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आस्था का प्रतीक- अंजनी महादेव हिमाचल प्रदेश
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
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यदि खूबसूरत जगहों की बात की जाये और हिमाचल प्रदेश,मनाली का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। अंजनी महादेव भी एक बहुत ही सुंदर जगह है, यह आस्था का केंद्र तो है ही साथ ही अपने खूबसूरत नजारों के लिए भी प्रसिद्ध है। वैसे भी मनाली पर्यटकों का एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है। लेकिन इसके बावजूद भी आज वहां कई ऐसी जगहें हैं जो बेहद सुंदर हैं और अलौकिक शक्तियों से भरी हुई हैं किंतु अभी तक कई पर्यटकों को इन जगहों के बारे में जानकारी नहीं है। आज इस ब्लॉग में हम आपको एक ऐसी ही अद्भुत और हैरान कर देने वाली जगह के बारे में बताएंगे, तो वो पवित्र जगह है अंजनी महादेव। इस जगह पर एक पवित्र झरना शिवलिंग का जलाभिषेक करता है। यह देखना अपने आपमें एक बहुत ही अनोखा अनुभव है। इस पवित्र नज़ारे को देखने के बाद आपको एहसास होगा कि वास्तव में ईश्वर की शक्ति क्या है ?
क्यों है यह लोगों की आस्था का प्रतीक ?
अंजनी महादेव मंदिर एक प्राकृतिक शिवलिंग है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि यदि आप घूमने के शौकीन हैं और भगवान में आस्था रखते हैं तो अंजनी महादेव मंदिर में जाकर आपको एक अलग ही सुकून मिलेगा। इस जगह में प्रवेश करते ही आपको ऐसी शांति का अनुभव होगा, जो इससे पहले आपने शायद ही कभी अनुभव किया हो। कुछ समय के लिए तो आप सब कुछ भूल बैठोगे और इस जगह की अलौकिक छटा में खो जाओगे। आपको महसूस होगा जैसे वो दिव्य साक्षात् शक्ति आपके सामने खड़ी है। यहाँ पूरा बर्फ से ढका अद्भुत दृश्य आपका मन मोह लेगा।
क्या है अंजनी महादेव के पीछे की आस्था की कहानी ?
महंत श्री पारस भाई जी ने अंजनी महादेव के बारे में जानकारी देते हुए बताया, ऐसी मान्यता है कि त्रेता युग में माता अंजनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या की थी और तब भगवान शिव ने अंजनी माता को दर्शन दिए थे। साथ ही माता अंजनी को इच्छापूर्ति का आशीष भी दिया था। इसके बाद से ही यहां पर प्राकृतिक रूप से बर्फ का विशाल शिवलिंग बनता है, जो कि लोगों की आस्था का प्रतीक बन जाता है। इसे अंजनी माता की तपोस्थली भी कहा जाता है। श्री पारस भाई जी ने आगे बताया कि यदि आप यहाँ जाकर इस प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन करते हैं तो आपकी हर इच्छा पूरी होती है और जीवन में ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
कहाँ स्थित है अंजनी महादेव मंदिर ?
यदि आप मनाली घूमने का प्लान बना रहे हैं, तो उससे 25 किलोमीटर की दूरी पर अंजनी महादेव का मंदिर स्थित है। अंजनी महादेव में साढ़े 11 हजार फीट की ऊंचाई पर बना प्राकृतिक शिवलिंग है। यदि आप भोले के भक्त हैं तो एक बार जरूर घूमने जाइये इस खूबसूरत जगह पर और अंजनी महादेव का आशीर्वाद प्राप्त करें। यहां जाकर आपको शांति का एहसास तो होगा साथ ही यह आपके जीवन का एक शानदार अनुभव होगा। इतनी उंचाई पर बने इस प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन भला कौन नहीं करना चाहेगा।
अंजनी महादेव, दर्शनीय स्थल के साथ-साथ पूजनीय स्थल भी
इस पवित्र स्थान पर बर्फ का विशाल शिवलिंग बन जाता है। यह स्थान पर्यटकों के लिए अत्यंत खूबसूरत दर्शनीय स्थल तो है ही साथ ही भक्तों के लिए एक पूजनीय स्थान भी। यहाँ की जो अनुपम छटा है वह देखने लायक होती है। अंजनी महादेव के दर्शन करने के लिए आप कुछ सीढ़ियां चढ़कर जब ऊपर पहुँचते हैं तो यह हैरान करने वाला दृश्य देखकर अचंभित हुए बिना नहीं रह पाते हैं। यहाँ एक बहुत ही सुंदर और ऊँचे झरने के नीचे पवित्र शिवलिंग है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि इस झरने का पानी शिवलिंग पर जब गिरता है तो यह अद्भुत दृश्य आँखों में बस जाता है। यह देखकर ऐसा लगता है जैसे प्रकृति खुद ही महादेव पर जल अर्पण कर रही हो। सच में इस अनुभव को आप कभी भुला नहीं पाओगे।
लगभग 35 फ़ीट फीट से भी ऊंचा होता है शिवलिंग
अंजनी महादेव मंदिर में शिवलिंग का आकार 30 फीट से ज्यादा ऊंचा होता है। यहाँ पर अंजनी महादेव से गिरता झरना बर्फ बनकर शिवलिंग का रूप धारण करता है। जैसे जैसे तापमान कम होता है वैसे-वैसे इसके आकार में लगातार बढ़ोतरी होती रहती है। भक्त भी इस झरने के जल से महादेव पर जलाभिषेक करते हैं। महादेव पर जलाभिषेक करने से महादेव भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करते हैं।
यहाँ पर श्रद्धालु बर्फ पर नंगे पैर चलते हैं
शायद आप सोच भी नहीं सकते हैं कि आप बर्फ पर नंगे पैर चल सकते हैं। लेकिन आपको जरूर आश्चर्य होगा कि अंजनी महादेव के दर्शन के लिए भक्त बर्फ में नंगे पैर चलकर जाते हैं और इस तरह बर्फ में नंगे पैर जाने से आपको किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती है। ये अंजनी महादेव की ही शक्तियों का असर होता है। किसी प्राकृतिक झरने द्वारा शिवलिंग के जलाभिषेक के इस खूबसूरत नज़ारे से आप अपनी नजरों को हटा नहीं पाओगे।
अंजनी महादेव को हिमाचल का अमरनाथ कहा जाता है
अंजनी महादेव पर सर्दियों में नवंबर से बर्फ़बारी की शुरुआत होती है और यहाँ का दृश्य बहुत ही सुंदर हो जाता है। चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिखाई देती है और यह नजारा आँखों में बस जाता है। यहाँ की ज्यादा ठंड से इस पवित्र झरने का जल शिवलिंग के ऊपर गिरकर जमने लग जाता है और फिर यह बर्फ विशाल शिवलिंग का रूप ले लेता है। फिर धीरे-धीरे फरवरी के अंत तक पवित्र शिवलिंग का आकार बढ़ता जाता है और इस शिवलिंग की ऊंचाई 35 फ़ीट से भी बढ़ जाती है। अंजनी महादेव के इसी प्राकृतिक शिवलिंग के कारण इसे हिमाचल का अमरनाथ कहा जाता है और यही वजह है कि सर्दियों में लोग इस पवित्र शिवलिंग के दर्शन के लिए जाते हैं।
यहाँ जाने के लिये सबसे अच्छा समय कौन सा है ?
यहाँ की प्राकृतिक ख़ूबसूरती इतनी अधिक है कि आप यहाँ कभी भी जा सकते हैं। यहाँ के प्राकृतिक नज़रों की खूबसूरती अलग ही दिखती है। यदि आप गर्मियों में यहाँ जाते हैं तो रास्ते में आपको चारों ओर हरियाली नजर आयेगी और साथ में सुन्दर कल कल बहती अंजनी नदी आपको दिखाई देगी। वहीं यदि आप सर्दियों में यहाँ जाते हैं तो उस समय आपको यह पूरी जगह बर्फ से ढकी नजर आयेगी। क्योंकि इस समय आपको यहाँ पर अलौकिक और अद्भुत प्राकृतिक बर्फ से बना शिवलिंग देखने को मिलेगा। सर्दियों में जाते वक्त बस यह ध्यान रखें कि उस वक्त यहाँ का तापमान बहुत कम होता है इसलिए सावधानी से जायें।
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parasparivaarorg · 3 days
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प��रस: हिंदू धर्म में शंख का क्यों है इतना महत्व ?
पारस: हिंदू धर्म में शंख का महत्व
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
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इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी शंख के महत्व के बारे में बताते हैं कि जिस घर में शंख होता है, वहां हमेशा देवी लक्ष्मी का वास होता है। शंख की पवित्रता और शुद्धता को आप इस बात से भी समझ सकते हैं कि इसे सभी देवताओं ने स्वयं अपने हाथों में धारण किया है।
सनातन धर्म या हिंदू धर्म में शंख का विशेष महत्व है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि हिंदू धर्म में शंख को अत्यंत पवित्र और पूजनीय माना गया है। क्योंकि सनातन परंपरा में जब भी कोई शुभ कार्य, पूजा पाठ, हवन आदि होता है तो शंख अवश्य बजाया जाता है। चलिये आज इस आर्टिकल में हम आपको शंख के महत्व और इसके लाभ के बारे में बताते हैं।
भगवान विष्णु को शंख अत्यंत प्रिय है
मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले 14 कीमती रत्नों से शंख की उत्पत्ति हुई थी। शंख समुद्र मंथन में से निकले 14 रत्नों में से एक है। भगवान विष्णु को शंख अत्यंत प्रिय है इसलिए भगवान श्री नारायण की पूजा में शंखनाद जरूर होता है। उत्तर पूर्व दिशा में शंख रखने से घर में खुशहाली आती है। भगवान विष्णु हमेशा अपने दाहिने हाथ में शंख पकड़े हुए दिखाई देते हैं। शंख हिंदू धर्म और धार्मिक परंपरा का एक अभिन्न अंग है। जब शंख बजाया जाता है तो ऐसा कहा जाता है कि इससे वातावरण की सारी नकारात्मकता दूर होती है और शंख की ध्वनि से वातावरण बुरे प्रभावों से मुक्त हो जाता है।
शंख सुख-समृद्धि और शुभता का कारक
पूजा पाठ या किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत में शंख का उपयोग किया जाता है। शंख की ध्वनि जीवन में आशा का संचार करके बाधाओं को दूर करती है। पूजा करते समय शंख में रखा जल छिड़क कर स्थान की शुद्धि की जाती है। सनातन धर्म में किसी भी पूजा-पाठ के पहले और आखिरी में शंखनाद जरूर किया जाता है। पूजा-पाठ के साथ हर मांगलिक कार्यों के दौरान भी शंख बजाया जाता है। शंख को सुख-समृद्धि और शुभता का कारक माना गया है। शंख बजाए बिना पूजा अधूरी मानी जाती है।
शंख के लाभ
शंख बजाने से हमारी सेहत भी अच्छी बनी रहती है।
हमारे फेफड़े मजबूत होते हैं और सांस लेने की समस्या दूर होती है।
नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।
घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है और वातावरण शुद्ध होता है।
वास्तु शास्त्र में शंख का विशेष महत्व है।
शंख को घर में रखने से यश, उन्नति, कीर्ति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
इससे आरोग्य वृद्धि, पुत्र प्राप्ति, पितृ दोष शांति, विवाह आदि की रुकावट भी दूर होती है।
शंखनाद से अद्भुत शौर्य और शक्ति का अनुभव होता है इसलिए योद्धाओं द्रारा इसका प्रयोग किया जाता था।
शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
महत्व
पूजा-पाठ में शंख का विशेष महत्व माना जाता है। शंख का प्रयोग वास्तु दोषों को दूर करने के लिए भी किया जाता है। इसके साथ ही शंख बजाने का संबंध स्वास्थ्य से भी है। शंख की पूजा के बारे में महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि तीर्थों में जाकर दर्शन करने से जो शुभ फल ���्राप्त होता है, वह शंख को घर में रखने और दर्शन करने मात्र से ही पूरा हो जाता है। धार्मिक कार्यों में शंख बजाना बहुत ही अच्छा माना जाता है।
माना जाता है कि देवताओं को शंख की आवाज बहुत पसंद होती है इसलिए शंख की आवाज से प्रसन्न होकर भगवान भक्तों की हर इच्छा को पूरी करते हैं। वास्तु के अनुसार शंख बजाने से आसपास की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में पूजा में न केवल शंख का इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि शंख की भी पूजा की जाती है।
महंत पारस भाई जी ने बताया कि अथर्ववेद में शंख को पापों का नाश करने वाला, लंबी आयु का दाता और शत्रुओं पर विजय दिलाने वाला बताया गया है।
महंत श्री पारस भाई जी बताते हैं कि शंख से घर में पॉजिटिव वाइब्स आती है। शंख से निकलने वाली ध्वनि से बीमारियों के कीटाणु खत्म होते हैं, जिससे आप स्वस्थ रहते हैं।
ध्वनि का प्रतीक माना जाता है शंख
शंख नाद ध्वनि का प्रतीक माना जाता है। शंख की ध्वनि आत्म नाद यानि आत्मा की आवाज की शिक्षा देती है। अध्यात्म में शंख ध्वनि, ओम ध्वनि के समान ही मानी गई है। शंख एकता, व्यवस्था और अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। शंख बजाने से घर की सभी बुराईयां नष्ट होती हैं और घर का वातावरण अच्छा रहता है। शंख जीव को आत्मा से जुड़ने का ज्ञान देता है।
पूजा में क्यों जरूरी माना जाता है शंख?
