#satguru dev ji ki joy
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#DivineBhandaraBySantRampalJi
600 years ago Kabir Saheb Ji, who incarnated in the form of Keshav Banjara, had organized Akhand Bhandara (Huge Feast) for three days in which 18 lakh great sages participated from various parts of India.
दिव्य धर्म यज्ञ दिवस
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#FactsAndBeliefsOfJainism
जैन धर्म के दो प्रमुख देवता कौन हैं?
जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि उनके तीर्थंकर भगवान हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। इसके अलावा वे रक्षक भी हैं। जबकि यह धारणा गलत है। हम यहां पाठकों को यह भी स्पष्ट करना जरूरी समझते हैं कि आध्यात्मिकता के केवलज्ञान को प्राप्त करने से जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। यही प्रमाण कबीर सागर 'ज्ञान स्थिति बोध' अध्याय 26 पृष्ठ 105-144 में मिलता है। इससे यही सिद्ध होता है कि यह गलत धारणा है कि तीर्थंकर भगवान हैं।
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🎈संत रामपाल जी महाराज जी के बोध दिवस पर जानिए कौन है वह संत जो कलयुग में सतयुग लाएगा ?🎈
जगत् गुरू तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज समाज के एकमात्र पथ प्रदर्शक हैं। जो सतभक्ति देकर सर्व बुराइयां दूर कर कलयुग में सतयुग ला रहे हैं। श्रीमद्भगवदगीता, वेदों, क़ुरान, बाईबल, श्रीगुरुग्रंथ साहिब आदि सदग्रंथों के ज्ञान सार “एक भगवान और एक भक्ति” के अनुरूप सतभक्ति द्वारा पूर्ण मोक्ष प्रदान कर सतगुरु मानव कल्याण कर रहे हैं। कुरीतियों, बुराइयों और भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। आपसी वैमनस्य मिटाकर विश्व शांति स्थापित कर धरती को स्वर्ग बनाने की ओर अग्रसर हैं।
संत रामपाल जी ही एकमात्र जगतगुरु हैं, जो सारे संसार को भक्ति का सच्चा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। वे वही तत्वदर्शी संत (बाखबर/ इल्मवाला) हैं जिनके विषय में पवित्र गीता और पवित्र कुरान में बताया गया है और इन्होंने शास्त्रों के अनुसार “एक भगवान और एक भक्ति” के सिद्धांत को स्थापित किया। वे विश्वविजेता संत हैं जिन���होंने विश्व के सभी संतों, गुरुओं, शंकराचार्यों एवं धर्मगुरुओं को ज्ञान चर्चा में निरुत्तर किया है।
वे धरती पर पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब के अवतार हैं। वे जगत को सभी दु:खों से ही नहीं अपितु जन्म-मृत्यु के दीर्घ रोग से मुक्त कराने वाले तारणहार भी हैं। जिन्होंने सत भक्ति देकर मोक्ष प्रदान कराकर मानव कल्याण का कार्य पुरजोर प्रारंभ किया है।
प्रश्न-:संत रामपाल जी महाराज के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर-:संत रामपाल जी महाराज ने जाति, धर्म व ऊंच नीच से मुक्त मार्ग बताया है। संत रामपाल जी के यहाँ कोई भी जाति, धर्म, उच्च पद या सामान्य वर्ग का कोई भाई बन्धु जाए वे सभी से प्यार और समभाव से पेश आते हैं। वहां न किसी को अपनी जाति का अभिमान होता है, न ही धर्म का और न किसी पद प्रतिष्ठा का। संत रामपाल जी के सभी के लिए संदेश है:-
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
समाज में व्याप्त कुरीतियों का समूल नाश करना।
दहेज प्रथा, मुत्युभोज, भ्रूण हत्या, छुआछूत, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि से मुक्त समाज का निर्माण करना है।
नशा मुक्त भारत बनाना। समाज में मानव धर्म का प्रचार, भ्रूण हत्या पूर्ण रूप से बंद करना ।
छुआ-छूत रहित समाज का निर्माण ।
समाज से पाखंडवाद को खत्म करना।
भ्रष्टाचार मुक्त समाज का निर्माण करना।
समाज से जाति-पाति के भेद को मिटाना।
समाज से हर प्रकार के नशे को दूर करना।
समाज में शांति व भाईचारा स्थापित करना।
विश्व को सतभक्ति देकर मोक्ष प्रदान करना।
युवाओं में नैतिक और आध्यात्मिक जागृति लाना
समाज से दहेज रूपी कुरीति को जड़ से खत्म करना
सामाजिक बुराईयों को समाप्त करके स्वच्छ समाज तैयार करना
समस्त धार्मिक ग्रंथों के प्रमाण के आधार पर शास्त्र अनुकूल साधना समाज को देना ।
अज्ञानियों के दृष्टिकोण से भारतवर्ष में संत रामपाल जी महाराज विवादित माने जाते हैं। लेकिन वे एक ऐसे महापुरुष हैं । जिनके विषय में अधिकांश को सही जानकारी नहीं है। आपसी वैमनस्य मिटाकर विश्व शांति स्थापित कर धरती को स्वर्ग बनाने की ओर अग्रसर संत रामपाल जी महाराज इस समय केंद्रीय जेल हिसार (हरियाणा) में लीला कर रहे हैं। जिन्होंने सभी धर्मों के पवित्र ग्रंथों से प्रमाणित किया है । कि कबीर जी भगवान हैं। उन्होंने सत्संगों में प्रोजेक्टर के माध्यम से प्रमाण भी दिखाए हैं। संत रामपाल जी के अनुयायी उन्हें भगवान के तुल्य मानते हैं।
पृथ्वी पर विवेकशील प्राणियों की भी कमी नहीं है। ऐसे सत्य पथ के खोजी लोग उस परम तत्व के ज्ञाता संत को ढूंढकर, उनकी आज्ञाओं को स्वीकार कर, उनके निर्देशानुसार ��र्यादा में रहकर अपने मनुष्य जन्म को कृतार्थ करते हैं। वर्तमान में मानव समाज शिक्षित और बुद्धिजीवी है। अतः वास्तविक संत का खोजी है।
यही समय है जब सत्य शब्द लेने वाले जीव होंगे मुक्त।
कबीर साहेब ने सूक्ष्म वेद में बताया कि, कलयुग के 5505 वर्ष बीत जाने के बाद मेरा (कबीर परमेश्वर) सत्य शब्द लेने वाले सब जीव मुक्त हो जाएंगे। और कलयुग में सतयुग जैसा वातावरण निर्मित होगा।
#SantRampalJiBodhDiwas
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#TheMission_Of_SantRampalJi
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संत रामपाल जी महाराज जी से निःशुल्क नाम उपदेश लेने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जायें।
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#Great_Prophecies_2024
⤵️
यही हैं वो महापुरुष
An Indian prophet would have a very large following of the common people, who would convert materialism into spiritualism.
