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X_Loc221_Wrong सिर टॉम एंड जेरी – स्पाइक, टोडल्स गैलरी, टॉम, जेरी, उंगली फॉरवर्ड नर्सरी गानों की कव http://bit.ly/2GgfRpj
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बात 1969 की है। इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। उस समय कांग्रेस में कुछ बुजुर्ग नेताओं का सिंडिकेट हावी था। इंदिरा गांधी की भूमिका राम मनोहर लोहिया के शब्दों में 'गूंगी गुड़िया' से ज्यादा नहीं थी। पार्टी में उनको सुनने वाले बहुत कम थे।
इंदिरा चाहती थीं कि वीवी गिरि को राष्ट्रपति बनना चाहिए पर पार्टी में सक्रिय सिंडिकेट ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। तब इंदिरा गांधी ने बगावत कर दी और रेड्डी हार गए। मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री पद से हटाने के बाद से ही सिंडिकेट के नेता इंदिरा से नाराज थे। रेड्डी की हार ने उन्हें और परेशान कर दिया। उन्हें लगता था कि अगर प्रधानमंत्री ही पार्टी के नेता को सपोर्ट नहीं करेंगी तो कौन करेगा।
कांग्रेस के उस समय के अध्यक्ष एस निंजालिंगप्पा के खिलाफ सिग्नेचर कैम्पेन शुरू हो गया। इंदिरा भी अलग-अलग राज्यों में जाकर कांग्रेसियों को अपने पक्ष में लामबंद कर रही थीं। इंदिरा समर्थकों ने स्पेशल कांग्रेस सेशन बुलाने की मांग की ताकि नया प्रेसीडेंट चुना जा सके। गुस्से में निंजालिंगप्पा ने इंदिरा को ओपन लेटर लिखा और इंटरनल डेमोक्रेसी खत्म करने का आरोप लगाया। इंदिरा ने भी निंजालिंगप्पा की बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया।
1 नवंबर को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की दो जगहों पर मीटिंग हुईं। एक प्रधानमंत्री आवास में और दूसरी कांग्रेस के जंतर-मंतर रोड कार्यालय में। तब कांग्रेस कार्यालय में हुई मीटिंग में इंदिरा को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया गया और संसदीय दल से कहा गया कि वो अपना नया नेता चुन लें। इंदिरा ने फौरन दोनों संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की मीटिंग बुलाई, जिसमें कांग्रेस के 429 सांसदों में से 310 ने भाग लिया।
इंदिरा ने कांग्रेस के दो टुकड़े कर दिए। इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (R) और दूसरी पार्टी हो गई कांग्रेस (O)। तब इंदिरा ने सीपीआई और डीएमके की मदद से कांग्रेस (O) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया।
पहले ��ोलमेज सम्मेलन की शुरुआत
पहले गोलमेज सम्मेलन में शामिल हुए प्रतिनिधि।
भारत को आजादी भले ही 1947 में मिली हो, उस समय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रही कांग्रेस कार्यसमिति ने फरवरी 1930 में ही पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फैसला कर लिया था। जब दांडी मार्च के बाद महात्मा गांधी ने नमक कानून तोड़ा तो ब्रिटिश सरकार सक्रिय हुई और उसने भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस या गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए।
इन गोलमेज सम्मेलनों की शुरुआत 12 नवंबर 1930 को हुई और लंदन में यह बातचीत 19 जनवरी 1931 तक चली। इसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की थी, जिसमें 89 प्रतिनिधि शामिल हुए थे। यह पहली ऐसी बातचीत थी, जिसमें ब्रिटिश शासकों ने कथित तौर पर भारतीयों को समानता का दर्जा दिया था। कांग्रेस के प्रमुख नेता उस समय जेल में थे और महात्मा गांधी के साथ-साथ जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्मेलन का बहिष्कार करने की घोषणा की थी।
भारत और दुनिया में 12 नवंबर की महत्वपूर्ण घटनाएं इस प्रकार हैं:
1781: अंग्रेजों ने नागापट्टनम पर कब्जा किया।
1847ः ब्रिटेन के डॉक्टर सर जेम्स यंग सिम्पसन ने बेहोशी की दवा के रूप में पहली बार क्लोरोफार्म का इस्तेमाल किया।
1861: महान स्वतंत्रता सेनानी और बड़े समाज सुधारक मदनमोहन मालवीय का निधन।
1925ः अमेरिका और इटली ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए।
1936ः केरल के मंदिर सभी हिंदुओं के लिए खुले।
1956ः मोरक्को, सूडान और ट्यूनीशिया संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुए।
1995ः नाइजीरिया राष्ट्रमंडल की सदस्यता से निलंबित हुआ।
2002ः संयुक्त राष्ट्र ने स्विटजरलैंड के संघीय ढांचे के आधार पर साइप्रस के लिए एक नई शांति योजना तैयार की।
2009ः भारत में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अतुल्य भारत अभियान को वर्ल्ड ट्रेवल अवॉर्ड-2009 से नवाजा गया।
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Today History for November 12th/ What Happened Today | Congress Expelled Indira Gandhi From Party | Indira Gandhi Congress Latest News| First Roundtable Conference Started In London
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राजस्थान के दुर्गाराम चौधरी महज 12 साल की उम्र में घर में किसी को बिना बताए ट्रेन में बैठ गए थे। कहां जाना है, क्या करना है, कहां रहना है, ये कुछ नहीं जानते थे। बस मन में यही था कि कुछ करना है। 150 रुपए लेकर घर से निकले थे। आज दो कंपनियों के मालिक हैं, जिनका टर्नओवर 40 करोड़ रुपए से ज्यादा है। उन्होंने खुद बताई शून्य से 40 करोड़ रुपए तक के टर्नओवर तक पहुंचने की कहानी।
6-7 महीने तो फुटपाथ पर ही गुजरे
मेरे मां-बाप दोनों ही किसानी करते थे। बचपन में ही सोच लिया था कि कुछ करना है। राजस्थान से अधिकतर लोग बिजनेस के लिए साउथ जाया करते थे। उन लोगों को देखकर एक दिन घर ��ें बिना किसी को बताए मैं भी अहमदाबाद जा रही ट्रेन में बैठ गया। जेब में 150 रुपए थे। ट्रेन में ही कुछ लोग मुंबई जाने की बात कर रहे थे, उनकी बात सुनकर मैं भी मुंबई चला गया। 40 रुपए किराये में चले गए, जब मुंबई पहुंचा तब 110 रुपए पास में थे।
कभी फुटपाथ पर रहने वाले दुर्गाराम आज दो कंपनियों के मालिक हैं। जब 21 साल के थे, तब उन्हें काम का करीब 10 साल का अनुभव हो चुका था।
वो बताते हैं- मुंबई में शुरूआती 6-7 महीने फुटपाथ पर ही निकले। सीपी टैंक में एक मंदिर था, वहां जो प्रसाद बंटता था, उसी से मैं पेट भरता था। मंदिर के नजदीक आर्य समाज का हॉल था, जहां शादियां होती थीं। वहां वेटर का काम शुरू कर दिया। एक शादी में काम करने के 15 रुपए मिलते थे। कई दिनों तक ये सिलसिला चलते रहा। आर्य समाज हॉल के पास ही एक दुकानदार थे। उन्होंने मेरी छोटी उम्र देखकर मुझे एक घर में हाउस बॉय का काम दिलवा दिया। ढाई साल वहां काम किया। खाना बनाना और घर संभालना सीख गया। फिर वहीं से एक डॉक्टर के घर यही काम करने लगा।
"मन में हमेशा चलता था कि गांव में सबको पता चलेगा कि मुंबई आकर खाना बनाता हूं तो कोई इज्जत नहीं करेगा इसलिए खाना तो नहीं बनाना है। खाना बनाना छोड़कर एक इलेक्ट्रिशियन की दुकान पर काम करने लगा। मकसद था काम सीखना। लेकिन दो महीने बाद वो दुकान बंद हो गई। जिस बिल्डिंग में वो दुकान थीं, वहां उस समय वीनस कंपनी के मालिक गणेश जैन रहा करते थे। वो राजस्थान से ही थे। मैडम से थोड़ी जान-पहचान हो गई थी तो उन्होंने अपने घर पर काम पर रख लिया। फिर वहां खाना बनाने लगा। एक दिन उन्हें मैंने कहा कि सर मैं ये खाना बनाने का काम नहीं करना चाहता। मैं कुछ सीखना चाहता हूं। तो उन्होंने मुझे अपनी कंपनी में कैसेट पैकिंग का काम दे दिया और कहा कि वहां मेरे लिए खाना भी बनाना और काम भी सीखना। ��ेढ़ साल तक वहीं काम करते रहा। कुछ पैसे जोड़ लिए थे तो नया काम ढूंढ़ने का सोचकर 1996 में वो काम छोड़ दिया।"
मां फैक्ट्री सुपरवाइजर थीं, बेटा पर्चे बांटता, फिर खड़ी की 20 लाख टर्नओवर की कंपनी
टी-सीरीज में सीखा कैसेट का मार्केट
दुर्गाराम ने बताया- वीनस में काम करने वाली एक मैडम टी-सीरीज में काम करने लगीं थीं। उनके रेफरेंस से मुझे भी टी-सीरीज में काम मिल गया। वहां मुझे कैसेट का मार्केट पता चला। काम कैसे होता है, ये देखा। नौकरी करते हुए ही ख्याल आया कि जॉब के साथ ही मैं खुद भी मार्केट से कैसेट खरीदकर बेच बाहर बेच सकता हूं। मैंने नौकरी के बाद वाले टाइम में कैसेट बेचना शुरू कर दीं। हर रोज मार्केट जाता। 10-12 कैसेट खरीदता और उन्हें फुटपाथ किनारे बेचा करता था। ये नौकरी के साथ चल रहा था। एक कैसेट पर दस से पंद्रह रुपए तक का कमीशन मिल जाता था।
बहुत से अवॉर्ड भी उन्हें मिल चुके हैं। कहते हैं, टाइम के साथ हम अपनी स्ट्रेटजी लगातार बदल रहे हैं।
उन्होंने कहा, "इस तरह रोज के डेढ़-दो सौ रुपए सैलरी के अलावा मिलने लगे। कुछ महीने बाद एक छोटी सी दुकान भी किराये पर ले ली। फिर वहां से कैसेट बेचने लगा। घर से निकलने के 9 साल बाद 2000 में घरवालों से बात हुई और उन्हें बताया कि मैं मुंबई में हूं और नौकरी कर रहा हूं। 2002 में मैंने टी-सीरीज छोड़ दी, क्योंकि उसी समय रिलायंस कम्युनिकेशन शुरू हो रहा था। उन्हें ऐसे बंदे चाहिए थे, जो इंडस्ट्री की समझ रखते हों, प्रोड्यूसर के साथ कोआर्डिनेट कर सकें। टी-सीरीज में काम करते-करते मेरे काफी प्रोड्यूसर, एक्टर-एक्ट्रेस से रिलेशन बन गए थे। सभी के ऑफिस में जाना होता था। इसलिए मुझे रिलायंस में काम मिल गया। रिलायंस की नौकरी के साथ ही 2004 तक मेरी दो कैसेट की दुकानें हो चुकी थीं।"
"2005 में रिंगटोन और कॉलर ट्यून का ट्रेंड आया। एक गाना लाखों में डाउनलोड होता था, लेकिन सभी गाने बॉलीवुड के होते थे। मैं गुजराती, राजस्थानी, भोजपुरी गानों की कैसेट सालों से बेच रहा था और मैंने देखा कि इनकी कैसेट बॉलीवुड के गानों से भी ज्यादा बिकती हैं। दिमाग में आया कि जब बॉलीवुड के गाने इतने ज्यादा डाउनलोड हो रहे हैं तो रीजनल के कितने होंगे। जिन लोगों से कैसेट लेता था, उन्हें बोलना शुरू किया कि आप मुझे गाने दो, मैं इन्हें डिजीटल में कन्वर्ट करवाऊंगा। ये गाने फोन पर प्ले होंगे। कई दिनों तक किसी ने रिस्पॉन्स नहीं दिया।"
कंपनी को ढूंढ़ते हुए मेहसाणा तक पहुंच गए
वो बताते हैं कि 2006 में एक गुजराती गाना आया, जो काफी हिट हो रहा था। मैं उसे तैयार करने वाली कंपनी को ढूंढ़ते हुए मेहसाणा तक पहुंच गया। उन्हें समझाया कि इस गाने के राइट्स आप मुझे दो। हम इसे डिजिटल में ले जाएंगे। फायदा हो या न हो, लेकिन नुकसान कुछ नहीं होगा। वो तैयार हो गए। अब दिक्कत ये थी कि मैं नौकरी कर रहा था, इसलिए उनसे एग्रीमेंट नहीं कर सकता था। मैंने हंगामा कंपनी में बात की। वहां मेरे कुछ दोस्त थे। उनके जरिए गुजरात की कंपनी से एग्रीमेंट किया। वो लोग भी रीजनल गाना अपलोड करने के लिए तैयार नहीं थे, मेरी काफी रिक्वेस्ट के बाद माने। डेढ़ साल में ही उस गाने को 3 लाख 75 हजार बार डाउनलोड किया गया। इस डील में मैंने 20 लाख रुपए रॉयल्टी कमाई। 20 लाख रुपए गुजरात की कंपनी को दिलवाए और 30 परसेंट कमीशन हंगामा कंपनी को मिला।"
दुर्गाराम की कंपनी में आज 65 लोग काम करते हैं। 2012 में उन्होंने खुद की कंपनी शुरू की थी।
दुर्गाराम कहते हैं- बस इसके बाद हंगामा ने मेरा सारा कंटेंट ��पलोड करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे नौकरी भी ऑफर कर दी। मैंने कहा कि नौकरी इसी शर्त पर करूंगा कि राजस्थान, गुजरात का जो मेरा काम है, वो मेरे पास ही रहेगा। वो मान गए। जो भी गाना हिट होता था, मैं उस कंपनी तक पहुंचता था। उससे बात करके गाने को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाता था। ये सब करते-करते 2012 आ गया। यूट्यूब का जमाना आ चुका था। हंगामा वाले यूट्यूब पर जाने के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे तो मैंने नौकरी छोड़ दी और खुद की कंपनी शुरू की।
"फिर जीरो से शुरूआत करना पड़ी, क्योंकि रीजनल के मेरे जितने भी पार्टनर थे, उन सभी को हंगामा के साथ जोड़ चुका था। फिर उन कंपनी के मालिकों से मिला। उन्हें समझाया कि मैंने अपनी कंपनी शुरू की है। आप अपना कंटेंट दीजिए, हम यूट्यूब पर लाएंगे। सभी ने मुझे सपोर्ट किया। रीजनल कंटेंट तेजी से हम यूट्यूब पर लाए। राजस्थान की कई छोटी कंपनियों को हमने एक्वायर कर लिया। कोलकाता, असम, उड़ीसा भी पहुंचे। वहां के रीजनल गानों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाए। 2017 में एनिमेशन फर्म भी इस काम के साथ शुरू कर दी। आज मेरे पास 65 एम्पलाई हैं और दोनों कंपनियों का मिलाकर टर्नओवर 40 करोड़ से ज्यादा है।"
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दुर्गाराम के माता-पिता किसानी करते थे, लेकिन दुर्गाराम ने सोच रखा था कि कुछ करना है।
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क्या हो रहा है वायरल: सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रही है। फोटो में हाथ में बैनर लिए तीन लोग शरणार्थियों का स्वागत करते दिख रहे हैं।
दावा किया जा रहा है कि फोटो में दो महिलाओं के बीच खड़ा शख्स वही टीचर है, जिसे बीते दिनों पेरिस में हज़रत मोहम्मद का कार्टून दिखाने की वजह से कट्टरपंथियों ने बेरहमी से मार दिया था।
फोटो के साथ मैसेज शेयर करते हुए सोशल मीडिया पर शरणार्थियों का समर्थन करने वालों का ऐसा ही अंजाम होने की नसीहतें दी जा रही हैं। भारतीय सेना के पूर्व अधिकारी और भाजपा प्रवक्ता मेजर सुरेंद्र पुनिया ने फोटो इसी दावे के साथ शेयर किया।
फ़ोटो में जो बीच में खड़ा है वो वही टीचर है जिसका एक जिहादी ने पेरिस में सर काट दिया था...कुछ साल पहले वो फ़्रांस में आने वाले Refugees का स्वागत कर रहा था पर उसे क्या पता था कि वो refugee उसी का गला काट देंगे ये उन लिबरांडुओं के लिये है जो भारत में रोहिंग्या को बसाना चाहते हैं pic.twitter.com/u10T8CmOPo
— Major Surendra Poonia (@MajorPoonia) October 22, 2020
और सच क्या है?