पूजा घर में दक्षिणावर्ती शंख रखना और बजाना अत्यंत शुभ माना जाता है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि-मुनि, पूजा या यज्ञ में शंख का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। शंख बजाने के बाद ही कोई भी पूजा सफल मानी जाती है। शंख बजाने से ईश्वर का आशीर्वाद मिलता है।
सुबह-शाम शंख बजाने से आपका परिवार बुरी नजर से बचा रहता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि सभी समस्याओं और दोषों को दूर करती है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां पर माता लक्ष्मी की कृपा बरसती है।
शंख का पूजन कैसे करें
घर में नया शंख लाने के बाद उसे सबसे पहले किसी साफ बर्तन में रखकर अच्छी तरह से जल से साफ कर लें। इसके बाद शंख का गाय के कच्चे दूध और गंगाजल से अभिषेक करें। अब शंख को पोंछकर चंदन, पुष्प, धूप और दीप से पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का स्मरण करें और हाथ जोड़कर निवेदन करें कि वो हमारे घर में आयें और इस शंख में आकर वास करें।
महान ज्योतिष महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि हर दिन इसी तरह शंख की सच्चे भाव से पूजा करने के बाद ही इसे बजायें। क्योंकि ऐसा करने पर आपको अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होती है।
दूर होती हैं कई बीमारियां
कहते हैं रोजाना शंख बजाने से हमारी मांसपेशियां मजबूत होती हैं। जिस कारण पेट, छाती और गर्दन से जुड़ी बीमारियां दूर होती हैं। साथ ही शंखनाद से श्वास लेने की क्षमता में वृद्धि होती है। शंख बजाने से सांस की समस्याएं भी खत्म होती हैं। सांस की प्रक्रिया सही तरीके से चलती है और फेफड़े स्वस्थ रहते हैं। इसके अलावा इससे थायराइड या बोलने संबंधित बीमारियों में राहत मिलती है।
जब हम शंख बजाते हैं तो तब हमारी मांसपेशियों में खिंचाव आता है जिसकी वजह से झुर्रियों की समस्या भी दूर होती है। शंख में कैल्शियम होता है। यदि आपको त्वचा से संबंधित कोई रोग है तो रात को शंख में पानी भरकर रख दें और फिर सुबह उस पानी से त्वचा पर मालिश करें। ऐसा करने पर त्वचा से संबंधित रोग दूर हो जाते हैं। शंख बजाने से हृदय रोग भी दूर होते हैं।
शंख बजाने से तनाव तो दूर होता ही है, साथ ही मन शांत रहता है। माना जाता है कि यदि आप प्रतिदिन शंख बजाते हैं तो दिल का दौरा पड़ने की संभावना काफी कम हो जाती है।
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parasparivaarorg · 6 days
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क्यों है प्रभु श्री राम की मूर्ति का श्यामल रंग पारस से जाने?
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
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‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
अयोध्या में प्रभु श्री राम जी के प्राण प्रतिष्ठा के उस दिव्य क्षण को हर कोई देखना चाहता था, हर कोई महसूस करना चाहता था, हर कोई इस पल का गवाह बनना चाहता था। यह सच है जिसने भी इस पल को देखा, वो भावुक हुए बिना नहीं रह पाया। जिसने भी गर्भगृह में विराजमान रामलला के विग्रह के चेहरे की पहली तस्वीर को देखा वो बस देखता ही रह गया। इसके बाद हर किसी के मन में यह बात जरूर थी कि आखिर प्रभु श्री राम की मूर्ति का श्यामल रंग क्यों है ? आइए इस आर्टिकल में जानते हैं क्या है भगवान राम की मूर्ति के रंग के पीछे का रहस्य।
अयोध्या में श्री राम के बाल स्वरूप में मूर्ति का निर्माण
करोड़ों राम भक्तों का सपना 22 जनवरी 2024 को पूरा हो चुका है। इसके साथ 22 जनवरी की तारीख इतिहास के पन्नों में भी दर्ज हो गई है। पूरा देश राम नाम के रंग में रंगा हुआ है। हर किसी की जुबां पर सिर्फ और सिर्फ राम नाम है। सोमवार 22 जनवरी के दिन प्रभु श्री राम मूर्ति की प्राण पर प्रतिष्ठा की गयी। श्री राम के बाल स्वरूप में मूर्ति का निर्माण किया गया, यह मूर्ति श्यामल रंग की है। रामलला की आयु 5 वर्ष बताई गई है। गर्भगृह में विराजमान रामलला के चेहरे की जब पहली तस्वीर सामने आई तो यह बेहद ही सुंदर और अद्भुत था। इस पल की ख़ुशी ने हर किसी की आँख नम कर दी। बहुत ही भावुक कर देने वाला दृश्य था यह। मान्यता है कि जन्म भूमि में बाल स्वरूप की पूजा अर्चना की जाती है यही वजह है कि भगवान श्री राम की मूर्ति बाल स्वरूप में बनाई गयी है।
श्यामल रंग ही क्यों?
अयोध्या में श्री राम के बाल स्वरूप में मूर्ति का निर्माण किया गया है, जिसमें मूर्ति का रंग श्यामल है। प्रभु श्री राम की मूर्ति का निर्माण श्याम शिला के पत्थर से किया गया है और यह पत्थर अपने आप में बहुत खास माना जाता है। इस पत्थर का रंग काला ही होता है। यही वजह है कि मूर्ति का रंग श्यामल है।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि श्याम शिला की आयु हजारों वर्ष मानी जाती है। इसलिए इसके पीछे यह कारण है कि यह मूर्ति हजारों सालों तक अच्छी अवस्था में रहे और इसमें कोई भी बदलाव न हो। इसके अलावा सनातन धर्म में पूजा पाठ के समय मूर्ति का अभिषेक किया जाता है और मूर्ति को धूप, दीप, जल, चंदन, रोली, दूध और पुष्प आदि से अभिषेक किया जाता है। इन सभी चीजों से भी प्रभु श्री राम की मूर्ति को कुछ भी न हो इसका ध्यान रखा गया। इसके अलावा महर्षि वाल्मीकि रामायण में भगवान श्री राम के श्यामल रूप का वर्णन किया गया है। इसलिए प्रभु को श्यामल रूप में पूजा जाता है।
प्राण प्रतिष्ठा क्यों है जरूरी ?
प्राण प्रतिष्ठा हिंदू धर्म का प्रमुख धार्मिक अनुष्ठान है। प्राण का अर्थ हाेता है जीवन इसलिए प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ हुआ किसी भी मूर्ति या प्रतिमा में देवी देवताओं को आने का आह्वान करना। प्राण प्रतिष्ठा प्रक्रिया का मतलब है मूर्ति में प्राण डालना। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि इसलिए जब भी कोई मंदिर बनता है तो उसमें देवी-देवताओं की मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी पूजा से पहले उनमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। बिना प्राण प्रतिष्ठा के मूर्ति पूजन पूर्ण नहीं माना जाता है। मूर्ति में प्राण डालने के लिए मंत्र उच्चारण के साथ देवों का आवाहन किया जाता है।
श्यामल वर्ण माना जाता है शुभ
महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार शास्त्रों में यह वर्णन मिलता है कि प्रभु राम श्याम रंग के हैं। यानि प्रभु राम का बाल रूप, प्रभु राम का जन्म रूप सब श्यामल रंग का ही है। इसलिए यही कारण है कि 500 वर्ष के बहुत ही लंबे संघर्ष के बाद प्रभु श्री राम अपने भव्य महल में विराजमान हुए हैं और उनकी प्रतिमा का रंग श्यामल रखा गया है। इसके साथ ही शास्त्रों के अनुसार, कृष्ण शिला से बनी राम की मूर्ति खास होती है और इसलिए इस मूर्ति को श्याम शिला से बनाया गया है।
किसने किया है प्रभु श्री राम की प्रतिमा का निर्माण ?
राम मंदिर में प्रभु राम बालक राम के रूप में विराजमान हैं। 5 वर्ष के बालक के रूप में रामलला की प्रतिमा बनाई गई है। प्रतिमा का निर्माण मूर्तिकार अरुण योगीराज ने किया है। मूर्तिकार अरुण योगीराज कर्नाटक के मैसूर के रहने वाले हैं। अरुण योगीराज की कई पीढियां इसी काम से जुड़ी हुई हैं। उनके पिता योगीराज शिल्पी एक बेहतरीन मूर्तिकार हैं। अरुण योगीराज का कहना है कि मैं पृथ्वी पर सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हूँ और यह मेरे लिए सबसे बड़ा दिन है। भगवान रामलला का आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहा है और कभी-कभी मुझे लगता है जैसे मैं सपनों की दुनिया में हूँ।
प्रतिमा में कमल दल पर प्रभु राम विराजमान हैं। वहीं प्रतिमा के सबसे ऊपर स्वास्तिक और आभामंडल भी बनाया गया है। अरुण योगीराज ने सिर्फ रामलला की ही मूर्ति नहीं बनाई है, इसके अलावा भी उन्होंने कई और भी मूर्तियां बनाई हैं। अरुण योगीराज ने इंडिया गेट के पास स्थापित सुभाष चंद्र बोस की 30 फीट की मूर्ति बनाई है। अरुण योगीराज ने भगवान आदि शंकराचार्य की 12 फीट की मूर्ति बनाई है, जो कि केदारनाथ में है। अरुण योगीराज ने बताया कि वह अयोध्या मंदिर के लिए सबसे सुंदर और उत्तम प्रतिमा बनाना चाहते थे। इस दौरान वो 6 महीने तक अपने परिवार वालों तक से नहीं मिले।
रामलला की मूर्ति में बालत्व, देवत्व और राजकुमार तीनों की छवि
अरुण योगीराज ने रामलला की बेहद खूबसूरत मूर्ति का निर्माण किया है। रामलला की मूर्ति में बालत्व, देवत्व और एक राजकुमार तीनों की छवि दिखाई दे रही है। भगवान राम की मूर्ति की मुख्य विशेषताओं को देखें तो इसमें अनेक खूबियां हैं। प्रभु श्री राम की जो मूर्ति है उसका वजन करीब 200 किलोग्राम है। भगवान राम की मूर्ति कृष्ण शैली में बनाई गई है। मूर्ति में भगवान राम के कई अवतारों को तराशा गया है।
प्रभु श्री राम की बाल सुलभ मुस्कान ने सबको किया आकर्षित
रामलला की प्रतिमा में बालसुलभ मुस्कान ने लोगों को आकर्षित किया। हर कोई उनकी मुस्कान को बस निहारे जा रहा था। दरअसल भगवान राम की मूर्ति का निर्माण चेहरे की कोमलता, आंखों की सुंदरता, मुस्कुराहट और शरीर सहित अन्य कई चीजों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। मूर्ति बेहद ही भव्य और सुन्दर है। यह प्रतिमा 51 इंच ऊंची है, जो बहुत ही आकर्षक ढंग से बनाई गई है।
इसके अलावा भगवान श्रीराम की मूर्ति की लंबाई और ऊंचाई भारत के प्रतिष्ठित अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की सलाह पर इस तरह से डिजाइन की गई है कि हर साल चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि राम नवमी को स्वयं भगवान सूर्य श्री राम जी का अभिषेक करेंगे। रामनवमी के दिन दोपहर 12 बजे सूर्य की किरणें सीधे उनके माथे पर पड़ेंगी और वह चमक उठेगा।
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parasparivaarorg · 8 days
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पारस से जाने: ज्ञान की देवी माता सरस्वती
वसंत पंचमी (मां सरस्वती का जन्मोत्सव)
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
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“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
हिन्दू धर्म में बसंत पंचमी बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार है। बसंत पंचमी ���े दिन विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा करने का विधान है। यानि यह पर्व शिक्षा की देवी मां सरस्वती को समर्पित है।बसंत पंचमी से बंसत ऋतु का आगमन शुरू हो जाता है। इस समय पीले-पीले सरसों के खेत एक अलग ही छटा बिखेरते हैं। इस अवसर पर पीले वस्त्र धारण करना शुभ होता है। वसंत ऋतु की महत्ता की बात करें तो गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ‘’ऋतूनां कुसुमाकराः’’ अर्थात मैं ऋतुओं में वसंत हूं, यह कहकर वसंत को अपना स्वरूप बताया है।
कब है बसंत पंचमी का त्यौहार? बसंत पंचमी “वसंत” के आगमन को मनाने का एक पवित्र हिंदू त्यौहार है। इस त्यौहार में सरसों के फूलने की खुशी में लोग वसंत ऋतु का स्वागत करते हैं। प्रकृति के इस पर्व को महाकवि कालीदास ने ‘सर्वप्रिये चारुतर वसंते’’ कहकर अलंकृत किया है। इस दिन मां सरस्वती, ज्ञान की देवी की पूजा भी की जाती है। बसंत पंचमी का त्योहार इस बार 14 फरवरी, 2024 को पूरे देश भर में उत्साह के साथ मनाया जाएगा। बसंत पंचमी का पर्व हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन मां सरस्वती की पूरे श्रद्धा भाव के साथ पूजा की जाती है। इस दिन घरों में पीले-केसरिया रंग के खाद्यान्न बनाने और खाने से विशेष कृपा मिलती है। बसंत पंचमी के दिन विद्यालयों, कॉलेजों में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
बसंत पंचमी पूजन विधि बसंत पंचमी के दिन सबसे पहले सुबह स्नान के बाद पीले वस्त्र पहनें। इसके बाद मां सरस्वती की मन से आराधना करें। मां सरस्वती को पीले रंग के वस्त्र पहनायें। उन्हें हल्दी, केसर, पीले रंग के फूल, पीली मिठाई आदि चीज़ेंअर्पित करें। पूजा प्रारंभ करने से पहले ‘यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः माघ मासे बसंत पंचमी तिथौ भगवत्या: सरस्वत्या: पूजनमहं करिष्ये’ मंत्र का जाप करें। इसके बाद मां सरस्वती की पूजा कर माँ के सामने वाद्य यंत्र और किताबें रखें। अपने पूरे परिवार के साथ खासकर बच्चों के साथ इस दिन जरूर पूजा करें। मां सरस्वती को पीले चावल का भोग लगाकर इसके बाद इस खीर को प्रसाद के रूप में सभी को बांट दें। मां सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादनी आदि नामों से भी पूजा जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि इस दिन पूजा के दौरान मां सरस्वती व्रत कथा का पाठ करने से आपकी मनचाही मनोकामनाएं पूरी होती हैं और सभी बिगड़े काम बन जाते हैं। इसके अलावा मां सरस्वती की पूजा से ज्ञान की प्राप्ति भी होती है। शिक्षा और कला के क्षेत्र में उन्नति के लिए माता सरस्वती की पूजा में शिक्षा से संबंधित चीजें जरूर रखें, जैसे पेन, कॉपी, किताब और वाद्य यंत्र आदि। मां सरस्वती की विशेष कृपा प्राप्त करने के लिए बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जी के मंत्रों का जाप करना भी बेहद शुभ फलकारी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि अपनी प्रारंभिक अवस्था में शांत और नीरस थी। इस तरह मौन देखकर भगवान ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का और इससे मां सरस्वती प्रकट हुईं। मां सरस्वती की वीणा से संसार को वाणी मिली। इसलिए बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है।
मां सरस्वती को अति प्रिय है पीला रंग ज्ञान की देवी माँ सरस्वती को पीला रंग बेहद प्रिय है। इसलिए इस दिन पीले रंग के वस्त्र धारण करना अच्छा माना जाता है। पीले रंग के वस्त्र पहनने से मां सरस्वती की आप पर कृपा बनी रहती है। इस दिन मां सरस्वती को हल्दी जरूर अर्पित करनी चाहिए। साथ ही इस दिन मां सरस्वती को पीले रंग की मिठाईयों का भी भोग लगाया जाता है। इसके अलावा माँ को पीले रंग के फूल भी अर्पित किए जाते हैं। मां सरस्वती की पूजा से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इस दिन घर में मां सरस्वती की मूर्ति या तस्वीर अवश्य स्थापित करें।
