमय धाम में पहुँच सकते हैं । इस प्रकार इस श्लोक में वर्णित बुद्धियोग भगवान् कृष्ण की भक्ति है और यहाँ पर उल्लिखित सांख्य शब्द का नास्तिक-कपिल द्वारा प्रतिपादित अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । अतः किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यहाँ पर उल्लिखित सांख्य-योग का अनीश्र्वरवादी सांख्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध है । न ही उस समय उसके दर्शन का कोई प्रभाव था, और न कृष्ण ने ऐसी ईश्र्वरविहीन दार्शनिक कल्पना का उल्लेख करने की चिन्ता की । वास्तविक सांख्य-दर्शन का वर्णन भगवान् कपिल द्वारा श्रीमद्भागवत में हुआ है, किन्तु वर्तमान प्रकरणों में उस सांख्य से भी कोई सरोकार नहीं है । यहाँ सांख्य का अर्थ है शरीर तथा आत्मा का वैश्लेषिक अध्ययन । भगवान् कृष्ण ने आत्मा का वैश्लेषिक वर्णन अर्जुन को बुद्धियोग या कर्मयोग तक लाने के लिए किया । अतः भगवान् कृष्ण का सांख्य तथा भागवत में भगवान् कपिल द्वारा वर्णित सांख्य एक ही हैं । ये दोनों भक्तियोग हैं । अतः भगवान् कृष्ण ने कहा है कि केवल अल्पज्ञ ही सांख्य-योग तथा भक्तियोग में भेदभाव मानते हैं (सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः) । निस्सन्देह अनीश्र्वरवादी सांख्य-योग का भक्तियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी बुद्धिहीन व्यक्तियों का दावा है कि भगवद्गीता में अनीश्र्वरवादी सांख्य का ही वर्णन हुआ है । अतः मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि बुद्धियोग का अर्थ कृष्णभावनामृत में, पूर्ण आनन्द तथा भक्ति के ज्ञान में कर्म करना है । जो व्यक्ति भगवान् की तुष्टि के लिए कर्म करता है, चाहे वह कर्म कितना भी कठिन क्यों न हो, वह बुद्धियोग के सिद्धान्त के अनुसार कार्य करता है और दिव्य आनन्द का अनुभव करता है । ऐसी दिव्य व्यस्तता के कारण उसे भगवत्कृपा से स्वतः सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त श्रम किये बिना ही उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाति है । कृष्णभावनामृत कर्म तथा फल प्राप्ति की इच्छा से किये गये कर्म में, विशेषतया पारिवारिक या भौतिक सुख प्राप्त करने की इन्द्रिय तृप्ति के लिए किये गये कर्म में, प्रचुर अन्तर होता है । अतः बुद्धियोग हमारे द्वारा सम्पन्न कार्य का दिव्य गुण है । ----- Srimad Bhagavad Gita As It Is 2.39 eṣā te ’bhihitā sāṅkhye buddhir yoge tv imāṁ śṛṇu buddhyā yukto yayā pārtha karma-bandhaṁ prahāsyasi TRANSLATION Thus far I have described this knowledge to you through analytical study. Now listen as I explain it in terms of working without fruitive results. O son of Pṛthā, when you act in such knowledge you can free yourself from the bondage of works. PURPORT According to the Nirukti, or the Vedic dictionary, saṅkhyā means that which describes things in detail, and sāṅkhya refers to that philosophy which describes the real nature of the soul. And yoga involves controlling the senses. Arjuna’s proposal not to fight was based on sense gratification. Forgetting his prime duty, he wanted to cease fighting, because he thought that by not killing his relatives and kinsmen he would be happier than by enjoying the kingdom after conquering his cousins and brothers, the sons of Dhṛtarāṣṭra. In both ways, the basic principles were for sense gratification. Happiness derived from conquering them and happiness derived by seeing kinsmen alive are both on the basis of personal sense gratification, even at a sacrifice of wisdom and duty. Kṛṣṇa, therefore, wanted to explain to Arjuna that by killing the body of his grandfather he would