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प्रेगनेंसी शॉपिंग
'सावी, ओ सावी' सासुजी बुला रही थी| कूरियर से बड़ा पार्सल आया था दरवाजे पर| वो देखकर उनकी चिड़चिड़ाहट शुरू हो गयी| सावी की प्रेगनेंसी टेस्ट का रिपोर्ट पिछले हफ्ते ही पॉजिटिव मिला था| उसने प्रेगनेंसी से सम्बंधित चीजोंका शॉपिंग बड़े धड़ल्ले से शुरू कर दिया था| कई चीजे घरमे आ गयी थी| मजे की बात तो ये थी की सावी खुद नहीं जानती थी की उनमे से कई चीजोंका उपयोग क्या है अथवा कैसे किया जाता है?
सावी जैसी कई लडकियां देखनेमें आती हैं| उन सबके लिए आजका ये लेख|
आप सभी जानते हो, की प्रेगनेंसी के कई स्टेजेस होते हैं| और हर चीज का अपना समय होता है| इसी तरह, प्रेगनेंसी शॉपिंग का भी अपना समय होता है|
पहली शॉपिंग तब करना, जब गर्भके हार्ट बीट्स सोनोग्राफी में सुनाई दें| इससे ये मालूम हो जाता है की गर्भ जीवित है (इसे LIVE PREGNANCY कहते हैं|
इस स्टेज पर कौनसी चीजें खरीदनी चाहिए?
१. सूती और आरामदेह कपडे- प्रेगनेंसी ये एक HYPERMETABOLIC अवस्था है| इसका मतलब प्रेगनेंसी में चयापचय क्रिया की गति बढ़ जाती है| जिसकी वजह से गर्माहट महसूस होना और अधिक पसीना आना स्वाभाविक है| इसीलिए गर्भावस्था में पहनावा सूती और आरामदेह हो इसका खास ख्याल रखें| जैसे जैसे पेट का आकार बढ़ता है, उसके साथ साथ कपडोंका साइज भी बदलना चाहिए|
२. ब्रा- गर्भावस्था में शुरू से ही स्तनोंका आकार और वजन बढ़ता जाता है| इसलिए स्तनोंको ठीक से सपोर्ट करे ऐसी ब्रा इस्तेमाल करना जरुरी है| वरना प्रसूति पश्चात् स्तन का आकार बिगड़ सकता है (SAGGING OF BREAST) | ऐसी SUPPORTIVE ब्रा खरीदें|
३ पैंटी- योग्य साइज की हों और दिन में कमसे कम दो बार चेंज करें| जैसे पेट बढ़ता है, तो प्रेगनेंसी की स्पेशल पैंटी मिलती है जो TUMMY को सपोर्ट करती हैं उन्हें इस्तेमाल करें|
४. सपाट चप्पल (FLAT FOOTWEAR) गर्भावस्था में सारा समय सपाट चप्पल ही इस्तेमाल करें| हिल वाले चप्पल प्रेगनेंसी में अत्यंत धोकादायक होते हैं| उनकी वजह से पीठ में दर्द, बैलेंस खोकर गिर जाना ऐसी परेशानियां हो सकती हैं| इसी लिए गर्भावस्था में और बच्चे��ो गोद में लेकर चलते समय सपाट चप्पल ही इस्तेमाल करें| इन्हे शुरुवाती लिस्ट में ही ले आये|
५. बॉडी पिलो - सोते वक़्त शरीर को आधार मिले और निद्रा आरामदेह हो इस लिए ये बहुत उपयोगी हैं|
६. डेओडोरैंट्स- जैसा हमने पहले देखा है, प्रेगनेंसी में पसीना ज्यादा निकलता है| इस लिए दुर्गंधी से बचने के लिए डेओडोरैंट्स योग्य मात्रा में अवश्य इस्तेमाल करें|
७. पानी की बोतल- प्रेगनेंसी में बाहरका पानी न पियें| एक बड़ी बोतल ख़रीदे और उसे घरके पानी से भर कर हमेशा साथ रखें| उसीका इस्तेमाल करें|
८. सूखे मेवे- ये हमेशा पर्स में अपने साथ रखें| अच्छे क्वालिटी का खरीदें और इसे दिनभर जब भी मन करें, खाते रहिये|
९. संगीत- गर्भावस्था में मन प्रसन्न और रिलैक्स्ड रहने के लिए संगीत बहुत मददगार होता है| मन को शांत रखनेवाला, खुश रखनेवाला संगीत अवश्य सुनें|
१०. ऑफिस पिलो- ऑफिस में यदि सारा समय बैठ कर काम करना होता है तो पीठ और लोअर बैक को सपोर्ट करने वाली पिलो खरीदें| जब भी आप कुर्सीपर बैठी हों, उसे इस्तेमाल करें| ऐसीही पिलो कार में सफर के वक़्त भी साथ ले सकते हैं|
ये सभी चीजें गर्भावस्था के प्रथम चरण में (FIRST STAGE) आवश्यक हैं|
अब अगले चरण की सोचते हैं
दूसरा चरण शुरू होता है २० हफ़्तोंके बाद, अर्थात ५वे महीने की सोनोग्राफी के बाद| क्योंकि इस सोनोग्राफी में गर्भ के अव्यंग और निरोगी होने की पुष्टि हो जाती है| इस लिए शिशु के लिए और डिलीवरी के लिए लगने वाली आवश्यक चीजें अब खरीद सकते हैं|