क्यों इतना खास होता है वसंत पंचमी का त्यौहार? यह त्योहार पतझड़ के जाने के बाद बसंत ऋतु के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। इसके अलावा यह दिन हिन्दू धर्म में ज्ञान की देवी मां सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। बसंत पंचमी के त्यौहार को सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पड़ोसी देश नेपाल और बांग्लादेश भी बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। चारों ओर खेतों में खिले सरसों के फूल इसके आने की आहट देते हैं।
बसंत पंचमी के दिन विद्यालयों, कॉलेजों और सांस्कृतिक संस्थाओं में माँ सरस्वती की पूजा के रूप में विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। यह त्यौहार भारत में मुख्य रूप से माँ सरस्वती की पूजा और उनकी कृपा का उत्सव है। यह त्यौहार विद्यार्थियों को सरस्वती माता का आशीर्वाद लेने का अवसर देता है। वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम होता है। इस मौसम में फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों के फूल लहलहाने लगते हैं। खेतों में ऐसा लगता है जैसे खेतों में पीली चादर सी बिछ गयी हो। सरसों के पीले फूल अपने आकर्षण से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ऐसा लगता है मानो सोना चमक रहा हो। साथ ही आमों के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं। प्रकृति का माहौल एकदम खुशनुमा हो जाता है। बसंत पचंमी का त्यौहार होली की तैयारियों का संकेत है।
यह दिन किसी भी नए कार्य की शुरुआत के लिए है अत्यंत ही शुभ महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि यह दिन किसी भी नए व शुभ कार्य की शुरुआत करने के लिए अत्यंत ही शुभ होता है। इस दिन शुभ कार्यों के लिए अबूझ मुहूर्त होता है। साथ ही यह दिन मां सरस्वती के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। माँ सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा जाता है इसलिए स्कूलों और कॉलेज में भी इस दिन मां सरस्वती की पूजा अर्चना के साथ बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी किए जाते हैं। विद्या की देवी को प्रसन्न करने के लिए बच्चे मां की पूजा करते हैं, जिससे वे परीक्षा में अच्छे अंकों को प्राप्त करें और जीवन में आगे बढ़ें। यह दिन छात्रों, कला, संगीत आदि क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए बेहद खास होता है। वसंत पंचमी कई तरह के शुभ कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। बसंत पंचमी अबूझ मुहूर्त में विद्यारंभ, गृह प्रवेश, विवाह और कोई भी नई वस्तु की खरीदारी के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है। विद्यार्थी और कला साहित्य से जुड़े हर व्यक्ति को इस दिन मां सरस्वती की पूजा अवश्य करनी चाहिए। महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि इस दिन सच्चे मन से की गई पूजा कभी विफल नहीं जाती है।
बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती को लगायें इन चीज़ों का भोग बसंत पंचमी पर माँ सरस्वती की विधिवत पूजा की जाती है। सरस्वती पूजा के दिन इन विशेष चीज़ों का भोग लगाना बेहद शुभ माना जाता है। आइये जानते हैं माँ सरस्वती को किन चीज़ों का भोग लगाना शुभ फल देता है।
पीले चावल माँ सरस्वती की पूजा में पीला रंग बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि माँ सरस्वती को पीला रंग बेहद पसंद है। इसलिए बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती को पीले चावल का भोग लगायें।
पीले लडडू बसंत पंचमी के दिन माँ को पीले लडडू यानि बेसन या बूंदी के लडडू का भोग लगाएं। माना जाता है कि पीले लडडू का भोग लग��ने से माँ प्रसन्न होती है।
राजभोग इस दिन माँ सरस्वती को राजभोग का भी भोग लगाया जाता है, जो कि शुभ होता है। इन सबके अलावा मालपुआ और जलेबी का भी भोग लगा सकते हैं।
घर में वीणा रखने से रचनात्मक वातावरण निर्मित होता है महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार घर में वीणा रखने से घर के अंदर रचनात्मक वातावरण निर्मित होता है। मां सरस्वती की पूजा में मोर पंख को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यहाँ तक कि घर के मंदिर में मोर पंख रखने से नकारात्मक ऊर्जा घर में प्रवेश नहीं करती है। इस दिन बच्चों के अक्षर का शुभारंभ भी किया जाता है। सरस्वती पूजा के दिन‘ओम् ऐं सरस्वत्यै नम:’ मंत्र का जाप करें और इस मंत्र को बोलकर विद्यार्थी मां सरस्वती का स्मरण करें। इस मंत्र का जाप करने से बुद्धि तेज होती है और आप सफलता की ऊंचाइयों को छू सकते हैं।
जीवन का यह बसंत, आप सबको अपार खुशियां दे … मां सरस्वती की कृपा आप पर हमेशा बनी रहे। “पारस परिवार” की ओर से आप सबको बसंत पचंमी और सरस्वती पूजा की ढेर सारी शुभकामनायें !!!
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parasparivaarorg · 10 days
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पारस जी से जानते हैं क्या है ॐ और इसका रहस्य?
पारस परिवार का उद्देश्य
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
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क्या है ॐ और क्या है इसका रहस्य?
हम सभी अक्सर सोचते हैं कि आखिर ओम शब्द को क्यों इतना महत्व दिया जाता है और क्या है इसका रहस्य। माना जाता है कि ॐ के बिना सारी सृष्टि, सारा ब्रह्मांड अधूरा है। ॐ की ध्वनि स्वंय में शाश्वत है इसके बिना सारी सृष्टि, संपूर्ण ब्रह्मांड अधूरा है। सनातन धर्म की मुख्य पहचान भी ॐ शब्द या मंत्र से ही होती है। तो आइये आज विस्तार से जानते हैं क्या है ओम और कहाँ से हुई ॐ की उत्पत्ति?
ॐ भगवान शिव का पर्याय
महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि ॐ की ध्वनि स्वंय में सत्य, शाश्वत है। यदि मंत्रो का ��च्चारण करते हुए ॐ की ध्वनि उच्चारित न की जाए तो मंत्रोच्चारण अधूरा रहता है। ॐ भगवान शिव का पर्याय है, उनका प्रतीक है। ॐ मंत्र भी है और एक शब्द भी। ॐ में संपूर्ण मानव जीवन का सार छिपा हुआ है। हिंदू धर्म या सनातन धर्म की मुख्य पहचान ॐ शब्द या मंत्र से ही होती है।
ॐ का अर्थ
ॐ का उच्चारण तीन ध्वनियों से मिलकर बना है। अ,उ एवं म इन तीन शब्दों से मिलकर बना है ॐ। ॐ शब्द ओम या अऊम से मिलकर बना है। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार ये तीनों अक्षर तीनों देवों से संबंधित हैं। अ, ब्रह्मा का बोध कराता है, उं पालनकर्ता श्री हरि विष्णु का वाचक है। म,रुद्र यानि शिव का वाचक है। इसमें से पहले दो अक्षर अ व ऊ मिलकर ओ बन जाते हैं। इस तरह से इसे ओम भी लिखा जाता है। ॐ का उच्चारण करते समय अ की ध्वनि का त्याग हृदय में, उ की ध्वनि का त्याग कंठ में और म की ध्वनि का त्याग तालुमध्य में किया जाता है। ॐ को मंत्र भी बोल दिया जाता है और यह एक शब्द भी है।
ओम क्या है और जानिए इसका रहस्य ?
ओम वो शब्द है जिसका पूरा रहस्य क्या है, हर कोई जानना चाहता है। ॐ शिव का सूचक है और किसी भी मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं है कि वह शिव को सम्पूर्ण रूप में पा सके या उन्हें जान सके। इसलिए ॐ की शक्ति को जानना भी सबके लिए आसान नहीं है। यह सबके लिए किसी रहस्य से कम नहीं है। इस ब्रह्मांड में एक शब्द हमेशा गूंजता है, वह शब्द है ॐ। यह ॐ शब्द हमें आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का कार्य करता है और हमें ब्रह्मज्ञान देता है। इतना ही नहीं, यह हमें जीवन का सार दिखाता है।
ॐ को हम एक अक्षर के संदर्भ में भी देख सकते हैं। वैसे तो यह तीन शब्दों के मेल से बना है लेकिन इसे एक अक्षर के रूप में लिखना हो तो इसे ॐ के रूप में लिखा जाता है। वेदों, उपनिषदों में भी ॐ को इसी तरह से ही लिखा गया है। ॐ सिर्फ अक्षर या शब्द ही नहीं है बल्कि यह अपने आप में एक संपूर्ण मंत्र भी है और इसे सर्वोच्च मंत्र माना जाता है। ॐ की ध्वनि शांत भी हैऔर तीव्र भी है। यदि शांत मन से ॐ की ध्वनि को सुना जाए तो उसे सुनने पर आत्मिक सुकून की अनुभूति होती है। इस ब्रह्माण्ड में आपको हर जगह ॐ की ध्वनि सुनाई देगी। ओम शब्द इस ब्रह्मांड में हमेशा गूंजने वाली ध्वनि है और यह ब्रह्मांड की शुरुआत का प्रथम शब्द भी है। इसलिए इसे प्रणव ध्वनि या प्रथम शब्द भी कहा जाता है।
ॐ की उत्पत्ति कहां से हुई?
आखिर कहाँ से हुई ॐ की उत्पत्ति यह सवाल हर किसी के मन में आता है। दरअसल ॐ की उत्पत्ति ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ ही शुरू हो गयी थी। यानि ॐ ब्रह्माण्ड में हमेशा से था और आने वाले समय में भी रहेगा। महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि ॐ ब्रह्मांड में गूंजने वाली एक ऐसी ध्वनि या आवाज है जो शुरुआत से अंत तक रहने वाली है।
इसके अलावा कई मान्यताओं के आधार पर यह भी माना जाता है कि सबसे पहले ॐ शब्द का उच्चारण भगवान शिव ने किया था। इसलिए ॐ की उत्पत्ति भगवान शिव के मुख से भी मान सकते हैं। जो भी व्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 10 से 15 मिनट के लिए ॐ मंत्र का जाप करता है, उन्हें संपूर्ण जीवन का मतलब पता चल जाता है।
ॐ का आध्यात्मिक महत्व
ओ, उ और म, तीन अक्षरों से बने ॐ की अपार महिमा है। यह एकाक्षर मंत्र है, ॐ ही महामंत्र है, यह अनादि, अनंत, निर्वाणऔर मोक्ष सभी का प्रतीक है। ॐ का उच्चारण मोक्ष की ओर ले जा सकता है। इसके उच्चारण से नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र जागृत हो जाता है। यह तीनों देवों, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ तीनों लोकों का भी प्रतीक है। शास्त्रों में ॐ की ध्वनि के सौ से भी अधिक अर्थ बताए गए हैं। पहले शिक्षा की शुरुआत भी इसी ॐ मंत्र के साथ ही की जाती थी।
जब बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है तब गुरु द्वारा सबसे पहले उसे ॐ मंत्र का महत्व ही बताया जाता है। इसी के साथ ही इस ॐ मंत्र को किसी अन्य मंत्र की शुरुआत या अंत में भी बोला जा सकता है। आज के समय में ॐ सभी मंत्रों में सर्वोच्च व ब्रह्माण्ड की ध्वनि के रूप में जाना जाता है। जब व्यक्ति ध्यान की अवस्था में शून्य की ओर चला जाता है, तब उस चरम सीमा पर पहुंचने पर व्यक्ति को ॐ की ध्वनि स्वयं ही सुनाई देने लगती है। ॐ की महत्ता इतनी है कि एक गूंगा व्यक्ति भी ओम आसानी से बोल सकता है। इस तरह से ॐ एक ऐसा शब्द है जो संपूर्ण ब्रह्मांड की आवाज है।
सृष्टि का आदि भी ॐ और अंत भी ॐ
ॐ से ही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति है तो ॐ के नाद में सृष्टि के अंत की क्षमता भी है, इसकी ध्वनि में प्रलय को आमंत्रित करने की भी क्षमता है। ॐ समस्त ब्रह्मांड के विनाश की क्षमता रखता है, इसकी ध्वनि ब्रह्मांड में सबसे अधिक प्रभावशाली है। यह ध्वनि जहाँ एक ओर सूक्ष्म हो सकती है तो वहीं यह ध्वनि खतरनाक भी हो सकती है। माना जाता है कि जिस दिन सूर्य की
ऊर्जा भी समाप्त हो जाएगी। उस दिन भी केवल ॐ की ध्वनि और प्रकाश ही उपस्थित होगा।ॐ का नाद सभी से अलग है, जब आप ध्यान की चरम अवस्था में पहुंचते हैं तब आपको ॐ की ध्वनि स्वयं सुनाई देने लगती है।
यह ध्वनि संपूर्ण ब्रह्मांड में है। यही वजह है कि ॐ की ध्वनि को ईश्वर के समानार्थ बताया गया है। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि पुराणों में कहा गया है कि ॐ की ध्वनि और प्रकाश के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है।
शिशु का प्रथम शब्द भी ओम
आपने देखा होगा कि जब बच्चा जन्म लेता है तो जन्म लेने के कुछ दिन के बाद ही कुछ अक्षर बोलने लगता है। वो अक्षर हैं अ, ऊ व म और इन्हीं तीनो को मिलाकर ओम शब्द बनता है। यानि जिस बच्चे को शब्दों का ज्ञान तक नहीं होता है, उस शिशु के मुख से भी ॐ ही निकलता है।
ओम का वर्णन उपनिषद में
हिंदू धर्म में हर धार्मिक कार्य और अनुष्ठान में ॐ मंत्र का जाप प्रमुख रूप से किया जाता है। ॐ मंत्र के महत्व का अंदाजा इस बात से लग जाता है कि इसे किसी भी मंत्र की शुरुआत और अंत में बोला जा सकता है। ॐ का वर्णन चारों वेदों के साथ-साथ हर उपनिषद, ग्रंथ आदि में किया गया है। मांडूक्य उपनिषद में ॐ शब्द का महत्व बताया गया है।
जब ॐ का जाप किया जाता है तो आप ध्यान की अवस्था में रहते हुए ॐ की ध्वनि का उच्चारण करते हैं। इसके बाद एक समय ऐसा आता है, जब आप ध्यान की चरम सीमा में पहुंच जाते हैं, उस समय आपको उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती और स्वत: ही आपको यह ध्वनि सुनाई देने लगती है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि ॐ का जाप करने से मनुष्य को मानसिक शांति का अनुभव होता है, साथ ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और शरीर का तेज भी बढ़ता है। ॐ शब्द में इतनी शक्ति है कि आप स्वयं को परमात्मा के साथ जोड़ सकते हैं, आप परमात्मा में पूरी तरह खो सकते हैं।
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parasparivaarorg · 13 days
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Paras ji explained About Kumbh
कुंभ संक्रांति-: स्नान-ध्यान और दान-पुण्य का विशेष महत्व
हिंदू धर्म में कुंभ संक्रांति का विशेष महत्व है। मकर संक्रांति की तरह ही इस दिन भी स्नान-ध्यान और दान-पुण्य किया जाता है। इस दिन पुण्य काल में स्नान और दान करना कई तरह से लाभदायी होता है। इस दिन गंगा, यमुना या किसी पवित्र नदी में स्नान करना बहुत ही शुभ माना जाता है। इस दिन आप स्नान ध्यान और सूर्य देव की पूजा-उपासना कर सकते हैं। चलिए विस्तार से जानते हैं कि कब है कुंभ संक्रांति और क्या है इस तिथि का महत्व ?