not be killing the soul proper, and He explained that all individual persons, including the Lord Himself, are eternal individuals; they were individuals in the past, they are individuals in the present, and they will continue to remain individuals in the future, because all of us are individual souls eternally. We simply change our bodily dress in different manners, but actually we keep our individuality even after liberation from the bondage of material dress. An analytical study of the soul and the body has been very graphically explained by Lord Kṛṣṇa. And this descriptive knowledge of the soul and the body from different angles of vision has been described here as Sāṅkhya, in terms of the Nirukti dictionary. This Sāṅkhya has nothing to do with the Sāṅkhya philosophy of the atheist Kapila. Long before the imposter Kapila’s Sāṅkhya, the Sāṅkhya philosophy was expounded in the Śrīmad-Bhāgavatam by the true Lord Kapila, the incarnation of Lord Kṛṣṇa, who explained it to His mother, Devahūti. It is clearly explained by Him that the puruṣa, or the Supreme Lord, is active and that He creates by looking over the prakṛti. This is accepted in the Vedas and in the Gītā. The description in the Vedas indicates that the Lord glanced over the prakṛti, or nature, and impregnated it with atomic individual souls. All these individuals are working in the material world for sense gratification, and under the spell of material energy they are thinking of being enjoyers. This mentality is dragged to the last point of liberation when the living entity wants to become one with the Lord. This is the last snare of māyā, or sense gratificatory illusion, and it is only after many, many births of such sense gratificatory activities that a great soul surrenders unto Vāsudeva, Lord Kṛṣṇa, thereby fulfilling the search after the ultimate truth. Arjuna has already accepted Kṛṣṇa as his spiritual master by surrendering himself unto Him: śiṣyas te ’haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam. Consequently, Kṛṣṇa will now tell him about the working process in buddhi-yoga, or karma-yoga, or in other words, the practice of devotional service only for the sense gratification of the Lord. This buddhi-yoga is clearly explained in Chapter Ten, verse ten, as being direct communion with the Lord, who is sitting as Paramātmā in everyone’s heart. But such communion does not take place without devotional service. One who is therefore situated in devotional or transcendental loving service to the Lord, or, in other words, in Kṛṣṇa consciousness, attains to this stage of buddhi-yoga by the special grace of the Lord. The Lord says, therefore, that only to those who are always engaged in devotional service out of transcendental love does He award the pure knowledge of devotion in love. In that way the devotee can reach Him easily in the ever-blissful kingdom of God. Thus the buddhi-yoga mentioned in this verse is the devotional service of the Lord, and the word Sāṅkhya mentioned herein has nothing to do with the atheistic sāṅkhya-yoga enunciated by the imposter Kapila. One should not, therefore, misunderstand that the sāṅkhya-yoga mentioned herein has any connection with the atheistic Sāṅkhya. Nor did that philosophy have any influence during