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💐महत्वपूर्ण जानकारी💐
श्राद्ध शास्त्रविरुद्ध होने के कारण मूर्खों की क्रिया है जिसे करवाने से मुक्ति संभव नहीं ||
हिन्दू धर्म में हर साल भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से आश्विन मास की अमावस्या तक लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध निकालते हैं जिसका मूल उद्देश्य अपने पूर्वजों को याद करना व उनकी आत्मिक शांति के लिए पंडितों को भोजन कराना है। ये पूरी क्रिया हिन्दू धर्म के श्रद्धालुओं में इस कदर प्रचलित है कि वो इस क्रिया के संबंध में शास्त्रों को समझना भी जरूरी नहीं समझते। किसी भी धर्मिक क्रिया की सार्थकता या निरर्थकता इसी बात पर निर्भर क��ती है कि क्या उसका समर्थन पवित्र वेद या गीता जी करते हैं या नहीं? परन्तु यहां ताज्जुब की बात यह है कि जो श्राद्ध क्रिया वर्षों से हमारे समाज में चल रही है कोई भी धर्मशास्त्र उसका समर्थन नहीं करता। संत रामपाल जी ने पवित्र वेदों व गीता जी से श्राद्ध क्रिया को तोलकर इसकी निरर्थकता को उजागर किया है तथा साबित कर दिया है कि यह एक फिजूल क्रिया है जिसको करने से कोई लाभ नहीं है।
गीता अध्याय 9 के श्लोक 25 में कहा है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने (पिण्ड दान करने) वाले भूतों को प्राप्त होते हैं अर्थात् भूत बन जाते हैं, शास्त्रानुकूल (पवित्र वेदों व गीता अनुसार) पूजा करने वाले मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् काल द्वारा निर्मित स्वर्ग व महास्वर्ग आदि में कुछ ज्यादा समय मौज कर लेते हैं।
जैसे कोई तहसीलदार की नौकरी (सेवा-पूजा) करता है तो वह तहसीलदार नहीं बन सकता। हाँ ! उससे प्राप्त धन से रोजी-रोटी चलेगी अर्थात् उसके आधीन ही रहेगा। ठीक इसी प्रकार जो जिस देव (श्री ब्रह्मा देव, श्री विष्णु देव तथा श्री शिव देव अर्थात् त्रिदेव) की पूजा (नौकरी) करता है तो उन्हीं से मिलने वाला लाभ ही प्राप्त करता है। त्रिगुणमई माया अर्थात् तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा का निषेध पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक में भी है। इसी प्रकार कोई पितरों की पूजा (नौकरी-सेवा) करता है तो पितरों के पास छोटा पितर बन कर उन्हीं के पास कष्ट उठाएगा। इसी प्रकार कोई भूतों (प्रेतों) की पूजा (सेवा) करता है तो भूत बनेगा क्योंकि सारा जीवन जिसमें आसक्तता बनी रही अन्त में उन्हीं में मन फंसा रहता है। जिस कारण से उन्हीं के पास चला जाता है। कुछेक का कहना है कि पितर-भूत-देव पूजाएं भी करते रहेंगे, आप से उपदेश लेकर साधना भी करते रहेंगे। ऐसा नहीं चलेगा। जो साधना पवित्र गीता जी में व पवित्र चारों वेदों में मना है वह करना शास्त्र विरुद्ध हुआ। जिसको पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में मना किया है कि जो शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करते हैं वे न तो सुख को प्राप्त करते हैं न परमगति को तथा न ही कोई कार्य सिद्ध करने वाली सिद्धि को ही प्राप्त करते हैं अर्थात् जीवन व्यर्थ कर जाते हैं। इसलिए अर्जुन तेरे लिए कर्तव्य (जो साधना के कर्म करने योग्य हैं) तथा अकर्तव्य (जो साधना के कर्म नहीं करने योग्य हैं) की व्यवस्था (नियम में) में शास्त्र ही प्रमाण हैं। अन्य साधना वर्जित है।