क्या होता है संक्रांति का अर्थ?
सनातन धर्म में संक्रांति का विशेष महत्व है। सबसे पहले संक्रांति का अर्थ जानते हैं, जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में जाते हैं उसे संक्रांति कहा जाता है। यानि इस दिन सूर्य देव एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं। फाल्गुन माह में कुंभ संक्रांति के दिन भी सूर्य का राशि परिवर्तन होता है। इस दौरान सूर्य मकर राशि से कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं जिसे कुंभ संक्रांति कहा जाता है।
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कब है कुंभ संक्रांति?
कुंभ संक्रांति 13 फरवरी 2024 को मनाई जाएगी। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि इस दिन गंगा, यमुना या किसी पवित्र नदी में स्नान करना बहुत ही शुभ माना जाता है। ऐसा करने से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं और भक्त को उनकी कृपा मिलती है। इस वर्ष कुंभ संक्रांति का त्यौहार मंगलवार के दिन मनाया जाएगा, जिस वजह से आपको हनुमान जी की उपासना का भी असीम फल प्राप्त होगा।
कुंभ संक्रांति की पूजा विधि
कुंभ संक्रांति के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर, श्रीहरि विष्णु का स्मरण करें और गंगा स्नान करें या फिर इसके अलावा किसी भी पवित्र नदी में स्नान कर सकते हैं। यदि किसी पवित्र नदी में स्नान करना संभव न हो सके तो घर में ही गंगाजल मिलाकर स्नान कर लें। स्नान करने के उपरांत तिल मिलाकर भगवान सूर्य देव को अर्घ्य जरूर दें। फिर मंदिर में फल, पुष्प अर्पित कर धूप, दीप जलायें और भगवान सूर्य का जाप करें। इस दिन सूर्य मंत्र का जाप करने के साथ सूर्य चालीसा औरआदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो आपकी कुंडली में स्थित सूर्य की स्थिति मजबूत होती है। मंदिर में पूजा अर्चना के बाद किसी गरीब और किसी जरूरतमंद व्यक्ति को और पंडित को दान जरूर दें। इसके अलावा अपनी सामर्थ्य के अनुसार वस्त्रों का दान भी करें।
इन चीज़ों के दान से चमक जायेगी आपकी किस्मत
महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि कुंभ संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने के साथ गरीब लोगों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान देने का विशेष महत्व माना गया है। इन चीज़ों के दान से आपकी किस्मत चमक जायेगी और आपको सफलता अवश्य मिलेगी। आइये जानते हैं कुंभ संक्रांति के दिन किन चीज़ों का दान करना शुभ माना जाता है?
कुंभ संक्रांति पर करें तिल का दान
डेरा नसीब दा के महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार कुम्भ संक्रांति के दिन काले तिल का दान करना बहुत ही शुभ माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन तिल का दान करने से भगवान सूर्य देव के साथ-साथ शनि देव की कृपा भी प्राप्त होती है। व्यक्ति को आरोग्य के साथ-साथ सूर्य दोष से भी छुटकारा मिल सकता है और जीवन में अच्छे फलों की प्राप्ति होती है।
कुंभ संक्रांति पर अन्न का दान करें
कुंभ संक्रांति के दिन अन्न का दान करना भी शुभ होता है इसलिए इस दिन अन्न का दान अवश्य करें। पारस परिवार के मुखिया महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि कुंभ संक्रांति के दिन अन्न का दान करने से आपके घर में अन्न का भंडार कभी ख़ाली नहीं होता और आपके घर में हमेशा बरकत होती है।
कुंभ संक्रांति पर गुड़ का दान करें
अगर आपके घर में कोई व्यक्ति बार-बार बीमार होता है तो कुंभ संक्रांति के दिन किसी जरूरतमंद व्यक्ति को गुड़ का दान जरूर करें। ऐसा करने से बीमार व्यक्ति की सेहत अवश्य ठीक हो जायेगी।
कुंभ संक्रांति पर तांबे का दान करें
ज्योतिष शास्त्र में तांबे को सूर्य की धातु कहा गया है। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार कुंभ संक्रांति के दिन तांबा या तांबे के बर्तन दान करना शुभ होता है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आपकी कुंडली में सूर्य की स्थिति मजबूत होती है।इसके अलावा आप इस दिन जरूरतमंदों को घी, लाल वस्त्र, गेहूँ और लाल फूल का दान भी कर सकते हैं। महान ज्योतिष महंत श्री ���ारस जी ने बताया कि सूर्यदेव को लाल रंग बेहद प्रिय है इसलिए कुंभ संक्रांति के दिन लाल रंग के कपड़े का दान करना शुभ माना जाता है।
कुंभ संक्रांति का महत्व
कुंभ संक्रांति का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यह हिन्दू धर्म और हिन्दू परंपरा में एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जो कि मकर संक्रांति के बाद होता है। साथ ही यह त्यौहार, सामाजिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता को प्रोत्साहित करता है। पारस परिवार के मुखिया महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि कुंभ संक्रांति पर्व के दिन स्नान-दान करने से व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। यह त्यौहार भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह उन सभी लोगों को एक साथ लाता है, जो अलग-अलग धर्म, जाति, और परंपराओं से संबंधित होते हैं। इस दिन को कुंभ स्नान के रूप में जाना जाता है, जो धार्मिक और सामाजिक महत्व के लिए जाना जाता है। यह त्योहार लोगों को सामूहिक एकता की भावना से भर देता है और उन्हें धर्म, संस्कृति, और सामाजिक मूल्यों के प्रति समर्पित बनाता है। महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि इस विशेष दिन पर सूर्य देव की उपासना करने से सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
कुंभ संक्रांति के दिन इन मंत्रों का करें जाप
यदि आप किसी भी तरह से परेशान हैं तो इन मंत्रों के जाप से आपकी सारी परेशानियां दूर हो जायेंगी।
ॐ सूर्याय नमः
ॐ भास्कराय नमः
ॐ आदित्याय नमः
यह त्यौहार आत्मिक और धार्मिक उन्नति में मदद करता है
कुंभ संक्रांति पर लाखों लोग तीर्थयात्रा करते हैं और संगम स्थलों में स्नान करते हैं, जो उनके आत्मिक और धार्मिक उन्नति में मदद करता है। इस दिन को अपने आपको बदलने और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का उत्कृष्ट मौका माना जाता है, जो लोगों को सच्चे और ईश्वर के निकट ले जाता है। कुंभ संक्रांति के दौरान गायों को दान देना भी काफी शुभ माना जाता है। हिंदू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और एकादशी का जितना महत्व है उतना ही महत्व संक्रांति तिथि का भी होता है। देवी पुराण में कहा गया है कि संक्रांति के दिन जो स्नान नहीं करता उसे कई जन्मों तक दरिद्रता में जीवन गुजारना पड़ता है। संक्रांति के दिन गरीबों और जरूरतमंदों को दान जरूर करें और गरीबों को भोजन कराएं। सूर्य देव हनुमान जी के गुरु माने जाते हैं, जिस वजह से इस दिन सूर्य देव के साथ हनुमान जी की उपासना करने से भी विशेष लाभ प्राप्त होगा।
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parasparivaarorg · 15 days
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Sanatan Dharm ke Paras Guru Ji dvaara Aayujit Janmaashtami Mahotsav
संसार को गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण के जन्म का महोत्सव
महंत पारस जी के अनुसार पुरातन सनातन धर्म में कई धार्मिक त्योहारों को सूचीबद्ध किया गया है,उन प्रमुख धार्मिक त्योहारों में से एक है जन्माष्टमी, जिसे कृष्ण अष्टमी और गोकुलाष्टमी के नाम से भी जानते हैं। यह हिन्दुओं के सबसे प्रतिष्ठित त्योहारों में एक है, जो विष्णु के आंठवे अवतार भगवान कृष्ण के जन्म का उत्सव मानते है। यह उत्सव जीवन में आनंद, भक्ति, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और जीवंतता का प्रतीक है।
यह कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है जो आमतौर पर अगस्त में आता है।
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ऐतिहासिक एवं पौराणिक महत्व
भगवान् श्री कृष्ण हिन्दू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक माने जाते हैं। हिन्दू वैष्णों धर्म में जन्माष्टमी का विशेष महत्त्व है। महंत पारस जी के अनुसार कृष्ण रास लीला की परंपरा जैसे कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में जागरण करना, भक्ति गायन, नृत्य नाटक ,उपवास रखना जन्माष्टमी उत्सव के भाग हैं। कृष्ण देवकी और वासुदेव के आठवें पुत्र हैं। इनका जन्म मथुरा में भाद्रपद माह के आंठवे दिन की आधी रात को हुआ था। कृष्ण का जन्म अराजकता के समय हुआ था जब उनके मामा कंस द्वारा उनके जीवन के लिए संकट था। यह समय ऐसा था जब उनके मामा के द्वारा उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था,और सब ओर बुराई फैली हुई थी
म��ंत पारस जी ने उल्लेख किया है की हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री कृष्ण का जन्म मथुरा के काल कोठरी में आधी रात को हुआ था। कथा के अनुसार मथुरा के अत्याचारी साशक कृष्ण के मामा कंस के लिए एक भविष्यवाणी हुई थी की उसकी बहन देवकी का आठवां पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा। इसलिए उसने अपनी बहन देवकी और जीजा वासुदेव को काल कोठरी में बंद कर दिया और उनके हर पुत्र की हत्या कर दी लेकिन उसके आठवें पुत्र श्री कृष्ण को नहीं मार सका क्युकी जैसे ही वो मारने के आगे बढ़ा वैसे ही शिशु से योगमाया प्रकट हुई और कहा की उसको मारने वाला जन्म ले चुका है और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दिया गया है जो आगे चलकर उसका वध करेगा। मथुरा के बंदीगृह में जन्म के तुरंत उपरान्त, उनके पिता वसुदेव आनकदुन्दुभि कृष्ण को यमुना पार ले जाते हैं, जिससे बाल श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्द और यशोदा को दिया जा सके। इस खबर से मथुरावासियों के भीतर ख़ुशी की लहर दौड़ गयी और उसी दिन से जन्माष्टमी को बेहद उत्साह के साथ मनाया जाने लगा।
श्री कृष्ण के प्रारंभिक जीवन के बारे में दर्शाते है, उनके चंचल कारनामों और दैवीय चमत्कारों, भगवद् गीता सहित विभिन्न ग्रंथों में वर्णित हैं। सनातन धर्म के रक्षक के रूप में श्री कृष्ण की भूमिका और भक्ति, कर्तव्य और प्रेम पर उनकी अभिव्यक्तियाँ और चरित्र हिन्दू दर्शन का मूल हैं।
उत्सव अनुष्ठान और प्रथाएं
हिन्दू समुदायों की विविध सांस्कृतिक प्रथाओं को दर्शाते हुए, जन्माष्टमी समारोह भारत और दुनिया भर में व्यापक रूप से भिन्न होते हैं। हालांकि, सामान्य विषय और अनुष्ठान इन समारोहों को एकजुट करते हैं।
उपवास और प्रार्थना
महंत पारस जी के अनुयायी इस दिन व्रत रखते हैं, जो आमतौर पर सूर्योदय से शुरू होता है और अगले दिन आधी रात के उत्सव के बाद समाप्त होता है। यह व्रत भक्ति और तपस्या का प्रतीक है, जो अनुयायियों को अपनी आध्यात्मिक प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है। व्रत के दौरान, भक्त प्रार्थना, जप और कृष्ण के जीवन से सम्बंधित ग्रंथों को पढ़ने में, भजन कीर्तन करने में संलग्न होते हैं।
आधी रात का जश्न
जन्माष्टमी का मुख्य आकर्षण आधी रात का उत्सव है, जो कृष्ण के जन्म के सही समय को दर्शाता है। मंदिरों और घरों को फूलों, रौशनी और रंगीन सजावट से सजाया जाता है। उनकी प्रार्थनाएं और भजन गायें जाते हैं,और कृष्ण की छवियों और मूर्तियों को स्न्नान कराया जाता है, सुन्दर सुन्दर कपडे पहनाएं जाते हैं और एक सुन्दर से सजाये गए पालने में रखा जाता है।
भक्त भक्ति गीत गाने, नृत्य करने और कृष्ण के बचपन के कारनामों की पुनरावृत्ति में भाग लेने के लिए इक्कठा होते हैं।
दही हांडी