- Prediction of Boriska about Saint Rampal Ji Maharaj
https://fb.watch/pgJAhxfpkM/?mibextid=Nif5oz
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( #Muktibodh_part164 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part165
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 317-318
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 726-792 का सरलार्थ :-
‘‘शिष्यों की परीक्षा लेना’’
बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी द्वारा अनेकों अनहोनी लीलाएँ करने से प्रभावित होकर चौंसठ लाख शिष्य बने थे। परमेश्वर तो भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानते हैं। उनको पता
था कि ये सब चमत्कार देखकर तथा इनको मेरे आशीर्वाद से हुए भौतिक लाभों के कारण मेरी जय-जयकार कर रहे हैं। इनको मुझ पर विश्वास नहीं है कि मैं परमात्मा हूँ। परंतु देखा-देखी कहते अवश्य हैं कि कबीर जी हमारे सद्गुरू जी तो स्वयं परमात्मा आए हैं।
अपने लाभ भी बताते थे। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही कि देखूं तो कितने ज्ञान को समझे हैं। यदि इनको विश्वास ही नहीं है तो ये मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। ये तो मेरे सिर पर व्यर्थ का भार हैं। यह विचार करके एक योजना बनाई। अपने परम शिष्य रविदास से कहा कि एक हाथी किराए पर लाओ। काशी नगर में एक सुंदर वैश्या थी। उसके मकान से थोड़ी दूरी पर किसी कबीर जी के भक्त का मकान था। कबीर जी उसके आँगन में रात्रि के समय सत्संग कर रहे थे। उस दिन उस वैश्या के पास भी ग्राहक नहीं थे। सत्संग के वचन सुनने के लिए वह अपने मकान की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गई। पूर्ण रात्रि सत्संग सुना और उठकर सत्संग स्थल पर गई तथा परमात्मा कबीर जी को अपना परिचय दिया तथा कहा कि गुरू जी! क्या मेरे जैसी पापिनी का भी उद्धार हो सकता है। मैंने अपने जीवन में प्रथम बार आत्म कल्याण की बातें
सुनी हैं। अब मेरे पास दो ही विकल्प हैं कि या तो मेरा कल्याण हो, या मैं आत्महत्या करके पापों का प्रायश्चित करूँ। परमात्मा कबीर जी ने कहा, बेटी! आत्महत्या करना महापाप है।
भक्ति करने से सर्व पाप परमात्मा नष्ट कर देता है। आप मेरे से उपदेश लेकर साधना करो और भविष्य में पापों से बचकर रहना। उस बहन ने प्रतिज्ञा की और परमात्मा कबीर जी से दीक्षा लेकर भक्ति करने लगी तथा जहाँ भी प्रभु कबीर जी सत्संग करते, वहीं सत्संग सुनने जाने लगी। जिस कारण से कबीर जी के भक्तों को उसका सत्संग में आना अच्छा नहीं लगता था। वे उस लड़की को कहते थे कि तेरे कारण गुरू जी की बदनामी होती है।
तू सत्संग में मत आया कर। तू सबसे आगे गुरू जी के पास बैठती है, वहाँ ना बैठा कर। लड़की ने ये बातें गुरू कबीर जी को बताई और फूट-फूटकर रोने लगी। परमेश्वर जी ने कहा कि बेटी! आप सत्संग में आया करो। कबीर जी ने सत्संग वचनों द्वारा स्पष्ट किया कि मैला कपड़ा साबुन और पानी से दूर रहकर निर्मल कैसे हो सकता है? इसी प्रकार पापी व्यक्ति सत्संग से तथा गुरू से दूर रहकर आत्म कल्याण कैसे करा सकता है? भक्त वैश्या तथा रोगी से नफरत नहीं करते, सम्मान करते हैं। उसको ज्ञान चर्चा द्वारा मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा करते हैं। परमात्मा कबीर जी के बार-बार समझाने पर भी भक्तजन उस लड़की को सत्संग से मना करते रहे तथा बहाना करते थे कि तेरे कारण गुरू जी काशी में बदनाम हो गए हैं। काशी के व्यक्ति हमें बार-बार कहते हैं कि तुम्हारे गुरू जी के पास वैश्या भी जाती है। वह काहे का गुरू है।
एक दिन कबीर परमेश्वर जी ने उस लड़की से कहा कि बेटी! आप मेरे साथ हाथी पर बैठकर चलोगी। लड़की ने कहा, जो आज���ञा गुरूदेव! अगले दिन सुबह लगभग 10:00 बजे हाथी के ऊपर तीनों सवार होकर काशी नगर के मुख्य बाजार में से गुजरने लगे। संत
रविदास जी हाथी को चला रहे थे। लड़की रविदास जी के पीछे कबीर जी के आगे यानि दोनों के बीच में बैठी थी। कबीर जी ने एक बोतल में गंगा का पानी भर लिया। उस बोतल को मुख से लगाकर घूंट-घूंटकर पी रहे थे। लोगों को लगा कि कबीर जी शराब पी रहे हैं।