मेजर सुरेंद्र पूनिया ने फोटो को कुछ साल पहले का बताया है। ट्वीट में लिखा है- कुछ साल पहले वो फ्रांस में आने वाले Refugees का स्वागत कर रहा था । जबकि वायरल हो रही फोटो में तीनों लोग मास्क लगाए हुए हैं, जिससे स्पष्ट हो रहा है कि फोटो कुछ साल पहले की नहीं कोरोना काल की ही है।
फोटो को गूगल पर रिवर्स सर्च करने से हमें 17 अक्टूबर को Good Chance नाम के ग्रुप के ट्विटर हैंडल से किया गया एक ट्वीट मिला। जिसमें लिखा है- आज गुड चांस टीम ने फोकस्टोन में शरणार्थियों का स्वागत किया। इस ट्वीट से हमें एक क्लू मिला कि फोटो फ्रांस की बजाए इंग्लैंड के फोकस्टोन की हो सकती है।
Today the Good Chance team are in Folkestone to #WelcomeRefugees. The people of Kent are out in force at the Napier Barracks to let people know that they are WELCOME @_KRAN_ pic.twitter.com/Q9EbiR2YNQ
— Good Chance (@GoodChanceCal) October 17, 2020
Google पर Folkestone refugee welcome की वर्ड लिखकर सर्च करने से द गार्जियन वेबसाइट की एक खबर हमारे सामने आई। खबर के अनुसार, 17 अक्टूबर को इंग्लैंड के फोकस्टोन में लगभग 200 लोगों ने शरणार्थियों के लिए स्वागत समारोह आयोजित किया था। फोटो इसी समारोह की है।
पैगम्बर का कार्टून दिखाने पर मारे गए शिक्षक सैमुअल पेटी की असली फोटो का वायरल फोटो में खड़े शख्स की शक्ल से हमने मिलान किया। स्पष्ट हो रहा है कि दोनों अलग-अलग हैं।
बीबीसी की खबर के अनुसार, सैमुअल पेटी की हत्या शुक्रवार ( 16 अक्टूबर) शाम 5 बजे हुई थी। दूसरी तरफ पड़ताल में हम पहले ही पता लगा चुके हैं कि शरणार्थियों के समर्थन में इंग्लैंड में 17 अक्टूबर को आयोजन हुआ था। यानी फोटो में दो लड़कियों के बीच खड़े शख्स की फोटो हत्या के एक दिन बाद की है।
शरणार्थियों के समर्थन में हुए जिस समारोह की फोटो वायरल हो रही है, वो इंग्लैंड में हुआ था। और टीचर का सिर काटे जाने की घटना पेरिस में हुई। गूगल मैप के अनुसार, इन जगहों की दूरी लगभग 405 किलोमीटर है। मेजर सुरेंद्र पुनिया का ये दावा फेक है कि सैमुअल पेटी फ्रांस आने वाले शरणार्थियों का समर्थन कर रहे थे।
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Fact Check: Teacher brutally killed by the cartels for showing a cartoon of Hazrat Muhammad, was he agitating in support of the refugees? BJP spokesperson Major Surendra Punia shared a photo with a false claim.
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‘अरे सर आप नहीं जानते हम लोगों को...हम लोग ...से हैं। आप जानवे करते हैं कि ई किसका संगठन है। हम लोगों का सीट चला गया जदयू को, लेकिन वोट तो उसको नहिए न देंगे।’ ये लाइन सुनकर और इसे पढ़कर कोई भी चौंक जाएगा। चौंक तो हम भी गए थे, जब ये लाइन हमें सुनाई दी।
अब आप पूछिएगा कि क्यों? ...तो जवाब भी जान लीजिए। ये लाइन कहने वाले लड़के उस पार्टी के छात्र संगठन के कार्यकर्ता हैं, जो एनडीए में नीतीश कुमार की जदयू के साथ गठबंधन और ��िहार की सरकार में भागीदार है। इस छात्र संगठन का नाम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) है और ये भारतीय जनता पार्टी का छात्र संगठन है।
बात चंद रोज पहले की है। हम वैशाली जिले के जंदाहा इलाके में थे। बाजार से करीब तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर मुनेश्वर सिंह मुनेश्वरी समता कॉलेज है। हम इसी कॉलेज में थे। हमें वहां के प्रिंसिपल की तलाश थी। कैंपस के अंदर वाली बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर दाहिनी तरफ कुछ बेंच लगी हुई थीं। तीन लड़के सामने से और कुछ दो-तीन लड़के दाएं-बाएं बैठे हुए थे। इनसे कॉलेज के प्रिंसिपल के बारे में पूछा तो पता चला, छुट्टी है, वो नहीं आए हैं। दूसरे स्टाफ के बारे में बताया और नई बिल्डिंग में उनसे मिलवाने के लिए सब साथ चल पड़े। ये सभी ग्रेजुएशन के छात्र थे। उस दिन फॉर्म भरने आए थे। जैसे-जैसे कदम बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे हम उनकी गति पकड़ती बातें सुन रहे थे।
मैंने इन सभी से सीधा सवाल किया- इस इलाके में चुनाव की क्या तैयारी है? जवाब थोड़ा आश्चर्य में डालने वाला था। लड़कों के इस ग्रुप को लीड करने वाले शख्स ने कहा...अरे सर आप नहीं जानते हम लोगों को... हम लोग ABVP से हैं। सीट चला गया जदयू को, लेकिन वोट तो उसके नहिए देंगे। हम लोग अपनी पार्टी और कंडीडेट के लिए काम करते रहे इतने दिन। आपको पते है कि जंदाहा महनार विधानसभा में आता है। चाहते थे कि ई सीट भाजपा के पास आ जाए। लेकिन, ई नीतीशे कुमार जो है न...उ दिया ही नहीं। अपने पासे रख लिया। अब उनका जो विधायक है... उ ई इलाका में कोई काम किया है क्या? आप खुदै चल के देख लें, पता कर लें। सब दिखावा चल रहा है। त हमहूं लोग दिखावा में साथे हैं। बाकी तो उसको ई सीट से हरवैवे करेंगे। हम लोग तो वोट देवे नहीं करेंगे और सभे के जदयू को वोट देवे से मना भी करेंगे। साफ बात।
अब है तो ये हैरान कर देने वाली ही बात। चंद कदम की दूरी तय करने में ही इतनी बड़ी बात सामने आ गई। खैर इस बातचीत के सहारे चुनाव की कहानी बुनते हुए हम आगे बढ़ गए ... लेकिन हमारे मन में उन लड़कों की बात कौंधती रही। इसकी वजह भी थी। ये लड़के जो भी बात कह रहे थे, वो बगैर किसी डर के और बेफिक्र हो कर कह रहे थे। उन्हें किसी बात की चिंता नहीं थी। कौन क्या सोचेगा और क्या कहेगा? सारी चिंताओं से एकदम बेफिक्र। भले ही इन लड़कों की उम्र कम हो, अभी पढ़ाई कर रहे हों, लेकिन इनकी बातें काफी बड़ी और गंभीर थीं। जो सोचने पर हर किसी ��ो मजबूर कर दें। इनकी बातें इसलिए भी गौर करने वाली हैं कि इस वक्त बिहार में जहां-तहां यही नजारा दिख रहा है। इसी इलाके में कई जगह ऐसी ही बेलाग बातें सुनने में आईं।
हमारी गाड़ी का ड्राइवर भी इस माहौल में कहां चुप रहने वाला था। बोला, सर खाली यहीं नहीं बहुते जगह यही हाल है। ई सब पार्टी वाला मिलके इस बार जो खिचड़ी पकाया है, जनता भी इसका जवाब वैसा ही देगी। ‘गठबंधन धर्म’ के इसी किंतु-परंतु के साथ कुछ नए सवाल लिए हम अपने अगले पड़ाव की ओर निकल पड़े।
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Nitish Kumar (Bihar) Election 2020 | Vaishali Jandaha Locals Voters Political Debate On Nitish Kumar and His JDU Party
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'मैं दिनभर दिहाड़ी करके दो सौ रुपए कमा पाता हूं। उसमें भी काम कभी मिलता है तो कभी नहीं मिलता। अभी सोयाबीन का काम चल रहा है, इसलिए दिहाड़ी मिल रही है। महीने का पांच-छ हजार रुपए बमुश्किल कमा पाता हूं। अब इसमें परिवार का पेट भरूं कि बच्चे को स्मार्टफोन दिलवाऊं'। यह पीड़ा है मप्र के धार जिले के चंदोदिया गांव में रहने वाले सोहन मुनिया की। जब हम उनसे बात कर रहे थे, तब वो खेत में ही काम कर रहे थे। सुबह 9 बजे दिहाड़ी के लिए निकल जाते हैं। शाम 7 बजे तक घर पहुंचते हैं। आपके घर में स्मार्टफोन नहीं है तो बच्चा पढ़ाई कैसे कर रहा है? ये पूछने पर बोले, किताबें हैं, उससे वो खुद ही पढ़ता रहता है। बीच-बीच में गांव में सर लोग आते हैं, वो बच्च��ं को कहीं इकट्ठा करके ��ढ़ाते हैं। अब स्मार्टफोन तो गांव में गिने-चुने बच्चों के पास ही है। इसलिए ऑनलाइन तो कोई पढ़ नहीं पा रहा।
यह सिर्फ एक बानगी है। लॉकडाउन के बाद से ऑनलाइन पढ़ाई तो करवाई जा रही है लेकिन गरीबों के बच्चों को यह भी हासिल नहीं हो पा रही और यह हालात सिर्फ गांव में ही नहीं हैं बल्कि मुंबई जैसे शहर में भी हैं। रेंसी लियोन 7वीं क्लास की स्टूडेंट हैं। वो धारावी में रहती हैं। वही धारावी जो एशिया की सबसे बड़ा स्लम कही जाती है। रेंसी को एक ट्रस्ट के जरिए वडाला के औक्सिलियम कॉन्वेंट हाईस्कूल में एडमिशन मिल गया था, लेकिन जब से ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई है, तब से उन्हें पढ़ाई में भयंकर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनके पास स्मार्टफोन नहीं है।
धारावी में इस कमरे में रहती हैं रेंसी। उनकी मां कहती हैं, अभी तो किराया भी नहीं दे पा रहे, ऐसे में स्मार्टफोन कैसे खरीदें।
रेंसी अपनी मां महिमा के साथ रहती हैं। लॉकडाउन के पहले तक महिमा साफ-सफाई का काम करने इधर-उधर जाया करती थीं। इसी से होने वाली कमाई से वो किराया भरती थीं और अपनी बच्ची की परवरिश कर रहीं थीं, लेकिन लॉकडाउन के बाद से उनका काम छिन गया तो कमाई बंद हो गई। महिमा तो अभी अपने घर का किराया ही नहीं दे पा रहीं। कहती हैं, लोग जो राशन बांटते हैं उससे महीनेभर खाते हैं, अब बेटी को स्मार्टफोन कैसे दिलवाऊं? फिर रेंसी पढ़ाई कैसे कर रही है? इस पर रेंसी ने बताया कि, वो अपनी एक फ्रेंड के घर जाती है पढ़ने। उसके पास स्मार्टफोन है। वॉट्सऐप ग्रुप में जो कंटेंट आता है, वो नोट कर लेती है। सुबह साढ़े सात बजे से दोपहर बारह बजे तक दोस्त के घर ही रहती है। रेंसी और अनिल की ही तरह बीजलपुर की शर्मीली भी स्मार्टफोन न होने के चलते पढ़ाई नहीं कर पा रही। शर्मीली के पिता भंवर सिंह कहते हैं, हमारे गांव में जो स्कूल है, उसके टीचर आते रहते हैं, वो बच्चों को दूर-दूर बैठाकर प��़ाते हैं। गांव में बहुत कम बच्चों के पास स्मार्टफोन है इसलिए उससे तो कम ही पढ़ाई कर पा रहे हैं।
एनसीईआरटी के सर्वे में भी यह सामने आ चुका है कि 27 फीसदी बच्चों के पास न स्मार्टफोन है और न ही लैपटॉप।
धार के सहायक परियोजना समन्वयक कमल सिंह ठाकुर ने कहा, भोपाल से रोज ऑनलाइन पढ़ाई का कंटेंट वॉट्सऐप ग्रुप में आता है। इसे ही शिक्षकों के जरिए बच्चों तक सर्कुलेट किया जाता है लेकिन ये सच है कि गांव में अधिकांश बच्चों के पास स्मार्टफोन ही नहीं है, ऐसे में वो इसका फायदा नहीं उठा पा रहे। हालांकि हमारा स्टाफ एक-एक, दो-दो दिन में गांव में पहुंचकर बच्चों की पढ़ाई में मदद कर रहा है। कई बार किसी बच्चे के पास फोन होता है तो उसे कहते हैं कि ग्रुप में चार-पांच बच्चे एकसाथ पढ़ लो, ताकि सभी को स्टडी मटेरियल मिल जाए।
एनसीईआरटी के सर्वे ने कहा, 27 फीसदी के पास स्मार्टफोन नहीं...