that time; nor would Lord Kṛṣṇa care to mention such godless philosophical speculations. Real Sāṅkhya philosophy is described by Lord Kapila in the Śrīmad-Bhāgavatam, but even that Sāṅkhya has nothing to do with the current topics. Here, Sāṅkhya means analytical description of the body and the soul. Lord Kṛṣṇa made an analytical description of the soul just to bring Arjuna to the point of buddhi-yoga, or bhakti-yoga. Therefore, Lord Kṛṣṇa’s Sāṅkhya and Lord Kapila’s Sāṅkhya, as described in the Bhāgavatam, are one and the same. They are all bhakti-yoga. Lord Kṛṣṇa said, therefore, that only the less intelligent class of men make a distinction between sāṅkhya-yoga and bhakti-yoga (sāṅkhya-yogau pṛthag bālāḥ pravadanti na paṇḍitāḥ). Of course, atheistic sāṅkhya-yoga has nothing to do with bhakti-yoga, yet the unintelligent claim that the atheistic sāṅkhya-yoga is referred to in the Bhagavad-gītā. One should therefore understand that buddhi-yoga means to work in Kṛṣṇa consciousness, in the full bliss and knowledge of devotional service. One who works for the satisfaction of the Lord only, however difficult such work may be, is working under the principles of buddhi-yoga and finds himself always in transcendental bliss. By such transcendental engagement, one achieves all transcendental understanding automatically, by the grace of the Lord, and thus his liberation is complete in itself, without his making extraneous endeavors to acquire knowledge. There is much difference between work in Kṛṣṇa consciousness and work for fruitive results, especially in the matter of sense gratification for achieving results in terms of family or material happiness. Buddhi-yoga is therefore the transcendental quality of the work that we perform. -----
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shabdforwriting · 2 years
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कलम के आसूँ by Ajay Awasthi Sarvesh
किताब के बारे में... इस पुस्तक की कविताओं के रुप में मैनें अपनी वेदना कम करने की कोशिश की है वेदना से मेरा तात्पर्य केवल प्रणय वेदना से नही है हाँ ये सत्य हो सकता है कि अधिकतर कवितायें प्रणय पर आधारित हैं पर कई कविताऍं लौकिक प्रश्न के रुप मे भी हैं जो प्रश्न मुझे सदा से आन्दोलित करते आयें है परन्तु उत्तर अभी तक नही मिल सका और उन प्रश्नो ने कविता का रुप ले लिया हाँ ये भी हो सकता है कि मेरे अंदर अनुभव की कमी हो इसलिये ये प्रश्न उठ रहे है पर जब वेदनाओं की गहराई का किसी मनुष्य से संगम होता है तब सिर्फ कवि और कविता का जन्म होता है तथा कवि के सुख दुख की अन्तिम संगिनी कलम बन जाती है तथा वेदना कविता उपन्यास कहानी या महाकाव्य आदि का रुप ले लेती है इस पुस्तक मे अपनी ऐसी ही कविताओ को संग्रहीत करने का प्रयास किया है ये सब बता कर मै कतई ये साबित नही करना चाहता कि मैने बहुत अच्छा लिखा , मैने तो सिर्फ अपनी डगमगाती भावनाओं को कविता के अंदर समेटने की कोशिश मात्र कि है हमें आशा है की आप सभी लोग इन कविताओं को पढ कर निष्पक्ष समीक्षा देंगें जिससे हम आप सभी लोगों की आकांक्षाओ मे खरा उतरने की कोशिश करते रहेंगे...
यदि आप इस पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे दिए गए लिंक से इस पुस्तक को पढ़ें या नीचे दिए गए दूसरे लिंक से हमारी वेबसाइट पर जाएँ!
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jyotis-things · 2 months
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart60 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart61