शराब के नशे में वैश्या को सरेआम बाजार में लिये घूम रहे हैं। काशी के व्यक्ति एक-दूसरे को बता रहे हैं कि देखो! बड़े-बड़े उपदेश दिया करता कबीर जुलाहा, आज इसकी पोल-पट्टी खुल गई है। ये लोग सत्संग के बहाने ऐसे कर्म करते हैं। काशी के व्यक्ति कबीर जी के शिष्यों को पकड़-पकड़ लाकर दिखा रहे थे कि देख तुम्हारे परमात्मा की करतूत। शराब पी रहे हैं, वैश्या को लिए सरेआम घूम रहा है। यह लीला देखकर वे चौंसठ लाख
नकली शिष्य कबीर जी को त्यागकर चले गए। पहले वाली साधना करने लगे। लोक-लाज में फँसकर गुरू विमुख हो गए।
परमात्मा कबीर जी विशेषकर ऐसी लीला उस समय किया करते जिस समय दिल्ली का सम्राट सिकंदर लोधी काशी नगरी में आया हो। उस समय सिकंदर लोधी राजा काशी में उपस्थित था। काजी-पंडितों ने राजा को शिकायत कर दी कि कबीर जुलाहे ने जुल्म कर दिया। शर्म-लाज समाप्त करके सरेआम वैश्या के साथ हाथी के ऊपर गलत कार्य कर रहा था। शराब पी रहा है। राजा ने तुरंत पकड़कर गंगा में डुबोकर मारने का आदेश दिया।
अपने हाथों से राजा सिकंदर ने कबीर परमेश्वर जी के हाथों में हथकड़ी तथा पैरों में बेड़ी तथा गले में तोक लगाई। नौका में बैठाकर गंगा दरिया के मध्य में ले जाकर दरिया में सिपाहियों ने पटक दिया। हथकड़ी, बेड़ी तथा तोक अपने आप टूटकर जल में गिर गई।
परमात्मा जल पर पद्म आसन लगाकर बैठ गए। नीचे से गंगा जल चक्कर काटता हुआ बह रहा था। परमात्मा जल के ऊपर आराम से बैठे थे। कुछ समय उपरांत परमात्मा कबीर जी गंगा के किनारे आ गए। सिपाहियों ने शेखतकी के आदेश से कबीर जी को पकड़कर नौका में बैठाकर कबीर परमात्मा के पैरों तथा कमर पर भारी पत्थर बाँधकर हाथ पीछे को रस्सी से बाँधकर गंगा दरिया के मध्य में फैंक दिया। रस्से टूट गए। पत्थर जल में डूब गए।
परमेश्वर कबीर जी जल के ऊपर बैठे रह गए। जब देखा कि कबीर गंगा दरिया में डूबा नहीं तो क्रोधित होकर शेखतकी के कहने से राजा ने तोब के गोले मारने का आदेश दे दिया। पहले कबीर जी को पत्थर मारे, गोली मारी, तीर मारे। अंत में तोब के गोले चार
पहर यानी बारह घण्टे तक कबीर जी के ऊपर मारे। कोई तो वहीं किनारे पर गिर जाता, कोई दूसरे किनारे पर जाकर गिरता, कोई दूर तालाब में जाकर गिरता। एक भी गोला, पत्थर, बंदूक की गोली या तीर परमेश्वर कबीर जी के आसपास भी नहीं गया। इतना कुछ देखकर भी काशी के व्यक्ति परमेश्वर को नहीं पहचान पाए। तब परमेश्वर कबीर जी ने देखा कि ये तो अक्ल के अँधे हैं। उसी समय गंगा के जल में समा गए और अपने भक्त
रविदास जी के घर प्रकट हो गए। दर्शकों को विश्वास हो गया कि कबीर जुलाहा गंगा जल में डूबकर मर गया है। उसके ऊपर रेत व रेग (गारा) जम गई होगी। सब खुशी मनाते हुए नाचते-कूदते हुए नगर को चल पड़े। शेखतकी ��पनी मण्डली के साथ संत रविदास जी के घर यह बताने के लिए गया कि जिस कबीर जी को तुम परमात्मा कहते थे, वह डूब गया है, मर गया है। संत रविदास जी के घर पर जाकर देखा तो कबीर जी इकतारा (वाद्य यंत्र) बजा-बजाकर शब्द गा रहे थे। शेखतकी की तो माँ सी मर गई। राजा सिकंदर के पास जाकर बताया कि वह आँखें बचाकर भाग गया है। रविदास के घर बैठा है। यह सुनकर
बादशाह सिंकदर लोधी संत रविदास जी की कुटी पर गया। परमात्मा कबीर जी वहाँ से अंतर्ध्यान होकर गंगा दरिया के मध्य में जल के ऊपर समाधि लगाकर जैसे जमीन पर बैठते हैं, ऐसे बैठ गए। रविदास से पूछा कि कबीर जी कहाँ पर हैं? संत रविदास जी ने कहा कि हे बादशाह जी! वे पूर्ण परमात्मा हैं, वे ही अलख अल्लाह हैं। आप इन्हें पहचानो। वे तो मर्जी के मालिक हैं। जहाँ चाहें चले जाएँ। मुझे कुछ नहीं पता, कहाँ चले गए? वे तो सबके साथ रहते हैं। उसी समय किसी ने बताया कि कबीर जी तो गंगा के बीच में बैठे भक्ति कर रहे हैं। सब व्यक्ति तथा राजा व सिपाही गंगा दरिया के किनारे फिर से गए। राजा ने नौका भेजकर मल्लाहों के द्वारा संदेश भेजा कि बाहर आएँ। मल्लाहों ने नौका कबीर जी के पास ले जाकर राजा का आदेश सुनाया कि आपको सिकंदर बादशाह याद कर रहे हैं। आप
चलिए। परमेश्वर कबीर जी उस जहाज (बड़ी नौका) में बैठकर किनारे आए।
क्रमशः_______________
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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( #Muktibodh_part161 के आगे पढिए.....)