जन्माष्टमी के सबसे जीवंत और लोकप्रिय पहलुओं में से एक दही हांडी परंपरा है, जो विशेष रूप से महाराष्ट्र और भारत के अन्य क्षेत्रों में मनाई जाती है। इस परंपरा में दही, मक्खन और अन्य वस्तुओं से भरी हुई एक मिटटी की हांडी को जमीन से ऊपर लटकाया जाता है। युवा टीम जिन्हे गोविंदा के नाम से जाना जाता है, हांडी तक पहुंचने और उसे तोड़ने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं। यह कृत्य कृष्ण के मक्खन के प्रति प्रेम और उनके शरारती स्वाभाव का प्रतीक है, जो उनकी चंचल भावना और एक नेता और रक्षक के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन महंत पारस जी के द्वारा दही हांडी का समारोह आयोजन कराई जाती है, लोग दही हांडी तोड़ते हैं जो त्यौहार का एक भाग है। दही हांडी का शाब्दिक अर्थ है दही से भरा मिट्टी का पात्र। दही हांडी के अनुसार श्री कृष्ण अपने सखाओं सहित दही ओर मक्खन जैसे दूध के उत्पादों को ढूंढ कर और चुराकर बाँट देते थे। इसलिए लोग अपने घरों में माखन और दूध की हांडी बालकों की पहुंच से बाहर छिपा देते थे और कृष्ण अपने सखाओं के साथ ऊँचे लटकती हांडियों को तोड़ने के लिए सूच्याकार स्तम्भ बनाते थे। भगवान् कृष्ण की यह लीला भारत भर में हिन्दू मंदिरों के हस्तशिल्पों में, साथ साथ साहित्य में और नृत्य नाटक में प्रदर्शित की जाती है जो बालकों के आनंद और भोलेपन का प्रतीक है।
कृष्ण लीला प्रदर्शन
कृष्ण के जीवन के विभिन्न नाट्य रूपांतरण, जिन्हे कृष्ण लीला के नाम से जाना जाता है, जन्माष्टमी के दौरान प्रदर्शित किये जाते हैं। इन प्रदर्शनों में उनके बचपन के चमत्कारों , राक्षसों के साथ उनकी लड़ाई और महाभारत में उनकी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन शामिल है। इन नाटकों का मंचन अक्सर सामुदायिक स्थानों और मंदिरों में किया जाता है, जो बड़ी संख्या में दर्शकों को आकर्षित करते हैं, मनोरंजन और आध्यात्मिक संवर्धन दोनों प्रदान करते हैं।
क्षेत्रीय विविधताएं
हिन्दू संस्कृति की विविधता को प्रदर्शित करते हुए, जन्माष्टमी को विशिष्ट क्षेत्रीय स्वादों के साथ मनाया जाता है। हर क्षेत्र और जगह का अपना महत्व है, विविधताएं है। हर क्षेत्र में कृष्ण के अलग अलग नाम हैं, विभिन्न क्षेत्रों में पूजा व्रत की अलग अलग विधियां हैं। लोग इस दिन पवित्रता बनाये रखने के लिए विभिन्न धार्मिक कृत्यों का पालन करते हैं। जिनमे विशेषरूप से रात्रि जागरण, पूजा अर्चना, और भजन कीर्तन शामिल हैं।
इन सभी विभिन्न परम्पराओं और अनोखे तरीकों से जन्माष्टमी मानाने का उद्देश्य भगवान श्री की उपस्थिति और उनकी बाल लीलाओं की याद ताज़ा करना होता है। जन्माष्टमी को त्यौहार न सिर्फ धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक एकता और विविधता का भी प्रतीक है।
मथुरा और वृन्दावन
ब्रज क्षेत्र में कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा और उनका बचपन का घर वृन्दावन, जन्माष्टमी समारोह के केंद्र हैं। मथुरा वृन्दावन में जन्माष्टमी की शोभा कुछ अलग ही देखने को मिलती है उत्सव में भाग लेने के लिए भारत और दुनिया के कोनों कोनों से तीर्थयात्री इन शहरों में आते हैं। मथुरा में कृष्ण जन्माष्टमी समारोह विशेष रूप से भव्य होते हैं जिसमे जुलुस, भक्ति गायन और विस्तृत अनुष्ठान होते हैं। वृन्दावन अपनी जीवंत उत्सवों के लिए प्रसिद्ध है, जिसमे कृष्ण की अपने भक्तों के साथ चंचल बातचीत की पुनरावृत्ति भी शामिल है।
पंजाब/हरयाणा
हरियाणा के (शाहाबाद मारकंडा) में महंत श्री पारस जी द्वारा डेरा नसीब दा में कृष्ण जन्माष्टमी बड़े पैमाने पर मनाई जाती है | पंजाब में जन्माष्टमी उत्साह और उमंग के साथ मनाई जाती है। यह त्यौहार भक्ति पूर्ण गायन, नृत्य और भजनों के गायन द्वारा चिन्हित है। गुरूद्वारे भी उत्सव में भाग लेते हैं, जो क्षेत्र में विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के सामंजस्य पूर्ण सह अस्तित्व को उजागर करते हैं। जन्माष्टमी पर विशेष रूप से खिचड़ी का प्रसाद बनाया जाता है। इस दिन मंदिरों में खिचड़ी का वितरण किया जाता है , इसे बड़े श्रद्धा भाव से तैयार किया जाता है और सभी भक्तो के बिच प्रसाद रूप वितरित किया जाता है|
गुजरात / राजस्थान
गुजरात में, जन्माष्टमी को धुलेटी के नाम से जाना जाता है। उत्सव में विशेष प्रार्थनाएं, पारम्परिक नृत्य और उत्सव के भोजन की तैयारी शामिल है। यह क्षेत्र अपनी रंग बिरंगे जुलूसों और विस्तृत सजावट के लिए भी जाना जाता है, जो त्यौहार की ख़ुशी की भावना को दर्शाता है।
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव
जन्माष्टमी का गहरा आध्यात्मिक महत्व है, जो दैवीय शक्ति और धार्मिकता की जीत का प्रतिनिधित्व करता है। ��गवद गीता में वर्णित कृष्ण की शिक्षाएँ कर्तव्य, भक्ति और आत्मा की शाश्वत प्रकृति के महत्व पर जोर देती हैं। ये शिक्षाएँ लाखों अनुयायियों को प्रेरित और मार्गदर्शन करती रहती हैं।
सांस्कृतिक रूप से, जन्माष्टमी जीवन, कला और परंपरा के एक जीवंत उत्सव के रूप में कार्य करती है। यह त्यौहार समुदायों को एक साथ लाता है, एकता और साझा खुशी की भावना को बढ़ावा देता है। विभिन्न अनुष्ठान और प्रदर्शन न केवल कृष्ण की दिव्य उपस्थिति का जश्न मनाते हैं बल्कि सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित और बढ़ावा भी देते हैं।
आधुनिक अनुकूलन और वैश्विक उत्सव
हाल के वर्षों में, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में होने वाले उत्सवों के साथ, जन्माष्टमी ने भौगोलिक सीमाओं को पार कर लिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में हिंदू समुदाय भक्ति और उत्साह के साथ जन्माष्टमी मनाते हैं। इन देशों में मंदिर और सांस्कृतिक संगठन भजन सत्र, सांस्कृतिक प्रदर्शन और कृष्ण के जीवन और शिक्षाओं के बारे में शैक्षिक कार्यक्रमों सहित कार्यक्रमों की मेजबानी करते हैं।
जन्माष्टमी की वैश्विक पहुंच हिंदू परंपराओं के प्रति बढ़ती सराहना और कृष्ण की शिक्षाओं की सार्वभौमिक अपील को दर्शाती है। लाइव-स्ट्रीम किए गए कार्यक्रमों, सोशल मीडिया अभियानों और दुनिया भर के भक्तों को जोड़ने वाले ऑनलाइन मंचों के साथ आधुनिक तकनीक ने भी त्योहार के प्रभाव को बढ़ाने में भूमिका निभाई है।
1. धार्मिक महत्व: जन्माष्टमी कृष्ण के जन्म का प्रतीक है, जो पुरे संसार मे एक दिव्य नायक और धार्मिकता के प्रतीक के रूप में पूजनीय हैं। उनकी शिक्षा और जीवन भगवद गीता सहित विभिन्न हिंदू दर्शन और ग्रंथों का केंद्र हैं, जो आध्यात्मिक मार्गदर्शन और नैतिक शिक्षा प्रदान करता है।
2. नैतिक और नीतिपरक पाठ: कृष्ण के जीवन को सदाचारी और संतुलित जीवन जीने के मार्गदर्शक के रूप में देखा जाता है। उनके कार्य और सनातन धर्म शिक्षा (कर्तव्य/धार्मिकता), कर्म (कार्य और उसके परिणाम), और भक्ति की अवधारणाओं को संबोधित करते हैं। जन्माष्टमी का उत्सव इन सिद्धांतों की याद दिलाता है।
3. आध्यात्मिक नवीनीकरण: भक्तों के लिए, जन्माष्टमी आध्यात्मिक नवीनीकरण और भक्ति का एक अवसर है। बहुत से लोग कृष्ण का सम्मान करने और उनका आशीर्वाद पाने के लिए उपवास करते हैं, मंदिर सेवाओं में भाग लेते हैं, और प्रार्थना और ध्यान में संलग्न होते हैं।
4. बुराई पर अच्छाई का प्रतीक: माना जाता है कि कृष्ण का जन्म दुनिया को बुराई से छुटकारा दिलाने और सनातन धर्म की बहाली के लिए हुआ था। जन्माष्टमी का उत्सव बुराई पर अच्छाई की जीत और धार्मिकता को बनाए रखने के लिए चल रहे संघर्ष का प्रतीक है।
कृष्ण का चरित्र चित्रण
श्री कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं , जो तीनो लोक के तीन गुणों सतगुण रजोगुण और तमोगुण में से सतगुण के स्वामी हैं। श्री कृष्ण को जन्म से सभी सिद्धियां उयस्थित थी। कालांतर में उन्हें युगपुरुष कहा गया। उन्होंने ही महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि और सम्पूर्ण संसार को गीता के ज्ञान दिया था, इस उपदेश के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान दिया जाता है। संसार में कृष्ण के किरदार को शब्दों में बयां नहीं कर सकते वो एक निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक , स्थितप्रज्ञ एवं दैवी सम्पदाओं से सुसज्जित महान पुरुष थे।
निष्कर्ष
जन्माष्टमी सिर्फ एक त्योहार ही नहीं त्यौहार से कहीं अधिक है; यह दिव्य प्रेम, धार्मिकता और सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। अपने जीवंत अनुष्ठानों, आनंदमय उत्सवों और गहरे आध्यात्मिक महत्व के माध्यम से, जन्माष्टमी सभी पृष्ठभूमि के लोगों को भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति और श्रद्धा की साझा अभिव्यक्ति में एक साथ लाती है। जैसे ही हम इस शुभ अवसर का जश्न मनाते हैं, हमें कृष्ण की कालजयी शिक्षा और प्रेम, करुणा और धार्मिकता के स्थायी मूल्यों की याद आती है जो मानवता को प्रेरित करते रहते हैं। कुल मिलाकर, जन्माष्टमी केवल कृष्ण के जन्म का उत्सव नहीं है, बल्कि उनकी शिक्षा और एक सार्थक और नैतिक जीवन जीने में उनकी प्रासंगिकता पर विचार करने का एक अवसर भी है।
भगवान कृष्ण की दिव्य कृपा हम सभी पर बनी रहे और जन्माष्टमी की भावना हमारे दिलों को खुशी और भक्ति से भर दे।
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parasparivaarorg · 21 days
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Famous Temple in India Mahakal Ujjain
Paras Parivaar Organization: Praised Mahakal Temple (महाकाल मंदिर) in India
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
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धार्मिक नगरी उज्जैन पूरी दुनिया में काफी मशहूर है। मध्य प्रदेश की तीर्थ नगरी उज्जैन में शिप्रा तट के निकट 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर हैं। उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर भारत में भगवान शिव को समर्पित सबसे प्रतिष्ठित और प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसके अलावा यहाँ हर 12 साल में कुंभ मेले का भी आयोजन किया जाता है जो सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है।
इस मंदिर में किए जाने वाले अनोखे अनुष्ठानों में से एक भस्म आरती है, जो अद्भुत रहस्य से भरी है इसलिए यह भस्म आरती दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करती है। आज इस ब्लॉग में हम उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के बारे में और महाकाल भस्म आरती के महत्व के बारे में विस्तार से जानेंगे।
12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर
मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का यह प्रमुख मंदिर है। उज्जैन में भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक महाकाल मंदिर स्थित है। महाकाल की नगरी उज्जैन को सब तीर्थों में श्रेष्ठ माना जाता है। यहां 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक महाकाल मंदिर स्थित है।
यह न केवल एक पूजा स्थल है बल्कि अत्यधिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व का स्थल भी है। मंदिर की उत्पत्ति चौथी शताब्दी ईसा पूर्व की मानी जाती है, जिसका उल्लेख मत्स्य पुराण और अवंती खंड जैसे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है।
इस मंदिर में किया जाने वाले सबसे मुख्य अनुष्ठान भस्म आरती है जो हर किसी का ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींचती है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। यह भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास स्थान माना जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि बाबा महाकालेश्वर के दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
वास्तुकला
यह मंदिर उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है। इसमें पाँच-स्तरीय शिकारा (शिखर), जटिल नक्काशी और एक विशाल प्रवेश द्वार है। इसके साथ ही मंदिर का आध्यात्मिक माहौल, पास में शिप्रा नदी के शांत घाटों के साथ मिलकर, भक्तों और पर्यटकों के लिए एक शांत वातावरण बनाता है। हिंदू धर्म में उज्जैन शहर का अपना अलग महत्व है। यह प्राचीन धार्मिक नगरी देश के 51 शक्तिपीठों और चार कुंभ स्थलों में से एक है।
क्यों कहा जाता है महाकाल ?