* अन्य उदाहरण:-
लेखक (रामपाल दास) द्वारा श्राद्ध भ्रम खण्डन" "
"सत्य कथा"
मेरे पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी गाँव-बड़ा पैतावास, तहसील-चरखी दादरी, जिला-भिवानी (प्रान्त-हरियाणा) के निवासी थे जो लगभग सोलह वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए अचानक घर त्याग कर निकल गए। प्रतिदिन पहनने वाले वस्त्रों को अपने ही खेतों के निकट घने जंगल में किसी मृत पशु की अस्थियों के पास डाल गए। शाम को घर न पहुँचने के कारण घर वालों ने जंगल में तलाश की। रात्रि का समय था। कपडे पहचान कर दुःखी मन से पशु की अस्थियों को बच्चे की अस्थियाँ जान कर उठा लाए तथा यह सोचा कि बच्चा जंगल में चला गया, किसी हिंसक जानवर ने खा लिया। अन्तिम संस्कार कर दिया। सर्व क्रियाएँ की, तेरहवीं बरसौदी (वर्षी) आदि की तथा श्राद्ध भी निकालते रहे।
लगभग 104 वर्ष की आयु प्राप्त होने के उपरान्त स्वामी जी अचानक अपने गाँव बड़ा पैंतावास जिला भिवानी, तहसील-चरखी दादरी, हरियाणा में पहुँच गए। स्वामी जी का बचपन का नाम श्री हरिद्वारी जी था तथा पवित्र ब्राह्मण में जन्म था। मुझ दास को पता चला तो में भी दर्शनार्थ पहुँच गया। स्वामी जी की भाभी जी जो लगभग 92 वर्ष की आयु की थी। मैंने उस वृद्धा से पूछा कि हमारे गुरु जी के घर त्याग जाने के उपरान्त क्या जब कभी फसल अच्छी नहीं होती या कोई घर का सदस्य बीमार हो जाता तो अपने पुरोहित (गुरु जी) से कारण पूछते तो वह कहा करता कि हरद्वारी पित्तर बना है, वह तुम्हें दुःखी कर रहा है।
श्राद्धों के निकालने में कोई अशुद्धि रही है। अब की बार सर्व क्रिया मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा। पहले मुझे समय नहीं मिला था क्योंकि एक ही दिन में कई जगह श्राद्ध क्रियाएँ करने जाना पड़ा। इसलिए बच्चे को भेजा था। तब तक कुछ भेंट चढ़ाओ ताकि उसे शान्त किया जाए। तब उसे 21 या 51 रूपये जो भी कहता था, डरते भेंट करते थे। फिर श्राद्धों के समय गुरु जी स्वयं श्राद्ध करते थे। तब मैंने कहा माता जी अब तो छोड़ दो इस गीता जी विरुद्ध साधना को, नहीं तो आप भी प्रेत बनोगी।
गीता अध्याय 9 श्लोक 25 सुनाया। तब वह वृद्धा कहने लगी गीता जी मैं भी पढती हूँ। दास ने कहा आपने पढ़ा है, समझा नहीं। आगे से तो बन्द कर दो इस साधना को। वृद्धा ने उत्तर दिया न भाई, कैसे छोड़ दें श्राद्ध निकालना, यह तो सदियों पुरानी (लाग) परम्परा है। हे पाठको! यह दोष भोली आत्माओं का नहीं है। यह दोष मूर्ख गुरुओं (नीम हकीमों) का है जिन्होंने अपने पवित्र शास्त्रों को समझे बिना मनमाना आचरण (पूजा का मार्ग) बता दिया। जिस कारण न तो कोई कार्य सिद्ध होता है, न परमगति तथा न कोई सुख ही प्राप्त होता है। (प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24) शंका
प्रश्न 44: यदि किसी के माता-पिता भूखे हों, वे दिखाई देकर कहें तो वह पुत्र नहीं जो उनकी इच्छा पूरी न करे। *
उत्तर शंका समाधान यदि किसी का बच्चा कुएं में गिरा हो वह तो चिल्लाएगा कि मुझे बचा लो। पिता जी आ जाओ। मैं मर रहा हूँ। वह पिता मूर्ख होगा जो भावुक होकर कूएं में छलाँग लगाकर बच्चे को बचाने की कोशिश करके स्वयं भी डूबकर मर जाएगा। बच्चे को भी नही बचा पाएगा। उसको चाहिए कि लम्बी रस्सी का प्रबन्ध करे। फिर उस कुएं में छोड़े। बच्चा उसे पकड़ ले। फिर बाहर खींचकर बच्चे को कुएं से निकाले।
इसी प्रकार पूर्वज तो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) करके पित्तर बन चुके हैं। संतान को भी पित्तर बनाने के लिए पुकार रहे हैं। तत्वज्ञान को समझकर अपना कल्याण करवाएँ तथा मुझ दास (रामपाल दास) के पास परमेश्वर कबीर बंदी छोड़ जी की प्रदान की हुई वह विधि है जो साधक का तो कल्याण करेगी ही, उसके पित्तरों की भी पित्तर योनि छूटकर मानव जन्म प्राप्त होगा तथा भक्ति युग में जन्म होकर सत्य भक्ति करके एक या दो जन्म में पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगें।