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#MuktiBodh_Part162
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 311-312
‘‘संत रविदास जी द्वारा सात सौ पंडितों को शरण में लेना‘‘
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 703-709 :-
तुम पण्डित किस भांतिके, बोलत है रैदास।
गरीबदास हरि हेतसैं, कीन्हा यज्ञ उपास।।703।।
यज्ञ दई रैदासकूं, षटदर्शन बैठाय। गरीबदास बिंजन बहुत, नाना भांति कराय।।704।।
चमरा पंडित जीमहीं, एक पत्तल कै मांहि।
गरीबदास दीखै नहीं, कूदि कूदि पछतांहि।।705।।
रैदास भये है सात सै, मूढ पंडित गलखोडि।
गरीबदास उस यज्ञ में, बौहरि रही नहीं लोडि।।706।।
परे जनेऊ सात सै, काटी गल की फांस।
गरीबदास जहां सोने का, दिखलाया रैदास।।707।।
सूत सवामण टूटिया, काशी नगर मंझार।
गरीबदास रैदासकै, कनक जनेऊ सार।।708।।
पंडित शिष्य भये सात सै, उस काशी कै मांहि।
गरीबदास चमार कै, भेष लगे सब पाय।।709।।
◆सरलार्थ :- संत रविदास जी का जन्म चमार समुदाय में काशी नगर में हुआ। ये परमेश्वर कबीर जी के समकालीन हुए थे। परम भक्त रविदास जी अपना चर्मकार का कार्य किया करते थे। भक्ति भी करते थे। परमेश्वर कबीर जी ने काशी के प्रसिद्ध आचार्य स्वामी
रामानन्द जी को यथार्थ भक्ति मार्ग समझाया था। अपना सतलोक स्थान दिखाकर वापिस छोड़ा था। उससे पहले स्वामी रामानन्द जी केवल ब्राह्मण जाति के व्यक्तियों को ही शिष्य
बनाते थे। उसके पश्चात् स्वामी रामानंद जी ने अन्य जाति वालों को शिष्य बनाना प्रारम्भ किया था। संत रविदास जी ने भी आचार्य रामानन्द जी से दीक्षा ले रखी थी। भक्ति जो परमेश्वर कबीर जी ने स्वामी रामानन्द जी को प्रथम मंत्रा बताया था, उसी को दीक्षा में स्वामी जी देते थे।
संत रविदास जी उसी प्रथम मंत्र का जाप किया करते थे। एक दिन संत रविदास को एक ब्राह्मण रास्ते में मिला और बोला, भक्त जी! आप गंगा स्नान के लिए चलोगे, मैं जा रहा हूँ।
संत रविदास जी ने कहा कि ‘मन चंगा तो कटोती में गंगा’, मैं नहीं जा रहा हूँ।
पंडित जी बोले कि आप नास्तिक से हो गए लगते हो। आप उस कबीर जी के साथ क्या रहने लगे हो, धर्म-कर्म ही त्याग दिया है। कुछ दान करना हो तो मुझे दे दो। मैं गंगा मईया को दे आऊँगा। रविदास जी ने जेब से एक कौड़ी निकालकर ब्राह्मण जी को दी तथा कहा कि हे विप्र! गंगा जी से मेरी यह कौड़ी देना। एक बात सुन ले, यदि गंगा जी हाथ में कौड़ी ले तो देना अन्यथा वापिस ले आना। यह कहना कि हे गंगा! यह कौड़ी काशी शहर
से भक्त रविदास ने भेजी है, इसे ग्रहण करें। पंडित जी ने गंगा दरिया पर खड़ा होकर ये शब्द कहे तो गंगा ने किनारे के पास हाथ निकालकर कौड़ी ली और दूसरे हाथ से पंडित जी को एक स्वर्ण (gold) क�� कंगन दिया जो अति सुंदर व बहुमूल्य था। गंगा ने कहा कि ये कंगन परम भक्त रविदास जी को देना। कहना कि आपने मुझ गंगा को कृतार्थ कर दिया अपने हाथ से प्रसाद देकर। मैं संत को क्या भेंट दे सकती हूँ? यह तुच्छ भेंट स्वीकार करना।
पंडित जी उस कंगन को लेकर चल पड़ा। पंडित जी के मन में लालच हुआ कि यह कंगन राजा को दूँगा। राजा इसके बदले में मुझे बहुत धन देगा। वह कंगन पंडित जी ने
राजा को दिया जो अद्भुत कंगन था। पंडित जी को बहुत-सा धन देकर विदा किया और उसका नाम, पता नोट किया। राजा ने वह कंगन रानी को दिया। रानी ने कंगन देखा तो अच्छा लगा। ऐसा कंगन कभी देखा ही नहीं था। रानी ने कहा कि एक कंगन ऐसा ही ओर चाहिए। जोड़ा होना चाहिए। राजा ने उसी पंडित को बुलाया और कहा कि जैसा कंगन पहले लाया था, वैसा ही एक और लाकर दे। जो धन कहेगा, वही दूँगा। यदि नहीं लाया तो
सपरिवार मौत के घाट उतारा जाएगा। उस धोखेबाज (420) के सामने पहाड़ जैसी समस्या खड़ी हो गई। सब सुनारों (श्राफों) के पास फिरकर अंत में परम भक्त रविदास जी के पास आया। अपनी गलती स्वीकार की। सर्व घटना गंगा को कौड़ी देना, बदले में कंगन लेना।
उस कंगन को भक्त रविदास जी को न देकर मुसीबत मोल लेना। पंडित जी ने
गिड़गिड़ाकर रविदास जी से अपने परिवार के जीवन की भिक्षा माँगी। रविदास जी ने कहा कि पंडित जी! आप क्षमा के योग्य नहीं हैं, परंतु परिवार पर आपत्ति आई है। इसलिए
आपकी सहायता करता हूँ। आप इस पानी कठोती (मिट्टी का बड़ा टब जिसमें चमड़ा भिगोया जाता था) में हाथ डाल और गंगा से यह कह कि भक्त रविदास जी की प्रार्थना है