इसी का प्रमाण मार्कण्डे पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पृष्ठ 237 पर है, जिसमें मार्कण्डे पुराण तथा ब्रह्म पुराणांक इक्ट्ठा ��ी जिल्द किया है) में भी है कि एक रूची नाम का साधक ब्रह्मचारी रह कर वेदों अनुसार साधना कर रहा था। जब वह 40(चालीस) वर्ष का हुआ तब उस को अपने चार पूर्वज जो शास्त्र विरुद्ध साधना करके पितर बने हुए थे तथा कष्ट भोग रहे थे दिखाई दिए। “पितरों ने कहा कि बेटा रूची शादी करवा कर हमारे श्राद्ध निकाल, हम तो दुःखी हो रहे हैं। रूची ऋषि ने कहा पित्रमहो वेद में कर्म काण्ड मार्ग (श्राद्ध, पिण्ड भरवाना आदि) को मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे क्यों उस गलत (शास्त्र विधि रहित) साधना पर लगा रहे हो। पितर बोले , बेटा यह बात तो तेरी सत्य है कि वेद में पितर पूजा, भूत पूजा, देवी-देवताओं की पूजा (कर्म काण्ड) को अविद्या ही कहा है इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।” इसी उपरोक्त मार्कण्डे पुराण में इसी लेख में पितरों ने कहा कि फिर पितर कुछ तो लाभ देते हैं।
विशेष:- यह अपनी अटकलें पितरों ने लगाई है, वह हमने नहीं पालन करना क्योंकि पुराणों में आदेश किसी ऋषि विशेष का है जो पितर पूजने, भूत या अन्य देव पूजने को कहा है। परन्तु वेदों में प्रमाण न होने के कारण प्रभु का आदेश नहीं है। इसलिए किसी संत या ऋषि के कहने से प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करने से सजा के भागी होंगे।
परमात्मा का संविधान समझने के लिए ये एक छोटी सी कथा
एक समय एक व्यक्ति की दोस्ती एक पुलिस थानेदार से हो गई। उस व्यक्ति ने अपने दोस्त थानेदार से कहा कि मेरा पड़ोसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार ने कहा कि मार लट्ठ, मैं आप निपट लूंगा। थानेदार दोस्त की आज्ञा का पालन करके उस व्यक्ति ने अपने पड़ोसी को लट्ठ मारा, सिर में चोट लगने के कारण पड़ोसी की मृत्यु हो गई। उसी क्षेत्र का अधिकारी होने के कारण वह थाना प्रभारी अपने दोस्त को पकड़ कर लाया, कैद में डाल दिया तथा उस व्यक्ति को मृत्यु दण्ड मिला। उसका दोस्त थानेदार कुछ मदद नहीं कर सका क्योंकि राजा का संविधान है कि ���दि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्यु दण्ड प्राप्त होगा। उस नादान व्यक्ति ने अपने दोस्त दरोगा की आज्ञा मान कर राजा का संविधान भंग कर दिया। जिससे जीवन से हाथ धो बैठा। ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी व पवित्र वेद यह प्रभु का संविधान है। जिसमें केवल एक पूर्ण परमात्मा की पूजा का ही विधान है, अन्य देवताओं - पितरों - भूतों की पूजा करना मना है। पुराणों में ऋषियों (थानेदारों) का आदेश है। जिनकी आज्ञा पालन करने से प्रभु का संविधान भंग होने के कारण कष्ट पर कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए आन उपासना पूर्ण मोक्ष में बाधक है।
सत्य साधना करने वाले साधक की 101 पीढ़ी पार होती हैं
कबीर भक्ति बीज जो होये हंसा, तारूं तास के एक्कोतर बंशा।
सत्य साधना केवल तत्वदर्शी सन्त दे सकता है जिसकी शरण में जा��े के लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा गया है। वर्तमान में पूर्ण तत्वदर्शी सन्त हैं, सन्त रामपाल जी महाराज जी। तत्वदर्शी सन्त ही गीता अध्याय 17 में वर्णित श्लोक 23 के गुप्त मन्त्रों का उद्घाटन करता है।
पूर्ण तत्वदर्शी सन्त की शरण में भक्ति करने से न केवल स्वास्थ्य लाभ, आर्थिक लाभ एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं बल्कि भूत, प्रेतों एवं पितर दोष आदि से मुक्ति मिलती है। भक्ति करने वाले साधक के सर्व पापों का नाश परमात्मा करते हैं एवं उसकी 101 पीढ़ी का उद्धार करते हैं।
आज तक हमें, हमारे धर्मगुरुओं ,आचार्यों एवं पंडितों ने शास्त्रविरुद्ध साधना तक ही सीमित रखा? कारण था स्वयं का अज्ञानहीन होना। ये शास्त्रों का नाम अवश्य लेते थे, उन्हें पढ़ भी लेते थे लेकिन उनमें क्या लिखा है यह उनके समझ में नहीं आया।
इस बारे में कबीर जी कहते हैं-
गुरु बिन काहू न पाया ग्याना।
ज्यों थोथा भुस छडे मूड किसाना।।
धर्मगुरुओं की अज्ञानता व स्वार्थ सिद्धि का खामियाजा आज भी समाज भुगत रहा है शास्त्र विरुद्ध साधना करने से लोगों को लाभ के स्थान पर हानि हो रही है इसके फलस्वरूप अधिकतर जनता नास्तिक हो रही है और आए दिन लोगों का भगवान से विश्वास उठता जा रहा है ।