* विचार करें: जैसा कि उपरोक्त रूची ऋषि की कथा में पित्तर डर रहे हैं कि यदि हमारे श्राद्ध नहीं किए गए तो हम पतन को प्राप्त होगें अर्थात् हमारा पतन (मृत्यु) हो जाएगा। अब उनको पित्तर योनि जो अत्यंत कष्टमय है, अच्छी लग रही है। उसे त्यागना नहीं चाह रहे।
यह तो वही कहानी वाली बात है कि "एक समय एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म का ज्ञान हुआ। उसने अपने पुत्रों को बताया कि मेरा अगला जन्म अमूक व्यक्ति के घर एक सूअरी से होगा। मैं सूअर का जन्म पाऊंगा। उस सूअरी के गले में गांठ है। यह उसकी पहचान है। उसके उदर से मेरा जन्म होगा। मेरी पहचान यह होगी कि मेरे सिर पर गांठ होगी जो दूर से दिखाई देगी। मेरे बच्चो ! उस व्यक्ति से मुझे मोल ले लेना तथा मुझे मार देना, मेरी गति कर देना।
बच्चों ने कहा बहुत अच्छा पिता जी। ऋषि ने फिर आँखों में पानी भरकर कहा कि बच्चो! कहीं लालचवश मुझे मोल न लो और मुझे तुम मारो नहीं, यह कार्य तुम अवश्य करना, नहीं तो मैं सूअर योनि में महाकष्ट उठाऊंगा। बच्चों ने पूर्ण विश्वास दिलाया।
उसके पश्चात् कुछ दिनों में उस ऋषि का देहांत हो गया। उसी व्यक्ति के घर पर उसी गले में गांठ वाली सूअरी के वहीं सिर पर गांठ वाला बच्चा भी अन्य बच्चों के साथ उत्पन्न हुआ। उस ऋषि के बच्चों ने वह सूअरी का बच्चा मोल ले लिया। तब उसे मारने लगे। उसी समय वह बच्चा बोला, बेटा! मुझे मत मारो। मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या मिलेगा?
तब उस ऋषि के ��ूर्व जन्म के बेटों ने कहा, पिता जी! आपने ही तो कहा था। तब वह सूअर के बच्चे रूप में ऋषि बोला कि मैं आपके सामने हाथ जोड़ता हूँ। मुझे मत मारो, मेरे भाईयों (अन्य सूअर के बच्चों) के साथ मेरा दिल लगा है। मुझे बख्श दो। बच्चों ने वह बच्चा छोड़ दिया, मारा नहीं।
इस प्रकार यह जीव जिस भी योनि में उत्पन्न हो जाता है, उसे त्यागना नहीं चाहता। जबकि यह शरीर एक दिन सर्व का जाएगा। इसलिए भावुकता में न बहकर विवेक से कार्य करना चाहिए। यह दास (रामपाल दास) जो साधना बताएगा, उससे आम के आम और गुठलियों के दाम भी मिलेगें।
इसी विष्णु पुराण में तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 पृष्ठ 213 पर लिखा है कि " (और्व ऋषि सगर राजा को बता रहा है)" हे राजन् श्राद्ध करने वाले पुरूष से पित्तरगण, विश्वदेव गण आदि सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल ! पित्तरगण का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग (शास्त्रअनुकूल भक्त���) है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्व ज्ञान अनुसार शास्त्रविधि अनुसार साधक जन) को अवश्य बुलाए यदि श्राद्ध में एक हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों उनके सामने एक योगी (शास्त्रअनुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा यजमान का भी उद्धार कर देता है। (पित्तरों का उद्धार का अर्थ है कि पित्तरों की योनि छूटकर मानव शरीर मिलेगा। यजमान तथा ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य यह है कि उनको सत्य साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी बनाएगा) पेश है प्रमाण के लिए श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 15 श्लोक 55-56 की फोटोकॉपी :- अ० १५]
* तीसरा अंश १५३
हे भूपाल। पितृगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है, इसलिये श्राद्धमें योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है॥ ५५ ॥ हे राजन् । यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥ ५६ ॥
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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pradeepdasblog · 8 months
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( #Muktibodh_part202 के आगे पढिए.....)