अपने समाज में आज भी बड़े बुजुर्ग यही मानते है की बच्चेके लिए खरीदारी उस के जन्म के बाद की जाए| परन्तु अपने समाज की परिस्थिति भी पाश्चात्य देशोंकी तरह होती जा रही है| हर बार कोई बुजुर्ग साथ में होंगे ये मुश्किल होता जा रहा है| इस लिए कई लोग आजकल ये खरीदारी भी पहले ही कर लेते हैं|
शिशु के लिए आवश्यक वस्तु
१. शिशु के सारे आवश्यक कपडे, लंगोट, तेल, साबुन, पाउडर तथा चद्दर| कॉटन की साडी और दुपट्टेसे शिशु के लिए बहुत अच्छी आरामदेह चादर बन सकती है| ये बहुत मुलायम होने से शिशु की नाजुक त्वचा भी सुरक्षित रहती है| बाजारू चादर की तुलना में इस चादर में अपनेपन का गंध होता है| आजकल ऐसी चादर पुरानी साडियोंसे सिलकर मिलती हैं|
२. शिशु के नहाने के लिए टब- ये अत्यंत उपयोगी और आवश्यक वस्तु है| नवजात शिशु को भी सुरक्षित रूप से नहलाने के लिए विशेष अटैचमेंट मिलती हैं|
३. CARRY COT - इसमें नन्हा शिशु बड़े आरामसे सो सकता है और आप उसे उठाकर कहीं भी ले जा सकते हो|
४. PRAM अथवा STOLLER -शिशु को घर से बाहर ले जाने के लिए बहुत उपयुक्त होता है| बच्चे दो साल की उम्र तक इसमें बैठ सकते हैं और एन्जॉय भी करते हैं| जैसे जैसे शिशु का वजन बढ़ता है, उसे गोद में लेकर घूमना मुश्किल हो जाता है| इसलिए स्टॉलर की आदत पहलेसे ही डालें| सुबह की कच्ची धुप में जब शिशु को ले जाते हैं, तभी से आप स्टॉलर इस्तेमाल कर सकते हो|
५. पालना और उस पर टंगनेवाला गोल घूमता खिलौना- पालने में शिशु सुरक्षित रहता है| आप को यदि काम करना हो तो बच्चेको पालने में रखकर निश्चिन्त होकर काम कर सकते हो| पालने की आदत भी डालनी पड़ती है| पालने पर बांधनेके लिए एक गोल गोल घूमने वाला खिलौना मिलता है| इसका बहुत उपयोगी रोल है पहले कुछ महीनोमे| शिशुकी आँखें साधारणत: दूसरे महीनेसे फोकस होने लगती हैं| इस खिलोनेसे दृष्टी स्थिर होने में मदत होती है| बच्चा भी आँखें घुमाकर उस खिलोनेको आंखोंसे फॉलो करना सीखता है| ये एक महत्वपूर्ण स्टेप है|
६. डायपर- ये आजकल बहुत ही जरुरी हो गए हैं| अच्छे कंपनी के और सॉफ्ट तथा हलके डायपर इस्तेमाल करें| SKIN RASH पर हमेशा ध्यान दें|
अब इस स्टेज पर माँ के लिए क्या खरीदना है ये देखते हैं| डिलीवरी के बाद माँ का एक प्रमुख काम है शिशु को स्तनपान कराना| ये आसान हो इसलिए -
१. फीडिंग गाउन, फीडिंग टीशर्ट , फीडिंग ब्रा आदि चीजें ख़रीदना आवश्यक हैं|
२. फीडिंग पिलो- इस ख़ास पिलो पर शिशु को रखकर स्तनपान कराना आसान हो जाता है| माँ को झुकना नहीं पड़ता और फिर पीठ दर्द आदिकी परेशानी नहीं उठानी पड़ती|
३. सेनेटरी नैपकिन्स- डिलीवरी के बाद हॉस्पिटल में जो नैपकिन्स देते हैं, वो कई बार कम्फर्टेबल नहीं लगते| इसलिए आप हमेशा जो नैपकिन्स इस्तेमाल करते हो, उन्हीको बड़ी संख्यामे लाकर रखें|
जैसा पहले कहा है, कपडे, चप्पल आदि आरामदेह ही होने चाहिए|
यहाँ पर आपने एक बात नोटिस करी होगी की पहले स्टेज में माँ की खरीदारी ज्यादा है और दूसरी स्टेज में शिशु की| यही प्रकृति की खासियत है| नवनिर्माण की तैयारी भी जोरशोर से होती है और स्वागत भी बड़े आनंद के साथ किया जाता है|
इस लेख का मुख्य मक़सद यही है की नए नवेले माता-पिता ठीकसे प्लानिंग कर सके, उन्हें ऐन वक़्त पर भागदौड़ ना करनी पड़े| साथ ही, रिश्तेदार और मित्र परिवार भी ये तय कर सकते हैं की उपहार में क्या दें और क्या ��ा दें| मैंने लोगोंको नामकरण में या फिर पहले जन्मदिन पर तीन पहिया साइकिल देते हुए देखा है, जो फिर तीन साल तक वैसीही पड़ी रहती है| 'तीन पहिया तीसरे साल' ये तो बहुत आसान है याद रखने को, है ना?