31 फीसदी बच्चों ने कहा कि, वे ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान फोकस नहीं कर पाते।
बच्चों के पास स्मार्टफोन न होने की पुष्टि एनसीईआरटी का सर्वे भी करता है। इसके मुताबिक, करीब 27 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिनके पास न स्मार्टफोन है, न लैपटॉप। वहीं 28 फीसदी स्टूडेंट्स और पेरेंट्स ने बिजली को ऑनलाइन पढ़ाई में सबसे बड़ी बाधा बताया। इस सर्वे में 34 हजार लोग शामिल थे। जिनमें पैरेंट्स, टीचर्स और प्रिंसिपल की ��ाय भी ली गई थी। वहीं चाइल्ड राइट्स के लिए काम करने वाले एनजीओ स्माइल फाउंडेशन ने 42, 831 स्टूडेंट्स के बीच सर्वे करवाया था, इसमें पता चला था कि 56 परसेंट बच्चों के पास पढ़ने के लिए स्मार्टफोन नहीं है।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, देश में 35 करोड़ से ज्यादा स्टूडेंट्स हैं, लेकिन इनमें से कितनों के पास डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट की सुविधा है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। यह सर्वे 23 राज्यों में 16 से 18 अप्रैल के बीच किया गया था। रिपोर्ट्स के मुताबिक, दिल्ली में ही करीब 16 लाख स्टूडेंट्स ऐसे हैं, जिनके पास पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन या इंटरनेट की सुविधा नहीं।
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धारावी में रहने वाली रेंसी कहती हैं अभी वो अपनी दोस्त के साथ उसके स्मार्टफोन से पढ़ाई करती हैं। मेरे पास भी स्मार्टफोन है, लेकिन वो खराब है और रिपेयर करवाने के पैसे नहीं हैं।
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पहाड़ शहरों के नहीं हो सकते तो क्या हुआ, शहर वाले तो पहाड़ों के हो सकते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी इन दिनों लिखने में मशगूल हैं ऐसे प्रोफेशनल्स जो लॉकडाउन में अपने फ्लैटों में सिमटकर रह गए थे। इनमें आईटी पेशेवर, लेखक, कंटेंट क्रिएटर, ग्राफिक डिजाइनर, फोटोग्राफर, व्लॉगर, ब्लॉगर, रिमोट वर्कर, फ्रीलांसर शामिल हैं।
ये वो लोग हैं जो शहरों में कंक्रीट के मायाजाल से मुक्त होने की अपनी बेताबी के संग पिछले छह सात महीनों से जीते-जीते आजिज आ चुके थे। और अब अनलॉक होते ही अपने वर्क स्टेशनों को कहीं दूर किसी हिल स्टेशन प��, किसी पहाड़ की ओट में, वादियों में, नदी या समुद्रतट पर ले जाने को आतुर हैं।
लॉकडाउन से उपजी इस छटपटाहट में बिजनेस के मौके सूंघने वाले भी कम नहीं हैं। देश जब घरबंदी से बाहर निकलने की उल्टी गिनती गिन रहा था तो ट्रैवल की दुनिया 'वर्केशन' की ज़मीन तैयार कर रही थी। देखते ही देखते हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में कितने ही होम स्टे, कॉटेज-होटल मालिकों ने मिलकर इस सपने को साकार कर दिखाया।
ऐसे प्रोफेशनल्स जो लॉकडाउन में अपने फ्लैटों में सिमटकर रह गए थे। अब वे हिल स्टेशन जा रहे हैं। फोटो क्रेडिट- नॉट ऑन मैप।
''मैंने अपने परिवार संग इस साल गर्मियों में हिल स्टेशन पर बिताने का मन बनाया था। उत्तराखंड के हिल स्टेशन रानीखेत से सटे गांव मजखाली में एक सर्विस अपार्टमेंट करीब ₹30 हजार में बुक करने ही वाले थे कि लॉकडाउन लग गया।
अब अनलॉक के बाद हमने सोचा कि महीने भर के लिए न सही, कुछ दिनों के लिए चला जाए तो पता चला कि वहां कितने ही विला और कॉटेज सितंबर में ही ‘सोल्ड आउट’ की तख्ती टांग चुके हैं। जिस अपार्टमेंट में हम जाने वाले थे, उसे लॉन्ग टर्म होमस्टे का रूप देकर मालिक ने किराया बढ़ाकर करीब ₹90 हजार कर दिया है।''
यह कहना है नोएडा की एक प्राइवेट फर्म में फाइनेंस मैनेजर आशीष जोशी का। उत्तराखंड सरकार के साथ जहां लगभग 1200 होमस्टे रजिस्टर्ड हैं (2019 तक) और इनमें कुल-मिलाकर साढ़े पांच हजार बेडों की सुविधा उपलब्ध है। अनलॉक के बाद की फिज़ा के हिसाब से खुद को तैयार करने के लिए ये अपनी कमर कसने में लग चुके हैं।
उत्तराखंड और हिमाचल में करीब 110 होमस्टे होमस्टेज़ ऑफ इंडिया से जुड़े हैं और इसकी को-फाउंडर शैलज़ा सूद दासगुप्ता ने पिछले दो महीनों के दौरान लगभग दो दर्जन लॉन्ग स्टे बुकिंग की हैं। शैलज़ा ने बताया, ''आमतौर पर यंग कपल्स या यार-दोस्त मिलकर लंबे समय की बुकिंग कर रहे हैं। गुड़गांववासी जितेंद्र हाल में चंबा में एक महीना बिताकर लौटा है और उसे ₹45 हजार में महीने भर का वर्केशन का यह ऑप्शन बहुत पसंद आया है।''
लॉकडाउन ने ज़मानेभर के दफ्तरों और उनके खूंटे से बंधे कर्मचारियों को यह समझाने में ज्यादा वक़्त नहीं लगाया कि भरोसेमंद बिजली सप्लाई और हाइ स्पीड इंटरनेट का सहारा हो तो कहीं से भी काम किया जा सकता है। इस बीच, होमस्टे मालिकों ने अपनी रणनीति बदली और कभी ट्रैवलर्स को लुभाने के लिए जो ‘डिस्कनेक्ट’ और ‘डिजिटल डिटॉक्स’ का मंत्र सौंपा करते थे वहीं बदले हालातों में, कामकाजी पेशेवरों की जरूरतों को देखते हुए इंटरनेट सुविधा से उन्हें लुभा रहे हैं। यहां तक कि जिन जगहों पर हाइ स्पीड वाइ-फाइ मुमकिन नहीं है वहां वैकेशनर्स के लिए डॉन्गल्स मुहैया कराए जा रहे हैं।
कहां जा रहे हैं टूरिस्ट लंबे स्टे के लिए
देवभूमि उत्तराखंड में जिलिंग, पंगोट, मुक्तेश्वर, मजखाली, नैनीताल के आसपास, भीमताल, बिनसर, नौकुचियाताल, सातताल, शीतलाखेत टूरिस्टों को लुभा रहे हैं। इनका बड़े शहरों से सात से आठ घंटे की ड्राइविंग दूरी पर होना एक बड़ी वजह हो सकती है। शहरों से दूर होने के बावजूद इन जगहों पर आधुनिक जीवनशैली के मुताबिक सुविधाओं की कमी नहीं है। आधुनिक कैफे, लाइब्रेरी, हाइकिंग और ट्रैकिंग ट्रेल्स आसपास हों तो सोने पे सुहागा।
उत्तराखंड में जिलिंग, पंगोट, मुक्तेश्वर, मजखाली, नैनीताल के आसपास, भीमताल, बिनसर, नौकुचियाताल, सातताल, शीतलाखेत टूरिस्टों को लुभा रहे हैं।
उधर, हिमाचल ने हाल में जबसे टूरिस्टों पर से सारी पाबंदियां हटायी हैं तो चंबा, पालमपुर, धर्मसाला, कसोल, शिमला, मनाली, तीर्थन जैसे ठिकानों पर चहल-पहल बढ़ी है। इको-टूरिज़्म की पैरवी करने वाली ट्रैवल कंपनी ‘इकोप्लोर’ की संस्थापक प्रेरणा प्रसाद भी मानती हैं कि ट्रैवल की दुनिया के फिर खुलने के बाद से ही लंबे समय के लिए ‘अवे फ्रॉम होम’ वर्क स्टेशनों के तौर पर मुफीद होमस्टे तेजी से लोकप्रिय हुए हैं।
लेकिन, इतने लंबे समय तक घर जैसी सुख-सुविधाएं किराए पर लेने का खर्च कम नहीं होता। अक्सर बजट एकोमोडेशन में यह खर्च बीस-तीस हज़ार रु होता है तो कोई भी डिसेंट स्टे महीने भर के लिए 80-90 हज़ार रुपए से कम में नहीं मिलता। इस खर्च में रहना, खाना-पीना और घर जैसे रहन-सहन की सुविधाएं शामिल होती हैं।''
वर्केशन हो या वैलनेस की ख्वाहिश, घर के काम की माथापच्ची से रिहाई और बीते आठ महीनों से वैकेशन से महरूम जिंदगी को वापस ढर्रे पर लाने की चाहत ने कितने ही पेशेवरों को पहाड़ों की गोद में अस्थायी ‘घर’ बसा लेने को प्रेरित किया है।
अलका कौशिक, हिंदी की मशहूर ट्रैवल राइटर हैं।
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फोटो क्रेडिट - नॉट ऑन मैप।
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बीती रात पीड़िता के भाई ने पुलिस से छिपकर हमें कॉल किया। उनकी आवाज दबी हुई थी। मानो वह कुछ कहना तो चाह रहे हों, लेकिन कह नहीं पा रहे हों। अचानक फोन कट गया। कुछ देर बाद हमने फिर से दूसरे नंबर पर कॉल किया तो बोले, 'हमारा परिवार नजरबंद है। हम घर से नहीं निकल सकते। बाथरूम तक नहीं जा सकते। किसी से बात नहीं कर सकते। प्रशासन हम पर दबाव बना रहा है।’
हाथरस में हुए गैंगरेप की पीड़िता के परिवार का आरोप है कि प्रशासन उन पर चुप रहने का दबाव बना रहा है। पीड़िता के परिजनों का कहना है कि उन्हें घर में ही नजरबंद कर दिया गया है और किसी से बात नहीं करने दी जा रही है। पीड़िता के गांव को अब सील कर दिया गया है और एसआईटी के अलावा किसी को भी यहां जाने की अनुमति नहीं है। मीडिया को भी गांव से दूर कर दिया गया है।
पीड़िता के गांव में मीडिया वाले पहुंचकर परिवार का हाल जान रहे हैं। हालांकि, पुलिस उन्हें गांव आने से रोक भी रही है।
फोन पर बात करते हुए पीड़िता की भाभी ने बताया, 'डीएम साहब घंटा दो घंटा यहां बैठे और डराते धमकाते रहे। वो हमें इतना डरा रहे थे कि अब हमें उनसे डर लग रहा है।' वो कहती हैं, 'डीएम साहब ऊटपटांग बातें कर रहे थे। हम अपनी कुछ बात कहना चाह रहे थे तो डांट दे रहे थे। कल पापा को यहां से उठवा कर ले गए थे और उनसे कहा कि मीडिया के सामने ऐसे बोल देना कि अब सब सही है और कोई दबाव नहीं है।' पीड़िता की भाभी का कहना था कि डीएम ये धमकी भी देकर गए हैं कि ये मुकदमा परिवार पर उल्टा भी पड़ सकता है।
पीड़िता की भाभी ने डीएम से शव को रात में जला दिए जाने को लेकर बहस भी की। वो बताती हैं, 'हमने पूछा कि आपने हमारी बेटी की बॉडी को रात में ही जला क्यों दिया, हमें ��िखाया क्यों नहीं तो उन्होंने बोला कि बॉडी का पोस्टमार्टम हुआ था, बॉडी इतनी बेकार हो चुकी थी कि तुम लोग देख नहीं सकते थे।'
वो बताती हैं, 'जब मैंने उनसे कहा कि हम कैसे नहीं देख सकते थे तो उन्होंने कहा कि तुम लोग पोस्टमार्टम का मतलब भी समझते हो? वो हमें मतलब समझा रहे थे कि पोस्टमार्टम कैसे होता है। बोले सर में हथोड़ा मारते हैं, सर फोड़ देते हैं, ये-वो निकाल लेते हैं। गले से लेकर पेट तक पूरा चाकू से काट देते हैं। बॉडी पन्नी में पैक थी, उसे खोलकर दिखाते तो कितनी दिक्कत होती। पीड़िता की भाभी का कहना था कि डीएम बातें ही ऐसी कर रहे थे कि किसी भी परिवार वाले को बुरी लगतीं।
वो बताती हैं, 'वो कह रहे थे कि पहली बात तो रेप हुआ ही नहीं और अगर वो कोरोना से मर जाती तो तुम्हें मिलता मुआवजा? वो ऐसी बातें बोल रहे थे जैस हम किसी इंसान के मरने का इंतजार कर रहे थे। ऐसे हादसे के बाद हमें उनके मुआवजे की जरूरत है? अगर उनकी अपनी बेटी होती और उसके साथ ऐसा होता तो क्या वो मुआवजा लेते? जब मैंने उनसे ये बात कही तो एकदम चिल्लाने लगे, हमें डांटने लगे।'
मुआवजा नहीं इंसाफ चाहिए
परिवार का ये भी कहना है कि प्रशासन लोगों को भेजकर उन पर चुप रहने का दबाव बना रहा है। पीड़िता की भाभी कहती हैं, 'आज दो लोगों को भेजा था हमारे घर, समझाने के लिए। वो कह रहे थे कि हम तुम्हारी कास्ट के ही हैं, अभी जो हो रहा है, सही हो रहा है। जो अभी मिल रहा है ले लो, फिर नहीं मिलेगा। आगे कुछ होगा या नहीं होगा इसका भी भरोसा नहीं है।'
जब मैंने उनसे पूछा कि क्या सरकार की ओर से घोषित किया गया पच्चीस लाख रुपए का मुआवजा परिवार को मिल गया है तो उनका कहना था, 'हमारे घर से कोई बाहर आ जा ही नहीं रहा है तो हमें क्या पता आए या नहीं आए, हमने तो सरकार से पैसे मांगे नहीं थे। हमारी तो बस ये ही डिमांड थी कि इन लोगों को फांसी की सजा हो और अच्छा न्याय मिले। इसके अलावा, पैसे, मकान या ये सब हमने कभी नहीं मांगा। उन्होंने ये सब पापा के सामने रख दिया और पापा से साइन करवा लिए हैं। बहुत सारे लोगों के बीच में खड़ा करके पापा पर दबाव देकर ये सब करवाया गया।'
वो अपनी बात को दोहराते हुए कहती हैं, 'ना मकान चाहिए था, ना पैसा चाहिए था कुछ और चाहिए था। हमें तो बस इंसाफ चाहिए था। हम तो बस यही चाहते हैं कि न्याय मिले। हमें इनका पैसा या मदद कुछ नहीं चाहिए बस इंसाफ चाहिए।'
मेडिकल रिपोर्ट पर सवाल
यूपी पुलिस के एडीजी प्रशांत कुमार ने एक बयान में कहा है कि मेडिकल रिपोर्ट में रेप या यौन हिंसा की पुष्टि नहीं हुई है। परिवार का कहना है कि उन्हें मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा नहीं है। पीड़िता की भाभी कहती हैं, 'पोस्टमार्टम रिपोर्ट, अस्पताल की रिपोर्टें, सब बदल दी गईं। हमें एक रिपोर्ट तक नहीं दी गई है। हमारे परिवार को कोई रिपोर्ट नहीं दी। ना मेडिकल रिपोर्ट ना ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट। हमसे कहा गया कि कोई रिपोर्ट आएगी तो तुम लोग तो पढ़ भी नहीं पाओगे, हमारे परिवार वालों को तो पागल ही समझ रहे हैं।'
पीड़िता के एक रिश्तेदार का कहना था, 'पुलिस ने जब लाश ही अपने तरीके से जला दी तो सबकुछ बदल सकता है। सीधी सी बात है, उनकी सरकार है, वो कुछ भी रिपोर्ट बनवा सकते हैं।
परिवार को नहीं मिली है मेडिकल रिपोर्ट
अस्पताल में पीड़िता के साथ रहने वाले उनके छोटे भाई सवाल करते हैं, 'मैं ये पूछना चाहता हूं कि कोई भी रिपोर्ट हमें क्यों नहीं दी गई। हमें इस बात पर ऐतराज नहीं कि पुलिस रिपोर्ट को हासिल करे, लेकिन कम से कम रिपोर्ट लेते वक्त हमारे परिवार के किसी व्यक्ति को तो साथ लिया जाता ताकि हमें ये विश्वास होता कि रिपोर्ट सही है। हमें अभी तक अपनी बहन के बारे में एक भी रिपोर्ट नहीं दी गई है। वो सीधे मीडिया में रिपोर्ट जारी कर रहे हैं लेकिन हमें कुछ नहीं बता रहे हैं।
भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर रावण ने पीड़िता के परिवार से मुलाकात की थी।
वो कहते हैं, 'सफदरजंग अस्पताल में हमारे सामने पोस्टमार्टम होता और हमारी आंखों के सामने जो रिपोर्ट मिलती हम उसे असली मानते। लेकिन हमें तो शामिल ही नहीं किया गया। अब रिपोर्ट पर कैसे विश्वास कर लें? हमसे कहा गया था कि हमें रिपोर्ट मिलेगी, लेकिन हमें रिपोर्ट नहीं दी गई सीधे मीडिया में बता दिया गया कि रेप नहीं हुआ। मतलब जो बयान दिए गए वो झूठे थे। मरता हुआ इंसान झूठ बोल रहा था?