काल के दो अर्थ होते हैं एक समय और दूसरा मृत्यु। भगवान भोलेनाथ की नगरी उज्जैन हमेशा से ही काल-गणना के लिए बेहद उपयोगी एवं महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। देश के नक्शे में यह शहर 23.9 डिग्री उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर स्थित है।
कर्क रेखा भी इस शहर के ऊपर से गुजरती है। साथ ही उज्जैन ही वह शहर है, जहां कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक-दूसरे को काटती है। इस शहर की इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रख काल-गणना, पंचांग निर्माण और साधना के लिए उज्जैन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
दरअसल महाकाल को महाकाल इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्राचीन समय से ज्योतिषाचार्य यहीं से भारत की काल गणना करते आए हैं और यहीं से प्राचीन काल में पूरे विश्व का मानक समय निर्धारित होता था। इसी काल की गणना के कारण ही यहां भगवान शिव को महाकाल के नाम से जाना जाता है और यही वजह है कि इस ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर पड़ा।
“महाकाल” शब्द यानि “महान समय” है, जो भगवान शिव की शाश्वत प्रकृति को दर्शाता है। कहते हैं काल भी महाकाल के रौद्र रूप महाकाल के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं।
शास्त्रों का एक मंत्र- आकाशे तारकेलिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्। मृत्युलोके च महाकालम्, त्रयलिंगम् नमोस्तुते।। यानि सृष्टि में तीन लोक हैं- आकाश, पाताल और मृत्यु लोक। आकाश लोक के स्वामी हैं तारकलिंग, पाताल के स्वामी हैं हाटकेश्वर और मृत्युलोक के स्वामी हैं महाकाल। मृत्युलोक यानी पूरे संसार के स्वामी महाकाल ही हैं।
भस्म आरती
कालों के काल महाकाल के यहाँ हर दिन सुबह भस्म आरती होती है। इस आरती की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें ताजा मुर्दे की भस्म से भगवान महाकाल का श्रृंगार किया जाता है। यानि महाकालेश्वर मंदिर में सबसे अनोखा अनुष्ठान है भस्म आरती। इस अनुष्ठान में शिव लिंगम पर पवित्र राख, या “भस्म” लगाना शामिल है।
मध्य प्रदेश के शहर उज्जैन का नाम तो हर किसी ने सुना होगा। धार्मिक मान्यताओं के लिए मशहूर यह शहर पूरी दुनिया में दो चीजों के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है। इनमें से पहला है यहां स्थित बाबा महाकाल का मंदिर और दूसरा यहां होने वाला कुंभ।
कालों के काल बाबा महाकाल के इस मंदिर के दर्शन करने दूर-दूर से हर साल लाखों की संख्या में भक्त यहां पहुँचते हैं। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि यह स्थल अत्यन्त पुण्यदायी है। भगवान शिव के इस स्वरूप का वर्णन शिव पुराण में भी विस्तार से मिलता है।
भस्म आरती का समय
भस्म आरती के दर्शन करने के नियम कुछ खास होते हैं, इनका आपको पालन करना होता है। आपको बता दें कि यहां आरती करने का अधिकार सिर्फ यहाँ के पुजारियों को ही दिया जाता है अन्य लोग इसे केवल देख सकते हैं।
इस आरती को देखने के लिए पुरुषों को केवल धोती पहननी पड़ती है और महिलाओं को आरती के समय सिर पर घूंघट रखना पड़ता है। भस्म आरती का समय ऋतु परिवर्तन और सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय के साथ थोड़ा बदल जाता है। विशेष रूप से सुबह की भस्म आरती सबसे लोकप्रिय है और इसमें बहुत भीड़ होती है।
इस पवित्र समारोह को देखने और इसमें भाग लेने के लिए भक्त भोर से पहले ही जाग जाते हैं। भस्म आरती में अनुष्ठानों की एक श्रृंखला शामिल होती है, जिसमें वैदिक मंत्रों का जाप, पवित्र जल (अभिषेकम) की पेशकश और शिव पर विभूति का अनुप्रयोग शामिल है। पुजारी इन अनुष्ठानों को विधि विधान और समर्पण के साथ करते हैं।
भस्म आरती का समय
उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में भस्म आरती एक दैनिक अनुष्ठान है जो सुबह जल्दी शुरू होती है। भस्म आरती का समय निम्न है-
प्रातः भस्म आरती
यह भस्म आरती प्रातः 4:00 बजे से प्रातः 6:00 बजे तक होती है। यह सबसे प्रसिद्ध भस्म आरती है, इस पवित्र भस्म आरती के दर्शन के लिए भक्त बड़ी संख्या में आते हैं।
मध्याह्न भस्म आरती
यह भस्म आरती सुबह 10:30 से 11:00 बजे तक होती है।
संध्या भस्म आरती
इसका समय शाम 7:00 बजे से शाम 7:30 बजे तक है। इसका समय सूर्यास्त के समय के साथ बदलता रहता है।
महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि भस्म आरती देखना और भगवान शिव का आशीर्वाद लेना बेहद शुभ होता है। आरती के बाद, भक्तों को प्रसाद के रूप में पवित्र राख दी जाती है। ऐसा माना जाता ​​है कि इस राख को अपने माथे या शरीर पर लगाने से आध्यात्मिक शुद्धि और सुरक्षा मिलती है।
मंदिर का वैज्ञानिक महत्व
हम सबने भगवान शिव के इस मंदिर की पौराणिक कथाओं के बारे में सुना है लेकिन इस मंदिर का वैज्ञानिक महत्व शायद आपको पता न हो। खगोल शास्त्री मानते हैं कि मध्य प्रदेश का शहर उज्जैन ही पृथ्वी का केंद्र बिंदु है।
खगोल शास्त्रियों के अनुसार मध्य प्रदेश का यह प्राचीन शहर धरती और आकाश के बीच में स्थित है। इसके अलावा शास्त्रों में भी उज्जैन को देश का नाभि स्थल बताया गया है। यहाँ तक कि वराह पुराण में भी उज्जैन नगरी को शरीर का नाभि स्थल और बाबा महाकालेश्वर को इसका देवता कहा बताया गया है
उज्जैन के कुंभ को क्यों कहा जाता है सिंहस्थ
यहां हर 12 साल में पूर्ण कुंभ तथा हर 6 साल में अर्द्धकुंभ मेला लगता है। उज्जैन में होने वाले कुंभ मेले को सिंहस्थ कहा जाता है। आपको बता दें कि सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। जब सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है तो तब उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है।
दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है महाकाल
उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर का पौराणिक महत्व भी बहुत अधिक है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां दूषण नामक राक्षस का वध कर अपने भक्तों की रक्षा की थी, जिसके बाद भक्तों के आग्रह के बाद भोलेबाबा यहां विराजमान हुए थे। दूषण का वध करने के पश्चात् भगवान शिव को कालों के काल महाकाल या भगवान महाकालेश्वर नाम से पुकारा जाने लगा।
यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से तीसरा ज्योतिर्लिंग है। ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ, मल्लिकार्जुन के बाद तीसरे नंबर पर महाकालेश्वर मंदिर आता है। इस मंदिर की खास बात यह है कि यह एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है, जो दक्षिणमुखी है।
इसलिए तंत्र साधना के लिए इसे काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। दरअसल तंत्र साधना के लिए दक्षिणमुखी होना जरूरी है। इस मंदिर को लेकर ये भी मान्यता है कि यहां भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए थे।
ज्योतिर्लिंग यानी शिव जी ज्योति स्वरूप में विराजित हैं। देशभर में 12 ज्योतिर्लिंग हैं। इन 12 जगहों पर शिव जी प्रकट हुए थे और भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए इन जगहों पर ज्योति रूप में विराजमान हो गए।
यह मंदिर हिंदुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व रखता है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि इस मंदिर की तीर्थयात्रा करने से आपके सभी पाप धुल जाते हैं और आपको जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। महाकाल को उज्जैन का महाराज भी कहते हैं, माना जाता है कि किसी भी शुभ चीज को करने से पहले महाकाल का आशीर्वाद लेना बहुत ही शुभ फल देता है।
इन नामों से भी जाना जाता है उज्जैन को
शिप्रा, जिसे क्षिप्रा के नाम से भी जाना जाता है यह मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य की एक नदी है। क्षिप्रा नदी के तट पर बसे होने की वजह से इस शहर को शिप्रा के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा यह शहर संस्कृत के महान कवि कालिदास की नगरी के नाम से भी काफी प्रचलित है।
यह मध्य प्रदेश के पांचवें सबसे बड़े शहरों में से है, जो अपनी धार्मिक मान्यातों के चलते दुनियाभर में पर्यटन का प्रमुख स्थल है। प्राचीन समय में उज्जैन को अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा के नाम से भी जाना जाता था।
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parasparivaarorg · 23 days
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Paras Parivaar Organization Talk About Famous Temple in Delhi
4 Most Visited Temple (माता के मंदिर) in Delhi
पारस परिवार के संस्थापक, आदरणीय “महंत श्री पारस भाई जी” एक सच्चे मार्गदर्शक, एक महान ज्योतिषी, एक आध्यात्मिक लीडर, एक असाधारण प्रेरक वक्ता और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो देश और समाज के कल्याण के लिए खुद को समर्पित करते हैं। उनका एक ही लक्ष्य है लोगों के सुखी और समृद्ध जीवन की कामना करना। लोगों को अँधेरे से निकालकर उनके जीवन में रोशनी फैलाना।
“पारस परिवार” हर किसी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध है। पारस परिवार से जो भी जुड़ जाता है वो इस परिवार का एक अहम हिस्सा बन जाता है और यह संगठन और भी मजबूत बन जाता है। जिस तरह एक परिवार में एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखा जाता है। ठीक उसी तरह पारस परिवार भी एक परिवार की तरह एक दूसरे का सम्मान करता है और जरूरतमंद लोगों के जीवन में बदलाव लाने के साथ यह परिवार एकजुट की भावना रखता है ।
‘महंत श्री पारस भाई जी’ एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जहाँ जाति-धर्म के नाम पर झगड़े न हों और जहाँ आपस में लोग मिलजुलकर रहें। साथ ही लोगों में द्वेष न रहे और प्रेम की भावना का विकास हो। पारस परिवार निस्वार्थ रूप से जन कल्याण की विचारधारा से प्रभावित है।
इसी विचारधारा को लेकर वह भक्तों के आंतरिक और बाहरी विकास के लिए कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम समय-समय पर आयोजित करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र (Spiritual Sector) की बात करें तो महंत श्री पारस भाई जी “दुख निवारण महाचण्डी पाठ”, “प्रार्थना सभा” और “पवित्र जल वितरण” जैसे दिव्य कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
जिससे वे भक्तों के दुखों का निवारण, उनकी आंतरिक शांति और उनकी सुख-समृद्धि के लिए समर्पित हैं। इसी तरह सामाजिक क्षेत्र की बात करें तो पारस परिवार सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण के लिए भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए लंगर, धर्मरथ और गौ सेवा जैसे महान कार्यों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा और मध्य प्रदेश में “डेरा नसीब दा” जैसे महान कार्य का निर्माण भी है, जहाँ जाकर सोया हुआ नसीब भी जाग जाता है।
वैसे तो दिल्ली में माता के कई प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हैं। लेकिन कुछ मंदिर ऐसे हैं जिनकी मान्यता बहुत अधिक है। इन माता के मंदिरों में हमेशा भक्तों की भीड़ लगी रहती है। क्योंकि माता के इन प्रसिद्ध मंदिरों में हर कोई एक बार दर्शन जरूर करना चाहता है। ऐसा माना जाता है कि यदि कोई भक्त एक बार माँ के चरणों में अपनी हाजिरी लगा देता है तो माँ अपने भक्तों पर खुश होकर उनकी झोलियाँ भर देती है और कभी भी खाली हाथ नहीं लौटाती है। आप जिस भी कामना के साथ माँ के मंदिर में जाते हैं वो अवश्य पूरी होती है। तो इसी कड़ी में हम आपको आज दिल्ली के कुछ प्रसिद्ध देवी मंदिरों के बारे में बताएंगे।
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कालकाजी मंदिर
यह मंदिर भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है। कालकाजी मंदिर दिल्ली के कालकाजी में स्थित है। यह मंदिर दिल्ली के प्रसिद्ध लोटस टेंपल के पास स्थित है। यह मंदिर माँ कालका देवी को समर्पित है। कालकाजी मंदिर देश के प्राचीन सिद्धपीठों में से एक है, यहाँ नवरात्रि के समय भक्तों का तांता लगा रहता है। हजारों की संख्या में भक्त यहाँ माता के दर्शन के लिए पहुँचते हैं। उस दौरान यहाँ भक्तों की बहुत लंबी लाइन होती है। कालकाजी मंदिर के निर्माण की बात करें तो इस मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में किया गया था। इसे मनोकामना सिद्धपीठ भी कहा जाता है।
इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इसी जगह आद्यशक्ति माँ भगवती ‘महाकाली’ के रूप में प्रकट हुई और असुरों का संहार किया, बस तब से यह सिद्धपीठ, मनोकामना सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। दरअसल असुरों के द्वारा बहुत अधिक परेशान किये जाने पर देवताओं ने इसी स्थान पर शक्ति की अराधना की। तब माँ पार्वती ने अपनी भृकुटी से महाकाली को प्रकट किया, फिर माँ काली ने रक्तबीज का संहार किया। महंत श्री पारस भाई जी बताते हैं कि महाकाली का वो रौद्र अत्यधिक भयानक था। उनके इस रूप को देखकर सब डर गए। सभी देवताओं ने माँ काली की प्रार्थना की। तब से इस स्थान पर जो भी पवित्र मन से जाता है माँ काली उसकी हर मनोकामना पूरी करती है।
छतरपुर मंदिर
छतरपुर मंदिर दिल्ली का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित है। इसे श्री आद्या कात्यायिनी मंदिर भी कहते हैं। क्योंकि यह मंदिर माता के छठे स्वरूप माता कात्यायनी को समर्पित है। इस मंदिर में मां दुर्गा अपने छठे रूप माता कात्यायनी के रौद्र स्वरूप में दिखाई देती हैं। यह मंदिर बहुत ही बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। इस मंदिर की भव्यता को देखने के लिए लोग दूर-दूर से यहां आते हैं और माता के दर्शन करते हैं। छतरपुर मंदिर दिल्ली के सबसे बड़े और सबसे विशाल मंदिरों में एक है। यह मंदिर गुंड़गांव-महरौली मार्ग के निकट छतरपुर में स्थित है। छतरपुर मंदिर की स्थापना 1974 में हुई। पहले इस भव्य मंदिर की जगह एक कुटिया हुआ करती थी, आज इस मंदिर का क्षेत्रफल 70 एकड�� तक फैला हुआ है।