कि आप कठोती में आएँ और एक कंगन वैसा ही दें। ऐसा कहकर पंडित जी ने जो रविदास के चमार होने के कारण पाँच फुट दूर से बातें करता था, अब उस चाम भिगोने वाले कुंड (टब) में हाथ देकर देखा तो हाथ में चार कंगन वैसे ही आए। भक्त रविदास जी ने कहा कि पंडित जी! एक ले जाना, शेष गंगा जी को लौटा दे, नहीं तो भयंकर आपत्ति ओ��� आ जाएगी। ब्राह्मण ने तुरंत तीन कंगन वापिस कुण्ड में डाल दिए और एक कंगन लेकर राजा को दिया। रानी ने पूछा कि यह कंगन कहाँ से लाए हो, मुझे बता। ब्राह्मण ने संत रविदास जी का पता बताया।
रानी ने सोचा कि कोई स्वर्णकार (Goldsmith) होगा और ढ़ेर सारे कंगन लाऊँगी।
रानी को एक असाध्य रोग था। पित्तर का साया भी था। बहुत परेशान रहती थी। सब जगह उपचार करा लिया था। साधु-संतों का आशीर्वाद भी ले चुकी थी। परंतु कोई राहत नहीं मिल रही थी। रानी उस पते पर गई। साथ में नौकरानी तथा अंगरक्षक भी थे। रानी ने संत रविदास जी के दर्शन किए। दर्शन करने से ही रानी के शरीर का कष्ट समाप्त हो गया।
रानी को ऐसा अहसास हुआ जैसे सि�� से भारी भार उतर गया हो। रानी ने संत जी के तुरंत चरण छूए। रविदास जी ने कहा कि मुझ निर्धन के पास मालकिन का कैसे आना हुआ? रानी ने कहा कि मैं तो सुनार की दुकान समझकर आई थी गुरूजी। मेरा तो जीवन धन्य हो गया।
मेरा जीवन नरक बना था रोग के कारण। आपके दर्शन से वह स्वस्थ हो गया। मैंने इसके उपचार के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। परंतु कोई लाभ नही हो रहा था। संत रविदास जी ने कहा कि बहन जी! आपके पास भौतिक धन तो पर्याप्त है। यह आपके पूर्व जन्म के पुण्यों का फल है। भविष्य में भी सुख प्राप्ति के लिए आपको वर्तमान में पुण्य करने पड़ेंगे।
आध्यात्म धन संग्रह करो। रानी ने कहा कि संत जी! मैं बहुत दान-धर्म करती हूँ। महीने में पूर्णमासी को भण्डारा करती हूँ। आसपास के ब्राह्मणों तथा संतों को भोजन कराती हूँ।
संत रविदास जी ने कहा :-
बिन गुरू भजन दान बिरथ हैं, ज्यूं लूटा चोर।
न मुक्ति न लाभ संसारी, कह समझाऊँ तोर।।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, चाहे पूछो बेद पुरान।।
रानी ने कहा कि हे संत जी! मैंने एक ब्राह्मण गुरू बनाया है। रविदास जी ने कहा कि नकली गुरू से भी कुछ लाभ नहीं होने का। आप जी ने गुरू भी बना रखा था और कष्ट यथावत थे। क्या लाभ ऐसे गुरू से? रानी ने कहा कि आप सत्य कहते हैं। आप मुझे शिष्या
बना लो। रविदास जी ने रानी को प्रथम मंत्रा दिया। रानी ने कहा कि गुरूजी! अबकी पूर्णमासी को आपके नाम से भोजन-भण्डारा (लंगर) करूंगी। आप जी मेरे घर पर आना।
निश्चित तिथि को रविदास जी राजा के घर पहुँचे। पूर्व में आमंत्रित सात सौ ब्राह्मण भी भोजन-भण्डारे में पहुँचे। भण्डारा शुरू हुआ। रानी ने अपने गुरू रविदास जी को अच्छे आसन पर बैठा रखा था। उसके साथ सात सौ ब्राह्मणों को भोजन के लिए पंक्ति में बैठने के लिए निवेदन किया। ब्राह्मण कई पंक्तियों में बैठे थे। भोजन सामने रख दिया गया था। उसी समय ब्राह्मणों ने देखा कि रविदास जी अछूत जाति वाले साथ में बैठे हैं। सब अपने-अपने स्थान पर खड़े हो गए और कहने लगे कि हम भोजन नहीं करेंगे। यह अछूत रविदास जो बैठा है, इसे दूर करो। रानी ने कहा कि यह मेरे गुरू जी हैं, ये दूर नहीं होंगे। संत रविदास जी ने रानी से कहा कि बेटी! आप मेरी बात मानो। मैं दूर बैठता हूँ। रविदास जी उठकर ब्राह्मणों ने जहाँ जूती निकाल रखी थी, उनके पीछे बैठ गए। पंडितजन भोजन करने बैठ गए। उसी समय रविदास जी के सात सौ रूप बने और प्रत्येक ब्राह्मण के साथ थाली में खाना खाते दिखाई दिए। एक ब्राह्मण दूसरे को कहता है कि आपके साथ एक शुद्र रविदास भोजन कर रहा है, छोड़ दे इस भोजन को। सामने वाला कहता है कि आपके साथ भी भोजन खा रहा है। इस प्रकार प्रत्येक के साथ रविदास जी भोजन खाते दिखाई दिए। रविदास जी दूर बैठे कहने लगे कि हे ब्राह्मणगण! मुझे क्यों बदनाम करते हो, देखो! मैं तो यहाँ बैठा हूँ।
इस लीला को राजा, रानी, मंत्री सब उपस्थित गणमान्य व्यक्ति ��ी देख रहे थे। तब रविदास जी ने कहा कि ब्राह्मण कर्म से होता है, जाति से नहीं। अपने शरीर के अंदर (खाल के भीतर) स्वर्ण (gold) का जनेऊ दिखाया। कहा कि मैं वास्तव में ब्राह्मण हूँ। मैं जन्म से ब्राह्मण हूँ।