भारी पुलिस की मौजूदगी से परेशान हो गया है परिवार
पीड़िता की भाभी कहती हैं, 'सुबह से लेकर मेरी तीनों लड़कियां रोए जा रही थीं। एक-एक बार में दस-दस पुलिस वाले आ रहे थे। बरामदे में बैठ रहे थे, पूरे आंगन में पुलिस ही पुलिस, छत पर पुलिस ही पुलिस। बाहर गेट के बाहर पुलिस लगा रखी है।
इतने दिन से हम हादसे की वजह से खाना-पीना नहीं कर पा रहे थे। अब जो रिश्तेदार आए हुए हैं उन्हें भी सुबह का खाना शाम को तीन बजे मिल रहा है। वो भी तो इंसान ��ै। हम लोग नहीं खा पी पा रहे हैं कोई बात नहीं लेकिन उन्हें तो करके देना पड़ेगा, कैसे भी करके। रात का खाना बारह बजे मिल रहा है। तो कैसे होगा?
वो कहती हैं, दस पंद्रह लोग इकट्ठे आते हैं, घर में ऐसे खोजते हैं जैसे कुछ छुपा लिया हो हमने। हम पर प्रेशर बनाने के लिए ये सब कर रहे हैं। पुलिसवाले कह रहे थे, घर से वीडियो बनकर बाहर जा रही है। हम क्यों वीडियो बनाएंगे। हमसे बोलकर गए हैं कि जो वीडियो बनाएगा उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी।"
पीड़िता के गांव में भारी संख्या में पुलिस बल तैनात है।
गांव छोड़कर जाना चाहता है परिवार
पीड़िता की भाभी कहती हैं, 'हमें गांव छोड़ कर अब जाना ही पड़ेगा। बहुत बड़ी दुनिया है, कहीं भी रह लेंगे। भीख मांगकर भी रहना पड़ेगा तो रह लेंगे। अपनी मौत को दोबारा कोई दावत देगा। वैसे भी लोग धमकियां दे रहे हैं। छोटे वाले देवर के लिए बोल रहे हैं कि एक घर से लड़का जाएगा तो दूसरे घर से भी जाएगा।'
पूरे परिवार का कोरोना टेस्ट कराना चाहता है प्रशासन प्रशासन ने तीन पुलिसकर्मियों में कोरोना के लक्षण दिखने के बाद गांव को क्वारैंटाइन कर दिया है। वहीं पीड़िता के परिवार का कहना है कि प्रशासन पूरे परिवार का कोरोना टेस्ट कराने पर जोर दे रहा है। पीड़िता की भाभी कहती हैं, 'कोरोना जांच वाले लोग कल भी आए थे, आज भी आए थे और अब कल भी आएंगे। कह रहे थे तुम्हारा पूरा घर सैनिटाइज होगा। बोल रहे थे कि सारे घर का कोरोना टेस्ट करा दें। हमने कहा किसी को कोरोना नहीं हुआ है। उनका मकसद है कि किसी को भी कोरोना घोषित कर दो और फिर तो घर पर हमारा ही राज है।
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3. हाथरस गैंगरेप / पुलिस ने पीड़ित की लाश घर नहीं ले जाने दी, रात में खुद ही शव जला दिया; पुलिस ने कहा- शव खराब हो रहा था इसलिए उसे जलाया गया
4. दलित लड़की से हाथरस में गैंगरेप / उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी, जीभ काट दी, 15 दिन सिर्फ इशारे से बताती रही, रात 3 बजे जिंदगी से जंग हार गई वो बेटी
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तस्वीर पीड़ित परिवार की है। पीड़ित की मां की हालत ठीक नहीं है, रो-रो कर आंखें लाल हो गई हैं। गला बैठ गया है। वो कई दिनों से सो नहीं पाई हैं। ।
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उत्तर प्रदेश में हाथरस के बाद अब बलरामपुर जिले में दलित युवती से गैंगरेप की घटना सामने आई है। 22 साल की कॉलेज छात्रा को किडनैप कर इंजेक्शन लगाकर बेहोश कर दिया और फिर 2 आरोपियों ने दुष्कर्म किया। लड़की की हालत इतनी बिगड़ गई कि उसकी मौत हो गई। पुलिस ने साहिल और शाहिद नाम के आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। इनके खिलाफ गैंगरेप और हत्या का केस दर्ज किया गया है। मामला गैंसड़ी इलाके का है।
बेहोशी की हालत में रिक्शे पर घर पहुंची... युवती कॉलेज की फीस जमा कराने के लिए मंगलवार सुबह 10 बजे घर से निकली थी। शाम तक नहीं लौटी तो घरवालों ने फोन किया, लेकिन फोन बंद था। शाम करीब 7 बजे युवती गंभीर हालत में रिक्शे से घर पहुंची। उसके हाथ पर कैनुला लगा था, बेहोशी की हालत में थी और बोल भी नहीं पा रही थी। परिजन तुरंत डॉक्टर के पास ले गए। फिर डॉक्टर के कहने पर लखनऊ ले जा रहे थे, लेकिन रास्ते में ही युवती की मौत हो गई।
पेट में बहुत तेज जलन है, हम मर जाएंगे.... लड़की की मां ने बताया कि बेटी कॉलेज से लौट रही थी, रास्ते में कार में आए 3-4 लोगों ने उसे अगवा कर लिया। उसे नशे के इंजेक्शन देकर दुष्कर्म किया गया। आरोपियों ने बेटी की कमर और पैर भी तोड़ दिए, इसलिए न तो वह खड़ी हो पा रही थी और न ही बोल पा रही थी। बस इतना ही कह पाई कि पेट में बहुत तेज जलन हो रही है, हम मर जाएंगे।
आरोपियों ने डॉक्टर बुलाया था, लेकिन उसे शक हो गया पुलिस का कहना है कि वारदात गैंसड़ी गांव में एक किराना स्टोर के पीछे के कमरे में हुई। पीड़ित की सैंडल उसी कमरे के बाहर मिली हैं। दुकान मालिक ही घटना का मास्टरमाइंड बताया जा रहा है। जांच में पता चला है कि आरोपियों ने दुष्कर्म के बाद पीड़ित का इलाज करवाने की कोशिश की थी। डॉक्टर मौके पर आया भी, लेकिन शक होने पर उसने कह दिया कि घरवालों की गैर-मौजूदगी में इलाज नहीं कर सकता।
पुलिस ने अंतिम संस्कार में फिर जल्दबाजी दिखाई न्यूज एजेंसी आईएएनएस की रिपोर्ट के मुताबिक अंतिम संस्कार में पुलिस ने हाथरस के मामले की तरह ही जल्दबाजी दिखाई। बलरामपुर की पीड़ित का शव भी भारी पुलिस बल की तैनाती में मंगलवार रात को ही जला दिया गया। यह बात भी सामने आ रही है कि पुलिस ने मामला दबाने की कोशिश की थी। हालांकि, लोगों का कहना है कि पीड़ित परिवार की सहमति से ही अंतिम संस्कार किया गया।
अखिलेश यादव बोले- भाजपा सरकार अब लीपापोती न करे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ट्वीट कर कहा है कि हाथरस के बाद अब बलरामपुर में भी एक बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार और उत्पीड़न का घृणित अपराध हुआ है। भाजपा सरकार बलरामपुर में हाथरस जैसी लापरवाही और लीपापोती न करे, बल्कि अपराधियों पर तुरंत कार्रवाई करे।
हाथरस के बाद अब बलरामपुर में भी एक बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार और उत्पीड़न का घृणित अपराध हुआ है व घायलावस्था में पीड़िता की मृत्यु हो गयी है. श्रद्धांजलि! भाजपा सरकार बलरामपुर में हाथरस जैसी लापरवाही व लीपापोती न करे और अपराधियों पर तत्काल कार्रवाई करे.#Balrampur#NoMoreBJP
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) September 30, 2020
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1. गैंगरेप पीड़ित के गांव से रिपोर्ट: आंगन में भीड़ है, भीतर बर्तन बिखरे पड़े हैं, दाल और कच्चे चावल रखे हैं, दूर बाजरे के खेत में चिता से अभी भी धुआं उठ रहा है
2. हाथरस रेप केस पर कवि की पीड़ा:कुमार विश्वास बोले- कब तक मौन रहोगे विदुरों? कब अपने लब खोलोगे, जब सर ही कट जायेगा तो किस मुंह से क्या बोलोगे?
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घरवालों का कहना है बेटी सुबह 10 बजे घर से निकली और शाम 7 बजे लौटी, उसकी हालत बहुत खराब थी। कह रही थी कि पेट में तेज जलन हो रही है। (पीड़ित युवती का फाइल फोटो)
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सफेद कुर्ता पाजामा, सर पर बंधा सफेद साफा, कंधे पर रखा फावड़ा। कमला को कोई दूर से क्या, पास से भी देखे तो धोखा खा जाए कि कोई पुरुष खेत में काम कर रहा है। दिल्ली से करीब 120 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर के मीरापुर दलपत गांव की रहने वाली 63 साल की कमला ने अपनी जिंदगी के चार दशक मर्द बनकर खेतों में काम करते हुए गुजार दिए। एक महिला के लिए मर्द बनकर काम करना आसान नहीं था। लेकिन, जिंदगी के सामने ऐसे मुश्किल हालात थे कि उन्होंने घूंघट उतारकर सर के बाल काट लिए और पगड़ी बांध ली।
किसान परिवार में पैदा हुई कमला होश संभालते ही खेतों में काम करने लगी थीं। शादी हुई तो 17 महीने बाद ही पति की दुखद मौत हो गई। बाद में देवर के साथ उन्हें 'बिठा दिया' गया। इस रिश्ते से उन्हें एक बेटी हुई लेकिन, ये रिश्ता ज्यादा नहीं चल सका और वो अपने भाइयों के घर लौट आईं। कमला के छोटे भाई को कैंसर हो गया। दम तोड़न से पहले उन्होंने कमला से वादा लिया कि वो उनके बच्चों को पालेंगी और पत्नी का ध्यान रखेंगी।
कमला कहती हैं, भाई के दोनों बच्चे छोटे थे। कोई सहारा ��हीं था। मैंने उनकी जिम्मेदारी संभाल ली और खेती का काम अपने हाथ में ले लिया। लेकिन, महिला के लिए अकेले खेत में जाकर काम करना आसान नहीं था। लोगों की नजरों से बचने के लिए मैंने मर्द का रूप धर लिया। बाल काटे और पगड़ी बांध ली।
भारत के खेतों में महिलाएं सदियों से काम करती रहीं हैं। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस समाज में आज भी मर्दवादी नजरिया हावी है। महिलाएं खेतों पर काम करने जाती तो हैं लेकिन, अकेले नहीं, बल्कि समूहों में या परिवार के दूसरे लोगों के साथ।
कमला अपनी भाभी के साथ। कमला की शादी के 17 महीने बाद ही उनके पति की मौत हो गई, उसके बाद उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली।
लेकिन, कमला के अकेले कंधों पर जमीन जोतने-बोने और फसल की देखभाल करने की जिम्मेदारी थी। रात-बेरात खेतों को पानी देने के लिए जाना पड़ता था। मर्दवादी समाज की नजर और तानों से बचने के लिए वो मर्द ही बन गईं। कमला कहती हैं, 'मैं बेधड़क खेतों में काम करती थी। फसल को पानी देना होता था तो रात को आती थी, सुबह तक काम करके जाती थी। कभी डर महसूस नहीं हुआ। मर्दों की पोशाक ने मुझे सबकी नजरों से बचा लिया।
वो कहती हैं, 'खेत में काम कर रही एक अकेली औरत के साथ कुछ भी हो सकता था, औरत अकेली हो तो हर आंख उस पर ठहरती है। लेकिन खेत में काम कर रहे अकेले मर्द पर किसी का ध्यान नहीं जाता। कमला ने मर्द बनकर लगभग चार दशकों तक खेतों में काम किया। उन्होंने उम्र के छह दशक पार करने के बाद भी न अपना ये रूप छोड़ा है और ना ही काम करना। कमला कहती हैं कि उन्हें भाग्य ने एक के बाद एक झटके दिए, लेकिन वो कभी डगमगाई और डरीं नहीं।
वो अपने पति की मौत, ससुराल में हुए शोषण को अब याद करना नहीं चाहतीं। इस बारे में सवाल करते ही उनके आंखें पथरा जाती हैं। वो कहती हैं, मैं अब उन सब बातों को याद करना नहीं चाहती। ना ही उसका कोई फायदा है।
कमला ने अपनी पूरी जिंदगी खेतों में काम करते बिता दी। वो कहती हैं, मैं हमेशा काम में लगी रहती थी। दिन में एक वक्त खाकर काम किया। सारा दिन ईख छोलती थी। भाभी से कह देती थी कि खाना देने मत आना, घर आकर ही खाऊंगी। इन खेतों ने हमारा परिवार पाल�� है। कमला ने सिर्फ खेत में ही काम नहीं किया, बल्कि वो गन्ना डालने मिल भी जाती थीं और मंडी भी। वो कहती हैं, 'मैं मर्दों के बीच अकेली औरत होती थी। लेकिन लोग पहचान ही नहीं पाते थे कि मैं औरत हूं।'
कमला के इस बात की खुशी है कि उनके एक भतीजे का घर बस गया है और दूसरे की भी जल्द शादी होने वाली है। वो कहती हैं, 'मेरी जिंदगी का मकसद पूरा हो गया। भाई से जो वादा किया था, निभा दिया।' हमेशा संघर्ष करती रहीं कमला को उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने के बाद भी सुकून नहीं है। वो जिन खेतों में काम कर रहीं थी, वो उनके भाई की संपत्ति हैं। खेतों की ओर देखते हुए बात कर रही कमला कहती हैं, 'मेरे खेत...और ये कहते-कहते उनकी जबान रुक जाती है, खुद को संभालते हुए वो कहती हैं, अब तो ये भाई के बच्चों के खेत हैं।
मुजफ्फरनगर के मीरापुर दलपत गांव की रहने वाली 63 साल की कमला पिछले चार दशकों से अपने खेतों में मर्द बनकर काम कर रही हैं।
भारत में पारंपरिक तौर पर पिता की संपत्ति, जमीन-जायदाद भाइयों के हिस्से आती है और बहनों के हिस्से आती है ससुराल, जहां वो बाकी जिंदगी रहती हैं। लेकिन, भारत का कानून बेटियों को भी संपत्ति पर बराबर का हक देता है। कमला ने कभी अपना ये हक लेने के बारे में सोचा तक नहीं है।
अब जब उनका शरीर ढल रहा है, उन्हें अपनी आगे की जिंदगी की चिंता हैं। वो कहती हैं, 'मैं अपने लिए एक कमरा तक नहीं बना सकी। अपना सिर छुपाने के लिए मेरे पास अपनी कोई जगह नहीं है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मुझे घर दिलाने की कोशिश की थी। लेकिन, वो काम भी कोरोना में अटक गया है। बात करते-करते कमला के चेहरे के भाव कई बार बदलते हैं। उनके चेहरे पर भाई के परिवार को पालने का सुकून दिखाई देता है तो अकेलेपन का अफसोस भी और बुढ़ापे को ��ेकर चिंता भी।
एक औरत जो सारी जिंदगी समाज की पाबंदियों को तोड़कर अपने दम पर जीती रही, चलते-चलते कहती हैं, 'अगर मेरे आवास के लिए ��ुछ हो सके तो कीजिएगा। मैं भी कोशिश कर ही रही हूं। जो भी होगा, जैसे भी होगा, एक कमरा तो बना ही लूंगी।' मैं मन ही मन इस खुद्दार औरत को सलाम करती हूं और मेरे दिमाग में कई सवाल एक साथ कौंधने लगते हैं।
'समाज कमला जैसी असली हीरो का सम्मान क्यों नहीं कर पाता है? अपना सबकुछ त्याग देने वाली मेहनतकश कमला अब उम्र के आखिरी पड़ाव पर इतना अकेला क्यों महसूस कर रही हैं? उन्हें सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत कोई फायदा क्यों नहीं मिल सका है?'