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#MuktiBodh_Part203
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 386-387
प्रश्न : (बाबा जिन्दा रुप में भगवान जी का) हे धर्मदास जी! गीता शास्त्र आप के परमपिता भगवान कृष्ण उर्फ विष्णु जी का अनुभव तथा आपको आदेश है कि इस गीता शास्त्र में लिखे मेरे अनुभव को पढ़कर इसके अनुसार भक्ति क्रिया करोगे तो मोक्ष प्राप्त
करोगे। क्या आप जी गीता में लिखे श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार भक्ति कर रहे हो? क्या गीता में वे मन्त्र जाप करने के लिए लिखा है जो आप जी के गुरुजी ने आप जी को जाप करने के लिए दिए हैं? (हरे राम-हरे राम, राम-राम हरे-हरे, हरे कृष्णा-हरे कृष्णा, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे, ओम नमः शिवाय, ओम भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री
मन्त्र तथा विष्णु सहंस्रनाम) क्या गीता जी में एकादशी का व्रत करने तथा श्राद्ध कर्म करने, पिण्डोदक क्रिया करने का आदेश है?
उत्तर :- (धर्मदास जी का) नहीं है।
प्रश्न :- (परमेश्वर जी का) फिर आप जी तो उस किसान के पुत्र वाला ही कार्य कर रहे हो जो पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मनमानी विधि से गलत बीज गलत समय पर फसल बीजकर मूर्खता का प्रमाण दे रहा है। जिसे आपने मूर्ख कहा है। क्या आप जी उस किसान के मूर्ख पुत्र से कम हैं?
धर्मदास जी बोले : हे जिन्दा! आप मुसलमान फकीर हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म की भक्ति क्रिया व मन्त्रों में दोष निकाल रहे हो।
उत्तर : (कबीर जी का जिन्दा रुप में) हे स्वामी धर्मदास जी! मैं कुछ नहीं कह रहा, आपके धर्मग्रन्थ कह रहे हैं कि आपके धर्म के धर्मगुरु आप जी को शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण करवा रहे हैं जो आपकी गीता के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी कहा
है कि हे अर्जुन! जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है अर्थात् मनमाने मन्त्र जाप कर रहा है, मनमाने श्राद्ध कर्म व पिण्डोदक कर्म व व्रत आदि कर रहा
है, उसको न तो कोई सिद्धि प्राप्त हो सकती, न सुख ही प्राप्त होगा और न गति अर्थात् मुक्ति मिलेगी, इसलिए व्यर्थ है। गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए कर्त्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिए तथा अकर्त्तव्य (जो भक्ति कर्म न करने चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। उन शास्त्रों में बताए भक्ति कर्म को करने से ही लाभ होगा।
धर्मदास जी : हे जिन्दा! तू अपनी जुबान बन्द कर ले, मुझसे और नहीं सुना जाता। जिन्दा रुप में प्रकट परमेश्वर ने कहा, हे वैष्णव महात्मा धर्मदास जी! सत्य इतनी कड़वी
होती है जितना नीम, परन्तु रोगी को कड़वी औषधि न चाहते हुए भी सेवन करनी चाहिए। उसी में उसका हित है। यदि आप नाराज होते हो तो मैं चला। इतना कहकर परमात्मा (जिन्दा रुप धारी) अन्तर्ध्यान हो गए। धर्मदास को बहुत आश्चर्य हुआ तथा सोचने लगा कि यह कोई सामान्य सन्त नहीं था। यह पूर्ण विद्वान लगता है। मुसलमान होकर हिन्दू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। यह कोई देव हो सकता है। धर्मदास जी अन्दर से मान रहे थे कि मैं गीता
शास्त्र के विरुद्ध साधना कर रहा हूँ। परन्तु अभिमानवश स्वीकार नहीं कर रहे थे। जब परमात्मा अन्तर्ध्यान हो गए तो पूर्ण रुप से टूट गए कि मेरी भक्ति गीता के विरुद्ध है। मैं भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर रहा हूँ। मेरे गुरु श्री रुपदास जी को भी वास्तविक
भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अब तो इस भक्ति को करना, न करना बराबर है, व्यर्थ है। बहुत दुखी मन से इधर-उधर देखने लगा तथा अन्दर से हृदय से पुकार करने लगा कि मैं
कैसा नासमझ हूँ। सर्व सत्य देखकर भी एक परमात्मा तुल्य महात्मा को अपनी नासमझी तथा हठ के कारण खो दिया। हे परमात्मा! एक बार वही सन्त फिर से मिले तो मैं अपना
हठ छोड़कर नम्र भाव से सर्वज्ञान समझूंगा। दिन में कई बार हृदय से पुकार करके रात्रि में सो गया। सारी रात्रि करवट लेता रहा। सोचता रहा हे परमात्मा! यह क्या हुआ। सर्व साधना शास्त्र विरुद्ध कर रहा हूँ। मेरी आँखें खोल दी उस फरिस्ते ने। मेरी आयु 60 वर्ष हो चुकी है। अब पता नहीं वह देव (जिन्दा रुपी) पुनः मिलेगा कि नहीं।
प्रातः काल वक्त से उठा। पहले खाना बनाने लगा। उस दिन भक्ति की कोई क्रिया नहीं की। पहले दिन जंगल से कुछ लकडि़याँ तोड़कर रखी थी। उनको चूल्हे में जलाकर भोजन बनाने लगा। एक लकड़ी मोटी थी। वह बीचो-बीच थोथी थी। उसमें अनेकां चीटियाँ थीं। जब वह लकड़ी जलते-जलते छोटी रह गई तब उसका पिछला हिस्सा धर्मदास जी को
दिखाई दिया तो देखा उस लकड़ी के अन्तिम भाग में कुछ तरल पानी-सा जल रहा है। चीटियाँ निकलने की कोशिश कर रही थी, वे उस तरल पदार्थ में गिरकर जलकर मर रही
थी। कुछ अगले हिस्से में अग्नि से जलकर मर रही थी। धर्मदास जी ने विचार किया। यह लकड़ी बहुत जल चुकी है, इसमें अनेकों चीटियाँ जलकर भस्म हो गई है। उसी समय अग्नि
बुझा दी। विचार करने लगा कि इस पापयुक्त भोजन को मैं नहीं खाऊँगा। किसी साधु सन्त को खिलाकर मैं उपवास रखूँगा। इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। यह विचार करके सर्व भोजन एक थाल में रखकर साधु की खोज में चल पड़ा। परमेश्वर कबीर जी ने अन्य वेशभूषा बनाई जो हिन्दू सन्त की होती है। एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी ने साधु को देखा। उनके सामने भोजन का थाल रखकर कहा कि हे महात्मा जी! भोजन खाओ। साधु रुप में परमात्मा ने कहा कि लाओ धर्मदास! भूख लगी है। अपने नाम से सम्बोधन सुनकर धर्मदास को आश्चर्य तो हुआ परंतु अधिक ध्यान नहीं दिया। साधु रुप में विराजमान परमात्मा ने
अपने लोटे से कुछ जल हाथ में लिया तथा कुछ वाणी अपने मुख से उच्चारण करके भोजन पर जल छिड़क दिया। सर्वभोजन की चींटियाँ बन गई। चींटियों से थाली काली हो गई। चींटियाँ अपने अण्डों को मुख में लेकर थाली से बाहर निकलने की कोशिश करने लगी।
परमात्मा भी उसी जिन्दा महात्मा के रुप में हो गए। तब कहा कि हे धर्मदास वैष्णव संत! आप बता रहे थे कि हम कोई जीव हिंसा नहीं करते, आपसे तो कसाई भी कम हिंसक है। आपने तो करोड़ों जीवों की हिंसा कर दी। धर्मदास जी उसी समय साधु के चरणों में गिर गया तथा पूर्व दिन हुई गलती की क्षमा माँगी तथा प्रार्थना की कि हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो। मैं कहीं का नहीं रहा क्योंकि पहले वाली साधना पूर्ण रुप से शास्त्र विरुद्ध है।
उसे करने का कोई लाभ नहीं, यह आप जी ने गीता से ही प्रमाणित कर दिया। शास्त्र अनुकूल साधना किस से मिले, यह आप ही बता सकते हैं। मैं आपसे पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान सुनने का इच्छुक हूँ। कृपया मुझ किंकर पर दया करके मुझे वह ज्ञान सुनाऐ जिससे मेरा मोक्ष हो सके।
क्रमशः__________)
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mithilanchaltoday · 2 years
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