जीवित बाप से लठ्ठम-लठ्ठा, मूवे गंग पहुँचईयाँ।
जब आवै आसौज का महीना, कऊवा बाप बणईयाँ।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने लोकवेद (दंत कथा) के आधार से चल रही पितर तथा भूत पूजा पर शास्त्रोक्त तर्क दिया है। अंध श्रद्धा भक्ति वाले जब तक माता-पिता जीवित रहते हैं, तब तक तो उनको प्यार व सम्मान के साथ कपड़ा-रोटी भी नहीं देते। झींकते रहते हैं। मृत्यु के उपरांत श्रद्धा दिखाते हैं। उसके शरीर को चिता पर जला दिया जाता है। कुछ हड्डियाँ बिना जली छोटी-छोटी रह जाती हैं। शास्त्र नेत्रहीन गुरूओं से भ्रमित पुत्र उन अस्थियों को उठाकर हरिद्वार में हर की पौड़ियों पर अपने कुल के पुरोहित के पास ले जाता है। उस पुरोहित द्वारा शास्त्रविरूद्ध साधना के आधार से मनमाना आचरण करके उन अस्थियों को पवित्र गंगा दरिया में प्रवाह किया जाता है। जो धनराशि पुरोहित माँगे, खुशी-खुशी दे देता है। कारण यह होता है कि कहीं पिता या माता मृत्यु के उपरांत प्रेत बनकर घर में न आ जाएं इसलिए उनकी गति करवाने के लिए कुलगुरू पंडित जी को मुँह माँगी धनराशि देते हैं कि पक्का काम कर देना। फिर पुरोहित के कहे अनुसार अपने घर की चोखट में लोहे की मेख (मोटी कील) गाड़ दी जाती है कि कहीं पिता जी-माता जी की गति होने में कुछ त्रुटि रह जाए और वे प्रेत बनकर हमारे घर में न घुस जाएं।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया ��ै कि जीवित पिता को तो समय पर टूक (रोटी) भी नहीं दिया जाता। उसका अपमान करता है। (सभी नहीं, अधिकतर) मृत्यु के पश्चात् उसको पवित्र दरिया में बहाकर आता है। कितना खर्च करता है। अपने माता-पिता की जीवित रहते प्यार से सेवा करो। उनकी आत्मा को प्रसन्न करो। उनकी वास्तविक श्रद्धा सेवा तो यह है।
कबीर जी जो स्पष्ट करना चाहते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण अंध श्रद्धा भक्ति के आधार से सर्व हिन्दू समाज अपना अनमोल जीवन नष्ट कर रहा है। जैसे मृत्यु के उपरांत अपने पिता जी की अस्थियाँ गंगा दरिया में पुरोहित द्वारा क्रिया कराकर पिता जी की गति करवाई।
फिर तेरहवीं या सतरहवीं यानि मृत्यु के 13 दिन पश्चात् की जाने वाली क्रिया को तेरहवीं कहा जाता है। सतरह दिन बाद की जाने वाली लोकवेद धार्मिक क्रिया सतरहवीं कहलाती है। महीने बाद की जाने वाली महीना क्रिया तथा छः महीने बाद की जाने वाली छःमाही तथा वर्ष बाद की जाने वाली बर्षी क्रिया (बरसौदी) कही जाती है। लोकवेद (दंत कथा) बताने वाले गुरूजन उपरोक्त सब क्रियाऐं करने को कहते हैं। ये सभी क्रियाऐं मृतक की गति के उद्देश्य से करवाई जाती हैं।
सूक्ष्मवेद में इस शास्त्र विरूद्ध धार्मिक क्रियाओं यानि साधनाओं पर तर्क इस प्रकार किया है कि घर के सदस्य की मृत्यु के पश्चात् ज्ञानहीन गुरूजी क्या-क्या करते-कराते हैं:-
कुल परिवार तेरा कुटम्ब-कबीला, मसलित एक ठहराई।
बांध पींजरी (अर्थी) ऊपर धर लिया, मरघट में ले जाई।
अग्नि लगा दिया जब लम्बा, फूंक दिया उस ठांही।
पुराण उठा फिर पंडित आए, पीछे गरूड़ पढ़ाई।
प्रेत शिला पर जा विराजे, पितरों पिण्ड भराई।
बहुर श्राद्ध खाने कूं आए, काग भए कलि माहीं।
जै सतगुरू की संगति करते, सकल कर्म कटि जाई।
अमरपुरी पर आसन होता, जहाँ धूप न छांई।