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kamala A women of muzaffarnagar turns as a man and starts farming to survive her Family
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बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय की राजनीति में एंट्री हो गई। रविवार को वे जदयू में शामिल हो गए। मंगलवार को वीआरएस लेने के बाद से ही उनकी सियासी पारी को लेकर कयासों का बाजार गरमाया हुआ था। फिलहाल ये तो साफ हो गया कि वे जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे लेकिन, कहां से लड़ेंगे यह तय नहीं हुआ है।
सुशांत सिंह राजपूत सुसाइड केस को लेकर पिछले कुछ महीनों से चर्चा में आए गुप्तेश्वर पांडे पुलिस महकमे में रहने के दौरान भी चर्चा में रहते थे, चाहे सोशल मीडिया हो या ग्राउंड पर गुस्साई भीड़ के सामने। ऐसे कई किस्से हैं, जिसमें से कुछ किस्सों को वो खुद बार-बार दोहराते हैं और कुछ को छोड़ देते हैं...
पहला किस्सा: साल 2007 की बात है। सीतामढ़ी के रूनी सैदपुर में एक स्थानीय माले नेता की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई। मामला इतना बिगड़ गया कि देखते-देखते हजारों स्थानीय लोगों ने पुलिस थाने को घेर लिया। नारेबाजी के साथ पथराव शुरू हो गया। सीतामढ़ी के तत्कालीन एसपी मौके पर पहुंचे लेकिन हालात को काबू नहीं कर पाए। गुप्तेश्वर तब मुजफ्फरपुर रेंज के डीआईजी थे। वे घटना स्थल पर पहुंचे।
��ंगलवार को गुप्तेश्वर पांडेय ने कार्यकाल खत्म होने के 5 महीने पहले ही वीआरएस ले लिया।
वहां तैनात सिपाहियों को पीछे हटने के लिए बोला। अपने सुरक्षा गार्डस को खुद से दूर किया और गुस्साई भीड़ की तरफ पैदल चल दिए। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने जमीन पर मृत माले-नेता की लाश रखी हुई थी। गुप्तेश्वर लाश के पास बैठे और दहाड़ मार-मारकर रोने लगे।
वो उस नेता को बिल्कुल नहीं जानते थे, लेकिन उसे ईमानदारी की मूर्ति बताया, उसे अपना भाई कहा और वहीं भीड़ के सामने ही ऐलान किया कि दोषी थाना अधिकारी को सस्पेंड कर रहे हैं। एक बड़े पुलिस अधिकारी को ऐसा करते और कहते देखकर भीड़ का गुस्सा शांत हो गया और वो उल्टे अपने डीआईजी साहब की खोज-खबर लेने लगे।
दूसरा किस्सा: साल 2016 की बात है। गुप्तेश्वर तब बिहार सैन्य पुलिस के डीजी थे और पटना में तैनात थे। पड़ोस के जहानाबाद जिले में दंगा भड़क गया। मकर संक्रांति को हो रहे जुलूस के दौरान विवाद के बाद यह दंगा हुआ था। स्थिति जब काबू से बाहर होने लगी तो राज्य सरकार ने पटना से गुप्तेश्वर पांडे को वहां भेजने का फैसला लिया।
जनवरी का महीना था। वो सुबह-सुबह निकल भी गए। वहां जाकर उन्हें लगा कि रात में वहीं कैंप करना होगा। वो पटना से जल्दी-जल्दी में निकले थे तो उनके पास ठंड से बचने के अच्छे और गर्म जैकेट नहीं थे। स्थानीय एसपी-डीएसपी ने एक थानेदार को दानापुर आर्मी कैंट से जैकेट लाने का आदेश दिया। थानेदार जब दानापुर कैंट पहुंचा तो तय नहीं कर पाया कि किस साइज का एक जैकेट लिया जाए।
लिहाजा उसने अलग-अलग साइज के पांच-छह महंगे जैकेट ले लिए। उसने सोचा कि जो ‘साहब’ को पसंद आएगा वो रख लेंगे बाकी वापस कर दिया जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। थानेदार द्वारा लाए गए सारे जैकेट रख लिए गए। पुलिस अधिकारी से राजनेता बने गुप्तेश्वर पांडेय ने 33 साल पुलिस में गुजारे हैं। इन 33 सालों के कई किस्से हैं।
जिसमें से कुछ किस्सों को वो खुद बार-बार दोहराते हैं और कुछ को छोड़ देते हैं। गुप्तेश्वर बिहार पुलिस के ऐसे विरले अधिकारी रहे हैं जो एसपी रहते हुए अपने डीजीपी से ज्यादा चर्चा बटोरते थे। उन्हें सुर्खियां बटोरना हमेशा से पसंद रहा है। उनकी ये ख्वाहिश तब और परवान चढ़ी जब वो बिहार पुलिस के सर्वेसर्वा बना दिए गए।
पुष्यमित्र पटना में रहते हैं। वे पत्रकार हैं। पिछले साल एक सार्वजनिक कार्यक्रम में वो बिहार के तत्कालीन डीजीपी और कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गुप्तेश्वर पांडेय के साथ मंच पर थे। वो बताते हैं, 'पांडे जी को सोशल मीडिया का जबरदस्त क्रेज है। मैंने देखा कि उनका एक सुरक्षा गार्ड मोबाइल से फोटो ले रहा है वहीं दूसरा फेसबुक पर लाइव स्ट्रीमिंग कर रहा है।'
गुप्तेश्वर के इस क्रेज ने उन्हें कभी मीडिया के कैमरों से दूर नहीं होने दिया और डीजीपी रहते हुए भी वो पत्रकारों के लिए सर्व सुलभ बने रहे। पत्रकारों से अपनी इस नजदीकी को गुप्तेश्वर 'जनता से नजदीकी' बताते हैं, लेकिन बिहार पुलिस के कई सीनियर अधिकारी इसे 'बड़बोलापन और एक पुलिस अधिकारी के लिए गैरजरूरी' कहते हैं।
यही वजह है कि जब बिहार पुलिस प्रमुख के पद से उन्होंने छुट्टी ली तो पटना के पुलिस महकमे इसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई। बिहार पुलिस के एक अधिकारी ने हमें बताया, 'कहीं कोई चर्चा नहीं है, एक शब्द भी नहीं। हम सभी अधिकारियों के तीन वॉट्सऐप ग्रुप हैं। एक तो पूरी तरह से आधिकारिक बातों के लिए हैं, वहीं दो ऐसे ग्रुप हैं जिनके माध्यम से अधिकारी आपस में किसी भी मसले पर बतियाते हैं। किसी भी ग्रुप में एक पोस्ट तक नहीं आया।
इस खामोशी की वजह पूछने पर उन्होंने बताया, 'बतौर अधिकारी उन्हें विभाग में कोई पसंद नहीं करता। वो अधिकारियों के साथ की जाने वाली मीटिंग में ऐसे व्यवहार करते थे जैसे वही एक ईमानदार और कर्मठ अधिकारी हैं, बाकी सब बेकार हैं। भ्रष्ट हैं।' कई अधिकारी ये मान रहे हैं कि डीजीपी के अपने कार्यक्रम में बिहार पुलिस की छवि का जितना नुकसान गुप्तेश्वर पांडेय ने किया, उतना किसी और ने नहीं किया।
डीजीपी रहते हुए गुप्तेश्वर एसपी, एसएसपी की साप्ताहिक बैठक में धमक जाते तो कभी किसी बात पर थानेदार तक को फोन लगाकर झाड़ देते थे। ये सब शुरू-शुरू में तो ठीक रहा, लेकिन जब बार-बार होने लगा तो थानेदार तक ने डीजीपी की बातों को सीरियसली लेना छोड़ दिया।
इन सब से उन्हें मीडिया में सुर्खियां तो मिल रही थीं, लेकिन ऐसी हर खबर के साथ डीजीपी के पद की गरिमा में बट्टा लग रहा था। और यही वजह है कि जब गुप्तेश्वर ने दूसरी बार वीआरएस ली तो बिहार पुलिस के एक आला अधिकारी ने कहा, 'आज विभाग में खुशी की लहर है। आखिर हमने अपना ‘हेडैक’ लोगों को दे दिया।'
गुप्तेश्वर पांडेय 31 जनवरी 2019 को बिहार के डीजीपी बने और 22 सितंबर 2020 तक इस पद पर रहे। उनके मुताबिक वो जनता के डीजीपी थे। उन्होंने पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी तक जनता की सीधी पहुंच का रास्ता साफ किया लेकिन क्या उनके पद पर रहने के दौरान बिहार में अपराध भी कम हुआ? बिहार पुलिस हर साल राज्य में हुए अपराधों की संख्या जारी करती है।
इन आकड़ों के मुताबिक 2019 में पिछले दो सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा गंभीर अपराध रजिस्टर किए गए। 2017 में कुल 2 लाख 36 हजार 37 मामले दर्ज हुए। 2018 में ये बढ़कर 2 लाख 62 हजार 802 हो गए। अगर बात करें 2019 की तो इस साल राज्य में कुल 2 लाख 69 हजार 096 गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हुए।
डीजीपी पद से वीआरएस लेने के साथ ही गुप्तेश्वर पांडे ने सोशल मीडिया पर अपनी कवर फोटो बदल ली है। वे एक इंटरव्यू में बक्सर से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं।
गुप्तेश्वर के आलोचकों की माने तो इनके कार्यकाल में अपराध इसलिए बढ़े क्योंकि उन्होंने पुलिस प्रमुख का असली काम करने की जगह स्टंटबाजी करते रहे। कभी केस की तहकीकात के नाम पर खुद नदी में कूद गए। कभी जनता से सीधा संवाद स्थापित करने के नाम पर राम कथा वाचक बनकर पंडाल में बैठ गए।
सार्वजनिक मंचों से भोजपुरी में गीत गाए और जाते-जाते खुद पर एक पूरा म्यूजिक एल्बम ही बनवा डाला। जब एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या का मामला सामने आया तो इसे लेकर वो मुम्बई पुलिस से भिड़ते हुए दिखे। भावुक और आक्रामक बयानबाजी करके मीडिया में खासी चर्चा बटोरी और कार्यकाल खत्म होने से कुछ महीने पहले ही पद छोड़ कर राजनीति की तरफ चल दिए।
इन तमाम आलोचनाओं के बीच एक पक्ष ऐसा भी है जो बिहार पुलिस प्रमुख के तौर पर या एक पुलिस अधिकारी तौर पर इनके काम को पसंद करता है। आगे बढ़कर तारीफ करता है। रविंद्र कुमार सिंह मुजफ्फरपुर में रहते हैं और बिहार से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार में पत्रकार हैं और गुप्तेश्वर पांडे के काम करने के तरीके से खासे प्रभावित हैं।
वो कहते हैं, 'मैंने उनके जैसा अधिकारी नहीं देखा। हर वक्त जनता के लिए खड़ा रहते थे। बड़े ओहदे पर थे लेकिन उपलब्धता के मामले में कई बार एसपी को भी पछाड़ देते थे। विभाग में उनकी आलोचना होती हैं क्योंकि वो ऊं��ी जाति से आते हैं। अपने कार्यकाल में अधिकारियों से ज्यादा उन्होंने आम लोगों को वक्त दिया है। वो बड़े से बड़े दंगे को रोकने की ताकत रखते थे और रोका भी है।
रामाश्रय यादव बिहार पुलिस में इंस्पेक्टर हैं और फिलहाल नरकटियागंज में तैनात हैं। वो गुप्तेश्वर पांडे के साथ कई मौकों पर रहे हैं और उनके काम करने के तरीके प्रशंसक हैं। वो कहते हैं, 'एक बार की बात है। जिले में तनाव की स्थिति थी। वो डीआईजी थे। एसपी ने उन्हें फोन पर हालात की जानकारी दी तो वो बोले-मैं आता हूं। सब ठीक हो जाएगा। हालांकि, उनके आने की नौबत नहीं आई।
मामला निपट गया लेकिन ये उनका खुद पर भरोसा था। ये उनकी पुलिसिंग का कमाल था। वो पगलाई हुई भीड़ को कुछ ही मिनटों में बिना लाठी-बंदूक के शांत कर देते थे। जब हमने उनसे गुप्तेश्वर पांडे के राजनीति में जाने पर प्रतिक्रिया मांगी तो वो पहले हंसे फिर बोले, 'सर कर रहे हैं तो ठीके कर रहे होंगे। कुछ सोचे होंगे, लेकिन उनके जइसा (जैसा) आदमी को लोकसभा जाना चाहिए। ई विधायकी उनके कद के लायक नहीं है।”
ये तो वक्त ही बताएगा कि वो चुनाव जीत पाते हैं या नहीं। अगर चुनाव जीत भी जाते हैं तो राजनीति में किस हद तक कामयाब हो पाते हैं। फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में गुप्तेश्वर पांडेय, बिहार को लेकर होने वाली राजनीतिक चर्चाओं के केंद्र में रहेंगे क्योंकि 'पांडे जी' को चर्चा में बने रहना पसंद है और वो ऐसा करने के तमाम तरीके जानते हैं।
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गुप्तेश्वर पांडेय हमेशा से चर्चा का केंद्र रहे हैं चाहे पुलिस महकमे में रहने के दौरान हों या उससे बाहर।