कुछ देर सत्संग सुनाया। उस समय सात सौ ब्राह्मणों ने अपने नकली जनेऊ (कच्चे धागे की डोर जो गले में तथा कॉख के नीचे से दूसरे कंधे पर बाँधी होती है) तोड़कर संत रविदास जी के शिष्य हुए। सत्य साधना करके अपना कल्याण कराया। सात सौ ब्राह्मणों के जनेऊओं के सूत का सवा मन (50 कि.ग्राम) भार तोला गया था।
क्रमशः_________________
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( #Muktibodh_part154 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part155
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 298-299
परमेश्वर कबीर जी स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को साथ लेकर सत्यलोक में गए। वहाँ सर्व आत्माओं का भी मानव सदृश शरीर है। उनके शरीर का भी सफेद प्रकाश है। परन्तु सत्यलोक निवासियों के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है। बालक रूपधारी कविर्देव ने अपने ही अन्य स्वरूप पर चंवर किया। जो स्वरूप अत्यधिक तेजोमय था तथा सिंहासन पर एक सफेद गुबन्द में विराज मान था। स्वामी रामानन्द जी ने सोचा कि पूर्ण परमात्मा तो यह है जो तेजोमय शरीर युक्त है। यह बाल रूपधारी आत्मा कबीर यहाँ का अनुचर अर्थात् सेवक होगा। स्वामी रामानन्द जी ने इतना विचार ही किया था। उसी समय सिंहासन पर विराजमान तेजोमय शरीर युक्त परमात्मा सिंहासन त्यागकर खड़ा हो गया तथा बालक कबीर जी को सिंहासन पर बैठने के लिए प्रार्थना की नीचे से रामानन्द जी के साथ गया बालक कबीर जी उस सिंहासन पर विराजमान हो गए तथा वह तेजोमय शरीर धारी प्रभु बालक के सिर पर
श्रद्धा से चंवर करने लगा। रामानन्द जी ने सोचा यह परमात्मा इस बच्चे पर चंवर करने लगा।
यह बालक यहां का नौकर (सेवक) नहीं हो सकता। इतने में तेजोमय शरीर वाला परमात्मा उस बालक कबीर जी के शरीर में समा गया। बालक कबीर जी का शरीर उसी प्रकार उतने ही
प्रकाश युक्त हो गया जितना पहले सिंहासन पर बैठे पुरूष (परमेश्वर) का था।
◆ वाणी नं. 555-567 का सरलार्थ :- इतनी लीला करके स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को वापस शरीर में भेज दिया। महर्षि रामानन्द जी ने आँखे खोल कर देखा तो बालक रूपधारी
परमेश्वर कबीर जी को सामने भी बैठा पाया। महर्षि रामानन्द जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह बालक कबीर जी ही परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् वासुदेव (कुल का मालिक) है। दोनों स्थानों
(ऊपर सत्यलोक में तथा नीचे पृथ्वी लोक में) पर स्वयं ही लीला कर रहा है। यही परम दिव्य पुरूष अर्थात् आदि पुरूष है। सत्यलोक में जहाँ पर यह परमात्मा मूल रूप में निवास करता है
वह सनातन परमधाम है। परमेश्वर कबीर जी ने इसी प्रकार सन्त गरीबदास जी महाराज छुड़ानी (हरयाणा) वाले को सर्व ब्रह्मण्डों को प्रत्यक्ष दिखाया था। उनका ज्ञान योग खोल दिया था तथा परमेश्वर ने गरीबदास जी महाराज को स्वामी रामानन्द जी के विषय में बताया था कि किस प्रकार मैंने स्वामी जी को शरण में लिया था। महाराज गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में उल्लेख किया है।
तहाँ वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार।
गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।
बोलत रामानन्द जी सुन कबिर करतार।
गरीबदास सब रूप में तुमही बोलनहार।।
दोहु ठोर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें उतरे हो मग जोय।।
तुम साहेब तुम सन्त हो तुम सतगुरु तुम हंस।
गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि भर्म कर्म किये नाश।
गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ विश्वास।।
सुन बे सुन से तुम परे, ऊरै से हमरे तीर।
गरीबदास सरबंग में, अविगत पुरूष कबीर।।
कोटि-2 सिजदा किए, कोटि-2 प्रणाम।
गरीबदास अनहद अधर, हम परसे तुम धाम।।
बोले रामानन्द जी, सुनों कबीर सुभान। गरीबदास मुक्ता भये, उधरे पिण्ड अरू प्राण।।
◆ उपरोक्त वाणी का भावार्थ :- सत्यलोक में तथा काशी नगर में पृथ्वी पर दोनों स्थानों पर परमात्मा कबीर जी को देख कर स्वामी रामानन्द जी ने कहा है कबीर परमात्मा आप दोनों
स्थानों पर लीला कर रहे हो। आप ही निज ब्रह्म अर्थात् गीता अध्याय 15 श्��ोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष अर्थात् वास्तविक परमेश्वर तो क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष
(परब्रह्म) से अन्य ही है। वही परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है वह परम अक्षर ब्रह्म आप ही हैं। आप ही की शक्ति से सर्व प्राणी गति कर
रहे हैं। मैंने आप का वह सनातन परम धाम आँखों देखा है तथा वास्तविक अनहद धुन तो ऊपर सत्यलोक में है। ऐसा कह कर स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर के चरणों में कोटि-2
प्रणाम किया तथा कहा आप परमेश्वर हो, आप ही सतगुरु तथा आप ही तत्त्वदर्शी सन्त हो आप ही हंस अर्थात् नीर-क्षीर को भिन्न-2 करने वाले सच्चे भक्त के गुणों युक्त हो। कबीर भक्त नाम से यहाँ पर प्रसिद्ध हो वास्तव में आप परमात्मा हो। मैं आपका भक्त आप मेरे गुरु जी।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे स्वामी जी ! गुरु जी तो आप ही रहो। मैं आपका शिष्य हूँ। यह गुरु परम्परा बनाए रखने के लिए अति आ���श्यक है। यदि आप मेरे गुरु जी रूप में नहीं
रहोगे तो भविष्य में सन्त व भक्त कहा करेंगे कि गुरु बनाने की कोई अवश्यकता नहीं है। सीधा ही परमात्मा से ही सम्पर्क करो। ‘‘कबीर’’ ने भी गुरु नहीं बनाया था।
हे स्वामी जी! काल प्रेरित व्यक्ति ऐसी-2 बातें बना कर श्रद्धालुओं को भक्ति की दिशा से भ्रष्ट किया करेंगे तथा काल के जाल में फाँसे रखेंगे। इसलिए संसार की दृष्टि में आप मेरे गुरु
जी की भूमिका कीजिये तथा वास्तव में जो साधना की विधि मैं बताऊँ आप वैसे भक्ति कीजिए।
स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर जी की बात को स्वीकार किया। कबीर परमेश्वर जी एक रूप में स्वामी रामानन्द जी को तत्त्वज्ञान सुना रहे थे तथा अन्य रूप धारण करके कुछ ही
समय उपरान्त अपने घर पर आ गए। क्योंकि वहाँ नीरू तथा नीमा अति चिन्तित थे। बच्चे को सकुशल घर लौट आने पर नीरू तथा नीमा ने परमेश्वर का शुक्रिया किया। अपने बच्चे कबीर
को सीने से लगा कर नीमा रोने लगी तथा बच्चे को अपने पति नीरू के पास ले गई। नीरू ने भी बच्चे कबीर से प्यार किया। नीरू ने पूछा बेटा! आपको उन ब्राह्मणों ने मारा तो नहीं? कबीर जी
बोले नहीं पिता जी! स्वामी रामानन्द जी बहुत अच्छे हैं। मैंने उनको गुरु बना लिया है। उन्होंने मुझको सर्व ब्राह्मण समाज के समक्ष सीने से लगा कर कहा यह मेरा शिष्य है। आज से मैं सर्व
हिन्दू समाज के सर्व जातियों के व्यक्तियों को शिष्य बनाया करूँगा। माता-पिता (नीरू तथा नीमा) अति प्रसन्न हुए तथा घर के कार्य में व्यस्त हो गए।
स्वामी रामानन्द जी ने कहा हे कबीर जी! हम सर्व की बुद्धि पर पत्थर पड़े थे आपने ही अज्ञान रूपी पत्थरों को हटाया है। बड़े पुण्यकर्मों से आपका दर्शन सुलभ हुआ है।
(यह शब्द कबीर सागर में अध्याय अगम निगम बोध के पृष्ठ 38 पर लिखा है।)
मेरा नाम कबीरा हूँ जगत गुरू जाहिरा।(टेक)
तीन लोक में यश है मेरा, त्रिकुटी है अस्थाना।
पाँच-तीन हम ही ने किन्हें, जातें रचा जिहाना।।
गगन मण्डल में बासा मेरा, नौवें कमल प्रमाना।
ब्रह्म बीज हम ही से आया, बनी जो मूर्ति नाना।।
संखो लहर मेहर की उपजैं, बाजै अनहद बाजा।
गुप्त भेद वाही को देंगे, शरण हमरी आजा।।
भव बंधन से लेऊँ छुड़ाई, निर्मल करूं शरीरा।
सुर नर मुनि कोई भेद न पावै, पावै संत गंभीरा।।
बेद-कतेब में भेद ना पूरा, काल जाल जंजाला।
कह कबीर सुनो गुरू रामानन्द, अमर ज्ञान उजाला।।
क्रमशः________
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অনুত্তম মানে অশ্ৰেষ্ঠ, গতিকে ইয়াৰ অৰ্থ “অতি উত্তম” কৰাটো ভুল।
গীতাৰ জ্ঞান দাতাই গীতা অধ্যায়-৭, শ্লোক- ১৮ ত কৈছে যে "মোৰ ভক্তিৰ দ্বাৰা পূৰ্ণ মোক্ষ লাভ নহয়" অৰ্থাৎ
তেওঁৰ গতি মানে মোক্ষক অশ্ৰেষ্ঠ বুলি বৰ্ণনা কৰা হৈছে। গীতাৰ চতুৰ্থ অধ্যায়ৰ ৫ নং শ্লোক অনুসৰি গীতা জ্ঞান দাতা আৰু তেওঁৰ সাধকৰ জন্ম-মৃত্যু অব্যাহত থাকে। জন্ম-মৃত্যুৰ অন্ত নাই এই ভক্তিৰে। (উত্তম ভক্তি হ’ল যিটোৱে সাধকৰ জন্ম-মৃত্যুৰ অন্ত পেলায়) সেইবাবেই গীতাৰ জ্ঞান দাতাই তেওঁৰ সাধনাক অনুত্তম অৰ্থাৎ হীন বুলি অভিহিত কৰিছে।
কিন্তু শ্ৰী জ্ঞানানন্দই অনুত্তমৰ অৰ্থ অতি ভাল বুলি কৈছে যিটো অনৰ্থক। ইয়াৰ দ্বাৰা সমগ্ৰ গীতাৰ অৰ্থ বিপৰীত হৈ পৰে।
- জগতগুৰু তত্ত্বদৰ্শী সন্ত ৰামপাল জী মহাৰাজ
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#आध्यात्मिक_ज्ञान_चर्चा
পবিত্ৰ গীতাৰ জ্ঞান কোনে কৈছিল?