आपके प्रतिसाद की अपेक्षा है|
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‘बेटी ही चाहिए’ या ‘बेटा ही चाहिए’!
इस वाक्य में जो 'ही' का इस्तेमाल हुआ है, वह बहुत दुखदायी है| इस 'ही' की वजह से कई सारी माताओंको निराशा झेलनी पड़ती है|
ये कहानी है सुधा की| उसे पहला बेटा है| वह डेलिवरी के लिए प्रसव पीड़ा और बेटी की आस साथ साथ ले आयी| सम्पूर्ण प्रसव काल में उसके मन में लड़की ही चाहिए ये बात पक्की थी| डिलीवरी के बाद लड़का हुआ है सुन कर वो रोने लगी| “डॉक्टर, नहीं नहीं, मुझे तो लड़की ही चाहिए| पहला बेटा है ना मेरे घरमे| अब मुझे दूसरा नहीं चाहिए| मैंने तो बेटी के स्वागत की पूरी तैयारी की है|” उसे समझाना बहुत मुश्किल हो गया|
दूसरे दिन जब मैं राउंड के लिए गयी, तो वह एकदम खोयी खोयी सी थी| नए शिशु के आनेका का कोई आनंद उसके चेहरे पर था ही नहीं| उस बेटे को मनसे एक्सेप्ट नहीं करने के कारन स्तनपान कराना भी उसे मुश्किल लग रहा था| उसका बड़ा बेटा भी "मुझे ये 'बेबी बॉय' नहीं चाहिए, 'बेबी गर्ल' ही चाहिए" की रट लगाकर उस नवजात शिशुको अपना माननेसे इन्कार कर रहा था| मैंने समझ लिया की अगर अभी इसका काउन्सेलिंग नहीं किया, तो वह 'प्रसूति पश्चात निराशा' की शिकार हो सकती है|
मैंने कहा, "बताओ सुधा, बेटी ही चाहिए ऐसा क्यों तय कर लिया तुमने?" वह बताने लगी, "डॉक्टर मैंने इंटरनेट पर 'बेटी कितनी जरुरी है, एक लड़की तो होनी ही चाहिए, उसे बढ़ते देखना बहुत आनंददायी होता है, उसीके साथ फिरसे सपने देख सकते है, वोही सही मायने में माँ बाप को प्यार देती है, बेटोँसे बढ़कर प्यार करती है, घरका रूप बदल देती है' ऐसी कई बातें पढ़ी हैं, वीडियोज देखे हैं| फिर मैंने अगर बेटी की इच्छा रखी, तो इसमें कुछ गलत तो नहीं है| मुझे दोनों बेटे नहीं चाहिए| एक बेटी चाहिए|"
सुधा जो कह रही थी, उसे झूठला नहीं सकते| आजकल बेटियोंकी गुणवर्णन वाली कई पोस्ट्स इंटरनेट पर देखनेको मिलती है| उसका ऐसा भी नतीजा देखनेको मिल गया| कई बार तो बेटा और बेटी में कम्पैरिजन करके बेटी ही ज्यादा प्यार देती है ऐसी बातें जताने का भी प्रयास इन पोस्टोंके माध्यमसे किया हुआ दिखाई देता है| 'आपके बेटी नहीं है?' ये प्रश्न बड़ी दुखभरी आवाज में पूछा जाता है|
आज ��ब हम कहते हैं की बेटा और बेटी एक���मान हैं, तब ऐसी तुलना ठीक नहीं|.