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रविवार को राज्य सभा में जो कुछ हुआ, फिर निलंबित सांसदों का धरना और सुबह-सुबह एक भावुक पोस्चर लेते हुए उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह जिस तरह खुद झोले में चाय-बिस्कुट लेकर बेड-टी डिप्लोमेसी पर पहुंचे उसके बाद से इस पूरे प्रकरण पर बहस छिड़ी हुई है। बहस के कई सिरे हैं। अगर एक सिरा कृषि बिलों से जमीनी नफा-नुकसान पर है तो बहस का बड़ा सिरा हरिवंश को करीब से जानने वालों, खासकर पत्रकार और बुद्धिजीवी जमात में है। बहस का यह सिरा ‘समाजवादी हरिवंश’ के आचरण पर ज्यादा है। आइये जानते हैं कौन हैं ये हरिवंश और कहां-कहां से गुजर कर यहां तक आए और अब स��्ता कि राजनीति की धुरी बने दिखाई दे रहे हैं। किसान बिल से जमीनी नफा-नुकसान किसे कम हुआ, किसे ज्यादा यह तो वक्त तय कर देगा, लेकिन फिलहाल तो बहस हरिवंश के इर्द-गिर्द है।
वरिष्ठ पत्रकार और लम्बे समय तक बीबीसी से जुड़े रहे रामदत्त त्रिपाठी खुद भी समाजवादी धारा से आते हैं। रामदत्त अपने कार्यक्रम ‘जनादेश’ में कहते हैं कि लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, क्योंकि उन्होंने शायद उम्मीद ज्यादा पाल ली थी, जबकि यह उम्मीद उसी दिन छोड़ देनी चाहिए थी जब हरिवंश पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में आए थे। रामदत्त कहते हैं, ‘बिल पास करने में जो अलोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई गई हरिवंश चाहते तो अपनी अंतरात्मा की आवाज पर इस प्रकिया से खुद को आसानी से अलग कर सकते थे, बचा सकते थे।
22 सितम्बर की सुबह की बात से शुरू करते हैं। बेड-टी का वक्त था। राज्यसभा के उन सांसदों ने शायद उस वक्त तक चाय नहीं पी थी, लेकिन सुबह-सुबह अचानक चाय के साथ जो हाजिर हुआ उसे देखकर कुछ सांसद मुस्कराए थे। ये हरिवंश थे। राज्य सभा के उप सभापति। उन सांसदों के लिए चाय लेकर आये, जो उन्हीं के ‘आचरण’ के खिलाफ धरने पर बैठे थे। हरिवंश अपने पुराने खांटी समाजवादी अंदाज में दिखे। अपना प्रिय बादामी कुर्ता, क्रीम कलर की बंडी और पाजामा पहने हुए। पैर में शायद वही पुराने स्टाइल वाली काली सैन्डल रही होगी। हां, झोला भी वही है, जूट वाला जिसमें वो चाय का थर्मस और बिस्कुट लेकर आये थे। लम्बे समय तक साथ कम करने और उन्हें करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क कहते हैं- ‘ऊपर से सारा आवरण वही पुराना समाजवादी होने के बावजूद सही है कि हरिवंश अब वो वाले समाजवादी नहीं रहे।’ अश्क ये भी कहते हैं कि ‘हरिवंश उन अर्थों में कभी समाजवादी रहे ही नहीं। कम से कम पत्रकार के रूप में जितना देखा, उसमें तो कभी नहीं।’
कौन हैं हरिवंश मैं जिन हरिवंश को जानता हूं, उनसे मेरी पहली मुलाकात पटना के बोरिंग रोड चौराहे पर किताब की दुकान पर हुई थी। मैं कोई किताब देख रहा था। बगल वाली रैक पर वो अपनी कोई किताब उल��-पुलट रहे थे। शायद नब्बे के आसपास या एक-दो साल पहले की कोई तारीख रही होगी। तब हरिवंश सिर्फ पत्रकार थे। बिहार की पत्रकारिता का एक बड़ा ब्राण्ड जैसा कुछ। एक ऐसा ब्राण्ड जिस पर बिहार का पत्रकार तो कम से कम इतराता ही था। हरिवंश ने ऐसा क्या किया था, दावे से तो नहीं कह सकता, लेकिन मेरे कुछ अच्छे और समझदार मित्रों से मिली तारीफों ने मुझे उनके बारे में अच्छी धारणा बनाने को शायद बाध्य किया था। ‘रविवार’ पत्रिका के दौर की उनकी कुछ रिपोर्टिंग और लेखों का भी जरूर सीधे तौर पर इसमें योगदान रहा होगा। हालांकि, मुझे कभी सीधे तौर पर ऐसा कोई उदाहरण उन 12 वर्षों के बिहार प्रवास में नहीं दिखा कि आधिकारिक रूप से कुछ कह सकूं। हां, वैसा कुछ बड़ा विपरीत भी नहीं था कि धारणा खंडित होती दिखती।
हां, इतना जरूर याद है कि यूपी-बिहार में पत्रकारिता करते हुए उस एक खास कालखंड में अखबारों में अपनी आचार संहिता बनाने-दिखाने का जिन कुछ सम्पादकों को शौक चढ़ा था, उनमें हरिवंश भी एक थे। यह आचार संहिताएं भी ऐसी ही थीं कि उन्हें पढ़कर ही लगता था, यह तोड़ने के लिए ही बनाई और लिखी गई हैं। धेले भर का लाभ न लेने के भारी-भरकम वादे करने वाले ऐसे प्रधान सम्पादकों में से हरिवंश तो एक बार पीएमओ (पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के साथ) और फिर राज्यसभा (अब पीएम नरेंद्र मोदी) में भी पहुंच गए और फिर इस महती गरिमामय वाले आसन तक भी। हालांकि कुछ राज्यसभा से प्रसार भारती तक की आस लगाए, गाहे-बगाहे ऐसी कई आचार संहिताएं लिख और जारी करते-छापते रहे। उदाहरण कई हैं। खैर, यहां बात सिर्फ हरिवंश की।
पत्रकारिता के उसी दौर में राजनीतिक दोस्त नीतीश कुमार की मां के निधन पर ‘प्रभात खबर’ के मुख पृष्ठ पर अद्भुत डिस्प्ले के साथ ‘उस खबर’ का प्रकाशन बहुतों को याद होगा। बाद के दिनों में तो यह कहानी और आगे बढ़ी और मित्र नीतीश कुमार को चन्द्रगुप्त मौर्य के बरअक्स देखने से नहीं चूकी। यह सब अखबार के पन्नों पर खुलकर हुआ। दोस्ती की यह कहानी लगातार लंबी होती गई। फिर ‘प्रभात खबर’ का सम्पादक रहते ही उन्होंने राज्यसभा के उप-सभापति का भी दायित्व स्वीकार किया। इससे पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के साथ वे उनके अतिरिक्त सूचना सलाहकार रह ही चुके थे। पत्रकारिता से राज्यसभा की इस गरिमापूर्ण कुर्सी तक पहुंचने की इस यात्रा का तब हमने भी स्वागत किया था। ये अलग बात है कि यह सब अखबार की उन सीढ़ियों के कारण ही सम्भव हुआ, जिनकी हर सीढ़ी, हर दिन सत्ता के उसी गलियारे की ओर बढ़ती गई थी। उन सीढ़ियों में अविभाजित बिहार वाले ‘प्रभात खबर’ की कुछ सौ प्रतियों से सफलता के शिखर की यात्रा भी निर्विवाद रूप से शामिल है।
अपने पत्रकारों को हमेशा एक आचार संहिता में बांधने वाले, कम बोलने वाले, संयमित-सौम्य प्रकृति वाले हरिवंश एक दूसरी आचार संहिता की दुनिया में प्रवेश कर चुके थे। हरिवंश की इस राह में उनकी सादगी की तमाम मिसालें भी हैं। सता से करीबी और सत्ताधीशों से दोस्ती के तमाम किस्से भी। जाहिर है, इन किस्सों में दोस्तों के सत्ता शीर्ष तक पहुंचने की कई कहानियां भी शामिल होंगी ही।
यह भी अनायास नहीं है कि हरिवंश कभी भी अपनी ‘अतीत के गौरव’ का बखान करने से नहीं चूकते। अगस्त 2018 में दोबारा उपसभापति चुने जाने के बाद उन्होंने जब कहा- “मैं आपका आभारी हूं कि आपने एक ऐसे व्यक्ति को इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के लिए उपयुक्त समझा जो गांव में रहने वाले एक बहुत सामान्य परिवार से आता है और जो कभी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं गया।” तब उनके एक अनन्य मित्र ने कहा था- हरिवंश को अब ये अपना पुराना सर्टिफिकेट दिखाना बंद कर देना चाहिए। वो बहुत पहले उस दुनिया से बहुत आगे निकल आये हैं... उस दुनिया से बहुत दूर। अब उन्हें यह सब कहने की जिम्मेदारी उन लोगों पर छोड़ देनी चाहिए, जो अब भी स्वेच्छा से उन्हें उसी पुराने चश्मे से देखना चाहते हैं।
फिलहाल, मैं जिस हरिवंश को जानता था, वो तब तक सिर्फ हरिवंश थे। राज्यसभा में हमने जिस हरिवंश को जाते देखा, तब तक वे ‘हरिवंश नारायण सिंह’ हो चुके थे।
समाजवादी मित्र और वारिष्ठ पत्रकार अम्बरीश कुमार कहते हैं, ‘हरिवंश निजी जीवन की तरह सदन में भी अपने आचरण से लगातार प्रभावित करते रहे हैं/थे। लेकिन रविवार को सदन में कृषि विधेयकों की ताबड़तोड़ ध्वनिमत से मंजूरी दिलाने और उनकी चाय से लेकर ‘भावुक चिट्ठी’ तक की इस ‘अभूतपूर्व प्रक्रिया’ में जो कुछ ध्वनियां निकली हैं, उससे वे एक बार फिर से अलग कारणों से चर्चा में हैं और यह स्वाभाविक भी है।’अम्बरीश कहते हैं कि शायद इसके पीछे भी कोई भविष्य कि किसी बड़ी मंजिल की उम्मीद हो।
हालांकि, मंगलवार की सुबह धरने पर बैठे सांसदों की दरी पर बैठकर, उन्हें चाय पिलाने, उनके साथ चाय पीते हुए उनके तंजिया बयानों ने उन्हें जितना विचलित किया होगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उनकी प्रशंसा वाले ट्वीट उन्हें कितना संतुष्ट कर पाएंगे, फ़िलहाल इसे लेकर किसी निष्कर्ष या निकष पर पहुंचना मुश्किल है। शायद उनके अति करीबी मित्रों के लिए भी यह कठिन ही हो।
अवसरवादी और समझौतावादी हरिवंश उनकी नैतिकता खरी न उतरने के कई उदाहारण हैं। उनके अत्यंत करीबी रहे एक मित्र बताते हैं कि- ‘जिनके खिलाफ उन्होंने मुहिम चलाई (लालू प्रसाद), उन्हीं के दल (राजद) के साथ जब नीतीश के जदयू का समझौता हुआ तो हरिवंश महज इसलिए चुप्पी साधे रहे कि उनकी राज्यसभा की कुर्सी स���ामत रहे। ये वही प्रसंग है जब हरिवंश न सिर्फ सम्पादक के रूप में बल्कि एक छद्म नाम से रिपोर्टिंग करके भी (जिसे वे खुद भी स्वीकार करते हैं) अपने अखबार में लालू यादव का चिट्ठा खोलने, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने में कोई कोताही नहीं की थी। इसी कारण उनसे रिश्ते भी बिगड़े थे। हालांकि बाद के घटनाक्रमों से यह भी पुष्ट हुआ कि इस पूरे ‘खुलासा प्रकरण’ में सच चाहे जितना रहा हो, उनकी पत्रकारीय मंशा संदेह के घेरे में ही रही। वरना कोई कारण नहीं था कि 2015 में जब नीतीश कुमार का जदयू और लालू प्रसाद का राजद हाथ मिला रहे थे, वह पत्रकारीय नैतिकता दिखाते तो इस्तीफा देकर अलग हो जाते। पत्रकारीय नैतिकता भी बची रहती, राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी किसी और दल से तो पूरी हो ही जाती।
नीतीश की नाराजगी भी खामोशी से झेली 2009 की बात है। राज्यसभा का रास्ता लगभग साफ था लेकिन चुनाव के दौरान हरिवंश से थोड़ी ‘चूक’ हो गई। बांका से लोकसभा प्रत्याशी (जदयू के बागी) दिग्विजय सिंह के नामांकन समारोह में पहुंचे थे और बाकायदा मंच पर आसीन थे। तब वे प्रभात खबर के प्रधान सम्पादक थे। मैं उन दिनों भागलपुर में था और मुझे याद है कि उस समारोह में प्रभाष जोशी और अनुपम मिश्र भी आए थे। सबने न सिर्फ वह मंच साझा किया था बल्कि सम्भवतः हाथ में तलवार लेकर फोटो भी खिंचाई थी। उस माहौल में कुछ अप्रिय दीखते सवालों से असहज भी हुए थे। असहज तो प्रभाषजी भी हुए थे लेकिन दोनों के असहज होने का मीटर बहुत अलग था।
हरिवंश के अत्यंत प्रिय और उनकी टीम में लम्बे समय संपादक रहे रवि प्रकाश की फेसबुक पर लिखी यह टिप्पणी अपने आप में एक मुकम्मल तस्वीर दिखा देती है। रवि लिखते हैं- ‘आप पत्रकारिता में हमारे हीरो थे। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ते थे। ईमानदार थे। शानदार पत्रकारिता करते थे। ‘जनता’ और ‘सरकार’ में आप हमेशा जनता के पक्ष में खड़े हुए। आपको इतना मज़बूर (?) पहले कभी नहीं देखा। अब आप अच्छे मौसम वैज्ञानिक हैं। आपको दीर्घ जीवन और सुंदर स्वास्थ्य की शुभकामनाएं सर। आप और तरक्की करें। हमारे बॉस रहते हुए आपने हर शिकायत पर दोनों पक्षों को साथ बैठाकर हमारी बातें सुनी। हर फैसला न्यायोचित किया। आ�� आपने एक पक्ष को सुना ही नहीं, जबकि उसको सुनना आपकी जवाबदेही थी। आप ऐसा कैसे कर गए सर? यक़ीन नहीं हो रहा कि आपने लोकतंत्र के बुनियादी नियमों की अवहेलना की।
करीब दस साल पहले एक बड़े अखबार के मालिक से रुबरू था। इंटरव्यू के वास्ते। उन्होंने पूछा कि आप क्या बनना चाहते हैं। जवाब में मैंने आपका नाम लिया। वे झल्ला गए। उन्होने मुझे डिप्टी एडिटर की नौकरी तो दे दी, लेकिन वह साथ कम दिनों का रहा। क्योंकि, हम आपकी तरह बनना चाहते थे। लेकिन आज...!