नवरात्रि के समय यहाँ पर देश-विदेश से भक्त आते हैं। श्री आद्या कात्यायनी शक्तिपीठ मंदिर में एक पेड़ है जहां सभी भक्त धागा और चूड़ियां बांधते हैं। इसके पीछे यह मान्यता है कि ऐसा करने से आपकी जो भी इच्छाएं होती हैं वो सभी पूरी हो जाती हैं। इसकी स्थापना कर्नाटक के संत बाबा नागपाल जी द्वारा की गयी थी। यह मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसे बेहद ख़ूबसूरती के साथ सजाया गया है। यह मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में बना हुआ है। इस मंदिर में बहुत सारे अन्य छोटे-बड़े मंदिर भी हैं। यह मंदिर दिल्ली में दूसरा सबसे बड़ा मंदिर माना जाता है। इस मन्दिर में नक्काशी बहुत ही बेहतरीन तरीके से की गयी है। इसके अलावा इस मंदिर में काफी सुंदर बगीचे भी हैं। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि नवरात्रों में इस आद्या कात्यायनी शक्तिपीठ मंदिर में माता का अलग ही स्वरूप देखने को मिलता है। मां कात्यायनी के श्रृंगार के लिए यहां रोजाना दक्षिण भारत से विशेष फूलों से बनी माला मंगवाई जाती है। माता का यह भव्य रूप आप नवरात्रि के खास मौके पर ही देख सकते हैं।
झंडेवालान मंदिर दिल्ली
झंडेवालान मंदिर झंडेवाली देवी को समर्पित एक प्रसिद्ध सिद्धपीठ है। यह मंदिर देश और दिल्ली के सुप्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का धाार्मिक ही नही ऐतिहासिक महत्व भी है। मान्यता है कि इस मंदिर में जाकर आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यहां हजारों लोग माता रानी के दर्शन करने आते हैं। दिल्ली में यह प्राचीन मंदिर करोलबाग के पास स्थित है। वहीं कनॉट प्लेस से भी यह मंदिर पास में है। यह मंदिर न सिर्फ दिल्ली में बल्कि देश-विदेश के भक्तों के बीच भी प्रसिद्ध है। नवरात्रों में इस मंदिर भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है। पूरा मंदिर भक्तों से भरा रहता है।
झंडेवाला मंदिर का इतिहास लगभग दो सौ साल से भी पहले से माना जाता है। आज जहां यह माता का मंदिर है, वहां पहले घने वन थे। इस जगह पर दिल्ली के लोग सैर करने आते थे। मान्यता के अनुसार इस जगह की खुदाई में माता की मूर्ति के साथ झंडा मिलने से इस मंदिर का नाम झंडेवाला मंदिर पड़ गया। यह मंदिर आज लोगों के बीच काफी प्रसिद्ध हो गया है। इस मंदिर के पीछे की कहानी यह है कि एक बड़े व्यापारी जिनका नाम बद्री दास था, इस जगह पर ध्यान करने आते थे। इसी तरह जब एक दिन बद्री दास जी योग और ध्यान में खोये थे तब उन्हें महसूस हुआ कि इस जगह के नीचे कोई प्राचीन मंदिर है। फिर उन्हें सपने में भी उस जगह मंदिर दिखाई दिया। फिर उन्होंने उस स्थान पर खुदाई की तो गहरी गुफा में देवी की एक मूर्ति और झंडा मिला। लोग दूर-दूर से देवी माता की पूजा अर्चना के लिए यहां आने लगे। इसके बाद बद्री दास जी ने अपना पूरा जीवन देवी मां के चरणों में और उनकी सेवा में ही समर्पित कर दिया।
गुफा वाला मंदिर
गुफा वाला मंदिर दिल्ली के प्रीत विहार क्षेत्र में स्थित है। यह पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर को लेकर भक्तों में काफी आस्था है। इस मंदिर का नाम गुफा वाला मंदिर, इसके गुफानुमा रास्ते के कारण पड़ा है। माता वैष्णों देवी गुफा की तर्ज पर ही यह गुफा बनाई गई है। इसकी लंबाई 140 फीट है। जहां माता का दर्शन पिंडी के रूप में होता है। इस गुफा से होकर माता के पिंडी दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं को माता वैष्णो देवी की गुफा का अनुभव होता है। यह मंदिर एक बड़ी गुफा के लिए प्रसिद्ध है, गुफा में गंगा जल की एक धारा बहती रहती है। इसका गुफानुमा रास्ता भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है। यह मंदिर भक्तों को वैष्णो देवी मंदिर में होने का एहसास दिलाता है। गुफा से बाहर निकलते ही भैरों बाबा के दर्शन होते हैं। इसमें एक और छोटी गुफा है जिसमें देवी कात्यायनी, चिंतपूर्णी, संतोषी मां और ज्वाला देवी की मूर्तियां स्थापित हैं।
इस मंदिर का निर्माण सन 1987 में शुरू हुआ था और 1994 में मंदिर बनकर तैयार हो गया था। यह मंदिर नवरात्रि के दौरान भक्तों को बहुत आकर्षित करता है। यहां सभी 12 ज्योतिर्लिंग के दर्शन एक साथ हो जाते हैं। इस मंदिर में एक मन्नत पूरी करने वाला पेड़ भी है। मन्नत पूरी करने के लिए इस पेड़ में लोग चुन्नी बांधते हैं और जब मन्नत पूरी हो जाती है उसके बाद उस चुन्नी को खोल देते हैं। यह मंदिर दिल्ली के प्रसिद्ध मंदिरों में शुमार है। इस मंदिर में आज हर दिन भक्तों की भीड़ माता के पिंडी दर्शन के लिए पहुंचती है। नवरात्रि के समय तो यह भक्तों की भीड़ और भी बढ़ जाती है। साल 1996 में यहां एक अखंड ज्योत स्थापित की गई, तब से आज तक यह अखंड ज्योत लगातार जल रही है। यहां ��ने वाले हर श्रद्धालु की हर इच्छा पूरी होती है।
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parasparivaarorg · 25 days
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Importance of Temple in Home
Importance of Temple in the Home (राम दरबार)
“पारस परिवार” में आपका स्वागत है, जहाँ आकर बदल जाता है आपका संपूर्ण जीवन और जीवन में आती है बस खुशहाली ही खुशहाली। जहाँ दुःख और दर्द का होता है नाश और चेहरे पर आती है एक मुस्कान।
“पारस परिवार (Paras parivaar)”का मानना है कि खुशियाँ तभी मिलती हैं जब हम दूसरों की मदद करने में सदैव आगे रहते हैं। यानि असली ख़ुशी वो है जब हम दूसरे के चेहरे पर प्यारी सी एक मुस्कराहट बिखेर सकें और पारस परिवार इस नेक कार्य में हमेशा से आगे रहता है। पारस परिवार कभी भी छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब में अंतर नहीं करता है, उसके लिए सब एक समान हैं। वह कोशिश करता है कि सबके जीवन में खिली हुई धूप हो और दूर-दूर तक बस उजाला ही उजाला हो।
पारस परिवार एक सामाजिक-आध्यात्मिक संस्था (Socio-Spiritual Institution) है, जिसके संस्थापक और निदेशक “महंत ��्री पारस भाई जी” (Mahant Shri Paras Bhai Ji) हैं। इस संस्था की नींव 17 सितंबर 2012 को रखी गई थी।
महंत श्री पारस भाई जी माँ चण्डी के दुलारे हैं। कहते हैं कि माँ अपने बच्चों को नेक कार्य करते हुए देखकर हमेशा खुश होती हैं और उन्हें आशीर्वाद देती हैं। शायद यही वजह है कि माँ के आशीर्वाद और उनकी कृपा से महंत श्री पारस भाई जी के अंदर अद्भुत शक्तियां समाहित हैं, जिन शक्तियों का प्रयोग वह जन कल्याण में करते हैं और समाज की सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।
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घर में मंदिर क्यों रखा जाता है
हमारे हिंदू धर्म में रामायण एक पवित्र ग्रंथ है और घर में रामायण रखना शुभ माना जाता है। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार जिस घर में रामायण होती है उस घर में नकारात्मक शक्तियों का वास नहीं होता है। इसके अलावा मंदिर में राम दरबार भी लगाया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार घर में राम दरबार लगाकर पूजा करने से परिवार के संकट टल जाते है और राम जी की भी कृपा बनी रहती है। घर के मंदिर में राम दरबार लगाना शुभ माना जाता है और रोजाना भगवान राम की श्रद्धा भाव से पूजा करने से जीवन में कभी हार नहीं होती है। चलिये आज इस ब्लॉग में जानते हैं क्या है मंदिर में राम दरबार का महत्व ?
घर में राम दरबार का महत्व
हर घर में राम दरबार की पूजा जरूर की जाती है। महंत श्री पारस भाई जी का कहना है कि भगवान राम की पूरे दरबार के साथ पूजा अर्चना करने से घर में सुख और सौभाग्य आता है। इसके अलावा घर में पॉजिटिव एनर्जी आती है और नेगेटिव एनर्जी दूर होती है। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार रोजाना राम दरबार की पूजा करने से मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है और कुंडली के जो भी ग्रह दोष होते हैं वो भी दूर होते हैं। मान्यताओं के अनुसार राम दरबार से परिवार के सदस्यों में हमेशा प्यार व एकता बनी रहती है।
कुछ लोग त्योहारों व शुभ अवसरों पर भी राम दरबार लगाते हैं। इसलिए राम दरबार का विधि-विधान से पूजन करें। भगवान राम का जीवन समाज के सामने एक पूर्ण आदर्श जीवन जीने का उदाहरण देता है। शास्त्रों में राम दरबार की पूजा का बहुत महत्व माना गया है। राम दरबार की पूजा से पारिवारिक क्लेश दूर होता है और सद्भावना बढ़ती है। भगवान राम की पूरे दरबार के साथ पूजा करने से आपका भाग्य जाग जाता है और आपका भाग्य तेजस्वी होता है। राम दरबार भगवान राम के सम्मान के दरबार को दर्शाता है,
जिसमें उनके साथ उनकी पत्नी सीता, उनके भाई लक्ष्मण और उनके प्रबल भक्त हनुमान हैं। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार राम दरबार को अपने घर या कार्यस्थल पर रखने से जीवन में शांति आती है और इससे एक आध्यात्मिक वातावरण स्थापित होता है।
घर के मंदिर में राम दरबार की पूजन विधि और नियम
यदि आप अपने घर के मंदिर में राम दरबार रखना चाहते हैं तो यह ध्यान रखें कि राम दरबार की विधि-विधान और श्रद्धा भाव से पूजा करें। सर्वप्रथम राम दरबार को गंगा जल से साफ करें। राम दरबार को किसी चौकी पर लाल रंग का वस्त्र बिछाकर रखना चाहिए। राम दरबार में भगवान राम के सबसे बड़े भक्त हनुमान जी बैठे हुए होने चाहिए। राम दरबार को पूर्व दिशा में लगाना चाहिए क्योंकि इस दिशा को शुभ माना जाता है। राम दरबार में भगवान राम, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी को पीले रंगे के वस्त्र अर्पित करने चाहिए। भगवान राम जी को फल, पुष्प, रोली अक्षत आदि अर्पित कर, धूप और दीप जलायें। फिर आरती कर सबको प्रसाद दें। घर में लगे राम दरबार का दर्शन एवं पूजा, घर के सभी सदस्यों को करनी चाहिए। भगवान श्री राम ने धर्म और मर्यादा के लिए अपने जीवन में कभी समझौता नहीं किया।
राम दरबार के मुख्य सदस्य कौन हैं ?
घर में राम दरबार की फोटो होने से सदस्यों में त्याग और सहयोग की भावना होती है। राम दरबार यानि राम जी का दरबार, जिसमें वह पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण और अपने भक्त हनुमान के साथ होते हैं। राम दरबार में सबसे मुख्य भगवान राम होते हैं। राम दरबार भगवान राम के राज्य का प्रतिनिधित्व करता है। इसे राम राज्य के नाम से भी जाना जाता है। भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कई ऐसे कार्य किये जो कि सभी लोगों के लिए एक आदर्श हैं। भगवान राम का जीवन धर्म, सत्य, प्रेम, सदाचार, करुणा और मर्यादा के लिए पूरी तरह समर्पित रहा है। यही मुख्य वजह भी है कि घर के मंदिर में भगवान राम का दरबार लगाया जाता है और उसका पूजन किया जाता है। राम दरबार में आप राम परिवार की प्रतिमाओं की स्थापना कर सकते हैं। राम दरबार जीवन और आत्मा के पूर्ण मिलन को दर्शाता है।
राम दरबार, भगवान राम के उनके सभी प्रिय सदस्यों के साथ संबंधों को दर्शाता है। उनकी पत्नी सीता, जो हर सुख-दुख में हमेशा उनके साथ खड़ी रहीं और जिन्होंने एक आदर्श पति-पत्नी के रिश्ते का आदर्श उदाहरण स्थापित किया। भाई लक्ष्मण जो हमेशा भगवान राम के साथ छाया की तरह रहते थे और पूरे साहस और वीरता के साथ उनकी रक्षा करते थे। भाई लक्ष्मण ने हमेशा अपने भाई का साथ दिया चाहे कैसी भी चुनौती सामने आई हो। उन्होंने हमेशा विपरीत परिस्थितियों का डटकर मुकाबला किया। साथ ही हनुमान जी, जिनके दिल में राम और सीता बसते थे। वो भगवान राम के सबसे प्रिय भक्त हैं, वो भगवन राम के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। उनकी भक्ति इससे जाहिर होती है कि वह अपनी भक्ति दिखाने के लिए अपनी छाती फाड़ने को भी तैयार रहते थे।
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parasparivaarorg · 1 month
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Navratri Festivals in India
Paras Parivaar Organization(पारस परिवार आर्गेनाइजेशन):
नवरात्रि की नौ रातों में हर रात एक अलग अवतार या रूप में माँ दुर्गा की पूजा की जाती है। हर रात को एक अलग रूप या स्वरुप में माँ की उपासना करते हुए, भक्तों को शक्ति, सदभावना और दिव्यता की अनुभूति होती है। ये रातें नवरात्रि का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। जिनमें भक्ति और आध्यात्मिकता की भावनाओं को जागृत किया जाता है।
नवरात्रि की नौ रातों में हर रूप का एक अलग अर्थ और महत्व है। महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार नवरात्रि के इस समय में माँ के हर रूप से भक्तों को माँ दुर्गा की शक्ति, साहस और दया को जानने का अवसर मिलता है। नवरात्रि में हर रात और हर दिन मंत्रों और भजनों के साथ भक्ति में वृद्धि होती है। जिससे व्यक्ति अपने आंतरिक अस्तित्व को महसूस करता है और उनका धार्मिक एवं मानसिक विकास होता है।
नवरात्रि का पर्व सामान्य रूप से माँ दुर्गा को समर्पित है। नवरात्रि माँ शक्ति की पूजा का महत्वपूर्ण त्यौहार है, जिसमें माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। इस अवसर पर भक्तों का उद्देश्य माँ दुर्गा की पूजा, स्तुति और उनके आशीर्वाद को प्राप्त करना है। नवरात्रि भक्ति के महत्व को समझने और अमल में लाने का भी पर्व है।
नवरात्रि का महत्व ये है कि ये त्यौहार माँ दुर्गा की अद्भुत पराक्रम को जानने का अवसर प्रदान करता है। माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा के माध्यम से भक्तों को समृद्धि की प्राप्ति की प्रेरणा मिलती है। भक्तों का उद्देश्य माँ दुर्गा की कृपा दृष्टि को प्राप्त करना और उनकी शक्ति को प्राप्त करना है। नवरात्रि एक ऐसे समय का प्रतीक है जहाँ पर परिवार और समाज में प्रेम और सद्भावना का संचार होता है।
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नवरात्रि माँ दुर्गा को मनाने का अवसर है। नवरात्रि में मन और शरीर शुद्ध हो जाता है। नवरात्रि इस रूप में भी महत्वपूर्ण है कि इस समय बुराई से दूर रहने और अच्छाई को बढ़ावा देने का संकल्प लिया जाता है। इस अवसर पर भक्ति, ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर किया जाता है। यह नवरात्रि का त्यौहार एकता और प्रेम का प्रतीक है। जिसमें परिवार और समाज के लोग एक साथ मिलकर माँ दुर्गा की आराधना करते हैं।