सुधा से बिलकुल विपरीत केस है सुनीता की| यह एक प्रशिक्षित नर्स है और एक बेटी की माँ| अब दूसरी संतान बेटा ही होगा ये इसने और ससुराल में सभीने जैसे तय ही कर लिया था| डिलीवरी के बाद वो मानने को राजी नहीं थी की उसके दूसरी बेटी हुई है| प्रसूति के बाद, "क्या हुआ है डॉक्टर? बेटा ही होगा| तभी तो प्रसव पीड़ा इतनी ज्यादा थी” यही उसका पहला प्रश्न था| बेटी हुई है बतानेपर वह जोर जोर से रोने लगी| बेटी की तरफ ध्यान न देना, समय से स्तनपान ना कराना, बिना वजह के रो पड़ना ऐसे ‘प्रसूति पश्चात निराशा’ के कई सारे लक्षण उसमे दिखाई देने लगे|
शादी के बाद कितने बच्चे होने चाहिए? बेसिकली संतान चाहिए भी या नहीं, ये सारी बहुतही पर्सनल बातें हैं| साधारणत: दो संतान हों, एक बेटी और एक बेटा हो जिसके चलते दोनों को बढ़ते देखने का आनंद मिले ये सोच भी सम्पूर्णतया स्वाभाविक है|
परन्तु एक ही बेटा या बेटी हो, अथवा दोनों बेटे या बेटियां होना याने आप कुछ खो रहे हो, गवां रहे हो ऐसा जताया जाता है| फिर सुधा या सुनीता जैसी लडकियां इस सोच की शिकार हो जाती हैं|
जरूरी नहीं की हर एक बेटी बेटेसे ज्यादा प्यार दें| बेटोंको भी माँ बाप से उतनीही अटैचमेंट होती है| (जिन्हे दोनों बेटे ही हैं, ऐसी माताएं अपने अनुभव अवश्य शेयर करें)
अपने समाज में पितृसत्ताक पद्धति होने के कारण बेटोंको बेटियोंसे ज���यादा अहमियत दी जाती है| इसके चलते हर कोई बेटा ही चाहता था| परिणाम स्वरुप बेटियोंकी संख्या घटती गयी| (आज महाराष्ट्र में यदि १००० लड़के हैं तो लडकियोंकी संख्या मात्र ८७५ है)| इसे ठीक करने के लिए 'बेटी बचाओ', 'कन्या सुरक्षा योजना' जैसी शासकीय योजनाएं, बेटियोंका महत्व जताने वाली कई सारी घोषणाएँ प्रचलन में हैं| इसका बहुत अच्छा परिणाम भी दिखाई दे रहा है| परन्तु अंतत: इसके परिणाम स्वरुप अपेक्षा है, की स्त्री और पुरुष एकसमान बनें, याने जेंडर एक्वालिटी समाज में स्थापित हो|
परन्तु, 'अति सर्वत्र वर्जयेत' ये बहुत पुराना मानना है| अलग अलग माध्यम से बेटा और बेटी की तुलना करना, और लडकियां ही बेहतर है ये हमेशा जताना इससे स्त्री पुरुष समानता भला कैसे साध्य होगी? किसी एक को दूसरे की तुलना में बेहतर दिखानेसे समानता नहीं आ सकती|
दूसरी ओर, 'कुछ भी हो, हमें लड़का ही चाहिए' ऐसा मानने वाला एक बड़ा वर्ग आजभी अपने समाज में है| उनकी सोच में लडकियां सदाहीं दूसरे स्थान पर हैं|
आज हम एक ऐसे मक़ाम पर हैं, जहाँ ‘बेटाही’ या ‘बेटीही’ ऐसा कहने से बेहतर है एक अच्छे संतान की अपेक्षा करना| फिर वो चाहे बेटी हो या बेटा| हमें दोनों मंजूर है| ये बेहतर सोच होगी| बेटा हो या बेटी, उनकी अपने माँ बाप से अटैचमेंट उनके संगोपन पर निर्भर करती है| वो बेटी है या बेटा, इसपर नहीं| जैसा शुरुवात में लिखा है, यह "ही" मनमे रखने से ना केवल गर्भवती स्त्री, बल्कि अन्य लोग भी इस सोच को सही मानने लगते है| जैसे सुधा का बड़ा बेटा, जो नवजात भाई को स्वीकारनेके लिए तैयार ही नहीं था|
सही वक्त पर ये लक्षण समझनेसे सभी संभव इलाज किये गए| परिणामस्वरूप, सुधा और सुनीता 'प्रसूति पश्चात निराशा' से बच निकली|
©डॉ अर्चना बेळवी
स्त्री रोग तज्ञ
पुणे.
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