एक बार झारखंड के एक मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लाने के लिए सरकारी हेलिकॉप्टर भेजा। आपने पहले पन्ने पर खबर छापी। बाद में उसी पार्टी के एक और मुख्यमंत्री हर सप्ताहांत पर सरकारी हेलिकॉप्टर से ‘घर’ जाते रहे। आपका अखबार चुप रहा। हमें तभी समझना चाहिए था। आपके बहुत एहसान हैं। हम मिडिल क्लास लोग एहसान नहीं भूलते। कैसे भूलेंगे कि पहली बार संपादक आपने ही बनाया था। लेकिन, यह भी नहीं भूल सकते कि आपके अख़बार ने बिहार में उस मुख्यमंत्री की तुलना चंद्रगुप्त मौर्य से की, जिसने बाद में आपको राज्यसभा भेजकर उपकृत किया। आपकी कहानियाँ हममें जोश भरती थीं। हम लोग गिफ़्ट नहीं लेते थे। (कलम-डायरी छोड़कर) यह हमारी आचार संहिता थी। लेकिन, आपकी नाक के नीचे से एक सज्जन सूचना आयोग चले गए। आपने फिर भी उन्हें दफ्तर में बैठने की छूट दी। जबकि आपको उनपर कार्रवाई करनी थी। यह आपकी आचार संहिता के विपरीत कृत्य था। बाद में आप खुद राज्यसभा गए। यह आपकी आचार संहिता के खिलाफ बात थी। ख़ैर, आपके प्रति मन में बहुत आदर है। लेकिन, आज आपने संसदीय नियमों को ताक पर रखा। भारत के इतिहास में अब आप गलत वजहों के लिए याद किए जाएंगे सर। शायद आपको भी इसका भान हो। संसद की कार्यवाही की रिकार्डिंग ��िर से देखिएगा। आप नज़रें ‘झुकाकर’ बिल से संबंधित दस्तावेज़ पढ़ते रहे। सामने देखा भी नहीं और उसे ध्वनिमत से पारित कर दिया। संसदीय इतिहास में ‘पाल’ ‘बरुआ’ और ‘त्रिपाठी’ जैसे लोग भी हुए हैं। आप भी अब उसी क़तार में खड़े हैं। आपको वहां देखकर ठीक नहीं लग रहा है सर। हो सके तो हमारे हीरो बने रहने की वजहें तलाशिए। शुभ रात्रि सर।
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हरिवंश नारायण सिंह लगातार दूसरी बार राज्यसभा में उपसभापति चुने गए हैं। साल 2014 में पहली बार जदयू ने हरिवंश को राज्यसभा के लिए प्रस्तावित किया था। - फाइल फोटो
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जब भी भारत में विमान हाईजैक की बात आती है तो कंधार हाईजैक या नीरजा भनोट का जिक्र होता है। लेकिन, इससे पहले 1976 में भी इंडियन एयरलाइंस का विमान हाईजैक हुआ था। आज का इतिहास उसी हाईजैक से जुड़ा है।
इंडियन एयरलाइंस के विमान ने आज से 54 साल पहले दिल्ली से मुंबई के लिए उड़ान भरी थी। बोइंग 737 विमान में 66 यात्री थे। कुछ कश्मीरी युवक आजाद कश्मीर के मुद्दे पर ध्यान खींचना चाहते थे। इसी वजह से उन्होंने इंडियन एयरलाइंस के विमान को हाईजैक करने का फैसला किया था।
जहाज कमांडर बीएन रेड्डी और को-पायलट आरएस यादव चला रहे थे। उन्हें मुंबई से पहले जयपुर और औरंगाबाद रुकना था। टेक-ऑफ करते ही दो लोग कॉकपिट में आ गए। उन्होंने रेड्डी की कनपटी पर बंदूक अड़ाई और विमान लीबिया ले जाने के लिए अड़ गए।
पायलटों ने ईंधन कम होने का बहाना बनाया। विमान लाहौर (पाकिस्तान) ले गए। वहां पर मैप्स न होने का बहाना बनाया। पाकिस्तान के अधिकारियों ने मदद की और खाने में बेहोशी की दवा मिलाकर आतंकियों को गिरफ्तार कर लिया। 11 सितंबर 1976 को विमान सभी यात्रियों को लेकर भारत लौटा।
रणजीत सिंह का जन्म; उनके नाम से होती है रणजी ट्रॉफी
रणजीत सिंह 1907 से 1933 तक नवानगर के महाराजा भी रहे।
गुजरात के नवानगर में 10 सितंबर 1872 को सर रणजीत सिंह विभाजी जडेजा यानी रणजी का जन्म हुआ था। उनके नाम पर ही हमारे देश में घरेलू क्रिकेट का सबसे बड़ा टूर्नामेंट रणजी ट्रॉफी खेला जाता है। वे नवानगर के 1907 से 1933 महाराजा भी रहे। रणजी भारत के पहले टेस्ट क्रिकेटर हैं, जिन्होंने इंग्लिश क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और ससेक्स के लिए काउंटी क्रिकेट भी खेला। पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने 1935 में रणजी ट्रॉफी की शुरुआत की। भूपिंदर सिंह के भतीजे दुलीप सिंह ने भी इंग्लैंड में फर्स्ट-क्लास क्रिकेट खेला और इंग्लिश क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व भी किया।
174 साल पहले सिलाई मशीन का आविष्कार
सिलाई मशीन के आविष्कारकएलायस होवे।
आज दुनिया के फैशन में तरह-तरह के कपड़े देखने को मिलते हैं। लेकिन, क्या यह बिना सिलाई मशीन के संभव होता? शायद नहीं। अमेरिका की टेक्सटाइल कंपनी में बतौर ट्रेनर 1835 में एलायस होवे ने काम शुरू किया। वहीं रहकर कड़ी मेहनत की और 11 साल में एलायस होवे ने ही ��िलाई मशीन बनाई थी। 10 सितंबर 1846 को उन्होंने इसका पेटेंट करवाया था।
इतिहास के पन्नों में आज के दिन को इन घटनाओं की वजह से भी याद किया जाता है...
सोवियत संघ ने 10 सितंबर 1961 में नोवाया जेमलिया क्षेत्र में परमाणु परीक्षण किया।
संसद ने 1966 में पंजाब एवं हरियाणा के गठन को मंजूरी दी।
संयुक्त राष्ट्र आम सभा में 1996 को व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि 3 के मुकाबले 158 मतों से स्वीकृत, भारत सहित तीन देशों द्वारा संधि का विरोध।
येवगेनी प्रीमाकोव को 1998 में रूस का नया प्रधानमंत्री मनोनीत किया गया, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया परमाणु अप्रसार की दिशा में समन्वित प्रयास करने पर सहमत।
यूरोपीय देश स्विट्जरलैंड 2002 में संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना।
सर्वोच्च न्यायालय ने 2008 में उपहार अग्निकांड मामले में दोषी ठहराए गए अंसल बंधुओं की जमानत रद्द की।
जेट एयरवेज प्रबंधन और उसके पायलट व्यापक समझौते पर 2009 में राजी हुए।
इराक में 2013 को सिलसिलेवार बम धमाकों में 16 लोगों की मौत।
रियो पैरा ओलिंपिक में मरियप्पन थंगवेलु ने 2016 में स्वर्ण पदक और वरुण भाटी ने कांस्य पदक जीता।
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44 years ago flight hijack of Indian Airlines, 148 years ago the birth of cricketer Ranjit Singh in whose name is played Ranji Trophy
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आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा की लक्ष्मीश्री (परिवर्तित नाम) के चेहरे पर काफी गहरे निशान थे। पति ने उन पर सब्जी काटने वाले चाकू से हमला किया था। घाव में पस पड़ गया था। लक्ष्मी के पास इलाज करवाने के पैसे नहीं थे। उन्हें उनका भाई सरकारी अस्पताल में ले गया था, जहां हालत बिगड़ती जा रही थी। फिर उसने महिलाओं के लिए काम करने वाले एनजीओ में संपर्क किया और बहन के प्राइवेट अस्पताल में इलाज के लिए 75 हजार रुपए की मदद मांगी। दो दिन में ही उसे 50 हजार रुपए की मदद दे दी गई और बहन का इलाज भी शुरू हो गया। अब लक्ष्मी की हालत ठीक है।
पति के हमले से लक्ष्मीश्री को चेहरे पर काफी गहरी चोट आई थी। वे कई दिनों तक अस्पताल में एडमिट रहीं।
इस मामले में 13 जून को एफआईआर दर्ज हुई थी। यह घरेलू हिंसा का मामला था, जिसमें नशे में पति ने पत्नी पर हमला किया था। लक्ष्मी यह दर्द बीते आठ सालों से सह रही है। उसे कोई रास्ता नजर नहीं आता। पति शराब पीकर आता है और उसके साथ मारपीट करता है। इस बार के हमले से तो मरते-मरते बची। लक्ष्मी को जिस महिला से मदद मिली वो भी घरेलू हिंसा की शिकार रही हैं और अब न सिर्फ अपने कदमों पर खड़ी हैं, बल्कि अपने एनजीओ के जरिए तमाम महिलाओं की मदद भी कर रही हैं। इनका नाम है रेने ग्रेसे।
रेने की शादी 18 साल की उम्र में ही हो गई थी। उनकी हालत तो ऐसी थी कि जब उनके साथ घरेलू हिंसा हो रही थी, तब उन्हें ये भी नहीं पता था कि जो हो रहा है, वो घरेलू हिंसा होती है। कई सालों तक प्रताड़ित होते रहीं, फिर समझ आया कि उनके साथ हिंसा की जा रही है। फिर उन्होंने न सिर्फ पति को छोड़ा, बल्कि महिलाओं की मदद के लिए एनजीओ भी बना दिया और खुद एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम भी करती हैं।
लॉकडाउन में लोगों के पास खाने तक को नहीं था। रेने कहती हैं, हमने इन्हें आर्थिक मदद के साथ ही मेंटल सपोर्ट भी दिया।
लक्ष्मी का मामला invisible scars की फाउंडर एकता विवेक वर्मा के पास आया था। उन्होंने अपने फेसबुक पर इसे पोस्ट किया। वहां से रेने को इस बारे में पता चला और वो महिला की मदद के लिए फंड इकट्ठा करने में जुट गईं। एकता कहती हैं, दो दिन में ही 50 हजार जुटा लिए गए।
दरअसल, रेने इस दर्द को इसलिए बहुत अच्छे से समझती हैं कि वो खुद इससे गुजर चुकी हैं। लॉकडाउन में ऐसी तमाम सर्वाइवर तकलीफों का सामना कर रही महिलाओं की मदद के लिए आगे आई हैं, जो खुद इसका शिकार हो चुकी हैं। मप्र के भोपाल में ऐसा ही गौरवी वन स्टॉप सेंटर है, जो दिल्ली में 2012 में हुए गैंगरेप कांड के बाद बना है। यह संस्था पीड़ितों को कानूनी, वित्तीय, सामाजिक और साइकोलॉजिकल सपोर्ट देती है।
गौरवी को मैनेज करने वाली एक्शन इंडिया संस्था की डायरेक्टर सारिका सिन्हा कहती हैं, लॉकडाउन में उनके सेंटर को 1400 कॉल मदद के लिए आए। इसमें घरेलू हिंसा के साथ ही बलात्कार, तस्करी और गर्भवती महिलाओं के साथ हुई हिंसा की शिकायतें भी शामिल थीं।
इसमें खास बात ये है कि जो महिलाएं पहले हिंसा का शिकार रही हैं, वही अब अपनी इच्छा से दूसरी पीड़ित महिलाओं के लिए आगे आ रही हैं। सीमा (परिवर्तित नाम) की 2002 में शादी हुई थी। शादी के बाद से ही वे घरेलू हिंसा का शिकार थीं। उनके साथ मारपीट होती थी। कुछ साल अकेली रहीं। फिर 2005 से उन्होंने कामधंधा शुरू किया। 2017 में उनके और पति के बीच समझौता भी हो गया और अब सब साथ में ही रहते हैं। सीमा ने पूरे लॉकडाउन में राशन बांटने का काम किया है।
कहती हैं, गौरवी सेंटर से राशन के पैकेट मिलते थे, हम सुबह 9 बजे से बांटने निकल जाते थे। हमें सेंटर के जरिए ही पता चलता था कि किस क्षेत्र से कॉल आए हैं, जहां सबसे ज्यादा परेशानी है। राशन बांटने में पूरा दिन लग जाता था और यह काम सीमा सहित तमाम महिलाएं मुफ्त में करती हैं, क्योंकि वो उस दर्द को समझती हैं, जो उन्हें मिला। इसलिए दूसरी महिलाओं की मदद करना चाहती हैं। कहती हैं, घर में खाने-पीने को न हो तो मारपीट शुरू हो जाती है और महिलाओं को हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है।
गौरवी से जुड़ी महिलाएं इस तरह रोजाना राशन बांटने निकलती थीं। इस काम में उन्हें पूरा दिन बीत जाता था।
ऐसी ही एक योद्धा राधिका (परिवर्तित नाम) भी हैं, जिनकी 2014 में शादी हुई थी। पति और सास से अनबन होती थी, जो बाद में मारपीट में बदल गई। वे हर रोज तलाक की धमकी देते थे। 2015 में राधिका ससुराल छोड़कर आ गईं। कहती हैं, लॉकडाउन में और इसके पहले भी जो भी परेशान महिलाएं मेरे संपर्क में आती हैं, मैं उन्हें परामर्श देती हूं। संस्था में ले जाती हूं। वहां सर, मैडम से बात करवाती हूं। लॉकडाउन में बहुत सारी महिलाओं का खाने के लिए फोन आया। उनके घर मैंने सामान की किट बांटी। उसमें सिर्फ राशन ही नहीं, बल्कि सैनेटरी पैड भी थे। दोनों टाइम राशन मिलने से कई परिवार बर्बाद होने से बच गए।
राधिका कहती हैं, लॉकडाउन में कइयों के घर तो इलाज न करवा पाने के चलते भी टूटे। सुमन लोधी (परिवर्तित नाम) के बच्चे के दिमाग में कुछ दिक्कत थी। पति ने इलाज करवाने के बजाए गांव जाने की बात कही। हम उस महिला के बारे में पता चला तो हमने संस्था के जरिए न सिर्फ उसके बच्चे का इलाज करवाया, बल्कि उसे अकेले खड़े होने की ताकत भी दी।
राधिका कहती हैं, हमने जो दर्द सहा है, उसे बहुत अच्छे से जानते हैं इसलिए इस दौर में उन महिलाओं की मदद करना चाहते हैं, जो परेशान हैं। राधिका की ही तरह माया भी घरेलू हिंसा से पीड़ित रही हैं। पति शक करते थे। किसी से बात नहीं करने देते थे। कुछ कहो तो मारपीट करते थे। इसके बाद माया ने खुद को ससुराल से दूर कर लिया। लॉकडाउन में जो खाने के पैकेट बांटे जाते थे, उन्हें पैक करने का काम करती थीं। कहती हैं, ऐसा करके सुकून मिलता है।
इन हेल्पलाइन नंबर पर आप कॉल कर मदद ले सकते हैं।
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Lakshmi had deep marks on her face, she was attacked by her husband with a vegetable cutting knife, a call from the brother was very useful.