कुछ व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् उपरोक्त क्रियाएं तो करते ही हैं, साथ में गरूड़ पुराण का पाठ भी करते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) की वाणी में स्पष्ट किया है कि लोकवेद (दंत कथा) के आधार से ज्ञानहीन गुरूजन मृतक की आत्मा की शांति के लिए गरूड़ पुराण का पाठ करते हैं। गरूड़ पुराण में एक विशेष प्रकरण है कि जो व्यक्ति धर्म-कर्म ठीक से नहीं करता तथा पाप करके धन उपार्जन करता है, मृत्यु के उपरांत उसको यम के दूत घसीटकर ले जाते हैं। ताम्बे की धरती गर्म होती है, नंगे पैरों उसे ले जाते हैं। उसे बहुत पीड़ा देते हैं। जो शुभ कर्म करके गए होते हैं, वे स्वर्ग में हलवा-खीर आदि भोजन खाते दिखाई देते हैं। उस धर्म-कर्महीन व्यक्ति को भूख-प्यास सताती है। वह कहता है कि भूख लगी है, भोजन खाऊँगा। यमदूत उसको पीटते हैं। कहते हैं कि यह भोजन खाने के कर्म तो नहीं कर रखे। चल तुझे धर्मराज के पास ले चलते हैं। जैसा तेरे लिए आदेश होगा, वैसा ही करेंगे। धर्मराज उसके कर्मों का लेखा देखकर कहता है कि इसे नरक में डालो या प्रेत व प��तर, वृक्ष या पशु-पक्षियों की योनि दी जाती हैं। पितर योनि भूत प्रजात��� की श्रेष्ठ योनि है। यमलोक में भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी तृप्ति के लिए श्राद्ध निकालने की प्रथा शास्त्रविरूद्ध मनमाने आचरण के तहत शुरू की गई है। कहा जाता है कि एक वर्ष में जब आसौज (अश्विन) का महीना आता है तो भादवे (भाद्र) महीने की पूर्णमासी से आसौज महीने की अमावस्या तक सोलह श्राद्ध किए जाऐं। जिस तिथि को जिसके परिवार के सदस्य की मृत्यु होती है, उस दिन वर्ष में एक दिन श्राद्ध किया जाए। ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाए। जिस कारण से यमलोक में पितरों के पास भोजन पहुँच जाता है। वे एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं। कुछ भ्रमित करने वाले गुरूजन यह भी कहते हैं कि श्राद्ध के सोलह दिनों में यमराज उन पितरों को नीचे पृथ्वी पर आने की अनुमति देता है। पितर यमलोक (नरक) से आकर श्राद्ध के दिन भोजन करते हैं। हमें दिखाई नहीं देते या हम पहचान नहीं सकते।
भ्रमित करने वाले गुरूजन अपने द्वारा बताई शास्त्रविर���द्ध साधना की सत्यता के लिए इस प्रकार के उदाहरण देते हैं कि रामायण में एक प्रकरण लिखा है कि वनवास के दिनों में श्राद्ध का समय आया तो सीता जी ने भी श्राद्ध किया। भोजन खाते समय सीता जी को श्री रामचन्द्र जी के पिता दशरथ सहित रघुकुल के कई दादा-परदादा दिखाई दिए। उन्हें देखकर सीता जी को शर्म आई इसलिए मुख पर पर्दा (घूंघट) कर लिया।
विचार करो पाठकजनों:- श्री रामचन्द्र के सर्व वंशज प्रेत-पितर बने हैं तो अन्य सामान्य नागरिक भी वही क्रियाएं कर रहे हैं। वे भी नरक में पितर बनकर पितरों के पास जाएंगे। इस कारण यह शास्त्रविधि विरूद्ध साधना है जो पूरा हिन्दू समाज कर रहा है। श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 9 का श्लोक 25 भी यही कहता है कि जो पितर पूजा (श्राद्ध आदि) करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, वे यमलोक में पितरों को प्राप्त होते हैं।
जो भूत पूजा (अस्थियाँ उठाकर पुरोहित द्वारा पूजा कराकर गंगा में बहाना, तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छःमाही, वर्षी आदि-आदि) करते हैं, वे प्रेत बनकर गया स्थान पर प्रेत शिला पर बैठे होते हैं।
कुछ व्यक्तियों को धर्मराज जी कर्मानुसार पशु, पक्षी, वृक्ष आदि-आदि के शरीरों में भेज देता है।
परमात्मा कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हे भोले प्राणी! गरूड़ पुराण का पाठ उसे मृत्यु से पहले सुनाना चाहिए था ताकि वह परमात्मा के विधान को समझकर पाप कर्मों से बचता। पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर अपना मोक्ष कराता। जिस कारण से वह न प्रेत बनता, न पितर बनता, न पशु-पक्षी आदि-आदि के शरीरों में कष्ट उठाता। मृत्यु के पश्चात् गरूड़ पुराण के पाठ का कोई लाभ नहीं मिलता। सभी प्रमाणों से सिद्ध हो गया है की श्राद्ध निकालना शास्त्रों के विरूद्ध कर्मकांड है ।
📺सम्बंधित वीडियो⤵️
https://youtu.be/79ScoAZmCJQ
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