माँ दुर्गा के नौ रूप :
1. माँ शैलपुत्री जी
देवी दुर्गा ने पार्वती के रुप में हिमालय के घर जन्म लिया। इसी कारण देवी का पहला नाम पड़ा शैलपुत्री अर्थात हिमालय की बेटी। शैल का मतलब है पहाड़ या चट्टान। माँ शैलपुत्री सिखाती है कि जीवन में सफलता और जीत प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्यों को चट्टान की तरह मजबूत बनायें।
माँ शैलपुत्री देवी दुर्गा के नौ रूपों में से पहले स्वरूप में जानी जाती हैं। इस रूप में मां दुर्गा को पर्वतराज हिमालय की बेटी के रूप में पूजा जाता है। इनके दाएं हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में इन्होंने कमल धारण किया हुआ है। मां शैलपुत्री की पूजा, धन-दौलत और अच्छे स्वास्थ्य के लिए की जाती है।
2. माँ ब्रह्मचारिणी जी
इस रूप में मां दुर्गा को तपस्विनी के रूप में पूजा जाता हैं। ब्रह्मचारिणी का अर्थ है, जो ब्रह्मा के द्वारा बताए गए आचरण पर आगे बढ़े। क्योंकि जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए अनुशासन सबसे ज्यादा जरूरी है। इनकी पूजा से आपको आगे बढ़ने की शक्ति मिलती हैं।
मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से आपके सभी कार्य पूरे होते हैं और विजय की प्राप्ति होती है। मां ब्रह्माचारिणी के दाहिने हाथ में मंत्र जपने की माला और बाएं में कमंडल है।
3. माँ चंद्रघंटा जी
ये माँ दुर्गा का तीसरा रूप है, जिनके माथे पर घंटे के आकार का चंद्रमा है, इसलिए इनका नाम चंद्रघंटा पड़ा है। मां चंद्रघंटा के हाथों में त्रिशूल, धनुष, गदा और तलवार है। मां चंद्रघंटा शक्ति का वरदान देती हैं और साथ ही भय को भी दूर करती हैं। माँ के दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र सजे हुए हैं। मां युद्ध मुद्रा में सिंह पर विराजमान होती हैं।
4. माँ कूष्माण्डा जी
कुष्मांडा देवी का चौथा स्वरूप है। ग्रंथों के अनुसार इन्हीं देवी की मंद मुस्कान से अंड यानी ब्रह्मांड की रचना हुई थी। इसी कारण इनका नाम कूष्मांडा पड़ा। ये देवी भय दूर करती हैं। भय यानी डर ही सफलता की राह में सबसे बड़ी मुश्किल होती है। जिसे जीवन में सभी तरह के भय से मुक्त होकर सुख से जीवन बिताना हो, उसे देवी कुष्मांडा की पूजा करनी चाहिए। इनकी साधना करने से जीवन से जुड़े सभी कष्ट दूर होते हैं।
इनके शरीर की कांति सूर्य के समान तेज है। इनके तेज की तुलना इन्हीं से की जा सकती है। इनकीआठ भुजाएं हैं इसलिए ये अष्टभुजादेवी के नाम से भी जानी जाती हैं।
5. माँ स्कंदमाता जी
भगवान शिव और पार्वती के पहले पुत्र हैं कार्तिकेय और उन्हीं का ही एक नाम है स्कंद। इसलिए कार्तिकेय या स्कंद की माँ होने के कारण देवी के पांचवें रुप को स्कंद माता के नाम से जाना जाता है। भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं।
स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र अर्थात श्वेत है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। इनकी उपासना से साधक को अलौकिक तेज की प्राप्ति होती है।
6. माँ कात्यायनी जी
कात्यायिनी ऋषि कात्यायन की पुत्री हैं। कात्यायन ऋषि ने देवी दुर्गा की बहुत तपस्या की थी और फिर दुर्गा प्रसन्न हुई तब ऋषि ने वरदान में माँगा कि देवी दुर्गा उनके घर में पुत्री के रुप में जन्म लें। कात्यायन की बेटी होने के कारण ही नाम इनका पड़ा कात्यायिनी पड़ा।
यह नवदुर्गाओं में छठवीं देवी हैं। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को रोग से मुक्ति पाने के लिए देवी कात्यायिनी की पूजा अर्चना करें। ये स्वास्थ्य की देवी हैं।
7. माँ कालरात्रि जी
इस रूप में मां दुर्गा का भयानक स्वरूप होता हैं। इन्हें काली माँ के रूप में पूजा जाता है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। काल यानि समय और रात्रि मतलब रात। इसका अर्थ उन सिद्धियों से है जो रात के समय साधना करने से साधक को मिलती हैं।
इनके नाम से दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत, बाधा आदि सभी भयभीत होकर दूर भाग जाते हैं। माँ कालरात्रि को शुभंकरी, महायोगीश्वरी और महायोगिनी भी कहा जाता है। माँ कालरात्रि की पूजा करने के बाद भक्तों को अकाल मृत्यु का भय भी खत्म हो जाता है।
8. माँ महागौरी जी
इस रूप में मां दुर्गा को सुंदर और उज्ज्वल स्वरूप में पूजा जाता हैं। माँ दुर्गा का आठवा स्वरूप है महागौरी। मां महागौरी का रंग अत्यंत गौरा है यही वजह है कि इन्हें महागौरी के नाम से जाना जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी के अनुसार अपनी कठिन तपस्या से मां ने गौर वर्ण प्राप्त किया था। इसलिए इन्हें उज्जवला स्वरूपा महागौरी, धन ऐश्वर्य प्रदान करने वाली कहा जाता है। इनका जो स्वरूप है वह अत्यंत सौम्य है। मां गौरी का यह रूप बेहद मोहक है। इनकी चार भुजाएं हैं। महागौरी का वाहन बैल है।
9. माँ सिद्धिदात्री जी
इस रूप में मां दुर्गा सभी सिद्धियों की देने वाली माँ के रूप में पूजा जाता हैं। माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। इस दिन पूरी श्रद्धा भाव के साथ साधना करने वाले व्यक्ति को सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मां सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं।
मां सिद्धिदात्री कमल के पुष्प पर आसीन होती हैं। इनकी उपासना से हर तरह की सिद्धि, बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है। इन्हीं देवी की कृपा से ही महादेव की आधी देह देवी की हो गई थी और वह अर्धनारीश्वर कहलाए।
“पारस परिवार” की ओर से “चैत्र नवरात्रि” की हार्दिक शुभकामनाएं !!
आपका जीवन धन और प्रेम से भरपूर हो
मां दुर्गा आपको सुख और शांति प्रदान करें !!
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parasparivaarorg · 1 month
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Raksha Sutra in Hindu
क्या है पारस परिवार:
क्या है पारस परिवार: पारस परिवार" में आपका स्वागत है, जहाँ आकर बदल जाता है आपका संपूर्ण जीवन और जीवन में आती है बस खुशहाली ही खुशहाली। जहाँ दुःख और दर्द का होता है नाश और चेहरे पर आती है एक मुस्कान।
पारस परिवार (PARAS PARIVAAR)" का मानना है कि खुशियाँ तभी मिलती हैं जब हम दूसरों की मदद करने में सदैव आगे रहते हैं। यानि असली ख़ुशी वो है जब हम दूसरे के चेहरे पर प्यारी सी एक मुस्कराहट बिखेर सकें और पारस परिवार इस नेक कार्य में हमेशा से आगे रहता है। पारस परिवार कभी भी छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब में अंतर नहीं करता है, उसके लिए सब एक समान हैं। वह कोशिश करता है कि सबके जीवन में खिली हुई धूप हो और दूर-दूर तक बस उजाला ही उजाला हो।
पारस परिवार एक सामाजिक-आध्यात्मिक संस्था (Socio-Spiritual Institution) है, जिसके संस्थापक और निदेशक “महंत श्री पारस भाई जी” (Mahant Shri Paras Bhai Ji) हैं। इस संस्था की नींव 17 सितंबर 2012 को रखी गई थी।
महंत श्री पारस भाई जी माँ चण्डी के दुलारे हैं। कहते हैं कि माँ अपने बच्चों को नेक कार्य करते हुए देखकर हमेशा खुश होती हैं और उन्हें आशीर्वाद देती हैं। शायद यही वजह है कि माँ के आशीर्वाद और उनकी कृपा से महंत श्री पारस भाई जी के अंदर अद्भुत शक्तियां समाहित हैं, जिन शक्तियों का प्रयोग वह जन कल्याण में करते हैं और समाज की सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।
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क्यों कहा जाता है मौली को रक्षा सूत्र ?
जब भी आपके घर में या कहीं भी पूजा होती है तो आपने अक्सर देखा होगा कि पंडित जी आपकी कलाई पर मौली या जिसे कलावा भी कहते हैं जरूर बांधते हैं। इसे मौली और कलावा के अलावा रक्षा सूत्र (Raksha Sutra) भी कहा जाता है। क्या आप जानते हैं क्यों बांधा जाता है पूजा में कलावा, क्या है इसको बांधने का धार्मिक महत्व ? कैसे करता है यह रक्षा सूत्र आपकी रक्षा, क्या इसको हाथ में बांधने का कोई शारीरिक लाभ भी है, ऐसे कई सारे सवाल हैं जिन सभी सवालों का जवाब आज इस आर्टिकल के माध्यम से आपको मिल जायेगा।
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का महत्व
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का धार्मिक महत्व तो है ही इसके साथ-साथ यह व्यक्ति को सुरक्षा और संरक्षण का अहसास दिलाता है। हाथ में मौली बाँधने का महत्व धार्मिकता और शुभता को दर्शाता है। यानि यह एक तरह से आपको मानसिक स्थिरता और आत्मविश्वास प्रदान करता है। यह एक प्राचीन परंपरा का प्रतीक है जो साथ ही विश्वास का भी प्रतीक है। यह व्यक्ति को सच्चे मन, शुद्ध चित्त और उच्च आदर्शों की ओर प्रेरित करता है। इसे प्रार्थना, पूजा, यात्रा आदि में धार्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग किया जाता है। मौली से जीवन में खुशहाली आती है। महंत श्री पारस भाई जी ने कहा कि हिंदू संस्कृति में मंत्रों के उच्चारण के साथ बांधे गए कच्चे धागे एक कवच की तरह मनुष्य की रक्षा करते हैं।
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का सांस्कृतिक महत्व बहुत गहरा है। यह एक प्राचीन संस्कृति और विरासत का भी प्रतीक है, जो समृद्धि, सम्मान और परंपरागत संबंधों का प्रतिबिंब करता है। इसके अलावा, यह समाज में एकता और भाईचारे का संदेश भी प्रस्तुत करता है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देता है। इसके माध्यम से लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान और गरिमा को बनाए रखते हैं। मान्यता है कि कलाई पर मौली बांधकर की गई पूजा जल्दी सफल होती है और जीवन में चल रही सभी समस्याएं दूर होती हैं। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि मौली बुरी नजर और संकट से रक्षा करती है।
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का कारण
पौराणिक मान्यता है कि राजा बलि की दानवीरता से वामन देव बहुत प्रसन्न हुए थे और तब उन्होंने अमरता का वरदान देने के लिए राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र को बांधा था। ऐसा माना जाता है कि मौली बांधने से त्रिदेव की कृपा प्राप्त होती है और साथ-साथ तीनों देवियों लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती की कृपा भी बरसती है। हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने के कई कारण हो सकते हैं। इसका प्रमुख कारण धार्मिक संदेश को आगे बढ़ाना है। यह परंपरागत मान्यताओं का पालन करने का एक तरीका होता है और धार्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। विभिन्न धार्मिक और परंपरागत अवसरों पर इसे पहना जाता है जैसे पूजा, पर्व, और त्योहार, जहां इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। मौली को धारण करने से व्यक्ति के जीवन की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है।
इसे धार्मिक समृद्धि, सुरक्षा, और शुभता का संकेत माना जाता है जो व्यक्ति को अच्छे कर्मों के माध्यम से धार्मिक एवं मानवता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। मौली बांधने के पीछे एक अन्य मान्यता है कि जब देवराज इन्द्र वृत्रासुर से युद्ध करने जा रहे थे,तब इंद्राणी ने उनकी भुजा पर रक्षा सूत्र बांधा था। इसलिए रक्षा कवच के रूप में मौली बांधी जाती है।
मौली बाँधने के शारीरिक लाभ
मौली के बिना पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है। पारस परिवार के मुखिया महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि कलाई पर मौली बांधने से धर्म लाभ के साथ ही कई शारीरिक लाभ भी मिलते हैं। मौली कलाई पर उस जगह पर बांधी जाती है, जहां से नाड़ी की गति की जांच की जाती है और यहीं से व्यक्ति के शरीर में बीमारियों का पता किया जाता है।
यानि कलाई पर मौली बांधने से कई तरह के स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं। दरअसल जब हम कलाई पर मौली बांधते हैं तो इससे कलाई की नसों पर दबाव बनता है। ऐसा करने से हमारे शरीर में वात, पित्त और कफ का भी संतुलन बना रहता है। इस तरह से हम स्वस्थ रहते हैं और बीमारियों से दूर रहते हैं। हमारे शरीर में वात, पित्त और कफ ही सब बीमारियों का कारण होते हैं। मौली का जो धागा होता है वह एक एक्यूप्रेशर की तरह काम करता है और मौली कई गंभीर बीमारियों में लाभ पहुँचाता है।
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का मुख्य उद्देश्य
हाथ में रक्षा सूत्र या मौली बाँधने का मुख्य उद्देश्य धार्मिक भावना को साझा करना होता है। मौली केवल हाथ की कलाई पर ही नहीं बांधा जाता है बल्कि इसे गले और कमर में भी बांधा जाता है। मौली को पुरुषों और अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में और विवाहित महिलाओं के बाएं हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है।
इसके अलावा इसे समृद्धि के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। लोग इसे विभिन्न धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर बाँधते हैं, इससे संगठन, आत्म-समर्थन और सामूहिक सहयोग की भावना उत्पन्न होती है।
पूजा में मौली बाँधने का महत्व बहुत ही बड़ा होता है। यह पूजा के दौरान भगवान की कृपा, सुरक्षा और आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए एक माध्यम के रूप में माना जाता है। मौली के बाँधने से व्यक्ति अपने मन, शरीर, और आत्मा को पवित्र करता है और पूजा में अधिक ध्यान और श्रद्धा लाता है। इसके साथ ही, इससे समर्पण और आत्मनिर्भरता की भावना भी विकसित होती है। मौली का बाँधना पूजा में एक महत्वपूर्ण और सात्विक प्रयोग है। मौली मन्नत के लिए किसी मंदिर में या देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है। धार्मिक मान्यता है कि पूजा करने के बाद जब कलावा या रक्षा सूत्र बांधा जाता है, तो उस देवी-देवता की अदृश्य शक्ति धागों में समाहित हो ज��ती है। फिर मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
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