শ্ৰী জ্ঞানানন্দ :
শ্ৰীকৃষ্ণই অৰ্জুনক শ্ৰীমদ্ভাগৱত গীতাৰ জ্ঞান শুনাইছিল।
জগদ্গুৰু তত্ত্বদৰ্শী সন্ত ৰামপাল মহাৰাজ:
গীতা অধ্যায়-১১, শ্লোক-২১ত অৰ্জুনে কৈছিল যে আপুনিতো দেৱতা সমূহক খাই আছে যিয়ে হাত যোৰ কৰি ভয়ভীত হৈ আপোনাৰ স্তুতি কৰি আছে।
মহৰ্ষি আৰু সিদ্ধ সমুদায়ে নিজৰ জীৱন ৰক্ষার্থে আপোনাৰ পৰা মঙ্গল কামনা কৰি আছে। গীতা অধ্যায়-১১ শ্লোক-৩২ত গীতা জ্ঞান দাতাই কৈছিল যে হে অৰ্জুন! মই বৰ্ধিত কাল। এতিয়া মই প্ৰবৃত্ত হৈছোঁ, অৰ্থাৎ মই এতিয়া শ্ৰীকৃষ্ণৰ শৰীৰত প্ৰৱেশ কৰিছোঁ। সকলো মানুহৰ মই ধ্বংস কৰিম।
ইয়াৰ দ্বাৰা প্ৰমাণিত হ’ল যে গীতাৰ জ্ঞান শ্ৰীকৃষ্ণৰ শৰীৰত প্ৰবেশ কৰি কালে কৈছে। শ্ৰী কৃষ্ণই আগতে কেতিয়াও কোৱা নাই যে মই কাল। শ্ৰীকৃষ্ণক দেখি কোনো ভয়ভীত হোৱা নাছিল।
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In the Book "Hindu Saheban Nahi Samjhe Geeta, Veda, Puran" it is explained that how Sanatani Puja came to an end and how Sanatani Puja will rise again.
To Know download the Book "Hindu Saheban Nahi Samjhe Geeta, Veda, Puran" from Sant Rampal Ji Maharaj App and read it.
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श्री देवीपुराण के तीसरे स्कंद में प्रमाण है कि इस ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ में ती��ों देवताओं का जब इनकी माता श्री दुर्गा जी ने विवाह किया, उस समय न कोई बाराती था, न कोई भाती था। न कोई भोजन-भण्डारा किया गया था। न डी.जे बजा था, न कोई नृत्य किया गया था। श्री दुर्गा जी ने अपने बड़े पुत्र श्री ब्रह्मा
जी से कहा कि हे ब्रह्मा! यह सावित्री नाम की लड़की तुझे तेरी पत्नी रूप में दी जाती है। इसे ले जाओ और अपना घर बसाओ। इसी प्रकार अपने बीच वाले पुत्र श्री विष्णु जी से लक्ष्मी जी तथा छोटे बेटे श्री शिव जी को पार्वती जी को देकर कहा ये तुम्हारी पत्नियां हैं। इनको ले जाओ और अपना-अपना घर बसाओ। तीनों अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर अपने-अपने लोक में चले गए जिससे विश्व का विस्तार हुआ।
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श्री देवीपुराण के तीसरे स्कंद में प्रमाण है कि इस ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ में तीनों देवताओं का जब इनकी माता श्री दुर्गा जी ने विवाह किया, उस समय न कोई बाराती था, न कोई भाती था। न कोई भोजन-भण्डारा किया गया था। न डी.जे बजा था, न कोई नृत्य किया गया था। श्री दुर्गा जी ने अपने बड़े पुत्र श्री ब्रह्मा
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#Bhandara_Invitation_To_World
What is Divya Dharma Yagya Diwas?
This Diwas is celebrated throughout India by Jagatguru Tatvdarshi Sant Rampal Ji Maharaj Ji as a memory of a divine play of Lord Kabir coming in the form of Keshav Banjara to serve 18 lakh saints continuously for 3 Days in Kashi Banaras 600 years ago.
दिव्य धर्म यज्ञ दिवस
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#MiracleOfGodKabir_In_1513
510 years back from now Supreme God Kabir came in the form of Banzara(Business man) and had played a divine act in which he organised a community meal for 18 lakhs people of Kashi and nearby places.
दिव्य धर्म यज्ञ दिवस
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আজীৱন পাষণ্ডবাদ, জাতিবাদ, সাম্প্ৰদায়িকতাৰ ওপৰত প্ৰচণ্ড প্ৰহাৰ কৰাৰ বাবে নকলী ধৰ্মগুৰু কবীৰ পৰমেশ্বৰৰ বিৰোধী হৈ পৰিল, তেওঁক মাৰিবলৈ অনেক প্ৰয়াস কৰিলে কিন্তু অবিনাশী পৰমাত্মাক মাৰিবলৈ সফল নহ'ল। গতিকে ১৫১৩ চনত তেওঁক বদনাম কৰাৰ উদ্দেশ্যে ষড়যন্ত্ৰ কৰি ১৮ লাখ মানুহক নিমন্ত্ৰণ পঠালে।কবীৰ পৰমেশ্বৰে তেওঁলোকৰ ষড়যন্ত্ৰ নিষ্ফল কৰি দিলে আৰু১৮ লাখ সাধু সন্ত সমেত অনেক লোকক তিনিদিন ভোজ খ���ৱালে।
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#BookForHinduSaheban_OnDiwali
सभी धर्मों के मानवों को कर्म फल तीनों देवता (ब्रह्मा विष्णु महेश) देते हैं, लेकिन इस दिवाली पर यह भी जानिए ये देवता किस प्रकार प्रारब्ध से भी अधिक लाभ दे सकते हैं?
जानने के लिए हिन्दू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण पुस्तक को Sant Rampal Ji Maharaj App से डाउनलोड करके पढ़ें।
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