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यारों के यार और भारत माता के वीर सपूत लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा का जन्म 1974 में पालमपुर में हुआ था। जिस समय दुश्मन ने कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया था, तब सेना की 12 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में तैनात थे। विक्रम बत्रा के नेतृत्व में टुकड़ी ने हम्प व राकी नाब स्थानों को जीता और इस पर उन्हें कैप्टन बना दिया था।
श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर महत्वपूर्ण 5140 पॉइंट को पाक सेना से मुक्त कराया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बाद भी कैप्टन बत्रा ने 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को कब्जे में लिया। कैप्टन बत्रा ने जब रेडियो पर कहा- ‘यह दिल मांगे मोर’ तो पूरे देश में उनका नाम छा गया। इसके बाद 4875 पॉइंट पर कब्जे का मिशन शुरू हुआ। तब आमने-सामने की लड़ाई में पांच दुश्मन सैनिकों को मार गिया। गंभीर जख्मी होने के बाद भी उन्होंने शत्रु की ओर ग्रेनेड फेंके। खुद जीवित नहीं रहे, लेकिन भारतीय सेना को मुश्किल जीत दिलाई। कैप्टन बत्रा को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
100 साल का हुआ एएमयू
1856 में अलीगढ़ भारतीय मुसलमानों का सांस्कृतिक केंद्र बन गया था। सर सैयद अहमद खां ने यहां एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज बनाया था। कुछ ही दिनों में यह मुसलमानों को अंग्रेजी शिक्षा देने वाला प्रमुख केंद्र बन गया। 1920 में अलीगढ़ कॉलेज एक मुस्लिम यूनिवर्सिटी बन गया। इस दौरान यह राजनीतिक गतिविधियों का भी प्रमुख केंद्र बन चुका था। जब कॉलेज बना था, तब इसके पास 78 एकड़ जमीन थी, अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनवर्सिटी (एएमयू) का परिसर एक हजार एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
क्वीन एलिजाबेथ ने रचा इतिहास
क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय इस समय यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जमैका, बारबडोस, बहामास, ग्रेनेडा, पापुआ न्यू गिनी आदि देशों की महारानी हैं। वह कॉमनवेल्थ के 54 देशों की प्रमुख हैं और ब्रिटिश महारानी के तौर पर इंग्लिश चर्च की सुप्रीम गवर्नर हैं। भारत समेत कॉमनवेल्थ के 15 स्वतंत्र देशों की संवैधानिक महारानी हैं। 6 फरवरी 1952 को उनका राज्याभिषेक हुआ और 2015 में 9 सितंबर को उन्होंने अपनी परदादी क्वीन विक्टोरिया के सबसे लंबे शासनकाल का कीर्तिमान तोड़ दिया। वह आज तक ब्रिटेन पर सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली क्वीन हैं।
क्वीन एलिजाबेथ का फरवरी 1952 में राज्याभिषेक हुआ था।
इतिहास के पन्नों में आज के दिन को इन घटनाओं की वजह से भी याद किया जाता है…
1776: कांग्रेस ने औपचारिक रूप से यूनाइटेड कॉलोनी से बदलकर देश का नाम यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका यानी यूएसए रखा।
1828: प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का जन्म हुआ।
1945: पहले कंप्यूटर बग की खोज हुई।
1948: यूएसएसआर की मदद से किम II-संग ने डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया बनाया।
1939ः द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजी सेना वर्साय पहुंची।
1965ः ��िब्बत चीन का स्वायत्त क्षेत्र बना।
1967ः युगांडा ब्रिटेन से आज़ाद हुआ।
1976: चीन के मार्क्सवादी नेता माओ जेडोंग की मौत हुई थी। 1949 में कम्युनिस्ट टेकओवर के बाद की अवधि में उनका चीन पर प्रभुत्व रहा।
1991ः तज़ाकिस्तान ने सोवियत संघ से स्वतंत्रता हासिल की।
1999ः भारत के महेश भूपति तथा जापान की आर्क सुगियामा की जोड़ी ने अमेरिकी ओपन का मिक्स डबल्स खिताब जीता।
2004ः फ़िलिस्तीन के प्रधानमंत्री अहमद कुरेई ने अपने पद से इस्तीफा दिया।
2005ः बीजिंग (चीन) स्थित छाओयांग पार्क में महात्मा गांधी की प्रतिमा का अनावरण।
2006ः अंतरराष्ट्रीय दबाव को देखते हुए इजरायल ने लेबना�� की आठ हफ्तों की नौसैनिक घेराबन्दी समाप्त की।
2012: इसरो ने लगातार 21 सफल पीएसएलवी लॉन्च पूरे किए।
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Birth of Bharat Veer Support Captain Vikram Batra 46 years ago, Establishment of Aligarh Muslim University 100 years ago
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दिल्ली के किदवई नगर इलाके के पूर्वी छोर से एक बड़ा नाला गुजरता है। इसे कुशक नाला भी कहते हैं। 28 साल के अरुण इसी नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में पैदा हुए थे। अरुण जब छोटे थे तो इस इलाके में उनकी झुग्गी के इर्द-गिर्द ज़्यादा कुछ नहीं था।
यहां बना आयुष भवन हो, केंद्रीय सतर्कता आयोग का ऑफ़िस हो या एनबीसीसी की बहुमंजिला इमारतें, सब उनके देखते-देखते ही बने। बारापुला फ्लाइओवर को बने तो अभी कुछ ही साल हुए हैं जो उनकी झुग्गी बस्ती के ठीक ऊपर किसी सीमेंट के इंद्रधनुष की तरह उग आया है।
अरुण जैसे-जैसे बड़े हुए, उनके आस-पास का हरा-भरा इलाका कंक्रीट के जंगल में बदलता गया और उनकी झुग्गी बस्ती लगातार इसके बीच सिमटती चली गई। बचपन में वे झुग्गी के पास के जिन खाली मैदानों और पार्कों में खेला करते थे, वहां अब आलीशान कॉलोनियां बन चुकी हैं। इनमें हर समय निजी सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं और निगरानी रखते हैं कि झुग्गी के बच्चे कॉलोनी के पार्क में खेलने न चले आएं।
इस झुग्गी बस्ती के अधिकतर लोग मजदूर हैं, मिस्त्री हैं या पुताई का काम करते हैं। आस-पास बनी तमाम बड़ी-बड़ी इमारतों को इन्हीं लोगों ने अपनी मेहनत और पसीने से सींच कर खड़ा किया है। लेकिन जैसे-जैसे ये सुंदर इमारतें बनती गई, इन लोगों के लिए अपनी झुग्गी बचाए रखना भी मुश्किल होता गया। शहर के सौंदर्यीकरण में इनकी झुग्गियां बट्टा लगाती थी लिहाज़ा इन्हें हटा लेने का दबाव लगातार बढ़ने लगा।
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से ज्यादा है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं।
21वीं सदी शुरू होते-होते ये दबाव बेहद बढ़ गया। भारत को राष्ट्रमंडल खेलों का मेज़बान बनना था और इसके लिए दिल्ली को दुल्हन की सजाना शुरू हुआ। इस सजावट में झुग्गियां बड़ा रोड़ा बन रही थी लिहाज़ा एक-एक कर कई झुग्गियां गिराई जाने लगी।
अरुण बताते हैं, ‘कुछ झुग्गी वालों का पुनर्वास हुआ और बाकी सबको बिना किसी पुनर्वास के ही उजाड़ दिया गया। हमें भी कह दिया गया था कि दिल्ली छोड़ कर चले जाओ।’
इसी झुग्गी के रहने वाले 60 वर्षीय महेंद्र दास याद करते हैं, ‘उस वक्त शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हुआ करती थी। हम उसके पैरों में गिर गए थे और बहुत गिड़गिड़ाए थे कि हमारे घर मत उजाड़ो। लेकिन, उसने हमारी एक न सुनी और पूरी बस्ती पर बुलडोजर चढ़ा दिया। कई साल से जोड़-जोड़ जो बनाया था वो एक ही बार में रौंद दिया गया। कई रात हम अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर सोए।’
वक्त बीता तो महेंद्र दास और उनकी झुग्गी वालों के घाव भी धीरे-धीरे भरने लगे। इन लोगों ने उसी नाले के किनारे एक बार फिर अपना आशियाना बसा लिया, जहां से इन्हें उखाड़ दिया गया था।
महेंद्र की पत्नी गीता दास कहती हैं, ‘झुग्गी में कौन रहना चाहता है? यहां बहुत दिक्कत होती है। बरसात में नाले का सारा गंदा पानी हमारे घरों में भर जाता है। जब से ये बारापुला बना है, दिक्कत और भी बढ़ गई है। रात में कई बार शराबी इस पुल पर खड़े होकर लड़कियों को अश्लील इशारे करते हैं, हमारी झुग्गियों पर पेशाब कर देते हैं और कूड़ा-कचरा-बियर की बोतलें हमारे ऊपर फेंकते हैं। लेकिन, यहां कम से कम हमारे सर पर छत है इसलिए झुग्गी में रहते हैं।’
ऐसी नारकीय स्थिति में जीने को मजबूर इन झुग्गी वालों के लिए बीता साल कुछ खुशियां लेकर आया। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी डूसिब ने तय किया कि इन लोगों का पुनर्वास होगा और इन्हें झुग्गी के बदले फ्लैट आवंटित किए जाएंगे। इसके लिए झुग्गियों का सर्वे किया गया और लोगों से पुनर्वास की रक़म भी जमा करवाई गई। अनुसूचित जाति के लिए 31 हजार रुपए और सामान्य वर्ग के लिए एक लाख 42 हजार की रक़म तय की गई।
इस झुग्गी के लगभग सभी लोग यह रक़म जमा कर चुके हैं। लेकिन क़रीब डेढ़ साल बीत जाने क�� बाद भी जब आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इन लोगों मन में कई सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल इसलिए भी मज़बूत होते हैं क्योंकि दिल्ली में हजारों लोग ऐसे भी हैं जो बीते 12-13 साल से पुनर्वास की राह देख रहे हैं और जिनका पुनर्वास अदालत की फाइलों में कहीं उलझ कर रह गया है। राजेंद्र पासवान ऐसे ही एक व्यक्ति हैं।
राजेंद्र राजघाट के पीछे यमुना किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहा करते थे। साल 2007 में जब यह झुग्गी बस्ती गिराई गई तो इन लोगों से पुनर्वास का वादा किया गया। इसके लिए राजेंद्र पासवान ने उस दौर में 14 हजार रुपए का भुगतान भी किया और जमीन आवंटित होने का इंतजार करने लगे। उनका ये इंतजार आज तक ख़त्म नहीं हुआ है। उनके साथ ही उस बस्ती के क़रीब नौ सौ अन्य परिवार भी इसी इंतजार में बीते 13 सालों से आस लगाए बैठे हैं।
झुग्गी के लोग शहर में ही मजदूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
डूसिब के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में कुल 45,857 ऐसे फ्लैट या तो बन चुके हैं या दिसम्बर 2021 तक बनकर तैयार हो जाएंगे, जिनमें झुग्गी बस्ती के लोगों को बसाया जाना है। इनमें से अधिकतर फ्लैट राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ही बनाए गए थे जब तेजी से दिल्ली की झुग्गियां गिराई जा रही थी। लेकिन, इतने फ्लैट होने के बावजूद भी राजेंद्र पासवान जैसे लोगों को पुनर्वास के लिए सालों-साल इंतजार क्यों पड़ रहा है?
इस सवाल के जवाब में डूसिब के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास में कई अलग-अलग विभागों की भूमिका होती है। डूसिब भले ही पुनर्वास के लिए नोडल एजेंसी है लेकिन इसके अलावा रेलवे, डीडीए और दिल्ली कैंटोनमेंट बोर्ड जैसी केंद्रीय एजेंसियों की भी अहम भूमिका होती है। नियम ये है कि जिसकी जमीन पर झुग्गियां हैं उसी एजेंसी को पुनर्वास के लिए भुगतान करना होता है।’
ये अधिकारी आगे कहते हैं, ‘प्रत्येक झुग्गी के पुनर्वास में साढ़े सात लाख से लेकर साढ़े 11 लाख रुपए तक का खर्च होता है। फ्लैट तो बने हैं लेकिन जब तक कोई एजेंसी ये रक़म नहीं चुकाती, फ्लैट आवंटित नहीं हो सकते। इसीलिए कई मामलों में सालों-साल तक यह प्रक्रिया लटकी ही रह जाती है।’
दिल्ली में क़रीब सात सौ झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या चार लाख से अधिक बताई जाती है। इनमें से लगभग 75% झुग्गियां केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों या मंत्रालयों की जमीन पर बसी हैं। मसलन रेलवे, रक्षा मंत्रालय और डीडीए की जमीनों पर। इनके अलावा 25 % झुग्गियां दिल्ली सरकार की जमीनों पर हैं।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो दिल्ली में झुग्गी बस्तियों के पुनर्वास की 75% जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है जिनकी जमीनों पर 75% झुग्गियां हैं। डूसिब के अधिकारी दावा करते हैं कि बीते पांच सालों में उन्होंने 15 झुग्गी बस्तियों का पुनर्वास सफलता से कर दिया है। लेकिन झुग्गियों के पुनर्वास के ये कथित सफल प्रयोग दिल्ली में खोजने से भी नहीं मिलते।
सामाजिक कार्यकर्ता और झुग्गी बस्ती वालों के लिए मज़बूती से आवाज़ उठाने वाले दुनू रॉय बताते हैं, ‘सरकार की पुनर्वास नीति में बहुत ज़्यादा खामियां हैं इसलिए ये पुनर्वास कभी सफल नहीं हो पाता।’ वे कहते हैं, ‘झुग्गी के लोगों के लिए अपनी झुग्गी सिर्फ़ रहने का ही नहीं बल्कि काम का भी ठिकाना होती है। झुग्गी बस्ती में लोग अपनी दहलीज़ और गलियों में ही छोटे-छोटे कई काम करते हैं।
लेकिन फ्लैट में न तो दहलीज़ का इस्तेमाल हो सकता है और न गलियारों का। ऊपर से ये फ्लैट इतने छोटे होते हैं कि इनमें किसी का भी गुज़ारा नहीं हो सकता। ये फ्लैट बनाए भी शहर से दूर गए हैं इसलिए भी यहां लोग रहना पसंद नहीं करते क्योंकि वहां उनके लिए खाने-कमाने के कोई साधन ही नहीं है।’
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया है।
दुनू रॉय सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि सरकारें भी नहीं चाहती कि ये झुग्गी वाले ठीक से बस जाएं। क्योंकि, अगर ये अच्छे से बस गए तो सस्ता श्रम जो इनसे मिलता है, वो कहां से आएगा। झुग्गी के लोग शहर में ही मज़दूरी करते हैं और इनकी महिलाएं आस-पास की कोठियों या बड़ी इमारतों में घरेलू काम के लिए जाती हैं।
ये लोग शहर से दूर कैसे रह सकते हैं। इसलिए जिन्हें फ्लैट मिलते भी हैं वो इसे बेचने को मजबूर हो जाते हैं। बिल्डर इन झुग्गी वालों से सस्ते दामों पर ये फ्लैट ख़रीद लेते हैं और फिर तीन-चार फ्लैट को मिलाकर एक रहने लायक़ फ्लैट तैयार करके उसे महंगे दामों पर बेच देते हैं।
दिल्ली में क़रीब 45 हजार फ्लैट बन जाने के बाद भी उनमें झुग्गी वालों को नहीं बसाया जा सका है। उसका एक बड़ा कारण इनकी शहर से दूरी भी है। इसे ही देखते हुए साल 2015 में दिल्ली सरकार ने पुनर्वास नीति में बदलाव किया था। इस नीति में तय हुआ है कि अब झुग्गी वालों का पुनर्वास झुग्गी के पांच किलोमीटर के दायरे में ही किया जाएगा।
इस नियम को काफ़ी प्रभावशाली तो माना जा रहा है लेकिन ये धरातल पर उतर पाएगा, इसका यक़ीन फ़िलहाल कम ही लोगों को है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की 140 किलोमीटर रेलवे लाइन के सेफ्टी ज़ोन में बनी क़रीब 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दिया था।
लेकिन, सोमवार को एक प्रेस नोट जारी करते हुए उत्तर रेलवे ने कहा है कि उनके अधिकारी लगातार दिल्ली और केंद्र सरकार के संबंधित विभागों से चर्चा कर रहे हैं और जब तक कोई ठोस फैसला नहीं ले लिए जाता तब तक ये झुग्गियां नहीं तोड़ी ���ाएँगी। ये सूचना रेलवे लाइन के पास बसे 48 हजार झुग्गी वालों के लिए थोड़ी राहत लेकर आई है।
लेकिन, इसके बावजूद भी झुग्गी वालों के पिछले अनुभव उन्हें परेशान होने के कई कारण दे देते हैं। महेंद्र दास जैसे सैकड़ों लोग बिना किसी पुनर्वास के झुग्गी टूटने का दर्द पहले भी झेल चुके हैं और राजेंद्र पासवान जैसे सैकड़ों अन्य लोग झुग्गी टूटने के 13 साल बाद भी पुनर्वास की बाट जोहते जिंदगी बिता रहे हैं। ऐसे में इन लोगों में स्वाभाविक डर है कि जब 12-13 साल पहले अपनी झुग्गियां खाली कर चुके लोगों का ही पुनर्वास अब तक पूरा नहीं हुआ तो इनका पुनर्वास कैसे और कब तक हो सकेगा।
यह भी पढ़ें :
1. दिल्ली का सबसे बड़ा वोट बैंक, ये झुग्गियां / यहां के लोग कहते हैं, मोदी जी को हमारी झुग्गी टूटने की फिक्र नहीं, लेकिन कंगना के घर में तोड़फोड़ पर पूरा देश परेशान है
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People say, standing on the drunken bridge in the night, making indecent gestures to girls, urinating on our slums.
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